लोकतंत्र के पहरुए (कहानी) : डॉ पद्मा शर्मा

Loktantra Ke Pehrue (Hindi Story) : Dr. Padma Sharma

अपनी मस्ती में थे वे सब। सुख में इतने डूबे कि आंख मूंदे भीतर तक डूब कर इन क्षणों को जी लेना चाहते थे वे, जो जगना की वजह से उन्हे देखने को मिले। सन्तो और जगना भी दोनों बहुत खुश हैं और दोनों ही लगातार सोच में डूबे।

सन्तो ने सारी व्यवस्था अच्छे ढंग से संभाल रखी थी। किसी को खाने की शिकायत न रहे न ही ठहरने की या निस्तार की। इसी कार्यकुशलता के कारण तो जगना उसकी खूब तारीफ करता था अपने दोस्तों के सामने, ...कि यह एक चतुर और घर चलाने वाली औरत है, ....यह एक गूंगी गाय है जिसे किसी भी काम में भिड़ा दो न नहीं करती, ...इस जैसी पतिव्रता दुनिया भर में ढूढ़े से न मिलेगी जिसके लिये पति का आदेश सर्वोपरि है- भगवान से भी और धर्मग्रंथों से भी बढ़कर!

आव-भगत का इंतजाम देख कर वे सब बहुत खुश थे और समूह के लोगों के चेहरे पर संतुष्टि का भाव पा जगना की छाती गजभर चौड़ी हो गई थीं

वह दो ट्रकों में भरके अपने तमाम रिश्तेदारों को ले आया था। दो दिन पहले सर्वेश्वर पंडित जी का हुकुम मिला था, ‘जगना, जिनके नाम तुमने वोटर लिस्ट में चढ़वा दिये थे, अपने उन सब रिश्तेदारों को खबर कर दो कि चुनाव से एक दिन पहले आ जाये। न हो तो तुम खुद चले जाओ और लिवा लाओ सिग जनों को। ’

...फिर पंडितजी ने ही दो ट्रकों का बंदोबस्त करवा दिया था।

ट्रक से उतरते ही पंडितजी ने ‘फारम हाउस’ पर जगना के रिश्तेदारों ने अपना डेरा जमा दिया। पंडितजी के खास हलवाइयों ने स्वादिष्ट खाना बनाना शरू किया तो दारू की अनगिन बोतलें भी खुलीं। खाना परोसे जाते वक्त तक सबके सब दूसरी ही रौ मे हो गयें थे। बड़े दिनों बाद सरकारी दुकान की शराब और मलूक ( उम्दा ) खाना मिला। सुरग दिख रहा था सबको। कच्ची पी-पीकर तंग आ गये थे, मुंह में आग सी लग जाती थी, लेकिन आज तो दूसरा ही स्वाद था।

जगना ने देखा कि सब लोग अपने धरउल ( संभाल कर रखे गये वक्त मौका पर पहनने योग्य उम्दा ) कपड़े पहन कर आये थे। कुछ शौकीन लड़के तो पैसे उधार लेकर नयी शर्ट भी बनवा लाये थे, उन्हें मालूम था, जाते बखत खजूर छाप (सौ का नोट ) मिलेगा सो कर्जा पटा देगें।

जगना पंडितजी का खास आदमी। आदिवासी टोले में खूब चलती उसकी। जब-जब चुनाव होते उसे बड़े अदब से बुलाया जाता। प्रचार के दिनों में तीन-चार महीने उसे पंडितजी और जनता से जो सम्मान मिलता था उसी सम्मान की यादों की जुगाली करते वह पांच साल बिता देता था। वह जहां भी जाता पंडित जी के कारण उसे लोग हाथोंहाथ लेते थे। ऐसे में उसकी छाती फूल जाती और पंडित जी के लिये उठाये गये जोखिमों की भरपायी हो जाती थी।

जगना की लम्बाई अधिक नहीं थी लेकिन उसका गठीला शरीर देखकर अच्छे-अच्छे डर जाते थे। गाढे की धोती और बंडी में उसका शरीर कुलाचें मारता था। ऐन मोटा लट्ठ उसके कंधे पर रहता था और वह सीना तानकर चलता था।

वैसे तो सभी लोग पंडितजी को ‘महाराज’ कहते थे लेकिन जगना ने उसका और अधिक संक्षिप्त रूप ‘मराज’ कर लिया था।

