मरजी खुदा की (बांग्ला कहानी) : बिमल मित्र

Marji Khuda Ki (Bangla Story in Hindi) : Bimal Mitra

अपने लेखक-जीवन में खुद लेखक ही अपना सबसे बड़ा दुश्मन होता है। इसका कारण यह कि एक लेखक के जीवन की सबसे बड़ी ट्रैजेडी यह है कि उसे जीवन भर लिखना पड़ता है। जिंदगी भर उसे बढ़िया चीज लिखने की विवशता होती है। कोई एक अच्छी किताब लिखकर रुक जाने से काम नहीं चलता। यदि अच्छी किताब वह लिख चुका है, तो दूसरी किताब अच्छी न होने पर कोई उसे माफ नहीं करेगा। सिर्फ अच्छा लिखना होगा, यही नहीं, और अच्छा। और, और भी अच्छा। हमेशा अच्छा...।

तो लीजिए, पेश है मेरे अपने दोस्त शरदिंदु की कहानी। शरदिंदु की अजीबो-गरीब शादी की कहानी!

उम्र हो जाने पर सब की शादी होती है। वैसे मनुष्य के जीवन में शादी होना अनिवार्य हो, ऐसी कोई बात नहीं। हम लोगों के सभी दोस्तों की शादी कुछेक साल आगे-पीछे हो चुकी थी। उन सबकी शादी में हम लोग दल बनाकर बराती बनकर गए थे। दल बनाकर किसी विवाहोत्सव में शामिल होने का मजा कुछ और ही है। इसका अनुभव पाठकों में से अधिकांश को जरूर होगा।

लेकिन सिर्फ शरदिंदु की शादी को लेकर जो मुसीबत आ खड़ी हुई थी, वैसी मुसीबत शायद मानव-इतिहास में कभी भी नहीं आई होगी। शरदिंदु की शादी एक इतिहास की सृष्टि करनेवाली नजीर बनकर रह गई है। हम लोगों का शरदिंदु भी एक दिन रिश्वत के एक षड्यंत्र का शिकार हो गया था।

किस्सा शुरू से ही बयान करना बेहतर होगा। शरदिंदु हमारे दल में होते हुए भी हमारे दल से अलग था। हम लोगों की तरह उसके पास पैतृक संपत्ति या जमीन-जायदाद कुछ भी नहीं थी। न ही उसके साथ कुल-गौरव की कोई कहानी जुड़ी हुई थी। दुनिया में उसका अगर कोई था तो थी सिर्फ एक बूढ़ी विधवा माँ।

हम लोगों में से सभी किसी-न-किसी सिफारिश की बदौलत कोई-न-कोई नौकरी हासिल कर चुके हैं।

लेकिन शरदिंदु को नौकरी कौन देता?

शरदिंदु को अगर कोई भरोसा था तो सिर्फ कुछेक ट्यूशनों का। दिन-रात घोर परिश्रम करके वह जो कुछ थोड़े से रुपए कमा पाता, उन्हीं से दोनों प्राणियों की गुजर-बसर होती थी।

शरदिंदु की विधवा माँ हम लोगों को देखते ही कह उठती, ‘‘बेटे, क्या तुम लोग शरदिंदु के लिए भी एक नौकरी नहीं ढूँढ़ सकते?’’

मानो हम लोगों के लिए नौकरी ढूँढ़ पाना चुटकियों का खेल था!

‘‘या फिर नौकरी नहीं मिलती तो उसकी शादी ही करा दो। बहुधा ऐसा भी होता है कि किसी-किसी की किस्मत शादी के बाद पलट जाती है। शादी भी तो नहीं होती शरदिंदु की।’’

लेकिन शरदिंदु जैसे बेकार लड़के के साथ अपनी लड़की का ब्याह भला करता भी कौन?

शरदिंदु की माँ कहती, ‘‘लेकिन दुनिया में बिना माँ-बाप की ऐसी लड़कियाँ भी तो हैं, जिनकी शादी में दान-दहेज देने को कुछ भी नहीं होता। देने को अगर कुछ होता है तो सिर्फ कन्या-कलश। मैं भला और कितने दिनों तक जिंदा रहूँगी? मेरी भी तो काफी उम्र हो चली है। क्या बहू का मुँह देखे बिना ही मर जाऊँगी?’’

शरदिंदु की माँ की पीड़ा हम लोग समझते थे। लेकिन शरदिंदु को इस बात की रत्ती भर भी परवाह नहीं थी। वह हमेशा हँसते-हँसते सारे दुःखों का बोझ अपने कंधे पर उठाए घूमा करता। राज-दरबार हो या श्मशान—हर जगह वह प्रसन्न रहता। न तो उसे किसी से कोई नाराजगी थी और न ही किसी से जलन। यानी जिसे कहते हैं—सदाशिव।

और ताज्जुब की बात यह कि ऐसे ही सदाशिव की जिंदगी में ऐसी भारी मुसीबत पड़ने को थी।

यह मुसीबत आई थी शादी के दिन ही, ठीक विवाह के मंडप में।

हाँ, आखिरकार शरदिंदु की शादी तय हो गई थी। लड़की के माँ-बाप मर चुके थे, लड़की अपने चाचा-चाची के लिए भार-स्वरूप थी। उस भार को कम करने के लिए चाचा-चाची जी-जान से जुटे हुए थे। अनेक वर्षों से भार बनी हुई लड़की को वे जिस किसी भी लड़के के हाथ सौंपकर पिंड छुड़ाना चाहते थे। इसका कारण था कि लड़की की उम्र दिनोदिन बढ़ती जा रही थी और वह अपने चाचा-चाची के गले का काँटा बन चुकी थी।

ठीक उस समय शरदिंदु जैसे बेरोजगार लड़के की भनक मिली और फिर कोई बातचीत नहीं—वर-पक्ष और कन्या-पक्ष दोनों ही राजी हो गए। पंचांग देखकर शादी की लग्न, दिन और तारीख तय किए गए। नजदीकी रिश्तेदारों तक शादी के निमंत्रण-पत्र भी पहुँच गए। उसके बाद यथासमय शरदिंदु दूल्हे के वेश में लड़कीवालों के घर पहुँचा। उत्सव करीब-करीब समाप्ति पर था। स्वागत-सत्कार और खिलाने-पिलाने की व्यवस्था में कोई त्रुटि नहीं थी। नाई, पुरोहित और आमंत्रित अतिथि; सभी हाजिर थे। शरदिंदु को एक पीढ़े के ऊपर खड़ा रहना पड़ा और उसके बाद कन्या को एक दूसरे पीढ़े पर बिठाकर दूल्हे के चारों तरफ सात बार परिक्रमा कराई गई और उसके बाद ही शुभदृष्टि की रस्म पूरी हुई।

और बस इसके बाद ही संप्रदान होनेवाला था।

बीच में खड़े पुरोहितजी संप्रदान का मंत्र पढ़ने ही जा रहे थे कि इसी समय एक अप्रत्याशित बाधा आ पड़ी।

चारों तरफ शोर-गुल मचने लगा।

‘क्या हुआ? क्या बात है? इतना गोलमाल क्यों हो रहा है?’

बरातियों ने देखा कि अचानक शादी-घर के सामने एक बड़ी इंपोर्टेड गाड़ी आकर खड़ी हुई। उस गाड़ी से उतरकर एक संभ्रांत वृद्ध महिला चली आई। उस महिला ने सफेद रंग की कीमती साड़ी और रेशमी शमीज पहन रखी थी।

गाड़ी से उतरते ही उन्होंने जिसे अपने सामने पाया, उसी से पूछा, ‘‘क्या यही यतींद्रकुमार सरकार का मकान है? क्या इसी मकान का पता है, 3/1, दर्जीपाड़ा लेन?’’

उस आदमी ने कहा, ‘‘हाँ।’’

‘‘उनकी भतीजी देवयानी क्या यहीं रहती है?’’

उस आदमी ने कहा, ‘‘हाँ।’’

उस महिला ने फिर सवाल किया, ‘‘यतीन बाबू कहाँ हैं? क्या आप उन्हें एक बार बुला देंगे?’’

