मौत (डोगरी कहानी) : वेद राही

Maut (Dogri Story) : Ved Rahi

आँखों की धुँध सघन होती गयी, कुहरा बढ़ता गया और उसने सारे माहौल को लील लिया। अब मुझे कुछ भी नहीं दिख रहा था-कुछ भी नहीं।

ताँगा शहर की तरफ बढ़ता आ रहा था और मैं हिचकोले खाता हुआ उस कुहरे में से निकलने का यत्न करने लगा।
मैं अब कुछ-कुछ देखने में समर्थ हो रहा था। धुँध में से उभरते हुए कुछ चित्र दिखाई देने लगे थे। उन चित्रों में मुझे उस जिन्दगी के नक़्श दिख रहे थे, जो जिन्दगी काँच की गुड़िया-सी नांजुक थी-जो बच्चों की बातों-सी मासूम थी-सत्य थी-लेकिन इस जिन्दगी का दामन मेरे हाथों से छूट चुका था। अब मैं दुबारा उसे नहीं पकड़ सकता था।
वर्षों पहले की बात-
मैं तकली कातने में मग्न था।
उस स्कूल में हमें बहुत-कुछ सिखाया जाता-कताई, बुनाई, खेती और दूसरे कई हुनर। मुझे कातने का बहुत शौक था। तब तीसरी क्लास में पढ़ता था मैं।
अचानक मास्टरजी को मैंने अपने पास खड़े देखा। एक नए लड़के ने उनकी उँगली पकड़ रखी थी।
"यह सलीम है।" मास्टरजी ने कहा।
"अब यह तुम्हारे साथ ही बैठा करेगा। इसे तकली चलाना सिखाओ।"
कहकर मास्टरजी चले गये। मैंने सलीम को अपने पास बिठा लिया।
मुझसे काफी लम्बा कद, खूब गोरा रंग, बड़ा-सा चौड़ा मुंह, माथे पर आये हुए कुछ-कुछ भूरे बाल-सलीम बिलकुल उस लड़के-सा लग रहा था जिसकी रंगीन तस्वीर हमारी उर्दू की किताब में इस कविता के सामने वाले पृष्ठ पर छपी थी-"मैं हूं इक अच्छा-सा लड़का, रेशम का अच्छा-सा लड़का।"
मैं उसे तकली चलाना सिखाने लगा। अचानक देखा तो उसकी नाक बह रही थी। "अरे!" अनायास ही मेरे मुंह से निकल गया। उसने झट से गाढ़ी सफेद-सी वह धारा सांस द्वारा ऊपर चढ़ा ली। मैं हँस पड़ा। वह झेंप गया।

"मदन।" सलीम की आवांज थी। मैं रुका। पीछे मुड़कर देखा-सलीम भागता हुआ आ रहा था। चार-पाँच लड़के उसके पीछे भागे आ रहे थे उसे पकड़ने के लिए। पास पहुँचते ही उसने मुझे बाँह से पकड़ लिया-"मुझे मारने को आ रहे हैं सब।"
मैं मानीटर था। लड़के मुझे देखकर ठहर गये। मोहन सबसे आगे था। वह चाहता तो अकेले ही मुझे और सलीम को बालों से पकड़कर टकरा सकता था।
"क्या किया है इसने?" मैंने लड़कों से पूछा।
इसने मुझे अचानक धक्का देकर एक राह चलते आदमी पर गिरा दिया।" राजू ने बिसूरती आवांज में कहा।
"तो इसमें ऐसी क्या बात हो गयी है?" मैंने कहा।
"उस आदमी ने पकड़कर मुझे पीटा।" कहते हुए राजू रो पड़ा।
"जरा आओ न अब सामने।" मोहन ने सलीम को ललकारा।
सलीम सहमकर सट गया मेरे साथ।
मैंने रोब से काम लिया, "देखो अगर तुम ऐसे लड़ोंगे तो मैं मास्टरजी से तुम सभी की शिकायत करूँगा।" फिर मैंने स्वयं ही सुझाव दिया, "तुम इसे कुछ मत कहो, मैं अभी इसे मास्टरजी के सामने करता हूं।"
लड़के टल गये। मैं सलीम को मास्टरजी के पास ले गया, और कहा, "हमारी क्लास के लड़के बहुत शरारती हो गये हैं, एक-दूसरे मानीटर का होना बहुत जरूरी है। आप सलीम को सहायक मानीटर बना दें।"
लड़के बहुत तिलमिलाये थे, जब मास्टरजी ने सबके सामने घोषणा की कि आज से सलीम श्रेणी का सेकंड मानीटर होगा!

