लालची हूहू की कहानी : मृणाल पाण्डे

Lalchi Huhu Ki Kahani : Mrinal Pande

बहुत दिन हुए एक घने जंगल में गीदडों का एक झुंड रहता था। बड़ा भारी और घना जंगल था वह। ऐसे जंगलों के तीन हिस्से होते थे। पहले वाले जंगल के गिर्द एक लंबा और फैला हुआ बाहरी दायरा होता था जिसमें तरह तरह के जंगली फूलदार लतरों, फलदार पेड पौधों की भरमार रहती और कई कई तरह के पंछी और गिलहरी वगैरह भी। आस पास की बस्तियों का कोई भी ऐरा गैरा वहाँ लग्गी से फल झड़ाने, जड़ी बूटियाँ लाने, घरेलू चूल्हे के लिये लकडियाँ बीनने या भैंसों के लिये चारा वारा लेने जा सकता था। कभी कभार कोई पारधी भी धनुष बाण या लासा और जाल लेकर वहाँ घुसता। वह रंग बिरंगे पंछी पकड़ कर उनको शहर में बेच कर इतना कमा लेता था जिससे बाल बच्चे पल जायें। जंगल का यह हिस्सा एक तरफ राजमहल के भी पास पड़ता था। उसे राजा साहिब और मंत्रियों और नगरसेठों और उनके परिवारों के वास्ते सुरक्षित रखा जाता था। बीचों बीच राजा और रानी के वास्ते एक नक्काशीदार, झरोखेदार कोठी थी, जो हवा महल कहलाती थी। और महाराज महारानी के आनंद के हेत दसियों माली वहाँ बड़े जतन से बोई गई सुंदर सुंदर फूल की क्यारियों और पेडों के झुरमुटों को पानी देते तराशते रहते थे। मालिनियाँ भी वहाँ होती थीं। वे हमेशा रानियों और बड़े मंत्रियों के घर की जनानियों के हेत खुशबूदार फूलों के गजरे और बाजूबनद अपनी टोकरी में भींगे मलमल से ढक कर रखतीं। इसके अलावा उनका यह भी काम था के वे हर दिन वे रानियों और उनकी सखियों के असनान के लिये बनाये संगमरमर के हौजों को धो धा कर इतर-गुलाबजल से महकाती रहें। इस हिस्से को ऐशबाग भी कहते थे।

कभी अपनी थकान मिटाने को महाराज और मंत्री लोग भी ऐशबाग आ जाते। मरद लोग आते तो पर्दे डल जाते और बड़ी रौनकें लग जातीं। झाडियों के कुंजों और राजाजी के हवामहल से झूले के गीत और संगीत की लहरियाँ सुनाई देतीं। खिलखिलाहट सुनाई देती। पर माली मालिनें और दरबान तो चाकर थे। वे कभी सर उठा कर नहीं देखते और बिना चेहरे पर शिकन लाये काम करते रहते। राजा के अगाड़ी और मंत्री के पिछाड़ी जाना खतरनाक होता था। अपनी एक दुलत्ती से ही काम तमाम कर सकते थे बड़े लोग।

बड़े लोगों की बड़ी बात!

कभी कभार शहर में हल्की चर्चा सी सुनाई देती कि ऐशबाग से किसी बड़े घर की कोई सुंदर नवेली बहुरियाँ या बेटियाँ अचानक गायब हो गईं। पर ऐसी खबरों को बेबुनियाद खुसुरपुसुर मान लिया जाता। जैसा कि हमने अभी कहा, बड़े लोगों की बड़ी बात!

राज के लोगबाग नेक थे और राजा जी का मान बड़ा था। भले ही आम लोग राजाजी के ऐशबाग में कभी नहीं जा सकते थे, पर चौड़े सीने और घूंघरवाले बालों से सुशोभित राजा जी या उनके मंत्रियों से कोई किसी तरह का गिला नहीं रखता। सब कहते थे ‘न किसी की नज़र बुरी, न किसी का दिल काला, भला करे सबका ऊपरवाला।’

