कपाल कुण्डला (बंगला उपन्यास) : बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय

Kapalkundala (Bangla Novel) : Bankim Chandra Chattopadhyay/Chatterjee

चौथा खण्ड

:१: शयनागार में

राधिकार बेड़ी भाङ, ए मम मिनति।
ब्रजाङ्गना काव्य

लुत्फुन्निसाके आगरा जाने और फिर सप्तग्राम लौटकर आनेमें कोई एक साल हुआ है। कपालकुण्डला एक वर्षसे नवकुमारकी गृहिणी है। जिस दिन प्रदोषकालमें लुत्फुन्निसा जंगल आई उस समय कपालकुंडला कुछ अनमनी-सी अपने शयनागारमें बैठी है। पाठकोंने समुद्रतटवासिनी, आलुलायित केशा और भूषणविहीना जिस कपालकुण्डलाको देखा था, अब वह कपालकुंडला नहीं है। श्यामासुन्दरीकी भविष्यवाणी सत्य हुई है। पारसमणिके स्पर्शसे योगिनी गृहिणी हुई है, इस समय वह सारे रेशम जैसे रूखे लम्बे बाल, जो पीठपर अनियन्त्रित फहराया करते थे अब आपसमें गुँथकर वेणी-रूपमें शोभा पा रहे हैं। वेणीरचनामें भी बहुत कुछ शिल्प-परिपाटी है, केशविन्यासमें सूक्ष्म केशीकार्य श्यामासुन्दरीके विन्यास-कौशलका परिचय दे रहा है। फूलोंको भी छोड़ा नहीं गया है, वे भी वेणीमें चारों तरफ खूबसूरतीके साथ गूँथे हुए हैं। सरपरके बाल भी समान ऊँचाईमें नहीं, बल्कि मालूम होता है, कि आकुंचनयुक्त कृष्ण तरंग मालाकी तरह शोभित हैं। मुखमंडल अब केशसमूहसे ढँका नहीं रहता; ज्योतिर्मय होकर शोभा पाता है। केवल कहीं-कहीं पुष्प-गुच्छ लटक रहे हैं और स्वेदविन्दु झलक रहे हैं। वर्ण वही, अर्द्ध-पूर्णशशाङ्क-रश्मिरुचिर। अब दोनों कानोंमें स्वर्ण कुण्डल लहरा रहे हैं; गलेमें नेकलेस हार है। रंगके आगे वह म्लान नहीं है। वल्कि वह इस प्रकार शोभा पा रहे हैं जैसे अर्धचन्द्र-कौमुदी-वसना धारिणीके अङ्गपर वह नैश कुसुमवत शोभित हैं। वह दुग्धश्वेत जैसे शुभ्र वस्त्र पहने हुए है; वह वस्त्र आकाशमण्डलमें खेलनेवाले सफेद बादलोंकी तरह शोभा पा रहे हैं।

यद्यपि वर्ण वही है लेकिन पूर्वापेक्षा कुछ म्लान, जैसे आकाश में कहीं काले मेघ झलक रहे हों। कपालकुण्डला अकेली बैठी न थी। उसकी सखी श्यामासुन्दरी पासमें बैठी हुई है। उन दोनोंमें आपसमें बातें हो रही थीं। उनकी वार्ताका कुछ अंश पाठकोंको सुनना होगा।

कपालकुण्डलाने पूछा—“नन्दोईजी, अभी यहाँ कितने दिन रहेंगे?”

श्यामाने उत्तर दिया—“कल शामको चले जायेंगे। आहा आज रातको भी यही औषधि लाकर रख लेती तो भी उन्हें वश कर मनुष्य जन्म सार्थक कर सकती। कल रातको निकली तो लात-जूता खाया, फिर भला आज रात कैसे निकलूँ?”

क०—दिनको ले आनेसे काम न चलेगा?

श्या०—नहीं, दिनमें तोड़नेसे फल न होगा। ठीक आधी रातको खुले बालोंसे तोड़ना होता है, अरे बहन! क्या कहें, मनकी साध मनमें ही रह गयी।

क०—अच्छा, आज दिनमें तो मैं उस पेड़को पहचान ही आई हैं; और जिस वनमें है, वह भी जान चुकी हूँ। अब आज तुम्हें जाना न होगा, मैं अकेली ही रातमें जाकर औषधि ला दूँगी।

श्या०—नहीं-नहीं। एक दिन जो हो गया सो हो गया। तुम रातको अकेली न निकलना।

क०—इसके लिए तुम चिन्ता क्यों करती हो? सुन तो चुकी हो, रातको जंगलमें अकेली घूमना मेरा बचपनका अभ्यास है। मनमें विचार करो, यदि मेरा ऐसा अभ्यास न होता, तो आज कभी तुमसे मुलाकात भी न हुई होती।

श्याम०—इस ख्यालसे नहीं कहती हूँ। किन्तु यह ख्याल है कि रातको जंगलमें अकेली घूमना क्या भले घरकी बहू-बेटियोंका काम है? दो आदमियोंके रहने पर तो इतना तिरस्कार उठाना पड़ा, तुम यदि अकेली गयीं, तो भला कैसे रक्षा होगी?

