लीलमनी की ड्यूटी : कृष्ण मोहन सिंह मुंडा

Leelmani Ki Duty : Krishna Mohan Singh Munda

उस दिन बड़े सबेरे ही सुलो लीलमनी के घर पहुँच गई थी। दोनों एक ही गाँव के अलग-अलग टोलों में रहती थीं। उनमें गहरी दोस्ती थी। दोनों सहेलियों का पेशा भी एक ही था। वे दोनों गाँव के प्राइमरी स्कूल की शिक्षिकाएँ थीं। गाँव के हटिया (गाँव के बीचोबीच बने चौड़े रास्ते) के एक छोर पर सुलो का घर था तो दूसरे छोर पर लीलमनी का। वैसे उनका गाँव बहुत बड़ा नहीं था पर उसमें यहाँ आमतौर पर बसनेवाली सभी जातियों के लोग रहते थे। गाँव अभी आधुनिकता की चपेट में पूरी तरह नहीं आ पाया था। यहाँ के लोग खेतीबारी के अलावे सब्जियाँ, लाह, धान आदि के व्यवसाय में लगे थे। गाँव का स्कूल लीलमनी के घर की तरफ था। वहाँ से यही कोई एक किलोमीटर की दूरी होगी। इसलिए प्रायः ऐसा होता कि सुलो, लीलमनी के घर आ जाती और फिर दोनों सहेलियाँ साथ-साथ स्कूल के लिए निकलतीं।

वैसे तो सुलो का आना नया नहीं था पर आज वह कुछ जल्दी आ गई थी। वह चाहती थी कि लीलमनी भी उसके साथ थोड़ा जल्दी चले। आते ही उसने बता दिया कि मोबाइल पर सूचना मिली है कि आज शिक्षा विभाग के बड़े अधिकारियों की विजिट है। पर, लीलमनी थी कि कितना ही कोशिश करने पर भी जल्दी निकल नहीं पाती थी। उसके घर के सारे बँधे-बँधाए काम आड़े आ जाते। एक के बाद दूसरा, फिर तीसरा, सारे काम एक किनारे से निबटाने के बाद ही वह घर से निकल पाती थी। सुबह का खाना बन चुका था। अभी वह गोहाल साफ करने में लगी थी। गोहाल साफ करके उसने सुलो को चाय दी और आँगन लीपने लग गई। बातों-हीबातों में उसने तुलसीमंचा की भी लीपाई की और "सुलो, प्लीज, बस दो मिनट" कहकर जो गई तो पूरे आधे घंटे बाद तैयार होकर ही लौटी।

"हाँ चल! देर हो गई न।" लीलमनी बैग सँभालती हुई बोली।

"अरे तुमने नास्ता किया?"

"हाँ" मुसकुराकर लीलमनी ने अपने खूबसूरत दाँत चमका दिए, बोली, "वही चाय, जो तुम्हारे लिए बनाई थी, मेरे हिस्से की चाय बची पड़ी थी। वही गरम कर ली बस।"

"नहीं, पहले नास्ता कर ले, तब चलेंगे। अभी देर नहीं हुई है।"

"मैंने नास्ता पैक कर लिया है, स्कूल पहुँचकर खा लेंगे, चल भी।" लीलमनी उसे खींचती हुई बोली।

वे दोनों तेज कदमों से चलती हुई हटिया के रास्ते निकल पड़ीं। चलते-चलते सुलो बोली, "अरे पता है, आज का विजिट किसलिए है?"

"बताओगी नहीं तो भला जानूँगी कैसे?" लीलमनी ने सरलता से कहा।

"इसलिए कि हमारे यहाँ जो मध्याह्न भोजन का कार्यक्रम चलता है, किसी ने अधिकारियों के पास इसकी शिकायत की है।" सुलो ने विस्तार से बताते हुए कहा, "अधिकारी और उसके साथ आनेवाली टीम इस क्षेत्र में पड़नेवाले सभी स्कूलों में जाएँगे और इससे संबंधित खाताबहियों की जाँच करेंगे और पता चला है, वे आज दोपहर का खाना भी यहीं खाएँगे।"

"लो। फिर तो आज बहुत मुश्किल दिन है। घर पर भी खाना बनाओ और स्कूल में भी। उनके खाने में कुछ कमी निकल गई तो अधिकारी स्कूल इंचार्ज पर बिगड़ेंगे और वे हम पर। थोड़ी सी गलती के लिए सस्पेंड होना पड़ सकता है। इसलिए तो मध्याह्न भोजन की जिम्मेदारी हमें दी है।"

"अरे! तुम इतना टेंशन क्यों लेती हो? सब क्या हमी दोनों भुगतेंगे, बाकी सबको भी तो भुगतना पड़ेगा कि नहीं?"