उसके बाद के दायरे में जंगल का दूसरा हिस्सा आता था। वहाँ कभी कभार ही राजा लोग अपना लाव लश्कर ले कर ही प्रवेश करते थे। लाव लश्कर हुकुम के इंतजार में दूर खडा रहता। काहे कि जंगल का इस साइड का खास हिस्सा ॠषियों के सुपुर्द किया गया था। उनको गुरु कहा जाता था और वे दिन रात पढ़ाई या ध्यान में लगे रहते। कुछ ॠषियों के आश्रम में राजघरानों के बच्चे पढने को भेजे जाते थे। गुरु लोग सादगीपसंद जटाधारी लोग थे। उनसे पढने चाहे जितने भी बड़े घरों के बटुक आए हों, शुरू से सबको सख्त हिदायत रहती थी कि आश्रम में रहते हुए वो भी सिर्फ लंगोटी पहनेंगे, और नीची नज़र कर के गुरु जी और उनकी पत्नी या बेटियों से बात करेंगे। राजाओं के बच्चे कोई दसेक बरस तक बाहर की दुनिया से कटे हुए हुए सारा समय गुरु जी से तरह तरह की विद्या सीखने में बिताते थे। छोटे घरों के लड़के वहाँ एकदम नहीं आ सकते थे।

कभी कभार राजा जी अपने राजपुत्रों की बाबत कुशल मंगल लेने आश्रम आ जाते थे। पर पैदल, रथ पर नहीं। वहाँ वे सीधे अपने बच्चों की बजाय गुरु जी से ही उनकी तरक्की की बाबत जान कर वापिस सरोवर के आसपास कहीं शिकार खेलने निकल जाते। जहाँ उनका लाव लश्कर उनके हुकुम के इंतज़ार में होता।

असल में राजा लोग ज़्यादातर इधर शिकार विकार खेलने को ही आते थे। या फिर जब कभी बाहरी चढाई होती और उनको दुश्मन के खिलाफ कुछ जज्ञ उज्ञ कराना होता तभी आश्रम साइड में आते और किसी मुनि के घर जाकर चुपचाप कुछ मशवरा, कुछ पूजा मंतर तंतर करवा आते थे। लोग कहते हैं कि कुछेक दफा किसी किसी राजा को आश्रम को जाते या वापिस आते समय सखियों के झुंड में तालाब से गीले वस्त्रों में लौटती आश्रम की किसी सुंदर सी कन्या के दर्शन भी हो जाते थे। बात कभी परवान चढती, कभी नहीं।

खैर। बड़े लोगों की बड़ी बात।

हमारी वाली कहानी छोटे लोगों के बारे में है, माली मालिनियों या राजाओं के शिकारवाले जंगल की नहीं। और यह निकली है जंगल के सबसे भीतर के तीसरे इलाके से। यह हिस्सा बड़े बड़े सैकड़ो बरस पुराने पेडों से ऐसा ढका हुआ था, कि सूरज महाराज की किरणें भी वहाँ बमुश्किल पहुंचतीं। इस हिस्से के बीच में एक बड़ा सा सरोवर था जहाँ हर तरह के छोटे बड़े जानवर मौका देख कर रात गये पानी पीने को आते। इस भीतरी जंगल का अपना कानून था। यहां घास पात खानेवाले तमाम शाकाहारी जानवर सरोवर के एक साइड में रहते थे, और मांसाहारी जानवर दूसरी साइड में। मांसाहारी जानवर भी राजाओं की तरह बिला ज़रूरत शिकार नहीं किया करते थे। न ही वे राजा के सिपाहियों की तरह अपने हिस्से के बासी शिकार को किसी छींके पर अगले दिन खाने के लिये संग उठा ले जाते थे। जब भूख लगी तभी शेर बाघ शाही कदमों से चलते हुए शाकाहारी साइड की तरफ आते। जैसे ऐशगाह में महाराज के आने पर ‘परदा करें’ की हाँक लगती थी, यहाँ उसी तरह जंगल के राजा के आने की भनक पाते ही जंगल के खबरिया बंदर पेडों की शाखा से शाखा पर कूद कर चिचियाते हुए आगाह करने लगते, कि मित्रो, जंगल के राजा इस तरफ पधारते देखे जा रहे हैं! सावधान, होशियार!’ यह सुना नहीं, कि पानी पीना छोड कर सब जनावरों के झुंड भाग निकलते। पर शेरों बाघों को पता था, कि हर बार कुछ लापरवाह किसम के जानवर या गाभिन हिरनियाँ और उनके कमउम्र इधर उधर मुंह मारते छौने ताबड़ तोड भागते झुंडों से पिछड जायेंगे। झुंड के सबसे पीछे की उस अचकचाई पांत पर शेर-बाघ घात लगा कर बस एक छलांग में अपना शिकार पकड लेते थे: हिरन, बनैला सूअर या नीलगाय जो भी उनके हाथ आया उसको नुकीले दाँतों से ऐसे गर्दन से पकड़ते कि उसकी खून की नट्टी कुडकुडा जाती। जब देही की हरकत बंद हो गई तो फिर वे शिकार को अपनी साइड के जंगल की झाडियों के बीच खींच ले जाते थे, और फिर गरजते हुए अपनी मादाओं-बच्चों के साथ छक कर खाते थे।

