लघुकथाएँ : त्रिलोक सिंह ठकुरेला

Laghu-Kathayen : Trilok Singh Thakurela

पिताजी

पिताजी एक माह से बीमार थे। उनके व माँ के कई बार फोन आ चुके थे , किन्तु मैं गाँव नहीं जा पाया। सच कहूँ तो मैं छुट्टियाँ बचने के मूड में था। उमा का सुझाव था - ''बुखार ही तो है, कोई गम्भीर बात तो है नहीं। दो माह बाद दीपावली है , तब जाना ही है। अब जाकर क्या करोगे। सब जानते हैं कि हम सौ किलोमीटर दूर रहते हैं। बार बार किराया खर्च करने में कौन सी समझदारी है। ''

एक दिन माँ का फिर फोन आया। माँ गुस्से में थी - '' तेरे पिताजी बीमार हैं और तुझे आने तक की फुर्सत नहीं। वह बहुत नाराज हैं तुझसे। कह रहे थे कि अब तुझसे कभी बात नहीं करेंगे। ''
उसी दिन ड्यूटी जाते समय मुझे ऑटो रिक्शा ने टक्कर मार दी। मेरे बायें पेअर पर प्लास्टर चढ़ाना पड़ा।

उमा ने माँ को फोन कर दिया था। दो घंटे में ही पिताजी हॉस्पीटल में आ पहुँचे। वह बीमारी की वजह से बहित कमजोर किन्तु दृढ थे। मुझे सांत्वना देते हुए बोले - '' किसी तरह की चिंता मत करना। थोड़े दिनों की परेशानी है। तू जल्दी ही ठीक हो जायेगा।
उन्होंने मुझे दस हजार रुपये थमाते हुए कहा - '' रख ले , काम आयेंगे। ''
मैं क्या बोलता। मुझे स्वयं के व्यवहार पर शर्म आ रही थी।
जीवन के झंझावात में पिताजी किसी विशाल चट्टान की तरह मेरे साथ खड़े थे।

हरा दुपट्टा

रेलगाड़ी में उस दिन कुछ ज्यादा ही भीड़ थी, इसलिए सरोज को खड़े होकर यात्रा करनी पड़ रही थी । उसे दो स्टेशन बाद ही उतरना था। उसके पास ही अपने चार बच्चों के साथ बुर्के में एक महिला बैठी थी।

बुर्के बाली महिला की नज़र सरोज गयी तो लगा कि वह उसे पहचानने की कोशिश कर रही है। बुर्के वाली महिला ने सरोज को अपने पास बुलाते हुए सीट पर जगह दी। फिर पूछा कि 'क्या तुम सरोज हो। '

सरोज ने 'हाँ ' में सर हिलाया तो वह सरोज से लिपट गयी। बुर्का हटाते हुए उसने प्रश्नों की झड़ी लगा दी -- '' सरोज ,बहुत सालों बाद मिली हो। कैसी हो ? शादी हो गयी ? अंकल आंटी कैसे हैं ?''
देखते ही सरोज भी खुशी से झूम उठी - '' रूबिया , तुम ?''
'' हाँ , सरोज '' रूबिया ने कहा।
''अरे , तुम अचानक कहाँ गायब हो गयीं थीं ? कालेज छोड़ने के बाद तुम्हारी कोई खोज खबर ही नहीं मिली। ''
'' सरोज , अब्बा दंगों की भेंट चढ़ गये तो हमने शहर ही छोड़ दिया और अपने अंकल के पास सूरत चले गये। अब अम्मी भी नहीं रहीं। ''
'' रूबिया, बहुत दुःख हुआ। बीस साल में मैं तुम्हें कभी नहीं भूली। तुम्हारी याद बराबर आती रही। ''
''तो मैं भी तुम्हें कब भूल पायी , सरोज। तुम्हारा दिया दुपट्टा हमेशा अपने पास रखती हूँ। ''
यह कहकर रूबिया ने अपने छोटे से बैग से हरा दुपट्टा निकाला और हवा में लहरा दिया। यह दुपट्टा वर्षों पूर्व सरोज ने रूबिया को दिया था।
ख़ुशी के अतिरेक में थोड़ी देर के लिए दोनों नि:शब्द हो गयीं। आत्मीयता की गंध हरे दुपट्टे से निकलकर पूरे कम्पार्टमेंट में फ़ैल चुकी थी।

