कटोरा भर खून (उपन्यास) : देवकीनन्दन खत्री

Katora Bhar Khoon (Novel) : Devaki Nandan Khatri

कटोरा भर खून : खंड-1

लोग कहते हैं कि नेकी का बदला नेक और बदी का बदला बद से मिलता. है मगर नहीं, देखो, आज मैं किसी नेक और पतिव्रता स्त्री के साथ बदी किया चाहता हूँ। अगर मैं अपना काम पूरा कर सका तो कल ही राजा का दीवान हो जाऊँगा। फिर कौन कह सकेगा कि बदी करने वाला सुख नहीं भोग सकता या अच्छे आदमियों को दुःख नहीं मिलता ? बस मुझे अपना कलेजा मजबूत कर रखना चाहिये, कहीं ऐसा न हो कि उसकी खूबसूरती और मीठी-मीठी बातें मेरी हिम्मत.. (रुक कर) देखो, कोई आता है !

रात आधी से ज्यादे जा चुकी है। एक तो अंधेरी रात, दूसरे चारों तरफ से घिर आने वाली काली-काली घटा ने मानो पृथ्वी पर स्याह रंग की चादर बिछा दी है। चारों तरफ सन्नाटा छाया हुआ है। तेज हवा के झपेटों से कांपते हुए पत्तों की खड़खड़ाहट के सिवाय और किसी तरह की आवाज़ कानों में नहीं पड़ती।

एक बाग के अन्दर अंगूर की टट्टियों में अपने को छिपाये हुए एक आदमी ऊपर लिखी बातें धीरे-धीरे बुदबुदा रहा है। इस आदमी का रंग-रूप कैसा है, इसका कहना इस समय बहुत ही कठिन है, क्योंकि एक तो उसे अंधेरी रात ने अच्छी तरह छिपा रक्खा है, दूसरे उससे अपने को काले कपड़ों से ढक लिया है, तीसरे अंगूर की घनी पत्तियों ने उसके साथ उसके ऐबों पर भी इस समय पर्दा डाल रक्खा है। जो हो, आगे चल कर तो इसकी अवस्था किसी तरह छिपी न रहेगी, मगर इस समय तो यह बाग के बीचोबीच वाले एक सब्ज बंगले की तरफ देख-देख कर दांत पीस रहा है।

यह मुख्तसर-सा बंगला सुन्दर लताओं से ढका हुआ है और इसके बीचोबीच में जलने वाले एक शमादान की रोशनी साफ दिखला रही है कि यहाँ एक मर्द और एक औरत आपस में कुछ बातें और इशारे कर रहे हैं। यह बंगला बहुत छोटा था, दस-बारह आदमियों से ज्यादे इसमें नहीं बैठ सकते थे। इसकी बनावट अठपहली थी, बैठने के लिए कुर्सीनुमा आठ चबूतरे बने हुए थे, ऊपर बांस की छावनी जिस पर घनी लता चढ़ी हुई थी। बंगले के बीचोबीच एक मोढ़े पर मोमी शमादान जल रहा था। एक तरफ चबूतरे पर ऊदी चिनियांपोत की बनारसी साड़ी पहिरे एक हसीन औरत बैठी हुई थी, जिसकी अवस्था अठारह वर्ष से ज्यादे की न होगी। उसकी खूबसूरती और नजाकत की जहाँ तक तारीफ की जाये थोड़ी है। मगर इस समय उसकी बड़ी-बड़ी रसीली आंखों से गिरे हुए मोती-सरीखे आँसू की बूंदें उसके गुलाबी गालों को तर कर रही थीं। उसकी दोनों नाजुक कलाइयों में स्याह चूड़ियाँ, छन्‍द और जड़ाऊ कड़े पड़े हुए थे, बाएँ हाथ से कमर बन्द और दाहिने हाथ से उस हसीन नौजवान की कलाई पकड़े सिसक-सिसक कर रो रही है, जो उसके सामने खड़ा हसरत-भरी निगाहों से उसके चेहरे की तरफ देख रहा था और जिसके अन्दाज से मालूम होता था कि वह कहीं जाया चाहता है, मगर लाचार है, किसी तरह उन नाजुक हाथों से अपना पल्ला छुड़ा कर भाग नहीं सकता। उस नौजवान की अवस्था पच्चीस वर्ष से ज्यादे की न होगी, खूबसूरती के अतिरिक्त उसके चेहरे से बहादुरी और दिलावरी भी जाहिर हो रही थी। उसके मजबूत और गठीले बदन पर चुस्त बेशकीमती पोशाक बहुत ही भली मालूम होती थी।

औरत : नहीं, मैं जाने न दूँगी।

मर्द : प्यारी ! देखो, तुम मुझे मत रोको, नहीं तो लोग ताना मारेंगे और कहेंगे कि बीरसिह डर गया और एक जालिम डाकू की गिरफ्तारी के लिए जाने से जी चुरा गया। महाराज की आँखों से भी मैं गिर जाऊँगा और मेरी नेकनामी में धब्बा लग जाएगा।

औरत : वह तो ठीक है, मगर क्या लोग यह न कहेंगे कि तारा ने अपने पति को जान-बूझ कर मौत के हवाले कर दिया?

बीर० : अफसोस! तुम वीर-पत्नी होकर ऐसा कहती हो?

तारा : नहीं, नहीं, मैं यह नहीं चाहती कि आपके वीरत्व में धब्बा लगे, बल्कि आपकी बहादुरी की तारीफ लोगों के मुंह से सुन कर मैं प्रसन्न हुआ चाहती हूँ, मगर अफसोस! आप उन बातों को फिर भी भूले जाते हैं, जिनका जिक्र मैं कई दफे कर चुकी हूँ और जिनके सबब से मैं डरती हूँ और चाहती हूँ कि आप अपने साथ मुझे भी ले चल कर इस अन्यायी राजा के हाथ से मेरा धर्म बचावें। इसमें कोई शक नहीं कि उस दुष्ट की नीयत खराब हो रही है और यह भी सबब है कि वह आपको एक ऐसे डाकू के मुकाबले में भेज रहा है जो कभी सामने होकर नहीं लड़ता बल्कि छिप कर लोगों की जान लिया करता है।

बीर० : (कुछ देर तक सोच कर) जहाँ तक मैं समझता हूँ, जब तक तुम्हारे पिता सुजनसिह मौजूद हैं, तुम पर किसी तरह का जुल्म नहीं हो सकता।

तारा : आपका कहना ठीक है, और मुझे अपने पिता पर बहुत-कुछ भरोसा है, मगर जब उस ‘कटोरा-भर खून’ की तरफ ध्यान देती हूँ, जिसे मैंने अपने पिता के हाथ में देखा था तब उनकी तरफ से भी नाउम्मीद हो जाती हूँ और सिवाय इसके कोई दूसरी बात नहीं सूझती कि जहाँ आप रहें मैं आपके साथ रहूँ और जो कुछ आप पर बीते उसमें आधे की हिस्सेदार बनूँ।

बीर० : तुम्हारी बातें मेरे दिल में खुपी जाती हैं और मैं भी यही चाहता हूँ कि यदि महाराज की आज्ञा न भी हो तो भी तुम्हें अपने साथ लेता चलूँ, मगर उन लोगों के तानों से शर्माता और डरता हूँ, जो सिर हिला कर कहेंगे कि ‘लो साहब, बीरसिह जोरू को साथ लेकर लड़ने गये हैं!

तारा : ठीक है, इन्हीं बातों को सोच कर आप मुझ पर ध्यान नहीं देते और मुझे मेरे उस बाप के हवाले किये जाते हैं, जिसके हाथ में उस दिन खून से भरा हुआ चाँदी का कटोरा.. (काँप कर) हाय हाय! जब वह बात याद आती है, कलेजा काँप उठता है, बेचारी कैसी खूबसूरत.. ओफ ! !

बीर० : ओफ! बड़ा ही गजब है, वह खून तो कभी भूलने वाला नहीं—मगर अब हो भी तो क्या हो ? तुम्हारे पिता लाचार थे, किसी तरह इनकार नहीं कर सकते थे ! (कुछ सोच कर) हाँ खूब याद आया, अच्छा सुनो, एक तरकीब सूझी है।

यह कह कर बीरसिंह तारा के पास बैठ गए और धीरे-धीरे बातें करने लगे।

उधर अंगूर की टट्टियों में छिपा हुआ वह आदमी, जिसके बारे में हम इस बयान के शुरू में लिख आए हैं, इन्हीं दोनों की तरफ एकटक देख रहा था। यकायक पत्तों की खड़खड़ाहट और पैर की आहट ने उसे चौंका दिया। वह होशियार हो गया और पीछे फिर कर देखने लगा, एक आदमी को अपने पास आते देख धीरे-से बोला, “कौन है, सुजनसिह?” इसके जवाब में “हाँ” की आवाज आई और सुजनसिह उस आदमी के पास जाकर धीरे-से बोला, “भाई रामदास, अगर तुम मुझे यहाँ से चले जाने की आज्ञा दे देते तो मैं जन्म-भर तुम्हारा अहसान मानता!”

रामदास : कभी नहीं, कभी नहीं !

सुजन० : तो क्या मुझे अपने हाथ से अपनी लड़की तारा का खून करना पड़ेगा?

रामदास : बेशक, अगर वह मंजूर न करेगी तो।

सुजन० : नहीं नहीं, ऐसा कैसे हो सकता है! अभी से मेरा हाथ काँप रहा है और कटार गिरी पड़ती है।

रामदास : झख मार के तुम्हें ऐसा करना होगा!

सुजन० : मेरे हाथों की ताकत तो अभी से जा चुकी है, मैं कुछ न कर सकूँगा।

रामदास : तो क्या वह ‘कटोरा-भर खून” वाली बात मुझे याद दिलानी पड़ेगी?

सुजन० : (काँप कर) ओफ! गजब है!! (रामदास के पैरों पर गिर कर) बस-बस, माफ करो, अब फिर उसका नाम न लो। मैं करूँगा और बेशक वही करूँगा जो तुम कहोगे। अगर मंजूर न करे तो अपने हाथ से अपनी लड़की तारा को मारने के लिए मैं तैयार हूँ, मगर अब उस बात का नाम न लो! हाय, लाचारी इसे कहते हैं!!

रामदास : अच्छा, अब हम लोगों को यहाँ से निकल कर फाटक की तरफ चलना चाहिए।

सुजन० : जो हुक्म।

राम० : मगर नहीं, क्या जाने ये लोग उधर न जाये। हाँ देखो, वे दोनों उठे। मैं बीरसिह के पीछे जाऊँगा, तारा तुम्हारे हवाले की जाती है।

इधर बंगले में बैठे हुए बीरसिंह और तारा की बातचीत समाप्त हुई। इस जगह हम यह नहीं कहा चाहते कि उन दोनों में चुपके-चुपके क्या बातें हुईं, मगर इतना जरूर कहेंगे कि तारा अब प्रसन्न मालूम होती है, शायद बीरसिह ने कोई बात उसके मतलब की कही हो या जो कुछ तारा चाहती थी उसे उन्होंने मंजूर किया हो !

बीरसिंह और तारा वहाँ से उठे और एक तरफ जाने के लिए तैयार हुए।

बीर० : तो अब मैं तुम्हारी लौंडियों को बुलाता हूँ और तुम्हें उनके हवाले करता हूँ।

तारा : नहीं, मैं आपको फाटक तक पहुँचा कर लौटूँगी, तब उन लोगों से मिलूँगी।

बीर० : जैसी तुम्हारी मर्जी।

हाथ में हाथ दिये दोनों वहाँ से रवाने हुए और बाग के पूरब तरफ, जिधर फाटक था, चले। जब फाटक पर पहुँचे तो बीरसिंह ने तारा से कहा, “बस अब तुम लौट जाओ।”

तारा : अब आप कितनी देर में आवेंगे?