जंगल का कानून था, कि शिकार के समय जगह मिलने पर साइड दी जायेगी। और एक शेर का मारा शिकार दूजा शेर नहीं खायेगा। और बाघ के मारे शिकार को भी दूसरा हाथ नहीं लगायेगा। जंगलराज में यहाँ सदा से ऐसे ही चलता आया था कि बड़ा पराणी किस को कब खाये या छोडे, यह वह खुद तय करैगो।

बंदर इस जंगल में हर जगह बाहर रहते पेडों पर। फितरतन खुराफाती थे, पर शेरों की इज़्ज़त करते थे और दूसरों को पेड की ऊंचाइयों से शेर महाराज की ‘पोईशन’ बताने, खतरे की चेतावनी देने में उनका कोई सानी न था। इसलिये बंदर ज़ात को कोई नहीं मारता था। गीदड़ और लकडबग्घों के झुंड जंगल की शाकाहारी और मांसाहारी साइडों के बीच में कुछ कुदरती ज़मीनी गुफाओं में रहते थे। इन गुफाओं की कुछ कुदरती सुरंगें सीधे जंगल के बाहर तक जाती थीं। अलबत्ता उनका इस्तेमाल ये जानवर कम ही करते थे। उनमें कहावत थी कि किसी गीदड़ की मौत आती है तो ही वह शहर की तरफ भागता है।

गीदडगीदड़ और लकडबग्घे दोनो साथ साथ इस करके रह पाते थे कि दोनो ही पिछलग्गू जीव थे। वे शाकाहारी और मांसाहारी दोनो साइड से दुआ सलाम रखते थे। गीदड़ तो ठहरा ही जनम का दलबदलू, किसी का न सगा, न ही किसी का दुश्मन। बस किसी बड़े शेर या बाघ के मारे मोटा शिकार की जूठन हर बार मिल जाये इसी में उनके झुंड खुश रहते। जैसे गीदड़ तैसे लकडबग्घे। उनकी देह होती मरियल सी, पर पेट नांद बरोबर। हमेशा भूखे हांव हांव करते किसी बड़े शिकारी जानवर की ओट खोजते रहते। खुद उनमें इतनी भी हिम्मत नहीं थी कि किसी खरहे को भी जा दबोचें। अब जूठन खाना कोई भली बात तौ नहीं, पर साधो, ये जीभ बड़ी ठगिनी है। माँस खाये बिना गीदडों और लकडबग्घों का जिउ नहीं मानता। इसलिये वे सब हंस हंस कर शेर को, बाघों को, चीतों को सबको घणी खम्मा, खम्मा घणी करते उनके पीछे लगे रहते। कभी कभार अगर महाराज गुर्रा कर पीछे देख भर लेते तो सब घिघिया कर झाडियों में छुप जाते, फिर पीछा। सब के सब मुफ्त के माल पर जो ज़िंदा थे। जंगल का राजा शेर, या उसका बिरादर बाघ जो भी जूठन: चरबीदार हड्डी, अंतडी- फतडी झाडियों के बीच छोड जायें, खाने से उनको कतई उज्र नहीं था। सो राजा चल दिये तौ सब बचा खुचा माल अपनी गुफा में घसीट लाते और अपना मनचाहा हिस्सा खाकर मस्त। खा पी के लकडबघ्घे हा हा ठी ठी करते और लोटपोट होते सो जाते। और गीदडों का सारा झुंड बाहर निकल के चांद की तरफ थूथनी उठाये देर तक दाता के नाम पर हुंआ हुंआ करता रहता। इसी तरह अंधेरे जंगल के बीच सबकी चैन से ही कट रही थी।