उस आदमी ने कहा, ‘‘वे तो इस समय बेहद व्यस्त हैं।’’

‘‘शादी में वे संप्रदान की तैयारी कर रहे हैं।’’

‘‘संप्रदान? कैसा संप्रदान? किसकी शादी हो रही है?’’

‘‘उनकी भतीजी देवयानी की।’’

‘‘देवयानी की?’’

‘‘जी हाँ, आज देवयानी की शादी है। क्या देख नहीं रही हैं, कितने लोग यहाँ इकट्ठे हुए हैं। दूल्हा भी आ गया है। बस अब संप्रदान होने ही वाला है।’’

उस महिला ने कहा, ‘‘नहीं, यह शादी नहीं होगी। मैं यह शादी होने नहीं दूँगी। किसी भी कीमत पर नहीं...।’’

यह कहकर उन्होंने पुकारा, ‘‘कालिदास, अरे ओ कालिदास...!’’

कालिदास नाम के आदमी के आते ही उस महिला ने कहा, ‘‘घटक और पुरोहितजी को तुरंत बुलाओ।’’

पुरोहित के आते ही उन्होंने पूछा, ‘‘पंडितजी, आज शादी का लग्न कब तक है?’’

‘‘माँजी, शाम छह बजे से रात ग्यारह बजे तक।’’

उस महिला ने कहा, ‘‘ठीक है।’’

उसके बाद बाहर खड़ी एक जीप की तरफ इशारा करते हुए उस महिला ने कहा, ‘‘कालिदास, पुलिसवालों को कहो कि वे मुन्ने बाबू को यहाँ ले आएँ।’’

बस कहने भर की देर थी, सात-आठ रायफलधारी पुलिस कांस्टेबल एक नौजवान को घेरकर घर के भीतर ले आए। जो लोग बराती बनकर शादी में आए थे, वे रायफलधारी कांस्टेबलों को देखकर बड़ी चिंता में पड़ गए। आखिर मामला क्या है? यह महिला आखिर है कौन? और फिर इस नौजवान को भला पुलिस के पहरे में क्यों लाया गया है?

उसके बाद क्षण भर में ही जो घटना घटी, वह दुनिया के इतिहास में किसी भी शादी के वक्त नहीं घटी होगी। हमारे दोस्त शरदिंदु को पीढ़े से उठाकर उसकी जगह उस नौजवान को बिठा दिया गया और देवयानी अपने पीढ़े पर ही रही। लड़की के चाचा ने उस नौजवान के हाथों में ही अपनी भतीजी देवयानी का संप्रदान कर दिया। और शरदिंदु बुद्धू की भाँति टुकुर-टुकुर उस तरफ ताकता रहा।

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कहानी की शुरुआत में ही जो कि क्लाइमेक्स हो, तो कोई बात नहीं। लेकिन जिंदगी की शुरुआत में ही यदि ऐसे क्लाइमेक्स की सृष्टि हो तो उसकी शेष परिणति का ग्राफ कहाँ, किस ऊँचाई तक, किस बिंदु पर जा पहुँचेगा?

फिर भी गनीमत की बात यही है कि मैं इस दुर्घटना के वक्त कलकत्ता में मौजूद नहीं था। अगर मैं मौजूद होता तो गुस्से के मारे क्या कर गुजरता, पता नहीं। और फिर उस समय मेरा लेखक-जीवन आरंभ भी नहीं हुआ था। हाँ, लेखक बनने की इच्छा जरूर थी। नौकरी के सिलसिले में मैं उस समय कलकत्ता से करीब पाँच सौ मील दूर था और वह नौकरी भी ऐसी थी कि जब चाहें, छुट्टी मिल नहीं सकती। वह नौकरी थी चारों ओर भ्रष्टाचारियों को पकड़ने की नौकरी। यानी मैं भ्रष्टाचार-निवारक अफसर के पद पर था। रिश्वत की लेन-देन का जो कारोबार इन दिनों भारत में फल-फूल रहा है, उसकी उन दिनों शुरुआत हुई थी।

उन दिनों हम लोगों के ऑफिस के सर्वोच्च अधिकारी थे, दिल्ली के इंस्पेक्टर जनरल ऑफ पुलिस, सी.बी.आई., मिस्टर कुलदीप अरोड़ा। और मैं?

मैं उस समय था महज एक मामूली सेक्शन ऑफिसर। मेरी आँख खराब हो जाने के कारण मैं डेप्युटेशन पर रेलवे से उस दफ्तर में चला गया था। और मेरा हेड क्वार्टर बिलासपुर में था। यानी जबलपुर से अढ़ाई सौ मील दूर बिलासपुर में मेरा हेड क्वार्टर था। इसीलिए जब मैं अपने काम के सिलसिले में जबलपुर के रेस्ट-हाउस में ठहरा हुआ था, उसी समय अपने दोस्त नरेश की चिट्ठी पाकर पहले-पहल इस घटना के बारे में जान सका था। चिट्ठी पढ़कर मैं हैरान रह गया। किसी विवाहोत्सव में असल दूल्हे को उठाकर रायफलधारी पुलिस कांस्टेबलों की सहायता से किसी दूसरे के साथ किसी लड़की की शादी करवा देने की घटना जैसी विचित्र थी, वैसी ही नई भी थी।

मैंने सोचा—‘हाय रे बेचारा शरदिंदु!’

और शरदिंदु से ज्यादा उसकी विधवा माँ के बारे में सोचकर मैं चिंतित हो उठा। बेचारी ने अपनी जिंदगी में कभी भी अपने पति से किसी तरह का सुख नहीं पाया और आखिरकार लड़के की तरफ से भी उसे घोर अशांति ही मिली। मैं शरदिंदु के बजाय उसकी माँ के बारे में सोचकर ज्यादा विचलित हुआ।

मैं शरदिंदु की शादी में शामिल नहीं हो सकता था, क्योंकि उस समय मैं अपनी नौकरी के सिलसिले में कलकत्ते से काफी दूर था। नौकरी जरूर करता था, लेकिन भीतर-ही-भीतर लेखक बनने की इच्छा अंकुरित हो रही थी। शरदिंदु की शादी को लेकर जो विचित्र कांड घटित हुआ, वह मेरे लिए अत्यंत विस्मयकारी था। मैंने सोचा कि इसे लेकर क्यों न एक कहानी लिखी जाए...!

जबलपुर से अपने हेडक्वार्टर बिलासपुर में आकर जब मैंने यही घटना अपनी पत्नी को सुनाई तो वह भी हैरान रह गई। कुछ देर तक उसके मुँह से एक शब्द भी नहीं निकला। उसके बाद उसने सिर्फ यही कहा, ‘‘यह क्या हुआ?’’

सचमुच यह घटना हैरान कर देनेवाली थी।

उसके बाद कई साल बीतने पर जब मैं कलकत्ता लौटा, तब दोस्तों के साथ मुलाकात हुई। उनके मुँह से जो कुछ सुना, उसे सुनकर मैं और भी ताज्जुब में पड़ गया। यहाँ भी रिश्वत! विवाहोत्सव में भी आखिर रिश्वतखोरी आ पहुँची! पूरी कहानी सुनाने के लिए शुरू से ही किस्सा बयान करना होगा। सो वही करता हूँ—

कलकत्ता के श्यामबाजार अंचल में जो लोग रहते हैं, उन्होंने सेंट्रल एवेन्यू और विडन स्ट्रीट की क्रॉसिंग के नजदीक एक गली के किनारे एक पुरानी डिजाइन का तिमंजिला मकान जरूर देखा होगा। वह मकान सिंह खानदानवालों का है। अत्यंत रईस खानदान के रूप में सिंह खानदान चिह्नित है। किसी जमाने में कृष्णनगर के महाराजा के दीवान थे गंगागोविंद सिंह। वे बहुत ही मशहूर रईस थे। उन्हीं दीवान गंगागोविंद सिंह के वंश की किसी शाखा से ही इस वंश की उत्पत्ति हुई थी। एक जमाने में उनका खासा दबदबा था और शान-शौकत थी। उस समय कलकत्ता के साथ-साथ लंदन में भी इस खानदान की जूट के कारोबार में मोनोपॉली थी।

