लाल चौक का बादशाह (डोगरी कहानी) : ओम गोस्वामी

Lal Chowk Ka Badshah (Dogri Story) : Om Goswami

"क्या वह पागल है?" यह प्रश्न श्रीनगर के एक कूँचे से दूसरे तक तेजी से फैलता जा रहा था।

लाल चौक के मध्य वह मूक विज्ञापन की तरह खड़ा था। उसने गले में लकड़ी की चौड़ी तख्ती पहन रखी थी, जिस पर उर्दू में लिखा था-"मेरा नाम मोतीलाल सराफ। मैं गगुनहगार हैं। मेरा गुनाह-मैं वादी-ए-कश्मीर में पैदा हुआ। मैंने धरती की इस जन्नत से बेइंतिहा प्यार किया।"

आने-जानेवाले राहगुजर उस पर बेपरवाही की एक नजर डालते और आगे चले जाते। कोई परिचित देखकर कह देता, "मास्टर पागल हो गया है।"
ऐसे शब्द सुनते ही मोतीलाल सराफ एकाएक गला फाड़कर चिल्ला उठता, "पागल मैं नहीं, पागल तुम हो! पागल वे हैं, जो शेख नूरुद्दीन की मिट्टी खज्जल कर रहे हैं। पागल वे हैं, जो ललद्यद की प्रेम-पगी वाणी भुला बैठे हैं!"

कोई अजनबी मुसाफिर कह देता, "बट्ट गोली को बुलावा भेज रहा है।" एकाएक सराफ चिल्ला उठता, "हाँ-हाँ! क्यों नहीं! मारो मुझे गोली, क्योंकि मैं ऋषि कश्यप की संतान हूँ। मैं मेहनतकश 'काशर' हूँ। मैं ही केसर के फूलों में बसी हई मादक खुशबू हूँ। मैं चश्माशाही का निर्मल नीर हूँ। मैं देवी खीर भवानी के हवन-कुंड का पवित्र धुआँ हूँ, और मैं ही वादी के अंतरमन की आवाज हूँ।...दीदे फाड़कर क्यों देख रहे हो? मुझे गोली मार दो।...मारो गोली!"
"बट्ट बादशाह! हालात पहले जैसे नहीं हैं। पागल मत बनो!" सहसा कहीं से आवाज आई। "हालात को बिगाड़नेवाले छिपकर तीर क्यों चला रहे हैं? मैं कहता हूँ, सामने आकर मेरे साथ बहस करो!" उसने ललकार भरे स्वर में कहा।

सड़क पार से यह सब देख रहे दो युवक उत्सुकतावश उसके करीब चले आए। उसकी बातें सुनकर एक ने दूसरे से कहा, "इसे पागलखाने में पहुँचाने की जरूरत है।"

तुरंत मोतीलाल बोल पड़ा, "पागलखाने में तो तुम्हें ले जाना चाहिए, जिन्होंने कि इस शांत वादी को पागलखाने में तब्दील करने की ठान ली है!...किंतु तुम सब कान खोलकर मेरी बात सुनो-मैं कश्मीर छोड़कर नहीं जाऊँगा।"
उससे परे जाते हुए युवक बोले, "इसे जान प्यारी नहीं है, इसीलिए इतने ऊँचे स्वर में ललकार रहा है...।"
सचमुच सराफ की आवाज ललकार से भरी हुई थी। वह बोला, "अपनी पीठ पर मैंने डोगराशाही के दर्जनों कोड़े खाए थे। शेख साहब के संग मैंने भी जेलें काटी थीं।...उस शख्सीराज का जुल्म भी मेरी जबान बंद न कर सका।"

मन-ही-मन सराफ सोच रहा था कि ये लोग जरूर उसे पागल समझ रहे होंगे। पर वे लोग, जो सन् 1990 से आजादी माँग रहे हैं, उन्हें सच्चाई के रू-ब-रू लाना क्या कम जरूरी है? उसके मन में आया कि वह ट्रैफिक के सिपाही की तरह आती-जाती गाड़ियों को अपने बाजू हिलाते हुए इशारे दे। भूले-भटकों को राह दिखाना क्या पागलपन है? कोई तेज रफ्तार से आती-जाती गाड़ियों को संकेत नहीं देगा तो हर कदम पर हादसे नहीं होने लगेंगे? जो राह से हटकर भाग रहे हैं, वे उसे लाख पागल कहें, वह सच कहने का पागलपन नहीं छोड़ेगा। सच बोलना ही तो आजादी है। आजाद देश में आजादी के नारे लगानेवालों को मृगतृष्णा में भटकता हिरण मानकर उसका हृदय रोने को हो आता। किंतु यह सच है कि आज यह सच्ची और कड़वी बातें कहते हुए उसे स्वतंत्रता की अपरिमित प्रतीति हो रही थी।