जब उनका पेट भरा होता तो, चांदनी रात में गुफा को वापिस आते समय बूढे गीदड़ झुंड के जवान होते गीदडों को प्रवचन देते: ‘बेटा लालच बुरी बलाय। बेटा, समय से पैले और भाग से जियादा कभी नहीं मिलता। फिकर ना कर बंदे तेरे भी दिन आयेंगे,’ वे कहते, फिर लकडबघ्घों को याद कर दूसरी लाइन जोडते, ‘हंसी उड़ानेवालों के चेहरे बदल जायेंगे।’

गीदडों में हू हू नाम का एक ऐसा युवा गीदड़ था जो अपने को अपने झुंडवालों से कुछ ज़्यादा ही होशियार मानता था। उसको स्वैग की लगन थी। जब हुआं हुआं का गीदडी कोरस खतम हो जाता और बूढे गीदडों के पास जुमले चुक जाते, तो उसकी बिरादरी के सब लोग अपनी मांद तक पहुंच कर कोनों में दुबके दुबकाये पहुंड रहते। पर हूहू को नींद कहाँ? वह बाहर आकर एक बड़े से पत्थर पर बैठ कर सोचता रहता कि किस तरैयां उसकी लाइफ बन जाये! अक्सर हू हू का लकडबग्घा दोस्त हाहा भी बाहर आकर उसकी बगल में बैठ जाता। दोनों बंदे आपस में देर तक बतियाते। कहते कि यारो, ये भी कैसी जिनगानी कि जंगल से जंगल भटको और दूसरों की छोडी जूठन पर ज़िंदा रहते हुए उनका जस गाओ। हुंह!

हूहू हाहा को लगता कि ‘फिकर ना कर बंदे, अच्छे दिन आयेंगे, हंसी उडानेवालों के चेहरे बदल जायेंगे,’ चंद बुड्ढों की बकवास भर है।

ऐसा भी कभी होता है?

आखिरकार दोनो मित्रों ने तय किया कि वे इन खूसटों से अलग अपनी कुछ अलग किसम की छवि बनायेंगे। पर किस तरह?

हूहू ने कहा कि यार हाहा, इसके लिये सबसे पहले हमको किसी तरह सुरंग की मार्फत जंगल के भीतरी दायरों से बाहर शहर की तरफ जा निकलना होगा। जब तक शहरी दुनिया का समग्र दर्शन न होवे और मानुख जात से कोई नया विचार न मिले, बात नहीं बनेगी। सो हाहा और हूहू ने तय किया कि किसी रात चोर पैरों से वह सुरंग से बाहर निकलेंगे। सबसे पहले वे बाहर निकलते ही वो हिस्सा देखेंगे जहाँ की बाबत बचपन में बूढियों ने उनको कई कहानियाँ सुना कर खतरनाक और चतुर मनुख जात से दूर रहने की सलाह दी थी।

शेर से भले निबट लियो बच्चा, बूढियां कहतीं, पै मनुख की जात का पार किसी ने न पायो । सुना पकडे जानवरों को वो खुद कभी कभार ही खाते हैं बाकी को दूसरों को ज़िंदा बेच देते हैं पिंजडे में पालतू बना कर पालने को। हम गीदड़ हुए तो क्या? हम सबकी अपनी भी कोई तो इज्जत हैगी।

तुम अपनी मांद में जूठन खा खा के झाडे रहो कलट्टरगंज, हूहू सोचता। अरे दूसरों में खौफ भरने के लिये मनुख सरीखी चालाकी सीखे बिना, मनुखों जैसे कुछ रंगढंग बनाये बिना कैसे अच्छे दिन आयेंगे। और सीखने में हरज ही क्या? क्यों हाहा?

