मछुआ (कहानी) : अमरकांत

Machhua (Hindi Story) : Amarkant

भीतर से बंद दरवाजों की कुंडी खुलने की आवाज सुनाई पड़ी। क्षण-भर की प्रतीक्षा के बाद अनिलेश ने किवाड़ ठेलकर कमरे में कदम रखा तो उसकी दृष्टि अदृश्य शरीर के पीछे बगुले के पंख की तरह श्वेत फड़फड़ाते आँचल को ही पकड़ सकी।

‘चाची जी नहीं है क्या?’ बेंत की कुर्सी कुछ आगे खींचकर बैठते हुए उसने जैसे हवा से प्रश्न किया।

भीतर बरामदे से ख़ुशी और लज्जा की उत्तेजना तथा कंपन से युक्त कोमल स्वर को सुनकर वह आगे कुछ न बोला और चुपचाप दरवाजों पर टँगे लाल पर्दे को देखने लगा, जो हवा में उड़ रहा था। फिर अपने चिकने, काले और उल्टे झाड़े गए बालों पर धीरे-धीरे हाथ फेरकर कमरे को निहारने लगा, जिसके बीच में दीवार से सटे तख़्त पर काली मोटी दरी तथा जोगिया रंग की साफ़ चादर बिछी थी। परंतु सहसा नीरजा हवा के तेज झोंके की तरह भीतर आई और किताबों की अलमारी में से दो पत्रिकाएँ निकालकर तख़्त पर रखती हुई उसी तरह वापस चली गई। उसने अनिलेश की ओर एक बार भी नहीं देखा। उसका चेहरा तमतमाया हुआ था और बड़ी-बड़ी आँखें किसी उमंग से चमक रही थीं। उसकी चौड़ी मुलायम पीठ पर फैले लंबे और घने बाल कमर के नीचे लहराते चले गए थे। अनिलेश खोई-खोई दृष्टि से उधर देखता ही रह गया।

पत्रिकाएँ लेकर वह उलटने-पुलटने लगा लेकिन, उसकी तबीयत उचट-सी गई। उसका हृदय गहरे दुःख से भर आया था। उसकी समझ में नहीं आता था कि इन कुछ ही महीनों में उसमें ऐसा परिवर्तन कैसे हो गया! स्नान-पर्व के समय ठसाठस भरी धर्मशाला के समान इस बस्ती में वह बहुत दिनों से रहता था और डेढ़ वर्ष पूर्व सीतादेवी जब इस क्वार्टर में आई तो उसका जीवन निर्द्वंद्व था। उसके मित्रों ने कहा कि उसकी पाँचों अँगुलियाँ घी में हैं, क्योंकि माँ की उम्र चालीस से अधिक नहीं और बेटी का शरीर बरसाती नदी तरह बढ़ा हुआ है। वह एक सरकारी दफ्तर में काम करता था और अपनी पत्नी को सदा गाँव में रखता था। उसकी शक्ल-सूरत भी अच्छी थी। उसका जीवन-दर्शन था कि इस भवसागर में स्त्रियाँ मछलियाँ हैं और वह मछुआ! वह कहता था कि जाल डालने के लिए बुद्धि और अनुभव की आवश्यकता होती है, बुरे काम के लिए कोई भी स्त्री बुरी नहीं होती और परिश्रम नहीं करना चाहिए जहाँ सफलता की आशा हो। इसीलिए वह ग़रीब या मर्द-शून्य कुटुंबों, कमजोर पतियों की बीबियों तथा घरेलू अन्यायों से असंतुष्ट युवतियों को ध्यान में रखकर अपनी योजनाएँ बनाता था। नीरजा को देखकर उसके मुँह में पानी भर आया। गोरा चेहरा, लचकदार मजबूत शरीर, शब्दहीन चाल और नुकीली नाक, जो ख़ुशी का भार न सँभाल सकने के कारण हलके-से सिकुड़ जाती थी।