सन्तो जानती है कि जगना के लिए पंडित जी ‘साक्छात हरि औतार’ है। पंडितजी यानी सर्वेश्वर जी बरसों से इस क्षेत्र के एम.पी. है। इस बार के जिला पंचायत के सभासद के चुनाव में उन्होने अपने बेटे नेकराम को खड़ा किया है, दरअसल उनकी नजर जिला पंचायत के अध्यक्ष के पद पर है जिसका दर्जा राज्य की सरकार ने मंत्री के बराबर करने का एलान किया है। परसों जिला पंचायत के सभासद का चुनाव है यह तैयारी उसी के लिए है। जगना सुनाता है कि यही सर्वेश्वर जी कभी कट्टर कर्मकाण्डी ब्राह्मण हुआ करते थे- छुआछूत मानने वाले और वेद के बताये मारग पर चलने वाले संस्कारी आदमी! लेकिन मौका देख कर राजनीतिक चाल-चलन के कारण बदलते समय के साथ-साथ वे अपने व्यवहार में लचीलापन ले आये। अब छुआछूत को त्यागकर वे दलित नेताओं के साथ बैठते-बतियाते थे और समय आने पर उनके घर भी चले जाते हैं।

जगना खुद का वोट गाँव में डालता था और जरूरत होने पर शहर में भी। दोनों जगह उसके नाम थे। गांव में जब भी पार्टी के नेताओं के भाषण होते या कोई मंत्री-वंत्री आते, महाराज के संग-संग वह भी जाता। वहाँ भीड़ इकट्ठी करना, जय-जयकार करवाना, तालियाँ बजवाना सब उसके जिम्मे होता था। इसके लिए पंडितजी जगना को खजांची बना देते थे। वह एक-एक पैसा दांत से पकड़ कर रखता, कंजूसी सी खर्च करता। बच्चों की भीड़ कम रेट में इकट्ठी हो जाती थी, बूढ़ों की भीड़ में थोड़ा अधिक खर्च करना पड़ता था। जवानों की भीड़ के लिये और जयादा मशक्कत होती थी। सभा में पहूंचने के पहले वह सबको समझा देता कि तालियाँ कब बजानी है? नारे की किस लाइन के बाद कौन सी लाइन बोलना है यह भी रटा देता। नेताओं के बीच उठने बैठने और शहर आने-जाने से वह अपना भला-बुरा समझने लगा था। अपने टोले में भी अपनी समझ के मुताबिक वह सबको समझाता और बताता रहता कि कौन सी पार्टी अच्छी है, कौन सी खराब। वह महाराज के लिए जान न्यौछावर करने तैयार रहता और जान लेने के लिए भी। महाराज के प्रति उसके मन में विश्वास था कि कुछ भी उंच-नीच हो जाये वे उसे बचा लेगें।

मतदान शुरू हो गया था। टपरिया मतदान केन्द्रं की निगरानी उसके जिम्मे थी। जगना के रिश्तेदार बतिया रहे थे कि आज तो ठप्पा वाले वोट गिरेगें,पिछली बार जैसी”पीपी” वाली मशीन नहीं आयी है। जगना कहना चाहता था कि वोट डालने की मशीन भी कह देते तो ठीक रहता, ये क्या कि पी पी वाली मशीन कह रहे है। जब से सब लोग आये, जगना सबको चुनाव चिन्ह का चित्र समझा-समझा कर परेशान हो गया था। वैसे हर बार वोट डालने वाले दिन ही उसे लगता था कि पढ़ना-लिखना बहुत जरूरी होता है। वह तो कोशिश करके दस्तखत बनाना सीख गया था लेकिन सारे रिश्तेदार कों काला अक्षर भैंस बराबर था। वे सब वोट डाल रहे थे और वोट की पर्ची मांगते वक्त जब वे कागज पर अंगूठा लगाते तो जगना शर्मशार हो उठता।

वोट डालने वाले लोग आते जा रहे थे और तेजी से मतदान चल रहा था। भीड़ और घूंघट का फायदा उठा कर जगना के घर की बहुंए कई बार वो ट डाल गईं थी।

बस्ती की बूढ़ी काकी सत्तो एक लड़के का सहारा लेकर लठिया टेकते हुए आयी।मतदान अधिकारी ने उनसे नाम पूछा तो बोली - “ पतो नइये”

साथ वाले लड़के ने कहा - “ बुढ़ापे में मति सठिया गई है। रामदेई नाम है, रामदेई पत्नी बल्देव”

एक कर्मचारी ने कागज पकड़ाया तो बुढ़िया बोली ‘ मैं नहीं ले रई कोई कागद!’

“क्या वोट नही देना किसी को?”

“नई दैनो”

“तो आयी क्यों हों”

लड़के की तरफ इशारा करते हुये बोली - “जे लकइया लगो ल्याओ है, नासपीटो कह रओ थो के पिछले साल मरी रामदेई के नाम से वोट डाल दिये तो चश्मा बनवा देगों”

वह लड़का दलित पार्टी का था, सो जगना ने चिल्लाना शुरू कर दिया - “परजातन्त्र में कोनऊ जबरदस्ती नई चलैगी, दूसरों के नाम से वोट नही डाले जायेंगे!”