हाहा ने, जैसी उसकी आदत थी, तुरत गंजी मुडिया हिला दी।

एक दिन जब जंगल सोता था, चालाक गीदड़ हूहू और उसका लकडबग्घा दोस्त हाहा, चल पडे बाहर की तरफ।

हम कहां चले दिल्लीपति राना?’ हाहा बोला।

हूहू का दिल बाग बाग हो गया। बोला,

‘आखिर बड़े ने बड़े को पहचाना।’

बस। दोनो में दोस्ती और पक्की हो गई।

पहले दिन चारों तरफ घूम घूम कर दोनो ने जंगल के बाहरी हिस्से का जायज़ा लिया। फिर वापसी में राजा और ॠषियों के हिस्से का जंगल जो उनको बाहरी हिस्से की तुलना में काफी उकताऊ लगा।

अगले दिन दोनो फिर बाहर पहुंचे। दोनो ने तरह तरह के फूल और खुशबूदार फल सूंघे। दबे पैर ऐशगाह के फाटक से घुस हौदी में डुबकी भी लगा आये। देह गुलाब और चमेली के इतर से गमगमा गई। तेज़ इतर की गंध से हाहा को ज़ोर की छीं आ गई तो एक खब्बीस दरबान ज़ोर से बोला, ‘कौन है बे?’ थर थर काँपते दोस्त कुछ देर झाडियों में सांस रोके छुपे रहे फिर सरपट जंगल को भागे।

मज़ा बहुत आया। पर हाहा हूहू को लगा कि अपुन का फ्यूचर जो है सो इसी सैड में जंगल के भीतर है। सब ज़ात बिरादरी यहीं, गीदड़ नियाँ लकडबग्घिनियाँ यहीं, बाहर जाकी क्या करना। दोनो नये स्वैग पर नई तरह सोचने लगे।

एक दिन गुफा के बाहर बैठा हू हू क्या देखता है कि रात गये हाहा लकडबग्घा दूसरी तरफ से आ रहा है। पास आके हूहू से सट के हाहा फुसफुसाया बोला, ‘भैये बड़ी गुड न्यूज़ है। जरा चल मेरे संग। मुझे बड़ों बंदर बता रयो थो, कि अभी ॠषि मुनि वाले जंगल की साइड में भटक गया कोई मस्त हाथी किसी शिकारी मनुख ने सरोवर किनारे आय के मारो है। तू चाहे तो नाल नाल सरोवर तक चलके देख आवें?’

हाहा बोलता रहा, ‘हाथी ठहरा बड़ा जिनावर। मेरी अजिया कहती थी मनुख जात हाथी को खाने के लिये नहीं, पर दिखाने के दाँतन के लिये मारता हैगा। सो पारधी तौ अभी जरूर घर गया होगा कुल्हाडी लाने और लाश से दाँतों को काट कूट कर लेजानेवाले अपने साथियों की तलाश में। वो कट लिये तो हाथी अपुन का!’’

हूहू के मन में एकबारगी से आया, बार बार क्या जूठन खानी? फिर सोचा पारधी के लौटने से पेश्तर मैं खुद क्यों न मौका ए वारदात पे जाके हाथी मारने की मनुख की टेकनीक समझ लूं? किसी दिन मैं भी तो खुद शिकार करूंगा। और भैये ताज़े मांस में जो बात है वह अगले दिन के मक्खियों से भिनकते बासी छीछडों में कतई नांय। उस्ताद वाला स्वैग लाना हो, तो साले गीदडों लकडबग्घों को आत्मनिर्भरता का संदेश देना होगा । ये हाहा मूरख भले हो, पर हाथी को चल कर देखने में हरज़ क्या? आखिर मनुखों में भी तो बड़े शिकारी से ही तो हर छोटा शिकारी मनुख गुर सीखता होगा।

प्रकट में हाहा लकडबग्घे से हूहू बोला, ‘चल!’