तब हम चौथी में पहुँच गये थे।
गर्मियों की भरी दोपहरियों में, चिलचिलाती धूप में हम घरवालों से चोरी-छिपे नहर पर नहाने चले जाएा करते थे। सुबह स्कूल जाते हुए घर से हमें जो दो-दो पैसे मिला करते थे, उन्हें हम उस समय के लिए बचा लिया करते थे। मैं दो पैसों की एक ककड़ी लेता था, ताकि उससे पानी में खेला जा सके। लगातार दो-तीन घंटे नहाने के बाद हमें बहुत भूख लगा करती थी। तब सलीम अपने दो पैसों के चने-रोटी ले आता था। ककड़ी भी साथ होती, खाने में मजा आता।
सलीम को पानी से डर लगता था, इसलिए वह उथले पानी में ही गधों की तरह कूदता था। गहरे पानी की ओर जाता ही नहीं था। इसलिए उसे तैरना भी नहीं आया। मुझे गहरे पानी में डुबकियाँ लगाने का शौक था। एक बार मैं नहर के ऊपर से गुजरती हुई सड़क से गहरे पानी में छलाँग लगाने जा रहा था। सलीम उस समय किनारे पर खड़ा मुझे छलाँग लगाते हुए देख रहा था। छलाँग लगाते हुए न जाने मेरे मन में क्या सूझी कि पानी में कूदने के बाद बाहर निकलने के बजाय मैं पानी के भीतर आगे बढ़ता गया। बहुत दूर आगे जाकर मैंने अपना सर निकाला। अचानक देखो तो सलीम गहरे पानी में गोते खा रहा था। मैं तुरन्त बाहर निकल कर उसकी ओर भागा, और बड़ी मुश्किल से उसे बाहर निकाला। वह काफी पानी निगल चुका था। बड़ी देर के बाद उसकी सांस ठीक से चली तो कहने लगा, "तुम पानी से बाहर नहीं निकले तो मैंने समझा तुम डूब गये हो। तुम्हें ही बाहर निकालने के लिए मैं ऊपर से कूद पड़ा।"
मुझे बड़ी हंसी आयी।
सलीम मेरी धूर्तता पर कई दिन मुझसे नारांज रहा।

शायद उसके बाद की यह बात है।
तवी नदी के किनारे हम बहुत से लड़के बेर की झाड़ियों में घुसे हुए थे। सभी ने अपनी जेबें बेरों से भरी हुई थीं। मैं और सलीम दोनों एक ऊँचे पेड़ पर चढ़े हुए थे। वापस आने को ही थे कि एक लड़का जोर से चीखा-"साँप!" सभी लड़के पलक-झपकते में यों भागे जैसे वहाँ कोई था ही नहीं। मैं और सलीम इतनी जल्दी पेड़ से नहीं उतर सके। भयभीत होकर जहाँ थे वहीं सिकुड़ गये। लेकिन हमारे हाथ-पाँव ठण्डे पड़ने लगे। हम यों अचल-अवाक् होकर बैठे थे कि जैस अगर हमने आँखों की पुतलियाँ भी इधर-उधर फिरायीं तो अदेखा साँप कहीं से भी हम पर झपट पड़ेगा। साँप का तो हमें कुछ पता ही नहीं था। काफी देर बाद मैंने देखा, दायीं ओर नीचे उस पेड़ से जहाँ पर हम बैठे थे, कोई छ:-सात गज की दूरी पर एक काला साँप पत्थर पर बैठा है। मैं चौंका-लेकिन साँप को इतनी दूरी पर पाकर कुछ साहस भी बँध गया था। "सलीम!" मैंने दबी आवांज में पुकारा। सलीम ने डरते हुए मेरी ओर देखा। मैंने कहा, "वह बैठा है साँप-बहुत दूर है।" सलीम ने घबरा कर उधर देखा। साँप को इतने दूर पाकर वह अपनी डाल से खिसकता हुआ मेरी वाली डाल पर आ बैठा। हम दोनों एक-दूसरे से बिलकुल सट कर बैठ गये। एक-एक हाथ में हमने पेड़ को थामा,एक-एक हाथ से एक-दूसरे को। इतने पास-पास आ जाने से हमें उस जानलेवा भय से छुटकारा-सा मिल गया। हमने ध्यानपूर्वक साँप की ओर देखना शुरू किया। अब मालूम हुआ कि साँप ने अपने मुंह में कुछ दबा रखा है। कोई छोटा-सा चूहा था उसके मुंह में या कोई बड़ी-सी छिपकली। हमें कुछ दिलचस्पी मालूम हुई। साँप का मुंह दूसरी ओर था, इसलिए हमें इस बात की भी तसल्ली हो गयी थी कि हम उसकी नंजरों में