Kavita Aur Shudha Kavita (Hindi Nibandh) : Ramdhari Singh Dinkar

कविता और शुद्ध कविता : रामधारी सिंह 'दिनकर'

जिसे हम शुद्ध कविता कहते हैं, वह साहित्य की कोई सर्वथा नवीन विधा नहीं है। जब से मनुष्य ने काव्यकला का आविष्कार किया, शुद्ध कविता की रचना वह तभी से करता आ रहा है। किन्तु पहले उसे यह पता नहीं था कि जो कुछ वह लिखता है, उसमें दो प्रकार की कविताएँ होती हैं। एक वे, जिनका उद्देश्य केवल आनन्द–दान होता हैय और दूसरी वे, जिनमें आनन्द के साथ कुछ ज्ञान भी रहता है, प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष कुछ उपदेश भी रहते हैं तथा दूर पर कहीं, किसी कर्तव्य की प्रेरणा भी रहती है। शुद्ध कविता को अब शुद्ध कविता कहने का रिवाज है किन्तु जो कविताएँ परिभाषा के अनुसार ठीक–ठीक शुद्ध नहीं हैं, उन्हें क्या कहा जाना चाहिए? उनका एक ढीला–ढाला सामान्य नाम सोद्देश्य काव्य चलता है।

जब कविता का आविष्कार हुआ था, विद्या का विभाजन शाखाओं में नहीं हो पाया था, न आदमी को यही मालूम था कि ज्ञान और भाव के बीच भी भेद है। किन्तु कुछ समय बीतने पर साहित्य–शास्त्र के आचार्यों का आविर्भाव हुआ और उन्होंने यह अनुभव किया कि कविता का काम ज्ञान का कथन नहीं, केवल भावों का आख्यान है। इसलिए उन्होंने भावों की छानबीन की, उनका नौ जातियों में वर्गीकरण किया (जो साहित्य के नौ मूल भावों के रूप में प्रसिद्ध हैं) और कितने ही ऐसे क्षणस्थायी भावों को भी स्वीकार किया, जो साहित्य के संचारी भाव कहलाते हैं।

यदि आचार्यों का बस चलता तो साहित्य में केवल भाव–ही–भाव होते, उसमें उपदेश अथवा ज्ञान की बातें कभी आती ही नहीं। किन्तु यह सम्भव नहीं हुआ। कुछ कवि तो मुख्यत: भावों तक ही सीमित रहे (जैसे हाल, गोवर्धन, अमरुक, जयदेव, बिहारीलाल, ग़ालिब आदि), किन्तु बाकी कवियों ने भावों के साथ ज्ञान को भी मिला दिया और आचार्यों के बनाये हुए नियमों के विरुद्ध वे ही अधिक शक्तिशाली भी निकले। फिर आचार्यों ने उनकी महिमा को भी स्वीकार किया और साहित्य में एक मान्यता चल पड़ी कि कविता का प्रयोजन सद्य:आनन्द–दान भी है और वह उपदेश भी देती है।

कविता का ध्येय ज्ञान है या आनन्द, इस विषय में प्राचीन आचार्यों का मत एकांगी नहीं था। चूँकि शिवत्व पर उनका बहुत जोर था, इसलिए ज्ञान और नैतिकता का काव्य में प्रवेश वे स्वाभाविक मानते थे। किन्तु सब मिलाकर भारत में भी काव्य में ज्ञान की अपेक्षा आनन्द का पलड़ा भारी रहा था। कविता का एक ध्येय, अप्रत्यक्ष रूप से, ज्ञान का भी दान है–इस मत का काफी जोर से प्रतिपादन भामह और मम्मट ने किया है। भामह ने लिखा है कि साहित्य में ‘स्वादु काव्य के रस से युक्त शास्त्र का भी उपयोग किया जाता है। पहले लोग शहद चाटकर पीछे कड़वी दवाई पीते हैं।’ और मम्मट ने शहद से लिपटे शास्त्रीय ज्ञान को कान्तासम्मित उपदेश कहा है। किन्तु वामन ने ऐसी कोई बात नहीं कही। वे काव्य का प्रयोजन प्रीति और कीर्ति को मानते हैं। किन्तु अभिनव गुप्त ने कीर्ति को भी कवि का अतिरिक्त प्रयोजन माना है। उनका विश्वास है कि काव्य का सर्वप्रधान प्रयोजन आनन्द की साधना है। ‘आनन्द एवं पार्यन्तिकं मुख्यं फलम्।’ और हमारा खयाल है कि पंडितराज जगन्नाथ भी आनन्दवादी ही हैं। ‘रमणीयार्थ प्रतिपादक: शब्द: काव्यम्’–इस परिभाषा में रमणीयता से तात्पर्य उस विषय से है जो (शास्त्रीय नहीं) अलौकिक ज्ञान से संपृक्त है। पंडितराज के मत में अलौकिकत्व चमत्कारत्व का ही पर्याय है। ‘वह एक विशेष प्रकार की आनन्ददायिनी अनुभूति है।’

प्राचीन और मध्यकालीन युगों में सोद्देश्यता काव्य का दोष नहीं मानी जाती थी, किन्तु आधुनिकता की निगूढ़ व्याप्तियाँ जैसे–जैसे खुलती जाती हैं, सोद्देश्यता काव्य का दुर्गुण बनती जाती है। सन्देशवाही कवि पहले के समाज में आदरणीय व्यक्ति था और लोग चर्चा के दौर में उसके विचारों का हवाला देते थे, उसकी पंक्तियों को उद्धृत करते थेय किन्तु अब जो कविताएँ जितनी ही अधिक आधुनिक होती हैं, वे उतनी ही जीवन और कर्म से अधिक दूर होती हैं। उनका उद्देश्य मनुष्य को ज्ञान देना नहीं, उसकी चेतना को चैंकाना होता है। अतएव कर्मरत समाज उनके भीतर अपने लिए कोई प्रेरणा नहीं पा सकता, न वह इन कविताओं के प्रति कोई श्रद्धा रखता है।

