क्षय (कहानी) : मन्नू भंडारी

Kshay (Hindi Story) : Mannu Bhandari

सावित्री के यहाँ से लौटी, तो कुन्ती यों ही बहुत थका हुआ महसूस कर रही थी। उस पर से टुन्नी के पत्र ने उसके मन को और भी बुरी तरह मथ दिया। पापा को भी दो बार खाँसी का दौरा उठ चुका था। वह जानती थी कि वे बोलेंगे कुछ नहीं, पर उनका मन कर रहा होगा कि टुन्नी को वापस बुला लें। रात में लेटी तो फिर उसी पत्र को खोलकर पढ़ने लगी :

‘‘दीदी, मेरा मन यहाँ ज़रा भी नहीं लगता। सारे समय पापा की और तुम्हारी याद आती रहती है। स्कूल वालों ने भी मुझे आठवीं में ही भरती किया है। उस दिन तुम मेरे हेडमास्टर साहब के पास चली जातीं तो कितना अच्छा होता, पूरा एक साल बच जाता। तुमने मेरा इतना-सा काम भी नहीं किया। दीदी, पूरा एक साल बिगड़वा दिया…’’

क्या सचमुच ही उसने टुन्नी का साल बिगड़वा दिया? नहीं, नहीं, जो कुछ उसने किया, ठीक ही किया। कोई उसके पास इस तरह की सिफारिश लेकर आए तो? उसका वश चले तो वह स्कूल के फाटक से ही निकाल बाहर करे। वह शुरू से ही इतना कहती थी कि टुन्नी, पढ़, मेहनत कर। पर उस समय पापा को टुन्नी बच्चा लगता था। अब फेल हो गया तो जान-पहचान का फायदा उठाओ, सिफारिश करो। उसने जो कुछ किया, ठीक किया। स्कूलों में यह सब देखकर उसका मन आक्रोश, दुःख और ग्लानि से भर जाता है। पर होता है और वह देखती भी है…लेकिन उससे क्या हुआ, वह स्वयं ऐसा कभी नहीं करेगी। जिस दिन पापा ने उससे यह बात कही थी, वह अवाक्-सी उनका मुँह देखती रह गई थी, जैसे विश्वास न हो रहा हो कि पापा भी कभी ऐसी बात कह सकते हैं और वह भी कुन्ती से…कुन्ती आज जो कुछ भी है, विचारों से, विश्वासों से पापा की ही तो बनाई हुई है…लेकिन पापा बदल गए हैं, बहुत बदल गए हैं। शायद यह बीमारी ही ऐसी होती है कि आदमी को बदलना पड़ता है। कुन्ती स्वयं महसूस करती है कि उसके जिस आदर्शवाद और दृढ़ आत्मविश्वास पर पापा कभी गर्व किया करते थे, उसी पर आज वे शायद दुःख करते हैं। उन्हें लगता है जैसे कुन्ती को बनाने में वे कहीं भूल कर बैठे हैं। वह अपना मन टटोलने लगी, क्या सचमुच ही कुछ गलत विश्वास और गलत सिद्धांत वह पाल बैठी है?

सामने वायलिन पड़ा था। वह उठी और वायलिन लेकर छत पर चली गई। जब उसका मन बहुत खिन्न होता है, उसे वायलिन बजाना बहुत अच्छा लगता है। रात के सन्नाटे में मन का अवसाद जैसे संगीत की स्वर-लहरियों पर उतर-उतरकर चारों ओर बिखरने लगता है। वह आँख मूँदकर बेसुध-सी वायलिन बजाने लगी उसकी त्रस्त आत्मा, खिन्न मन और शिथिल शरीर धीरे-धीरे सब थिरकने लगे। वह किसी और ही लोक में पहुँच गई।

खों, खों, खों…पापा की लगातार खाँसी से उसकी तन्मयता टूटी। एकाएक ही अंगुलियाँ शिथिल हो गईं, और वायलिन ठोड़ी के नीचे से सरककर छाती पर आ टिका, वह नीचे आई। पापा को आज तीसरी बार दौरा उठा था। उन्हें दवाई दी और पास बैठकर तब तक पीठ सहलाती रही, जब तक वे शान्त होकर लेट नहीं गए।

जब वह अपने कमरे में आकर लेटी तो रात करीब आधी बीत चुकी थी। आज सावित्री के यहाँ उसका पहला दिन था। उसे ख्याल आया, कल जब वह स्कूल जाएगी तो मिसेज़ नाथ उसे देखकर वैसे ही व्यंग्यात्मक ढंग से मुस्कराएँगी। उसकी इस मुस्कराहट ने हमेशा ही उसके मन में घृणा पैदा की है। उसे लगा, जैसे कल वह इस मुस्कराहट का सामना नहीं कर सकेगी। उसका उपहास करती, उस पर आरोप लगाती-सी मिसेज़ नाथ की मुस्कराहट अँधेरे में एक बार उसके सामने कौंध गई। कुन्ती ने करवट बदली तो मकान-मालिक के बच्चों के मास्टर का दयनीय, सूखा-सा चेहरा उसके सामने उभर आया। एक यह व्यक्ति है, जिसने उसके मन में हमेशा अपने काम के प्रति अरुचि उत्पन्न की है। ओह! क्या-क्या कल्पनाएँ थीं उसके मन में अध्यापन को लेकर!…लेकिन मिसेज़ नाथ…यह मास्टर…कुन्ती ने फिर करवट बदल ली।

एक महीने में ही घर का जैसे सब कुछ बदल गया। उसे वह दिन याद आया, जब वह डॉक्टर के यहाँ से पापा की एक्स-रे प्लेट के साथ रिपोर्ट लेकर आई थी कि उन्हें क्षय है। रास्ते-भर वह यही सोचती आई थी कि पापा को रिपोर्ट कैसे देगी? उन पर उसकी क्या प्रतिक्रिया होगी? दवाइयों का लम्बा नुस्खा और हिदायतों की लम्बी सूची समस्या के दूसरे पहलू को भी उभार-उभारकर रख रही थी। कैसे वह सब करेगी? करना तो सब उसी को है। पिछले चार सालों से इस घर के लिए वही तो सब-कुछ करती आई है। वही तो पापा की पहली संतान है और पापा हमेशा ही कहते थे, वह उनकी लड़की नहीं, लड़का है। शुरू से उसे लड़के की तरह ही पाला…बचपन में वह लड़कों के साथ खेली, लड़कों के साथ पढ़ी और अब लड़कों की तरह ही घर को सँभाल रही है। पर अब?