नहीं है। अचानक एक अजीब-सी आवांज पैदा हुई। हमने घबरा कर एक दूसरे को थाम लिया। लेकिन इससे पहले कि हम देखते कि क्या हुआ हम झटके से नीचे आ गिरे-डाल टूट गयी थी। गिरते हुए यों महसूस हुआ जैसे प्राण निकल गये हों। साँप तो अब झपटे बगैर नहीं रहेगा, यही सोचकर हम गिरते ही उठ खड़े हुए, कहीं चोट लगने का तो खयाल नहीं आया, साँप की ओर कौन देखता भला, सर पर पाँव रख कर हम भाग खड़े हुए। झाड़ियों के बाहर निकल कर भी भागते ही गये। भय की एक काली-सी रेखा हमारे पीछे भागी आ रही थी। बहुत दूर आकर जब भागने का बिलकुल दम न रहा तो रुकना पड़ा। धीरे-धीरे ढक्की चढ़कर ऊपर आ गये। लेकिन भय तो बना ही रहा-शायद इस बात का कि साँप काट खाता तो घरवाले क़्या कहते!
"मदन तुम हमारे घर क्यों नहीं आते?" एक दिन सलीम ने मुझे कहा। तब हम सातवीं जमात में पहुँच चुके थे। उसके कहने पर मैं उसके घर गया था।
"आदाबर्ज।" मैंने सलीम की अम्मी को कहा। उन्होंने मुझे सीने से लगाकर मेरा माथा चूम लिया। कितनी अच्छी थीं वह! मैं उन्हें देखता ही रह गया। उन्होंने कहा, "सलीम हर वंक़्त तुम्हारी ही बातें करता रहता है। मैं कब से कह रही थी कि तुम्हें एक बार ले आये। चलो बैठो, मैं तुम्हारे लिए दूध लाती हूं।"
सलीम मुझे एक बड़े कमरे में ले गया।
"यही तुम्हारा दोस्त है न?"
"हां आपा।" सलीम ने जवाब दिया।
उसकी आपा कमरे के बीच कालीन पर बैठी हुई थी। उसकी गोद में दूधिया रंग की बिल्ली थी।
"यह मेरी बड़ी बहन है, मदना!"
मैंने हाथ उठाकर सलाम किया। जब मैं उसके सामने बैठा तो उसने अपनी गोद में बैठी हुई बिल्ली को उठाकर एकाएक मुझ पर फेंक दिया। मैं हड़बड़ा कर उठ खड़ा हुआ। सलीम और वह दोनों हँसने लगे। मुझे भी बहुत ही मजा आया। फिर मैं सलीम के अन्ना और बड़े भाई जान से भी मिला। मुझे वे सब अच्छे लगे।
मैं वहाँ रोज-रोज जाता रहा, लेकिन सलीम को कभी भी अपने घर नहीं बुला सका। सलीम ने तो कभी यह शिकायत नहीं की कि मैं उसे अपने घर क्यों नहीं बुलाता, लेकिन मैं मन ग्लानि-सी अनुभव करता था। मुझे अच्छी तरह पता था कि मेरी मां मुसलमानों को म्लेच्छ कहती है, वह राह चलते अनजाने लोगों से बिदक कर चतली है कि किसी मुसलमान या अछूत से छू न जाए। एक बार मेरे बड़े भाई ने अपने एक हरिजन मित्र को बैठक में बिठाकर कहा था कि मैं तुम्हारे लिए चाय लाता हूं, लेकिन मां ने चाय देने से इनकार कर दिया था।
सलीम कभी मेरे साथ घर तक आया भी तो बाहर ही खड़ा हुआ या एकाध बार बैठक में बैठा। कभी पानी भी नहीं पिया उसने। शायद मैंने कभी पूछा भी नहीं। मेरी यह विवशता मेरे मन को कचोटती रहती थी।
"मदन, मेरे अब्बा मुझे मिलिट्री-स्कूल में भरता करवा रहे हैं।" सलीम ने बड़े उदास लहजे में कहा था। उसी दिन हमारी सातवीं का परिणाम निकला था। मैं और सलीम दोनों पास हो गये थे।
मैंने कहा, "मुझे तो हाई स्कूल में दाखिल होना है।"
"मैं भी यही चाहता था, लेकिन अब्बा मेरा नाम छावनी वाले मिलिट्री स्कूल में लिखवा आये हैं।"
हम उस दिन नहर के किनारे जाकर घण्टों बातें करते रहे थे। दूसरे दिन वह छावनी में चला गया था। अब उसे वहीं रहना था। कुछ दिन बाद मैं उसके घर गया तो सलीम की अम्मी मुझे सीने से लगाकर रोने लगी, "बेटा, सलीम तो अब दूर हो गया मुझसे, क्या तुम भी न आया करोगे!"
