मधु-रस (असमिया कहानी) : महिम बरा

Madhu-Ras (Assamese Story in Hindi) : Mahim Bora

सबसे पहले रतन ने ही देखा। खेत-खलिहान, जंगल-झाड़ी, वेला-कुवेला, जगह-कुजगह, तन्न-तन्न कर कोने-कोने की खाक छानते फिरनेवाला, उसके अलावा भला दूसरा कौन सा नवयुवक है इस गाँव में? रतन की बाज जैसी शिकारी आँखों से कोई भी चीज बचकर नहीं निकल सकती।

एक बार गाँव में एक बाघ निकल आया था। गाँव के लोग जब रसोई में जलाने के लिए लकड़ियाँ काटने गए थे (और उसी काम में व्यस्त थे) तो रतन ने ही सबसे पहले उसकी गंध सूँघी। जो लोग बाघ की गंध से परिचित नहीं हैं, वे तो गंध नाक में पड़ने पर भी कुछ समझ नहीं सके होते। मगर रतन की हर विषय की जो गहरी जानकारी है, वह छिछले इलाकों की सूखी खेती की तरह कभी भी पूरी तरह खत्म नहीं हो सकती। वह वहीं ठहर गया। थोड़ी ही दूरी पर उसने एक झाड़ी के हिलने-डुलने का अहसास किया। फिर बिजली की कौंध की तरह बहुत थोड़े समय के लिए, दो झाड़ियों के बीच की फाँक से रंग-बिरंगे बालोंवाली एक लंबी पूँछ को सरकते हुए उसकी तेज निगाहों ने लक्ष्य किया। उस समय उसके साथ लकड़ी काटनेवाले दो और आदमी थे, मगर उनमें से किसी ने कुछ नहीं देखा। रतन के कहने पर पूरा भरोसा रखते हुए पास-पड़ोस के सात गाँवों के आदमी जाल ले-लेकर आ जुटे और बाघ की गुफा को घेर लिया। दो दिन की घेराबंदी के बाद अंततः बाघ मारा गया। चिड़ियों के किस घोंसले में उनके बच्चों के खाने के लिए कुछ आहार है? कहाँ पर एक झुंड हाड़ों (बर्रे) का निवास है? उसकी उम्र के गाँव के जवान पत्ता-पत्ता छानकर भी इसका पता नहीं लगा सकते। मगर रतन तो सारा कुछ पहले-पहल ही देख चुका होता है। मछली पकड़ने की छीप (बंशी) बनाने के लायक दो छरहरी कइने (बाँस की पतली मजबूत छड़ी सी) बँसवारी के किस झुरमुट में हैं और कौन बड़ी-गलफड़ा मछली पकड़ने लायक है तथा कौन साधारण बंसी बनाने के उपयुक्त है? उन्हें किस समय काटना ठीक रहेगा? इस सबका पक्का हिसाब रतन के मन की टोकरी में भरा रहता है।

आज भी सबसे पहले रतन ने ही आविष्कार किया। उसके बाद भोला, जीवराम, महेंद्र और सरुक को लेकर एक छोटी सी विचार-बैठक हुई। उस बैठक में सलाह-परामर्श के बाद जो सिद्धांत तय पाया गया, उसके मुताबिक सभी मिलकर भट्टा के घर गए।

उन सबमें भट्टा ही एक ऐसा युवक था, जो इस काम को करने के लिए सबसे अधिक उपयुक्त था। उन्हीं सब के बीच ही नहीं, बल्कि इस इलाके के पूरे पंद्रहों गाँवों के बीच भी। भट्टा की थोड़ी सी खुशामद कर देने,...रतन की भाषा में कहें तो उसे जरा सा चढ़ा देने, ऊपर उठा देने भर से ही सब हो जाएगा।

भट्टा-गुट्टी जैसा नामकरण करने के लिए किसी ज्योतिषी से राय-विचार करने की कोई जरूरत नहीं होती। जन्माङ‍्ग में चंद्रमा कहाँ है? राशि कौन सी है? दशा किसकी चल रही है? आदि प्रश्नों की गणना किए बिना ही जिस किसी लड़के का नाम भट्टा-गुट्टी हो सकता है, अगर उसके शरीर का ऊपरी हिस्सा कुछ कड़ा हो, पैरों की ओर का हिस्सा अनपेक्षित ढंग से अचानक पतला हो गया हो, मुँह थोड़ा मोटा और पुष्ट हो, देह का रंग झँवाया सा, घिसा-पिसा सा भोथरा हो, आँखें अपेक्षाकृत छोटी-छोटी हों और बचपन से ही थोड़ा दुष्ट के रूप में बदनाम रहा हो। यह भट्टा-गुट्टी भी ठीक ऐसी ही परिस्थतियों से बना हुआ है। समय के साथ-साथ इन भट्टा-गुड्डियों की आयु तो बढ़ती है, जवान होते हैं, घर-गृहस्थी बसाते हैं, गाँव के गोंट के अन्य घरों की तरह ही एक घर की तरह होते हैं, मगर आकार-प्रकार में प्रायः एक ही अवस्था में ठिठके-ठहरे रह जाते हैं।

छोटे-बड़े भाइयों से अलग होकर, भट्टा नए सिरे से अपना घर बनवा रहा है। उसकी उम्र के लड़के घर बनाने की आवश्यक सामग्री, माने—बाँस, काठ, फूस वगैरह—जुटा दे रहे हैं। खूब भारी-भरकम मगर ऊपर से टूटे बुर्ज जैसा घास-फूस-पुआल से छाया हुआ एक झोंपड़ी का घर। मगर छोटे-मोटे घर में भट्टा रहना नहीं पसंद करता। लकड़ी का काम ठीक-ठाक करने के लिए उसने एक बढ़ई का जुगाड़ कर लिया है। उस घर में एक किनारे की ओर एक छोटी सी कोठरी इकरा

के बेढ़ों (टाटी) से बनाकर उस पर चिपकने वाली मिट्टी का दो-तीन बार लेप चढ़ा-चढ़ाकर उसे रंगीन और चमकदार बना दिया है। उसका छोटा-संसार या परिवार उसी छोटी कोठरी में समाया रहता है। उसके घर-संसार या परिवार का भी मतलब है, वह खुद अकेला, मात्र अकेला। शादी-विवाह तो किया ही नहीं। बाकी सारा घर चारों ओर से खुला हुआ है। एक किनारे की ओर बैल बँधते हैं, उसके पास ही लकड़ियों का ढूह, घास-फूस और इकरा के बोझ-के-बोझ। जाने कब तो इस घर का बनाना पूरा करेगा वह?