घर पहुँची तो पापा पलंग पर लेटे हुए थे। उसने चुपचाप वह लिफाफा उनके हाथ में थमा दिया और नौकर को चाय लाने का आदेश देकर अन्दर चली गई। वह प्रतीक्षा कर रही थी कि पापा उसे बुलाएँगे, कुछ कहेंगे, पर उन्होंने नहीं बुलाया। क्या पापा को रिपोर्ट देखकर सदमा लगा? क्या वह पहले नहीं जानते थे कि उन्हें क्षय है? फिर?

चाय पीने वह बाहर जाकर बैठी। शायद अब कोई बात चले। पर फिर मौन। पापा पैर फैलाकर तकिए के सहारे बैठे शून्य नज़रों से आसमान निहार रहे थे। कुन्ती ने प्याला पकड़ाया तो चाय पीने लगे। खामोशी के वे क्षण कुन्ती को बहुत बोझिल लगे थे। सामने इतनी बड़ी समस्या है और दोनों यों ही मौन बैठे हैं। स्थिति की गम्भीरता को दोनों ही महसूस कर रहे थे, पर लग रहा था जैसे उसका नाम लेने-भर से वह और विकट हो जाएगी। पापा शायद सोच रहे थे कि दोनों बच्चे कितने असहाय महसूस करने लगेंगे! और कुन्ती सोच रही थी कि बात करने से ही पापा के मन में जीवन के प्रति कैसी घातक निराशा छा जाएगी। दोनों बच्चों के अनिश्चित भविष्य की चिन्ता उन्हें कितना व्यथित बना देगी? पर मौन रहने से ही तो यह सब नहीं सुलझ जाएगा। तब?

तब केवल बात करने-भर के लिए ही कुन्ती ने टुन्नी को इलाहाबाद भेजने की बात कह दी थी। वह जानती थी कि पापा इसका विरोध करेंगे। अपने बच्चों को वे एक दिन के लिए भी अपनी आँखों से दूर नहीं कर सकते। फिर टुन्नी छोटा था, अधिक लाड़ला। पर वे कुछ नहीं बोले थे। धीरे से इतना कहा था, ‘भेज देना।’ कुन्ती को लगा, जैसे पापा विवश होकर कह रहे हों–मैं कौन होता हूँ कुछ कहने वाला? अब तो तुम्हीं सब कुछ हो, जो चाहो सो करो। मैं क्षय का रोगी…

कुन्ती की आँखें छलछला आई थीं।

थोड़ी देर बाद पापा ने रुकते-रुकते कहा था, ‘‘एक बार कोशिश करके इसे चढ़वा तो दे; तेरी हेडमास्टर साहब से अच्छी जान-पहचान है…वहाँ भी जाए तो एक साल तो बच जाए।’’

ज़हर की तरह कुन्ती ने चाय का घूँट निगला था और अपने को भरसक संयत करके बोली थी, ‘‘पापा, कम-से-कम स्कूलों को तो इन सारी बातों से भ्रष्ट न करवाओ। टुन्नी मेरा अपना विद्यार्थी होता तब भी मैं उसे कभी नहीं चढ़ाती।’’ उसके स्वर में आवेश नहीं था, पर दृढ़ता थी और पापा चुप हो गए थे।

पर आज टुन्नी का पत्र न जाने क्यों रह-रहकर मन में टीस उठा रहा है। कुन्ती को लगा, जैसे प्यास से उसका गला सूख रहा है। उसने उठकर पानी पिया। आकर लेटी तो नज़र फिर वायलिन पर पहुँच गई। एक बार फिर इच्छा हुई कि वायलिन लेकर छत पर चली जाए। पर उसने अपनी आँखें बन्द कर लीं।

सावित्री की ट्यूशन वह निभा सकेगी? अब तो जैसे भी हो, निभाना ही होगा। वह स्कूल में छः घण्टे काम करती है, तब जाकर उसे दो सौ रुपए मिलते हैं और कहीं डेढ़ घण्टे के ही दो सौ! फिर एक महीने खुशामद की उसकी माँ ने। चार चक्कर तो घर के ही लगाए, पर फिर भी…और उसकी आँखों के सामने मकान-मालिक के मास्टरजी फिर घूम गए…वे मास्टरजी हैं, पर कभी रिक्शा में सामान लदवाकर लाते हैं, तो कभी सेठानी का हिसाब लिखते हैं। हूँ! वह तो जिस दिन भी देखेगी कि उसके सारे परिश्रम के बावजूद सावित्री नहीं सुधर रही, कुछ भी नहीं सीख रही, उसी दिन छोड़ देगी, चाहे कितनी ही मुसीबत क्यों न सहनी पड़े। सावित्री को पढ़ाना कोई सरल काम नहीं है। जो आठवीं के भी लायक नहीं है उसे नवीं में पास करवाना…

एक महीने में ही बैंक से पापा के हज़ार से अधिक रुपए निकल चुके थे। वह नहीं चाहती है कि अब और निकलें। पूँजी के नाम पर उनके पास कुल पाँच हज़ार ही तो थे जिनके प्रति उनका मोह उम्र के साथ-ही-साथ बढ़ता जा रहा था। लगता था, जैसे यह रुपया ही उनका एकमात्र सहारा है। उसे वे कभी कुन्ती के ब्याह के लिए बताकर एक उत्तरदायी बाप होने का सन्तोष प्राप्त करते थे, तो कभी टुन्नी की पढ़ाई के लिए बताकर उसके उज्ज्वल भविष्य की कल्पना का सुख लेते थे। उसमें से भी अब खर्च होने लगा। कुन्ती भी क्या करती? यों तो पापा की पेंशन, अपनी तनख्वाह और गाँव के मकान के किराए से वह अच्छी तरह काम चलाती आ रही थी, पर बीमारी का यह अतिरिक्त खर्च…और बीमारी भी अनिश्चित अवधि तक की…