वह लड़का भी चीखने लगा, “ वे घूंघट वारी कौन की लुगाई थी, पहचानी का काउ ने? वे भी तो दूसरों के नाम से वोट डाल गईं। हमे सब पतो है।”

मतदान अधिकारियों के समझाने पर बड़ी मुश्किल से मामला शान्त हुआ। लेकिन इस घटना से पता लगा िक इस बार दलित पार्टी वाले भी पूरे सक्रिय हैं, और इस मतदान केन्द पर उन्हे ही ज्यादा वोट मिलेंगे ऐसी आशंका होने लगी। नेकराम के हारने की आशंका ने जगना के कान खड़े कर दिएं।

...और जगना जाने कहां गायब हो गया।

जैसे तैसे कर के पांच बजे। मतदान पूरा हो गया था

मतदानकर्मी अपनी-अपनी पेटियां लेकर जा रहे थे। टपरिया चुनाव क्षेत्र की टीम अपनी वोटों से भरी पेटी और दीगर सामान साथ में लिये पुलिया पर बैठकर सरकारी वाहन का इन्तजार कर रही थी कि एक जीप अचानक आकर रुकी। जीप में से जगना उतरा उसके साथ चार आदमी और थे। उन आदमियों ने तेजी से पेटियो पर हमला बोला, और विरोध किया तो टीम के आदमियों को धक्के मार कर गिरा दिया। फिर जगना पेटी जीप में रखकर सबके संग गायब हो गया। चुनाब अधिकारी पशोपेश में था। उसे लग रहा था कि उसकी तो नौकरी दांव पर लग गई है।

लेकिन उन सबको तब राहत मिली जब लगभग एक घंण्टे बाद पेटी वापिस कर दी गयीं। अधिकारियों ने भय के कारण इस बात को उजागर नहीं होने दिया। ...वह पेटी ज्यों की त्यों जमा करा दी गयी।

उस रात आदिवासी टोले में जाकर ठहरे जगना के सारे परिजन। वहां गाना आरंभ हुआ, मंजीरे बजने लगे, ढोलक की थाप पर बहुरियाँ नाच उठी। ऐसे मौके कम ही मिलते हैं जब सब इकट्ठे होकर रोजी-रोटी से निश्चिन्त मिलजुलकर बैठ पाते हैं, सो अनेक लोग रंग में थे और कुछ लोग तो तब ठुमका लगा रहे थे। सन्तो ने कत्थई रंग की सस्ती बनारसी साड़ी पहनी हुई थी और आज अपने लोगों के बीच अपना शहरीपन दिखाने के लिए उसने अच्छा-खासा मेकप भी कर रखा था। सबसे ज्यादा मस्त हो कर वही नाच रही थी, जगना मोहित सा हो कर उसे एकटक देखे जा रहा था।

अचानक एक जीप आकर रूकी। जगना ने पहचाना, जीप हवेली की थी। वह जल्दी से उधर लपका। जीप में से पंडित दामोदरजी उतरे, (दामोदरजी पंडितजी की बेटी के बेटे (नाती ) हैं, इसलिये जगना उन्हें भानैज कुँवर कहता था। ) जगना ने पांय लागन किया और आश्चर्य मिश्रित स्वर से बोला -

“अरे भानैज कुंवर! जा बखत कौन सी विपदा आय गयी जो टोले तन रूख कर दियो।”

दामोदर बोले-” इन सबके रूपये लाया हूं। नानाजी ने पहुँचाये हैं।”

यकायक शराब का भभका जगना के नथुनों तक आ गया। ...और उसका माथा ठनका उठा ...कि और समय तो मराज सबेरे विदाई समय रूपिया देते थे, आज कौन कारन से जा बखत रूपिया पहुँचाये हैं।...और भानेजकुंवर भी आज होश में नही है। सहसा उसका मन आशंकाओं से उलझ गया। वह कल भी देख रहा था कि चुनाव केन्द्र पर भानैज कुँवर उसकी पत्नी सन्तो को घूर-घूर के देख रहे थे। जगना ने सन्तो को तुरंत ही घर लौटा दिया था।

अपने विचारों को बीच में ही रोककर वह जल्दी से बोला - ल्याओं आप काहे तकलीफ करत हो, सबन के रूपइया इकट्ठे मुझे ही दै दो सदा की तरह मैं बांट दूगों।”

दामोदर ऐंठती जुबान से बोला- “ तुम हर बार ज्यादा आदमी बताकर रूपये ऐंठ लेते हो।

इस बार मैं खुद एक -एक वोटर को रूपयें दूगां, सबको लाइन में खड़ा कर दो।”

उसके शब्द जगना के दिल में तीर की तरह चुभते चले गये। वह सोचने लगा। आज तक पंडित जी ने कभी अविश्वास नहीं किया। सभा-सम्मेलन के समय खर्चे के लिये हजारन रूपिया पंडित जी ने से दिये और हिसाब भी नहीं पूछते थे। इन्होनें आज भरी बिरादरी में मेरी बेइज्जती कर दी। मैं तो सबके सामने बड़ी डींगे हाँकता था। आज सब उतर गई।

जगना उनके मुँह नहीं लगना चाहता था। उसने क्षोभ भरे स्वर में अपने लोगों से कहा- “सब लोग लाइन में खड़े हो जाओ”