परंतु एक शाम को जब वह दफ्तर से लौटा, उसका शरीर चूल्हे के तवे की तरह जल रहा था। रात-भर वह बेहोश-सा पड़ा रहा और दूसरे दिन सीतादेवी उसको कब देख गई और कब डॉक्टर को ले आई, यह भी उसको ठीक-ठीक याद नहीं। माँ-बेटी की तीमारदारी से ही वह शीघ्र चारपाई से उठ सका, लेकिन अचंभे की बात यह थी कि बीमारी के बाद भी उसके प्रति सीतादेवी का स्नेह बढ़ता गया था, जिसके कारण वह उनके परिवार में घुल-मिल गया। उसने उनके यहाँ कितनी बार भोजन किया या नाश्ता, इसकी कोई गिनती नहीं। घर में कोई ख़ास चीज बनने या किसी के यहाँ से मिठाई-प्रसाद आने पर उसका हिस्सा अलग रख दिया जाता। शहर के किसी बालिका विद्यालय में पढ़ाने वाली वह साधारण-सी महिला जितनी कर्मठ थी, उतनी ही निश्छल भी। नौकरी के अलावा वह शाम-सबेरे ट्यूशन, बाजार-हाट, रसोई-पानी, सब-कुछ करती थी। दस वर्ष पूर्व पति की मृत्यु के बाद से अब तक घोर परिश्रम करके उन्होंने अपनी लड़की को इंटरमीडिएट में पहुँचाया था। नीरजा अपनी माँ के कड़े अनुशासन में रहकर पढ़ने-लिखने के अलावा पुस्तकों पर कवर चढ़ाती, कमरे को सजाती, पर्दों और तकियों के गिलाफ़ को बदलती, दीवारों पर नए चित्र-कैलेंडर टाँगती और घूमने-टहलने या मनोरंजन के नाम पर बस्ती की शिक्षित नवविवाहित बहुओं से सिलाई-कढ़ाई के नए गुर सीखती ।

अनिलेश यह सोचकर मन-ही-मन बहुत प्रसन्न हुआ कि अब जाल डालना बहुत आसान हो गया है। उसका दिल साफ़ नहीं था, इसलिए वह अपने एहसानों का पलड़ा भारी रखने की चेष्टा करने लगा। उसका यह भी कहना था कि पैसे से स्त्री का दिल मोम की तरह पिघल जाता है, इसीलिए वह अंधाधुंध ख़र्च भी करता था। सीतादेवी ने कई बार मना किया, लेकिन वह आग्रह करके बाजार-हाट कर देता, अक्सर अपने पैसे से ढेर-से फल और मिठाई लाकर रख देता और नीरजा के लिए पत्र-पत्रिकाएँ और पुस्तकें ख़रीद लाता। परंतु इतने से ही उसको संतोष न हुआ, जैसे उसके दिल में कुछ काटता हो। अब वह अपनी हैसियत तथा आचरण के संबंध में डींग भी मारने लगा। जैसे अत्यधिक महत्त्वहीन बात कह रहा हो, इस तरह हलके-फुलके ढंग से बताता कि गाँव में उसके सैकड़ों बीघे बाग़-बग़ीचे हैं, नौकर-चाकरों की भीड़ लगी रहती है, रोज ही बाहर के लोग आकर खाते-पीते रहते हैं और उसके पिता जी इतने हठी हैं कि अपनी छोटी छिाद पूरी करने के लिए हजारों रुपए ख़र्च कर देते हैं। उसने कई बार यह भी कहा कि उसके दिल की भावनाओं का लोग ग़लत मतलब लगाते हैं, जबकि वह दूसरों के लिए जान देने को तैयार रहता है। माँ और बेटी उसकी बातें हास्य कुतूहल, विश्वास और आश्चर्य के भाव से ध्यानपूर्वक सुनती थीं।