बीर० : मैं नहीं कह सकता मगर पहर-भर के अन्दर आने की आशा कर सकता हूँ।

तारा : अच्छा जाइये मगर महाराज से न मिलियेगा।

बीर० : नहीं, कभी नहीं।

बीरसिह आगे की तरफ रवाना हुआ और तारा भी वहाँ से लौटी, मगर कुछ दूर उसी बंगले की तरफ आकर मुड़ी और दक्खिन तरफ घूमी, जिधर एक संगीन सजी हुई बारहदरी थी और वहाँ आपुस में कुछ बातें करती हुई कई नौजवान औरतें भी थीं जो शायद तारा की लौंडियाँ होंगी।

धीरे-धीरे चलती हुई तारा अंगूर की टट्टी के पास पहुँची। उसी समय उस झाड़ी में से एक आदमी निकला, जिसने लपक कर तारा को मजबूती से पकड़ लिया और उसे जमीन पर पटक छाती पर सवार हो बोला, “बस तारा! तेरे इस समय रोने या चिल्लाने की कोई जरूरत नहीं और न इससे कुछ फायदा है। बिना तेरी जान लिए अब मैं किसी तरह नहीं रह सकता!!”

तारा : (डरी हुई आवाज में) क्या मैं अपने पिता सुजनसिह को आवाज सुन रही हूँ?

सुजन० : हाँ, मैं ही कमबख्त तेरा बाप हूँ।

तारा : पिता! क्या तुम स्वयं मुझे मारने को तैयार हो?

सुजन० : नहीं, मैं स्वयम्‌ तुझे मार कर कोई लाभ नहीं उठा सकता, मगर क्या करूँ, लाचार हूँ .!

तारा: हाय! क्या कोई दुनिया में ऐसा है जो अपने हाथ से अपनी प्यारी लड़की को मारे?

सुजन० : एक अभागा तो मैं ही हूँ तारा! लेकिन अब तू कुछ मत बोल। तेरी प्यारी बातें सुन कर मेरा कलेजा काँपता है, रुलाई गला दबाती है, हाथ से कटार छूटा जाता है। बेटी तारा! बस तू चुप रह, मैं लाचार हूँ ! !

तारा : क्या किसी तरह मेरी जान नहीं बच सकती?

सुजन० : हाँ, बच सकती है अगर तू “हरी” वाली बात मंजूर करे।

तारा : ओफ, ऐसी बुरी बात का मान लेना तो बहुत मुश्किल है! खैर, अगर मैं वह भी मंजूर कर लूँ तो?

सुजन० : तो तू बच सकती है, मगर मैं नहीं चाहता कि तू उस बात को मंजूर करे।

तारा : बेशक, मैं कभी नहीं मंजूर कर सकती, यह तो केवल इतना जानने के लिए बोल बैठी कि देखूँ तुम्हारी क्या राय है?

सुजन० : नहीं, मैं उसे किसी तरह मंजूर नहीं कर सकता बल्कि तेरा मरना मुनासिब समझता हूँ। लेकिन हाय अफसोस! आज मैं कैसा अनर्थ कर रहा हूँ ! !

तारा : पिता, बेशक मेरी जिन्दगी तुम्हारे हाथ में है। क्या और नहीं तो केवल एक दफे किसी के चरणों का दर्शन कर लेने के लिए तुम मुझे छोड़ सकते हो ?

सुजन० : यह भी तेरी भूल है, जिससे तू मिलना चाहती है, वह भी घण्टे-भर के अन्दर ही इस दुनिया से कूच कर जाएगा, अब शायद दूसरी दुनिया में ही तेरी और उसकी मुलाकात हो ! !

तारा : हाय ! अगर ऐसा है तो मैं पति के पहिले ही मरने के लिए तैयार हूँ, बस अब देर मत करो। हैं! पिता! तुम रोते क्यों हो ? अपने को सम्हालो और मेरे मारने में अब देर मत करो ! !

सुजन० : (आंसू पोंछ कर) हाँ हाँ, ऐसा ही होगा, ले अब सम्हल जा ! !

कटोरा भर खून : खंड-2

बीरसिंह तारा से विदा होकर बाग के बाहर निकला और सड़क पर पहुंचा। इस सड़क के किनारे बड़े-बड़े नीम के पेड़ थे, जिनकी डालियों के ऊपर जाकर आपस में मिले रहने के कारण, सड़क पर पूरा अंधेरा था। एक तो अंधेरी रात, दूसरे बदली छाई हुई, तीसरे दुपट्टी घने पेड़ों की छाया ने पूरा अन्धकार कर रक्खा था।

मगर बीरसिंह बराबर कदम बढ़ाये चला जा रहा था। जब बाग की हद से दूर निकल गया तो यकायक पीछे किसी आदमी के आने की आहट पाकर रुका और फिर कर देखने लगा। मगर कुछ मालूम न पड़ा, लाचार पुनः आगे बढ़ा परन्तु चौकन्ना रहा, क्योंकि उसे दुश्मन के पहुंचने और धोखा देने का पूरा गुमान था।

आखिर थोड़ी दूर और आगे बढ़ने पर वैसा ही हुआ। बायें तरफ से झपटता हुआ एक आदमी आया और उसने अपनी तलवार से बीरसिंह का काम तमाम करना चाहा, मगर न हो सका, क्योंकि वह पहिले ही से सम्हला हुआ था। हाँ एक हलका- सा घाव जरूर लगा जिसके साथ ही उसने भी तलवार खेंच कर सामना किया और ललकारा। मगर अफसोस, उसके ललकार की आवाज ने उलटा ही असर किया अर्थात्‌ दो आदमी और निकल आये जो थोड़ी ही दूर पर एक पेड़ की आड़ में छिपे हुए थे। अब तीन आदमियों से उसे मुकाबला करता पड़ा।

बीरसिंह बेशक बहादुर आदमी था तथा उसके अंगों में ताकत के साथ-ही-साथ चुस्ती और फुर्ती भी थी। तलवार, बाँक, पटा और खंजर इत्यादि चलाने में वह पूरा ओस्ताद था। खराब-से-खराब तलवार भी उसके हाथ में पड़कर जौहर दिखाती थी और दो-एक दुश्मन को जमीन पर गिराये बिना न रहती थी।

इस समय उसकी जान लेने पर तीन आदमी मुस्तैद थे। तीनों आदमी तीन तरफ से तलवार चला रहे थे, मगर वह किसी तरह न सहमा और बेधड़क तीनों आदमियों की तलवारों को खाली देता और अपना वार करता था। थोड़ी ही देर में उसकी तलवार से जख्मी होकर एक आदमी जमीन पर गिर पड़ा। अब केवल दो आदमी रह गये पर उनमें से भी एक बहुत ही सुस्त और कमजोर हो रहा था। लाचार वह अपनी जान बचाकर सामने से भाग गया। अब सिर्फ एक आदमी उसके मुकाबले में रह गया। बेशक यह लड़ाका था और इसने आधे घण्टे तक अच्छी तरह से बीरसिंह का मुकाबला किया, बल्कि इसके हाथ से बीरसिंह के बदन पर कई जख्म लगे, मगर आखिर को बीरसिंह के अंतिम वार ने उसका सर धड़ से अलग करके फेंक दिया और वह हाथ-पैर पटकता हुआ जमीन पर दिखाई देने लगा।

अपने दुश्मन के मुकाबले में फतह पाने से बीरसिंह को खुश होना था मगर ऐसा न हुआ। हरारत मिटाने के लिए थोड़ी देर को वह एक पेड़ के नीचे बैठ गया ओर जब दम का फूलना बन्द हुआ तो यह कहता हुआ उठ खड़ा हुआ—“इन्हीं तीनों पर मामला खतम नहीं है, जरूर कोई भारी आफत आने वाली है। अब मैं आगे न बढ़ूँगा, बल्कि लौट चलूँगा, कहीं ऐसा न हो कि मेरी तरह बेचारी तारा को भी दुश्मनों ने घेर लिया हो !”

बीरसिंह जिधर जा रहा था, उधर न गया बल्कि तारा से मिलने के लिए फिर उसी बाग की तरफ लौटा, जहाँ से रवाना हुआ था। थोड़ी ही देर में वह बाग के अन्दर जा पहुँचा और तब सीधे उस बारह॒दरी में चला गया, जिसमें तारा की लौंडियाँ और सखियां बैठी आपस में बातें कर रही थीं। बीरसिंह को आते देख सब उठ खड़ी हुईं और तारा को उसके साथ न देख कर उसकी एक सखी ने पूछा, “मेरी तारा बहिन को कहाँ छोड़ा?”

बीर० : उसी से मिलने के लिए तो मैं आया हूँ, मुझे विश्वास था कि वह इसी जगह होगी।

सखी : वह तो आप के साथ थीं, यहाँ कब आई?

बीर०: अफसोस!

सखी : कुछ समझ में नहीं आता कि क्या मामला हुआ, आपने उन्हें कहाँ छोड़ा?

बीर० : इस समय कुछ कहने का मौका नहीं है, एक रोशनी लेकर मेरे साथ आओ ओर चारों तरफ बाग में खोजो कि वह कहाँ है।

बीरसिंह के यह कहने से उन औरतों में खलबली पड़ गई और वे सब घबड़ा कर इधर-उधर दौड़ने लगीं। दो लौंडियाँ लपक कर एक तरफ गई और जल्दी से दो मशाल जला कर ले आईं, बीरसिंह ने उन दोनों मशाल-वालियों के अतिरिक्त और भी कई लौंडियों को साथ लिया और बाग में चारों तरफ तारा को खोजने लगा मगर उसका कहीं पता न लगा।

बीरसिंह तारा को ढूँढ़ता और घूमता हुआ उसी अंगूर की टट्टी के पास पहुँचा और एकाएक जमीन पर एक लाश देख कर चौंक पड़ा। उसे विश्वास हो गया कि यह तारा की लाश है। बीरसिंह को रुकते देख लौंडियों ने मशाल को आगे किया और वह बड़े गौर से उस लाश की तरफ देखने लगा।

बीरसिंह ने समझ लिया था कि यह तारा की लाश है, मगर नहीं, वह तो एक कमसिन लड़के की लाश थी, जिसकी उम्र दस वर्ष से ज्यादे की न होगी। लाश का सिर न था जिससे पहिचाना जाता कि कौन है, मगर बदन के कपड़े बेशकीमती थे, हाथ में हीरे का जड़ाऊ कड़ा पड़ा हुआ था; उंगलियों में कई अंगूठियाँ भी थीं, गर्दन के नीचे जमीन पर गिरी हुई मोती की एक माला भी मौजूद थी।

बीर० : चाहे इसका सिर मौजूद न हो मगर गहने और कपड़े की तरफ खयाल करके मैं कह सकता हूँ कि यह हमारे महाराज के छोटे लड़के सूरज सिंह की लाश है।

एक लौंडी : यह क्या हुआ ? कुंअर साहब यहाँ क्योंकर आये और उन्हें किसने मारा?

बीर० : कोई गजब हो गया है, अब किसी तरह हम लोगों की जान नहीं बच सकती। जिस समय महाराज को खबर होगी कि कुंअर साहब की लाद बीरसिंह के बाग में पाई गई तो बेशक मैं खूनी ठहराया जाऊंगा। मेरी बेकसूरी किसी तरह साबित नहीं हो सकेगी और दुश्मनों को भी बात बढ़ाने और दुःख देने का मौका मिल जायेगा। हाय ! अब हमारे साथ हमारे रिश्तेदार लोग भी फांसी दे दिये जायेंगे। हे ईश्वर । धर्म पथ पर चलने का क्या यही बदला है ! !