"आया करूँगा अम्मी जान।" मैंने कहा। उस दिन मैंने उस घर में सभी को उदास पाया था।
कुछ दिन मैं वहा जाता रहा। एक दिन जब वहाँ पहुँचा तो सलीम की अम्मी ने मेरे सर पर हाथ फेरते हुए कहा, "बेटा, अब तुम यहाँ न आया करो।"
"क्यों?" मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ उनकी बात सुनकर।
अम्मी ने मुझे अपने और भी समीप लाते हुए कहा, "बेटा, यह मुसलमानों का मुहल्ला हैं, यहाँ आना अब तुम्हारे लिए खतरे से खाली नहीं।"
मैं चुप हो गया था। उसके बाद मैं फिर वहां नहीं गया। अब सचमुच ही शहर में दंगे-फसाद शुरू हो गये थे। रोज एक-दो हत्याएं हो जाती थीं।
फिर यह दंगे-फसाद बढ़ते ही चले गये। हालत दिनोंदिन बिगड़ती ही चली गयी। आग लगने की घटनाएं भी होने लगी थी।
तभी आंजादी मिलने और पाकिस्तान बनने की घोषणा हो गयी। हर तरफ एक आग-सी लग गयी। गुंडे लोगों की टोलियाँ नंगी तलवारें और बन्दूकें, पिस्तौलें लेकर यों घूमने लगीं कि शरीफ आदमियों का अपने ही मुहल्लों में निकलना बन्द हो गया। हर समय 'हू-हा' और फड़कती हुई गोलियों की आवांजें सुनाई देने लगीं। मुझे खयाल आता तो केवल सलीम का। वह घर वालों से दूर था, क्या उसे अब्बा ने बुला लिया होगा? अम्मी कैसी हैं? आपा और भाई किस हालत में हैं? क्या वे पाकिस्तान जा पाए हैं?
उस दिन मेरी हालत बहुत ही खराब रही जब मैंने सुना कि पाकिस्तान में ले जाने के बहाने बहुत-से मुसलमानों को ऐसी जगहों पर ले जाएा गया है, जहाँ आसानी से उन्हें मारा जा सकता था।
मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा था। मेरी घबराहट चाहे बहुत बढ़ी हुई थी, लेकिन मेरी कल्पना में ऐसा स्पष्ट दृश्य कोई नहीं उभरा था कि सलीम या उसके घरवालों में से किसी का भी कोई बाल बाँका हुआ हो।
तभी कबाइलियों ने जम्मू कश्मीर पर हमला कर दिया। लोग भागने लगे। मुझे मेरे घरवालों ने एक भागते हुए पड़ोसी के साथ अमृतसर भेज दिया। वहाँ मेरे नाना अपने भरे-पूरे परिवार के साथ लाहौर में अपना सब कुछ लुटा कर आये थे।
मुझे वहाँ भी सलीम और उसके घर वालों का ही खयाल आता रहा।
छ: महीनों के बाद जब मैं जम्मू लौटा तो नक़्शा बिलकुल ही बदल चुका था। काली टोपी की जगह सर्वत्र लाल टोपी दिखाई देती थी। सूर्यवंशी झंडे के साथ-ही-साथ हल वाला लाल झंडा भी फहरा रहा था। लोग 'शेरे-कश्मीर जिन्दाबाद' के नारे लगा-लगाकर न थकते थे।
इसी बीच पिताजी ने मकान भी बदल लिया था। जम्मू में पहुँचते ही सबसे पहले सलीम का पता लगाया कि सलीम अभी तक हॉस्टल में ही है। मेरी खुशी की कोई सीमा न रही, उसी समय ताँगे पर सवार होकर मैं छावनी पहुँचा। सलीम मुझे देखते ही बैरक से बाहर आ गया। हम दोनों ने एक-दूसरे के हाथ थाम लिये। आँखें भरी-भरी थीं-दिल भरे-भरे थे।
मैंने सलीम से उसके घर वालों के सम्बन्ध में पूछा। उसने बताया कि उन्हीं दिनों अब्बा ने एक जीप का प्रबन्ध कर लिया था, वह सभी घरवालों को जीप में बिठाकर निकल गये थे। उन्हें इतना समय नहीं मिला था कि सलीम को भी छावनी से निकालकर ले जाते। सियालकोट से अब्बा का एक पैगाम भी मिल चुका था कि वहाँ सभी ठीक-ठीक पहुँच गये हैं।