दामोदर एक-एक सबके हाथ में सौ-सौ रूपये देने लगा। जब वह सन्तो के सामने पहुंचा

तो उसने सन्तो की हथेली में सौ-सौ के पॉंच नोट रखे और उसका हाथ पकड़ लिया। यह देख सब सन्न रह गये। सन्तो ने हाथ छुड़ाने की कोशिश की तो दामोदर की पकड़ कड़ी हो गई। जब थोड़ी देर हो गयी तो जगना बोला-“भानेज कुंवर बरजोरी नहीं करो। सन्तो को हाथ छोड़ो और आगे बढ़ो।”

“नही छोड़ूंगा तो तू क्या करेगा? ”

“देखों कुंवर जी ये हमारी बहुयें नहीं इज्जत हैं। हम इनकी बेइज्जती नहीं होने देइंगे।”

“तू बहुत जबान चलाता है रे.......... पकड़ लो इसको” दामोदर गुर्राया तो उस के साथ आये तीन लोगों ने जगना को पकड़ लिया। यह देख जगना के बिरादरी भाइयों का खून खौल उठा।

फिर तो जिसको जो मिला लाठी, हंसिया, हथौड़ा कुदाली, लट्ठ लिया और वे सब उन चारों को घेरकर खड़े हो गये।स्थिति बिगड़ती देखी तो दामोदर का नशा हिरन हो गया। वह घबरा के इधर-उधर देखने लगा।

साथ आये लोगों ने भी रिरिया के कहा- “भैया जी चलो यहॉं से.....!जगना माफ करो

भानेज कुंवर नशे में हैं।”

जगना ने क्रोधित नजरो ंसे दामोदर को देखा! फिर ‘हुंह’ कह कर जमीन पर थूका और पलट कर अपने लोगों के पीछे जाकर खड़ा हो गया।

... और यह देख कर बाकी लोग भी पलटे तो दामोदर और उसके साथी उल्टे पैरों वापस चले गये।

जगना के रिश्तेदार विजयी भाव से परस्पर गले मिले। बरसों पहले इस तरह की घटनायें आये दिन हुआ करती थीं, लेकिन जबसे जगना के हवेली से संबंध बने और उसका राजनीति में रसूख कायम हुआ तबसे टोले की बहन-बेटी इज्जत से जीने लगीं थीं। लकिन आज फिर वही किस्सा दुहराया गया तो जगना का भी माथा ठनका।

जगना का माथा फनफना रहा था, ‘हो सकता है माराज को पता ही न हो कि दामोदर ने आज हवेली के जगना जैसे हुकमबरदार की इज्जत पर हाथ डाला है, इसलिए उनसे ही गुहार की जाय ’ यही सोचता हुआ वह लट्ठ लेकर हवेली की ओर चल दिया। यह देखा तो उसकी बिरादरी के कई लोग उसके पीछे-पीछे चल पड़े। हवेली जाकर जगना का शक सही निकला पंडितजी से पूछा तो पता लगा कि पंडितजी ने तो रूपये पहंुचाये ही नहीं थे। जगना फुफकार उठा- “माराज न्याय करो, दामोदर लल्ला आज हमारे टोला में नशा करके गये थे और हमारी बहुओं को सरेआम बेइज्जत कर रहे थे।”

पंडितजी ने सुना तो उन्हे म नही मन ताजजुब हुआ लेकिन प्रकट में वे इस घटना को खास अहमियत नहीं देना चाहते थे। सो मामला रफा-दफा करने के उद्देश्य से बोले- “ठीक है जगना जो हो गया सो हो गया। अब शान्त होके घर जा। दामोदर आ जायेगा तो मैं उसे समझा दूंगा। ”

जगना चाहता था कि दामोदर सबकें सामने आये और सबसे सामने अपनी गलती माने जिससे उसकी रिश्तेदारी में बेइज्जती हुई है, उसकी भरपाई जो जाये। सो वह बोला कि हुजूर आपके सामने एक बार बुलबाओ तो उन्हे! लेकिन महाराज बात को बार-बार टालते रहे। आखिरकार पंडितजी ने उसपर दबाब डालते हुये कहा- “हम तेरे लिये कितना करते हैं, तू हमारा इतना कहना नहीं मान सकता।”

पण्डितजी का खासुलखास होने के मुगालते में जगना पूरा अड़ियल रूख अपनाये हुये था, मुंहफट तो वह पहले से था । आव देखा न ताव तपाक से बोल पड़ा, “माराज तिहावे कहिवे पे जान पर खेलता हूँ। तिहाये चुनाव में हमन्ने का नई करो जे तुम सिग जानत हो। सिंगरामसिंह को कोने मारो, हमन्ने ही,....ठाकुर साहब के भैया को कोन्ने पीटो..? हमन्ने ही ना! आपके कहवे से कित्ती बार हम जान पे खेले और आज आप हमारी बेइज्जती करवाय रहे हो।”