सेवानिवृत्ति को मुश्किल से एक महीना हुआ था कि अचानक सिर पर बिजली-सी आन गिरी। श्रीनगर के आकाश में घनघोर काले बादल घिर आए। लाउडस्पीकरों पर खौफनाक आवाजें गूंजने लगीं। अल्पसंख्यकों के लिए घोर चेतावनियाँ उभरने लगीं...भयंकर परिणामों से आजादी का सूर्य चमकने की सरगोशियाँ होने लगीं...चिनार के घने पेड़ों से बिना पतझड़ के सब्ज पत्ते झरने लगे।

न जाने क्यों उसे लगा कि डल उदास है। पानी में तैर रही चंद बत्तखें और कुछेक शिकारे उदासी को और भी गहरा कर रहे थे। डल के किनारों को कीचड़ और मलबा निरंतर अपने आगोश में लेता जा रहा था। कुछ ही बरसों में काई और सरकंडा झील के अंदर दूर तक चले गए थे। ऐसे में स्नान के लिए फिरन उतारने की कोशिश ही की थी कि दुल्ली डार ने उसकी बाँह थाम ली। तब आहिस्ता से कुछ इशारा किया और उसे लेकर पेड़ों के झुरमुट में चला आया,
"मरे! कितनी बार समझाया कि नहाने के वास्ते यहाँ मत आया कर। तीन मोहल्ले दूर से यहाँ डल में आकर नहाने की क्या जवाजियत है?"
"तेरे कहने पर मैंने माथे पर तिलक लगाना छोड़ा, जनेऊ उतारकर डल में फेंक दिया। अब तू चाहता है कि मैं यहाँ नहाना भी छोड़ दूं?"
"पगले! कश्मीर में हालात बदल गए हैं। अब जो भी सरेआम नहाएगा, उसका यह काम उसे काफिर नश्र करने के लिए काफी होगा।"
"तू सीधे-सीधे क्यों नहीं कहता कि मैं इसलाम कबूल कर लूँ!"
"पगले, नहीं नहाने से कोई मुसलमान नहीं बन जाता। मैं तो सिर्फ यह कहता हूँ कि यदि तुझसे बिना नहाए नहीं रहा जाता तो अपने घर में बाल्टी भर पानी से नहा लिया कर। यहाँ आना छोड़ दे। यहाँ पहले ही सुभाने से तेरी खारबाजी चल रही है।"

"उसकी परवाह कौन करता है? तुझे शायद मालूम नहीं, मेरे नहाने पर जब उसने एतराज किया था तो कैसे मैंने उसका मुँह बंद कर दिया था। साला कहता था कि उनकी खिड़की डल की ओर खुलती है और तू हमारी औरतों के सामने कपड़े खोलकर नहाता है। यह बदतमीजी बरदाश्त से बाहर है। जब मैंने उसे बतलाया कि पहले तो तूने डल की जमीन पर नाजायज कब्जा जमाया, तब बिन नक्शों के मकान बनवा लिया। अब तू लोगों को झील में नहाने से मना करने लगा है। लोगों के नहाने से यदि तेरी बेइज्जती होती है तो अपनी खिड़कियों के पल्लों पर कील जड़वा दे या फिर औरतों से कह दे कि डल की ओर झाँका न करें। "बड़ा आया डल का ठेकेदार! यह क्यों नहीं कहता कि खिड़की से उसे घर का कूड़ा-करकट डल में फेंकना होता है।"

"तब की बात और थी। अब उनका लडका जमायतियों में शामिल हो चुका है।"
"इससे क्या होता है? डल पर सी.आर.पी. की गश्त भी तो है!"
"पागल पंडित! बात समझने की कोशिश करो। तेरी छाती से जब किसी जेहादी की गोली निकल जाएगी, तब सी.आर.पी. तुझे किस जादू से जीवित कर पाएगी?"

सुनकर उसके रोंगटे खड़े हो गए। कह तो ठीक रहा है; जेहादी इस बात की प्रतीक्षा थोड़े करेंगे कि इधर सी.आर.पी. आए और उधर वे किसी बेगुनाह पर गोली चलाएँ वह असमंजस में था कि आज आखिरी बार नहा ले या बिना नहाए लौट जाए!