पूरे घर में जितने कमरे थे, उनकी तुलना में घर में रहनेवाले लोगों की संख्या कम थी। लेकिन नौकर-चाकर, मुनीम-गुमाश्ते और दूर के रिश्तेदारों की संख्या कुल मिलाकर काफी थी। पूरे घर की जिम्मेदारी इसी वृद्धा माँजी के ऊपर थी। माँजी यानी इस घर के स्वर्गवासी गृहस्वामी की विधवा पत्नी। उनका लड़का स्वर्गवासी हो चुका था और लड़के की बहू भी। खानदान का चिराग अगर कोई बचा था तो उस वृद्धा का पोता। वही पोता अब सयाना हो चुका था। वही था वंश का एकमात्र कुल-दीपक। भविष्य में इस पोते की एक दिन शादी होगी और शादी के बाद ही घर का कोना-कोना बच्चों की किलकारियों से मुखरित हो उठेगा। इसी उम्मीद में वृद्धा माँजी अभी तक जिंदा थीं।

वृद्धा माँजी का वही पोता विश्वपति सिंह एक दिन अपने कारोबार के सिलसिले में लंदन गया था। इधर वृद्धा दादी अपने पोते के लौटने की घड़ियाँ गिन रही थीं। आखिर एक दिन पोता लंदन से लौटा जरूर, लेकिन साथ में अपनी मेम साहब बहू को लेकर।

बहू के आने के कुछ महीनों के भीतर ही उसी सिंह हवेली के सामने एक दिन एक भयावह दुर्घटना घट गई।

ऐसी दुर्घटना, जिसकी किसी ने कल्पना तक नहीं की थी। संभवतः उस समय तक भली-भाँति पौ भी नहीं फटी थी। सारे इलाके में अँधेरे का साम्राज्य छाया हुआ था। पहले-पहल किसने उसे देखा था, पुलिस इसका भी पता नहीं लगा पाई थी।

सिंह हवेली के ठीक सामने एक बहू की लाश पड़ी हुई थी। कब वह लाश रास्ते पर फेंकी गई, किसने लाश फेंकी, इसके बारे में किसी को भी पता न था। लेकिन एक बात के बारे में सभी सहमत थे कि वह लाश और किसी की नहीं, सिंह परिवार की बहू की ही थी।

सिंह-परिवार की बहू, यानी विश्वपति सिंह की विलायती पत्नी।

पुलिस ने आकर पूछा, ‘‘इस महिला का नाम क्या है?’’

कोई भी नाम बता नहीं पाया। सभी उसे सिंह-परिवार की बहू के रूप में जानते थे। बहुतेरे लोगों ने सिंह-परिवार के बेटे और बहू को कार में बैठकर जाते देखा था और फिर उसकी शादी कलकत्ता में तो हुई नहीं थी।

पुलिस ने पूछा, ‘‘कहाँ हुई थी शादी?’’

‘‘विलायत में। सिंह-परिवार का लड़का कारोबार के सिलसिले में विलायत गया था और लौटते वक्त उस लड़की को ब्याह लाया था। सुना है कि बहू दोगली है।’’

‘‘बहू दोगली है...! इसका मतलब?’’

‘‘मतलब यही कि बहू के पिता बंगाली और माँ मेम साहब।’’

पुलिस ने सिर्फ मुहल्ले के लोगों की बात नहीं सुनी, बल्कि घर के नौकर-चाकर, रसोइए, मैनेजर और अन्यान्य रिश्तेदारों के बयान भी दर्ज कर लिये। आसानी से कोई भी मुँह खोलना नहीं चाहता था। कुछ भी कहने में सभी लोग डर रहे थे। हो सकता है कि मुँह से कोई ऐसी-वैसी बात निकल जाए। ऐसा होने से एक तरफ पुलिस से सजा मिलने का डर था तो दूसरी तरफ नौकरी से हाथ धो बैठने की आशंका भी थी। माँजी ही घर की मालकिन थीं। ऐसा कुछ भी कहना ठीक नहीं, जिससे माँजी का कोप-भाजन बनना पड़े।

पुलिस माँजी और विश्वपति को गिरफ्तार करके थाने में ले गई। उसके बाद जब यह खबर अखबारों में प्रथम पृष्ठ पर सुर्खियों के साथ छापी गई तो देखते-ही-देखते हर जगह लोग इसी हत्याकांड की चर्चा करने लगे। सबकी जुबान पर इसी हत्याकांड की बात थी। और फिर उस जमाने में आज की तरह सारे देश में बहुओं की हत्या करने की सरगर्मी नहीं थी। इसीलिए यह समाचार लोगों के लिए और भी ज्यादा दिलचस्प था। बड़े लोगों के घर का कच्चा-चिट्ठा गरीब लोगों के किस्सों की तुलना में अधिक रोचक होता है। इसीलिए जिनके पास समय ज्यादा था और काम की व्यस्तता कम थी, उनके मनोविनोद के लिए एक मजेदार मसाला जुट गया।

निचली अदालत में लगातार मुकदमे की सुनवाई चलने लगी। जैसे-जैसे दिन बीतते गए, मजा और भी बढ़ता गया। बेकार के स्त्री-पुरुषों का जमघट कोर्ट में लगने लगा। कुछ दिनों के बाद माँजी को रिहाई मिल गई। उनके विरुद्ध कोई ऐसा ठोस सबूत नहीं पाया गया, लेकिन विश्वपति सिंह को नहीं छोड़ा गया। उसे जमानत तक नहीं मिली। उसी के विरुद्ध गंभीरतम अभियोग थे। गवाहों की जिरह के समय बात साफ हो गई कि विश्वपति और बहू रानी के बीच रोज ही झगड़ा हुआ करता था।

सरकारी पक्ष में स्टैंडिंग काउंसिल मिस्टर ए.के. बासु ने जब जिरह शुरू की, तब सभी गवाहों ने विश्वपति के विरुद्ध ही अपने विचार व्यक्त किए।

मिस्टर ए.के. बासु ने घर के रसोइए से पूछा, ‘‘क्या तुमने कभी भी मुजरिम को नशे की हालत में देखा है?’’

रसोइए ने जबाव दिया, ‘‘हाँ हुजूर, कभी-कभी उन्हें नशे की हालत में देखा है।’’

‘‘कभी-कभी या हर रोज? ठीक-ठीक सोचकर बताओ।’’

‘‘हाँ, हर रोज देखा है।’’

‘‘मेरी तरफ क्या देख रहे हो? हुजूर की तरफ देखते हुए बोलो।’’

रसोइया, नौकर-चाकर और मैनेजर—सभी स्टैंडिंग काउंसिल की जिरह से घबरा गए। घबराकर वे सच्ची बातें उगल गए। फैक्टरी से विश्वपति सिंह नशे में धुत्त होकर घर लौटते थे और काफी रात बीतने तक मियाँ-बीवी में झगड़ा हुआ करता था। उसके बाद बहू रानी अपनी गाड़ी लेकर घर के बाहर निकल जाया करती थी। लगभग सभी गवाहों ने ऐसा ही कहा।

मिस्टर ए.के. बासु ने उस ड्राइवर से भी जिरह की, जो बहूरानी को लेकर बाहर जाया करता था।

‘‘तुम्हारा क्या नाम है?’’

‘‘महेश।’’

‘‘तुम सिंह-हवेली में कब से काम कर रहे हो?’’

‘‘आठ महीनों से। उसी दिन से, जिस दिन साहब विलायत से शादी करके लौटे थे।’’

‘‘क्या तुम्हें याद है कि बहू रानी को लेकर तुम कहाँ-कहाँ जाया करते थे?’’

‘‘जी हाँ...। कभी होटल में तो कभी-कभी न्यू मार्केट में।’’

‘‘होटल में जाकर बहू रानी क्या करती थी?’’

‘‘हुजूर, यह मैं कैसे बता सकता हूँ? मैं तो गाड़ी में बैठा रहता था।’’

‘‘लौटते वक्त क्या बहू रानी के मुँह से किसी तरह की बू निकलती थी?’’

