करामात : करतार सिंह दुग्गल (पंजाबी कहानी)

Karamat : Kartar Singh Duggal

"...और फिर बाबा नानक घूमते हुए हसन अब्दाल के जंगल में जा निकले; गरमी सख्त थी। चिलचिलाती धूप। चारों ओर सुनसान; पत्थर-ही-पत्थर, रेत-ही-रेत, झुलसी हुई झाड़ियाँ, सूखे हुए पेड़। दूर तक मनुष्य की जाति नजर नहीं आती थी।"

"और फिर अम्मी?" मैं उत्सुक हो रहा था।
"बाबा नानक अपने ध्यान में मग्न चलते जा रहे थे कि उनके शिष्य मरदाने को प्यास लगी। पर वहाँ पानी कहाँ? बाबा ने कहा-भाई मरदाने, सबर करो। अगले गाँव पहुँचकर जितना तुम्हारा जी चाहे पानी पी लेना। किन्तु मरदाने को तो सख्त प्यास लगी थी। बाबा नानक यह सुनकर चिन्ता में पड़ गये। इस जंगल में पानी तो दूर-दूर तक नहीं था और जब मरदाना ज़िद कर बैठता तो सबके लिए बड़ी मुश्किल हो जाती। बाबा ने फिर समझाया-मरदाने, यहाँ पानी कहीं भी नहीं, तुम सबर कर लो, भगवान की इच्छा मान लो। किन्तु मरदाना तो वहीं बैठ गया। एक कदम और उससे आगे नहीं चला गया। बाबा सशोपंज में पड़ गये। गुरु नानक मरदाने की ज़िद को देखकर बार-बार मुसकराते, हैरान होते। आखिर जब बाबा ने मरदाने को किसी तरह मानते न पाया तो वह अन्तर्धान हो गये। जब गुरु नानक की आँख खुली तब मरदाना मछली की तरह तड़प रहा था। सत्गुरु उसको देखकर मुसकराये और कहने लगे, भाई मरदाने! इस पहाड़ी के ऊपर एक कुटिया है जिसमें वली कन्धारी नाम का एक दरवेश रहता है। यदि तुम उसके पास जाओ तो तुम्हें पानी मिल सकता है। इस इलाके में केवल उसका कुआँ पानी से भरा हुआ है। और कहीं भी पानी नहीं।"
"और फिर अम्मी?" मैं यह जानने के लिए बेचैन हो रहा था कि मरदाने को पानी मिलता है कि नहीं।
"मरदाने को प्यास सख्त लगी थी। सुनते ही पहाड़ी की ओर दौड़ पड़ा।

चिलचिलाती धूप, इधर प्यास उधर पहाड़ी का सफ़र, पसीना-पसीना हुआ, फूले साँस मरदाना बड़ी कठिनाई से ऊपर पहुंचा। वली कन्धारी को सलाम करके उसने पानी के लिए विनती की। वली कन्धारी ने कुएँ की ओर संकेत किया। जब मरदाना उधर जाने लगा तब वली कन्धारी के मन में कुछ आया और उसने मरदाने से पूछा, "भले आदमी, तुम कहाँ से आये हो?" मरदाने ने कहा, "मैं नानक पीर का साथी हूँ। हम घूमते-घूमते इधर आ निकले हैं। मुझे प्यास लगी है और नीचे पानी कहीं नहीं।" बाबा नानक का नाम सुनकर वली कन्धारी को क्रोध आ गया। उसने मरदाना को अपनी कुटिया में से वैसे-का-वैसा निकाल दिया। थका-हारा मरदाना नीचे बाबा नानक के पास आकर फ़रयादी हुआ। बाबा ने उससे सारी कहानी सुनी और मुसकरा दिये। मरदाना, तुम एक बार फिर जाओ, बाबा नानक ने मरदाना को सलाह दी। इस बार तुम नम्रता से जाना। कहना-मैं नानक दरवेश का साथी हूँ। मरदाना को प्यास सख्त लगी हुई थी। पानी और कहीं नहीं था। कुढ़ता हुआ, बड़बड़ाता हुआ फिर ऊपर चल दिया। किन्तु पानी वली कन्धारी ने फिर न दिया। मैं एक काफ़िर के साथी को चुल्लू-भर भी पानी नहीं दूंगा। वली कन्धारी ने मरदाने को फिर वैसे-का-वैसा लौटा दिया। जब मरदाना इस बार नीचे आया तो उसका बुरा हाल था। उसके होठों पर पपड़ी जमी थी। मुँह पर हवाइयाँ उड़ रही थीं। यों लगता था कि मरदाना घड़ी है या पल है। बाबा नानक ने सारी बात सुनी और मरदाना को 'धन निरंकार' कहकर एक बार फिर वली के पास जाने के लिए कहा। हुक्म का बाँधा मरदाना चल दिया लेकिन उसको पता था कि उसकी जान रास्ते में ही कहीं निकल जाएगी। मरदाना तीसरी बार पहाड़ी की चोटी पर वली कन्धारी के चरणों में जा गिरा। किन्तु क्रोध में जल रहे फ़क़ीर ने उसकी विनती को इस बार भी ठुकरा दिया। नानक अपने-आपको पीर कहलवाता है और अपने मुरीद को पानी का एक घूँट नहीं पिला सकता? वली कन्धारी ने लाख-लाख ताने दिये। मरदाना इस बार जब नीचे आया, प्यास से निर्बल बाबा नानक के चरणों में वह बेहोश हो गया। गुरु नानक ने मरदाना की पीठ पर हाथ फेरा, उसको हौसला दिया और जब मरदाने ने आँख खोली, बाबा ने उसे सामने एक पत्थर उखाड़ने के लिए कहा। मरदाना ने पत्थर उठाया और नीचे से पानी का झरना फूट निकला। जैसे एक नहर पानी की बहने लगी हो और देखते-देखते चारों ओर पानी-ही-पानी हो गया। इतने में वली कन्धारी को पानी की आवश्यकता हुई। कुएँ में देखा तो पानी की एक बूंद भी नहीं थी। वली कन्धारी बडा हैरान हुआ। और नीचे पहाड़ी के दामन में चश्मे फूट रहे थे, नदियाँ बह रही थीं। दूर, बहुत दूर एक कीकर के नीचे वली कन्धारी ने देखा बाबा नानक और उनका साथी बैठे थे।