उस पर दुल्ली खीझ उठा, "लौटकर चला जा मेरे भाई! क्या तुझे मालूम नहीं कि हमारे मोहल्ले के रतननाथ और बदरीनाथ दोनों भाई अपने परिवार और सामान लेकर जम्मू चले गए हैं! दूसरे मोहल्लों के बट्ट लोग धड़ाधड़ कश्मीर छोड़कर अपने सहधर्मवाले लोगों के इलाकों में जा रहे हैं।"
सराफ के शरीर से पुन: झुरझुरी-सी गुजर गई, "हे राम! ऐसी कौन सी मुसीबत आ रही है!" "मालूम नहीं क्या होने वाला है! किंतु अब अच्छी वारदातें नहीं होंगी। टीकालाल टपल के हादसे के बाद लोगों में खलबली मच गई है, एक भाग-दौड़ शुरू हो गई है, कहीं जैसे कोई अनहोनी इंतजार में बैठी हो।" दुल्ली सराफ को बाजू से थामे डल से परे-परे उसके मोहल्ले की ओर चल दिया। फिर उसके मकान की ड्योढ़ी पर रुककर बोला, "कुछ-दिन नहाएगा-धोएगा नहीं या फिर मंदिर में नहीं जाएगा तो तुम्हारा हिंदुओं का अल्लाह तुमसे रूठ नहीं जाएगा...किंतु जमायतवालों का कोई भरोसा नहीं। कुछ समय के लिए यदि तुम्हें जम्मू जाना पड़े तो चला जा। रुपयों की कुछ मदद मैं कर दूंगा। अरे भाई, जान है तो जहान है!"

किवाड़ खोलकर सराफ की घरवाली चली आई। उसकी आँखों में आश्चर्य और भय की परछाइयाँ तैर रही थीं।
"आ, अंदर बैठ।" सराफ ने दुल्ली से कहा। "इस वक्त नहीं। भइया! जमायतवालों की कड़ी निगाह है कि पंडितों के घरों में किसका आना-जाना है, ताकि उन्हें गद्दार घोषित किया जा सके। अब दीवारें मौन नहीं रहीं, वे कान बन गई हैं।"
"कहवे का प्याला पी जाते।" सराफ की पत्नी ने कहा।
"भाभी नहीं, अँधेरा होने पर आऊंगा। यदि कोई जरूरी खबर होगी तो आकर आहिस्ता से दस्तक दूँगा...।" वह जाते हुए बोला।
सराफ के श्वासों की ध्वनि सुनाई दे रही थी। सोच कुंद हो चली थी।
घरवाली बार-बार पूछ रही थी, "हमारे हमसाए हमारे साथ कैसा सलूक करेंगे?" मोतीलाल से उत्तर नहीं बन पड़ रहा था।
"क्या वे हमें काटकर मार डालेंगे?"
"कैसी पगली औरत है! वे हमसाए, जो तुझे बड़ी माँ कहते हैं और मुझे उस्तादजी कहते-कहते जिनकी जिह्वा नहीं अघाती- वे ऐसा कुफ्र कैसे कर सकते हैं ?"
"सुना है, लड़के हिमाकतों पर उतर आए हैं। सबके पास ठाँय-ठुस्स करनेवाले घातक हथियार भी हैं।"
"मेरे विचार में ऐसा कुछ नहीं है। घबराहट में लोग ऐसी अफवाहें उड़ा रहे हैं। क्या लड़के नहीं जानते कि यह खतरनाक खेल है!"
"सुना है, लड़के सरहद पार से हथियार और ट्रेनिंग लेकर आए हैं। उनके पास एक ही नारा है "निजाम-ए-मुस्तफा..."
इन शब्दों का असर कुछ ऐसा हुआ कि सराफ का चेहरा पीला पड़ गया। खुद को सँभालते हुए बोला, “न जाने तुझे ऐसी डरावनी बातें कौन सुना जाता है?"

"भलेमानुस! तमाम लोग हमारे दुश्मन नहीं हैं। चार हमदर्द भी हैं।" कुछ देर चुप रहकर वह बोली, "गुलकाक की घरवाली ही आपके पीछे आई थी। उसे उसके पोते ने बतलाया था कि जनवरी महीने में अमुक तारीख को कश्मीर में 'अजदी' आएगी।"
"कौन आएगी?"
"वही, मुई अजदी, तब जेहादी अपना झंडा फहराएंगे।"
"ओह समझा! आजादी।"
"जाए भाड़ में अजदी!" गुलकाक के पोते ने कहला भेजा है कि उस्तादजी से कहिए अजदी की बिजली जब गिरेगी, वह गुनहगारों और बेगुनाहों-दोनों को भस्म कर डालेगी।"
"उसने यह हमदर्दी जतलाई है या धमकी भेजी है?"
"हमारे लिए तो हमदर्दी ही है। उसने खबर भिजवाई है, ताकि हम बेखबरी की दशा में मारे न जाएँ।"
"और क्या कहा है उसने?"
"उसने यह भी कहा है कि तुम अपना इंतजाम कर लो।"
"इंतजाम कर लो!" सराफ ने हैरानी से पूछा। "यही कि किराए का ट्रक लेकर सामान सहित जम्मू चले जाइए।"
"क्यों चले जाएँ जम्मू? हमारा कसूर क्या है? हम यहीं पैदा हुए, पले-बढ़े। बाहर जाकर दर-ब-दर होने से बेहतर है कि कोई गोली मारकर यहीं शहीद कर दे।"