दूर कहीं मुर्गा बोला। यह क्या सवेरा होने आया? तो वह आज बिल्कुल नहीं सोने पाई। कल सवेरे से ही फिर जुट जाना है…बाज़ार, स्कूल, सावित्री, पापा की परिचर्या…उसका सिर भारी होने लगा।

अपना क्लास लेकर कुन्ती स्टाफ-रूम में पहुँची और चुपचाप कुर्सी पर बैठकर बाहर देखने लगी। बहुत-सी कापियाँ देखने को जमा हो गई थीं, पर मन ही नहीं कर रहा था कुछ करने को। सिर बेहद भारी हो रहा था और नींद आँखों में घुल रही थी। तभी मिसेज़ नाथ अपने भारी-भरकम कंधों पर कापियों के दो गट्ठर लादे घुसीं। उसने देखकर भी नहीं देखा। नाथ भी कुछ नहीं बोलीं, चुपचाप कापियाँ देखने बैठ गईं। कुन्ती ने सोचा, क्या इन्हें मालूम नहीं हुआ है कि मैंने सावित्री के यहाँ ट्यूशन कर ली है? हो सकता है, आज न हुआ हो, पर कल तो होगा ही, तब…

फड़फड़ाती हुई एक कापी फर्श पर गिरी तो कुन्ती ने चौंककर पीछे देखा। नाथ ने गुस्से में आकर किसी लड़की की कापी ही उछाल दी थी और हड़बड़ा रही थी, ‘‘दिमाग में गोबर भरा है और पढ़ने का शौक चर्राया है। अपने घर बैठो, खाओ-पियो और मौज करो। न जाने कहाँ-कहाँ से दिमाग चाटने आ जाती हैं!…’’

कुन्ती फिर बाहर देखने लगी। यों वह इस एक साल में इन सब बातों की काफी अभ्यस्त हो चुकी थी, फिर भी लड़कियों पर यों झुँझलाना, ऐसे अपशब्द कहना उसे कभी अच्छा नहीं लगता। फिर पढ़ी-लिखी, सभ्य-सुसंस्कृत महिलाओं के मुँह से निकले हुए ऐसे शब्द, जो इतनी छात्राओं की अध्यापिकाएँ है, उनकी आदर्श हैं।

उसे याद आया, जब पहली बार उसने इन्हीं नाथ को डाँटते हुए सुना था, तो आश्चर्य और गुस्से के साथ-साथ उसे बेहद हँसी भी आई थी। वे गुस्से से काँपती हुई ज़ोर-ज़ोर से स्केल को मेज़ पर पटककर सामने खड़ी थर-थर काँपती किसी लड़की को कह रही थीं, ‘कल यदि पाठ याद करके नहीं आई तो इस चलते हुए पंखे में लटका दूँगी।’ और कुन्ती को पंखे से लटकी हुई लड़की की कल्पना ने बेहद हँसाया था।

एक वह थी जो अपनी कमज़ोर छात्राओं को सवेरे जल्दी आकर पढ़ाया करती या देर तक ठहरकर पढ़ाती; स्नेह और सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार से उनके खोए आत्मविश्वास को जगाती। पढ़ाई के अतिरिक्त विभिन्न रुचियों के विकास के लिए नई योजनाएँ बनाया करती थी। इस सबका परिणाम यह हुआ कि थोड़े ही दिनों में वह अपनी सहकर्मिणियों के बीच व्यंग्य और उपहास की पात्री और छात्राओं की ‘परम प्रिय बहनजी’ बन गई थी। पर साल-भर बीतते-बीतते उसका भी उत्साह बहुत कम हो गया था। कापियाँ देखते समय उसने कई बार अपने परिश्रम की व्यर्थता महसूस की थी। पर फिर भी ऐसे अपशब्द…इस तरह झल्लाना…

‘‘सुना है, सावित्री की माँ ने उसे किसी दूसरे स्कूल में नवीं कक्षा में भरती करवा दिया है और शायद तुमने उसे घर पर पढ़ाना मंज़ूर कर लिया है?’’

बात कुन्ती से ही कही गई थी, पर कुन्ती ने न मुड़कर उधर देखा, न जवाब ही दिया।

‘‘पैसे के ज़ोर से नवीं कक्षा क्या, मैट्रिक का सर्टिफिकेट भी मिल सकता है। और भई, हमने तो पहले ही कहा था कि ऐसी अच्छी ट्यूशन भाग्य से ही मिलती है। तब सामनेवाला खुशामद कर रहा है तो हमें क्या, सीखे न सीखे, हमारी बला से! हम तो जितना समय तय हुआ है, पढ़ाकर आ जाते हैं। अच्छा कुन्ती कितना लोगी?’’