रसोई बनाकर बरतन-बासन धो-धाकर, हथेली पर सुर्ती-चूना रखकर अँगूठे से मसलता हुआ, अपने पलंग नामक बिस्तरे (जो दरअसल चार खूँटों के ऊपर बाँस के फट्टों का बँधा मचान है) पर बैठा था भट्टा।

इसी बीच रतन और उसके साथ के लोग उसके करीब जा प्रगट हुए।

होंठ दबाकर वह धीरे-धीरे मुसकराया। वैसे इस मुसकराहट का कोई अर्थ नहीं, बस बात करने का एक प्रयास भर है।

“आइए, बैठिए। इस दुपहरिया में कैसे? किस विशेष उद्देश्य से मेरे घर पर आप लोगों का समागम हुआ है?”

उसकी बात वैसे प्रश्न पूछने जैसी ही है, मगर हर बात को स्वगतोक्ति की तरह ही पूरा करने का उसका नियम है। जब वह कुछ गंभीर मनोदशा में होता है, मन में कोई परेशानी या उलझन नहीं होती, तब अपनी बातों में दो-एक साहित्यिक शब्दों का प्रयोग करके अपनी भाषा को कुछ अच्छा बना लेने की कोशिश करता है।

उनमें से कुछ लोग तो बैठ गए। शुरू में रतन ने भी बैठने की सोची। मगर फिर जाने क्या विचारकर खड़ा ही रह गया। फिर सीधे-सीधे उसने भट्टा के बाहरी बड़े दरवाजे के ढाँचे पर हाथ रखा।

“समझ रहे हो न, भट्टा! इस तुम्हारे भारी दरवाजे की तरह ही। लंबाई-चौड़ाई-मोटाई सब तरह से पूरी तरह इसी के समान भारी-भरकम। अब मैं जो कह रहा हूँ, उसे गौर से सुनो। मेरा अनुमान है कि गाँव में दिए जानेवाले बड़े सामूहिक भंडारे के भोज में जो बड़ी सी कड़ाही इस्तेमाल में लाई जाती है, कम-से-कम उनमें से एक तो लबालब भर ही जाएगी। यही समझो कि एक साधारण आदमी को नहाने भर को पर्याप्त। उस बड़े जंगल के देवलगा (जिस पर देव या देवता का निवास या सवारी होने की बात प्रसिद्ध रहती है) बड़े पीपल के पेड़ पर है। अगर उसे तुम नहीं तोड़ पाए, तब तो फिर किसी और बाप के बेटे में इतनी ताकत नहीं, जो उसे उतार सके।”

उसकी बातें अब तक भट्टा साधारण ढंग से मीठी हँसी हँसते हुए सुनता गया। किसी भी बात को सुनकर अवाक् हो जाने या हतप्रभ हो धक्क से रह जाना भट्टा के स्वभाव के विरुद्ध है। बात सुन लेने के साथ ही वह उठकर खिड़की के पास गया और मुख में पहले से रखी चबा रही सुर्ती के कौर को बाहर थूक दिया। फिर ताजी मली सुर्ती को नीचे का होंठ निकालकर मुँह में भर लिया। हाथ में जो शेष रह गई थी, वह सारी रतन को दे दी।

“समझ पाए! दरवाजे के किवाड़ जैसा मधुमक्खियों का दुवरिया—मधु-छत्ता!”

थोड़ी देर तक भट्टा जाने क्या चिंता करता रहा। उसे इस प्रकार चिंता करते देख उन सब के मुँह ही सूख गए। क्योंकि किसी भी काम के संबंध में चिंता करके, सोच-विचारकर कहना तो भट्टा का स्वभाव ही नहीं है।

“परंतु...अरे धत्, लात मारो, आज पूर्णिमा का दिन जो है।”

“अरे हाँ, आज तो पूर्णिमा है, पूनम जो है।”—सभी का मुँह रस निचोड़ लिये गए मधु के छत्ते जैसा सूखा-चिचुका हो गया। पूनम के दिन तो मधुमक्खियाँ अपना संचित मधु खुद ही चूस लेती हैं। अतएव आज अगर मधु का छत्ता उतारो भी, तो मधु पाने की आशा बहुत क्षीण ही है।

“किंतु इतने भारी छत्ते का मधु भला चूसकर कैसे खत्म कर सकेंगी? अरे कुछ-न-कुछ तो जरूर ही पा सकेंगे।”—किसी भी समस्या से जल्दी हताश न होनेवाले रतन ने कहा।

“अरे, मधु पाओगे, या कि नहीं पाओगे?—यह सब तुम लोगों की अपनी समस्या है, सो इसे तो तुम ही जानो। मेरा काम है मधु-छत्ता उतार देना, अतः मैं तो काट-कूटकर उतार ही दूँगा। बोलो, क्या कहते हो? अगर उतारना है, तो एक बड़े से कड़ाहे का जुगाड़ करो, एक मुट्ठी मूँज भी ले लो, मोटे सूत की खूब मजबूत बटी हुई रस्सी के दो टुकड़े भी ले आओ।...मगर हाँ, उसके पहले चलो सभी चाय पी लें। क्यों ठीक समझते हो न?”