पंडितजी जगना की ऊॅची आवाज सहन नहीं कर पाये, आग लग गई उनके मन

में, लेकिन भीतर का क्रोध मुचखमण्डल पर झलकने तक नहीं दिया। लग रहा था कि आज जगना उनकी एक नहीं सुनेगा। इसलिये बात टालने के लिये बड़े मीठे और नम्र स्वर में बोले।

“ कसम खाता हूं जगना, अभी दामोदार घर नहीं आया है वो आ जाये फिर मैं सुबह ही उसे तुम्हारे टोले में भेजकर उससे गलती मनवा लूंगा। ”

अब की बार इतना बड़ा आश्वासन पाकर और उसकी बिरादारी के लोग वापस चले गये।

पंडितजी सेाच रहे थे, इन छोटे लोगों के बहुत भाव बढ़ गये है। जगना की हिम्मत कैसे हुई यह सोचने की कि हमारी नाती इनके सामने गलती माने,।

चुनाव का परिणाम आने में अभी तीन दिन हैं। इसके पहले टोकूंगा तो आज तक किये गय सारे काले-सफेद कामो की पोल न खोल देगा। उनकी ऑंखों में चिन्ता झलकने लगी। फिर वे चेते और दो-तीन जगह फोन लगा कर कुछ निर्देश दिये।

रात्रि का अन्तिम पहर था।

पुलिस की गाड़ी धड़धड़ाती हुई टोले में घुसी और सीधे जगना के घर के सामने रूकी

उसमें से उतरे सिपाहियों ने जगना को घर से उठाया और घसीटते हुऐ जीप में लाद कर ले गये। कोई कुछ नहीं समझ पाया। एक-दो ने आगे बढ़कर सिपाहियो से जगना को ले जाने का कारण पूछा तो जवाब पुलिस के डण्डों ने दिया उन्हे। खुद जगना भी कुछ समझ नहीं पा रहा था। जब वह थाने पहॅुचा तो देखा दामोदर वहॉं बैठा है उसने अपने हाथों में पट्टी बांध रखी हैं, जिस परा खून छलकने के निशान हैं। जगना का माथा ठनका- तो ये माजरा है।

...और अखबारों के मार्फत कस्बे के नागरिकों ने जाना कि देर रात दामोदर पर जानलेवा हमला करने के जुर्म में जगना को हवालात में बन्द किया गया हे।

सुबह हवालात में बैठा जगना शून्य में ताक रहा था। उसे लग रहा था कि

दामोदर को माराज ने ज्यादा डांटा-डपटा होगा सो उसने यह चाल चल दी, ज्यों ही माराज को पता लगेगा वे उसकी चिन्ता करेंगे और वह रात तक नही तो कल दिन तक जरूर छूट जायेगा। सन्तो और घर के बाकी लोग के बाहर खड़े थे, एक सिपाही से उसने कहला भेजा कि-“फिकर मत करियो मैं कल तक जरूर छूट जाऊॅगो। माराजजी ज्यादा दिनन तक बिड़ो नई रैन देंगे मेय लाने।”

बुझे मन से घर वाले अपने रिष्तेदारों के साथ घर लौटे। लेकिन सांझ हो गई, और

लम्बी रात के बाद सुबह भी हो गई, और जगना की रिहाई का कोई बन्दोबस्त नहीं हुआ। अब घर वाले चिन्तित हुए। लेकिन उनके चिन्तित होने से होना क्या था, बेचारे थाने के बाहर तक आये और जगना से मिल तक न सके, सिपाही ने बाहर से भगा दिया।

तीन दिन बीत गये। मत गणना हुई तो छोटे पंडितजी की हजारों वोटों से जीते।

पार्टी के बड़े नेताओं की तरफ से फोन पर लगातार बधाइयॉं आ रहीें थी। महाराज भी प्रसन्न थे कि उनका दबदबा आज भी कायम है। कचहरी से घर तक बाजों के साथ विजय जुलूस निकला,, फूल मालाओं से लदे अपने बेटे के साथ पंडितजी खुली जीप मेें सवार हाथ जोड़कर सबका आभार प्रकट कर रहे थेे। जीत की खुशी में गले मिलकर दशहरा मनाया गया, पटाखे फोड़कर दीवाली मनायी गयी और रंग-गुलाल फेंककर फाग खेला गया।

जगना जैसे लोग सहजता से सोच लेते हैं कि खुशी के मौके पर मालिक उन्हें याद कर रहे होगे, जबकि हकीकत यह होती है कि बड़े लोग खुशी के पल सम-वर्ग में बॉंटकर सबकुछ भूल जाते हैं। नेकराम की जीत पर जगना भी हवालात में खुश हो रहा था। उसे लग रहा था कि उसकी मेहनत रंग लाई, उसक रिष्तेदारों ने आकर नेकराम को जिताया है सो अस वक्त माराज को उसकी कमी जरूर खल रही होगी। जुलूस की बा सुनी तो उसके मन में यह मलाल आया कि वह लट्ठ घुमाकर जुलूस में नाच नहीं पाया बाहर होता तो वह नागिन की धुन बजवाकर जरूर नाचता।