नाथ के शब्द कुन्ती को बुरी तरह बेध रहे थे। बिना मुड़े ही उसने जवाब दिया, ‘‘मैंने लेन-देन की कोई बात नहीं की। एक महीने में यदि वह कुछ सीखेगी तो पढ़ाऊँगी, नहीं तो छोड़ दूँगी।’’ और उसे लगा कि नाथ के चेहरे पर फिर वही व्यंग्यात्मक मुस्कराहट फैल गई है, मानो कह रही हो, अभी नई-नई हो, इसलिए यह सब कह रही हो, धीरे-धीरे अपने-आप रास्ते पर आ जाओगी।

‘‘क्या सचमुच कुन्ती भी एक दिन नाथ जैसी हो जाएगी?…घर जाकर कुन्ती ने चाय पी और सावित्री के यहाँ चलने की तैयारी करने लगी। चाय वह हमेशा पापा के साथ बैठकर ही पीती थी और उनकी तबीयत का हाल भी जान लेती थी। यों नौकर अच्छा है, फिर भी उसने रमा बुआ को लिख दिया है कि वे गाँव से आ जाएँ। उसका तो बहुत-सा समय बाहर निकल जाता है। घर का कोई आदमी पापा के पास होना ही चाहिए। वह उठने लगी तो पापा ने कहा, ‘‘अभी तो स्कूल से आई है, थोड़ी देर आराम कर ले।’’

वह बैठ गई। वह जानती है कि देर कर देने से ट्राम-बस में ऑफिस की भीड़ हो जाती है, घुसना असभ्भव हो जाता है, फिर भी पापा की बात टालना नहीं चाहती। उसके इस दोहरे परिश्रम से पापा यों ही काफी दुःखी हैं। इस सबके लिए वे अपने को ही उत्तरदायी समझते हैं। कुन्ती उनके दुःख को किसी प्रकार भी नहीं बढ़ाना चाहती। इस बीमारी ने कितना विवश, कितना निरीह बना दिया है पापा को!

एक महीना पढ़ाकर ही कुन्ती को लगा कि सावित्री को वह अब नहीं पढ़ा सकेगी। डेढ़ घंटा पढ़ाने के लिए, पूरा डेढ़ घंटा और उसे बस में बिगाड़ना पड़ता है। और इस प्रकार स्कूल के बाद पूरे तीन घंटे सावित्री के नाम अर्पण हो जाते हैं। उसके बाद वह इतनी थक जाती है कि किसी पत्रिका की दो पंक्तियाँ भी उससे नहीं पढ़ी जातीं। कल जब वह लेटी थी तो उसने देखा था कि वायलिन पर धूल की हल्की-सी परत जम गई है। उसका मन टीस उठा था। उसने धूल पोंछी, पर चाहकर भी बजाने के लिए वह ऊपर नहीं जा सकी थी। बस, एकटक उसे देखती रही थी, और उसे लग रहा था कि यदि ज़िन्दगी का यही रवैया रहा तो वह शायद फिर कभी वायलिन नहीं बजा सकेगी। इस कल्पना से उसकी आँखें छलछला आई थीं। नहीं-नहीं, जो भी होगा वह सहन कर लेगी, पर कल ही सावित्री की माँ से कह देगी कि वह अब पढ़ा नहीं सकेगी। और सचमुच वह दूसरे दिन कुन्ती ने जाकर सावित्री की माँ से कहा, ‘‘देखिए, मैंने अपनी ओर से भरसक प्रयत्न किया, पर लगता है, सावित्री को पढ़ाना मेरे लिए सम्भव नहीं होगा।’’ सारे रास्ते वह संकल्प-विकल्प करती रही थी। एक महीने के लिए हुए दो सौ होगा।’’ सारे रास्ते वह संकल्प-विकल्प करती रही थी। एक महीने के मिले हुए दो सौ रुपयों से घर की आर्थिक स्थिति कितनी सँभल जाएगी, यह भी उसके सामने था, पर फिर भी उसने कह ही दिया।

‘‘यह क्या बहनजी! आपके भरोसे तो हमने नया स्कूल शुरू करवाया। आपके पास पढ़कर इसका मन कुछ-कुछ लगने लगा था…ऐसा तो मत करिए। एक बार बस किसी तरह दसवीं में पहुँचा दीजिए।’’

‘‘मैं बेहद थक जाती हूँ। दूर भी तो बहुत आना पड़ता है, फिर पापा बीमार हैं, उनकी देखभाल, दवा-दारू करने के लिए भी तो मैं ही हूँ।’’ पर कु्न्ती को स्वयं लगा कि बात के अन्त तक आते-आते उसके स्वर की दृढ़ता जाती रही है।

‘‘दूर तो है’’, कलाई में हीरे की चूड़ी नचाती हुई सावित्री की माँ बोली,‘‘पर एक साल तो अब आप निभा ही दीजिए।’’ फिर कुछ रुकते-रुकते बोलीं, ‘‘न हो, मैं गाड़ी का प्रबन्ध कर दूँगी; और क्या कर सकती हूँ?’’

कुन्ती अवाक्-सी माँ का चेहरा देख रही थी…दो सौ रुपए और गाड़ी!

‘‘बात यह है बहनजी, कि सावित्री की बात एक बहुत बड़े घर में चल रही है। उन लोगों की एक ही ज़िद है कि लड़की दसवीं हो जाएगी तो शादी करेंगे। आप किसी न किसी तरह दसवीं में पहुँचवा दीजिए, फिर वो सँभाल लेंगे। अब आजकल के लड़कों को भी क्या कहें, और यह सावित्री भी है कि आपके सिवा किसी से पढ़ने को राज़ी ही नहीं होती। आप आइए, गाड़ी का प्रबन्ध मैं कर दूँगी।’’

उस दिन कुन्ती गाड़ी में बैठकर घर लौटी। जैसे ही गाड़ी कोठी के फाटक में घुसी, उसने देखा, मकान-मालिक के यहाँ वाले मास्टर साहब रिक्शा में सामान लदवाए चले आ रहे हैं। अपने को गाड़ी में पाकर उसका मन गर्व और आत्मसन्तोष से भर गया। उसने ट्यूशन भी की तो आत्मसम्मान के साथ की। बड़ी कोठी को पार करके वह अपने घर के सामने उतरी। पापा ने सुना तो वे भी प्रसन्न हुए।

दूसरे दिन संध्या को जब वह गाड़ी में बैठकर सावित्री के यहाँ जा रही थी तो उसने पहली बार देखा कि वह रास्ता कितना सुन्दर है। ठसाठस भरी हुई बस में धक्के खाते समय शायद अपने को सँभालने की चिन्ता ही अधिक रहती थी, और काम से लौटे हुए, सट-सटकर खड़े प्राणियों के पसीने की दुर्गन्ध से सिर भन्नाता रहता था। उस सबको पार करके रास्ते का सौन्दर्य देख पाना क्या कोई सरल काम था? थोड़े दिनों में तो उसे लगने लगा, काश, वह स्कूल भी गाड़ी में ही जा पाती!