अपनी-अपनी जान की फिक्र सभी को होती है, चाहे भाई-बन्द, रिश्तेदार हों या नौकर, समय पर काम आवे वही आदमी है, वही रिश्तेदार है, और वही भाई है। कुंअर साहब की लाश देख और बीरसिंह को आफत में फंसा जान धीरे-धीरे लौंडियों ने खिसकना शुरू किया, कई तो तारा को खोजने का बहाना करके चली गईं, कई ‘देखें इधर कोई छिपा तो नहीं है” कहकर आड़ में हो गई और मौका पा अपने घर में जा छिपी, और कोई बिना कुछ कहे चीख मार कर सामने से हट गईं और पीछा देकर भाग गई।

अगर किसी दूसरे की लाश होती तो शायद किसी तरह बचने की उम्मीद भी होती मगर यहाँ तो महाराज के लड़के की लाश थी—नामालूम इसके लिए कितने आदमी मारे जाएंगे, ऐसे मौके पर मालिक का साथ देना बड़े जीवट का काम है। हाँ, अगर मर्दों की मण्डली होती तो शायद दो-एक आदमी रह भी जाते मगर औरतों का इतना बड़ा कलेजा कहाँ? अब उस लाश के पास केवल बेचारा बीरसिंह रह गया। वह आधे घण्टे तक उस जगह खड़ा कुछ सोचता रहा, आखिर उस लाश को उठा कर उस तरफ चला, जिधर के दरख्त बहुत ही घने और गुंजान थे और जिधर लोगों की आमदरफ्त बहुत कम होती थी।

बीरसिंह ने उस गुंजान और भयानक जगह पर पहुंच कर उस लाश को एक जगह रख दिया और वहाँ से लौट कर उस तरफ गया, जिधर मालियों के रहने के लिए एक कच्चा मकान फूस की छावनी का बना हुआ था। अब बिजली चमकने और छोटी-छोटी बूंदें भी पड़ने लगीं।

बीरसिंह एक माली की झोपड़ी में पहुँचा। माली को गहरी नींद में पाया। एक तरफ कोने में दो-तीन कुदाल और फरसे पड़े हुए थे। बीरसिंह ने एक कुदाल उठा लिया और फिर उस जगह गया जहाँ लाश छोड़ आया था। इस समय तक वर्षा अच्छी तरह होने लगी थी और चारों तरफ अन्धकारमय हो रहा था। कभी-कभी बिजली चमकती थी तो जमीन दिखाई दे जाती, नहीं तो एक पैर भी आगे रखना मुश्किल था।

बीरसिंह को उस लाश का पता लगाना कठिन हो गया, जिसे उस जगह रख गया था। वह चाहता था कि उस लाश के पास पहुंच कर कुदाल से जमीन खोदे ओर जहाँ तक जल्द हो सके उसे जमीन में गाड़ दे, मगर न हो सका, क्योंकि इस अंधेरी रात में हजार ढूँढ़ने और सर पटकने पर भी वह लाश न मिली। जब-जब बिजली चमकती, वह उस निशान को अच्छी तरह पहिचानता, जिसके पास उस लाश को छोड़ गया था मगर ताज्जुब की बात थी कि लाश उसे दिखाई न पड़ी।

पानी ज्यादा बरसने के कारण बीरसिंह को कष्ट उठाना पड़ा, एक तो तारा की फिक्र ने उसे बेकाम कर दिया था दूसरे कुंअर साहब की लाश न पाने से वह अपनी जिन्दगी से भी नाउम्मीद हो गया था और अपने को तारा का पता लगाने लायक नहीं समझता था। बेशक, उसे अपने मालिक महाराज और कुंअर साहब की बहुत मुहब्बत थी, मगर इस समय वह यही चाहता था कि कुंअर साहब की लाश छिपा दी जाये और असल खूनी का पता लगाने के बाद ही यह भेद सभों पर खोला जाये। लेकिन यह न हो सका, क्योंकि कुंअर साहब की लाश जब तक वह कुदाल लेकर आवे इसी बीच में आश्चर्य रूप से गायब हो गई थी।

बीरसिंह हैरान और परेशान उस लाश को चारों तरफ खोज रहा था, पानी से उसकी पोशाक बिल्कुल तर हो रही थी। यकायक बाग के फाटक की तरफ उसे कुछ रोशनी नजर आई और वह उसी तरफ देखने लगा। वह रोशनी भी उसी की तरफ आ रही थी। जब बाग के अन्दर पहुँची, तो मालूम हुआ कि दो मशालों की रोशनी में कई आदमी मोमजामे का छाता लगाये और मशालों को भी छाते की आड़ में लिए बारहदरी की तरफ जा रहे है।

मुनासिब समझ कर बीरसिंह वहाँ से हटा और उन आदमियों के पहिले ही बारहदरी में जा पहुंचा। बारहदरी के पीछे की तरफ तोशेखाना था। वह उसमें चला गया और गीले कपड़े उतार दिये। सूखे कपड़े पहिनने की नौबत नहीं आई थी कि रोशनी लिये वे लोग बारहदरी में आ पहुंचे।

बीरसिंह केवल सूखी धोती पहिर कर उन लोगों के सामने आया। सभी ने झुक कर सलाम किया । इन आदमियों में दो महाराज करनसिंह के मुसाहब थे ओर बाकी के आठ महाराज के खास गुलाम थे। महाराज करनसिंह के यहाँ बीरसिंह की अच्छी इज्जत थी। यही सबब था कि महाराज के मुसाहब लोग भी इनका अदब करते थे। बीरसिंह की इज्जत और मिलनसारी तथा नेकियों का हाल आगे चलकर मालूम होगा।।

बीर० : [दोनों मुसाहबों की तरफ देख कर) आप लोगों को इस समय ऐसे आंधी-तूफान में यहाँ आने की जरूरत क्यों पड़ी?

एक मुसाहब : महाराज ने आपको याद किया है।

बीर० : कुछ सबब भी मालूम है?

मुसाहब : जी हाँ, कुंअर साहब के दुश्मनों की निस्बत सरकार ने कुछ बुरी खबर सुनी है इससे बहुत ही बेचैन हो रहे हैं।

बीर० : ( चौंक कर ) बुरी खबर? सो क्या?

मुसाहब : (ऊँची सांस लेकर) यही कि उनकी जिन्दगी शायद नहीं रही।

बीर० : (कांप कर) क्या ऐसी बात है?

मुसाहब : जी हाँ।

बीर० : मैं अभी चलता हूँ।

कपड़े पहिरने के लिए बीरसिंह तोशेखाने में गया । इस समय यहाँ कोई भी लौंडी मौजूद न थी जो कुछ काम करती। बीरसिंह की परेशानी का हाल लिखना इस किस्से को व्यर्थ बढ़ाना है। तो भी पाठक लोग ऊपर का हाल पढ़ कर जरूर समझ गये होंगे कि उसके लिए यह‌ समय कैसा कठिन और भयानक था। बेचारे को इतनी मोहलत भी न मिली कि अपनी स्त्री तारा का पता तो लगा लेता, जिसे वह अपनी जान से भी ज्यादे चाहता और मानता था।

बीरसिंह कपड़े पहिर कर महाराज के मुसाहबों और आदमियों के साथ रवाना हुआ। इस समय पानी का बरसना बिल्कुल बन्द हो गया था और रात एक पहर से भी कम रह गई थी। बीरसिंह खास महल की तरफ जा रहा था मगर तरह-तरह के खयालों ने उसे अपने आपे से बाहर कर रक्खा था अर्थात्‌ वह अपने विचारों में ऐसा लीन हो रहा था कि तन-बदन की सुध न थी, केवल मशाल की रोशनी में महाराज के आदमियों के पीछे चले जाने की खबर थी।

बीरसिंह कभी तो तारा के खयाल में डूब जाता और सोचने लगता कि वह यकायक कहाँ गायब हो गई या किस आफत में फंस गई? और कभी उसका ध्यान कुंअर साहब की लाश की तरफ जाता और जो-जो ताज्जुब की बातें हो चुकी थीं, उन्हें याद कर और उनके नतीजे के साथ अपने और अपने रिश्तेदारों पर भी आफत आई हुई जान उसका मजबूत कलेजा कांप जाता, क्योंकि बदनामी के साथ अपनी जान देना वह बहुत ही बुरा समझता था और लड़ाई में वीरता दिखाने के समय वह अपनी जान की कुछ भी कदर नहीं करता था। इसी के साथ-साथ वह जमाने की चालबाजियों पर भी ध्यान देता था और अपनी लौंडियों की बेमुरौवती याद कर क्रोध के मारे दांत पीसने लगता था। कभी-कभी वह इस बात को भी सोचता कि आज महाराज ने इतने आदमियों को भेजकर मुझे क्यों बुलवाया ?

इस काम के लिये तो एक अदना नौकर काफी था। खैर इस बात का तो यों जवाब देकर अपने दिल को समझा देता कि इस समय महाराज पर आफत आई हुई है, बेटे के गम में उनका मिजाज बदल गया होगा, घबराहट के मारे बुलाने के लिए इतने आदमियों को उन्होंने भेजा होगा।

इन्हीं सब बातों को सोचते हुए महाराज के आदमियों के पीछे-पीछे बीरसिंह जा रहा था। जब उस अंगूर की टट्टी के पास पहुंचा जिसका जिक्र कई दफे ऊपर आ चुका है या जिस जगह अपने निर्दयी बाप के हाथ में बेचारी तारा ने अपनी जान सौंप दी थी या जिस जगह कुंअर सूरज सिंह की लाश पाई गई थी तो यकायक दोनों मशालची रुके और चौंक कर बोले, “हैं! देखिए तो सही यह किसकी लाश है?”

इस आवाज ने सभी को चौंका दिया। दोनों मुसाहबों के साथ बीरसिंह भी आगे बढ़ा और पटरी पर एक लाश पड़ी हुई देख ताज्जुब करने लगा ! चाहे यह लाश बिना सिर की थी, तो भी बीरसिंह के साथ-ही-साथ महाराज के आदमियों ने भी पहिचान लिया कि कुंअर साहब की लाश है। अब बीरसिंह के ताज्जुब का कोई ठिकाना न रहा, क्योंकि इसी लाश को उठा कर वह गाड़ने के लिए एकान्त में ले गया था और जब माली की झोंपड़ी में से कुदाल लेकर आया तो वहाँ से गायब पाया था। देर तक ढूँढने पर भी जो लाश उसे न मिली, अब यकायक उसी लाश को फिर उसी ठिकाने देखता है, जहाँ पहिले देखा था या जहाँ से उठा कर गाड़ने के लिए एकान्त में ले गया था।

महाराज के आदमियों ने इस लाश को देख कर रोना और चिल्लाना शुरू किया। खूब ही गुल-शोर मचा। अपनी-अपनी झोंपड़ियों में बेखबर सोए हुए माली भी सब जाग पड़े और उसी जगह पहुंच कर रोने और चिल्लाने में शरीक हुए।

थोड़ी देर तक वहाँ हाहाकार मचा रहा, इसके बाद बीरसिंह ने अपने दोनों हाथों पर उस लाश को उठा लिया तथा रोता और आंसू गिराता महाराज की तरफ रवाना हुआ।

कटोरा भर खून : खंड-3

आसमान पर सुबह की सुफेदी छा चुकी थी जब लाश लिए हुए बीरसिंह किले में पहुंचा । वह अपने हाथों पर कुंअर साहब की लाश उठाये हुए था। किले के अन्दर की रिआया तो आराम में थी, केवल थोड़े-से बुड्ढे, जिन्हें खांसी ने तंग कर रक्खा था, जाग रहे थे और इस उद्योग में थे कि किसी तरह बलगम निकल जाए और उनकी जान को चैन मिले। हाँ, सरकारी आदमियों में कुछ घबराहट-सी फैली हुई थी और वे लोग राह में जैसे-जैसे बीरसिंह मिलते जाते उसके साथ होते जाते थे, यहाँ तक कि दीवानखाने की ड्योढ़ी पर पहुँचते-पहुँचते पचास आदमियों की भीड़ बीरसिंह के साथ हो गई, मगर जिस समय उसने दीवानखाने के अन्दर पैर रक्खा, आठ-दस आदमियों से ज्यादा न रहे। कुंअर साहब की मौत की खबर यकायक चारों तरफ फल गई और इसलिए बात-की-बात में वह किला मातम का रूप हो गया और चारों तरफ हाहाकार मच गया।