‘‘नहीं हुजूर।’’

‘‘बू नहीं निकलती थी? क्या तुम ठीक कह रहे हो? जो कुछ कहोगे, ठीक सोच-समझकर कहोगे। झूठ बोलने पर तुम्हें कड़ी सजा भी मिल सकती है। ठीक-ठीक बताओ, बहू रानी के मुँह से बू निकलती थी या नहीं?’’

‘‘हाँ हुजूर, निकलती थी।’’

‘‘किस चीज की बू? शराब की?’’

‘‘यह मैं नहीं जानता, हुजूर।’’

मिस्टर ए.के. बासु ने फिर धमकी देते हुए कहा, ‘‘मेरी तरफ क्या देख रहे हो? मैं कौन होता हूँ? हुजूर की तरफ देखते हुए जवाब दो। क्या तुम शराब की बू नहीं पहचानते? क्या तुमने कभी शराब नहीं पी?’’

महेश ने घबराकर जवाब दिया, ‘‘हाँ हुजूर, पी है।’’

‘‘तो फिर? इतनी देर तक मसखरी कर रहे थे क्या? ठीक-ठीक बताओ, बहू रानी के मुँह से शराब की बू निकलती थी या नहीं?’’

‘‘हाँ हुजूर, निकलती थी।’’

‘‘और तुम्हारे साहब?’’

महेश ने चुप्पी साध ली। उसके मुँह से कोई भी जवाब नहीं निकला।

‘‘क्या तुम्हारे साहब भी शराब पीते थे? ठीक से मुजरिम की तरफ देखो। अपने साहब को ठीक-ठीक पहचान पा रहे हो?’’

‘‘हाँ, वे भी पीते थे!’’

‘‘क्या साहब और बहू रानी के बीच झगड़ा होता था? तुम जब दोनों को कार में बिठाकर कार चलाते थे, तब क्या दोनों में झगड़ा होता था?’’

महेश ने कहा, ‘‘हाँ, होता था।’’

मिस्टर ए.के. बासु ने कहा, ‘‘योर ऑनर, मैं महेश से और जिरह करना नहीं चाहता। अब मैं बहू रानी की खास नौकरानी मालती को बुलाता हूँ। साक्षी मालती बाला दासी...।’’

मालती ने सफेद रंग की साड़ी पहन रखी थी। माथे पर घूँघट ठीक कर वह काँपती-काँपती कठघरे में आ खड़ी हुई। ‘सच कहूँगी, सच के सिवाय कुछ भी नहीं कहूँगी’ आदि शब्द उसने तोते की तरह दुहरा दिए। उसके बाद जिरह शुरू हुई। जिरह के दौरान वह घबरा-सी गई।

‘‘साहब जब बहू रानी का गला दबा रहे थे, उस समय तुम क्या कर रही थीं?’’

मालती चुप रह गई। वह क्या जवाब दे, यह उसकी समझ में नहीं आया। अपनी जिंदगी में उसने कभी भी अदालत का मुँह नहीं देखा था।

‘‘बोलो-बोलो! बात को दबा देने की कोशिश मत करो। झूठ बोलने पर हुजूर तुम्हें कड़ी सजा देंगे। तुमने जो कुछ भी देखा है, उसे बेहिचक कह डालो। तुमने तो सबकुछ अपनी आँखों से देखा था।’’

‘‘हाँ, हुजूर।’’

‘‘तुम तो बहू रानी की खास नौकरानी थीं। क्यों ठीक है न? साहब के साथ बहू रानी का झगड़ा हो रहा था, तब तुमने उन्हें रोका क्यों नहीं? क्या तुम्हें डर लग रहा था?’’

‘‘हाँ, हुजूर।’’

‘‘गला दबाते वक्त बहूरानी चिल्लाई थी तो?’’

‘‘हाँ, हुजूर।’’

‘‘उसके बाद जब बहू रानी ने हिलना-डुलना भी बंद कर दिया तो साहब ने उसे दोनों हाथों में उठाकर बाहर रास्ते पर फेंक दिया, क्यों यही न?’’

‘‘हाँ, हुजूर...।’’

‘‘योर ऑनर...।’’

मिस्टर ए.के. बासु ने मालती बाला दासी को और कुछ भी कह सकने का मौका तक नहीं दिया।

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ये सब बातें थीं लोअर कोर्ट की। लोअर कोर्ट के जज साहब ने गवाहों के बयानों और प्राप्त सबूतों के आधार पर मुजरिम विश्वपति सिंह को जान-बूझकर और ठंडे दिमाग से अपनी स्त्री की हत्या कर उसकी लाश को रास्ते में फेंक देने के अभियोग में भारतीय दंड-विधान की धारा 302 के अनुसार फाँसी की सजा सुना दी।

नियम के मुताबिक लोअर कोर्ट की फाँसी के हुक्म की पुष्टि हाई कोर्ट द्वारा करानी पड़ती है। अंग्रेजों के समय से ही यह नियम चला आ रहा है।

उसी सिलसिले में मामला हाई कोर्ट में आया। जज साहब हाजिर थे। अदालत पहले की तरह खचाखच भरी हुई थी। घर की बहू का गला घोंटकर उसे सड़क पर फेंक दिया गया था। लोगों के लिए भला इससे ज्यादा मजेदार खबर और क्या हो सकती थी! और फिर कोर्ट में उस हत्यारे पति का चेहरा भी देखा जा सकता था। साथ ही इस मजेदार तमाशे को देखने के लिए कोई टिकट लेने की जरूरत भी नहीं थी। लोगों को इसका आकर्षण भला कम क्यों होता?

यहाँ भी एक पक्ष में स्टैंडिंग काउंसिल थे, मिस्टर ए.के. बासु और मुजरिम की तरफ से थे मशहूर बैरिस्टर मिस्टर नीरदरंजन दास गुप्त। हाई कोर्ट के स्वनामधन्य बैरिस्टर।

दोनों पक्ष में बैरिस्टरों की बहस के बाद सब ने यही समझा कि मुजरिम की फाँसी की सजा कायम रहेगी। दूसरे दिन जज साहब अपना फैसला सुनाने वाले थे। कोर्ट बंद होनेवाला था। अचानक बैरिस्टर नीरदरंजन दास गुप्त ने जज साहब के पास एक अरजी पेश की।

‘‘मी लॉर्ड, मुजरिम की तरफ से मुझे हुजूर की सेवा में एक अरजी पेश करनी है।’’

‘‘अरजी? कैसी अरजी?’’

‘‘मुजरिम को छह घंटों के लिए पुलिस के पहरे में पैरोल पर छुट्टी देनी होगी।’’

सिर्फ कोर्ट के श्रोतागण और साधारण दर्शक-वृंद ही नहीं; बेंच क्लर्क, अर्दली, चपरासी और स्वयं जज साहब भी बैरिस्टर साहब की बात सुनकर हैरान रह गए।

जज साहब ने कहा, ‘‘क्या है अरजी?’’

‘‘हुजूर, हमारा मुवक्किल शादी के लिए जाएगा।’’

‘‘शादी?’’

शादी करने के लिए छह घंटों की छुट्टी मंजूर हो गई। आठ रायफलधारी पुलिस कांस्टेबल पहरा देते हुए मुजरिम को कन्या के घर तक ले जाएँगे। उसके बाद शादी हो जाने पर मुजरिम को फिर जेल में बंद कर दिया जाएगा। ‘बिन बादल बरसात’ वाली कहावत आप सब ने जरूर सुनी होगी। यहाँ यह कहावत सौ फीसदी चरितार्थ हो रही थी। सभी घटनाक्रम की इस आकस्मिकता को देखकर पल-दो पल के लिए गूँगे हो गए।

जज साहब हुक्म सुनाकर अपने चेंबर में चले गए। स्टैंडिंग काउंसिल ए.के. बासु ने नीरदरंजन दासगुप्त को कॉरिडोर में जा पकड़ा। उन्होंने पूछा, ‘‘यह कैसी दिल्लगी की है आपने मिस्टर दासगुप्त?’’