जैसे पहले के साहित्य में शुद्ध और सोद्देश्य के बीच भेद नहीं था, उसी प्रकार पुरानी कविताओं में भाव और विचार के बीच भी विभाजन नहीं चलता था। साहित्य विचारों से नहीं, भावों से उत्पन्न होता है, यह मान्यता पहले भी चलती थी, किन्तु जो विचार भावों की सहायता करने को अथवा उनकी लपेट में आते हैं, उनका वर्जन या बहिष्कार पहले नहीं किया जाता था। कविताओं का प्रतिलोम गद्य नहीं, विज्ञान है और जो बातें वैज्ञानिक तर्कों के साथ कही जाती हैं, वे छन्दयुक्त होने पर भी काव्य नहीं हो सकतीं–इस सिद्धान्त में लोग दृढ़ता के साथ विश्वास करते थे। इसका प्रमाण यह है कि छन्दोबद्ध होने पर भी आयुर्वेद और ज्योतिष भारत में काव्य नहीं, विज्ञान ही माने जाते थे।

आधुनिक काव्यशास्त्र में भाव और विचार का द्वन्द्व अत्यन्त प्रखर हो उठा है किन्तु सिद्धान्त के स्तर पर आज तक भी उस फार्मूले का पता नहीं लगाया जा सका, जिसके आधार पर हम यह कह सकें कि यह भाव है और यह विचार, अतएव इसे कविता में रहना चाहिए और इसे नहीं रहना चाहिए। इलियट ने इस समस्या का समाधान यह कहकर किया है कि कविता विचार के भाव–पक्ष (इमोशनल इक्किवेलेंट ऑफ थाट) को लेकर काम करती है। किन्तु मनोविज्ञान कहता है कि दुनिया में जितने भी विचार हैं, वे आरम्भ में, भावों के रूप में ही उत्पन्न हुए थे और वे शनै:–शनै:, स्वच्छ होकर विचारों के स्तर पर पहुँचे हैं। विचार और कुछ नहीं, भाव का स्फटिक–रूप है।

लेकिन सिद्धान्त के स्तर पर भाव और विचार का विभाजन चाहे जितना कठिन हो, व्यवहार में वह उतना कठिन नहीं है।
सुन्दरता कहँ सुन्दर करई, छबिगृह दीपसिखा जनु बरई।

यह कविता केवल भाव की कविता है क्योंकि उसमें ज्ञान–दान का प्रयास नहीं है, उपदेश की महक और सोद्देश्यता की गंध नहीं है। वह केवल सौन्दर्य की अनुभूति से उत्पन्न हुई है और सौन्दर्य का दर्शन कराने के बाद ये पंक्तियाँ और कुछ कहना नहीं चाहतीं।

किन्तु :

ज्ञान को पंथ कृपान की धारा,
परत खगेस न लावइ बारा।
जो निर्बिघ्न पंथ निरबहई,
सो कैवल्य परम पद लहई।

यह कविता भाव नहीं, विचार की कविता है। वह सोद्देश्य है। वह एक नैतिकता का प्रचार करती है, एक प्रकार के कर्तव्य की प्रेरणा देती है।

इसी प्रकार :

अलक मुबारक तिय वदन लटकि परी यों साफ,
खुशनवीस मंशी मदन लिख्यौ काँच पर काफ’।

मुबारक के इस दोहे में कोई भी विचार नहीं है। वह केवल सौन्दर्यानुभूति की कविता है। यह दोहा शुद्ध कविता का उदाहरण है क्योंकि कवि यहाँ कोई ज्ञान–कथन न करके केवल एक चित्र दिखाना चाहता हैय किन्तु :

रहिमन अँसुआ नयन ढरि, जिय दुख प्रगट करेइ।
जाहि निकारो गेह ते, कस न भेद कहि देइ?

रहीम का यह दोहा शुद्ध कवित्व का उदाहरण नहीं हो सकता क्योंकि आँसुओं के वर्णन के साथ–साथ कवि ने यहाँ मनुष्यों को उपदेश दिया है। और इस उपदेश का लक्ष्य एक कर्तव्य है अर्थात् जो व्यक्ति तुम्हारे रहस्य को जानता है, उसे घर से मत निकालो। यह कविता भाव नहीं, विचार की कविता मानी जाएगी।

कविता में ज्ञान जहाँ भी प्रवेश करता है, वह किसी–न–किसी कर्म की प्रेरणा से सम्पृक्त होता है। किन्तु तब भी ऐसे कवि हुए हैं, जो यह मानते थे कि कविता चाहे सोद्देश्य भी हो किन्तु रचना उसकी स्वान्त:सुखाय ही की जाती है। ऐसे कवि गोस्वामी तुलसीदास थे, जिनके यहाँ विचारों का बहिष्कार नहीं है, यद्यपि गान वे अपने ही अन्त:सुख के लिए करते हैं। और यही लक्षण उन सभी महाकवियों पर घटता है, जिन्हें हम शताब्दियों से पूजते आए हैं।

जो कवि स्वान्त:सुखाय रचना करता है, उसकी कविताओं में यदि विचारों का प्राचुर्य दिखाई पड़े, तब भी यह कहने का कोई आधार नहीं है कि यह कवि स्वान्त:सुख की बात व्यर्थ करता है। असल में, वह जीवन पर अपना प्रभाव डालने को बेचैन है। क्योंकि जीवन को प्रभावित करने की उमंग भी यद्यपि अन्त:सुख देनेवाली उमंग हो सकती है, लेकिन कवि के आत्मानन्द का कारण यह कभी नहीं होता कि संसार को वह अपनी कल्पना से प्रभावित होते देखता है बल्कि उसका आनन्द रचना की प्रक्रिया से आता है, अपने भावों को ठीक से समझने और उन्हें मूर्त रूप देने से उत्पन्न होता है। ‘कला के लिए कला’ का सिद्धान्त बार–बार खंडित किये जाने पर भी सत्य है। कवि को यदि रचना की प्रक्रिया से अलौकिक आनन्द की प्राप्ति नहीं हो, तो उसकी कविता से पाठकों को भी आनन्द नहीं मिलेगा। कला की सारी कृतियाँ पहले अपने–आपके लिए रची जाती हैं। अगर कदम–कदम पर वे कलाकार को आनन्दमग्न करके उसे अपने ऊपर आसक्त न रख सकें, तो उन कृतियों का निर्माण ही असम्भव हो जाए। अतएव इस सत्य से इनकार सम्भव नहीं है कि जिन सत्कवियों में विचारों का आधिक्य रहता है, वे भी अपने काव्य की रचना, सबसे पहले, आनन्द के लिए ही करते हैं। समाज पर उनकी कविताओं का जो प्रभाव पड़ता है, वह रचना की प्रेरणा नहीं, उसका परिणाम है।