जलुूस के साथ पंडितजी घर पहुंचे।पंडितजी के घर फोन पर फोन बज रहे थे। बधाइयों के संदेशे आ रहे थे। बड़े-बड़े आसामी उनके घर मिठाई, फल एवं मेवे पहॅंुचा रहे थे। पंडितजी बड़े व्यस्त दिख रहे थे, उन्हें जीत की खुशी मे पार्टी का भी इंतजाम करना था, कि जगना की मेहतारी बड़ी सी लाज डाले झुर्री वाले चेहरे को छुपाती हुई बड़ी मुष्किल से उनके निकट आयी और बोली-“मराज पूतई,दूधई नहावें,बच्चा जुग-जुग जीवैं। ...मेरी गोदकी भी लाज रख लो।”

पंडितजी को लगा रंग में भंग पड़ रहा है। इस वक्त अच्छी-अच्छी शान—शौकत वाले लोग फर्राटे वाली गाड़ियों में हवेली आ रहे हैं और ये कंगीरन कहॉं से आ टपकी। उनके चेहरे पर एक साथ कई भाव आये लेकिन कूटनीति का दिमाग उन सबको बहाकर ले गया। अपने आपको संयत करके बड़े मीठे स्वर में बोले-

“अम्मॉं हम कोशिश कर रहे हैं, हमारे आदमी लगे हैं। तुम्हारा लड़का जल्दी छूट जायेगा।”

निरक्षरता के कारण इन्सान दॉंव-पेंच नहीं सीख पाता और उसमें वह चतुराई नहीं आ पाती कि कौन सी बात कब कहना है। यही हाल जगना की मेहतारी का हुआ। वो बोली,“वैसे तो कई बार जेहल हो आओ है तिहाए कारन। लेकिन जा बार ऊ की हालत ठीक नइयै। बा की तबियत खराब है। तुमसे हाथ जोड़े की विनती है, तुम्हाए हा-हा खाऊॅं हमाए बिटवा को जल्दी छुड़वा लो।”

“तिहाए कारन जेहल हो आओ है’ ये शब्द पंडितजी के दिल में तीर की तरह चुभ गया। आज तक किसी की हिम्मत नहीं हुई इस तरह कुछ कहने की। कई आदमी तो हाथ-पैर तुड़वा चुके थे। पिछले चुनाव में जो गोली-बारी हुई थी उसमें किसना की जान चली गई थी, लेकिन उसकेे घर के किसी व्यक्ति ने उन्हें उलाहना नहीं दिया। वे सब किसना की मौत को अपनी किस्मत का फेर मानते थे। पंडितजी का चेहरा तमतमाने लगा। उनकी भृकुटी टेड़ी होते देखते ही उनके आदमी डोकरी को बाहर ले गये। डोकरी का रूदन हवेली के संगीत में दबकर रह गया।

दिन पर दिन गुजरते गये। कोर्ट में पेशी के बाद अब जगना जेल भेज दिया गया

था। एक -दो दिन तो जगना जेल में आराम से काट लेता था, लेकिन इस बार महीना भर को आ गया था। माराज ने उसकी सुध नहीं ली थी। पहले तो उनके आदमी आ-आकर ढाँढ़स बंधा देते थे पर इस बार हवेली से मख्खी तक नहीं फटकी है। शुरू में हर बार जेल में उसकी इच्छायें पूरी होती रहीं, अब उसे अहसास हो रहा था कि हवेली से कोई पूँछ- परख न होने के कारण उस पर कोई ध्यान नहीं दे रहा है।

जगना का दिल हवेली की खबरें सुनने में जाता था और रात को स्मृति के पन्ने उलटने लगते थे जिनमें हवेली के लिये उसके द्वारा किये गये कार्यो का इतिहास उसके सामने आ जाता था। उसे याद आ रहा था कि पंडित जी पिछले चुनाव में पंडितजी ने कहा तो पहाड़ी की तरफ के बूथ वाले से तो वो रातई में मिल आया था और साफ-साफ शब्दों में कह दिया था-“तुमें हम से दोस्ती करने कि दुस्मनी। दोस्ती करोगे तो फायदे में रहिंगे दुस्मनी में कछु नाने रख्खो।”

उसकी रोबदार आवाज, गठीला शरीर और भुजंग काला रंग देखकर शहर से आये इकहरे बदन के चुनावकर्मी भयभीत हो गये थे। टीम के सभी लोगों ने आँखों ही आँखों में बातें कर हाँ कह दी थी। जब से इस क्षेत्र की ड्यूटी उन्हें मिली थी, उनकी रातों की नींद पहले से ही हराम थी। कई बूथों पर तो सत्तर परसेंट वोटिंग तो सुबह ग्यारह बजे तक करवा दी थी। जिन क्षेत्रों में विरोधी पार्टी का दबदवा था, उन बूथों पर अपने आदमी भेजकर जगना ने दंगे -फसाद किये जिससे महिलायें व अन्य लोग जाने में हिचकिचा गये। शहर से आये विरोधी पार्टी के लोगों के घरों में घुसकर ऊधम किया।

...फिर इस बार का वो पेटी बदलवाले वाला किस्सा भी कम खतरनाक न था।

समय बीत रहा था ...