क्रोधवश वली ने चट्टान के एक टुकड़े को अपने पूरे जोर से लुढ़काया। इस तरह पहाड़ी की पहाड़ी अपनी ओर आती देखकर मरदाना चिल्ला उठा। बाबा नानक ने धीरज से मरदाना को 'धन निरंकार' कहने के लिए कहा और जब पहाड़ी का टुकड़ा बाबा के सिर के पास आया, गुरु नानक ने उसे हाथ देकर अपने पंजे से रोक लिया। और हसन अबदाल में, जिसका नाम अब पंजा साहब है, अभी तक पहाड़ी के टुकड़े पर बाबा नानक का पंजा लगा हुआ है।"

मुझे यह साखी बड़ी अच्छी लग रही थी। पर जब मैंने यह हाथ से रोकने वाली बात सुनी तो मेरे मुँह का स्वाद फीका हो गया। यह कैसे हो सकता था? कोई आदमी पहाड़ी को किस तरह रोक सकता है? और पहाडी में अभी तक बाबा नानक का पंजा लगा हुआ है! मुझे जरा विश्वास न आया। "बाद में किसी ने खोद दिया होगा।" मैं अपनी माँ के साथ कितनी देर बहस करता रहा। यह तो मैं मान सकता था कि पत्थर के नीचे से पानी फट आये। विज्ञान ने कई ऐसे विधान बताये हैं जिनसे जिस स्थान पर पानी हो, इसका पता लगाया जा सकता है। पर एक आदमी का लुढ़कती हुई आ रही पहाड़ी को रोक लेना, मैं यह नहीं मान सकता था। मैं नहीं मान रहा था और मेरी माँ मेरे मुँह की ओर देखकर चुप हो गयीं।

"कोई लुढ़कती हुई आ रही पहाड़ी को कैसे रोक सकता है?" मुझे जब भी इस साखी का ख़याल आता, एक फीकी-सी हँसी मैं हँस देता।

फिर कई बार यह साखी गुरुद्वारे में सुनायी गयी। किन्तु पहाड़ी को पंजा से रोकने वाली बात पर मैं हमेशा सिर मारता रहता। यह बात मैं नहीं मान सकता था।

एक बार यह साखी हमारे स्कूल में सुनायी गयी। पहाड़ी को पंजा के साथ रोकने वाले भाग पर मैं अपने अध्यापक के साथ विवाद करने लगा। "करनी वाले लोगों के लिए कोई बात कठिन नहीं," हमारे अध्यापक ने कहा और फिर मुझे चुप करवा दिया।

मैं चुप हो तो गया परन्तु मुझे विश्वास नहीं हुआ आखिर पहाड़ी को कोई कैसे रोक सकता है?। मेरा जी चाहता, मैं जोर-जोर से पुकारूँ।

बहुत दिन नहीं गुजरे थे कि हमने सुना पंजा साहब में 'साका' हो गया है। उन दिनों 'साके' बहुत होते थे। जब भी कोई 'साका' होता, मैं समझ लेता आज हमारे घर में खाना नहीं पकेगा और रात को नीचे फर्श पर सोना होगा। लेकिन यह 'साका' होता क्या है, यह मुझे नहीं पता था।

हमारा गाँव पंजा साहब से कोई ज्यादा दूर नहीं था। जब इस 'साके' की सूचना आयी, मेरी माँ पंजा साहब चल दी। साथ मैं था, मुझसे छोटी बहन थी। पंजा साहब का सारा रास्ता मेरी माँ की आँख नहीं सूखी। हम हैरान थे, यह साका होता क्या है। और जब पंजा साहब पहुँचे, हमने एक अजीब कहानी सुनी।