टुन्नी का मन अब लग गया था। मामा ने खबर दी थी कि वह पढ़ाई में भी अच्छा चल रहा है। पापा की तबीयत कभी ठीक, कभी खराब ऐसे ही चलती। बोलना उन्होंने एक प्रकार से बन्द ही कर दिया था। उनकी देखभाल के लिए रमा बुआ आ गई थीं। कुन्ती के लिए वही स्कूल, घर, सावित्री…सारा घर जैसे ढर्रे पर चल रहा था। मन जब बहुत उबलता तो रात में ऊपर जाकर घंटों वायलिन बजाती, यही तो उसके नीरस जीवन का एक आधार था।

उस दिन कुन्ती सावित्री को पढ़ाकर घर के लिए काम दे रही थी कि सावित्री की माँ ने एक बच्चे के साथ प्रवेश किया, ‘‘बहनजी, यह सावित्री का भानजा है। अब से मेरे पास ही रहेगा। इसे कल ही स्कूल में डाला है। सावित्री के बाद थोड़ी देर तक इसे भी देख लिया करिए।’’ कुन्ती को बोलने का अवसर दिए बिना ही वह बोले चली जा रही थी, ‘‘बड़ा प्यारा बच्चा है। मीठी-मीठी बातें करके आपका मन मोह लेगा। नमस्ते करो मुन्नू! और उस बच्चे ने छोटे-छोटे हाथ जोड़ दिए।

कुन्ती न हाँ कह सकी, न ना। अब सावित्री के बाद आधे घंटे के करीब वह बच्चे को भी पढ़ाने लगी। सन्तोष और तसल्ली यही थी कि उसके बाद उसे गाड़ी घर तक छोड़ने आती थी और गाड़ी में बैठकर जब ठंडी हवा का झोंका उसके बदन को सहलाता था, तो उसे बहुत अच्छा लगता था।

धीरे-धीरे यह सिलसिला बढ़ता गया। सावित्री के छोटे भाई-बहन में से कोई न कोई अब आता ही रहता। कभी किसी को घर का काम पूछना रहता था, तो किसी को टेस्ट की तैयारी करनी रहती थी। माँ बस इसी बात का ध्यान रखती थी कि सावित्री जब तक पढ़े, कोई बच्चा कमरे में न जा पाए। कभी-कभी तो स्वयं उसके पास आकर बैठती, सावित्री की पढ़ाई की बात पूछती, पापा की तबीयत के बारे में पूछती, घर की और बातें पूछती और फिर कुन्ती के धैर्य की, उसके साहस की तारीफ करती हुई चली जाती। शुरू-शुरू में कुन्ती को यह सब बहुत अटपटा लगता था, फिर धीरे-धीरे वह इस सबकी अभ्यस्त हो गई।

रात को जब वह लेटी तो टुन्नी की बड़ी याद आ रही थी। आज स्टाफ-रूम में देखे हुए एक सिनेमा पर बड़ी बातें होती रही थी। टुन्नी के जाने के बाद कितना नीरस हो गया है उसका जीवन। बिस्तर पर लेटे हुए पापा और काम में व्यस्त बुआजी। उसके बराबर की और लड़कियाँ कितनी मौज करती हैं। घूमना-फिरना, सैर-सपाटे, हँसी-मज़ाक उसके जीवन में तो यह सब दूर-दूर तक भी नहीं है…क्या कहीं भी नहीं होगा? क्या उसका सारा जीवन यों ही निकल जाएगा? जितना रुपया वह कमाती है, उसमें कितने ठाठ से वह रह सकती है। पर वह जानती ही नहीं कि ठाठ क्या होता है, मौज क्या होती है? पापा क्या अब कभी अच्छे नहीं होंगे? कितने दिन वह इस तरह पड़े रहेंगे? टुन्नी होता तो वह कल ही उसके साथ सिनेमा जाती। कब टुन्नी बड़ा होगा और उसके कन्धों का भार हल्का करेगा? सच, अब तो वह ऊब गई है।

सामने वायलिन लटका था। अब वह बजा नहीं पाती, उसे देखती रहती है। उसे एकटक देखते रहना भी सान्त्वना देता है। कितना कम हो गया है उसका वायलिन बजाना! जब-तब समय मिलता है तो उसकी धूल पोंछ देती है। कभी-कभी तो उसका मन करता है कि स्कूल, घर सब छोड़कर अपना वायलिन लेकर कहीं चली जाए और इतना बजाए, इतना बजाए कि उसका अस्तित्व ही मिट जाए। वह कुन्ती न रहे, बस संगीत की एक स्वर-लहरी बन जाए, उसमें मिल जाए!

दिसम्बर की छुट्टियों में टुन्नी आया। उसके आने से ही जैसे घर चहक उठा। पापा प्रसन्न, कुन्ती प्रसन्न। घर की एकरसता टूट गई। आते ही उसने फरमाइश की कि क्रिकेट का टेस्ट-मैच देखेंगे। अभी भी क्रिकेट के लिए उसका पागलपना जैसे का तैसा बना हुआ था। पिछले साल सारे दिन क्रिकेट खेल-खेलकर ही तो फेल हुआ था। पर इस बार कुन्ती ने टिकट का प्रबन्ध करने के लिए ज़मीन-आसमान एक कर डाला। उसकी बड़ी इच्छा थी कि जैसे भी हो, टुन्नी को वह मैच देखने के लिए भेज दे। इसी बहाने वह अपने परिचितों के घर भी हो आई, वरना आजकल तो मिलना-जुलना भी छूट गया था।