जगना का खेत उसे छुड़ाने के चक्कर में दाँव पर लग गया था। घर की हालत उसके बिना बद से बदतर होती जा रही थी। विरोधी पार्टी जसराज ठाकुर जेल में बंद जगना से हाथ मिलाना चाहती थे, लेकिन उसकी स्वामीभक्ति उसे टस से मस नहीं होने दे रही थी। हां, बार-बार के आग्रह ने धीरे-धीरे उसके मन में यह बात बैठा दी थी कि पंडित जी ने उसे दूध में पड़ी मख्खी की तरह निकाल कर फेंक दिया है। उन्हें अब उसकी जरूरत नहीं हैं, यदि जरूरत होती तो इतने दिन यों हवालात में सड़ने नहीं दिया जाता। उसके दिल में पंडितजी के प्रति क्षोभ का भाव पैदा हो गया।

विधानसभा चुनाव नजदीक आते लगे तो पंडितजी ने भी उसे छुड़ाने के लिये खबर पहुंचाई, जगना ने गुस्से से मना कर दिया।

फिर एक दिन उसने कड़ा निर्णय लिया...उसने विरोधी पार्टी से हाथ मिला लिया और उन्होंने उसे छुड़वा भी लिया।

विरोधी पार्टी के लिये जगना हुकुम का इक्का था। जगना का उनसे समझौता होना बडी बात थी। “ दुश्मन का दुश्मन” दोस्त होता है” कहावत के अनुसार विरोधी पार्टी वाले, पंडितजी के खास आदमी से विभीषण का काम करवाना चाहते थे। जगना भी अपनी कसक का बदला लेना चाहता था। विरोधी पार्टी में शामिल होते हेी जगना को पार्टी ने जिले का महामंत्री मनोनीत करदिया तो उसे पता चला कि वह कितना अमोल इन्सान है।आदिवासियो के हजारों वोट उसके हाथ में देख रही थी विरोधी पार्टी, और जगना यह गलतफहमी बनाये रखना चाहता था। उसका कच्चा मकान अब हर सांझ गुलजार रहने लगा था पार्टी के ब्लाक अध्यक्ष गिरधारी और महासचिव मनमोहन उसके घर नियमित रूप् से बैठने आ जाते तो देर रात तक जमे रहते। वे लोग कभी-कभार जगना के साथ दारू भी पीते और नशा हो जाने पर वे सन्तो की सुन्दरता के कशीदे पढ़ने लगते, जो सन्तो को तनिक भी न सुहाते। वह जगना से तारीफ करती तो जगना हंस कर टाल जाता, ‘अरी पगली, वे तो मेरे छोटे भाई जैसे हैं उनके मन में कछू खोट थोड़ी है।’

जगना छूटकर आ गया तो उसके घर के लोग बहुत प्रसन्न थे, लेकिन उसके दिल में एक फांस चुभी हुयी थी। उससे ज्यादा क्षोभ में थी सन्तो, हर समय लम्बी सांस खींच कर कहती-‘मौका देख के धुंआलगे माराज को दिखा दो कै उनपे जान न्यौछाबर करवे को तैयार लोगों से ऐसी गद्दारी को का नतीजा हो सकता है। चाहे कित्ती ही हद तोड़ने पड़ें अब माराज के सामने तन के खड़ों होनेा है हमारे लाने।”

कुछ समय बाद विधानसभा चुनाव आये और गाँव से पंडितजी ने दामोदर को खड़ा किया। जगना पार्टी की सभी चालों से परिचित था, यानि वूथ केप्चरिंग, आतंक कारी हरकतें, दारू बंटवाना और विरोधियों के नाम से पर्चे छपवा कर वितरित करवाना। उसने पुरानी पाटी्र की चालों का उत्तर उनकी ही चालों से दिया। जगना केा देखकर पंडितजी के अन्य आदमियों में विद्रोह जन्म ले रहा था क्योंकि वे समझ गये थे कि जिन्दगी भर गुलामी और जान जोखिम में डालने वाले वफादार जगना को क्या मिला। सो भितरघात का लाभ भी विरोधियो को मिला।

इस बार जगना ने नई पार्टी को अपने टोले के लोगों से भरपूर वोट दिलाए, और

चमत्कार हुआ कि दामोदर बुरी तरह से चुनाव हार गये। विपक्षी उम्मीदवार जीता और इसके उपहार स्वरूप पार्टी की ओर से जगना को जिलाध्यक्ष ने आने वाले नगरपालिका चुनाव में चेयरमेन का टिकिट दिलाने का आश्वासन दे दिया। पंडित सर्वेश्वर तो जेसे आसमान से जमीन पर गिरे थे।