जो कवि ज्ञान का उपयोग करता है, उसकी कविताएँ, कहीं–न–कहीं जाकर, कर्तव्य को प्रेरित करती हैं। किन्तु जो केवल भावनाओं को लेकर चलता है, वह सौन्दर्य दिखाने के बाद और कोई काम नहीं करता। तुलसीदास में भावना और ज्ञान, दोनों का प्राचुर्य है, किन्तु गोस्वामी जी इस बात से लज्जित नहीं थे कि उन्होंने अपने को भावनाओं तक ही सीमित क्यों नहीं रखा। लेकिन रवीन्द्रनाथ में हम इस संकोच का किंचित् आभास पाते हैं। ‘जब मैं कर्म करता हूँ, भगवान मेरा आदर करते हैं। जब मैं गान करता हूँ, वे मुझे प्यार करते हैं।’–इस उक्ति में कर्म से तात्पर्य कर्तव्य की कविता से भी है, जिसे हम सोद्देश्य काव्य कहते हैं।

इस दृष्टि से विचार करने पर सभी कवि हमें दो श्रेणियों में विभक्त दिखाई देते हैं। एक श्रेणी उन कवियों की बनती है, जो अपनी आनन्ददायिनी कला का उपयोग मुख्यत: जीवन को प्रभावित करने के लिए करते हैं, सभ्यता को परिवर्तित करने अथवा उसके मूल्यों की रक्षा करने को करते हैं। और दूसरी श्रेणी में वे कवि आते हैं, जिनका ध्येय मुख्यत: भावों का निरूपण, सौन्दर्य का चित्रण और अनुभूतियों का आख्यान है। वाल्मीकि, व्यास, तुलसीदास, टॉल्स्टॉय, इक’बाल और काज़ी नज़रुल इस्लाम को हम पहली श्रेणी में रखेंगे और दूसरी श्रेणी में कालिदास, बाणभट्ट, अमरुक, हाल, जयदेव, रहस्यवादी कबीर, सूरदास, विद्यापति, बिहारीलाल, ग़ालिब और महादेवी आदि का स्थान होगा। यदि हम चाहें तो यह भी कह सकते हैं कि पहली श्रेणी के कवि कवि हैं, और दूसरी श्रेणी के कवि कलाकार हैं। काव्यकला का विलक्षण उपयोग तो दोनों श्रेणियों के मनीषी करते हैं, किन्तु जिसके भीतर कर्तव्य की चेतना होती है, उसकी रचना में, प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष, कोई उद्देश्य भी होता है। किन्तु जो कवि केवल सौन्दर्य का प्रेमी है, वह शुद्ध कलाकार बन जाता है।

कवि और कलाकार का यह विभाजन वैध नहीं है, फिर भी, इस काल्पनिक विभाजन से समस्या पर थोड़ा प्रकाश पड़ता है। कवि और कलाकार में से किसका काम बड़ा है? दोनों में से कौन है जो कविता के लिए अधिक अनिवार्य है? हमारा खयाल है, सिद्धान्त के धरातल पर इस प्रश्न का जो उत्तर निकलेगा, वह कवियों के खिलाफ जाएगा, क्योंकि कवि शब्द के भीतर यहाँ हमने जो अर्थ रखा है, उसे देखते हुए कहा यही जा सकता है कि कवि की सहायता के बिना कलाकार का काम तो चल सकता है, किन्तु कलाकार का गुण अपनाए बिना कोई भी कवि कवि नहीं रह सकता। कलाकार कवि पर अवलम्बित नहीं है, किन्तु कवि की निर्भरता कलाकार पर है। कविता जिन विशिष्ट गुणों के कारण शास्त्र से भिन्न समझी जाती है, वे गुण कलाकार के गुण हैं। अगर कवि इन गुणों को नहीं अपनाए तो फिर उसके उपदेशों का भी वही हाल होगा जो हाल धर्माचार्यों, दार्शनिकों और राजनीतिज्ञों के उपदेशों का होता है। अतएव कवि की भी प्रभविष्णुता का उत्स उसके ज्ञान और अनुभव में नहीं, बल्कि उसकी कलाकारिता में होता है। आनन्द उत्पन्न करने की शक्ति कला की शक्ति है। ज्ञान आनन्ददायी इसलिए बन जाता है कि कला उसका साथ देती है। अतएव कवि की महत्ता उसके ज्ञान नहीं, कला के कारण होती है। अब तक के साहित्य में महिमा उनकी रही थी, जो ज्ञान को उचित मात्रा में आनन्द से मिलाकर अपने काव्य की रचना करते थे। किन्तु अब कविता चाहती है कि प्रभविष्णु होने के लिए वह ज्ञान से मैत्री नहीं करेगी। जैसे प्रत्येक विद्या केवल अपनी शक्ति से जीती है, उसी प्रकार कविता भी केवल अपनी ही शक्ति से जिएगी। इसीलिए, वह सम्पूर्ण शुद्धता की तलाश में है। और शुद्धता से तात्पर्य इस बात से है कि कविता की पूजा इसलिए नहीं होनी चाहिए कि वह समाज के लिए किसी स्थूल उपयोग की वस्तु है बल्कि इसलिए कि वह मनुष्य की एक शक्ति है, चीजों को देखने की एक दृष्टि है। वह एक ऐसा यंत्र है जिससे मनुष्य का वह रूप पकड़ा जाता है, जिस रूप को ग्रहण करने अथवा समझने में अन्य सभी विद्याएँ असमर्थ हैं।