सुनकर सराफिन एकाएक काँप उठी। फिर एकटक सराफ की आँखों में देखते हुए बोली, "मरने की बात मत कर मेरे मूरख पति! मर जाने से जीवित रहना हर सूरत में बेहतर है।" "क्या कश्मीर की धरती बेगुनाह अध्यापक के लहू की प्यासी हो चुकी है?" एकाएक वह बुडबुड़ाने लगा। सामने रखी चाय का प्याला खाली हो चुका था। सोच कुंद थी...और जबान बंद?

कहाँ जाएँ, किससे फरियाद करें? हमारी रक्षा कौन करेगा? कल तक हम सारे सुखी थे, अचानक निश्चिंतता की वो चादर किसने खींच ली? जीवित रहने के लिए क्या इस सरजमीं को तजना जरूरी है? वह भू-खंड, जिसे हम स्वर्ग मानते हैं और खुद को धन्य-धन्य मानते हैं। इस वादी के वारिस हिंदू-मुसलिम हम सारे गाते हैं-"रिंद पोशमाल गिंद नेत्राई लो लो।"

"हे ईश्वर! हे माँ वीर भवानी! हम पर कृपा करना।"

रात के अंधेरे में कुछ अनचीन्ही आवाजें कानों में पड़ीं। आवाजें ज्यों कालिख की तूफानी आबशारें थीं। बहुत बुरा कुछ होनेवाला है...अँधेरा सरगोशियाँ करता प्रतीत हो रहा था...आदम का बेटा कसाई हो जाएगा। रक्त की बाढ़ देखकर भी उसके भीतर दर्द की अनुभूति न उभरेगी।

...कड़ाक...कड़ाक...कड़ाक-लोहे के कोके लगे भारी जूतों की गश्त। सिर जोड़कर खड़े स्तब्ध चिनार। दीवारों की ओट में सड़कों पर प्रतीक्षा कर रहे हादसे...कुछ ऐसा है, जो दर्द की बरसात लाने को उतावला है-वह कौन है?
अचानक किवाड़ों पर दस्तक हुई। वह काँप उठा। काटो तो खून नहीं। अपनी घबराहट को छिपाकर उसने लालटेन की रोशनी कम कर दी।
"मोतीलाला! इस स्याह रात में किसी बट्ट के दरवाजे पर दस्तक का भला क्या मतलब है?" सराफ से उसकी पत्नी ने पूछा।
"वही मतलब है, जो किसी दूसरे के किवाड़ों पर ठक-ठक होने पर होता है।"
"मालूम पड़ता है वह जालिम घड़ी चली आई है!"
"कैसी जालिम घड़ी?"
"वह घड़ी, जब जालिम बेबस मुरगों की तरह हमारी गरदनें उड़ा देंगे।"

"हाय!" एकाएक वह काँप उठा। तब खुद को सँभालते हुए बोला, “ऐसा नहीं हो सकता। कश्मीरी लोग मुरगे और मानव में फर्क पहचानते हैं। सदियों तक जुल्म सहनेवाले कश्मीरी जालिम नहीं बन सकते। वे इनसानी जिंदगी की कीमत पहचानते हैं।"
दुबारा किवाड़ों पर दस्तक हुई। सराफ की आवाज को फालिज मार गया।
"इतने आहिस्ता से दस्तक? जरूर यह दुल्ली डार है। उसने कहा था वह आएगा।"
किवाड़ के निकट जाकर उसने धीमे स्वर में पूछा, "दुल्ली?"
"हाँ!" वैसे ही धीमे स्वर में उत्तर उभरा। किवाड़ खुले, फिर बंद हो गए। "मैं कहती थी न कि दुल्ली होगा!"
"तू यह भी तो कह रही थी कि हमारी आखिरी घड़ी चली आई है।" सराफ ने प्रसंग को व्यंग्य की ओर मोड़ते हुए कहा।
"मैं तो हुई औरत जात, जन्म से डरपोक! किंतु तुझ जैसे शेर-दिल मर्द के दिल की धकधक बाहर क्यों सुनाई दे रही थी?"
दुल्ली बोला, "मैं सोच रहा था कि अब तलक आप सो गए होंगे।"