चाय पी लेने के बाद सारी तैयारी करके सभी निकल पड़े। भट्टा ने अपनी मूठमढ़ी कटारी और मधुमक्खियों से बचाव के लिए एक खूब मोटा चद्दरा ले लिया। फिर सभी गाँव के बाहर एक किनारे की ओर स्थित घने वृक्षोंवाले जंगल की ओर बढ़ चले।

गाँव के बाहर का यह घनघोर जंगल एक समय भूत-पिशाचों और दानवों का निवासस्थान रहा है। पिछला जो महायुद्ध हुआ, उस समय सेना की एक टुकड़ी ने इस जंगल के बीच ही अपना डेरा डाल लिया था। संभवतः भूत-पिशाच और दानव सब उसके पहले ही यहाँ से भाग गए, फिर भी अभी भी इस जंगल में कई जगह जहाँ जंगल बहुत घना है, उसके पास जो बड़े-बड़े पीपल के वृक्ष हैं, उनमें से एक पर किसी बहुत बूढ़े देव (अपदेवता) को निवास करते हुए गाँव के एक-दो साहसी लोगों ने खुद अपनी आँखों से देखा है। फलतः भट्टा और रतन के अलावा गाँव के क्या बच्चे, क्या नौजवान या बूढ़े, उधर जाने से बचते हैं। अगर शाम हो जाने पर भी उधर से जाना निहायत जरूरी हो जाता है, तब किसी तरह राम-राम जपते हुए गुजरते हैं और जो अपने को नास्तिक कहते हैं तथा राम-रहीम में विश्वास नहीं करते, अगर उन्हें उधर से अकेले जाना ही पड़ गया, फिर तो उस ओर बिना देखे ही, वे ऐसी मैराथन दौड़ लगाते हुए भागते हैं कि क्या कहा जाए!

उसी सुप्रसिद्ध पीपल के महामोटे वृक्ष की एक मोटी सी डाल एकदम सीधे आकाश को छूने के लिए बहुत ऊपर उठ गई है। उसी डाल के शिखर पर वह पर्वताकार दुवरिया—मधु का भारी छत्ता, आषाढ महीने के बड़े नारियल फल की तरह एक तरफ लटका हुआ है। जब कभी उससे अनजान कोई आदमी उधर से होकर गुजरता है और इस पहाड़ जैसे मधु छत्ते को देखता है, अचानक ही चिंघाड़ मार उठता है, फिर बार-बार आँखें मलमलकर उसे देखता आश्चर्य से ठहर जाता है।

भट्टा ने अपनी धोती लपेटकर कमर में कसकर फेंटा बाँध लिया और मोटी चद्दर को अच्छी तरह पूरे बदन पर ओढ़ लिया। मुँह में एक टुकड़ा एदा (तेज गंध छोड़ने वाला एक पदार्थ) रख लिया। कहते हैं, एदा की गंध से मधुमक्खियाँ दूर भागती हैं, काटती नहीं। मूँठदार कटारी को कमर के फेंटे में खोंस लिया, फिर उस पेड़ के मोटे तने को हाथ जोड़कर छुआ, फिर हाथ माथे से छुआकर पेड़ को प्रणाम किया। किसी भी पेड़ पर चढ़ने के पहले वह इसी तरह पहले उसे प्रणाम करता है। उसके बाद भट्टा का अभियान शुरू हुआ। उसने लक्ष्य कर लिया कि पेड़ के तने में कहाँ-कहाँ पाँव टिकाने या पैर की उँगली टिकने भर को जगह है, फिर पाँव की उँगलियाँ उन्हीं गड्ढों में रखते हुए, हाथ से तने के ऐसे ही गड्ढों या उभारों को पकड़ते हुए, गिलहरी की तरह ऊपर की ओर चढ़ने लगा।

इसी बीच यह खबर बिजली की गति से पूरे गाँव में फैल गई। उस भुतए पेड़ पर दुवरिया—मधु का छत्ता है। दुवरिया—मधु-छत्ते का नाम भी अभी तक अधिकांश लोगों ने सुना तक नहीं था, देखना तो दूर की बात है। उस पहाड़ जैसे मधु-चक्र को तोड़ने गया है वही भट्टा, जो पहले बाघ से भी भिड़ चुका था। मगर बाघ के मुँह से भट्टा चाहे भले निकल आया हो, लेकिन इस बार इस पेड़ पर वास करनेवाले बूढ़े प्रेत के हाथ से वह हरगिज बच नहीं सकता, जिंदा नहीं ही लौट पाएगा। डर, उत्सुकता, घबराहट और आतंक जैसे नाना प्रकार के मिले-जुले भावों के वशीभूत हो गाँव के तमाम लोग दौड़े-दौड़े उस बड़े जंगल के पास आ जुटे। यहाँ तक कि इसके थोड़ी ही दूर पर के कुएँ पर पानी भरने के लिए गाँव की जो लड़कियाँ या बहुएँ आई हुई थीं, वे भी अपने-अपने घड़ों को कुएँ की जगत (चतूतरा) पर ही छोड़कर जंगल के बिल्कुल पास के रास्ते पर आ खड़ी हुईं। सभी ने देखा, मधु से भरी हुईं एक बड़ी सी काली चीज लटकी हुई है। ऊपर...बहुत ऊपर, पेड़ के सिरे पर मधु का छत्ता। नीचे छत्ते की सीध-सीध में अंदाज करके एक बड़ा सा कड़ाहा रखा हुआ है। पेड़ की जड़ के पास ही रतन वगैरह गाँव के नौजवान लड़के खड़े हैं। भट्टा उठता चला गया है, मूल तने से निकली डालों के एक जोड़ से ऊपर उठकर दूसरे जोड़ तक, एक डाल पार कर दूसरी तक, क्रमशः ऊपर-ही-ऊपर चढ़ता हुआ।