दीवानखाने में अभी तक महाराज करनसिंह गद्दी पर बैठे हुए थे । दो-तीन दीवारगीरों में रोशनी हो रही थी, सामने दो मोमी शमादान जल रहे थे। बीरसिंह तेजी के साथ कदम बढ़ाते हुए महाराज के सामने जा पहुंचा और कुंअर साहब की लाश आगे रख अपने सर पर दुहत्थड़ मार रोने लगा।

जैसे ही महाराज की निगाह उस लाश पर पड़ी उनकी तो अजब हालत हो गई। नजर पड़ते ही पहिचान गए कि यह लाश उनके छोटे लड़के सूरजसिह की है। महाराज के रंज और गम का कोई ठिकाना न रहा। वे फूट-फूट कर रोने लगे और उनके साथ-साथ और लोग भी हाय-हाय करके रोने और सर पीटने लगे।

हम उस समय के गम की हालत और महल में रानियों की दशा को अच्छी तरह लिख कर लेख को व्यर्थ बढ़ाना नहीं चाहते, केवल इतना लिख देना बहुत होगा कि घण्टे-भर दिन चढ़ने तक सिवाय रोने-धोने के महाराज का ध्यान इस तरफ नहीं गया कि कुंअर साहब की मौत का सबब पूछें या यह मालूम करें कि उनकी लाश कहाँ पाई गई। आखिर महाराज ने अपने दिल को मजबूत किया और कुंअर साहब की मौत के बारे में बीरसिंह से बातचीत करने लगे।

महा० : हाय, मेरे प्यारे लड़के को किसने मारा?

बीर० : महाराज, अभी तक यह नहीं मालूम हुआ कि यह अनर्थ किसने किया।

महाराज ने उन दोनों मुसाहबों में से एक की तरफ देखा जो बीरसिंह को लेने के लिए खिदमतगारों के साथ बाग में गए थे।

महा० : क्यों हरीसिंह, तुम्हें कुछ मालूम है?

हरी० : जी कुछ भी नहीं, हाँ इतना जानता हूँ कि जब हुक्म के मुताबिक हम लोग बीरसिंह को बुलाने गये तो इन्हें घर न पाया, लाचार पानी बरसते ही में इनके बाग में पहुँचे और इन्हें वहाँ पाया। उस समय ये नंगे बदन हम लोगों के सामने आये। इनका बदन गीला था, इससे मुझे मालूम हो गया कि ये कहीं पानी में भीग रहे थे और कपड़े बदलने को ही थे कि हम लोग जा पहुँचे। खैर, हम लोगों ने सरकारी हुक्म सुनाया और ये भी जल्द कपड़े पहिन हम लोगों के साथ हुए। उस समय पानी का बरसना बिल्कुल बन्द था। जब हम लोग बाग के बीचोबीच अंगूर की टट्टियों के पास पहुँचे तो यकायक इस लाश पर नजर पड़ी।

महा० : (कुछ सोच कर) हम कह तो नहीं सकते, क्योंकि चारों तरफ लोगों में बीरसिंह नेक, ईमानदार और रहमदिल मशहूर हैं, मगर जैसाकि तुम बयान करते हो अगर ठीक है तो हमें बीरसिंह के ऊपर शक होता है !

हरी० : ताबेदार की क्या मजाल कि महाराज के सामने झूठ बोले! बीरसिंह मौजूद हैं, पूछ लिया जाये कि मैं कहाँ तक सच्चा हूँ।

बीर० : (हाथ जोड़कर) हरीसिंह ने जो कुछ कहा, वह बिल्कुल सच है—मगर महाराज, यह कब हो सकता है कि मैं अपने अन्नदाता और ईश्वर-तुल्य मालिक पर इतना बड़ा जुल्म करूँ!

महा० : शायद ऐसा ही हो, मगर यह तो कहो कि मैंने तुमको एक मुहिम पर जाने के लिए हुक्म दिया था और ताकीद कर दी थी कि आधी रात बीतने के पहिले ही यहाँ से रवाना हो जाना, फिर क्या सबब है कि तीन पहर बीत जाने पर भी तुम अपने बाग ही में मौजूद रहे और तिस पर भी वैसी हालत में जैसा कि हरीसिंह ने बयान किया? इसमें कोई भेद जरूर है!

बीर० : इसका सबब केवल इतना ही है कि बेचारी तारा के ऊपर एक आफत आ गई और वह किसी दुश्मन के हाथ में पड़ गई, मैं उसी को चारों तरफ ढूंढ़ रहा था, इसी में देर हो गई। जब तक मैं ढूँढ़ता रहा, पानी बरसता रहा, इसी से मेरे कपड़े भी गीले हो गए और मैं उस हालत में पाया गया जैसाकि हरीसिंह ने बयान किया है।

महा० : ये सब बातें बिल्कुल फजूल हैं। अगर तारा का गायब हो जाना ठीक है तो यह कोई ताज्जुब की बात नहीं, क्योंकि वह बदकार औरत है, बेशक, किसी के साथ कहीं चली गई होगी और उसका ऐसा करना तुम्हारे लिए एक बहाना हाथ लगा।

‘तारा बदकार औरत है’ यह बात बीरसिंह को गोली के समान लगी क्योंकि वे खूब जानते थे कि तारा पतिव्रता है और उन पर उसका प्रेम सच्चा है। मारे क्रोध के बीरसिंह की आँखें लाल हो गईं और बदन काँपने लगा, मगर इस समय क्रोध करना सभ्यता के बाहर जान चुप हो रहें और अपने को सँभाल कर बोले :

बीर० : महाराज, तारा के विषय में ऐसा कहना अनर्थ करना है!

हरी० : महाराज ने जो कुछ कहा, ठीक है ! (महाराज की तरफ देखकर ) बीरसिंह पर शक करने का ताबेदार को और भी मौका मिला है।

महा० : वह क्या?

हरी० : कुंवर साहब जिन तीन आदमियों के साथ यहाँ से गये थे उनमें से दो आदमियों को बीरसिंह ने जान से मार डाला और सिर्फ एक भाग कर बच गया। जब हम लोग बीरसिंह को बुलाने के लिये उनके बाग की तरफ जा रहे ये उस समय यह हाल उसी की जुबानी मालूम हुआ था। इस समय वह आदमी भी जिसका नाम रामदास है, ड्यौढ़ी पर मौजूद है।

महा० : हा ! क्या ऐसी बात है?

हरी० : मैं महाराज के कदमों की कसम खाकर कहता हूँ कि यह हाल खुद रामदास ने मुझसे कहा है।

जिस समय हरीसिंह ये बातें कह रहा था, महाराज की निगाह कुंअर साहब की लाश पर थी। यकायक कलेजे में कोई चीज नजर आई, महाराज ने हाथ बढ़ा- कर देखा तो मालूम हुआ, छुरी का मुट्ठा है, जिसका फल बिलकुल कलेजे के अन्दर घुसा हुआ था। महाराज ने छुरी को निकाल लिया और पोंछ कर देखा। कब्जे पर ‘राजकुमार बीरसिंह’ खुदा हुआ था।

अब महाराज की हालत बिलकुल बदल गई, शोक के बदले क्रोध की निशानी उनके चेहरे पर दिखाई देने लगी और होंठ काँपने लगे। बीरसिंह ने चौंक कर कहा, “बेशक, यह मेरी छुरी है, आज कई दिन हो गये, चोरी गई थी। मैं इसकी खोज में था मगर पता नहीं लगता था।“

महा० : बस, चुप रह नालायक! अब तू किसी तरह अपनी बेकसूरी साबित नहीं कर सकता! हाय, क्या इसी दिन के लिए मैंने तुझे पाला था? अब मैं इस समय तेरी बातें नहीं सुनना चाहता! (दरवाजे की तरफ देख कर) कोई है? इस हरामजादे को अभी ले जाकर कैदखाने में बन्द करो, हम अपने हाथ से इसका और इसके रिश्तेदारों का सिर काट कर कलेजा ठंडा करेंगे! (हरीसिंह की तरफ देख कर) तुम सौ सिपाहियों को लेकर जाओ, इस कम्बखत का घर घेर लो और सब औरत-मर्दों को गिरफ्तार करके कैदखाने में डाल दो।

फौरन महाराज के हुक्म की तामील की गई और महाराज उठकर महल में चले गये।

कटोरा भर खून : खंड-4

ऊपर लिखी वारदात के तीसरे दिन आधी रात के समय बीरसिंह के बाग में उसी अंगूर की टट्टी के पास एक लंबे कद का आदमी स्याह कपड़े पहिरे इधर-से-उधर टहल रहा है। आज इस बाग में रौनक नहीं, बारहदरी में लौंडियों और सखियों की चहल-पहल नहीं, सजावट को तो जाने दीजिये, कहीं एक चिराग तक नहीं जलता; मालियों की झोंपड़ी में भी अंधेरा पड़ा है। बल्कि यों कहता चाहिए कि चारों तरफ सन्नाटा छाया हुआ है। वह लंबे कद का आदमी अंगूर की टट्टियों से लेकर बारहदरी और उसके पीछे तोशेखाने तक जाता है और लौट आता है मगर अपने को हर तरह छिपाये हुए है, जरा-सा भी खटका होने से या एक पते के भी खड़कने से वह चौकन्ना हो जाता हैं और अपने को किसी पेड़ या झाड़ी की आड़ में छिपा कर देखने लगता है!

इस आदमी को टहलते हुए दो घण्टे बीत गये, मगर कुछ मालूम न हुआ कि वह किस नीयत से चक्कर लगा रहा है या किस धुन में पड़ा हुआ है। थोड़ी देर और बीत जाने पर बाग में एक आदमी के आने की आहट मालूम हुई। लंबे कद वाला आदमी एक पेड़ की आड़ में छिप कर देखने लगा कि यह कौन है और किस काम के लिए आया है।

वह आदमी जो अभी आया है सीधे बारहदरी में चला गया! कुछ देर तक वहाँ ठहर कर पीछे वाले तोशेखाने में गया और ताला खोलकर तोशेखाने के अन्दर घुस गया। थोड़ी देर बाद एक छोटा-सा डिब्बा हाथ में लिए हुए निकला और ताला बन्द करके बाग के बाहर की तरफ चला। वह थोड़ी ही दूर गया था के उस लंबे कद के आदमी ने जो पहिले ही से घात में लगा हुआ था, पास पहुँच कर पीछे से उसके दोनों बाजू मजबूत पकड़ लिये और इस जोर से झटका दिया कि वह सम्हल न सका और जमीन पर गिर पड़ा। लंबे कद का आदमी उसकी छाती पर चढ़ बैठा और बोला, “सच बता, तू कौन है, तेरा क्या नाम है, यहाँ क्यों आया, और क्या लिये जाता है?”

यकायक जमीन पर गिर पड़ने और अपने को बेबस पाने से वह आदमी बदहवास हो गया और सवाल का जवाब न दे सका। उस लंबे कद के आदमी ने एक घूँसा उसके मुँह पर जमा कर फिर कहा, “जो कुछ मैंने पूछा है उसका जवाब जल्द दे, नहीं तो अभी गला दबा कर तुझे मार डालूँगा!”