...कुछ महीनों बाद नगरपालिका चुनावों की घोषणा हुई और संविधान के अनुसार चेयरमैन के पदों की आरक्षण सूची निकली तो जगना के पैरों तले जमीन खिसक गई। उसके कस्बे की सीट महिला सीट महिला सीट घोषित हो गई थी। जगना ने अपना दुखड़ा रोया तो गिरधारी और मनमोहन ने समझाया कि इससे कोई फर्क नही पड़ता, वह उम्मीदवार के रूप में अपनी पत्नी सन्तो को खड़ा कर सकता है। वह सोचता था कि, क्या उसकी सीधी और निपट देहाती औरत यह पद संभाल पायेगी? सहसा उसे याद आया कि संभाजना कया कठिन है, आखिर पंचायतों से लेकर तमाम पदों पर बैठी महिलायें भी तो इसके पहल घर के काम संभाला करती थीं,और अब अपने पद संभाल रही है सो संतो को पद संभालना क्या मुष्किल ? उसे लगा कि अवसर का लाभ उठाना चाहिए। वह चेयर मेन नहीं बन सका ता क्या, चेयरमेन पति तो बनेगा। कुर्सी पर बैठ कर सन्तो बेचारी क्या करेगी, सब मैं ही तो करूँगा।

उसने सन्तो से चर्चा की तो उसने साफ इन्कार कर दिया। दबे स्वरों में यह बात जगना ने पार्टी के जिलाध्यक्ष को बताई तो उन्होने अपनी पार्टी के गिरधारी और मनमोहन को जगना के घर जाकर उसकी पत्नी को चुनाव लड़ने के लिए तैयार करने का हुक्म दिया।

अगले दिन से पार्टी के कई पदाधिकारी जगना के घर के चक्कर लगाने लगे। गिरधारी और मनमोहन और दूसरे तीन-चार लोग तो प्रायः जगना की बैठक में जमे रहते। सांवली लकिन तीखे नाक-नक्श वाली संतो ने दबे स्वरों में जगना से फिर मना किया कि वह चुनाव का विचार छोड़ दे और इस तरह रोज-रोज बाहर वालों की महफिल घर में न सजाये। लेकिन जगना के सिर तो चेयनमैनी का भूत सवार था, उसने उल्टा सन्तो को ही डांट दिया।

राजधानी में टिकट का बंटवारा चल रहा था, लोग वहां जाकर अपनी दावेदारी प्रकट कर रहे थे, जगना ने भी अपनी पत्नी की दावेदारी जताई तो पार्टी मुख्यालय से खबर आई कि चुनाव खर्च के लिए दो लाख रूप्ये की हैसियत दिखाओ तो विचार किया जा सकता है। जगना ने रात-दिन एक कर दिया और जिससे संभव हुआ वह पैसा उधार लेने लगा। लेकिन दो लाख की राशि इकट्ठा होना कोई हंसी-ठटठा न था। समय बीत रहा था। टिकिट बँटने का समय समाप्त होता नजदीक जान पार्टी के लोग जगना को राजधानी पहुंचने का परामर्श देने लगे। जगना ने सोचा कि अभी दावेदार को भेज देता हूं दो चार दिन में धन लेकर मैं चला जाउंगा। सन्तो अकेली जाने के नाम से ही बिदक उठी, उस दिन जगना ने सन्तो को खूब धुना और उसे तभी पीटना बन्द किया जब उसने रूधे गले से राजधानी जाने की हामी भर ली। गिरधारी और मनमोहन एक जीप ले कर आ गये और जगना ने प्रसन्न मन से सन्तो को उनके साथ राजधानी के लिए बैठा दिया।

जगना पैसे के इन्तजाम में और तेजी से लग गया।

उस दिन पांचवा दिन था। शाम को एक जीप घर के दरवाजे पर आकर रूकी तो जगना दौड़कर दरवाजे की ओर लपका। देखा उसकी पत्नी जीप में अकेली थी। उदास सी वह नीचे उतरी तो ढंग से खड़ी भी नहीं हो पा रही थी

जगना का मन कांपा उसने गौर से देखा कि चार दिन की व्यस्तता के कई निशान पत्नी के चेहरे पर उभर रहे भावों पर थे।

वह उसे सावधानी से पकड़कर आहिष्ता से अन्दर लाया, और खटिया पर बिठा दिया। उसे समझते देर नहीं लगी कि राजनीति ने उससे क्या छीन लिया है? वह गुस्से में थरथराने लगा, आँखे लाल हो गई, नथुने फूलने लगे। उसने सवालिया निगाहों से पत्नी कोे देखा।

जमीन ताकती पत्नी ने ब्लाउस के भीतर खुड़सा पार्टी का टिकट निकाना और उसकी तरफ बढ़ाते हुये सहमी आवाज में कहा - “ काम हो गया!”

...और वह बेहोशी के आगोश में लुढ़क गई।