“अरे देखो तो, कैसा सर्वनाश होने जा रहा है, कितनी भयानक बात है?” कम उम्र के बच्चों, मर्दों और औरतों के बीच गुनगुनाहट आरंभ हो गई। “अरे यह मधु-छत्ता तो देव का है, यह जंगल भी तो उस भयानक देव या प्रेत का है, इस पेड़ पर तो वही बूढ़ा प्रेत निवास करता है।”

एक आदमी तो एक लंबी उसाँस खींचकर बड़े अफसोस के स्वर में धीरे-धीरे रतन को सुना ही बैठा, “माफ करना भाई रतन। यह काम तुमने अच्छा नहीं किया। अब तो तुम्हें ही पाप लगेगा। सारे दोष का मूल तुम्हीं होगे और थाने के सिपाही गाँव के सभी लोगों को धर-पकड़कर जबरदस्त पिटाई करेंगे।”

लोगों में आतंक, डर और घबराहट के कारण जो परस्पर भुनभुनाहट शुरू हुई, उससे सारा जंगल जैसे मधुमक्खियों के एक भारी झुंड की भनभनाहट से गुंजरित मधुछत्ता बन गया।

“सच बात है, सही ही कह रहे हो। यह बड़ा प्रेत इस पुराने पेड़ से बिना कुछ किए सीधे-सीधे थोड़े ही खिसक जाएगा? अरे, अब तो वह गाँव के एक आदमी को भी सही-सलामत नहीं रहने देगा। किसी की खैर नहीं। पुलिस-सिपाही की मार-मशक्कत तो मामूली बात है। अरे, अभी इसी साल की बात है। नंदराम एक दिन इस पेड़ की एक डाल काट ले गया, सो क्या हुआ? घर जाकर खून की उलटी कर-करके मर ही गया। कई बड़े-बूढ़े और समझदार लोग यह बात अच्छी तरह जानते हैं। कई बार पूर्णिमा की रात को नाटक देखकर इधर से गुजरते हुए बहुत से लोगों ने इस पेड़ की डाल पर बैठे हुए उस बूढ़े देव (प्रेत) को अपनी आँखों से देखा है। उसके माथे पर पर्वत जैसी भारी पगड़ी बँधी हुई, एकदम बगुले के पंख जैसी सफेद बगाबग। पके हुए बड़े जंगली नींबू जैसा भारी मुँह। माथे पर बँधी पगड़ी इस पीपल के पेड़ के ऊपर उलटकर रखी हुई कलशी की तरह चमकती है। और पैर? पैर जमीन पर जमा हुआ। बैठा कहाँ? पेड़ के बीच की उस मोटी डाल पर।”

उस घने जंगल के बीचोबीच बूढ़े, जवान, बच्चों औरतों की एक छोटी सी महफिल बैठ गई और इस अतिशय विचारोत्तेजक घटना के औचित्य-अनौचित्य पर विचार-विमर्श शुरू हो गया।

रतन और कुछ अन्य साहसी युवकों के अलावा बाकी सारे लोग पेड़ से इतनी दूर खड़े हुए, ताकि अचानक कोई विपत्ति आए, तो आसानी से भाग-पराकर बच सकें। क्योंकि इस जंगली मधु-छत्ते की मधुमक्खियाँ अगर पीछे पड़ गईं तो घर-द्वार क्या, पानी में डुबकी लगाने पर भी बच पाना मुश्किल है, किसी तरह रक्षा नहीं हो सकेगी।

अब रतन भी परिस्थिति की गंभीरता को महसूस करने लगा। वैसे उसे महाप्रेत का कोई डर नहीं। मगर मधु-मक्खियों का

झुंड अगर ऊपर-ऊपर ही भट्टा को घेर ले? पूरे मधुछत्ते की सभी मधुमक्खियों की तो जरूरत ही क्या, उनमें से दो-चार ही अगर बारी-बारी से उसे डंक मारने लगें...और घबराहट तथा डर से अगर भट्टा ही डाल हाथ से छोड़ दे...तो फिर... उसके बाद क्या होगा?

मधुमक्खियों का झुंड रतन की अंतरात्मा को ही घेर-घेरकर डंक मारने लगा।

जाने किस बुरी घड़ी में उसने इस पर्वताकार भारी मधुछत्ते को देखा था। और देखा तो देखा, फिर इसे तुड़वाकर इसका मधु खाने का लोभ क्यों किया? और अगर इतना ही लोभ था तो खुद क्यों नहीं तोड़ा? अपने साथियों से इसकी चर्चा क्यों की? लोग ठीक ही कहते हैं—लोभ ही पाप है और पाप ही मृत्यु है। आज अगर उसके इस बचपन के लँगोटिया यार, हमेशा साथ रहनेवाले परममित्र को कुछ हो जाए, यह थाना-पुलिस की बात तो बाद की है, वह भला जिंदा ही कैसे रहेगा? इस जन्म में तो जो दुर्गति भोगनी होगी, सो तो होगी ही, परलोक में भी नरक की यंत्रणा भोगनी पड़ेगी।

उधर लोगों की बातचीत, फुसफसाहट-भुनभुनाहट सभी अपनेआप ही एकदम से गायब हो गई—सबकुछ शांत, निस्तब्ध! सभी सिर ऊपर उठाए, जड़वत् स्थिर हो, बिना पलक झपकाए, एकटक ऊपर की ओर देखने लगे। सभी के मन में कुछ दुर्घटना हो जाने का डर, आतंक और संत्रास का भाव उथल-पुथल मचाता हुआ, साथ ही मधु-रस पाने का लोभ, मधु चखने के लालच का भाव, एक-दूसरे से मिल-मिसकर एक अद्भुत भाव बन रहा था और उधर भट्टा उस विशाल वृक्ष के बीच की उस जगह पर पहुँच गया, जहाँ से एक मोटी डाल फैली है। उसी डाल पर बैठा हुआ कुछ सुस्ता रहा है। इस पेड़ का महाप्रेत भी इसी डाल पर बैठता है।

