मेरे अपने : मंगला रामचंद्रन

Mere Apne : Mangala Ramachandran

नीरा ने कहा, ''आखिर सब मेरे अपने ही तो हैं।’
आस-पड़ोस की महिलाएं नीरा के ड्रॉइंग रूम में बैठीं, किसी न किसी तरह की आत्मप्रशंसा में लगी हुई थीं। साथ ही स्वयं को शहीद की तरह मानकर उनकी चर्चा चल रही थी। बच्चों और पति के लिए कितना और क्या-क्या नहीं करतीं, पर उनके लिए कोई कुछ सोचता ही नहीं। कहीं सास-ससुर-ननद और दूसरे रिश्तों की चिंदी उड़ रही थी और मन की गांठें मजबूत हो रही थीं।

कुछ देर कढ़ी में आए उबाल की तरह खदबदाने के बाद शायद महिलाओं को शांति मिली। तब उनका ध्यान नीरा की ओर गया। हमेशा ही अन्य महिलाएं आश्चर्य करती थीं कि वह कैसे इतनी शांत और प्रसन्नचित्त रहती है? वह तो कभी मन का गुबार भी नहीं निकालती।

आज तो नीरा से पूछ ही लिया गया, ‘नीरा जी, आप हमेशा ही प्रसन्नचित्त कैसे रह पाती हैं? आप तो कभी पति-बच्चों, सास-ससुर-ननद या देवर के बारे में कुछ बोलती भी नहीं हैं।’

नीरा ने हल्की सी मुस्कान के साथ कहा, ‘मैं सच कहूं तो आप विश्वास करेंगी या नहीं, पता नहीं। पर सच यही है कि मैं जब घर के लिए घर के सदस्यों के लिए कुछ करती हूं तो आनंद आता है, मन प्रसन्न हो जाता है। हां अगर बीमारी में या किसी कारण से कभी कुछ कर नहीं पाती तो मन खराब हो जाता है। आखिर सब मेरे अपने ही तो हैं।’

आखिरी वाक्य को उन्होंने जिस तरह संवेदनशील होकर कहा था, उससे बाकी महिलाएं, नीरा को अवाक होकर देखती रह गर्इं।

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