मिस्टर दासगुप्त बार-एसोसिएशन की लाइब्रेरी की तरफ जाते-जाते बोले, ‘‘मिस्टर बासु, हैमलेट ने होरेशियो से जो कुछ कहा था, वह आपको याद नहीं है क्या?’’

There are more things in heaven and earth, Horatio, than are dreamt of in philosophy.

[सुनो होरेशियो, इस पृथ्वी और स्वर्ग में ऐसी बहुत सी चीजें हैं, जिनकी दर्शनशास्त्र ने स्वप्न में भी कल्पना नहीं की होगी।]

‘‘लेकिन ठीक-ठीक बताइए, माजरा है क्या? फाँसी की सजा पाए हुए मुजरिम से भला कौन लड़की शादी करने के लिए तैयार होगी?’’

बैरिस्टर दासगुप्त ने कहा, ‘‘जरूर तैयार होगी, मिस्टर बासु, जरूर...। इस पृथ्वी पर सभी कुछ संभव है, मिस्टर बासु! जिस समय लोअर कोर्ट में यह मुकदमा चल रहा था, पूरे कलकत्ते में इस मामले की धूम मची हुई थी। उस समय मेरे मुवक्किल की दादी मिसेज सिंह पूरे हिंदुस्तान में घूम रही थीं—एक अच्छे एस्ट्रोलॉजर की तलाश में...।’’

मिस्टर बासु हैरान रह गए।

‘‘एस्ट्रोलॉजर! यानी ज्योतिषी? ह्वाट डू यू मीन? आप कहना क्या चाहते हैं?’’

‘‘हाँ मिस्टर बासु, हाँ। ज्योतिषी, जिसे आप लोग धोखेबाज और ब्लफमास्टर कहते हैं, वही। इतने दिनों में मिसेज सिंह ज्योतिषियों के पीछे पाँच लाख रुपए खर्च कर चुकी हैं। और भी कितने रुपए खर्च हो जाएँगे, इसका कोई हिसाब नहीं। जितने भी रुपय खर्च हों, होने दीजिए। एक ऐसा ज्योतिषी चाहिए, जो किसी एक ऐसी लड़की की कुंडली बता सके, जिसकी किस्मत में वैधव्य का दुःख नहीं लिखा हुआ है।’’

मिस्टर बासु बैरिस्टर नीरदरंजन दासगुप्त की दूरदर्शिता देखकर हैरान रह गए।

हाँ, बात सही ही थी। विश्वपति सिंह सिंह-वंश के एकमात्र उत्तराधिकारी और एकमात्र कुल-दीपक थे। एक समय के कृष्णनगर के महाराज के दीवान गंगागोविंद सिंह की एक शाखा के वंशधर इसी सेंट्रल एवेन्यू और विडसे स्ट्रीट के मोड़ की गली के भीतरवाले मकान के एकमात्र मालिक थे। उसे ही फाँसी हो गई तो फिर बचेगा क्या? उसकी जिंदगी बड़ी है या रुपए? यह सलाह दी थी हाई कोर्ट के मशहूर बैरिस्टर, क्रिमिनल लॉ के विशेषज्ञ, मिस्टर नीरदरंजन दासगुप्त ने। जब उन्होंने देखा कि मृत्यु-दंड किसी भी तरह रोका नहीं जा सकता, तब

उन्होंने एक दिन मिसेज सिंह को एक परामर्श दिया।

उन्होंने पूछा, ‘‘माँजी, क्या आप ज्योतिष शास्त्र में विश्वास करती हैं?’’

माँजी ने कहा, ‘‘क्यों? आप ऐसी बात क्यों पूछ रहे हैं?’’

‘‘आपके एकमात्र वंशधर को अब दुनिया की कोई भी ताकत बचा नहीं सकती। विश्वपति को फाँसी होकर रहेगी।’’

‘‘अगर उसे फाँसी होकर ही रहेगी तो भला मैंने आपको यह ब्रीफ दिया क्यों है? मैंने सुना है कि आप क्रिमिनल लॉ, कलकत्ता हाईकार्ट के सबसे योग्य बैरिस्टर हैं।’’

‘‘सबसे योग्य बैरिस्टर हूँ कि नहीं, इस बात को छोड़ दीजिए। मैं भगवान् तो नहीं हूँ और जिस तरह के सबूत और साक्ष्य हैं, उनसे तो यह प्रमाणित हो चुका है कि आपके पोते ने अपने हाथों से अपनी पत्नी को उसका गला घोंटकर मार डाला था और उसकी लाश सड़क पर फेंक दी थी।’’

माँजी ने कहा, ‘‘सो हमारी बहू जैसी थी, उसकी गरदन मेरे पोते ने छुरी से रेत-रेतकर काट नहीं डाली, वही काफी है। मुन्ना दूध पिला-पिलाकर घर में एक नागिन को पाल रहा था।’’

‘‘ये सब बातें आपने मुझसे कह दीं, सो कह दीं, लेकिन और किसी के सामने ये बातें भूलकर भी मत कहिएगा। वैसा करना हमारे ही हित के खिलाफ होगा। अब मैं जो कुछ कहता हूँ, वह कर सकें तो कीजिए।’’

उसके बाद ही माँजी का भारत-भ्रमण शुरू हो गया। आज पंजाब के जालंधर में हैं तो कल गुजराँवाला में। उसके बाद वहाँ से सीधे बनारस। फिर नवद्वीप तो कलकत्ते के नजदीक ही है। उससे भी ज्यादा नजदीक है यहाँ का भाटपाड़ा। आखिर ज्योतिषी कहाँ नहीं हैं? किसी ज्योतिषी की दक्षिणा पाँच सौ रुपए है तो किसी ज्योतिषी की दक्षिणा है हरेक सवाल के पीछे हजार रुपए। गरज का मोल होता है। इसीलिए पहले ही कह चुका हूँ कि पोते की जिंदगी बड़ी है या रुपए? रुपए जहन्नुम में जाएँ, फैक्टरी के कर्मचारी भूखे मरें तो मरें। सबसे ज्यादा जरूरी है पोते की जिंदगी और क्या ज्योतिषी भी एक है? हजारों-हजारों, लाखों-लाखों ज्योतिषी सारे भारतवर्ष में फैले हुए हैं। उत्तर भारत के ज्योतिषियों का मत कुछ होता है तो दक्षिण भारत के ज्योतिषियों का मत कुछ और! किसी एक ज्योतिषी के साथ दूसरे का मत नहीं मिलता। एक तरफ थी वराह मिहिर की ‘वृहत् संहिता’ और था ‘वृहत् जातक’ तथा वराह मिहिर के लड़के पृथुयश का ग्रंथ ‘होरासार’ और दूसरी तरफ था गुणाकर द्वारा लिखित ‘होरामकरंद’। आखिर किस पर विश्वास किया जाए? महादेव द्वारा लिखित ‘जातक तत्त्व’ और वैद्यनाथ रचित ‘जातक पारिजात’ एक तरफ थे तो दूसरी तरफ थे, उससे विपरीत विचारवाले ग्रंथ।

सिर्फ रुपए खर्च होना ही बड़ी बात नहीं। वक्त भी साथ-साथ बरबाद हो रहा था। उधर कलकत्ते के कोर्ट में मुकदमा चल रहा था और इधर ज्योतिषियों के द्वारा माँजी हजार-हजार अविवाहिता कन्याओं की जन्मकुंडलियों की जाँच करवा रही थीं। किस लड़की की किस्मत में वैधव्य का योग नहीं, इस पर विचार करने में बड़े-बड़े ज्योतिषियों का दिमाग भी चकरा जा रहा था। सिर्फ एक ज्योतिषी की राय मिल जाने पर ही काम नहीं चलेगा। यह ज्योतिषी जो कुछ कहता था, दूसरा ज्योतिषी कहता उसका उल्टा ही। इसलिए यह जरूरी था कि उनके बीच समन्वय भी हो।

कई-कई बार ज्योतिषियों की खोज में माँजी कलकत्ते से बाहर चली जातीं और फिर कुछ दिनों के लिए कलकत्ता लौट आतीं। बैरिस्टर दासगुप्त पूछते, ‘‘क्या हुआ माँजी? क्या कोई ज्योतिषी मिला?’’