रतन की आँखों से आँखें मिलीं। भट्टा ने अपनी चिर-परिचित हँसी उस तक पहुँचा दी। इस क्षण उसकी यह हँसी रतन के कलेजे को कटार सी चीरती चली गई। उसका कलेजा हाय-हाय कर उठा। रतन अच्छी तरह जानता है कि वहाँ से भट्टा को लौटा ले आना, किसी भी तरह संभव नहीं है। अतः अब उससे नीचे उतर आने को कहना भी निरर्थक है। हमेशा से ही वह हठी और जिद्दी स्वभाव का है। उसे उकसाकर किसी काम में लगा भर दो, बस फिर क्या, उसे पूरा करके ही रहेगा। उसकी इस कमजोरी का लाभ उठाते हुए सभी शादी-ब्याह, नाटक-नौटंकी, सभा-समिति हर तरह की चीजों में पड़नेवाले जो मुश्किल और खतरनाक किस्म के काम होते हैं, उससे करा ही लेते हैं।

गाँव में किसी के घर विवाह पड़ गया, अब भी बीजूकेला (ऐसा बड़े आकारवाला केला, जिसके फल के अंदर कपास के बिनौले जैसे बीज होते हैं) काटकर विवाह मंडप का तोरणद्वार बनाना है, केले के खंभों-छिलकों-छालों से बटकर सजावट का काम करना है, कौन करेगा? भट्टा गुट्टी। विवाह के प्रवेशद्वार को रातोरात सुंदर ढंग से सजाना है, कौन सजाएगा? भट्टा ही; बस उसके साथ दो लड़कों को दिखाने भर के लिए खड़ा कर देने से ही काम चल जाएगा। गाँव के नामघर (मंदिर और मंडप) की मरम्मत और सजावट करनी पड़ेगी। गाँव के लोग नदी किनारे के ढूहों से लकड़ी-बाँस, घास-फूस काटने निकले, जिससे नामघर के खंभों, छप्परों को बाँधा-छाया जा सके। तीस-चालीस आदमियों के लिए नाश्ता-पानी, भोजन-छाजन की व्यवस्था करनी है, दूर की नदी से पानी बड़े-बड़े गगरों में भरकर लाना पड़ेगा। यह सब कौन करेगा? भट्टा को ही करना होगा। गाँव के लोगों को भट्टा केवल सीधा-सादा सूखा खाना नहीं खिलाता। अरे, उसके साथ तो बस दो लड़के कर देने से ही काम चलेगा। नदी के द्वीप में रहनेवाले मछुआरों का मछली पकड़ने का दलङा (बाँस की खपच्चियों से बना मछली पकड़ने का यंत्र) चुराना पड़ेगा, तब काम बनेगा। या कहीं के छोटे-मोटे गड्ढे-तलैया का पानी हींड़ना-उलीचना पड़ेगा, या फिर किसी का अंडकोषवाला बकरा या बिना अंडकोषवाला खस्सी ही चुराकर लाना पड़ेगा, चाहे जो कुछ भी करना पड़ जाए, गाँव के लोगों को भट्टा मछली-मांस समेत बाकायदा ठाठदार भोजन ही करवाएगा।

देखने में कुरूप, भद्दा, असुंदर। पंरतु देह में महाअसुर की शक्ति है। जिद पकड़ ले, तो कोई ऐसा काम नहीं है, जो कर न डाले। गालों की दोनों हड्डियाँ कुछ अधिक ही ऊपर उठ आई हैं, जिससे मुँह कुछ टेढ़ा-मेढ़ा दिखाई पड़ता है। हाथ-पाँव तो लोहे के हैं। इस आदमी को डरा सके, ऐसी तो कोई चीज ही नहीं है। बच्चे, महिलाएँ, युवक, वृद्ध सभी प्रकार के लोगों में वह समान रूप से लोकप्रिय है। बच्चों के लिए पतंगें बना देना, रेखा खींचने की पटरी बना देना, बाँस की नली से भोंपू बना देना। पाठशाला की परीक्षा में हस्तकला का काम दिखाने के लिए बाँस की टोकरी के ढक्कन का रंगीन रस्सियों से मोर बना देना,

गाँव की कुँवारी कन्याओं और बहुओं-पतोहुओं के लिए फूल चुन देना, बाँस की कइन गढ़ देना, सूत लपेटने की रील बना देना, चरखे की झंडियाँ सजा देना, घर में कपड़ा बुनने के हथकरघे का ताना-बाना बुनने की रस्सियों को बट देना, आदि-आदि तमाम तरह के काम भट्टा गुट्टी के ही तो हैं। सभी के घर में बिना किसी रोक-टोक के अंदर तक उसका आना-जाना है। यहाँ तक कि बिल्कुल टटका नौजवान किशोरियाँ भी उसके पास बिना किसी संकोच के, बिना किसी डर के सहज ढंग से आती-जाती हैं। सभी उसे शांत-शिष्ट मानते हैं और मानते हैं कि उसकी अपनी कोई इच्छा-आकांक्षा नहीं, एकदम गऊ है बेचारा! बस उसका एकमात्र काम है, दूसरों का काम, दूसरों का उपकार करते रहना। उसके संबंध में ऐसी ही धारणा सभी रखते हैं। जरा सा उत्तेजित कर देने, जरा सा चढ़ा देने भर से उसे अपने वश में करके जैसा भी काम चाहें, करवा सकते हैं—यह रहस्य सभी जानते हैं। सभी दो-चार मीठे शब्दों में उसकी चाटुकारिता करते हैं और ऊपरी दिखावे भर के लिए थोड़ा आदर-सत्कार भी करते हैं। माने, वह एक प्रकार का चाकू या हथियार भर है, जिसका इस्तेमाल अपने मन-मुताबिक सभी करते रहते हैं और वह भी अपने को बराबर इसी रूप में सुरक्षित बनाए रखता है।