यह भी ध्यान देने की बात है कि साहित्य के इतिहास में जो भी लोग कवि के पक्षपाती रहे हैं (टॉल्स्टॉय, इक’बाल, रामचन्द्र शुक्ल), वे मानते थे कि साहित्य समाज के उपयोग में आनेवाली वस्तु है, अतएव उसे नैतिकता का बन्धन मानकर चलना चाहिए। किन्तु जिनका (रेम्बू, मलार्मे, ऑस्कर वाइल्ड, क्रोसे और रवीन्द्रनाथ) पक्षपात कलाकार के साथ था, वे उपयोगिता में विश्वास नहीं करते थे। क्रोसे का कहना था कि कला उपयोग का यंत्र नहीं, केवल आनन्द जगानेवाली वस्तु है। यदि कला की कृतियों से समाज में कदाचार फैलता हो, तो भी कलाकार पर प्रतिबन्ध लगाना गलत काम है। वैसी हालत में सरकार को चाहिए कि वह पुलिस की संख्या में वृद्धि कर दे।

और रवीन्द्रनाथ ने लिखा है कि कला व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति को कहते हैं। किन्तु मनुष्य जब तक उपयोगिता के घेरे में है, तब तक उसका व्यक्तित्व नहीं है। व्यक्तित्व हमारा तब आरम्भ होता है, जब हम उपयोगिता के घेरे को लाँघने लगते हैं, जब हम ऐसे कार्य आरम्भ करते हैं, जिनका हमारी जैविक आवश्यकताओं से कोई सम्बन्ध नहीं है। माता, बहन, सखी और देशसेविका के रूप में नारियों का अपरिमित उपयोग है, किन्तु यह उनका व्यक्तित्व नहीं है। नारी का व्यक्तित्व उसकी भंगिमा में है, चलने–फिरने की अदाओं और नाना प्रकार के हाव–भाव में है। सिपाही का उपयोग युद्ध–भूमि में जाकर मारने और मरने में है। किन्तु यह उसका व्यक्तित्व नहीं है। व्यक्तित्व उसका तब उभरता है, जब वह वर्दी पहनकर बाजों की ताल पर कवायद की चाल में चलता है।

उपयोगिता का धरातल वह धरातल है, जिस पर मनुष्य और पशु, दोनों समान हैं। आहार, निद्रा, भय और मैथुन पशुओं का भी धर्म है और मनुष्यों का भी। मनुष्य और पशु में मुख्य भेद यह है कि मनुष्य ज्यों–ज्यों सुसंस्कृत होता है, त्यों–त्यों वह अनुपयोगी कार्य अधिक करता जाता है। महलों में उसे खिड़कियाँ चाहिए और खिड़कियों में खूब महीन पर्दे जो स्वप्न के समान झूलते हों। इनका शायद कुछ उपयोग माना भी जा सके, किन्तु दीवार पर चित्र टाँगने का क्या उपयोग है? नाचने, गाने, मूर्ति बनाने और शरीर को प्रसाधन से सज्जित करने का क्या उपयोग है? यह भी ध्यान देने की बात है कि प्रेम की निराशा से आहत होकर पशु आत्महत्या नहीं करते। आत्महत्या केवल मनुष्य करता है। पशु केवल उतने ही कर्म करते हैं, जितने से उनकी जैविक आवश्यकताओं की पूर्ति हो जाएय किन्तु मनुष्य की मनुष्यता तो तब तक आरम्भ ही नहीं होती, जब तक वह केवल अपनी जैविक आवश्यकता की पूर्ति में संलग्न है।

अर्थात् श्रेष्ठ साहित्य वह नहीं है, जिसका जीवन में कोई प्रत्यक्ष उपयोग है। श्रेष्ठ साहित्य हम उसे कहेंगे, जो सभी उपयोगों की सीमा के पार जन्म लेता है, जिसकी आवाज हम शिखर की उस ऊँचाई से सुनते हैं, जो कर्म की तलहटी से दूर है, जो उपयोग की सभी सीमाओं से परे है और जहाँ पहुँचने के लिए तर्कों के सोपान नहीं बनाये जा सकते।

इसीलिए रहस्यवाद की सारी कविताएँ शुद्ध कवित्व की कोटि में आती हैं।

हम बासी उस देश के जहँ पार ब्रह्म का खेल,
दीपक जरै अगम्य का बिन बाती, बिन तेल।
हद छाड़ि बेहद गया, रहा निरन्तर होय,
बेहद के मैदान में रहा कबीरा सोय।

ये कविताएँ शुद्ध इसलिए हैं कि इनके भीतर कोई उपदेश नहीं है, कर्म की कोई प्रेरणा नहीं है, न मनुष्य के सुधार अथवा समाज की रक्षा की कोई चिन्ता है।

लेकिन जब कबीर साहब कहते हैं कि :
हद में रहै सो मानवी, बेहद रहै सो साध,
हद–बेहद दोनों तजै ताके मता अगाध।

तब इस दोहे को हम शुद्ध कवित्व की कोटि में नहीं रख सकते क्योंकि यहाँ एक स्पष्ट उपदेश है कि निर्गुण और सगुण के पचड़े से ऊपर उठे बिना मनुष्य को इष्ट की प्राप्ति नहीं हो सकती।

किन्तु :

जिन मरने थैं जग डरै, सो मेरो आनन्द,
कब मरिहूँ कब देखिहूँ पूरन परमानन्द।

यह दोहा शुद्ध कवित्व का दोहा है क्योंकि कबीर साहब यहाँ कोई उपदेश नहीं देकर अपनी एक निजी भावना की अभिव्यक्ति कर रहे हैं। अगर यह कहा जाए कि कबीर साहब यहाँ भी उपदेशक हैं और वे इस ज्ञान का प्रचार कर रहे हैं कि जब तक मृत्यु नहीं आती, तब तक परमात्मा का साक्षात्कार नहीं हो सकता, तो वह खींचतान की बात होगी। ऐसे प्रचार को हम उपदेश नहीं, मूल्य का प्रचार कह सकते हैं, किन्तु वह कबीर साहब का उद्देश्य नहीं, उनकी कविता का परिणाम है। यह सत्य है कि शुद्धता के अतिवादी कवि अब मूल्यों के प्रचार से भी भागते हैं। किन्तु वह आज की बात है। आज से पूर्व की कविता में भावों और अनुभूतियों का वर्णन शुद्धता की कोटि में ही समझा जाता था। और मूल्य की बात कहें तो सामान्य नियम यही हो सकता है कि प्रत्येक कविता से किसी–न–किसी मूल्य का प्रचार होता है।