माँजी बेहद थकी-हारी होतीं। कहतीं, ‘‘नहीं, अभी भी कोई ठीक-ठीक कुछ कह नहीं पा रहा है, कुंडली मिल रही है, लेकिन लड़की नहीं मिल रही। देखा जाए, क्या होता है! अभी भी मैंने कोशिश छोड़ी नहीं है।’’

‘‘नहीं, कोशिश छोड़िएगा भी नहीं। लेकिन हाथ में अब ज्यादा वक्त नहीं है। कुछ दिनों के बीच में ही यह केस हाईकोर्ट में चला जाएगा। इसी बीच आपको जो कुछ भी हो, करना ही होगा। नहीं तो फिर सर्वनाश ही हो जाएगा।’’

आखिरकार एक लड़की की जन्मकुंडली मिली। लड़की की कुंडली में सप्तम-पति खूब ही अच्छी तरह तुंगी था और चंद्रमा भी सप्तम-पति की तरफ दृष्टिपात कर रहा था।

भाटपाड़ा के ही एक ज्योतिषी ने कहा था, ‘‘इस कन्या के माँ-बाप जिंदा नहीं हैं। लड़की अपने चाचा-चाची के लिए बोझ बनी हुई है। एक साल पहले इस लड़की के चाचाजी ही मेरे पास यह जन्मकुंडली लेकर आए थे। लड़की की शादी हो चुकी है या वह अब तक अविवाहित है, यह मैं नहीं जानता। फिर भी उनका पता-ठिकाना मेरे पास लिखा हुआ है। आप पता लिख लीजिए। लड़की का नाम है देवयानी सरकार और उसके चाचाजी का नाम है यतींद्रनाथ सरकार। पता है—3/1 दर्जीपाड़ा लेन।’’

और अब एक मिनट का भी वक्त बरबाद नहीं करना है। दूसरे ही दिन मामला हाईकोर्ट में चला जाएगा। माँजी ने कालिदास को 3/1 दर्जीपाड़ा लेन के पते पर झटपट दौड़ाया। कालिदास ने वहाँ से लौटकर खबर दी, ‘‘माँजी, कल उस लड़की की शादी होनेवाली है। सबकुछ ठीक हो गया है। निमंत्रण-पत्र भी छपवाकर भेजे जा चुके हैं।’’

माँजी ने कहा, ‘‘जा, पुरोहितजी को बुलाओ तो।’’

पुरोहितजी के आते ही माँजी ने पूछा, ‘‘पंडितजी, पंचांग देखकर जरा बताइए तो कि कल शादी की लग्न कितने से कितने बजे तक है?’’

पंचांग देखकर पुरोहितजी ने कहा, ‘‘संध्या साढ़े छह बजे से रात के ग्यारह बजे तक लग्न है। क्यों क्या बात है माँजी? किसकी शादी है?’’

पुरोहितजी की बात का जवाब दिए बगैर माँजी तुरंत गाड़ी में बैठकर घर के बाहर चली गईं।

बैरिस्टर दासगुप्त के घर जाकर उन्होंने मिस्टर दासगुप्त से एकांत में कहा, ‘‘लड़की मिल गई है। उस लड़की के भाग्य में वैधव्य-योग नहीं है। भाटपाड़ा के एक ज्योतिषी से ही खबर मिली है। लड़कीवाले दर्जीपाड़ा लेन में रहते हैं। सारी खोज-खबर ले चुकी हूँ। लेकिन उस लड़की की शादी कल गोधूलि लग्न में होनेवाली है। निमंत्रण-पत्र भी भेजे जा चुके हैं।’’

मिस्टर दासगुप्त ने कहा, ‘‘उस शादी को किसी भी तरह रुकवाइए। कल दोपहर को हाईकोर्ट में हम लोगों के केस की सुनवाई होगी। मैं जज साहब से दरख्वास्त करूँगा कि मेरे मुवक्किल को छह घंटों के लिए पैरोल पर छोड़ दिया जाए।’’

माँजी ने पूछा, ‘‘क्या जज साहब पैरोल पर छुट्टी देंगे?’’

बैरिस्टर दासगुप्त ने कहा, ‘‘छुट्टी क्यों नहीं देंगे? इसकी प्रिसिडेंट है, नजीर हैं। आठ पुलिस कांस्टेबल रायफल लेकर मुजरिम को घेरकर रखेंगे। इसमें भला जज साहब को क्या आपत्ति हो सकती है? बस एक ही बात है, सुहागरात नहीं होगी और आपको किसी तरह का भोज-वोज देने का मौका नहीं मिलेगा।’’

माँजी ने कहा, ‘‘सो न हो तो न सही। किसी तरह शादी हो तो जान बचे।’’ मैं तो पहले ही कह चुका हूँ कि लेखक का जीवन बड़ी मुसीबत का जीवन होता है। यह भी कह चुका हूँ कि जिसके जीवन का ग्राफ शुरू में ही इतनी ऊँचाई तक पहुँच गया, उसकी शेष परिणति क्या होगी...। इसके बाद क्या हुआ, यह जानने के लिए बेहद उतावला हो उठा।

इसीलिए मैंने नरेश से पूछा, ‘‘फिर क्या हुआ?’’

कितने सालों के बाद मैं कलकत्ता आया था। उन दिनों मैं एक ऐसी नौकरी कर रहा था, जिसकी वजह से मुझे कलकत्ता आने का मौका कम मिला करता था। कलकत्ते के बारे में मुझे जो भी खबरें मिलतीं, वे अपने मित्रों के मार्फत ही मिलतीं। लेकिन मेरे मन में सबसे ज्यादा कौतूहल शरदिंदु की शादी के बारे में था। शरदिंदु के विवाह से संबंधित दुर्घटना के बारे में मुझे नरेश के मुँह से ही सारा विवरण विस्तारपूर्वक सुनने को मिला।

जिस दिन हाईकोर्ट खुला, उस दिन पहले की तरह ही एक तरफ स्टैंडिंग काउंसिल मिस्टर ए.के. बासु और दूसरी तरफ बैरिस्टर नीरदरंजन दासगुप्त डटे हुए थे और कठघरे में कठपुतली की तरह खड़ा था—मुजरिम विश्वपति सिंह।

और अगली कतार में दर्शकों की पीठ पर बैठी वह कौन थी? बदन पर नई बनारसी साड़ी थी। गले में, हाथ में और कान में जड़ाऊ गहने थे। माँग में गहरा लाल सिंदूर भरा हुआ था। क्या वही फाँसी की सजा पाए हुए मुजरिम की नई-नवेली दुलहन थी, जिसके साथ ब्याह रचाने के लिए जज साहब ने अभियुक्त को छह घंटों के लिए पैरोल पर छुट्टी दी थी?

सिर्फ जज साहब ही नहीं, कोर्ट में मौजूद सारे आदमी कभी मुजरिम की तरफ देख रहे थे तो कभी बनारसी साड़ी में लिपटी नई-नवेली दुलहन की तरफ। वही दुलहन, जिसकी शादी शरदिंदु के साथ होते-होते विश्वपति सिंह के साथ हो गई थी।

सभी के मन में एक ही सवाल था। क्या जज साहब इतने निष्ठुर हो जाएँगे कि मुजरिम को फाँसी की सजा देकर नई-नवेली दुलहन को विधवा बना देंगे? क्या स्वयं जज एक पति नहीं हैं? क्या जज साहब के बीवी-बच्चे और दामाद नहीं हैं? क्या जज होने के कारण उनका हृदय पत्थर का हो गया है?