मुझे अम्मी का खयाल आया। जब सलीम छावनी के स्कूल में पढ़ने के लिए दांखिल हुआ था तब कितना रोती थीं वे। जब उन्हें सलीम को यहाँ अकेला छोड़कर जीप में बैठना पड़ा होगा, तब उनकी क़्या हालत हुई होगी। मेरे शरीर में एक सिहरन-सी पैदा हुई। मैंने सलीम से कहा, "चलो तुम हमारे घर में चल कर रहो।"
"मैं यहाँ बिलकुल ठीक हूँ। और फिर न जाने किस समय मेरे पाकिस्तान जाने का भी प्रबन्ध हो जाए, मुझे यहीं रहना चाहिए!"
सलीम का कहना ठीक था। मैं चुप हो रहा। कुछ देर बाद वह दुबारा कहने लगा, "मदन, पाकिस्तान जाने से पहले मैं चाहता हूँ कि एक बार तुम्हारे घर आऊँ।"
"चलो, आज ही चलें।" मैंने आग्रह किया।
"नहीं, यहाँ से कहीं भी जाने से पहले इजाजत लेनी पड़ती है। तुम अगर परसों इसी समय यहाँ आ जाओ तो मैं तुम्हारे साथ चल पडूँगा।"
वह शनीचर का दिन था। मैं और सलीम ताँगे में बैठे हुए शहर की ओर चले आ रहे थे। मैं खुश था-बहुत खुश था-क़्योंकि सलीम को अपने घर ले जा रहा था। सलीम के चेहरे पर भी इतमीनान झलक रहा था। हम दोनों एक दूसरे से बिलकुल सट कर बैठे हुए थे। सलीम कह रहा था, "मदन मैं पाकिस्तान जाकर तुम्हें खत लिखूँगा। तुम जवाब दोगे न?"
"जरूर दूँगा।" मैंने कहा, "जाते ही लिखना और सभी के बारे में लिखना। अम्मी से कहना मदन आपको बहुत याद करता है। अब्बा को सलाम देना। आपा ने तो वहाँ जाकर और भी बिल्लियाँ पाल ली होंगी और भाईजान अब भी पायलट बनने का ख्वाब ही देखते होंगे।"
बातें करते-करते अचानक मैंने सलीम की ओर देखा तो उसके आँसू बह रहे थे। मैंने उसके कन्धे पर हाथ रख दिया। वह फूट-फूट कर रोने लगा। तांगे वाला भी मुड-मुड़कर हमारी ओर देखने लगा था। फिर सलीम खुद ही चुप हो गया। अपनी भावुकता पर वह खुद ही मुस्कराने भी लगा था।
"अरे मदन, तुम्हारे घर तो उस तरफ है न?" गली में घुसते ही सलीम ने पूछा।
"मुझे सुनाना याद नहीं रहा," मैंने कहा, "हमने मकान बदल लिया है। पहला मकान किराये पर था। इसे हमने खरीद लिया है। इस मकान में मुसलमान रहा करते थे। काफी बड़ा खानदान था। उन सबको लोगों ने कत्ल कर दिया, सिंर्फ उनका एक लड़का बच गया, क्योंकि वह उन दिनों श्रीनगर में था। अब वह भी पाकिस्तान चला गया है, और जाने से पहले इस मकान को सस्ते में बेच गया है।"
तब तक हम घर के दरवाजे तक पहुँच गये थे। बात खत्म करके मैंने सलीम की ओर देखा तो स्तब्ध रह गया। उसके चेहरे को एकाएक किसी काली छाया ने ग्रस लिया था। दरवाजे के बाहर ही वह रुक गया था। मुझे अपनी गलती का एहसास हुआ, लेकिन-लेकिन मैं कुछ भी सोच न पाया। बिना कुछ सोचे ही मुंह से निकल गया, "चलो-चलो सलीम।"
"वह धीरे-धीरे पीछे चलने लगा। मुझमें इतना भी साहस नहीं रहा था कि मैं उसकी ओर देख भी सकूँ। पता नहीं उसके दिल पर क्या बीत रही थी। उसके कद काँप रहे थे या नहीं-मुझे कुछ पता नहीं। हां, खुद मेरा दिल बुझ गया था। छाती पर एक बोझ-सा पड़ गया था-दम घुट रहा था। अपने आपको मैं एक अपराधी-सा महसूस कर रहा था। पता नहीं क्यों?"