मौन

रघुराज सिंह बहुत खुश थे । उनके लड़के से अपनी लड़की का रिश्ता करने की इच्छा से अजमेर से एक संपन्न एवं सुसंस्कृत परिवार आया था । रघुराज सिंह का लड़का सेना में अधिकारी है । उनके तीन अन्य लड़के उच्च शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं।

लड़की के पिता ने रघुराज सिंह से कहा -- '' हम आपसे एवं आपके परिवार से पूरी तरह संतुष्ट हैं। आप भी हमारी लड़की को देख लें एवं हमारे परिवार के बारे में पूरी जानकारी कर लें । ''
रघुराज सिंह ने कहा - '' जानकारी लेने की कोई जरुरत नहीं है। हम भी आपसे पूरी तरह संतुष्ट है। ''
लड़की के पिता ने पूछा - '' आपकी कोई मांग हो तो हमें बताने की कृपा करें। ''
रघुराज सिंह बोले - '' हमारी कोई मांग नहीं है। बस, चाहते हैं , लड़की ऐसी हो जो परिवार में विघटन न कराये। चाहता हूँ, चारों भाई मिलकर रहें। ''
'' इससे बढ़कर क्या बात हो सकती है। जब बच्चों को अच्छे संसार मिलते हैं तो पूरा परिवार एक सूत्र में बंधा रहता है। '' लड़की के पिता ने विनम्रतापूर्वक कहते हुए पूछा -
'' साहब, आप कितने भाई हैं ? ''
रघुराज सिंह ने कहा - '' सात भाई, एक बहिन ''
लड़की के पिता ने पूछा - '' आपके भाई क्या करते हैं ? ''
रघुराज सिंह - '' सबके निजी धंधे हैं। ''
लड़की के पिता ने पूछा - '' आपने अपने किसी भाई को बुलवाया नहीं ? ''
रघुराज सिंह झिझकते हुए बोले - '' अजी , हम भाइयों में बोलचाल बंद है। ''
अचानक वहां खामोशी छ गयी। प्रश्न और उत्तर दोनों ही मौन थे।

दोहरा चरित्र

शोभना मृदुभाषिणी एवं आकर्षक व्यक्तित्व की महिला है। वह राजनीति की सफल खिलाड़ी है। उसके भाषणों में महिला एवं बाल विकास प्रमुख विषय रहता है। वह महिलाओं की प्रबल पक्षधर के रूप में जानी जाती हैं।

एक दिन वह अपनी पुत्र-वधू के साथ डॉक्टर बत्रा के क्लीनिक पर पहुँची। पुत्रवधू भ्रूण की जांच कराई तो पता चला कि वह एक कन्या है। शोभना ने डॉक्टर बत्रा से गर्भपात कराने की बात की तो उन्हें बहुत आश्चर्य हुआ। उन्होंने पूछ लिया - '' शोभना जी, आप तो महिला हितों की प्रबल पक्षधर हैं, फिर कन्या - भ्रूण को क्यों गिराना चाहती हैं ? ''

शोभना ने बड़ी ढिठाई से कहा- '' छोड़िये , डॉक्टर साहब, भाषणों की बात और है। अपने घर का हिसाब तो देखना पड़ता है। ''
डाक्टर बत्रा शोभना के दोहरे चरित्र को देखकर हतप्रभ थे।

ढोंग

कालू मोची की इकलौती संतान चम्पा सोलह वर्ष की हुई तो उसके शरीर में एक अलग ही आकर्षण पैदा हो गया। ठाकुर रूद्र प्रताप सिंह उस पर आसक्त हो गए। आँखों आँखों में ठाकुर साहब ने प्रेम का इजहार किया। नादान चम्पा झांसे में आ गयी। वे अक्सर खेतों में मिलने लगे।

गर्मियों के दिन थे। ठाकुर रूद्र प्रताप सिंह की पत्नी बच्चों को लेकर पीहर गयी हुई थी।
एक दोपहर चम्पा ठाकुर साहब के घर पर आ गयी।

रूद्र प्रताप सिंह रसोई में थे। चम्पा रसोई में चली आयी। रूद्र प्रताप सिंह को अच्छा नहीं लगा। नाराजगी से बोले - '' चम्पा रसोई में क्यों चली आयी ? क्या यह भी भूल गयी कि तू मोची है ? ''

चम्पा आहात हुई। बोली - '' सुना है, आत्मा की कोई जाति नहीं होती। यदि शरीर मोची है , तो इसे आप कई बार छू चुके हैं। वैसे भी मेरे पिता मोची का धंधा करते हैं , मैं नहीं। यह ढोंग कब तक चलेगा , ठाकुर साहब ?''

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