वह शीघ्र ही एक ऐसी परेशानी महसूस करने लगा, जिसकी उसने कल्पना नहीं की थी। इसी बीच बस्ती में यह ज़ोर की अफ़वाह फैली कि अनिलेश का माँ और बेटी दोनों से संबंध है। लोग यह भी कहते हैं कि सीतादेवी बहुत घुटी औरत है और बेटी की जवानी का लालच देकर अपना स्वार्थ-लाभ कर रही है तथा रुपए भी ख़ूब ऐंठ रही है। यही नहीं, धीरे-धीरे जान-पहचान की औरतों ने सीतादेवी के घर जाना बंद कर दिया। अनिलेश के मित्र उस पर व्यंग्य कसने लगे। जब वह सीतादेवी के घर के अंदर रहता तो पड़ोस का कोई लड़का किसी बहाने से भीतर आकर टोह लेता। एक दिन नीरजा बस्ती की अपनी कुछ सहेलियों से लड़ गई और उसने उनके आक्षेपों का उत्तर देते हुए कहा था कि ‘अनिलेश जैसा शरीफ़ व्यक्ति बस्ती में दूसरा कोई भी नहीं!’ परंतु इतने पर भी उस विधवा अध्यापिका के व्यवहार में कोई परिवर्तन नहीं हुआ। अनिलेश के हृदय पर किसी ने बोझ रख दिया था। वह गंभीर रहने लगा। जब वह नीरजा के सामने जाता तो उसकी आँखें नीची हो जातीं। उसको कभी-कभी क्षोभ होता कि सीतादेवी उस पर क्यों विश्वास करती हैं? वह अक्सर कहती थीं कि यदि उनका बच्चा जीवित रहता तो आज उसी की शक्ल-सूरत और उम्र का हुआ होता। उनकी बड़ी-बड़ी निश्छल और पीड़ामयी आँखें उसका पीछा करने लगीं।

नीरजा का जीवन सूखे धान की तरह रहा था, जिसमें अब पानी पड़ गया था। परिचय के पूर्व उसने अनिलेश के संबंध में सोचा भी नहीं था, लेकिन माँ का रुख अनुकूल होते ही वह सहसा बसंत ऋतु की हवा की तरह कोमल हो गई थी। माँ की असहायता, कष्ट और एकाकीपन के कारण वह सदा दहशत तथा घुटन के बीच रहती आई थी। जब दूसरों के घरों में रिश्तेदार आते, जिसके कारण ख़ूब चहल-पहल तथा हुड़दंग होती या पड़ोसी लोग खेल-तमाशा जाते तो उसका हृदय एक अनजान उदासी और रिक्तता से परिपूर्ण हो जाता। परंतु उसकी माँ किसी रिश्तेदार के यहाँ जाना नहीं चाहती थीं, क्योंकि उसके पिता की मृत्यु के बाद किसी ने भी उनसे अच्छा व्यवहार नहीं किया था। वस्तुतः परिस्थिति की मजबूरी और साहस की कमी के कारण नीरजा अपनी माँ के दिमाग़ से ही सोचती थी और उसमें एक ऐसा हीन परावलंबन का भाव बना रहता कि उसने कभी अपने संबंध में विचार नहीं किया था। अनिलेश का आगमन उसकी जिन्दगी में एक नई घटना थी, जिसने उसके मन को स्फूर्ति और रहस्यमयता से भर दिया। वह अत्यधिक ख़ुश रहने लगी। उसको प्रथम बार महसूस हुआ कि उसकी माँ से अलग उसका एक स्वतंत्र जीवन है। वह अपनी जवानी और उसके सुख तथा पुरुष के प्यार के संबंध में सोचकर अनिलेश के प्रति कृतज्ञता का अनुभव करने लगी और जैसे उसी कृतज्ञता का बदला चुकाने के लिए वह अनिलेश को प्यार करने लगी।
‘अरे, तुम बैठे हो?.... क्या बताऊँ, मुझे बड़ी देर हो गई।’

