कटी पूँछवाला बंदर : गुजरात की लोक-कथा

Kati Poonchhwala Bandar : Lok-Katha (Gujrat)

एक था बुड्ढा। उसकी एक पत्नी थी। जेठ का महीना आ रहा था। अतः वह सोचता है कि अब तो झाड़-झंखाड़ जला देना होगा, इसलिए उसने आदर जलाया। आदर से धान की फसलें अच्छी होती हैं, इसलिए बारिश के मौसम के पहले आदर जलाते हैं।

कुछ दिनों बाद जेठ में पहली बारिश हुई, फिर जमीन जोतने योग्य हो गई तो बुड्ढे ने जमीन जोत कर उसमें आरिये (फूट) बोए। आरिये के बीज अंकुरित हो गए। धीरे-धीर उसकी लताएँ पूरे खेत में फैल गईं। उस पर फूल आने लगे। आरिये धीर-धीरे बड़े होकर पकने लगे।

बुड्ढे का खेत जंगल के पास था। जंगल में बंदर रहते थे। बंदरों ने आरिये देख लिये। एक दिन एक बंदर खेत में आकर कुछ आरिये खाया और कुछ बिगाड़े। जब बुड्ढा खेत में आया तो उसने देखा कि खेत के आरिये बंदर खाने और बिगाड़ने लगे हैं। बंदर ने कुछ लताएँ भी तोड़–उखाड़ डाली थीं। दूसरे दिन बुड्ढा छिपकर देखने लगा। तब बंदरों का एक बड़ा दल आया। वे आरिये तोड़कर नितंब पर घिसकर बिगाड़ने लगे। उसे देखकर बुड्ढा उनके पीछे डंडा लेकर दौड़ा किंतु सारे बंदर भागकर जंगल में चले गए। दूसरे दिन भी यही स्थिति रही। बंदर तो हर रोज जंगल से आते और आरिया बिगाड़ जाते। इसे देखकर बुड्ढा सोचता है कि ‘ये आरिये तो मैंने परिवार के लिए बोए हैं, इन्हें बचाने के लिए कुछ करना ही पड़ेगा।’ और एक दिन वह लोहार के यहाँ से बड़े लंबे-लंबे चाकू लाया और उसने ये चाकू बड़े-बड़े आरिया में ऐसे खोंस दिए कि उनकी नोक ऊपर की ओर रहे। खुद वह छिप गया। संध्या के समय बंदर खेत में आए और आरिया खाने लगे। उनमें से एक बंदर आरिये से नितंब घिसने लगा तो उसकी दुम कट गई। खून निकलने लगा तो वह चिल्लाते हुए भागने लगा तो उसे देखकर दूसरे बंदर भी जंगल में भाग गए। जंगल में पहुँचने पर दूसरे बंदर उससे पूछने लगे—

“तू क्यों चिल्लाता है?” तो कटी पूँछ वाला बंदर कहता है—

“मेरी पूँछ कट गई।”

“किसने काटी होगी?” तब दूसरे बंदर कहते—

“उसकी पूँछ उस बुड्ढे ने ही काटी होगी। ऐसा नही चलेगा। कुछ करना पड़ेगा।” तब एक बंदर पूछता है कि—

“क्या करेंगे?” सब सोचने लगे, फिर एक दूसरा बंदर कहता है—

“हम देवस्थान जाएँगे और मनौती रखेंगे, बुड्ढे का ऐसा करना चलेगा नहीं।” बुड्ढा छिपकर बंदरों की बातें सुन रहा था।

ब्रवेला में सारे बंदर देवस्थान पहुँच गए, परंतु बुड्ढा तो वहाँ पहले ही छिप गया था। बंदर वहाँ आकर देव से कहने लगे—

“हे देव! वह बुड्ढा हमें बहुत परेशान करता है। हमारे एक बंदर की तो उसने पूँछ काट दी है, देव हे देव!” तो पीछे से बुड्ढा कहता है—

“हाँ...जी...हाँ।” देव की आवाज सुनकर बंदर खुश होकर कहते हैं—

“हे देव! बुड्ढे ने गलत काम किया, इसलिए वह मर जाना चाहिए। हम तुम्हारी मनौती लेते हैं। कल ही बुड्ढा मर जाना चाहिए। तुममें अगर शक्ति है तो कल ही वह मर जाना चाहिए। सुबह होते ही वह मर जाना चाहिए। अगर वह सुबह में ही मर जाएगा तो हम तुम्हें पाँच बकरे की बलि देंगे।” बुड्ढे ने पीछे से फिर से कहा, “जी...हाँ...जी...।” फिर सब बंदर आश्वस्त होकर जंगल में चले गए। दोपहर हो गई, शाम हुई किंतु बंदर आरिये न गए। वे सब सुबह की प्रतीक्षा करने लगे।

घर पहुँच कर बुड्ढा अपनी पत्नी से बंदरों की बात बताता है और उससे कहता है—

“एजी आज तो बंदर आए थे और मनौती ले रहे थे कि शाम होते बुड्ढा मर जाना चाहिए तो हमें भी कुछ करना चाहिए?”