दूर कहीं एक शहर में फिरंगी ने निहत्थे हिन्दुस्तानियों पर गोली चलाकर कई लोगों को मार दिया था। मरनेवालों में नौजवान भी थे, बूढे भी थे, औरतें भी थीं, बच्चे भी थे और जो बाकी बच गये उनको गाड़ी में बन्द करके किसी दूसरे शहर के जेल में भेजा जा रहा था। कैदी भूखे थे, प्यासे थे और हुक्म यह था कि गाड़ी को रास्ते में कहीं भी ठहराया न जाए। जब यह खबर पंजा साहब पहुँची, जिस किसी ने सुना लोगों को चारों कपड़े आग लग गयी। पंजा साहब, जहाँ बाबा नानक ने खुद मरदाना की प्यास बुझायी थी, उस शहर से गाड़ी की गाड़ी प्यासों की गुजर जाए, भूखों की गुजर जाए, यह कैसे हो सकता था? और फैसला हुआ कि गाड़ी को रोका जाएगा। स्टेशन मास्टर को अर्जी दी गयी। टेलीफोन हुए। तार गये। पर फिरंगी का हुक्म था-गाड़ी रास्ते में कहीं भी रोकी न जाएगी। और गाड़ी में आजादी के परवाने, देशभक्त, हिन्दी भूखे थे। उनके लिए पानी का कोई प्रबन्ध नहीं था। उनके लिए रोटी का कोई इन्तजाम नहीं था। गाड़ी को पंजा साहब नहीं रुकना था। लेकिन पंजा साहब के लोगों का यह फैसला अटल था कि गाड़ी को अवश्य रोक लेना है। और शहरवासियों ने स्टेशन पर रोटियों के, खीर के, पूड़ी के, दाल के ढेर लगा दिये।
पर गाड़ी तो एक आँधी की तरह आएगी और तूफान की तरह निकल जाएगी, उसको कैसे रोका जाए?

और मेरी माँ की सहेली ने हमें बताया, "उस जगह पटरी पर पहले वह लेटे, मेरे बच्चों के पिता, फिर उनके साथ उनके और साथी लेट गये। उनके बाद हम पत्नियाँ लेटी, फिर हमारे बच्चे...और फिर गाड़ी आयी। दूर से चीखती हुई, चिल्लाती हुई। सीटियों पर सीटियाँ मारती हुई। अभी दूर ही थी कि आहिस्ता हो गयी। पर रेल थी, ठहरते-ठहरते ही ठहरती। मैं देख रही थी कि पहिये उनकी छाती पर चढ़ गये, फिर उनके साथ वाले की छाती पर...और फिर मैंने आँखें बन्द कर लीं। मैंने आँखें खोली तो मेरे सिर के ऊपर गाड़ी खड़ी थी। मेरे साथ धडक रही छातियों में से 'धन निरंकार', 'धन निरंकार' की आवाज आ रही थी! और फिर मेरे देखते-देखते गाड़ी पीछे हटी। गाड़ी पीछे हटी और पहियों के नीचे आयी लाशें टुकड़े-टुकड़े हो गयीं..."

मैंने अपनी आँख से लहू की धारा को देखा। बहती-बहती कितनी ही दूर एक पक्के बने नाले के पुल के नीचे चली गयी थी। और मैं हक्का-बक्का हैरान था। मुझ से एक बोल न बोला गया। सारा दिन मैं पानी का एक घूँट न पी सका।

शाम को जब हम लौट रहे थे, रास्ते में मेरी मां ने मेरी छोटी बहन को पंजा साहब की साखी सुनायी। कैसे बाबा नानक मरदाना के साथ इस ओर आये। कैसे मरदाना को प्यास लगी। कैसे बाबा ने वली कंधारी के पास मरदाना को पानी के लिए भेजा । कैसे वली कंधारी ने दोनों बार मरदाना को निराश लौटा दिया। कैसे बाबा नानक ने मरदाना को एक पत्थर उठाने के लिए कहा । कैसे पत्थर के नीचे से पानी का झरना फूट निकला और वली कंधारी के कुएं का सारा का सारा पानी नीचे खिंचा हुआ आ गया। और फिर कैसे क्रोध में आ कर वली कंधारी ने ऊपर से पहाड़ का टुकड़ा लुढ़का दिया। कैसे मरदाना घबराया, परतु बाबा नानक ने 'धन निरंकार' कह कर अपने हाथ से पहाड़ के टुकड़े को थाम लिया। "लेकिन पहाड़ को कोई कैसे रोक सकता है?" मेरी छोटी बहन ने सुनते सुनते झट मेरी मां को टोका।

"क्यों नहीं कोई रोक सकता ?" बीच में मैं बोल पड़ा । आंधी की तरह उड़ती हुई गाड़ी को अगर रोका जा सकता है तो पहाड़ के टुकड़े को क्यों नहीं कोई रोक सकता" और फिर मेरी आँखों में से छल-छल आंसू बहने लगे। 'करनी वाले उन लोगों के लिए, जिन्होंने अपनी जान पर खेल कर न रुकने वाली ट्रेन को रोक लिया था और अपने भूखे-प्यासे देशवासियों को रोटी खिलायी थी, पानी पहुंचाया था।'