आखिर लाचार हो और अपनी मौत छाती पर सवार जान उसने जवाब दिया: “मैं बीरसिंह का नौकर हूँ, मेरा नाम श्यामलाल है, मुझे मालिक ने अपनी मोहर लाने के लिए यहाँ भेजा था, सो लिए जाता हूँ। मैंने कोई कसूर नहीं किया, मालूम नहीं आप मुझे क्यों….”

इससे ज्यादे वह कहने नहीं पाया था कि उस लंबे कद के आदमी ने एक घूँसा और उसके मुँह पर जमा कर कहा, “हरामजादे के बच्चे, अभी कहता है कि मैंने कोई कसूर नहीं किया! मुझी से झूठ बोलता है? जानता नहीं, मैं कौन हूँ? ठीक॑ है, तू क्योंकर जान सकता है कि मैं कौन हूँ? अगर जानता तो मुझसे झूठ कभी न बोलता। मैं बोली ही से तुझे पहिचान गया कि तू बीरसिंह का आदमी नहीं है, बल्कि उस बेईमान राजा करनसिंह का नौकर है, जो एक भारी जुल्म और अँधेर करने पर उतारू हुआ है। तेरा नाम बच्चनसिंह है। मैं तुझे इस झूठ बोलने की सजा देता और जान से मार डालता, मगर नहीं, तेरी जुबानी उस बेईमान राजा को एक संदेशा कहला भेजना है, इसलिए छोड़ देता हूँ। सुन और ध्यान देकर सुन, मेरा ही नाम नाहरसिंह है, मेरे ही डर से तेरे राजा की जान सूखी जाती है, मेरे ही नाम से यह हरिपुर शहर काँप रहा है, और मुझी को गिरफ्तार करने के लिए तेरे बेईमान राजा ने बीरसिंह को हुक्म दिया था, लेकिन वह जाने भी न पाया था कि बेचारे को झूठा इल्जाम लगाकर गिरफ्तार कर लिया! ( मोहर का डिब्बा बच्चनसिंह के हाथ से छीन कर) राजा से कह दीजियो कि मोहर का डिब्बा नाहरसिंह ने छीन लिया, तू नाहरसिंह को गिरफ्तार करने के लिए वृथा ही फौज भेज रहा है। न मालूम तेरी फौज कहाँ जाएगी और किस जगह ढूंढ़ेगी, वह तो हर दम इसी शहर में रहता है, देख सम्हल बैठ, अब तेरी मौत आ पहुँची, यह न समझियो कि कटोरा भर खून का हाल नाहरसिंह को मालूम नहीं है ! !

बच्चन० : कटोरा भर खून कैसा?

नाहर० : (एक मुक्का और जमाकर) ऐसा, तुझे पूछने से मतलब? जो मैं कहता हूँ, जाकर कह दे और यह भी कह दीजियो कि अगर बन पड़ा और फुरसत मिली तो आज के आठवें दिन सनीचर को तुझसे मिलूँगा। बस जा! हाँ, एक बात और याद आई, कह दीजियो कि जरा कुंअर साहब को अच्छी तरह बन्द करके रक्खें, जिसमें भण्डा न फूटे ! !

नाहरसिंह डाकू ने बच्चन को छोड़ दिया और मोहर का डिब्बा लेकर न-मालूम कहाँ चला गया। नाहरसिंह के नाम से बच्चन यहाँ तक डर गया था कि उसके चले जाने के बाद भी घण्टे-भर तक वह अपने होश में न आया। बच्चन क्या, इस हरिपुर में कोई भी ऐसा नहीं था जो नाहरसिंह डाकू का नाम सुनकर काँप न जाता हो।

थोड़ी देर बाद जब बच्चनसिंह के होश-हवास दुरुस्त हुए, वहाँ से उठा और राजमहल की तरफ रवाना हुआ। राजमहल यहाँ से बहुत दूर न था तो भी आध कोस से कम न होगा। दो घण्टे से भी कम रात बाकी होगी, जब बच्चनसिंह राजमहल की कई ड्योढ़ियाँ लांघता हुआ दीवानखाने में पहुँचा और महाराज करनसिंह के सामने जाकर हाथ जोड़ खड़ा हो गया। इस सजे हुए दीवानखाने में मामूली रोशनी हो रही थी, महाराज किमखाब की ऊँची गद्दी पर, जिसके चारों तरफ मोतियों की झालर लगी हुई थी, विराज रहे थे, दो मुसाहब उनके दोनों तरफ बैठे थे, सामने कलम-दवात-कागज और कई बन्द कागज के लिखे हुए और सादे भी मौजूद थे।

इस जगह पर पाठक कहेंगे कि महाराज का लड़का मारा गया है, इस समय वह सूतक में होंगे, महाराज पर कोई निशानी गम की क्यों नहीं दिखाई पड़ती?

इसके जवाब में इतना जरूर कह देना मुनासिब है कि पहिले जो गद्दी का मालिक होता था, प्रायः वह मुर्दे को आग नहीं देता था और न स्वयं क्रिया-कर्म करने वालों की तरह सिर मुंडा अलग बैठता था, अब भी कई रजवाड़ों में ऐसा ही दस्तूर चला आता है। इसके अतिरिक्त यहाँ तो कुंअर साहब के मरने का मामला ही विचित्र था, जिसका हाल आगे चलकर मालूम होगा।

बच्चन ने रुक कर सलाम किया और हाथ जोड़ सामने खड़ा हो गया। नाहरसिंह डाकू के ध्यान से डर के सारे वह अभी तक काँप रहा था।

महा० : मोहर लाया?

बच्चन० : जी.. लाया तो था.. .. मगर राह में नाहरसिंह डाकू ने छीन लिया।

महा० : (चौंक कर) नाहरसिंह डाकू ने?

बच्चन० : जी हाँ।

महा० : क्या वह आज इसी शहर में आया हुआ है?

बच्चन० : जी हाँ, बीरसिंह के बाग में ही मुझे मिला था।

महा० : साफ-साफ कह जा, क्या हुआ?

बच्चन ने बीरसिंह के तोशेखाने से मोहर लेकर चलने का और उसी बाग में नाहरसिंह के मिलने का हाल पूरा-पूरा कहा। जब बह संदेशा कहा, जो डाकू ने महाराज को दिया था, तो थोड़ी देर के लिए महाराज चुप हो गए और कुछ सोचने लगे, आखिर एक ऊँची सांस लेकर बोले—

महा० : यह शैतान डाकू न-मालूम क्यों मेरे पीछे पड़ा हुआ, है और किसी तरह गिरफ्तार भी नहीं होता। मुझे बीरसिंह की तरफ से छुट्टी मिल जाती तो कोई-न-कोई तरकीब उसके गिरफ्तार करने की जरूर करता। कुछ समझ में नहीं आता कि मेरी उन कार्रवाइयों का पता उसे क्योंकर लग जाता है, जिन्हें मैं बड़ी होशियारी से छिपा कर करता हूँ। (हरीसिंह की तरफ देख कर) क्यों हरीसिंह, तुम इस बारे में कुछ कह सकते हो?

हरी० : महाराज! उसकी बातों में अक्ल कुछ भी काम नहीं करती! मैं क्या कहूँ?

महा० : अफसोस! अगर मेरी रिआया बीरसिंह से मुहब्बत न रखती, तो मैं उसे एकदम मार कर ही बखेड़ा तय कर देता, मगर जब तक बीरसिंह जीता है, मैं किसी तरह निश्चिंत नहीं हो सकता। खैर, अब तो बीरसिंह पर एक भारी इल्जाम लग चुका है, परसों मैं आम दरबार करूँगा। रिआया के सामने बीरसिंह को दोषी ठहरा कर फाँसी दूँगा, फिर उस डाकू से समझ लूँगा, आखिर वह हरामजादा है क्या चीज!

महाराज ने आखिरी शब्द कहा ही था कि दरवाजे की तरफ से यह आवाज आई, “बेशक, वह डाकू कोई चीज नहीं है, मगर एक भूत है, जो हरदम तेरे साथ रहता हैं और तेरा सब हाल जानता है, देख इस समय यहाँ भी आ पहुँचा!”

यह आवाज सुनते ही महाराज काँप उठे, मगर उनकी हिम्मत और दिलाबरी ने उन्हें उस हालत में देर तक रहने न दिया; म्यान से तलवार खैंच कर दरवाजे की तरफ बढ़े, दोनों मुलाजिम लाचार साथ हुए, मगर दरवाजे में बिलकुल अंधेरा था, इसलिए आगे बढ़ने की हिम्मत न हुई, आखिर यह कहते हुए पीछे लौटे कि ‘नालायक ने अंधेरा कर दिया!

कटोरा भर खून : खंड-5

बेचारे बीरसिंह कैदखाने में पड़े सड़ रहे हैं। रात की बात ही निराली है, इस भयानक कैदखाने में दिन को भी अंधेरा ही रहता है; यह कैदखाना एक तहखाने के तौर पर बना हुआ है, जिसके चारों तरफ की दीवारें पक्की और मजबूत हैं। किले से एक मील की दूरी पर जो कैदखाना था और जिनमें दोषी कैद किए जाते थे, उसी के बीचोबीच यह तहखाना था, जिसमें बीरसिंह कैद थे। लोगों में इसका नाम ‘आफत का घर’ मशहूर था। इसमें वे ही कैदी कैद किए जाते थे, जो फाँसी देने के योग्य समझे जाते या बहुत ही कष्ट देकर मारने योग्य ठहराये जाते थे। इस कैदखाने के दरवाजे पर पचास सिपाहियों का पहरा पड़ा करता था।

नीचे उतरकर तहखाने में जाने के लिए पाँच मजबूत दरवाजे थे और हर एक दरवाजे में मजबूत ताला लगा रहता था। इस तहखाने में न-मालूम कितने कैदी सिसक-सिसक कर मर चुके थे। आज बेचारे बीरसिंह को भी हम इसी भयानक तहखाने में देखते हैं। इस समय इनकी अवस्था बहुत ही नाजुक हो रही है। अपनी बेकसूरी के साथ-ही-साथ बेचारी तारा की जुदाई का गम और उसके मिलने की नाउम्मीदी इन्हें मौत का पैगाम दे रही है। इसके अतिरिक्त न-मालूम और कैसे-कैसे खयालात इनके दिल में काँटे की तरह खटक रहे हैं। तहखाना बिलकुल अन्धकारमय है, हाथ को हाथ नहीं सूझता और यह भी नहीं मालूम होता कि दरवाजा किस तरफ है और दीवार कहाँ है?

इस जगह कैद हुए इन्हें आज चौथा दिन है। इस बीच में केवल थोड़ा-सा सूखा चना खाने के लिए और गरम जल पीने के लिए इन्हें मिला था, मगर बीरसिंह ने उसे छुआ तक नहीं और एक लम्बी साँस लेकर लौटा दिया था। इस समय गर्मी के मारे दुखित हो तरह-तरह की बातों को सोचते हुए बेचारे बीरसिंह, जमीन पर पड़े, ईश्वर से प्रार्थना कर रहे हैं। यह भी नहीं मालूम कि इस समय दिन है या रात।

यकायक दीवार की तरफ कुछ खटके की आवाज हुई, यह चैतन्य होकर उठ बैठे और सोचने लगे कि शायद कोई सिपाही हमारे लिए अन्न या जल लेकर आता है–मगर नहीं, थोड़ी ही देर में कई दफे आवाज आने से इन्हें गुमान हुआ, शायद कोई आदमी इस तहखाने की दीवार तोड़ रहा है या सेंध लगा रहा है।

आखिर उनका सोचना सही निकला और थोड़ी देर बाद दीवार के दूसरी तरफ रोशनी नजर आई। साफ मालूम हुआ कि बगल वाली दीवार तोड़ कर किसी ने दो हाथ के पेटे का रास्ता बना लिया है। अभी तक उन्हें इस बात का गुमान भी न था कि उनसे मिलने के लिए कोई आदमी इस तरह दीवार तोड़ कर आवेगा। उस सेंध के रास्ते हाथ में रोशनी लिए एक लम्बे कद का आदमी स्याह पोशाक पहिरे मुँह पर नकाब डाले उनके सामने आ खड़ा हुआ और बोला :

आदमी : मैं तुम्हें छुड़ाने के लिए यहाँ आया हूँ, उठो और मेरे साथ यहाँ से निकल चलो।

बीर० : इसके पहिले कि तुम मुझे यहाँ से छुड़ाओ, मैं जानना चाहता हूँ कि तुम्हारा नाम क्या है और मुझ पर मेहरबानी करने का क्या सबब है?