सीतादेवी ने कमरे में कदम रखा तो अनिलेश चौंककर खड़ा हो गया। उनके चढ़े मुख से प्रकट था कि वह धूप में पैदल चलकर आई हैं। वह दरवाजों का सहारा लेकर सुस्ताने लगी थीं। उनके दाहिने हाथ में एक बड़ा झोला था और उनकी चप्पलें धूल से भरी थीं तथा प्लाट के बीच में एक मोटी-सी नीली नीली उभर आई थी।
‘चाची जी, मुझसे कह दिया होता।’
‘अरे नहीं बेटा...तुम बैठो...खाने में क्या देर है, नीरजा?’ वह फुर्ती से भीतर चली गई।
‘तैयार तो है!’ नीरजा के उत्तेजित स्वर में कृत्रिम नाराजी और प्रच्छन्न ख़ुशी के टकराव का आभास था।

कुछ देर तक माँ-बेटी में न मालूम क्या खुसुर-फुसुर होती रही, जिसके बाद बर्तनों की झनझन-खनखन सुनाई देने लगी है। हवा ख़ूब तेज चल रही थी, जिसके कारण पर्दा फड़फड़ा कर उड़ता था तो बाहर की धूप आँखों को चौंधिया देती थी।

अनिलेश को अब पूरी तरह समझ में आ गया कि नीरजा आज प्रथम बार अपने हाथ से रसोई बनाकर उसको खिला रही है, इसीलिए बहुत ख़ुश और शर्माई हुई है और सामने आने से बच रही है। वह जानता था कि वह उसको बुरी तरह प्यार करने लगी है और आज वह एक हलका-सा संकेत कर दे तो वह सब-कुछ न्यौछावर करने को तैयार हो जाय और यह विचित्र बात थी कि ज्यों-ज्यों वह गंभीर होता गया, नीरजा उसके साथ और साहस तथा शोख़ी से पेश आने लगी। न मालूम कितनी बार उसके कमरे में आकर उसकी किताबों को उलट-पुलट गई है, उसका स्टोव जलाकर उसके लिए चाय बना गई है, उसके कमरे में झाड़ू लगा गई है, उसके कमरे को सजा गई है और देर तक चिड़ियों की तरह चहककर पता नहीं कहाँ-कहाँ की बातें कर गई है...अकेले में वह उसको देर तक घूरती रह जाती थी। उसकी चाल, उसकी बोली, उसकी हँसी, उसकी पोशाक....उसकी हर बात एक खुले पृष्ठ की तरह थी। परंतु अनिलेश ने कभी भी अपने हृदय की इच्छा प्रकट नहीं की‒अपने किसी व्यवहार या संकेत से भी नहीं। आखिरकार ऐसा क्यों? कोई दुःख उसके हृदय में तेज छुरी की तरह धँसता गया।

नीरजा तेजी से कमरे में आकर अनिलेश के सामने एक छोटी मेज और स्टूल रख गई। उसने एक बार उसकी ओर ऐसी दृष्टि से देखा जैसे भारी प्रशंसा का काम कर रही हो। उसने अपनी सफ़ेद साड़ी बदलकर एक लाल रेशमी साड़ी पहन ली थी, जो हवा में सरसरा रही थी। नीले रंग के ब्लाउज में उसका शरीर कसमसा रहा था। उसने अपनी चोटी भी गूँथ ली थी, जो उसकी कमर के नीचे हिल-डुल रही थी।
‘काफ़ी चीजों बना लीं?’ नीरजा ने फिर आकर मेज पर थाली रखी तो अनिलेश ने कहा।
‘कुछ तो नहीं बनाया।’ नीरजा ने तिरछी दृष्टि से देखा और फ़ौरन भीतर चली गई।

अब सीतादेवी कमरे में आकर उसको पंखा डुलाने लगीं। नीरजा भीतर बरामदे में ही रह गई थी। सामान सचमुच बहुत अधिक था‒पूड़ी, कचौड़ी, रसेदार तरकारी, खीर, दही बड़े, पापड़, चटनी, अचार! एक प्लेट में फल तराशकर रखे गए थे। कमरे में घी और मसाले की मिली-जुली ख़ुशबू उड़ रही थी। अनिलेश को सचमुच ज़ोर की भूख लगी थी और वह सिर नीचा करके चुपचाप खाने लगा।