दोनो मित्र चले। जाके देखा तो सचमुच सरोवर के किनारे पत्थर के ढोंके के पीछे एक बड़ा सा हाथी ही नहीं मरा पड़ा है, वधिक की भी लाश पडी है । हुआ ये कि हाथी के गिरने से एक सांप घायल हो गया था। उसने वधिक को काट खाया और वह भी मर गया। उसकी देही के साथ में पडा था उसका धनुष। इतना बड़ा शिकार ! और ताज़ा इतना, कि देही पर लगा बाण सारे का सारा भीतर घुस गया था और घाव से बहता खून अभी थक्कों में नहीं जम पाया था।

चटखारे लेकर ताज़ा खून चाटते हाहा हूहू को लगा, कि उनकी तो लाटरी खुल गई। ‘लगती है लाटरी, उड़ती है धूल, जलते हैं दुश्मन खिलते हैं फूल।’

‘फिक्र मत कर बंदे तेरे भी दिन आयेंगे, क्या?’ हंसते हुए हूहू ने कहकहे लगाते हाहा से कहा। ‘और वो जिस भेंगी लकडबग्घी से तेरा नैनमटक्का चल रहा है जाके उससे कहियो ,कि मँझधार में आ, किनारों में के रक्खा है? प्यार है तो गले लग जा, इशारों में के रक्खा है ।’

‘क्या उस्ताद, आप भी…’ लजा कर पुलकित होते हाहा ने कहा।

‘अपुन भी कयामत की नज़र रखते हैं,’ उसने हाहा से कहा। फिर गंभीर होके बोला कि जा के गुफावालन को कह दो, हूहू उस्ताद ने पहाड जित्तो बडो हाथी मारो है। सब आके प्रेम से जीमो! पर, खबरदार जो किसी से पारधी वारधी की बात कही। उसकी लाश अभी छिपा देते हैं बाद को हम दोनो अलग से खायेंगे। देखें मनुख का मांस कैसा होता है टेस्ट में!’

पारधी की देही को दोनो मित्र छिपा आये। अब उस्ताद के हुकुम से हाहा लकडबघ्घा गुफा से सारे लकडबग्घों और गीदडों को बुलाने चल दिया।

पारधी तो सिधारा गोलोक, सो उसकी कोई फिकर नहीं, अब सब परिजनों को न्योत कर मरे हुए हाथी की लाश को सकुटुंब सपरिवार निश्चिंत हो के खाऊंगा और उनकी वाह वाह के बीच अपना एकदम नये तशन वाला उस्तादी रूप अपने आप बन जायेगा। यह सोचते हुए हूहू को लगा कि ये धनुष आगे शिकार के वास्ते बड़े काम की चीज़ होगी। सो वह तुरत फुरत भागा और धनुष को जो है सो उठा कर झाड़ी के पीछे रख आया। रखते रखते डोर सूंघी तो जी जुड़ा गया। वाह । उसकी फेवरिट सुखाई हुई अंतडियों की तांत से बनाई गई थी वह डोरी। फिर वह वापिस चल पड़ा।

पर अचानक क्या पाता है? हाथी की लाश के सामने खडा था एक हरी हरी आंखोंवाला बाघ।

‘मामा जी प्रणाम’, चतुर हूहू हकलाते हुए बोला।

बाघ अच्छे मूड में था। भरपेट कहीं से शिकार छक कर सरोवर में पानी पीने को आया था। उसने कहा, ‘क्यों भानजे अच्छे तो हो?’

हूहू गीदड़ बोला, ’मामाजी आपकी दया है।’

तीखी निगाहों से उसे देखते हुए अब बाघ ने पूछा, ‘और ये हिरन किस ने मारा है?’

चतुर हूहू बोला ‘शेर ने!’

काहे कि उसे पता था कि जंगल की मरजाद के हिसाब से कोई भी बाघ कभी भी किसी शेर के मारे शिकार को नहीं खायेगा। वही हुआ। बाघ बोला, ‘शेर महाराज हमसे उम्र में बड़े हैं। बुढा गये तो क्या? हमारे मार्गदर्शक हैं। उनका मारा शिकार हम नहीं खायेंगे।’

इसके बाद बाघ चपड़-चपड़ नदी का पानी पीकर चला गया।

कुछ ही देर में एक शेर भी पानी पीने आया।

हूहू गीदड़ बोला, ‘ताऊ पांय लागी’।

‘जीते रहो,’ शेर बोला। फिर उसने बड़ा सा हाथी मरा देखा तो पूछा, ‘भाई ये किसने मारा है?’