कबीरदास जी धर्म के नेता थे, अतएव समाज को बदलने के लिए उन्होंने बहुत–सी ऐसी कविताएँ भी लिखी हैं, जो सोद्देश्य हैं और वे शुद्धता की कोटि में न आने पर भी ऊँची कविताएँ हैं। लेकिन आधुनिक युग की रहस्यवादिनी श्रीमती महादेवी वर्मा ने, शायद ही, ऐसी कोई कविता लिखी हो, जो शुद्ध कवित्व की कोटि में न रखी जा सके। इसी प्रकार पंत जी और निराला जी की ऐसी अनेक कविताएँ हैं, जो सौन्दर्य तथा आनन्द की अभिव्यक्ति के बाद और कुछ भी कहना नहीं चाहतीं। निराला जी की ‘जूही की कली’ और ‘शेफालिका’ शुद्ध कवित्व के उदाहरण हैं। ‘पल्लव’ की सारी की सारी कविताएँ शुद्ध हैं। हाँ, परिवर्तन में से उद्देश्य की कुछ गंध अवश्य आती है।

रहस्यवाद के बाद शुद्ध काव्य की सर्वाधिक रचना प्रकृति को लेकर की गई है, यद्यपि इसके अपवाद भी हैं। सबसे बड़े अपवाद गोस्वामी तुलसीदास हैं, जिन्होंने प्रकृति के रूपों का वर्णन मनुष्य को उपदेश सुनाने के लिए किया है :

पुरइन सघन ओट जल, वेग न पाइअ मर्म,
मायाछन्न न देखिए जैसे निर्गुन ब्रह्म।
फल भारन नमि बिटप सब रहै भूमि नियराइ,
पर उपकारी पुरुष जिमि नवहिं सुसंपति पाइ।
हरित भूति तृनसंकुल सूझि परइ नहिं पंथ,
जिमि पाषण्ड विवाद ते लुप्त भए सद्ग्रंथ।

इन दोनों में प्रकृति के रूपों का वर्णन बहुत ही सुन्दर हुआ है, किन्तु वह शुद्धता की कोटि में इसलिए नहीं माना जाएगा क्योंकि प्रकृति के रूपों का उपयोग यहाँ ज्ञान–दान के निमित्त किया गया है। और दूसरे अपवाद वे श्रृंगाराचार्य हैं, जिन्हें प्रकृति का वर्णन उद्दीपन विभाव के रूप में करना पड़ा है :

दूरि जदुराई, सेनापति सुखदायी देखो,
आई ऋतु पावस, न पाई प्रेम पतियाँ।
धीर जलधर की सुनत धुन धरकी है,
दरकी सुहागिन की छोह भरी छतियाँ।
आई सुधि बर की, हिये में आनि खरकी, तू,
मेरी प्रानप्यारी यह प्रीतम की बतियाँ।
बीती औधि आवन की लाल मन भावन की,
डग भयी बावन की सावन की रतियाँ।

पावस का यह वर्णन शुद्धता की कोटि में इस कारण नहीं माना जाएगा क्योंकि वह सोद्देश्य है। प्रकृति के एक रूप का वर्णन यहाँ प्रकृति के सौन्दर्य–अंकन के लिए नहीं, प्रत्युत विरहिणी की व्याकुलता दिखाने को किया गया है। किन्तु अब यह परिपाटी समाप्त हो गई है। आधुनिक कवि प्रकृति का वर्णन केवल उसके रूपांकन के लिए करते हैं, उससे कोई उपदेश निकालना उनका ध्येय नहीं है :

प्रात नभ था बहुत नीला शंख जैसे,
भोर का नभ
राख से लीपा हुआ चैका
अभी गीला पड़ा है।
–शमशेर बहादुर सिंह

सूप–सूप भर धूप कनक
यह सूने नभ में गई बिखर;
चैंधाया बीन रहा है,
उसे अकेला एक कुरर।
–अज्ञेय

अपने हल्के–फुल्के उड़ते स्पर्शों से
मुझको छू जाती है।
जार्जेट के पीले पल्लों–सी
यह दोपहर नवम्बर की।
–धर्मवीर भारती

प्रकृति के रूपों के ऐसे तटस्थ वर्णन कभी–कभी रीतियुग में भी मिलते हैं और खड़ी बोली के उन कवियों में भी जो रीति–परम्परा का जब–तब कुछ उपयोग कर लेते थे :

सिसिर तुषार के बुखार से उखारत है,
पूस बीते होत सून हाथ–पाइ ठिरि कै।
द्यौस की छुटाई की बड़ाई बरनी न जाइ,
सेनापति पाई कछू सोचि कै, सुमिर कै।
सीत तैं सहस–कर सहस–चरन ह्वै कै,
ऐसे जात भाजि तम आवत है घिरि कै।
जौ लौं कोक कोकी को मिलत तौ लौं होति राति,
कोक अध–बीच ही तैं आवत है फिरि कै।
–सेनापति

सेनापति का यह कवित्त शुद्ध कविता का उदाहरण है क्योंकि उसमें जाड़े के दिन के अत्यन्त छोटे होने का वर्णन तटस्थ भाव से किया गया है। उसके भीतर से कोई उपदेश देना अथवा उसके बहाने नायिका की दशा का वर्णन करना कवि का उद्देश्य नहीं है। इसी प्रकार नीचे का वर्षा–वर्णन भी शुद्ध कवित्व का उदाहरण है :

तान वितान दिया नभ ने,
हरियाली ने चादर चारु बिछाई।
हाथ में ली चपला ने मशाल है,
झिल्लियों ने मिल बीन बजाई।
वारिदों ने है मृदंग पै थाप दी,
चातकियों ने मलार है गाई।
विश्व के प्रांगण में सज के,
ऋतु पावस नर्तकी नाचती आई।
–हितैषी