"नहीं रे! ऐसा कुछो नहीं होगा। वे सब बड़े आराम से बच के निकल जाएँगे। हम लोगों को ही भुगतना पड़ेगा। तुम नई हो ना! अभी नहीं जानती।"

स्कूल के गेट पर आकर दोनों रुक गईं। लीलमनी ने चाबी निकालकर दरवाजा खोला और चारों तरफ एक नजर दौड़ाई। सारा कैंपस गंदा पड़ा था। स्कूल में न तो चपरासी था और न सफाईवाली। किसी को शायद इसकी जरूरत ही महसूस नहीं होती थी, इसलिए आज तक उनका स्थान खाली पड़ा था। लीलमनी ने अपना बैग टेबल पर रखा और आँचल सँभालते हुए झाड़ हाथों में उठा ली। सुलो के बहुत कहने पर उसने झाड़ छोड़कर नास्ता किया और फिर तुरंत बाद ही साफ-सफाई और अन्य आवश्यक कामों में लग गई। काम में हाथ बँटाते-बँटाते सुलो ने पूछा, "ये सब क्यों किया जा रहा है? कुछ बताओगी भी?"

"ये सब स्थानीय शिक्षिका होने के फायदे हैं और दूसरा औरत होने की वजह से।"

"औरत होना तो समझ में आता है, पर पद में तो सभी बराबर हैं।"

"बराबर होने से क्या होता है! तुम इन सबको नहीं जानती, ये सभी बाहर शहरों में रहते हैं और स्कूल खुलने के बाद पहुँचते हैं। अगर किसी कारण से स्कूल खोलने में देर हो गई तो कहने लगेंगे, "नौकरी करना औरतों के बस की बात नहीं, इन औरतों के तो बिल्कुल भी नहीं। अरे ये तो कोटे की वजह से इनको नौकरी मिल गई और ये टीचर बन गई वरना इनको कौन पूछता? जंगल में कहीं गाय-बकरी चरा रही होती या किसी रोड या तालाब में खट रही होती। इतना ही नहीं, दो बार तो मेरे विरुद्ध लोगों ने लिखित शिकायत भी कर दी है, जिसमें इन शिक्षकों की भी मिलीभगत है। असल में कोई चाहता ही नहीं कि हम औरतें नौकरी करें।"

"चलो-चलो, बातें तो बाद में भी हो जाएँगी पहले सारे काम निबटाने में मदद करो।"

कहकर लीलमनी तेजी से हाथ चलाने लगी। टेबल, चेयर, अलमीरा, सबकुछ एक सिरे से साफ करने के बाद अब उसका रुख रसोईघर की तरफ था।

कुक अभी तक नहीं आई थी, वह स्थानीय सत्तारूढ़ दल की सदस्या थी। उसका पति सत्तारूढ़ दल का क्षेत्रीय अधिकारी था। वह क्षेत्र में अच्छी पकड़ रखता था। उसकी पहुँच और दबंगई की वजह से ही माधुरी को कुक की नौकरी मिली थी। उसे नौकरी मिलने की एक वजह और भी थी कि ग्रामीण नहीं चाहते थे कि उनके बच्चों का खाना बनानेवाली किसी निम्नवर्ग की हो। हालाँकि इस पद के लिए स्थानीय उम्मीदवार का होना अनिवार्य था। तब भी इस पद को बाहर से आकर रह रही माधुरी को ही दिया गया। उसका नाम भी यहाँ के वोटर लिस्ट में नहीं था और न ही कोई जगह जमीन उसके नाम थी। यहाँ के स्थानीय लोगों ने भी उस पद के लिए आवेदन दिया था, पर ऊपर की पहुँच और नेताओं की दबंगई के आगे किस की चलती है। इन्हीं सब वजहों से वह अपने आप को 'किसी से कम नहीं' समझती थी। वह कभी समय पर नहीं आती और काम भी अपनी मर्जी का ही करती थी। रसोई की साफ-सफाई वह अपनी जिम्मेदारी नहीं मानती थी। वह सिर्फ खाना पकाती और साफ-सफाई से लेकर सब्जी काटने तक का काम स्कूल के बच्चों से ही करवाती। सहायक शिक्षक से लेकर हेड सर तक उसे कछ नहीं कहते। कहा जाय तो सभी अनजानी वजहों से उससे डरते थे। यहाँ के बी.ई.ओ. भी इस सबसे वाकिफ थे।

दस बजने वाले थे। आज सभी शिक्षक समय से पहले आ पहुँचे थे। मगर अभी तक 'कुक' दिखाई नहीं दे रही थी। हेड सर ने सुलो को उसे बुला लाने को कहा।

सुलो इस तरह का काम करना अपनी अवहेलना समझती थी, पर सीधे-सीधे मना नहीं कर सकती थी। अभी वह कुछ बोलना ही चाहती थी कि उसकी नजर रास्ते पर आती हुई माधुरी पर पड़ी। उसकी आँखे चमक उठीं।