सराफिन ने बेबसी से भरा लंबा साँस छोड़कर कहा, "इन आँखों से नींद का वैर हो गया है। चिंता की आँधियाँ नींद की बदलियों को आँखों में उतरने नहीं देतीं।"
"कैसा खराब वक्त आ गया है!"
"भाई साब! नगर की खबर क्या है?" दुल्ली की ओर देखते हुए सराफिन ने पूछा।
"खबर जानना चाहती हो तो रेडियो लगा ले, भली लोक!" सराफ ने कहा।
"जो असल खबर है, वह रेडियो पर नहीं आती। रेडियोवाले खबरें छिपाते अधिक हैं, बताते कम हैं। उनकी एकाध खबर ही यकीन के काबिल होती है।"
"तुझे ऐसे वहम कौन डाल जाता है?" सराफ ने पूछा।

उत्तर दुल्ली डार ने दिया, "भाभी ठीक कह रही हैं, मोतीलाला! टीकालाल टपलू के बारे में रेडियो यही खबर देता रहा कि अस्पताल में उसका इलाज चल रहा है, जबकि वह बेचारा गोली लगते ही सरेबाजार दम तोड़ चुका था। सरकारी खबरों पर कैसे यकीन आए!"
"फिर आज की सही खबर क्या है?" मोतीलाल ने खीझ को छिपाते हुए पूछा।
"असल खबर यह है कि दिनोदिन हालात बिगड़ते जा रहे हैं।" दुल्ली बेझिझक कह गया।
"ऐसी बातें बतलाकर तू क्या हमें डराने आया है?" इस बार सराफ की खीझ फूटकर बाहर निकल आई।

"बात यों है कि मेरी घरवाली ने कुछ रुपए भेजे हैं। दो हजार हैं। इन्हें हमारी ओर से मदद समझना। इन्हें लौटाना नहीं, उसने ताकीद की है। और यह भी कहला भेजा है कि जितनी जल्दी बन पड़े, यहाँ से चले जाइए। बीमार न होती तो यही बातें कहने वह खुद आई होती। चारपाई पकड़े उसे आठ दिन हो चले हैं। बीमारी की हालत में भी उसे तुम्हारी फिक्र खाए जा रही है।"

"सगे रिश्तेदार इतना अपनापा नहीं रखते, जितना उसे हमारे साथ है।" सराफिन ने कहा। "मेरे दोस्त दुल्ली! सहानुभूति की जो दौलत तुम्हारे पास है, वही मेरी ताकत है। मुझे रुपयों की आवश्यकता नहीं। वह इसलिए कि मैंने आज तक कर्ज नहीं लिया। मैंने इल्म की दौलत दो दो हाथों से बाँटी है, कभी किसी से कानी कौड़ी तक नहीं ली।"

"मगर बाहर जाने पर रुपयों की जरूरत पड़ती है।"
"मैंने यह कब कहा कि अपना चूल्हा-चौका छोड़कर जा रहा हूँ? मुझे मरना मंजूर है, किंतु अपना घर-द्वार तजना मेरे लिए गाय की सौगंध तोड़ने जैसा है।"
काफी देर तक कानाफूसी चलती रही। हारकर दुल्ली डार को अपने रुपयों सहित वापस लौटना पड़ा।
प्रात:काल में आँख लगी, किंतु जल्दी ही नींद टूट गई। नींद पूरी नहीं हो पाई थी, तो भी आँख खुलते ही लगा, डर के बादल उड़ चुके हैं। मन के भीतर पक्की गाँठ बंध गई थी—'मुझे घर नहीं छोड़ना है।'

जलावन की लकड़ियाँ जमा करनेवाली कोठरी से एक स्कूली तख्ती निकालकर इस पर जम्मू-कश्मीर की राजभाषा में लिखा-मेरा नाम...मेरा गुनाह...वगैरह।

तभी सराफिन चाय और कुलचा लेकर चली आई। सराफ को तख्ती गले में लटकाए देखकर उसे जोर का सदमा लगा। उसका मुख खुला-का-खुला रह गया।
"भले मानुस! यह क्या करने लगे हो?"
"मैं कश्मीर छोड़कर नहीं जाऊँगा-मैं इस बात को नश्र करने लगा हूँ।"
"नहीं जाना होगा तो मत जाना, किंतु इस बात पर बावेला मचाने की क्या जरूरत है?"
"नश्र करने में क्या एतराज है?"
"उन्हें गोली मारने के लिए दूसरा टपलू मिल जाएगा।"

"गोली कौन मारेगा? क्या वे इतनी जल्दी भुला बैठे हैं कि मैं उनका उस्ताद हूँ? शख्सी राज में मैं और शेख अब्दुल्ला कुछ देर एक ही स्कूल में उस्ताद थे। सैकड़ों तुलवा को उर्दू-फारसी पढ़ाकर उन्हें कुरआन-शरीफ पढ़ने की कूवत किसने दी?"