पर किसी तरह भी टिकट का प्रबन्ध नहीं हो सका। वह समझ नही पा रही थी कि लोगों पर ऐसा पागलपन कैसे सवार हो जाता है इस खेल को लेकर? किसी चीज़ का नशा भी होता है, यह सब वह जैसे धीरे-धीरे भूलती जा रही थी। उसने टुन्नी को समझा दिया कि कमेंट्री सुनकर ही सन्तोष कर लेना।

सावित्री के यहाँ पढ़ाने गई तो सावित्री ने डरते-डरते कहा, ‘‘बहनजी कल मत आइए, हम मैच देखने जाएँगे।’’

‘‘अच्छा, तुम लोगों को टिकट मिल गए? मेरा छोटा भाई भी आया हुआ है इलाहाबाद से, पागल हो रहा है, पर किसी तरह टिकट का इंतज़ाम नहीं हो सका।’’

‘‘माँ से पूछूँ, शायद एकाध ज़्यादा हो।’’ और सावित्री दौड़ गई।

कुन्ती सोच रही थी, उसे इन लोगों का ख्याल क्यों नहीं आया अभी तक?

माँ आई टेलीफ़ोन किया और कहा, ‘‘आप उसे तैयार रखिए नौ बजे। बच्चे गाड़ी में उधर से ही उसे लेते जाएँगे।’’

कुन्ती प्रसन्न हो गई। टुन्नी सुनेगा तो कितना प्रसन्न होगा! वह ज़बरदस्ती इन लोगों से खिंची-खिंची रहती है। कितना अपनापन रखती है बेचारी! पापा के बारे में भी हमेशा पूछती रहती है, कहती रहती है, किसी भी तरह की ज़रूरत हो तो कहिएगा। वह व्यवहार में क्यों ज़रूरत से ज़्यादा रूखी है?

टुन्नी इलाहाबाद लौट गया। उसी सप्ताह दो बार पापा की तबीयत बहुत खराब हुई। कई दवाइयाँ बदलीं, विशेषज्ञ को भी बुलाना पड़ा और न चाहकर भी कुन्ती को फिर बैंक से पाँच सौ रुपए निकालने पड़े। आखिर वह क्या करे? अब बचे ही कितने हैं, वे भी समाप्त हो जाएँगे, तब? कुन्ती नहीं जानती कि तब वह क्या करेगी!

सावित्री के छमाही इम्तिहान का फल निकलने वाला है। वह पहले से कुछ सुधरी है, पर नवीं में वह पास नहीं हो सकती, यह कुन्ती जानती है। उसने तो पहले भी कहा था पर माँ को एक ही ज़िद है कि जैसे भी हो, उसे दसवीं में भेजना है। तो वह क्या करे? वह पूरा परिश्रम करती है, जी-जान लगाकर पढ़ाती है। परीक्षाफल अच्छा नहीं निकला तो माँ क्या कहेगी?

वह पहुँची तो पहले माँ से ही मुलाकात हुई, ‘‘लीजिए आपकी ही बात कर रही थी। इस बार मेरा एक काम आपको करना होगा।’’

कुन्ती की जिज्ञासु आँखें माँ के चेहरे पर टिक गईं। मेज़ की दराज़ में से एक थैला निकालकर वह बोली, ‘‘उस दिन आपका भाई जैसा स्वेटर पहने था, वैसा एक मेरे लिए भी बना दीजिए। मैं तो यह काम जानती नहीं। उसका स्वेटर मुझे बहुत ही पसन्द आया।’’ बाहर से किसी के बुलाने पर माँ थैला मेज़ पर छोड़कर चली गई, और फिर लौटकर आई ही नहीं।

कुन्ती लौटी तो उसके हाथ में ऊन का थैला था। घर आते ही बुआ ने बताया, ‘‘डॉक्टर साहब आए थे, एक नुस्खा दे गए हैं।’’ उसने बिना देखे ही नुस्खा पर्स में पटक दिया। पापा के पास पहुँची तो वे आँखें बन्द किये सो रहे थे। एक क्षण वह उनके मुरझाए ज़र्द चेहरे को देखती रही, फिर भारी मन से लौट आई। उस रात उसने खाना भी नहीं खाया। चुपचाप पड़ी-पड़ी वायलिन को ही देखती रही। फिर आँखें मूँदीं, तो कोरों से आँसू ढुलक पड़े।

आखिर जिस बात का डर था, वही हुआ। सावित्री छमाही इम्तिहान में फेल हो गई। कुन्ती पहुँची तो देखा सावित्री रो रही थी माँ का पारा चढ़ा हुआ था। कुन्ती को देखते ही बोली, ‘‘यह देखिए, यह निकला रिज़ल्ट! आप तो कहती थीं कि अब सुधर रही है, निकल जाएगी, सभी में तो फेल है। नहीं बहनजी, अब तो यह पढाई छुड़ानी ही पड़ेगी…पढ़ना-लिखना इसके बस का नहीं। फिर वह सगाई की बात भी खत्म हुई, अब कौन पानी की तरह रुपया बहाए!’’

‘‘देखूँ,’’ कुन्ती ने रिपोर्ट हाथ में लेते हुए कहा, ‘‘पेपर्स इतने खराब नहीं किए थे कि सभी में फेल हो जाती।’’ पर उसे रिपोर्ट में लाल धब्बे के सिवा कुछ भी नहीं दिखाई दे रहा था। सावित्री की रिपोर्ट के लाल धब्बे, पापा के कफ में खून के लाल धब्बे…सब जगह बस लाल…लाल…

‘‘मैं तो अभी भी कहती हूँ कि आप एक बार इसके स्कूल जाइए, इसकी टीचरों से मिलिए। स्कूल जाने से बात ही दूसरी हो जाती है। कुछ उम्मीद हो तो पढ़ाई जारी रखें, नहीं तो किस्सा खत्म करें।’’

और कुन्ती सोच रही थी, उसके घर आकर उसकी खुशामद करने वाली माँ और यह माँ क्या एक ही हैं?