चतुर हूहू बोला, ‘जी वो बाघ मामा ने।’

जैसी उसे उम्मीद थी, शेर ने कहा अपने से छोटे का मारा शिकार खाना राजधर्म के विरुद्ध है।’

उसने भी पानी पिया और चला गया। हूहू गीदड़ की जान में जान आई।

अब थोड़ी ही देर में वहाँ एक कौवा आ पहुंचा।

‘क्यों भाई हूहू, अकेले अकेले?’ उसने शरारतन गर्दन टेढी कर के पूछा। हूहू ने सोचा ये साला तो पक्का खबरची है। इसे कुछ न दूंगा तो ये कांव कांव करेगा और इसकी पुकार सुन कर इसके तमाम साथी आ जुटेंगे। उनके पीछे पीछे हमेशा की तरह शायद कई और हरामखोर न आ पहुंचें। तब मैं किस किस को रोकूंगा? इसलिये इसे कुछ देकर विदा करना ही बेहतर होगा। हूहू ने कौए की तरफ मांस का एक बड़ा सा टुकडा उछाल दिया। कौआ उसे लेकर ऊड़ गया।

उसके कुछ देर बाद झाड़ी से निकल कर अकेला हाहा लकडबग्घा आया। बोला आज अभी सारी बिरादरी बाघ मामा के कने अंतडियाँ जीम के लौटी है, सो उन्ने कई है कि कल सुबह उठ कर इधर जीमेंगे। हूहू गीदड़ ने सोचा उस्तादी दिखानी है तो पहले इसके अधोभाग में लात मार कर भगाना ही ठीक रहेगा। उसने भंवें चढा कर उसके पृष्ठभाग में ज़ोर से एक लात मारी और कहा, ‘तो तू भी अब सुबह ही अइयो।’ दुरदुराये जाने का आदी डरपोक हाहा लकडबग्घा भाग लिया।

इसके बाद हूहू गीदड़ खुश हो कर सोचने लगा कि काहे खुद शिकार विकार का भी जोखिम मोल लेना? दिन रात धनुष कांधे पर धरे धरे फिरना उसके बस का नहीं, उस पर तीरों के लिये एक तरकस भी बुनना होगा और बांस की तीलियाँ काट कर नुकीली नोंकवाले नये तीर बनाना तो उसको आता ही नहीं! चल बेट्टा, वह खुद से बोला, तू तो शेर, बाघ, लकडबग्घा सबको अपनी लच्छेदार बातों से इधर उधर ही निपटा चुका है। रही गुफा में नेताई करने और पंचप्रधान बनने की बात, सो हाथी उन सबको कम से कम महीने भर की खुराक तो देगा ही। इस महीने भर चले जेवनार के बाद गीदड़ तो गीदड़ , अघाये डकार मारते लकडबग्घों का सपोर्ट भी सदा उसी के साथ। बीच बीच में कभी कुछ नया खाने का मन किया तो वो और उसका पिछलग्गू यार हाहा, झाडी के नीचे छुपाये मनुख का मांस भी खाते रहेंगे! के तो स्टाइल बबुआ! बस इभ हूहू तौ टॉप। एकदम लॉलीपॉप!

हूहू की ज़ुबान धनुष की तांत की डोरी का करारा स्वाद कभी से लपलपा रही थी। उसने सोचा, क्यों न भोर होने से पहले वह अकेला उस डोरी को मज़े ले ले कर खाये, फिर सुबह होने पर सबके साथ हाथी पर भी हाथ साफ करे।

वह गया और धनुष उठा लाया। पर हाय!

देंदा है रब, सडदे नें सब, पता नहीं क्यूं?

जैसे ही हूहू ने ताँत की डोरी काटी, बांस की कमानी छिटक कर उसके तालू में लगी और वह ढेर हो गया । अगले दिन हाथी का माँस जीम कर गिफा को वापिस जाते एक सयाने गीदड़ ने कहा, हाय बेचारा हूहू। कोई कमी ना थी उसमें। अकलमंद, हिम्मती बंदा था अपना। पर कुछ काम न आया। जभी कहते हैं, ‘मिलेगा मुकद्दर।’