मैं सलीम को ऊपरवाले कमरे में ले गया। मां तो उस दिन गाँव गयी हुई थीं-उस ओर से निश्चिन्त था। बहिन को अपना विश्वासपात्र बना लिया था कि वह मां को नहीं सुनाएगी कि मैंने सलीम को घर पर चाय पिलायी। उसने झटपट चाय बनायी। मैं दौड़कर बांजार से बहुत कुछ खाने को ले आया। मन में शायद यह भावना कि सलीम जब अपनी अम्मी को बताएगा कि मैंने मदन के घर जाकर चाय पी थी तो वह कितनी खुश होंगी। लेकिन अब वह उत्साह नहीं रह गया था। मुझे खेद ही लग रहा था कि मैं अपने-आपको धोंखा दे रहा हूं।
चाय और खाने-पीने की सब चीजें लेकर मैं ऊपर चला। शायद हवा से दरवाजा बन्द हो गया था। मैं दोनों हाथों में ट्रे उठाए हुए, एक पाँव से दरवाजे को जोर से धक्का दिया। सामने ही बैठा हुआ सलीम यों चौंक पड़ा जैसे भूचाल आ गया हो। उसके चेहरे पर पसीना-ही-पसीना था।
चाय का आधा-आधा कप ही हम दोनों ने पिया। सलीम ने तो आधा भी न जाने कैसे पी लिया। खाने की चीजें सब वैसी-ही-वैसी रहीं।
"चलो, अब चलें मदन।" सलीम ने कहा।
"चलो।" मैंने भी उठते हुए कहा।
घर से बाहर निकलकर सलीम बड़ी तेजी से चलने लगा। सड़क पर आकर हम दोनों ताँगे पर बैठ गये। छावनी तक पहुँचने में एक घंटा लगा, लेकिन उस एक घंटे में हम दोनों में से कोई भी कुछ न बोला। भयानक खामोशी थी जो दम घोंटे जा रही थी। एक कुहरा था, जिसमें कुछ भी नंजर नहीं आ रहा था-जो दृष्टि पर छा गया था-जो दिल पर छा गया था।
"मैं जाता हूं।" ताँगे में से उतरते हुए सलीम ने कहा।
मैं ताँगे में ही बैठा रहा। कुछ बोला भी नहीं। ताँगे में से उतरकर सलीम ने मेरी ओर देखा। उसकी आँखों में आतंक की छाया मंडरा रही थी। कुछ देर वह मेरी तरफ देखता रहा और मैं उसकी ओर।
"मदन।" जैसे उसकी आवांज बड़ी दूर से सुनाई दी मुझे।
मैं भी ताँगे से नीचे उतर आया।
उसने मेरी बाँह पकड़ कर विचित्र आतंकित स्वर में कहा, "मदन क्या तुम मुझे कत्ल कर सकते हो?"
मैं बुत-सा बना वैसे ही खड़ा रहा।
तब वह चिल्लाया, "नहीं, नहीं, मदन तुम मुझे कत्ल नहीं..." चिल्लाता हुए वह हॉस्टल की ओर भागने लगा। वह हॉस्टल में चला गया। और मैं विमूढ-सा कितनी ही देर वहाँ खड़ा रहा। मुझे कुछ भी सूझ नहीं रहा था कि यह क्या हो गया।


(डोगरी से अनुवाद: वेद राही)

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