'वो आ रही है सर' कहकर वह वाशरूम की तरफ चल पड़ी। फालतू कामों से बचने का इससे अच्छा बहाना शायद उसके पास न था। माधुरी अपने खुले भींगे वालों को सुखाती सँवारती चिर-परिचित अंदाज में स्कूल कैम्पस में प्रविष्ट हुई। हेड सर बड़े तकल्लुफ भरे आवाज में बोले, 'आज साहब लोगों की विजिट है, सो थोड़ा ध्यान रखियेगा। खाना ठीक बनना चाहिए।'

'जो रहेगा सो पका देंगे।' माधुरी अपनी सपाट किन्तु रोब भरी आवाज में बोली और रसोई की तरफ चल दी।

हेड सर लीलमनी की ओर मुड़े और कहा, 'देखो लीलमनी तुम पुरानी स्टाफ हो। तुम्हें तो सब पता है। आज कोई गलती नहीं होनी चाहिए। साहब लोग आ रहे हैं तुम रसोई का ध्यान रखोगी। क्या-क्या बनना है वह चेक करो और मेनू के हिसाब से लिस्ट कम्पलीट करके मुझे दिखाओ।'

लीलमनी कक्षा की तरफ न जाकर रसोई की तरफ मुड़ गई। बच्चों के प्रार्थना की आवाज स्कूल कैम्पस में गूंजने लगी।

लीलमनी पूरी मेहनत और सावधानी से रसोई तैयार करने में लगी थी। बच्चे अपनी कक्षाओं में खेल रहे थे, चूँकि आज कोई भी शिक्षक कक्षा में नहीं था। सभी हाजिरी लेने के बाद कार्यालय में बैठकर साहबों के आने का इन्तजार कर रहे थे। हवा आज रुकी-रुकी सी लग रही थी। बच्चों की आज मौज थी। उन्हें कोई पढ़ाने वाला न था।

मेनू के अनुसार भोजन तैयार हुआ। बच्चे खाना बनने की महक से खुश थे। उन्हें आज अच्छा खाना जो मिलने वाला था। लंच टाइम हो जाने के बावजूद आज बच्चों को खाना नहीं दिया जा रहा था। हेड सर चाहते थे कि पहले साहब आ जायँ, तभी बच्चों को खाना दिया जाय ताकि वे खाना देखकर संतुष्ट हो सकें। पर, माधुरी ... वो भला अपना टाइम कैसे मिस कर सकती थी। सबने देखा वह अपना खाना लेकर रसोई के बाहर बैठी थी और मजे में खा रही थी। बच्चे भला कब भूखे रहते। उनका शोर बढ़ने लगा। उनके शोर से शिक्षक परेशान होने लगे। पर हेड सर थे कि अपनी जिद में अड़े थे। तभी उनके मोबाइल की घंटी बजी और साथ ही बच्चों के किस्मत की भी। फोन रिसिव करने के साथ ही हेड सर ने भोजन बाँटने की इजाजत दे दी। उनके चेहरे पर मुस्कान और भावों में निश्चिंतता थी। उन्होंने सभी शिक्षकों को इशारे से बुलाया और बताया विजिट कैंसिल हो चुकी है। अब टेंशन फ्री हो जाइये। बस दो दिनों के अन्दर “प्रसाद" की व्यवस्था कीजिए बड़े साहब को भिजवाना होगा।

स्कूल का टेंशन भरा माहौल अब खुशनुमा हो गया था। बच्चे पंक्तियों में बैठे थे। लीलमनी सबको खाना बाँटने में लगी थी और सुलो शिक्षकों को खाना परोस रही थी; आखिर महिलाएँ जो ठहरीं! स्त्री और पुरुषों के काम का बँटवारा रूढ़ हो गया है, जो शायद विकसित समाज और पद तथा योग्यता जैसी सीमाओं से परे है। पुरुष कुछ चीजों को जहाँ अपना अधिकार समझते हैं, वहीं महिलाएँ उसे अपनी जिम्मेदारी। खाना खाकर हेड सर ने जल्दी ही छुट्टी की घोषणा कर दी। बच्चों के स्कूल से जाने के बाद सभी शिक्षक कागजी कारवाई में जुट गए। खाता-बही सब समेटकर सभी ने निश्चिंतता की साँस ली। स्कूल बंद हो चुका था।

लीलमनी के हाथों में दो चाबियाँ थीं। एक स्कूल की और दूसरी घर की। सूरज अभी डूबा नहीं था, हवा के झोंकों से पेड़ों के पत्ते धीमे-धीमे हिल रहे थे। अभी चिड़ियों के घोंसलों पर लौटने में वक्त था। दोनों सहेलियों के कदमों की आवाजें उनके मन में उठती भावनाओं की कहानी कह रही थीं।

साभार : वंदना टेटे