‘‘मैं स्कूल जाकर पता लगाऊँगी, बात करूँगी। वार्षिक परीक्षा में तो इसे पास करवाना ही है।’’

‘‘अब आप ज़िम्मा ले तभी पढ़ाऊँगी। जैसे भी हो, पास करवा दीजिए।’’

कुन्ती जानती है कि ऐसा ज़िम्मा कोई नहीं ले सकता, और ले तो निभा नहीं सकता। फिर भी उसने कहा कि वह पूरी कोशिश करेगी।

और सचमुच कुन्ती सावित्री के स्कूल गई। सौभाग्य से वहाँ की अध्यापिकाओं में एक पुरानी परिचिता मिल गईं। पर वहाँ वह पूछताछ के अतिरिक्त कर ही क्या सकती थीं।

वह सावित्री को और ज्यादा मेहनत से और अधिक समय देकर पढ़ाने लगी…अभी सावित्री का पढ़ना बन्द हो जाए तो? इस ‘तो’ के बारे में तो वह सोच ही नहीं सकती।

गरमियाँ आईं तो कुन्ती के नीरस, बोझिल, उदास दिन और भी लम्बे हो गए। अब उसे न पापा की बीमारी की चिन्ता थी, न स्कूल के काम में कोई दिलचस्पी थी, और न सावित्री को पढ़ाने में, फिर भी वह मशीन की तरह सब करती थी। अब सावित्री की माँ की कोई भी बात उसे बुरी नहीं लगती। लौटते समय कभी कोई बच्चा साथ हो जाता, और माँ आजकल के ज़िद्दी बच्चों को कोसती हुई कह देती, ‘‘बहनजी, ज़रा दो मिनट को उतरकर इसे जूता दिलवा दीजिएगा। ये ड्राइवर लोग तो ठगा लाते हैं…बच्चे भी क्या हैं, बात मुँह से पीछे निकलती है, चीज़ पहले चाहिए!’’

कुन्ती दिलवा देती।

अब टुन्नी आ जाएगा। वह बेसब्री से टुन्नी की प्रतीक्षा कर रही थी। उसके आने से स्थिति में किसी तरह का भी अन्तर पड़ने वाला नहीं था, फिर भी वह उसकी प्रतीक्षा कर रही थी। कितनी ही बार उसने पड़े-पड़े सोचा कि टुन्नी के आते ही वह कहेगी, ‘‘टुन्नी, ले, अब तू सँभाल। मैं नहीं जानती, तू छोटा है या बड़ा…जो तेरी समझ में आए कर। मैं कहीं जाती हूँ। पापा का ठेका मैंने अकेले तो नहीं लिया। अब तक मुझमें दम रहा, मैंने सँभाला…अब एक दिन भी मुझसे नहीं सँभलता…और जब-जब उसने ऐसा सोचा, वह घण्टों रोयी। पापा से वह क्यों ऊब गई थी?…क्यों जाने-अनजाने मनाने लगी थी कि या तो पापा अच्छे हो जाएँ या फिर…

सावित्री को पास कराने के लिए उसने रात में देर-देर तक जागकर प्रश्नों के उत्तर लिखे और कटवाए। इम्तिहान के दिनों में वह सवेरे-शाम, दोनों समय पढ़ाने गई। इतना सब करने पर भी पता नहीं यह पास होगी या नहीं।

अचानक एक दिन पापा को ज़ोर की कै हुई और सारा फर्श खून से भर गया। कुन्ती सकते में आ गई, बुआजी ने रो-रोकर घर भर दिया। डॉक्टर, दवाई, इंजेक्शन, भाग-दौड़…पागलों की तरह कुन्ती ने सब किया…वह खुद नहीं जानती, उसमें इतनी शक्ति कहाँ से आ गई।

विशेषज्ञ के कहने पर पापा अस्पताल में भरती करवा दिए गए। कुन्ती अस्पताल से लौटी तो बुआ ने सारा घर धो रखा था। घर में पैर रखते ही उसे एक विचित्र-सी अनुभूति हुई। लगा जैसे वह उन्हें कुछ दिनों के लिए अस्पताल में नहीं छोड़कर आई है, वरन् हमेशा-हमेशा के लिए कहीं छोड़कर आई है–जहाँ से वे अब कभी नहीं लौटेगे…वह सिहर गई।

टुन्नी को तार देकर बुला ले? नहीं…दो दिन बाद उसकी परीक्षा समाप्त होगी, तभी बुलाएगी। कहीं बीच में ही आ गया तो यह साल फिर खराब हो जाएगा। एक साल तो पहले ही खराब हो चुका है।

दो दिन बाद ही कुन्ती को सावित्री की माँ से जाकर पाँच सौ रुपए माँगने पड़े माँ ने रुपए दे दिए। उसने जल्दी से उन्हें लौटाने का आश्वासन दिया। इम्तिहान हो चुके थे, पढ़ाने का काम इतना नहीं था, यों ही इधर-उधर का कुछ करवाकर कुन्ती लौटी, तो माँ ने कहा, ‘‘बहनजी, अब तो सावित्री का रिज़ल्ट निकलने वाला है। आप एक बार ज़रा स्कूल में देख आइए न। ऊँच-नीच हो तो अभी कुछ करवा डालिए, रिज़ल्ट निकलने के बाद बड़ी मुश्किल हो जाती है। अभी जाना चाहें तो गाड़ी नीचे खड़ी है।’’

‘‘जी, इस समय तो अस्पताल जाना है। फिर मैं सोचती हूँ, इस बार वह वैसे ही पास हो जाएगी।’’

‘‘कोई भरोसा नहीं बहनजी, कल आप स्कूल के समय आकर चली जाइए। यह सब करवाने का ज़िम्मा अब तो आपका ही है। कुछ देने-लेने की बात हो तो भी कोई चिन्ता नहीं। उस स्कूल में सब चलता है। बस, ज़रा बात करने का ढंग चाहिए।’’