वह भट्टा गुट्टी आज अपने हमउम्र हमजोलियों के अनुरोध पर इस दुवरिया—मधु-छत्ते को तोड़ने के लिए इस महाभयानक मशहूर महाप्रेतवाले पीपल पर चढ़ गया है।

किसी के मुँह से जरा सी भी आवाज नहीं निकल रही है। कहीं दूर पर किसी बँसवारी की झाड़ी से झिल्ली की उठती झंकार ही लगातार अपनी एकतान सीटी सी आवाज से इस जंगली भू-भाग को चीरती जा रही है। पेड़ के ऊपर से चिड़ियों की सूखी लीदें (बीट) या चींटा-माटा या और कोई भी चीज नीचे सूखे पत्तों पर गिर पड़ती है तो उसका शब्द भी सभी को साफ सुनाई पड़ता है।

उधर भट्टा तब तक उस बीचवाली डाल से उठकर, जो महाखतरनाक मोटी डाल सीधे-सीधे ऊपर की ओर चली गई है, उसी डाल पर चढ़ने लगा। उसी डाल के एकदम ऊपरी सिरे पर ही तो है वह दुवरिया—मधु-छत्ता! यह डाल एकदम सीधी उठी चली गई है, बीच में कहीं कोई शाखा-प्रशाखा या पैर टिकाने की जगह नहीं है; एक सीधे चिकने सुपाड़ी (कसैली) के पेड़ की तरह ही ऊँची और ऊँची।

सभी के मन अनबूझ परेशानी से भर उठे। महिलाओं की भीड़ में से कुछ महिलाएँ एक-दो करके खिसक गईं। मर्दों के समाज में से भी कुछ बूढ़े और गणमान्य जाने क्या भुनभुनाते, रंज मनाते वहाँ से चले गए। कारण यह कि अब तो भट्टा उस असली डाल पर ही चढ़ने लगा है, अब तो इस पेड़ के उस महाप्रेत के हाथों से कोई भी नहीं बच सकेगा, जो ऊपर गया, सो तो गया ही, जो नीचे खड़े हैं, वे भी नहीं बचेंगे।

रतन के मन में रह-रहकर ऐसे भाव-विचार उठने लगे कि प्राणों की व्याकुलता से घबराकर कहीं अनजान जगह को भाग जाए! किसी पहाड़ या खोह में जाकर अपने को छिपा ले! उस महाप्रेत के क्रोध से अपने को बचाने के अभिप्राय से नहीं, उस सबका डर रतन को बिल्कुल ही नहीं है। डर है कि कहीं मधु का छत्ता ही न हिल जाए और कुपित मधु-मक्खियाँ न टूट पड़ें! हो सकता है कि लोगों में प्रचलित इस बात को कि पूर्णिमा की रात के दिन मधु-मक्खियाँ नहीं काटतीं, वे जानती हों। मगर इस पर्वताकार दुवरिया—मधु-छत्ते की मधुमक्खियाँ इस नियम को न मानें तो? यदि...यदि भट्टा को...रतन उसके आगे कुछ भी सोच नहीं सका। वह धड़ाम से वहीं बैठ गया और कुछ न कर पाने की दशा में सुर्ती निकालकर मलने लगा। रतन को ऐसा करते देख आस-पास के दो-चार सुर्ती-रसिक भी उसके करीब आकर बैठ गए। उनके मुँह भी सूखकर फलों के रसहीन सूखे छिलकों की तरह चिचुक गए थे।

रतन के हृदय में खलबली मची थी। मन में नाना प्रकार की चिंताएँ हवा की तरह हिलोरें ले रही थीं। केले के पत्ते की तरह आगे-पीछे हिल-डुल रही थीं। भट्टा उसका बचपन का दोस्त है। यद्यपि उम्र में समान-समान हैं, फिर भी भट्टा उसकी बातों का अक्षरशः पालन करता है। दोनों के स्वाभाव में भिन्नता है। रतन बराबर धीर-गंभीर और स्थिर रहता है, जबकि भट्टा हमेशा चंचल, अस्थिर, धैर्यहीन। रतन किसी भी काम को करने के पहले आगे-पीछे खूब मनोयोग से सोच-विचार लेता है, जबकि भट्टा बिना कुछ सोचे-समझे ही काम पर टूट पड़ता है। रतन की बुद्धि और भट्टा की असीम साहसिक शक्ति जब दोनों मिल जाती हैं तो असंभव को भी संभव बना देती हैं। रतन दरअसल हमेशा से बातों का बली है। प्रायः हमेशा ही जनसाधारण के सामूहिक-हित के कामों को करने के लिए पहले रतन ही अगुवाई करता है, मगर जब देखता है कि काम कुछ ज्यादा ही कठिन है, या उसके करने में कोई खतरा है तो मौका ताककर पीछे हट जाता है, परंतु उस काम को करने के लिए जी-जान से खट मरता है भट्टा ही। वे दोनों मिलकर नदी के किनारे की माटी-बालू-कंकड़ भरी जमीन पर ईख और सरसों की खेती करते हैं, सो भी ऐसी खेती, जिसका मुकाबला कोई न कर सके, परंतुअसलियत में उसका अधिकांश काम भट्टा ही करता है।