तपाक से सराफिन ने उत्तर दिया, "गुलकाकी कह रही थी जेहाद का नारा देनेवाले शेख की कब्र उखाड़ने का निश्चय किए बैठे हैं।"
'सुनकर मेरी तो जान ही निकल गई। सैंतालीस में हमें बचानेवाला शेख मर चुका है। अब तो उसकी कब्र भी खतरे में है।'

सराफ की आँखों में शून्य व्याप्त हो गया। एकटक सराफिन को देखता रह गया। पति के माथे पर सिमट आई रेखाओं को दुश्चिंता की लकीरें मानकर वह बोली, "मेरी मानकर आज ही चल पड़ो। कौन जाने कब क्या हो जाए। जम्मू पहुँचकर हम भीख माँग लेंगे....किंतु जिंदा तो रह सकेंगे!"

"अरी पगली! इस जन्नत को छोड़कर क्या मैं उस शहर में चला जाऊँ, जहाँ मुझे जाननेवाला कोई बशर नहीं है? जहाँ मैं किसी के साथ अपने दिल का सुख-दुःख साझा नहीं कर सकता...?"
"चाय पीकर कुछ खा लो। पेट भरा होने पर ही आदमी अपना भला सोच सकता है। बिना खाए-पिए तुझे आनेवाला खतरा बड़ा-छोटा मालूम पड़ रहा है।"

मोतीलाल ने कुलचे को एक के बाद एक तीन-चार बार काटकर मुँह में भरा और इस तरह चबाने लगा मानो कई दिन से भूखा हो। "इतनी जल्दी क्या है? सब्रसे खाओ।"

"सब्र से खाऊँ, इतना वक्त कहाँ है?"
"तुम तो चाय में कुलचा डुबोकर खाया करते थे, आज क्या हो गया कि उसे यों ही गटक गए! मैं एक और कुलचा ले आती हूँ।"
"न-न, रहने दे। मुझे बाजार जाना है।" कहकर उसने मुख से प्याला जोड़ा और गट-गट करता चाय पी गया। फिर तुरंत उठकर बाहर की ओर चल पड़ा।
"बाहर मत जाओ। लोग समझेंगे सराफ पागल हो गया है।"
"उसमें भी तेरा ही फायदा है, पागल की घरवाली के हमदर्द बहुत से लोग हो जाते हैं।" कहकर वह बाहर चला आया। पीछे-पीछे सराफिन भी बाहर निकल आई।

मोहल्ले के बुजुर्ग सय्यदी साहब की नजर सराफ की तख्ती पर अटक गई। तुरंत वे उसके निकट चले आए। उनके कुछ पूछने से पहले ही सराफ बोल उठा, "मैं जा रहा हूँ। सारे नगर यानी श्रीनगर में यह नश्र करने कि कश्मीर किसी की बपौती जागीर नहीं है।"
"बाबा! इसे समझाइए। यह मरद क्या करने जा रहा है?" सय्यदी को सामने पाकर सराफिन के मुख से बरबस निकला।

असहमति के स्वर में सराफ बोला, "क्या होगा, ज्यादा-से-ज्यादा मुझे कोई गोली मार देगा! कश्मीर की आग अगर इससे बुझती है तो मेरा मर जाना बेहतर है।"

सय्यदी साहब, आम दिनों में अकसर सबसे हँसते हुए मिला करते थे, किंतु कुछ महीनों से उनके चेहरे पर फिक्र और संजीदगी की एक झुर्रियों भरी तह चिपक चुकी है। वे बोले, "अपने मोहल्ले में तो कोई कुछ न कहेगा। मगर दूसरे इलाके में ऐसी हिमाकत की तो नतीजे के बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता।"

इसी वक्त मक्खनलाल गुर्टू उसके समीप आकर खड़ा हो गया। रिश्ते में वह मोतीलाल का साला लगता था। जीजा को बाँह से पकड़कर वह बोला,
"जीजा! उम्र भर तुम नाटक करते रहे हो। अब मुसीबत की इस घड़ी में तो होश करो। मेरी बहन की साँस सूख रही है। तुम घर में बैठकर उसे सहारा दो..."