“क्या करेंगे?”

“मैं कुछ करता हूँ।”

“तो तुम ही कुछ करो।”

“तुम्हे मैं जैसा कहूँगा, वैसा ही करना होगा।”

“हाँ।”

“मैं जाता हूँ और कुछ लाता हूँ न।”

बाद में बुड्ढा तुरंत बाहर जाता है और पुरुष जितना एक ताड़ का तना काटकर लाता है। उसे ओखली पर रखकर धोती ओढ़ाई जाती है, फिर उस पर कुछ फूल डाल देता है और पत्नी से कहता है—

“ब्रह्मवेला होते ही तुम रोना शुरू कर देना।” ब्रह्मवेला होने पर बुढ़िया रोने लगती है—

“ओ...बेटा...ओ...बेटा...बेटा...मेरा पति मर गया रे बेटा...बेटा...बेटा...।”

“ओ बेटा...बेटा...मेरा पति मर गया रे बेटा...बेटा...।”

“ओ...बेटा...मेरे पति अच्छा था रे बेटा...बेटा...हमें आरिये खिलाता था रे...बेटा...बेटा...।” बुढ़िया का रोना बंदर सुनते हैं और कहते हैं—

“अरे सुनो...सुनो...वह बुढ़िया रो रही है, बुढ़िया रो रही है।” इसलिए सब बंदर इकट‍्ठे हो गए और कहते हैं—

“क्या हुआ, क्या हुआ?”

“हमने जो मनौती मानी थी, सुबह होते बुड्ढा मर ही जाना चाहिए, वह सच हो गई है। देव सच्चा है, वह देखो न, बुढ़िया रो रही है। तुम सुनो तो सही, सुनो बुढ़िया रो रही है।”

“ओ...बेटा...बेटा...बेटा...अब मेरा पति अब न मिलेगा रे बेटा...बेटा...बेटा...। अब मेरे पति को कहाँ से ढूँढ़ लाऊँगी रे...बेटा...बेटा...। ओ...बंदर...बंदर...बंदर...दौड़ आइए जल्द...बंदर ओ...बंदर...।”

“अरे! हमें बुलाती है, चलो जाते हैं, चलो जाते हैं।” इसलिए वह तो फौरन हुप...हुप करके आने लगे। यह देखकर बुढ़िया तुरंत आँगन में से जल्द-जल्द घर में जाकर पति को कहती है—

“बंदर आ रहे हैं, बंदर आ रहे हैं।” कहते-कहते वह उस तने के पास जाकर बैठकर रोने लगी—

“ओ बंदर, ओ बंदर, मेरा पति मर गया रे! ओ बंदर, ओ बंदर...।” बंदर कहते हैं—

“नहीं रोना, नहीं रोना, चुप हो जा, चुप हो जा, नहीं रोना, कुछ नहीं, कुछ नहीं...हम सब हैं न...मत रो, मत रो...चुप रह जा...चुप रह जा।”

फिर बंदर लकड़ियाँ इकट्ठा करते हैं। बाद में ‘हेल’ (चिता) भी बना दी। चलो अब जलाने ले जाते हैं। बुढ़िया कहती है—

“बेटा, कैसे करोगे, अच्छे से ही करोगे न, अच्छे से जलाकर आना है, बेटा।”

“जी, अच्छे से जलाकर आएँगे, कोई चिंता नहीं करनी।”

“अच्छी तरह उठाकर ले जा हाँ, बेटा, अच्छी तरह से उठा के ले जाना।”

“जी, अच्छी तरह उठा के ले जाएँगे।” ऐसा कहकर तुरंत उन्होंने तो कंधा लगाकर उठा लिया। तब बुढ़िया कहती है—

“बेटा, उसे तुम खोलकर नहीं देखना है, खोलकर देखेंगे तो वह जिंदा हो जाएगा। ऐसा कहता था, इसलिए खोलना मत।”

“जी, नहीं खोलेंगे, नहीं खोलेंगे।”

“सही बात, देखो-देखो, हम खोलेंगे तो जिंदा हो जाएगा तो, इसलिए हमें खोलना नहीं। वैसा-का-वैसा ही रहने देना, चलो जल्दी।” ऐसा करके वे जल्द-से-जल्द ले जाने लगे। हँसते हुए-कूदते हुए, ऐसा करते वह तो नदी तट ‘हेल’ (चिता) बनाई थी, उस पर जाकर रख दिया और बाद में उसे जला दिया। तना सुखा हुआ था, इसलिए थोड़ी देर में ही जल गया। बाद में वे बंदर उछलते-कूदते घर आ गए।

“क्या किया, कैसे हुआ, कैसे? बेटा! किस तरह हुआ, अच्छी तरह से जल गया न?” ऐसा बुढ़िया ने पूछा।

“जी-जी, जला दिया न।”

“कैसे जल गया?”