नहीं, सचमुच जज साहब का भी दिल था। उस दिन उन्होंने इसी बात का सबूत दिया। फाँसी के मुजरिम को ऐसी मामूली सजा की नजीर हाईकोर्ट के लंबे इतिहास में और कोई नहीं थी। फाँसी के बदले आजीवन कारावास की सजा दी गई।

जज साहब फैसला सुनाने के बाद अपने चेंबर में चले गए। स्टैंडिंग काउंसिल और बैरिस्टर नीरदरंजन दासगुप्त भी बार-लाइब्रेरी में चले गए। माँजी अपनी नव-विवाहिता पोते की बहू के साथ अपनी गाड़ी में जा बैठीं।

आजीवन कारावास, यानी चौदह साल का कारादंड। तब तक नववधू को सुहाग-संध्या के लिए इंतजार की घड़ियाँ गिननी होंगी। इस अवधि के बाद ही वह अपने पति से मिल सकेगी। लेकिन विधाता के मन में क्या था, इसका पता न माँजी को था, न विश्वपति सिंह को और न ही शरदिंदु को। संभवतः किसी के लिए यह जान पाना मुमकिन था भी नहीं, क्योंकि इस घटना के कुछेक महीनों के बाद ही माँजी अचानक चल बसीं। साथ ही दीवान गंगागोविंद सिंह के सुप्रसिद्ध वंश का एक वंशधर विश्वपति सिंह जेल में अपनी सजा काटने लगा।

और उसकी नई-नवेली दुलहन?

एक लेखक के रूप में यह जानने के लिए मैं लालायित हो उठा कि इसके बाद क्या हुआ होगा! ऐसा खानदान, इतने रुपए-पैसे, जमीन-जायदाद, फैक्टरी, कारोबार और सुंदर पत्नी! इसकी क्या परिणति होगी? वह कहावत है न, मरजी खुदा की और खेल नसीब का! लेकिन कैसी खुदा की मरजी और कैसा नसीब!

नरेश पूरी घटना विस्तारपूर्वक सुना रहा था और मैं तन्मय होकर सुन रहा था।

नरेश एक दिन अपने ऑफिस से घर लौटा ही था कि हठात् दरवाजे पर दस्तक हुई।

नरेश ने दरवाजा खोला। सामने शरदिंदु को देखते ही वह अवाक् रह गया।

नरेश ने कहा, ‘‘शरदिंदु, तू?’’

शरदिंदु को देखकर नरेश हैरत में पड़ गया। उसे सहसा विश्वास ही नहीं हुआ कि वह उसका पहलेवाला दोस्त शरदिंदु है। शरदिंदु का रंग पहले की तुलना में काफी साफ हो गया। कहाँ वह बदसूरत और बदरंग शरदिंदु और कहाँ आज का यह सुंदर, सजीला और सलीकेदार शरदिंदु! यह कैसा जादू हो गया था?

नरेश ने देखा कि घर के सामने एक नई गाड़ी खड़ी थी।

नरेश ने पूछा, ‘‘तू उसी गाड़ी में आया है?’’

शरदिंदु ने कहा, ‘‘हाँ।’’

‘‘किसकी गाड़ी है यह?’’

शरदिंदु ने जवाब दिया, ‘‘मेरी ही है। मैंने यह गाड़ी खरीदी है।’’

नरेश की मानो बोलती ही बंद हो गई। कुछ क्षणों तक उसके मुँह से एक शब्द भी नहीं निकला।

शरदिंदु ने कहा, ‘‘परसों मेरी शादी है। जरूर आना भाई।’’

यह कहने के साथ शरदिंदु ने नरेश के हाथों में विवाह का निमंत्रण-पत्र थमा दिया।

शरदिंदु ने जाते-जाते फिर कहा, ‘‘देखो भाई, शादी में आना जरूर। इस समय चलता हूँ, जरा हड़बड़ी में हूँ।’’

विवाह का निमंत्रण हाथ में लिये-लिये ही नरेश ने देखा कि शरदिंदु झटपट गाड़ी में जा बैठा और ड्राइवर ने गाड़ी स्टार्ट कर दी।

पृथ्वी पर इतनी तरह की आश्चर्यजनक घटनाएँ घटती हैं, जिनका हिसाब रखना किसी के लिए भी मुमकिन नहीं। जो शरदिंदु एक मामूली सी नौकरी भी नहीं पा सका था, उसी शरदिंदु ने आज गाड़ी खरीदी है!

यह आखिर मुमकिन कैसे हुआ?

दूसरे दिन नरेश ने अपने ऑफिस से अपने दोस्तों को फोन किया। उन लोगों ने भी बताया कि शरदिंदु ने उन्हें शादी में आने के लिए निमंत्रित किया था।

नरेश ने पूछा, ‘‘वह कैसे संभव हुआ अमल?’’

अमल ने कहा, ‘‘मैं भी तो यही सोच रहा हूँ। जिसकी शादी में ऐसा गोलमाल हुआ था, उसी का अब विवाह हो रहा है! यह कैसे संभव हुआ, समझ में नहीं आता।’’

नरेश ने पूछा, ‘‘क्या शरदिंदु के साथ तुम्हारी कुछ बातचीत हुई?’’

अमल ने कहा, ‘‘बातचीत भला होती भी कैसे? वह तो तूफान की तरह आया और शादी का कार्ड देकर चला गया। शरदिंदु से मैं सिर्फ यही पूछ पाया था कि यह गाड़ी किसकी है! उसने जवाब दिया—यह गाड़ी मैंने ही खरीदी है।’’

सिर्फ अमल ही नहीं, हमारी मित्र-मंडली के दिलीप, संदीप, मानस, कुणाल और शिबू—सभी इस बात पर हैरान थे।

विवाह-स्थल का पता जानने के लिए जब नरेश ने शादी का कार्ड पढ़ना शुरू किया तो वह हैरत में पड़ गया। कन्या का नाम देवयानी था। देवयानी! यह कौन सी देवयानी थी? जिस देवयानी की शरदिंदु के साथ शादी होने को थी, उसकी शादी तो शरदिंदु के बजाय विश्वपति के साथ हो चुकी थी। विश्वपति सिंह को उम्रकैद की सजा मिलने के बावजूद देवयानी उसकी पत्नी थी।

खैर, शादी के दिन सभी दोस्त शरदिंदु के घर पर आ पहुँचे। शरदिंदु ने नया मकान बनवाया था। सुंदर सा मकान! उस मकान को देखकर सभी चकित रह गए। शरदिंदु मकान कैसे बनवा पाया? वह गाड़ी कैसे खरीद पाया? जिसके पास कुछ भी नहीं था, जो कुछेक ट्यूशनों के बलबूते पर पेट भर पाता था, उसके पास आखिर इतने रुपए आए कहाँ से? नरेश, अमल, दिलीप, संदीप मानस, कुणाल और शिबू सभी के सामने यही समस्या थी कि आखिर यह सब संभव कैसे हुआ? और यह सवाल भी सबको परेशान कर रहा था कि यह देवयानी कौन है, जिसके साथ शरदिंदु की शादी होने जा रही थी?

शरदिंदु के घर में न जाने कहाँ से बहुत से रिश्तेदार भी जुट गए थे। शरदिंदु बेहद व्यस्त था। इस व्यस्तता के बीच शरदिंदु के साथ कुछ भी बातचीत नहीं हो सकी।

शरदिंदु वर का वेश धारण कर कन्या के घर की तरफ रवाना हुआ। शरदिंदु के दोस्त भी बाराती बनकर उसकी गाड़ी के पीछे-पीछे दूसरी कार में चल पड़े।

लड़कीवालों के घर में भी भारी धूमधाम थी। पूरा घर रंग-बिरंगी रोशनी से जगमगा रहा था। बारातियों का दिल खोलकर स्वागत किया गया। शहनाई का सुर सुनकर सभी अभिभूत हो रहे थे।

दूल्हे शरदिंदु को एक कमरे में बैठाया गया। उसे घेरकर लड़कियाँ खड़ी थीं। वहाँ भी शरदिंदु के साथ उसके दोस्तों की कोई बातचीत नहीं हो पाई।

उसके बाद कन्यापक्ष के लोग शरदिंदु को विवाह मंडप में ले गए। शरदिंदु को एक पीढ़े के ऊपर खड़ा करना पड़ा और दूसरे पीढ़े पर दुलहन को बिठाकर चार आदमियों ने उसे दूल्हे शरदिंदु के चारों ओर सात बार घुमाया।

सात बार परिक्रमा पूरी होने के बाद ही शुभ दृष्टि का आयोजन हुआ।

पुरोहितजी ने कहा, ‘‘अब शुभदृष्टि...। बेटी देखो, वर की तरफ देखो...।’’

‘‘उसके बाद?’’