सय्यदी साहब बोले, "आम दिनों जैसे हालात होते तो मैं शायद कुछ न कहता, मगर मौजूदा वक्त में अपनी हिफाजत की फिक्र करनी चाहिए। उसी में भलाई है।"

मक्खनलाल बोला, "आज सायं मैं जम्मू जा रहा हूँ। ट्रकवाले से बात हो चुकी है, तुम भी उसी में अपना माल-असबाब रखकर निकलते बनो।"
"कहाँ जाऊँ मैं?"
"जहाँ तमाम लोग जा रहे हैं।" "वहाँ जहाँ सिर्फ पत्थर हैं? जहाँ साँपों की भरमार है। जहाँ मार-काट करनेवाले और दूसरे का खून बहाकर तमाशा देखनेवाले लोग रहते हैं?"
"हाँ-हाँ, वहीं।" मक्खनलाल खीझकर चिल्ला उठा।

"तुझे याद नहीं होगा, पर मैं भूला नहीं हूँ-शेख साब ने जिस वक्त 'डोगरो, कश्मीर छोड़ो' का नारा लगाया था, उस वक्त उनके नारे को दुहरानेवाला शख्स मैं था। हाँ, मैं मोतीलाल सराफ..." "शेख को तो कश्मीरियों ने उसकी दिलेरी के लिए 'शेरे-कश्मीर' का खिताब दिया, मगर वेचारे आदमी तुझे क्या मिला? तू रहा बकरी-का-बकरी ही। यह मत भूलो कि बकरी को खानेवाले कई भेडिए अवसर की ताक में बैठे हुए हैं।" मक्खनलाल खीझ से उफन रहा था. "हुकूमत संभालने पर शेख ने तुझे कौन से तमगे दे डाले?"

"एक सच्चाई की लड़ाई थी हमारी। क्या मैं तगमे पाने के लिए जंगे-आजादी में शामिल हुआ था?"

बुजुर्ग सय्यदी बोले, "वह उस वक्त का सच था मेरे भाई और आज का सच यह है कि बाएँ हाथ को दायाँ पहचान नहीं रहा। लड़के अपने माँ-बाप के कहने से बाहर हो गए हैं। उनके सिरों पर खून सवार है।"

मक्खनलाल ने कहा, "कल तक जिस शेख का साथी होना फख्र की बात मानी जाती थी, आज वही बात अव्वल गुनाहों में शुमार की जा रही है।"

मोतीलाल सराफ के पैरों तले की जमीन मानो हिल गई हो। वह अपनी आस्था की पुष्टि करने के लिए बोला, "सैंतालीस के शोरश की बात ज्यादा पुरानी नहीं है। आज भी मेरे कानों में वे आवाजें गूंज रही हैं-हिंदू मुसलिम, सिक्ख इत्तेहाद? जिंदाबाद! जिंदाबाद!!" इतना कहकर धनुष से छूटे बाण की भाँति बाजार की ओर निकल गया।

सराफिन गला फाड़कर रो पड़ी, "हे शंकराचार्य के शिवजी! इस पागल आदमी पर कृपा करिए। ओ सय्यदी बाबा! इसे समझा-बुझाकर वापस ले आइए। ओ मेरे मक्खनलाला, कुछ कर मेरे भाई!"

मक्खन ने सराफिन को सहारा दिया और सय्यदी सहित वे उसे भीतर की ओर ले चले। उसे आश्वासन देकर दोनों सराफ को ढूंढ़ने निकल पड़े। कई गलियाँ और बाजार छान मारे, किंतु कहीं उसका पता न चला। मोहल्ले की तमाम औरतें घर में आकर बैठ गई। बातों का बाजार गरम हो गया।

"आज उस्ताद सराफ की गोलियों से बिंधी लाश घर में आएगी।" तमाम लोग मानो उसके शव का इंतजार कर रहे थे। सराफिन काकी का रोना-धोना, उसकी दुहाइयाँ सब उसके गले में सिमटकर रह गई। मुंह से केवल हाय-हाय की ध्वनि बाहर आ रही थी।

तभी गली में साइकिल की घंटी बजने की आवाज हुई। दीवार से सटाकर साइकिल खड़ी करके फफ्याजी कंपाउंडर का लड़का अफरीदी अंदर आया और खुशी में पगे स्वर से बोला, "उसका सोग मनाना छोड़ो। वह मरा नहीं है।"

अचानक प्रश्नों की बरसात होने लगी। "उसे तूने देखा है?"
"वह क्या कर रहा था?"
"उस बेचारे ने सुबह से कुछ खाया तक नहीं।"
"वह तुम्हें कहाँ मिला था?"