“चुन...चुन करके जल गया।” दूसरा बंदर कहता है—

“अच्छे से जल गया।”

“जी, अच्छा तो।”

“तो अब क्या करना है?”

“कुछ नहीं बेटा, अब तुम खा लो, क्योंकि भार उतारना पड़ेगा, इसलिए खा लेना।”

“अच्छा तो...।”

“जी, ‘बाफणअ’ (अरहर के दोनों में बनाई जानेवाली आदिवासी सब्जी) बनाया है, वह तुम उस बंदरों के साथ खा लो, घर में ही बैठकर खाओ, क्योंकि आँगन में से मेंढक या कुछ आ जाए तो।” इसलिए वह तो घर में ही बैठकर खाने लगे। बाद में बुढ़िया द्वार बंद करने लगी तो पूछते हैं—

“क्यों री बुढ़िया...! द्वार क्यों बंद कर रही है?”

“कुछ नहीं बेटा! कोई आ जाए, कोई मेढक आ जाए, यहाँ होते हुए आ जाए, हमें नजर न लग जाए न, नजर न लगे इसलिए।”

“जी, अच्छे से बंद कर दो, अच्छे से बंद कर दो।”

इसलिए उस बुढ़िया ने घर को चारों ओर से बंद कर दिया और वे खाने बैठ गए। कोई पत्तल बाँटता, कोई परोसता, ऐसे वे खाने लगे। तब बुड्ढा कोठे से निकला और मूसल लेकर सभी बंदरों को मारने लगा—भो...भो...भो...। बंदर तो आया...या...या... ओय...आय...या...या...भो...भो...भो...। वहाँ उस बांडे (बिना पूँछ के) बंदर को अंदर नहीं आने दिया था, वह कहता है—

“बांडा बंदर बाहर नाचे, घर में घूभा...घूभ...(2)”—ऐसा कहते-कहते वह तो नाचता है, कूदता है।

“बांडा...! ओ बांडा...! घर खोलो रे...घर खोलो...।” इसलिए उसने तो तुरंत छत पर जाकर खपरैल खोल दिए कि वे तो बूट...बूट...करते कूदकर, चढ़कर भाग निकले। सब निकलकर भाग गए और बाद में वे देवस्थान पहुँच गए और देव से जाकर कहने लगे—

“हे देव! बुढ्डा तो मर गया था तो वह फिर से जिंदा कैसे हो गया? यह बताओ।”

दूसरी ओर वह बुड्ढा फिर से देवस्थान पहुँचकर छुप गया था। वहाँ उन बंदरों ने तो देव को फूल चढ़ाए, नारियल फोड़ा, मुरगी काटी, बकरा काटकर देव को चढ़ावा दिया। वहाँ एक बड़ा बंदर था उसकी पूँछ गुंबद तक पहुँच गई थी। जब सब खाने की तैयारी में थे कि बुड्ढे ने उस बंदर की पूँछ पकड़कर बराबर घुमाई और खींची। वह बंदर तो बड़ी-बड़ी आँखें निकलाने लगा। वह सोचने लगा कि ‘यह तो देव ने ही पकड़ी है, लेकिन दूसरे बंदरों से कहूँ भू कैसे?’ इसकी आँखें बाहर निकल आई थी, जिसे देखकर सभी बंदरों ने खाना इकट्ठा कर दिया। तब उस बुड्ढे ने बंदर की पूँछ ढीली कर दी तो वह हँसने लगा तो फिर से सभी बंदर खाने की तैयारी करने लगे। बुड्ढे ने फिर से उसकी पूँछ खींची तो वह बंदर तो चींही...हीं...हीं... ऐसे चिल्लाने लगा, इसलिए वे कहने लगे—

“ओय बंदर तो बड़ी-बड़ी आँखें निकाल रहा है...अरे...रे...जल्द-जल्द ढेर कर दो।” इसलिए बंदरों ने तो जल्द-जल्द खाने का ढेर कर दिया और उस बुड्ढे ने जैसे ही फिर से पूँछ छोड़ी तो वह बंदर भागा, उसको भागते देखकर वे दूसरे बंदर भी वहाँ से भागे।

तब बुड्ढा देवस्थान से बाहर आता है और सारा खाना लेकर घर जाता है और अपनी पत्नी से कहता है—

“बुड्ढी, देखो! मुरगी-बकरा काटकर मेरी मनौती मानने का ढोंग कर रहे थे, उनका सब खाना लेकर मैं आ गया और आज तो हम यही खाएँगे।”

फिर बाद में बंदरों का खेत में आना बंद हो गया। बुड्ढा और उसकी पत्नी खेती किया करते थे। फसल अच्छी होती थी और वे शांति से रहने लगे।

(साभार : रोशन चौधरी)

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