आदमी : इस समय यहाँ पर इसके पूछने की कोई जरूरत नहीं, क्योंकि समय बहुत कम है। यहाँ से निकल चलने पर मैं अपना पता तुम्हें दूँगा, इस समय इतना ही कहे देता हूँ कि तुम्हें बेकसूर समझ कर छुड़ाने के लिए आया हूँ।

बीर० : सब आदमी जानते हैं कि मुझ पर कुंअर साहब का खून साबित हो चुका है, तुम मुझे बेकसूर क्यों समझते हो?

आदमी : मैं खूब जानता हूँ कि तुम बेकसूर हो।

बीर० : खैर, अगर ऐसा भी हो तो यहाँ से छूट कर भी मैं महाराज के हाथ से अपने को क्योंकर बचा सकता हूँ?

आदमी : मैं इसके लिए भी बन्दोबस्त कर चुका हूँ।

बीर० : अगर तुमने मेरे लिए इतनी तकलीफ उठाई है तो क्या मेहरबानी करके इसका बन्दोबस्त भी कर सकोगे कि निर्दोषी बन कर लोगों को अपना मुँह दिखाऊँ और कुँअर साहब का खूनी गिरफ्तार हो जाये? क्योंकि यहाँ से निकल भागने पर लोगों को मुझ पर और भी सन्देह होगा, बल्कि विश्वास हो जाएगा कि जरूर मैंने ही कुँअर साहब को मारा है।

आदमी : तुम हर तरह से निश्चित रहो, इन सब बातों को मैं अच्छी तरह सोच चुका हूँ, बल्कि मैं कह सकता हूँ कि तुम तारा के लिए भी किसी तरह की चिन्ता मत करो।

बीर० : (चौंककर) क्या तुम मेरे लिए ईश्वर होकर आए हो! इस समय तुम्हारी बातें मुझे हद से ज्यादा खुश कर रही हैं!

आदमी : बस इससे ज्यादा मैं कुछ नहीं कहा चाहता ओर हुक्म देता हूँ कि तुम उठो और मेरे पीछे-पीछे आओ।

बीरसिंह उठा और उस आदमी के साथ-साथ सुरंग की राह तहखाने के बाहर हो गया। अब मालूम हुआ कि कैदखाने की दीवारों के नीचे-नीचे से यह सुरंग खोदी गई थी।

बाहर आने के बाद बीरसिंह ने सुरंग के मुहाने पर चार आदमी और मुस्तैद पाये जो उस लम्बे आदमी के साथी थे। ये छः आदमी वहाँ से रवाना हुए और ठीक घण्टे-भर चलने के बाद एक छोटी नदी के किनारे पहुँचे। वहाँ एक छोटी सी डोंगी मौजूद थी, जिस पर आठ आदमी हल्की-हल्की डांड लिए मुस्तैद थे।

अपने साथी के कहे मुताबिक बीरसिंह उस किश्ती पर सवार हुए और किश्ती बहाव की तरफ छोड़ दी गई। अब बीरसिंह को मौका मिला कि अपने साथियों की ओर ध्यान दे और उनकी आकृति को देखे। लंबे कद के आदमी ने अपने चेहरे से नकाब हटाई और कहा, “बीरसिंह ! देखो और मेरी सूरत हमेशा के लिए पहिचान लो!”

बीरसिंह ने उसकी सूरत पर ध्यान दिया। रात बहुत थोड़ी बाकी थी तथा चन्द्रमा भी निकल आया था, इसलिए बीरसिंह को उसको पहिचानने ओर उसके अंगों पर ध्यान देने का पूरा-पूरा मौका मिला।

उस आदमी की उम्र लगभग पैंतीस वर्ष की होगी। उसका रंग गोरा, बदन साफ सुडौल और गठीला था, चेहरा कुछ लंबा, सिर के बाल बहुत छोटे और घुंघराले थे। ललाट चौड़ा, भौंहें काली और बारीक थीं, आँखें बड़ी-बड़ी और नाक लंबी, मूँछ के बाल नर्म मगर ऊपर की तरफ चढ़े हुए थे। उसके दाँतों की पंक्ति भी दुरुस्त थी। उसके दोनों होंठ नर्म मगर नीचे का कुछ मोटा था। उसकी गरदन सुराहीदार और छाती चौड़ी थी। बाँह लम्बी और कलाई मजबूत थी तथा बाजू और पिण्डलियों की तरफ ध्यान देने से बदन कसरती मालूम होता था। हर बातों पर गौर करके हम कह सकते हैं कि वह एक खूबसूरत और बहादुर आदमी था। बीरसिंह को उसकी सूरत दिल से भाई, शायद इस सबब से कि वह बहुत ही खूबसूरत और बहादुर था, बल्कि अवस्था के अनुसार कह सकते हैं कि बीरसिंह की बनिस्बत उसकी खूबसूरती बढ़ी-चढ़ी थी, मगर देखा चाहिए, नाम सुनने पर भी बीरसिंह की मुहब्बत उस पर उतनी ही रहती है या कुछ कम हो जाती है।

बीर० : आपकी नेकी और अहसान की तारीफ मैं कहाँ तक करूँ! आपने मेरे साथ वह बर्ताव किया है जो प्रेमी भाई भाई के साथ करता है, आशा है कि अब आप अपना नाम भी कह कर कृतार्थ करेंगे।

आदमी : (चेहरे पर नकाब डालकर) मेरा नाम नाहरसिंह है।

बीर० : (चौंक कर) नाहरसिंह! जो डाकू के नाम से मशहूर है!

नाहर० : हाँ।

बीर० : (उसके साथियों की तरफ देख कर और उन्हें मजबूत और ताकतवर समझ कर) मगर आपके चेहरे पर कोई भी निशानी ऐसी नहीं पाई जाती, जो आपका डाकू या जालिम होना साबित करे। मैं समझता हूँ कि शायद नाहरसिंह डाकू कोई दूसरा ही आदमी होगा।

नाहर० : नहीं नहीं, वह मैं ही हूँ, मगर सिवाय महाराज के और किसी के लिए मैं बुरा नहीं। महाराज ने तो मेरी गिरफ्तारी का हुक्म दिया था न?

वीर० : ठीक है, मगर इस समय तो मैं ही आपके अधीन हूँ।

नाहर० : ऐसा न समझो; अगर तुम मुझे गिरफ्तार करने के लिए कहीं जाते और मेरा सामना हो जाता, तो भी मैं तुम से आज ही की तरह मिल बैठता। बीरसिंह, तुम यह नहीं जानते कि यह राजा कितना बड़ा शैतान और बदमाश है! बेशक, तुम कहोगे कि उसने तुम्हारी परवरिश की और तुम्हें बेटे की तरह मान कर एक ऊंचा मर्तबा दे रक्खा है, मगर नहीं, उसने अपनी खुशी से तुम्हारे साथ ऐसा बर्ताव नहीं किया, बल्कि मजबूर होकर किया। मैं सच कहता हूँ कि वह तुम्हारा जानी दुश्मन है। इस समय शायद तुम मेरी बात न मानोगे, मगर मैं विश्वास करता हूँ कि थोड़ी ही देर में तुम खुद कहोगे कि जो मैं कहता था, सब ठीक है।

बीर० : (कुछ सोच कर) इसमें तो कोई शक नहीं कि राजाओं में जो-जो बातें होनी चाहिये, वे उसमें नहीं हैं मगर इस बात का कोई सबूत अभी तक नहीं मिला कि उसने मेरे साथ जो कुछ नेकी की, लाचार होकर की।

नाहर० : अफसोस कि तुम उसकी चालाकी को अभी तक नहीं समझे, यद्यपि कुंअर साहब की लाश की बात अभी बिल्कुल ही नई है!

बीर० : कुंअर साहब की लाश से क्या तात्पर्य? मैं नहीं समझा।

नाहर० : खैर, यह भी मालूम हो जाएगा, पर अब मैं तुमसे पूछना चाहता हूँ कि तुम मुझ पर सच्चे दिल से विश्वास कर सकते हो या नहीं? देखो, झूठ मत बोलना, जो कुछ कहना हो साफ-साफ कह दो।

बीर० : बेशक, आज की कार्रवाई ने मुझे आपका गुलाम बना दिया है, मगर में आपको अपना सच्चा दोस्त या भाई उसी समय समझूँगा, जब कोई ऐसी बात दिखला देंगे, जिससे साबित हो जाये कि महाराज मुझसे खुटाई रखते हैं।

नाहर० : बेशक, तुम्हारा यह कहना बहुत ठीक है और जहाँ तक हो सकेगा मैं आज ही साबित कर दूँगा कि महाराज तुम्हारे दुश्मन हैं और स्वयं तुम्हारे ससुर सुजनसिंह के हाथ से तुम्हें तबाह किया चाहते हैं।

बीर०: यह बात आपने और भी ताज्जुब की कही!

जाहर० : इसका सबूत तो तुमको तारा ही से मिल जाएगा। ईश्वर करे, वह अपने बाप के हाथ से जीती बच गई हो!

बीर० : [चौंक कर) अपने बाप के हाथ से?

नाहर०: हाँ, सिवाय सुजनसिह के ऐसा कोई नहीं है, जो तारा की जान ले। तुम नहीं जानते कि तीन आदमियों की जान का भूखा राजा करनसिंह कैसी चालबाजियों से काम निकाला चाहता है।

बीर० : (कुछ सोच कर) आपको इन बातों की खबर क्योंकर लगी? मैंने तो सुना था कि आपका डेरा नेपाल की तराई में है और इसी से आपकी गिरफ्तारी के लिए मुझे वहीं जाने का हुक्म हुआ था!

नाहर० : हाँ, खबर तो ऐसी ही है कि नेपाल की तराई में रहता हूँ मगर नहीं, मेरा ठिकाना कहीं नहीं है और न कोई मुझे गिरफ्तार ही कर सकता है। खैर, यह बताओ, तुम कुछ अपना हाल भी जानते हो कि तुम कौन हो?

बीर० : महाराज की जुबानी मैंने सुना था कि मेरा बाप महाराज का दोस्त था और वह जंगल में डाकुओं के हाथ से मारा गया, महाराज ने दया करके मेरी परवरिश की और मुझे अपने लड़के के समान रक्खा।

नाहर० : झूठ। बिल्कुल झूठ! (किनारे की तरफ देख कर) अब वह जगह बहुत ही पास है, जहाँ हम लोग उतरेंगे।

नाहरसिंह और बीरसिंह में बातचीत होती जाती थी और नाव तीर की तरह बहाव की तरफ जा रही थी, क्योंकि खेने वाले बहुत मजबूत और मुस्तैद आदमी थे। यकायक नाहरसिंह ने नाव रोक कर किनारे की तरफ ले चलने का हुक्म दिया। माँझियों ने वैसा ही किया। किश्ती किनारे लगी और दोनों आदमी जमीन पर उतरे। नाहरसिंह ने एक माँझी की कमर से तलवार लेकर बीरसिंह के हाथ में दी और कहा कि इसे तुम अपने पास रक्खो, शायद जरूरत पड़े। उसी समय नाहरसिंह की निगाह एक बहते हुए घड़े पर पड़ी जो बहाव की तरफ जा रहा था। वह एकटक उसी तरफ देखने लगा। घड़ा बहते-बहते रुका और किनारे की तरफ आता हुआ मालूम पड़ा। नाहरसिंह ने बीरसिंह की तरफ देखकर कहा–“इस घड़े के नीचे कोई बला नजर आती है!