प्रकृति–वर्णन की यह परम्परा बहुत दिनों तक संस्कृत में खूब समृद्ध रही थी। वाल्मीकि और कालिदास में यह शक्ति थी कि अपनी ओर से कुछ भी जोड़े बिना, वे प्रकृति के अद्भुत रूपों का वर्णन तटस्थ भाव से कर सकते थे :

वाष्पसंच्छन्नसलिला रुतविज्ञेयसारसा:
हिमार्द्रवालुकैस्तीरै: सरितो भान्ति सांप्रतम्।
–वाल्मीकि

अर्थात् नदियों का जल वाष्प से ढँका हुआ है। उसमें विचरनेवाले सारस केवल अपने कलरवों से पहचाने जाते हैं तथा ये सरिताएँ भी ओस से भीगे हुए बालू वाले अपने तटों से ही पहचानी जाती हैं। (वाष्प के मारे जल दिखाई नहीं पड़ता है।)

इसी प्रकार कालिदास ने निम्नलिखित श्लोक में प्रकृति का जो चित्र खींचा है, वह लेखनी से नहीं, तूलिका से निर्मित जान पड़ता है :

कर्कन्धूनामुपरि तुहिनं रंजयत्यग्रसंध्या
दार्भं मुंचत्युटजपटलं वीतनिद्रो मयूर:।
वेदिप्रान्तात् खुरविलिखितादुत्थितश्चैषसद्य:
पश्चादुच्चैर्भवति हरिण: स्वांगमायच्छमान:॥

यह प्रात:काल का दृश्य है। कर्कन्धू के पौधों पर पड़े हुए ओसकणों को ऊषा रंगीन बना रही है। नींद से जागा हुआ मयूर दर्भ–निर्मित कुटीर से बाहर निकल रहा है। यज्ञशाला की भूमि हरिण के खुर से चिह्नित है (क्योंकि हरिण ने रात–भर वहीं विश्राम किया था)। अब उस हरिण की नींद खुल गई है। वह अँगड़ाई लेता हुआ खड़ा हो रहा है। (हरिण जब उठने लगते हैं, तब पहले वे अपनी पिछली टाँगों को उठाते हैं, इसलिए) लगता है, जैसे उसका पिछला भाग ऊँचा और लम्बा हो गया हो!

प्राकृतिक छटा के तटस्थ वर्णन की यह परम्परा भवभूति के समय तक भी शेष थी। ऋषि शम्बूक जहाँ तपस्या कर रहे थे, उस वन में बहनेवाली एक नदी का वर्णन करते हुए भवभूति ने लिखा है :

इह समदशकुन्ताक्रान्तवानीरवीरुत्,
प्रसवसुरभिशीतस्वच्छतोया वहन्ति।
फलभरपरिणामश्यामजम्बूनिकुंज –
स्खलनमुखरभूरिस्रोतसो निर्झरण्य:।

अर्थात् यहाँ मदमाते पक्षियों के झुंडों से आक्रान्त, वेतलताओं से गिरते हुए पुष्पों से सुगन्धित जलवाले झरने बहते हैं। उन झरनों के जल में वृक्षों से टप–टप गिरते हुए काले–काले जामुन एक अनोखे संगीत की सृष्टि कर रहे हैं।

किन्तु जब संस्कृत में रीतिवाद की परम्परा चली, यह वर्णन उतना तटस्थ नहीं रहा। इस विकार की चरम परिणति हिन्दी के रीतिकालीन काव्य में हुई। किन्तु चीनी और जापानी कवियों का प्रकृति–वर्णन इस दोष से दूषित नहीं हुआ। उद्दीपन के रूप में प्रकृति का उपयोग चीनी कवियों ने भी किया था, किन्तु चीन और जापान में, तब भी, प्रकृति बराबर स्वाधीन रही और मनुष्य के व्यक्तित्व की तुलना में उसका व्यक्तित्व बराबर अधिक विशाल बना रहा। चीनी कवियों में प्राकृतिक शोभा का वर्णन केवल तटस्थ ही नहीं है, बल्कि उन कविताओं में कवि यह भी संकेत दे देते हैं कि प्राकृतिक शोभा से मिलनेवाला सुख

बिलकुल वैयक्तिक सुख है :
पहाड़ों पर मेरी सम्पदा क्या है?
उनके शिखरों पर बहुत–से बादल बसते हैं।
मगर इनका आनन्द केवल मेरे लिए है।
महाराज! उन्हें पकड़कर मैं
आपके पास नहीं भेज सकूँगा।
–ताओ हुङ् चिङ्

लोयाङ में वसन्त ज्यादा देर टिकता है।
चारों ओर उसकी बहार है।
नरकट के पत्ते झरने लगे हैं।
आडू के पत्ते भी झर रहे हैं।
मगर वे अभी लुप्त नहीं हुए हैं।
छप्पर के कोने में घुसने के लिए
गौरैये आपस में झगड़ते हैं।
जंगलों में पक्षी पाँती बाँधकर नहीं,
बेतरतीब उड़ रहे हैं।
–याङ् क्वाङ्

प्रकृति–वर्णन की शुद्ध परम्परा चीनी की अपेक्षा जापानी कविताओं में अधिक विकसित हुई थी। चीनी कविताओं की खास खूबी अल्हड़पन थी मगर सामाजिकता की थोड़ी गंध उसमें बहुधा आ जाती थी। किन्तु जापानी कविता इतनी–सी स्थूलता से भी मुक्त रही है। वह वैयक्तिक अनुभूति की कविता होती है और आकार में भी वह चीनी कविताओं से अक्सर छोटी होती है :

चाँद रेंगकर पर्वतों के पार जा छिपा।
नाव के दीये का प्रकाश,
खुले समुद्र पर झिलमिला रहा है।
हम समझते हैं, रात्रि के अन्धकार में
हमारी नाव अकेली जा रही है।
इतने में समुद्र से पतवारों के चलने की
आवाज आती है।
–कामो तारुहितो

बसन्त में जब कुहासा घिरता है,

जंगली हंस ताल छोड़कर दूर चले जाते हैं।
फूलों से विहीन देश में रहने की
बान उन्होंने सीख ली है।
–श्रीमती इसे