आज वही भट्टा रतन की बात पर, नहीं-नहीं रतन के कहने में आकर इस विराट् मधु-छत्ते को तोड़ने के लिए इस महाबदनाम भयानक देव के निवासवाले पेड़ पर चढ़ गया है। रतन धरती पर अत्यंत हीन, दीन और निरीह, बेचारा बना बैठा है और भट्टा ऊपर है। दरअसल ही बहुत ऊपर। ऐसा लगता है, जैसे भट्टा गुट्टी सशरीर स्वर्ग की ओर जा रहा है और ये जो तमाम लोग यहाँ इकट्ठा हुए हैं, लगता है, ये सभी उसकी इस स्वर्ग-यात्रा पर हरिध्वनि देकर— रामनाम सत्य है—बोलकर उसे विदाई देने आए हैं। पुरानी उपदेशमूलक कहानी में सुपाड़ी चुरानेवाले चोर ने ही तो किया था। ओह... हो, ऐसी संकटपूर्ण गंभीर स्थिति में हँसी मजाकवाली कहानी पता नहीं कैसे याद आ रही है, उसकी एक ही बात पर, बस थोड़ा सा कह देने भर से ही भट्टा गुट्टी अपनी जान हथेली पर लेकर मधु-छत्ता तोड़ने आ गया। सचमुच ही रतन एक परम स्वार्थी, नीच, हीन स्तर का व्यक्ति है, भट्टा की तो कानी उँगली के बराबर भी वह नहीं है। भट्टा उससे बहुत ऊँचा है, सचमुच ही बहुत ऊपर है, बहुत-बहुत ऊँचा। भट्टा बिना रतन से पूछे कोई भी काम नहीं करता। जूट, सरसों की बिक्री के दाम तय नहीं करता, जब तक वह न जाए, गाय-बैल नहीं खरीदता और क्या कहें? जब तक वह नहीं जाता, तब तक वह खुद किसी नाटक में भी कोई अभिनय करना स्वीकार नहीं करता, भले ही कोई उसे नाटक के मुख्य नायक का ही अभिनय करने का प्रस्ताव क्यों न रखे।

सचमुच ही आज के इस विशेष क्षण में रतन के हृदय में अपने इस निष्कपट-सच्चे मित्र के लिए ऐसा प्रेमरस छलका-छलका पड़ रहा था कि इस पीपल के पेड़ के नीचे जो कड़ाहा खुला हुआ था, मानो वह इसी प्रेमरस से भर उठा हो और रस से भरा कड़ाहा टगबगा रहा हो! बचपन से आज तक कभी भी वह गहरा दोस्त उससे इतना अधिक दूर नहीं हुआ।

उसकी आँखें आस-पास इकट्ठे आदमियों की तरफ घूमीं। सभी के मुँह कड़ाह की तरह ही पेड़ के ऊपर की ओर एकटक निहार रहे थे। घृणा और क्रोध के भाव उसकी आँखों, मुख और माथे पर फणधर साँप की तरह फण फटकारकर फुफकारने लगे। लगता है, सभी के सभी ठग-लुटेरों के गिरोह हैं, दूसरे का खून चूसनेवाले पिशाच हैं। इनके लिए तो बस अपना स्वार्थ ही सबकुछ है। आज अगर भट्टा से इनका स्वार्थ कुछ सध गया, तो मधु लूटकर भट्टा-गुट्टी को थोड़ी सी वाह-वाही देकर अपने-अपने घर भाग जाएँगे। उसके लिए नामघर (वैष्णव उपासना स्थल) में आज तक एक खंभा भी नहीं दिया, सभा-समिति में या हरि-कीर्तन करने में उसके आगे पत्तल भी नहीं देते। शादी-विवाह के समारोह में आमंत्रित व्यक्तियों की तरह मेज-कुरसी पर बैठकर एक भले आदमी की तरह खाना खाने के लिए कोई नहीं कहता, उलटे उसकी पीठ थपथपाते हुए विवाहोत्सव करनेवाला गृहस्थ सबके लिए उसे चाय बनाने के काम में लगा देगा।

थोड़ी दूर पर जो शीतल पाटी (एक प्रकार की चिकनी चटाई बनाने के काम आने वाली) की झाड़ी है, उसके नीचे जो मटमैली चिड़ियाँ बैठी थीं, वे अचानक ही वहाँ से फुर्र से उड़ीं और दूसरी झाड़ी पर जा बैठीं। रतन के कलेजे पर जैसे एक झटका सा लगा और उसकी धड़कन बहुत बढ़ गई। उसका दिल भी जैसे एक मटमैली चिड़िया बन गया, वह क्षण भर भी स्थिर नहीं हो पा रहा था। वहाँ उपस्थित सारे लोग भी एकदम स्तंभित से हो गए। भट्टा मधु-छत्ते के बिल्कुल करीब जो पहुँच गया था।

रतन के शरीर का रोआँ-रोआँ भरभरा उठा। जैसे किसी आदमी को सुपारी लग जाए, वैसे ही अचानक ही उसे झटका लगा और एक मूर्च्छा सी छाने से सिर चकराने लगा। कई लोग तो इस दृश्य को देखने में इतने भयभीत हो गए कि उन्होंने अपनी आँखों की पलकें जोर से मींचकर बंद कर लीं। रतन ने देखा कि भट्टा एक बहुत छोटी सी डाली पर पैरों के पंजों को दबाकर बैठ गया है। डाल के हिल जाने से दो-चार मधुमक्खियाँ उड़ने लगी हैं; यद्यपि अधिकांश मधु-छत्ते में ही झपट्टा मार रही हैं। ठीक वैसे ही जैसे उसके अपने शरीर के रोएँ भर्रा रहे हैं। बाएँ हाथ से एक बड़ी पतली छोटी सी शाखा पकड़कर (अगर कहीं यह शाखा टूट जाए तो) दूसरे हाथ से अतिशय सावधानी से कपड़े से बहुत अच्छी तरह कसकर मुँह और शरीर को लपेटकर ढँक लिया है। उसके बाद बहुत धीरे-धीरे, विशेष कुशलता और सावधानी से, ताकि जरा भी हिले-डुले नहीं, उसने अब तक मुँह में दबाकर रखी हुई कटारी को अपने दाहिने हाथ में ले लिया। फिर कुछ देर तक उसी स्थिति में चुपचाप दम साधे ठहरा रहा, ताकि जो मधुमक्खियाँ अभी बाहर-बाहर उड़ रही हैं, वे भी मधु-छत्ते में अंदर चली जाएँ।