बीर० : बेशक, मेरा ध्यान भी उसी तरफ है, क्या आप उसे गिरफ्तार करेंगे?

नाहर० : अवश्य!

बीर० : कहिये तो मैं किश्ती पर सवार होकर जाऊँ और उसे गिरफ्तार करूँ?

नाहर०: नहीं नहीं, वह किश्ती को अपनी तरफ आते देख निकल भागेगा, देखो, मैं जाता हूँ।

इतना कह कर नाहरसिंह ने कपड़े उतार दिए, केवल उस लंगोट को पहरे रहा जो पहिले से उसकी कमर में था! एक छुरा कमर में लगाया और माँझियों को इशारा कर जल में कूद पड़ा। दूसरे गोते में उस घड़े के पास जा पहुँचा, साथ ही मालूम हुआ कि जल में दो आदमी हाथाबांहीं कर रहे हैं। माँझियों ने तेजी के साथ किश्ती उस जगह पहुँचाई और बात-की-बात में उस आदमी को गिरफ्तार कर लिया जो सर पर घड़ा औंधे अपने को छिपाये हुए जल में बहा जा रहा था।

सब लोग आदमी को किनारे लाये, जहाँ नाहरसिंह ने अच्छी तरह पहिचान कर कहा, “अख्आह, कौन! रामदास! भला बे हरामजादे, खूब छिपा-छिपा फिरता था! अब समझ ले कि तेरी मौत आ गई और तू नाहरसिंह डाकू के हाथ से किसी तरह नहीं बच सकता!”

नाहरसिंह का नाम सुनते ही रामदास के तो होश उड़ गए, मगर नाहरसिंह ने उसे बात करने की भी फुरसत न दी और तुरन्त तलाशी लेना शुरू किया। मोमजामे में लपेटी हुई एक चीठी और खंजर उसकी कमर से निकला, जिसे ले लेने के बाद हाथ-पैर बाँध नाव पर माँझियों को हुक्म दिया, “इसे नाहरगढ़ में ले जाकर कैद करो, हम परसों आवेंगे, तब जो कुछ मुनासिब होगा, किया जायेगा।”

माँझियों ने वैसा ही किया और अब किनारे पर सिर्फ ये ही दोनों आदमी रह गए।

कटोरा भर खून : खंड-6

किनारे पर जब केवल नाहरसिंह और बीरसिंह रह गए तब नाहरसिंह ने वह चीठी पढ़ी, जो रामदास की कमर से निकली थी। उसमें यह लिखा हुआ था:

मेरे प्यारे दोस्त,

अपने लड़के के मारने का इल्जाम लगा कर मैंने बीरसिंह को कैदखाने में भेज दिया। अब एक-ही-दो दिन में उसे फांसी देकर आराम की नींद सोऊँगा। ऐसी अवस्था में मुझे रिआया भी बदनाम न करेगी। बहुत दिनों के बाद यह मौका मेरे हाथ लगा है। अभी तक मुझे मालूम नहीं हुआ कि रिआया बीरसिंह की तरफदारी क्यों करती है और मुझसे राज्य छीन कर बीरसिंह को क्यों दिया चाहती है? जो हो, अब रिआया को भी कुछ कहने का मौका न मिलेगा। हाँ, एक नाहरसिंह डाकू का खटका मुझे बना रह गया, उसके सबब से मैं बहुत ही तंग हूँ। जिस तरह तुमने कृपा करके बीरसिंह से मेरी जान छुड़ाई, आशा है कि उसी तरह से नाहरसिंह की गिरफ्तारी की भी तरकीब बताओगे।

तुम्हारा सच्चा दोस्त,

करनसिंह।

इस चीठी के पढ़ने से बीरसिंह को बड़ा ही ताज्जुब हुआ और उसने नाहरसिंह की तरफ देख कर कहा :

बीर० : अब मुझे निश्चय हो गया कि करनसिंह बड़ा ही बेईमान और हरामजादा आदमी है। अभी तक मैं उसे अपने पिता की जगह समझता था और उसकी मुहब्बत को दिल में जगह दिए रहा। आज तक मैंने उसकी कभी कोई बुराई नहीं की, फिर भी न-मालूम क्यों वह मुझसे दुश्मनी करता है। आज तक मैं उसे अपना हितू समझे हुए था मगर..

नाहर० : तुम्हारा कोई कसूर नहीं, तुम नहीं जानते कि तुम कौन हो, करनसिंह कौन है! जिस समय तुम यह सुनोगे कि तुम्हारे पिता को करनसिंह ने मरवा डाला तो और भी ताज्जुब करोगे और कहोगे कि वह हरामजादा तो कुत्तों से नुचवाने लायक है।

वीर० : मेरे बाप को करनसिंह ने मरवा डाला!

नाहर० : हाँ।

बीर० : वह क्योंकर और किस लिये?

नाहर० : यह किस्सा बहुत बड़ा है, इस समय मैं कह नहीं सकता, देखो, सवेरा हो गया और पूरब तरफ सूर्य की लालिमा निकली आती है। इस समय हम लोगों का यहाँ ठहरना मुनासिब नहीं है। मैं उम्मीद करता हूँ कि तुम मुझे अपना सच्चा दोस्त या भाई समझोगे और मेरे घर चल कर दो-तीन दिन आराम करोगे। इस बीच में जितने छिपे हुए भेद हैं, सब तुम्हें मालूम हो जाएँगे।

बीर० : बेशक, अब मैं आपका भरोसा रखता हूँ, क्योंकि आपने मेरी जान बचाई और बेईमान राजा की बदमाशी से मुझे सचेत किया। अफसोस इतना ही है कि तारा का हाल मुझे कुछ भी मालूम न हुआ।

नाहर० : मैं वादा करता हूँ कि तुम्हें बहुत जल्द तारा से मिलाऊँगा और तुम्हारी उस बहिन से भी तुम्हें मिलाऊँगा, जिसके बदन में सिवाय हड्डी के और कुछ नहीं बच गया है।

बीर० : (ताज्जुब से) क्या मेरी कोई बहिन भी है?

नाहर० : हाँ हैं, मगर अब ज्यादा बातचीत करने का मौका नहीं है। उठो और मेरे साथ चलो, देखो ईश्वर क्या करता है।

बीर० : करनसिंह ने वह चिट्ठी जिसके पास भेजी थी, उसे क्या आप जानते हैं?

नाहर० : हाँ, मैं जानता हूँ, वह भी बड़ा ही हरामजादा और पाजी आदमी है, पर जो भी हो, मेरे हाथ से वह भी नहीं बच सकता।

दोनों आदमी वहाँ से रवाने हुए और लगभग आध कोस जाने के बाद एक पीपल के पेड़ के नीचे पहुँचे, जहाँ दो साईस दो कसे-कसाये घोड़े लिए मौजूद थे। नाहरसिंह ने बीरसिंह से कहा, “अपने साथ तुम्हारी सवारी का भी बन्दोबस्त करके मैं तुम्हें छुड़ाने के लिए गया था, लो इस घोड़े पर सवार हो जाओ और मेरे साथ चलो।”

दोनों आदमी घोड़ों पर सवार हुए और तेजी के साथ नेपाल की तराई की तरफ चल निकले। ये लोग भूखे-प्यासे पहर-भर दिन बाकी रहे तक बराबर घोड़ा फेंके चले गए। इसके बाद एक घने जंगल में पहुँचे और थोड़ी हर तक उससें जाकर एक पुराने खण्डहर के पास पहुँचे। नाहरसिंह ने घोड़े से उतर कर बीरसिंह को भी उतरने के लिए कहा और बताया कि यही हमारा घर है।

यह मकान जो इस समय खण्डहर मालूम होता है, पाँच-छः बिगहे के घेरे में होगा। खराब और बर्बाद हो जाने पर भी अभी तक इसमें सौ-सवा सौ आदमियों के रहने की जगह थी। इसकी मजबूत, चौड़ी और संगीन दीवारों से मालूम होता था कि इसे किसी राजा ने बनवाया होगा और बेशक यह किसी समय में दुलहिन को तरह सजा कर काम में लाया जाता होगा। इसके चारों तरफ की मजबूत दीवारें अभी तक मजबूती के साथ खड़ी थीं, हाँ भीतर की इमारत खराब हो गई थी, तो भी कई कोठरियाँ और दालान दुरुस्त थे, जिनमें इस समय नाहरसिंह और उसके साथी लोग रहा करते थे। बीरसिंह ने यहाँ लगभग पचास बहादुरों को देखा, जो हर तरह से मजबूत और लड़ाके मालूम होते थे।

बीरसिंह को साथ लिए हुए नाहरसिंह उस खण्डहर में घुस गया और अपने खास कमरे में जाकर उन्हें पहर-भर तक आराम करके सफर की हरारत मिटाने के लिए कहा।

कटोरा भर खून : खंड-7

दूसरे दिन शाम को खण्डहर के सामने घास की सब्जी पर बैठे हुए बीरसिंह और नाहरसिंह आपस में बातें कर रहे हैं! सूर्य अस्त हो चुका है, सिर्फ उसकी लालिमा आसमान पर फैली हुई है। हवा के झोंके बादल के छोटे-छोटे टुकड़ों को आसमान पर उड़ाये लिए जा रहे हैं। ठंडी-ठंडी हवा जंगली पत्तों को खड़खड़ाती हुई इन दोनों तक आती और हर खण्ड की दीवार से टक्कर खाकर लौट जाती है। ऊँचे-ऊँचे सलई के पेड़ों पर बैठे हुए मोर आवाज लड़ा रहे हैं और कभी-कभी पपीहे की आवाज भी इन दोनों के कानों तक पहुँच कर समय की खूबी और मौसिम के बहार का सन्‍देशा दे रही है। मगर ये चीजें बीरसिंह और नाहरसिंह को खुश नहीं कर सकतीं। वे दोनों अपनी धुन में न-मालूम कहाँ पहुँचे हुए और क्या सोच रहे हैं।

यकायक बीरसिंह ने चौंक कर नाहरसिंह से पूछा–

बीर० : खैर, जो भी हो, आप उस करनसिंह का किस्सा तो अब अवश्य कहें, जिसके लिए रात वादा किया था।

नाहर० : हाँ, सुनो, मैं कहता हूँ, क्योंकि सबके पहले उस किस्से का कहना ही मुनासिब समझता हूँ।

करनसिंह का किस्सा

पटने का रहने वाला एक छोटा-सा जमींदार, जिसका नाम करनसिंह था, थोड़ी-सी जमींदारी में खुशी के साथ अपनी जिंदगी बिताता और बाल-बच्चों में रह कर सुख भोगता था। उसके दो लड़के और एक लड़की थी। हम उस समय का हाल कहते हैं, जब उसके बड़े लड़के की उम्र बारह वर्ष की थी। इत्तिफाक से दो साल की बरसात बहुत खराब बीती और करनसिंह के जमींदारी की पैदावार बिल्कुल ही मारी गई। राजा की मालगुजारी सिर पर चढ़ गई, जिसके अदा होने की सूरत न बन पड़ी। वहाँ का राजा बहुत ही संगदिल और जालिम था। उसने मालगुजारी में से एक कौड़ी भी माफ न की और न अदा करने के लिए कुछ समय ही दिया। करनसिंह की बिल्कुल जायदाद जब्त कर ली, जिससे वह बेचारा हर तरह से तबाह और बर्बाद हो गया।