कोयल ने कूक भरी।
मैंने चैंककर देखा कि आवाज
किधर से आई है।
मगर कोयल दिखी नहीं।
दिखा केवल भोर का चाँद
जो उधर आकाश में लटका हुआ था।
–साने सदा

बर्फ, अब तुम गिर सकती हो।
क्रिसेंथमम के बाद
फूल अब और नहीं खिलेंगे।
–ओयमारू

चीन और जापान के काव्य और चित्रकारी में प्रकृति का जितना बड़ा स्थान रहा, उसका उतना बड़ा स्थान किसी अन्य देश की कला में, शायद ही, कभी रहा हो। इसीलिए, प्रकृति–वर्णन की शुद्ध कविताओं के जितने अधिक उदाहरण चीनी और जापानी भाषाओं में हैं, उतने कदाचित् ही किसी अन्य देश की कला में उपलब्ध हों। यह भी ध्यान देने की बात है कि जब से शुद्ध कवित्व का आन्दोलन यूरोप में जोर से उठा, तब से चीनी और जापानी कविताओं के अनुवाद यूरोपीय भाषाओं में बहुतायत से किये गए हैं।

शुद्ध कवित्व की तृषा आधुनिक कवियों की सबसे प्रमुख तृषा हैय किन्तु यह समझना भूल होगी कि सभी आधुनिक कवि केवल शुद्ध कविताएँ ही लिखते रहे हैं। इलियट शुद्ध कवित्व के बहुत बड़े पक्षपाती थे, किन्तु उनका ‘वैस्ट लैंड’ शुद्ध कविता का सही उदाहरण नहीं माना जा सकता। ‘वैस्ट लैंड’, किसी–न–किसी हद तक, सोद्देश्य काव्य है, गरचे उसका उद्देश्य अत्यन्त अप्रत्यक्ष है। हिन्दी के आधुनिक कवियों के बारे में भी यह नहीं कहा जा सकता कि वे हमेशा भावों तक ही सीमित रहते हैं अथवा विचारों से उनका परहेज़ हमेशा कायम रहता है :

अच्छा खंडित सत्य
सुघर, नीरन्ध्र मृषा से,
अच्छा पीड़ित प्यार
सहिष्णु, अकम्पित निर्ममता से।
–अज्ञेय

यह भावों नहीं, विचारों की कविता है और वह सोद्देश्य भी मानी जा सकती है :

चाँदनी चन्दन–सदृश हम क्यों लिखें?
मुख हमें कमलों–सरीखे क्यों दिखें?
हम लिखेंगे, चाँदनी उस रुपये–जैसी है
कि जिसमें चमक है, पर खनक गायब है।
–अजित कुमार

यह कविता भी शुद्ध कविता नहीं है, क्योंकि वह तटस्थ नहीं है। दूर पर, कहीं–न–कहीं, वह एक सामाजिक आन्दोलन से सम्बद्ध है और एक खास उद्देश्य का प्रचार करना चाहती है। यथा :

बाँधो, यह नदी घृणा की है,
काली चट्टानों के सीने से निकली है,
अन्धी, जहरीली गुफाओं से उबली है,
इसको छूते ही हरे वृक्ष सड़ जाएँगे।
नदी यह घृणा की है।
–धर्मवीर भारती

वैसे, कविता की ये अच्छी पंक्तियाँ हैं किन्तु शुद्धता की कसौटी पर ये खरी नहीं उतरतीं, क्योंकि उनका ध्येय एक नैतिकता का प्रचार है।

और सोद्देश्यता वहाँ भी अपना पता दे देती है, जहाँ बातें इस अदा से कही जाती हैं, मानो कवि तटस्थ भाव से बोल रहा हो :

हरे भरे हैं खेत,
मगर खलिहान नहीं;
बहुत महतों का मान,
मगर दो मुट्ठी धान नहीं।
–अज्ञेय

कविता और शुद्ध कविता का भेद यदि यहीं पर खत्म हो जाता, तो चिन्ता की कोई बात नहीं थीय किन्तु बातें यहीं पर खत्म नहीं होतीं। शुद्धता की साधना में अन्तरराष्ट्रीय काव्य अब एक ऐसी ऊँचाई पर पहुँच गया है, जहाँ काव्य–विषयक हमारी परम्परागत मान्यताएँ छूँछी और निस्सार दिखाई देने लगी हैं। कविता पहले कथाएँ भी कहती थी, किन्तु यह कार्य अब उसने उपन्यासों के लिए छोड़ दिया है। कविता, यहाँ तक कि शुद्ध कविता का भी ध्येय पहले भावदशा का वर्णन समझा जाता था, किन्तु संसार के नये कवियों ने यह काम भी छोड़ दिया, क्योंकि भावदशा का वर्णन कथालेखकों का काम है। अन्तरराष्ट्रीय काव्य अब समाज की ओर नहीं देखताय नैतिकता, धर्म, राजनीति, यहाँ तक कि शान्ति की समस्या की ओर भी नहीं देखता। वह वस्तुओं के उन रूपों की तलाश में है, जिनका वर्णन न उपन्यासकार कर सकता है, न कथाकारय न इतिहास–लेखक कर सकता है, न दर्शनाचार्यय जो रूप केवल उन्हें दिखाई देते हैं, जिनकी संबुद्धि औसत मनीषियों की अपेक्षा कुछ अधिक सजीव है।