‘बहुत दिनों से जिद कर रही थी कि भाई साहब को एक दिन बनाकर खिलाऊँगी,’ सीतादेवी हँसकर बोलीं, ‘आज बहुत सबेरे ही उठ गई थी। मैंने कहा कि इतनी चीजों बनानी हैं, तू थक जाएगी, मैं मदद कर दूँगी। लेकिन यह बिगड़ गई। इसने झट कसम धरा दी कि एक चीज में भी मैं हाथ न लगाऊँ....’
‘अम्मा!’ नीरजा ने भीतर से रुआँसी आवाज में प्रतिवाद किया।
‘अच्छा भाई, मैं अब कुछ न बताऊँगी।’

अनिलेश ने सीतादेवी की ओर देखा। उसके होंठ एक व्यर्थ-सी मुस्कराहट में फैल गए थे। परंतु वह कुछ बोला नहीं है और चुपचाप खाता रहा। लेकिन उसको लगा कि खाने के प्रति उसका सारा उत्साह जाता रहा है और उसका हृदय एक बोझ की तरह भारी होता गया। वह ग्रासों को जल्दी-जल्दी चबाने लगा था। भीतर एक काला भँवरा आकर देर से भनभना रहा था और कमरे में बाहर की उदासी और सूनापन सिमट आया था।

थाली लेकर सीतादेवी आँगन में चली गई। अनिलेश हाथ-मुँह धोकर कुछ देर तक कुर्सी पर बैठा रहा। फिर सहसा उठकर बोला, ‘चाची जी, मैं चलता हूँ...एक जरूरी काम है।’

‘अरे बेटा, जरा इसकी तारीफ़ भी तो कर दो। यहाँ खड़ी मुँह फुलाकर भुनभुना रही है कि इतनी मेहनत से खाना बनाकर खिलाया और तारीफ़ का एक शब्द भी नहीं!’ सीतादेवी हँस रही थीं।
‘ओह, मैं तो भूल ही गया। बड़ा बेवकूफ हूँ, मैं। भोजन वाकई में बड़ा अच्छा बना था।’
फिर वह भारी कदम रखते हुए धीरे-धीरे बाहर निकल गया।

शाम का अंधकार बढ़ता आ रहा था। आकाश में काले-काले बादल दौड़ रहे थे और हवा उसी तरह झकझोर रही थी। अनिलेश ने अपने शरीर पर से चादर हटा दी और हड़बड़ाकर इस तरह उठ खड़ा हुआ जैसे जरूरत से अधिक सो चुका हो। परंतु, दरअसल, उसको एक क्षण के लिए भी नींद नहीं आई थी। वह जल्दी-जल्दी कंघी से बाल झाड़ने लगा, क्योंकि उसको याद आया कि सीतादेवी इस समय ट्यूशन पर चली जाती हैं।’

बाहर निकलकर उसने सीतादेवी के क्वार्टर की ओर उड़ती नजर से देखा, लेकिन दरवाजा भीतर से बंद था। वह पान की दुकान की ओर बढ़ गया। बस्ती-भर में लड़के सड़कों तथा अपने दरवाजों पर पार्क में लड़ती चिड़ियों की तरह शोर मचाए हुए थे। क्वार्टरों के अंदर से अँगीठियों के धुएँ उठकर फैल रहे थे। उसने दुकान पर पहुँचकर एक सिगरेट ली, उसको सुलगाया और कश खींचते हुए वापस लौट पड़ा। उसका हृदय घोर पश्चात्ताप दुःख और निराशा से भरा हुआ था।