‘‘जी, कल जाकर देखूँगी। मैं तो सोचती हूँ कि वह यों ही पास हो जाएगी।’’

‘‘सोचिए-वोचिए मत, आप चली ही जाइए!’’ उतरते-उतरते कुन्ती ने सुना।

रात में सोई तो सोच रही थी कि ये पाँच सौ रुपए कैसे चुकाएगी? मामा को लिख दे कि गाँव का मकान बेच दें?…मामा को एक बार कम-से-कम आकर तो देखना चाहिए था…आज कितना असहाय वह अपने को महसूस कर रही थी। इतनी बड़ी दुनिया में क्या कोई भी ऐसा नहीं है जो इसकी पीठ पर आश्वासन-भरा हाथ रखकर दो शब्द सान्त्वना के ही कह दे? रोते-रोते उसकी हिचकियाँ बँध गईं। अचानक ही उसके मुँह से निकला, ‘‘हे भगवान्! अब तो तू पापा को उठा ले! मुझसे बर्दाश्त नहीं होता! मैं टूट चुकी हूँ…’’ और फिर उसने दोनों हाथ कसकर मुँह पर रख लिए, मानो मुँह से निकली हुई इस बात को वापस धकेल देना चाहती हो।

सामने वायलिन लटका था, उस पर धूल की मोटी-सी परत जम गई थी। वायलिन बजाना तो उसका कभी का छूट चुका था, जब-तब उसकी धूल पोंछ दिया करती थी, सो वह भी छूट गया। कितने दिनों से उसने धूल नहीं पोंछी। आज भी उससे नहीं उठा जा रहा है। क्या होगा केवल धूल पोंछकर? अब क्या वह कभी वायलिन बजा पाएगी?

टेलीफोन करके, इधर-उधर से कोशिश करके, सावित्री की माँ ने पता लगा लिया कि सावित्री दो विषयों में फेल है। एक विषय में फेल होती तो उसे चढ़ा दिया जाता, पर अब उसे नहीं चढ़ाया जाएगा। एक विषय में जैसे भी हो उसे पास करवाना ही है। कुन्ती जब पहुँची तो माँ ने उसे बैठने भी नहीं दिया, ‘‘बहनजी, यह मैंने पता लगा लिया, वरना सावित्री तो फेल ही हो जाती। आपने तो कह दिया, पास हो जाएगी। आप तुरन्त ही गाड़ी लेकर जाइए, अपनी पहचानवाली बहनजी से, बड़ी बहनजी से बात करिए, इधर-उधर कोशिश करके पास करवाकर आइए; नहीं तो हमारे इतने रुपयों पर पानी फिर जाएगा, साल खराब हुआ सो अलग।’’

‘‘किन दो विषयों में फेल हो गई?’’

‘‘वहाँ जाकर पता लगाइए। फेल हुई है, यह तय बात है। आपने ज़िम्मा लिया था, अब तो पूरा करना ही पड़ेगा! आखिर…’’

कुन्ती से कोशिश करके भी कुछ नहीं बोला गया।

‘‘गाड़ी नीचे खड़ी है। देर करने से अब काम नहीं चलेगा। दो दिन बाद तो रिज़ल्ट ही निकल जाएगा। फिर कितनी मुश्किल होगी कुछ करवाने में! और हाँ, न हो तो कुछ रुपए लेकर जाइए, ढंग से बात करने से सब कुछ हो जाता है इस स्कूल में…हमने नवीं में भरती करवा ही दिया था, आप अब चढ़वा दीजिए!’’

कुन्ती बिना बोले चुपचाप नीचे उतर गई। सबसे पहले वह अपनी परिचिता के पास गई। पर वह समझ ही नहीं पा रही थी, कि क्या कहे, कैसे कहे! उसकी मित्र काम करते हुए भी इधर-उधर की बातें कर रही थी–तुम बहुत दुबली दिखाई दे रही हो…पापा कैसे हैं…आदि-आदि।

कुन्ती स्वयं नहीं जानती, उसने क्या कहा, कैसे कहा। बस इतना ही उसे याद है कि वह एक अध्यापिका से और मिली थी, प्रधानाध्यापिका से भी मिली थी। उनसे मिलने के लिए काफी देर तक उसे बाहर प्रतीक्षा करनी पड़ी थी। वह बैठी भी रही थी। उसे याद नहीं कि उसे उनसे कुछ आश्वासन भी मिला था या नहीं। उसे यह भी पता नहीं था कि लौटकर माँ से क्या कहेगी।

नीचे उतरी तो प्यास से उसका गला बुरी तरह सूख रहा था। मई की गर्मी भी कितनी भयंकर होती है! उसने चपरासी से पानी माँगा। उधर से एक भारी-भरकम महिला हँसती हुई पेपर्स का बण्डल लिए गुज़री। कुन्ती को लगा, महिला मिसेज़ नाथ से कितनी मिलती-जुलती है।

चपरासी ने पानी लाकर दिया तो एक साँस में ही वह सारा गिलास खाली कर गई। पता नहीं, जल्दी पीने के कारण या क्यों, उसे बड़े ज़ोर की खाँसी आई। वह खाँसती ही चली गई–खों-खों-खों…यहाँ तक कि उसका मुँह लाल हो गया और आँखों से पानी निकलने लगा। एक हाथ से छाती दबाए और दूसरे से रूमाल मुँह पर रखे वह गाड़ी की ओर बढ़ी, खाँसी बन्द हुई, पर फिर भी उसके कानों में जैसे वही आवाज़ गूँजती रही–खों-खों-खों…

एकाएक कुन्ती को लगा कि उसकी यह खाँसी, यह खोखली-खोखली आवाज़, पापा की खाँसी से कितनी मिलती-जुलती है…हू-बू-हू वैसी ही तो है!…सहमकर उसने गाड़ी के शीशे में देखा, कहीं उसके चेहरे पर भी तो वैसा कुछ नहीं जो उसके पापा के चेहरे पर…

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