नई मान्यता के अनुसार छन्द और तुकें तभी तक सार्थक हैं, जब तक वे अकृत्रिम रूप से अपना काम करते हों। कवि का कार्य छन्द और तुकों की घूस देकर पाठकों को रिझाना नहीं है। उसका काम अनुभूतियों को उनके सही रूप में ग्रहण करना है। जिस चिन्ता ने कवि को गरस लिया है, छन्द और तुकों के लोभ में, उस चिन्ता को इधर या उधर मुड़ना नहीं चाहिए। उसे सीधे उस दिशा की ओर चलना चाहिए जो उसकी स्वाभाविक गति की दिशा है। उस बिन्दु तक पहुँचना चाहिए जो उसकी चरम परिणति का बिन्दु है। यदि छन्द और तुक चिन्ता की इस स्वच्छ और स्वच्छन्द प्रगति में बाधा डालते हैं (और कौन कह सकता है कि वे बाधा नहीं डालते?) तो वे त्याज्य और तिरस्करणीय हैं। कवि के हाथ में भाषा सोचने का यंत्र मात्र है। जो कवि उसका प्रयोग पाठकों को रिझाने के लिए करता है, वह अपने कवि–धर्म पर आरूढ़ नहीं है। और भाषा अगर बराबर उसी भूमि में काम करती है, जिसमें बहुत से कवि काम कर चुके हैं, तो वह कोई बड़ा काम नहीं करती। उसका लक्ष्य नई भूमि पर अधिकार करना होना चाहिए। उसे उन संवेदनाओं को शब्दों के भीतर बिठाने की कोशिश करनी चाहिए जिन्हें अब तक भाषा का लिबास नहीं मिला है। प्रत्येक कवि का एक धर्म प्रयोक्ता का धर्म है और प्रत्येक कविता को, कुछ–न–कुछ, नया प्रयोग करना ही चाहिए।

और त्याज्य केवल छन्द और तुकें ही नहीं हैं, बल्कि वह चिन्ता भी त्याज्य है, जिसके अधीन कवि पाठकों को अर्थ बताना चाहता है। अर्थ अब कविता का कोई नित्य धर्म नहीं है। कवित्व वह अद्भुत सृष्टि है, जिसका प्रभाव हम पर अर्थ समझने के पूर्व ही पड़ने लगता है और ऐसी कविताएँ सबसे श्रेष्ठ हैं, जिन्हें बार–बार पढ़ने पर भी पाठक को यह विश्वास नहीं हो कि कविता का सारा अर्थ उसकी समझ में आ गया है। कविता का प्रभाव उसमें प्रयुक्त शब्दों के संगीत का प्रभाव हैय कविता का आनन्द उन झंकृतियों का आनन्द है, जो कभी भी पूरे तौर से पकड़ में नहीं आतींय और कविता की मोहिनी उन संकेतों की मोहिनी है, जो हमें अपने–आपके पास पहुँचा देते हैं, जो हमारे हृदय में अमरत्व का आनन्द जगाते हैं।

शुद्ध चिन्तक वह है, जो राजा के भय से अपने चिन्तन की दिशा नहीं बदलताय जो अपयश के भय अथवा सुयश के लोभ से किसी ऐसी नैतिकता से समझौता नहीं करता, जो उसके चिन्तन को अग्राह्य हैय जो निर्भय और निर्लोभ रहकर ठीक उस दिशा की ओर चलता है, जो उसके चिन्तन की स्वाभाविक दिशा है। इसी प्रकार शुद्धतावादी कवि अनुभूतियों के शुद्ध चित्रण को अपना ध्येय समझता है। वह इस भय से घबराकर शुद्धता से विचलित नहीं होता कि लोग उसकी कविता को नहीं समझ सकेंगे अथवा वे उसकी निन्दा करेंगेय न वह इस लोभ में पड़ता है कि शुद्धता से वह जरा–सा हट जाए तो राजा उस पर प्रसन्न हो जाएगा या जनता उस पर प्रशंसा की वृष्टि करेगी।

कविता गाने नहीं, बिसूरने की चीज है। कविता ताली बजाने की नहीं, सुनकर अपने भीतर डूब जाने की वस्तु है। कविता आदमी का सुधार नहीं करती, वह उसे चैंकाना जानती है, धक्के देना जानती है, उसकी चेतना की मुँदी आँखों को खोलना जानती है। कविता सीढ़ियों नहीं, छलाँगों की राह है। कविता विचारों के परवान पर चढ़कर अपने आकार को बढ़ाना नहीं चाहती। वह भावना की सच्चाई के बाद एक शब्द भी नहीं बोलती है। जहाँ भावना खत्म होती है, वहीं कविता का भी स्वाभाविक अन्त है। इसलिए, शुद्ध कविता छोटी ही हो सकती है क्योंकि भावना के प्रगाढ़ क्षण ज्यादा देर तक नहीं टिकते। और यह छोटी कविता और भी छोटी इसलिए हो जाती है कि अनुभूति के चित्रण में कवि उतने से एक भी अधिक शब्द नहीं खरचता, जितने की नितान्त आवश्यकता है। चित्रों की नई खूबी यह है कि उनकी रेखाएँ संख्या में न्यून हों। कविता की नई विशेषता यह है कि उसमें एक भी ऐसे शब्द का प्रयोग न किया गया हो, जिसके बिना कवि का काम चल सकता था। नई कविता का मनसूबा सूत्रशैली में बोलने का मनसूबा है। उसकी उमंग मंत्र के समान सुगठित और संक्षिप्त होने की उमंग है, जिसका कोई भी शब्द ऊर्जा से विहीन नहीं होगा।

यह कविता के विषय में बिलकुल ही नवीन धारणा है और उसका प्रभाव कविता पर इस जोर से पड़ा है कि वह अचानक अत्यन्त निगूढ़, बल्कि दुरूह हो उठी है। कविता की इस अति नवीन धारणा का प्रभाव कवि के व्यक्तित्व पर भी पड़ा है। आज का कवि समाज से जितना विच्छिन्न है, उतना विच्छिन्न पहले का योगी भी नहीं होता था। और यह प्रभाव केवल कविता तक ही सीमित नहीं है, उसके वृत्त में उपन्यास भी आ गए हैं, कहानियाँ भी आ गई हैं, नाटक भी आ गए हैं।

आगे के पृष्ठों में हम विचार करेंगे कि शुद्ध कवित्व–विषयक यह धारणा कैसे–कैसे बढ़ी है, उस पर कला के किन आन्दोलनों का प्रभाव पड़ा है तथा शुद्ध कवित्व के आन्दोलन से साहित्य और समाज का सम्बन्ध कैसे जटिल हो गया है।

कहानियाँ और अन्य गद्य कृतियाँ : रामधारी सिंह दिनकर

संपूर्ण काव्य रचनाएँ : रामधारी सिंह दिनकर