करनसिंह का एक गुमाश्ता था, जिसको लोग करनसिंह राठू या कभी-कभी सिर्फ राठू कह कर पुकारते थे। लाचार होकर करनसिंह ने स्त्री का जेवर बेच पाँच सौ रुपये का सामान किया। उसमें से तीन सौ अपनी स्त्री को देकर उसे करनसिंह राठू की हिफाजत में छोड़ा और दो सौ आप लेकर रोजगार की तलाश में पटने से बाहर निकला। उस समय नेपाल की गद्दी पर महाराज नारायणसिंह बिराज रहे थे, जिनकी नेकनामी और रिआयापरवरी की धूम देशान्तर में फैली हुई थी। करनसिंह ने भी नेपाल ही का रास्ता लिया। थोड़े ही दिन में वहाँ पहुँच कर वह दरबार में हाजिर हुआ और पूछने पर उसने अपना सच्चा-सच्चा हाल राजा से कह सुनाया। राजा को उसके हाल पर तरस आया और उसने करनसिंह को मजबूत, ताकतवर और बहादुर समझ कर फौज में भरती कर लिया।

उन दिनों नेपाल की तराई में दो-तीन डाकुओं ने बहुत ही जोर पकड़ रखा था, करनसिंह ने स्वयं उनकी गिरफ्तारी के लिए आज्ञा मांगी, जिससे राजा बहुत ही प्रसन्न हुआ और दो सौ आदमियों को साथ देकर करनसिंह को डाकुओं की गिरफ्तारी के लिए रवाने किया। छ: महीने के अरसे में एकाएकी करके करनसिंह ने तीनों डाकुओं को गिरफ्तार किया, जिससे राजा के यहाँ उसकी इज्जत बहुत बड़ गई और उन्होंने प्रसन्न होकर हरिपुर का इलाका उसे दे दिया, जिसकी आमदनी मालगुजारी देकर चालीस हजार से कम न थी, साथ ही उन्होंने एक आदमी को इस काम के लिए तहसीलदार मुकर्रर करके हरिपुर भेज दिया कि वह वहाँ की आमदनी वसूल करे और मालगुजारी देकर जो कुछ बचे, करनसिंह को दे दिया करे।

अब करनसिंह की इज्जत बहुत बढ़ गई और वह नेपाल की फौज का सेनापति मुकर्रर किया गया। अपने को ऐसे दर्जे पर पहुँचा देख करनसिंह ने पटने से अपनी जोरू और लड़के-लड़कियों को करनसिंह राठू के सहित बुलवा लिया और खुशी से दिन बिताने लगा।

दो वर्ष का जमाना गुजर जाने के बाद तिरहुत के राजा ने बड़ी धूमधाम से नेपाल पर चढ़ाई की जिसका नतीजा यह निकला कि करनसिंह ने बड़ी बहादुरी से लड़कर तिरहुत के राजा को अपनी सरहद के बाहर भगा दिया और उसको ऐसी शिकस्त दी कि उसने नेपाल को कुछ कौड़ी देना मंजूर कर लिया। नेपाल के राजा नारायणसिंह ने प्रसन्न होकर करनसिंह की नौकरी माफ कर दी और पुश्तहापुश्त के लिए हरिपुर का भारी परगना लाखिराज करनसिंह के नाम लिख दिया और एक परवाना तहसीलदार के नाम इस मजमून का लिख दिया कि वह परगने हरिपुर पर करनसिंह को दखल दे दे और खुद नेपाल लौट आवे।

नेपाल से रवाने होने के पहले ही करनसिंह की स्त्री ने बुखार की बीमारी से देह-त्याग कर दिया, लाचार करनसिंह ने अपने दोनों लड़कों और लड़की तथा करनसिंह राठू को साथ ले हरिपुर का रास्ता लिया।

करनसिंह राठू की नीयत बिगड़ गई। उसने चाहा कि अपने मालिक करनसिंह को मार कर राजा नेपाल के दिए परवाने से अपना काम निकाले और खुद हरिपुर का मालिक बन बैठे। उसको इस बात पर भरोसा था कि उसका नाम भी करनसिंह है मगर उम्र में वह करनसिंह से सात वर्ष छोटा था।

करनसिंह राठू को अपनी नीयत पूरी करने में तीन मुश्किलें दिखाई पड़ीं। एक तो यह कि हरिपुर का तहसीलदार अवश्य पहिचान लेगा कि यह करनसिंह सेनापति नहीं है। दूसरे यह करनसिंह सेनापति का लड़का जिसकी उम्र पन्द्रह वर्ष की हो चुकी थी, इस काम में बाधक होगा और नेपाल में खबर कर देगा, जिससे जान बचनी मुश्किल हो जाएगी। तीसरे, खुद करनसिंह की मुस्तैदी से वह और भी काँपता था।

जब करनसिंह रास्ते ही में थे तब ही खबर पहुँची कि हरिपुर का तहसीलदार आ गया । एक दूत यह खबर लेकर नेपाल जा रहा था जो रास्ते में करनसिंह सेनापति से मिला। करनसिंह ने राठू के बहकाने से उसे वहीं रोक लिया और कहा कि अब नेपाल जाने की जरूरत नहीं है।

अब करनसिंह राठू की बदनीयती ने और भी जोर मारा और उसने खुद हरिपुर का मालिक बनने के लिए यह तरकीब सोची कि करनसिंह सेनापति के साथियों को बड़े-बड़े ओहदे और रुपये के लालच से मिला ले और करनसिंह को मय उसके लड़कों और लड़की के किसी जंगल में मारकर अपने ही को करनसिंह सेनापति मशहूर करे और उसी परवाने के जरिये से हरिपुर का मालिक बन बैठे, मगर साथ ही इसके यह भी खयाल हुआ कि करनसिंह के दोनों लड़कों और लड़की के एक साथ मरने की खबर जब नेपाल पहुँचेगी तो शायद वहाँ के राजा को कुछ शक हो जाये। इससे बेहतर यही है कि करनसिंह सेनापति और उसके बड़े लड़के को मार कर अपना काम चलावे और छोटे लड़के और लड़की को अपना लड़का और लड़की बनावे, क्योंकि ये दोनों नादान हैं, इस पेचीले मामले को किसी तरह समझ नहीं सकेंगे और हरिपुर की रिआया भी इनको नहीं पहिचानती, उन्हें तो केवल परवाने और करनसिंह नाम से मतलब है।

आखिर उसने ऐसा ही किया और करनसिंह सेनापति के साथी सहज ही में राठू के साथ मिल गए। करनसिंह राठू ने करनसिंह सेनापति को तो जहर देकर मार डाला और उसके बड़े लड़के को एक भयानक जंगल में पहुँचकर जख्मी करके एक कुएँ में डाल देने के बाद खुद हरिपुर की तरफ रवाना हुआ। रास्ते में उसने बहुत दिन लगाए, जिसमें करनसिंह सेनापति का छोटा लड़का उससे हिल-मिल जाए।

हरिपुर में पहुँच कर उसने सहज ही में वहाँ अपना दखल जमा लिया। करनसिंह सेनापति के लड़के और लड़की को थोड़े दिन तक अपना लड़का और लड़की मशहूर करने के बाद फिर उसने एक दोस्त का लड़का और लड़की मशहूर किया । उसके ऐसा करने से रिआया के दिल में कुछ शक पैदा हुआ मगर वह कुछ कर न सकी क्योंकि करनसिंह साल में पाँच-छ: मर्तबे अच्छे-अच्छे तोहफे नेपाल भेजकर वहाँ के राजा को अपना मेहरबान बनाये रहा। यहाँ तक कि कुछ दिन बाद नेपाल का राजा, जिसने करनसिंह को हरिपुर की सनद दी थी, परलोक सिधारा और उसका भतीजा गद्दी पर बैठा। तब से करनसिंह राठू और भी निश्चिंत हो गया और रिआया पर भी जुल्म करने लगा। वही करनसिंह राठू आज हरिपुर का राजा है, जिसके पंजे में तुम फँसे हुए थे। कहो, ऐसे नालायक राजा के साथ अगर मैं दुश्मनी करता हूँ तो क्या बुरा करता हूँ?

बीर० : (कुछ देर चुप रहने के बाद) बेशक, वह बड़ा मक्कार और हरामजादा है। ऐसों के साथ नेकी करना तो मानो नेकों के साथ बदी करना है ! !

नाहर० : बेशक, ऐसा ही है।

बीर० : मगर आपने यह नहीं कहा कि अब करनसिंह सेनापति के लड़के कहाँ हैं और क्या कर रहे हैं?

नाहर० : क्या इस भेद को भी मैं अभी खोल दूं?

बीर०: हाँ, सुनने को जी चाहता है।

नाहर० : करनसिंह सेनापति के छोटे लड़के तो तुम ही हो मगर तुम्हारी बहिन का हाल नहीं मालूम। पारसाल तक तो उसकी खबर मालूम थी, मगर इधर साल-भर से न-मालूम वह मार डाली गई या कहीं छिपा दी गई।

इतना हाल सुनकर बीरसिंह रोने लगा, यहाँ तक कि उसकी हिचकी बँध गई। नाहरसिंह ने बहुत-कुछ समझाया और दिलासा दिया। थोड़ी देर बाद बीरसिंह ने अपने को संभाला और फिर बातचीत करने लगा।

बीर० : मगर कल आपने कहा था कि तुम्हारी उस बहिन से मिला देंगे, जिसके बदन में सिवाय हड्डी के और कुछ नहीं रह गया है। क्या वह मेरी वही बहिन है, जिसका हाल आप ऊपर के हिस्से में कह गए हैं?

नाहर० : बेशक वही है।

बीर० : फिर आप कैसे कहते हैं कि साल-भर से उसका पता नहीं है?

नाहर० : यह इस सबब से कहता हूँ कि उसका ठीक पता मुझे मालूम नहीं है, उड़ती-सी खबर मिली थी कि वह किले ही के किसी तहखाने में छिपाई गई है और सख्त तकलीफ में पड़ी है। मैं कल किले में जाकर उसी भेद का पता लगाने वाला था, मगर तुम्हारे ऊपर जुल्म होने की खबर पाकर वह काम न कर सका और तुम्हारे छुड़ाने के बन्दोबस्त में लग गया।

बीर० : उसका नाम क्या है?

नाहर० : सुंदरी।

तीर०: तो आपको उम्मीद है कि उसका पत्ता जल्द लग जाएगा?

नाहर० : अवश्य।

बीर० : अच्छा, अब मुझे एक बात और पूछना है।

नाहर० : वह क्या?

बीर० : आप हम लोगों पर इतनी मेहरबानी क्यों कर रहे हैं और हम लोगों के सबब राजा के दुश्मन क्यों बन बैठे हैं?

नाहर० : (कुछ सोचकर ) खैर, इस भेद को भी छिपाए रहना अब मुनासिब नहीं है। उठो, मैं तुम्हें अपने गले लगाऊँगा तो कहूँ।(बीरसिंह को गले गला कर) तुम्हारा बड़ा भाई मैं ही हूँ, जिसे राठू ने जख्मी करके कुएं में डाल दिया था! ईश्वर ने मेरी जान बचाई और एक सौदागर के काफिले को वहाँ पहुँचाया, जिसने मुझे कुएँ से निकाला। असल में मेरा नाम विजयसिंह है। राजा से बदला लेने के लिए इस ढंग से रहता हूँ। मैं डाकू नहीं हूँ और सिवाय राजा के किसी को दुःख भी नहीं देता, केवल उसी की दौलत लूट कर अपना गुजारा करना हूँ।

बीरसिंह को भाई के मिलने की खुशी हद से ज्यादा हुई और घड़ी-घड़ी उठ कर कई दफे उन्हें गले लगाया। थोड़ी देर और बातचीत करने के बाद वे दोनों उठ कर खंडहर में चले गए और अब क्या करता चाहिए यह सोचने लगे।



  • कटोरा भर खून : खंड 8-16
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