कमरे में वह जब तक चारपाई पर लेटा रहा, उसके दिमाग़ में अजीब-अजीब विचार मँडराते रहे थे। यहाँ तक कि अब उसका सारा शरीर सुन्न-सा हो रहा था। सचमुच उसने अब तक अपने जीवन में एक भी अच्छा काम नहीं किया था, जबकि उसकी उम्र तीस वर्ष के लगभग थी और उसके कई बच्चे हो गए थे। शरीर में जितने रोएँ नहीं थे, उससे अधिक तो उसमें दुर्गुण थे। वह अब तक झूठ, दंभ, व्यभिचार और अकर्मण्यता के बल पर अपने को श्रेष्ठ समझता रहा। दफ्तर में वह गप्प-सड़ाका में ही अपना समय गुजार देता था और जब अफ़सर आपत्ति करता था तो वह उसके व्यक्तिगत जीवन के संबंध में झूठी बदनामियाँ फैलाता था। उसको साथियों को आपस में लड़ाने तथा एक-दूसरे की शिकायत करने में आनंद आता था और अपने गाँव में जाकर तो वह और शेर हो जाता था। चूँकि वह शहर में रहता था, इसलिए वह अपने को काफ़ी श्रेष्ठ समझकर वहाँ से ग़रीब और अशिक्षित लोगों की आलोचना करते हुए कहता था कि ‘हिंदुस्तान के लोगों की असभ्यता दूर नहीं की जा सकती।’ इतना ही नहीं, अपनी उच्चता और अहमन्यता में वह कभी भी अपनी सीधी-सादी बीबी से प्यार से नहीं बोलता था, क्योंकि यह सब-कुछ अधिकार के बल पर प्राप्त कर लेता था और काम निकल जाने पर उसको बेहद गुस्सा आता था और वह उसको डाँटता-डपटता तथा कभी-कभी पीटता भी था।

सीतादेवी के दरवाजों पर पहुँचकर उसके कदम ठिठक गए। बस्ती अँधेरे में खो गई थी, यद्यपि बिजली की रोशनियाँ बाहर निकलकर क्वार्टरों के अस्तित्व को प्रकाशित करने की कोशिश कर रही थीं। उसने दरवाजों पर दस्तक दी।

भीतर से दरवाजा खोलकर नीरजा ने सिर बाहर निकाला, परंतु अनिलेश पर दृष्टि पड़ते ही वह बिजली की फुर्ती से पीछे हट गई। वह भीतर पहुँचा तो नीरजा दीवार के सहारे चुपचाप खड़ी थी। उसकी दृष्टि नीचे थी और वह अत्यधिक गंभीर भी थी।
‘एक गिलास पानी पियूँगा।’ वह घबरा गया था, क्योंकि उसकी सारी शक्ति जवाब दे रही थी।

पानी पीने के बाद उसने गिलास उसकी ओर बढ़ाया तो वह डर गया। वह उसके पास खड़ी थी और उसको एकटक देख रही थी। उसकी आँखों में प्यार की भूख थी‒निर्लज्ज प्यार! उसके होंठ काँप रहे थे। उसको अपने शरीर का होश नहीं था और वह अपने स्थान-च्युत आँचल के सिरे को अपनी अँगुलियों के बीच में बुरी तरह मसल रही थी।
‘नीरजा....यह उचित नहीं है।’
अनिलेश का गला सूख रहा था और वह डरकर चुप हो गया, क्योंकि नीरजा का चेहरा फक पड़ गया था।
‘हाँ नीरजा,’ उसने फिर कहना शुरू किया, ‘तुम पर गंभीर जिम्मेदारियां हैं। तुम्हीं को अपनी माँ के दुख को दूर करना है। तुमको आगे बढ़ना है।’
‘जाइए....यहाँ से जाइए!’ नीरजा सहसा चीख़ उठी। अनिलेश ने स्तंभित होकर क्रोध से तमतमाए उसके चेहरे को देखा।
‘नहीं....नहीं...आप जाइए। मैं पैर पड़ती हूँ, आप जाइए...’
वह क्रोध से हाँफ रही थी, लेकिन उसकी आंखों से झर-झर आँसू गिरने लगे थे।
अनिलेश अशक्त कदम रखते हुए कमरे के बाहर निकल गया।

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