अफरीदी का उत्तर सुनने को जमघट जितना उतावला था, वह बात को उतना ही लटकाकर और चटखारे ले-लेकर सुना रहा था, “उसका नाम मोतीलाल सराफ है! वह कभी फाके से नहीं मर सकता। वह केवल उस्ताद नहीं, उस्तादों का उस्ताद है...।"
"यह मजाक का वक्त नहीं है, बेवकूफ!" सय्यदी ने डपट दिया।

"मैं उधर से गुजरा तो आगे वह चोचरू खाते हुए चाय सुड़क रहा था। उसने पास बुलाकर मुझे भी एक चोचरू दिया और कहने लगा, ले बेटा, ऐश कर! मोहल्ले में जाकर सबको सुना देना कि मुझे अपना नगर छोड़ना नहीं है। देखो तो यह मेरे मुसलमान शागिर्द किस तरह मेरी खिदमत कर रहे हैं। मुझे रोटी खिलाई, चाय पिलाई और अब मेरी टाँगें दबा रहे हैं।...और जाकर अपनी सराफिन काकी को सहारा देना और उसे कहना कि वह घबराए नहीं, हमें कोई कश्मीर से नहीं निकालेगा। कश्मीर में अभी 'पंडितो, कश्मीर छोड़ो' का नारा नहीं लगा है।"

सराफिन के सब्र का पैमाना छूट रहा था। चीखते हुए उसने पूछा, "उस पागल को तुमने कहाँ देखा था, यह क्यों नहीं बतला रहा?"
डॉट खाकर अफरीदी बोला, "उसे मैंने लाल चौक में देखा था। वह ट्रैफिक के सिपाही के लिए बनी छायादार छतरी के नीचे बैठा हुआ सुस्ता रहा था।"

दो-तीन बुजुर्गों का सम्मिलित स्वर उठा, "या अल्लाह! तू बड़ा मेहरबान है।" बहुत से अधेड़ उठकर खड़े हो गए, "हमें फिक्र के दलदल में डालकर उधर वह लाल चौक का बादशाह बना बैठा है!"

मक्खनलाल बोला, "आप सब एक मेहरबानी कीजिए। मैं अपने घर का सामान ट्रक में भरकर लाल चौराहे पर लेकर आता हूँ, आप सब मिलकर यह मदद कीजिए कि सराफ को रस्सियों में जकड़कर ट्रक में डाल दीजिए।"

दुल्ली डार बोला, "पल भर के लिए ट्रक यहाँ लेकर आओगे तो हम सब मिलकर उस्ताद सराफ के घर का सारा सामान इसमें भर देंगे।"

मक्खनलाल ने सराफिन से कहा, "बहन, तू पैरों में चप्पल फँसा ले और जो कुछ जरूरी सामान है, उसे ले चल। हमें इसी वक्त जम्मू के लिए कूच करना है।"

सय्यदी साब बोले, "उसे जकड़कर जम्मू तक पहुँचाना ठीक नहीं है। आप लोग जम्मू जाना चाहते हो तो जरूर जाओ, मगर उसे तुम मेरे पास छोड़ जाओ। वह मेरी हिफाजत में रहेगा। कल को इतिहास यह न कहे कि कश्मीरी इतने कमजोर थे कि अपने उस्ताद को हिजरत से न रोक सके। यह मैं नहीं चाहता-वे सिर्फ एक उस्ताद ही नहीं, हमारी जंगे-आजादी के सिपाही भी हैं।"
मक्खनलाल ने कहा, "बाबा, आपकी नीयत पर किसी को शक नहीं है। मगर, इस माहौल में उसका यहाँ रहना खतरे से खाली नहीं है!"
"माहौल चाहे जितना बदल जाए, सराफ पर आँच नहीं आएगी...।"
अब सय्यदी साहब की घरवाली कड़कती आवाज में बोल उठी, "अपने खाविंद के बगैर सराफिन काकी कैसे जिंदा रहेगी? अकेले तो इसकी लाश ही जम्मू पहुँचेगी।" सय्यदी साहब की जबान बंद हो गई।
"उसे पकड़ पाना आसान नहीं होगा।" मक्खन ने कहा, "आप चलकर उसे जकड़िए, मैं भी ट्रक लेकर पहुँच जाता हूँ।"

दुल्ली डार ने सुझाव दिया, "वह बेहद अड़ियल और जिद्दी आदमी है! क्या मालूम शोरशराबा डालकर पुलिस को बुला ले और सारा खेल चौपट कर दे! इसलिए फय्याज कंपाउंडर को भी अपने साथ ले चलो। चार लोगों ने पकड़ रखा होगा तो उसे बेहोशी का टीका लगाकर ट्रक में डाल लेंगे।"

"हाँ, दुल्ली ठीक कहता है। सरेआम चौराहे में उसे बाँधेंगे तो सी.आर.पी. हमसे पूछताछ करेगी।"
"हम यह कहकर उसे टीका लगाएँगे कि वह पागल हो गया है। अस्पताल पहुँचाने के लिए, इसे बेहोश करना जरूरी है।"
पड़ोसियों का जत्था लाल चौक की ओर रवाना हो गया। उनके आगे साइकिल की घंटी बजाता अफरीदी चला जा रहा था।

(रूपांतर : स्वयं)