परंतु ये कुछ क्षण जैसे युग समान हो गए। रतन और अनेक लोग, जो जैसे साँस लेना भी भूल गए, मानो भट्टा कटारी लेकर किसी की हत्या करने बढ़ रहा हो और यह भयानक दृश्य लोगों को बाध्य होकर देखना पड़ रहा हो। रतन से अब और सहा नहीं गया। उसकी आँखें अपने आप बंद हो गईं।

अपनी कल्पना की आँखों से ही रतन भट्टा की प्रत्येक गतिविधि को, उसके हाथों की एक-एक हरकत को देखता गया। यह अब भट्टा की कटारी मधु-छत्ते की ओर बढ़ चली है। मधुमक्खियों मौका पाकर झटके से बाहर उड़ पड़ने की कोशिश कर रही हैं। मधुमक्खियों की इस नोक-झोंक के बीच से ही जगह तलाशते हुए भट्टा की कटारी मधु-छत्ते के चिपकने की जगह की ओर बढ़ रही है, बढ़ रही है।...परंतु अगर मधुमक्खियों का झुंड गुस्से के मारे भनभना उठे! मारे झपट्टा और एक ही साथ भट्टा पर टूट पड़े, घेर ले उसे चारों तरफ से?...

‘धमाक्’ से हुए एक भारी शब्द से रतन को एक जोर का झटका लगा। उसकी आँखें खुल गईं। एक महाभयानक आकार का भारी मधु-छत्ता धरती पर टूटा पड़ा था, जिसका एक हिस्सा नीचे रखे कड़ाहे में गिरा था तो दूसरा हिस्सा माटी पर पसरा था। ऊपर मधुमक्खियों का झुंड हड़बड़ी में पड़ गया और नीचे इकट्ठे आदमियों की भीड़ में भी खलबली मच गई। फिर एक, दो, तीन करते-करते मधु-छत्ते के छोटे-बड़े जाने कितने टुकड़े धरती पर गिरने लगे। कुछ तो कड़ाहे में ही आ टपकते, मगर कुछ आस-पास की जमीन पर छिटक-पसर जाते।

आदमियों के झुंड में हड़बड़ी मच गई। सभी दौड़ पड़े। सभी उस बड़े कड़ाहे पर टूट पड़े। मगर मुँह से आवाज निकालने का साहस किसी ने भी नहीं किया, सारी करामात बस चुपचाप। आदमियों की आवाज सुनकर कौन जाने मधुमक्खी उड़ ही न जाय!

भट्टा पेड़ से उतरने लगा। पहले कुछ धीमी गति से, फिर दुगनी-तिगुनी तेजी से।

पूर्णिमा तिथि की मधुचाक थी। कुछ दिन पहले ही उतारना चाहिए था। अभी तक तो काफी मधु मधुमक्खियाँ ही चूस गई हैं, अगर दिन भर और समय पा गई होतीं तो शायद पूरा-का-पूरा मधु चाट गई होतीं। फिर भी, नहीं-नहीं करके भी काफी है। मधु-रस भरे छत्ते को कड़ाहे में भरकर दो चुस्त-दुरुस्त नौजवान उठाकर जंगल से गाँव ले आए। चारों ओर से लोगों ने उसे घेर लिया। अब तो लोगों के मुँह की आवाज भी फूटने लगी। चहकना-चिल्लाना क्रमशः बढ़ने लगा।

परंतु रतन उसी पेड़ के नीचे, वहीं-का-वहीं खड़ा रहा। इसी बीच भट्टा एक विजयी हँसी हँसता हुआ पेड़ से नीचे उतर आया। जमीन से लगभग तीन हाथ ऊपर था, तब वहीं से नीचे कूद पड़ा और अपने कपड़े-चादर वगैरह झाड़ने-फटकारने लगा। रतन के पास के भी कई आदमी भट्टा के करीब सरक आए और उसे घेरकर खड़े हो गए।

रतन के चेहरे पर कोई हँसी नहीं है, कोई खुशी नहीं है। मुँह से बोल भी नहीं फूट रहा है। वह चुपचाप भट्टा के करीब आया और उसकी देह पर पड़े चींटी-चींटों, सूखे पत्तों वगैरह को झाड़ने लगा।

“ला दे भाई रतन, थोड़ी सी सुर्ती दे। इस मधु-छत्ते का बहुत सा मधु तो मधुमक्खियाँ ही चूस गई थीं।...”

वह और भी बहुत कुछ कहना चाहता था, मगर रतन ने उसके कंधों को थपथपाया और शांत किया। फिर हाथ पकड़कर जंगल से बाहर एकांत में ले गया।

“तुम्हारा काम मधु-छत्ता काटकर ला देना था, सो तुमने कर दिया। अब मधु-रस वे लोग चखें, खाएँ। और हाँ, ध्यान देकर सुन लो! आज से फिर कभी भी मेरे सामने इस तरह का खतरनाक प्राणांतक काम कभी न करना! मैं कभी करने ही नहीं दूँगा।” जाते-जाते रतन अपनी चेतावनी दे गया।

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