मैं नरेश के मुँह से सारा किस्सा सुन रहा था। मेरा कौतूहल उत्तरोत्तर और भी बढ़ता जा रहा था।

मैंने नरेश से पूछा, ‘‘क्यों भाई, लड़की कैसी थी?’’

नरेश ने कहा, ‘‘अरे भाई, वही देवयानी। वही देवयानी सरकार, जिसके साथ एक दिन शरदिंदु की शादी होते-होते रुक गई थी। वही देवयानी सरकार, जिसकी शादी शरदिंदु के बजाय विश्वपति सिंह के साथ हो गई थी।’’

मैंने पूछा, ‘‘यह कैसे हो सकता है? एक ही लड़की की शादी दो व्यक्तियों के साथ कैसे हो सकती है?’’

नरेश ने कहा, ‘‘हम लोग भी तो इसी बात पर हैरान थे। जिस लड़की की किस्मत में ज्योतिषियों के अनुसार वैधव्य योग नहीं था, उस लड़की की शादी फिर शरदिंदु के साथ कैसे हुई? वह भला विधवा ही कैसे हुई और शरदिंदु के साथ उसकी शादी भला क्योंकर हुई?’’

कुछ देर रुककर नरेश ने फिर कहना शुरू किया, ‘‘उसके बाद बहुतों से पूछताछ करने पर पता चला कि उसकी किस्मत में वैधव्य योग नहीं था, यह ठीक है। लेकिन विवाह-विच्छेद? तलाक? विवाह-विच्छेद का योग उसकी किस्मत में था या नहीं, इस बात पर ज्योतिषियों ने विचार नहीं किया था। इसका प्रतिरोध भला क्या होता है? जिस जमाने में ज्योतिष-शास्त्र की रचना हुई थी, उस समय तो संभवतः विवाह-विच्छेद का चलन था ही नहीं। उस समय विवाह-विच्छेद का कोई कानून भी नहीं बना था तो भला ज्योतिषी इसके बारे में क्या भविष्यवाणी करते?’’

मैं विस्मित होकर नरेश के मुँह से यह हैरतअंगेज किस्सा सुन रहा था।

शुभदृष्टि के बाद ही संप्रदान-पर्व प्रारंभ हो गया। उस समय शरदिंदु से बातचीत कर पाना बिल्कुल नामुमकिन था।

फिर भी नरेश ने अपने पास खड़े एक आदमी से पूछा, ‘‘अच्छा साहब, एक बात बताइए तो। यह तो वही लड़की है, जिसके साथ शरदिंदु की शादी होते-होते रुक गई थी और जिसके साथ शरदिंदु के बजाय विश्पति सिंह की शादी हो गई थी। अब फिर इसकी शादी शरदिंदु के साथ कैसे हो रही है?’’

उस आदमी ने कहा, ‘‘इसके पहले पति विश्वपति सिंह से तो इसका एक साल पहले ही तलाक हो चुका है।’’

नरेश ने पूछा, ‘‘और इसका पहला पति विश्वपति सिंह? क्या वह अभी तक जेल में है?’’

उस आदमी ने कहा, ‘‘हाँ, उसे तो उम्रकैद की सजा मिली है।’’

‘‘लेकिन तलाक हुआ कैसे?’’

उस आदमी ने कहा, ‘‘आपने तो वह कहावत सुनी ही होगी, मरजी खुदा की और खेल नसीब का। शादी के बाद न तो सुहागरात हुई थी और न ही कोई भोज वगैरह आयोजित किया गया था। वह विवाह तो असिद्ध हो गया। इसीलिए देवयानी को तलाक पाने में किसी तरह की कठिनाई नहीं हुई।’’

नरेश सारा किस्सा सुनाता जा रहा था।

उसने फिर कहा, ‘‘देवयानी का अपने पहले पति से विवाह-विच्छेद ही नहीं हुआ, बल्कि क्षतिपूर्ति के रूप में उसे लाखों रुपए भी मिले। उन्हीं रुपयों से ही तो शरदिंदु ने मकान बनवाया है और गाड़ी खरीदी है। शरदिंदु के पास इस समय जो कुछ भी है, वह है देवयानी के प्रथम पति के रुपयों के बदौलत ही। शरदिंदु को बस एक ही बात का दुःख है। आज इस शादी को देख पाने पर जो सबसे ज्यादा खुश होती; शरदिंदु की वह गरीब, बूढ़ी, विधवा माँ; आज खुशी का यह दिन देखने के पहले ही इस संसार से विदा हो चुकी है।’’

घटनाओं के झंझावात में मैं न जाने कैसा विह्वल हो चला था। शादी तो बहुतों की होती है। लेकिन किसी भी लड़के को भला शरदिंदु की तरह विवाह-मंडप से अपमानित होकर खाली हाथ लौटना पड़ा है? और क्या कोई लड़का इस तरह पहलेवाली लड़की के साथ, फिर विवाह-बंधन में बँधता है? सचमुच शेक्सपियर ने झूठ नहीं कहा है—

There are more things in heaven and earth, Horatia, than are dreamt of in your philosophy.

[सुनो होरेशियो, इस पृथ्वी और स्वर्ग में ऐसी बहुत सी चीजें हैं, जिसकी तुम्हारे दर्शनशास्त्र ने स्वप्न में भी कल्पना नहीं की होगी।]

यह कहानी मैं कैसे लिखूँ? इस कहानी पर कौन विश्वास करेगा? क्या इतिहास में कभी किसी ने ऐसी घटना देखी है?

नरेश मुझे अपने साथ लेकर शरदिंदु के नए मकान की तरफ बढ़ने लगा।

नरेश ने हठात् दूर के एक मकान की तरफ इशारा करते हुए कहा, ‘‘वह देखो, वही तो है शरदिंदु का नया मकान।’’

मैंने उस मकान की तरफ कुछ क्षणों तक एकटक देखा। सचमुच देखने लायक मकान था। शरदिंदु ने हम सबको पराजित कर दिया था।

फिर भी मैंने पूछा, ‘‘एक बात समझ में नहीं आ रही है। लड़की के चाचा ने फाँसी की सजा पाए हुए अभियुक्त के साथ भला अपनी भतीजी की शादी क्यों की?’’

नरेश ने कहा, ‘‘अरे यह तो बिल्कुल सीधी सी बात है। यह भी तुम समझ नहीं सके? लड़की के चाचाजी को विश्वपति सिंह की दादी ने उस रोज चार लाख रुपयों की रिश्वत दी थी।’’

ताज्जुब की बात है। यहाँ भी रिश्वत! मैं तो पहले ही बता चुका हूँ कि दूसरे महायुद्ध के बाद मैंने कुछेक वर्षों के लिए घूसखोरों को पकड़ने की नौकरी की थी। बहुत से घूसखोरों को मैंने पकड़ा भी था। इसके लिए एक बार प्रेसीडेंट ऑफ इंडिया से मैंने पुरस्कार भी पाया था। लेकिन फिर भी इस तरह रिश्वत की लेन-देन की मैंने कल्पना भी नहीं की थी। भला कोई भी इस तरह की रिश्वतखोरी की कल्पना कर सकता है क्या? दुनिया में इतने लोगों के होते हुए यह घटना घटी शरदिंदु के जीवन में! सच है, मरजी खुदा की और खेल नसीब का!

नरेश ने शरदिंदु के घर के सदर दरवाजे के पास जाकर कॉलिंग-बेल बजाई। कॉलिंग-बेल की आवाज पूरे घर के भीतर गूँज उठी। मुझे ऐसा लगा, मानो कॉलिंग-बेल की आवाज नहीं थी, वह थी विश्वपति सिंह की आवाज! या फिर वह थी विश्वपति सिंह की चौदहवीं पीढ़ी के प्रसिद्ध पुरुष दीवान गंगागोविंद सिंह की जेलखाने के भीतर से की गई विकट आर्त्त-ध्वनि!

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