क०—इसमें हर्ज ही क्या है? तुम क्या यह ख्याल करती हो कि मैं रातमें घरके बाहर होते ही कुचरित्रा हो जाऊँगी?

श्या०—नहीं-नहीं। यह ख्याल नहीं। लेकिन बुरे लोग तो बुराई करते ही हैं।

क०—कहने दो; मैं उनके कहनेसे बुरी तो हो न जाऊँगी।

श्या०—यह तो है ही; लेकिन तुम्हें कोई बुरा-भला कहे तो हम लोगोंके मनको चोट पहुँचेगी।

क०—इस तरहकी व्यर्थकी चोट न पहुँचने दो।

श्या०—खैर, मैं यह भी कर सकूँगी, लेकिन भैयाको क्यों नाराज-दुखी करती हो?

कपालकुण्डलाने श्यामासुन्दरीके प्रति एक विमल कटाक्षपात किया। बोली—“इसमें यदि वह नाराज हों, तो मैं क्या करूँ, मेरा क्या दोष? अगर जानती कि स्त्रियोंका विवाह दासी बनना है, तो कभी शादी न करती।

इसके बाद और जवाब-सवाल करना श्यामासुन्दरीने उचित न समझा; अतः वह अपने कामसे हट गयी।

कपालकुण्डला आवश्यकीय कार्यादिसे निवृत्त हुई। घरके कामसे खाली हो, वह औषधि लानेके लिये घरसे निकल पड़ी। उस समय एक पहर रात बीत चुकी थी। चाँदनी रात थी। नवकुमार बाहरी कमरमें बैठे हुए थे। उन्होंने खिड़कीमें से देखा कि कपालकुएडला बाहर जा रही है। उन्होंने भी घरके बाहर हो मृण्मयी का हाथ पकड़ लिया। कपालकुण्डलाने पूछा—“क्या?”

नवकुमारने पूछा—“कहाँ जाती हो?” नवकुमारके स्वरमें तिरस्कारका लेशमात्र भी न था।

कपालकुण्डला बोली—“श्यामासुन्दरी अपने पतिको वशमें करनेके लिए एक जड़ी चाहती है, वही लेने जाती हूँ।”

नवकुमारने पूर्ववत् कोमल स्वरमें पूछा—“कल तो एक बार हो आई थी; फिर आज क्यों?”

क०—कल खोजकर पा न सकी। आज फिर खोजूँगी।

नवकुमारने कोमल स्वरमें ही कहा—“अच्छा, दिनमें जानेसे क्या काम न होगा?” नवकुमारका स्वर स्नेहपूर्ण था।

कपालकुएडलाने कहा—“लेकिन दिनकी ली गयी जड़ी फलती नहीं।”

नव०—तो तुम्हें खोजनेकी क्या जरूरत है? मुझे जड़ीका नाम बता दो, मैं खोजकर ला दूँगा।

क०—मैं पेड़ देखकर पहचान सकती हूँ, उसका नाम नहीं जानती और तुम्हारे तोड़नेसे भी उसका फल न होगा। औरतोंको बाल खोलकर तोड़ना पड़ता है। तुम परोपकारमें विघ्न न डालो।

कपालकुण्डलाने यह बात अप्रन्नतापूर्वक कही। नवकुमारने भी फिर आपत्ति न की। बोले—“चलो, मैं भी तुम्हारे साथ चलता हूँ।”

कपालकुण्डलाने अभिमान भरे स्वरमें कहा—“आओ, मैं अविश्वासिनी हूँ या क्या हूँ, अपनी आँखसे देख लो।”

नवकुमारने फिर कुछ न कहा। उन्होंने कपालकुण्डलाका हाथ त्याग दिया और घरके अन्दर चले गये। कपालकुण्डला अकेली जङ्गलमें घुसी।

:२: जंगल में

—“Tender is the night,
And haply the Queen moon is on her throne
Clustered around by all her starry fays;
But here there is no light.”
Keats.

सप्तग्रामका यह भाग जङ्गलमय है, यह बहुत कुछ पहले लिखा जा चुका है। गाँवसे थोड़ी ही दूर पर घना जङ्गल है। कपालकुण्डला एक संकीर्ण जङ्गली राहसे अकेली औषधिकी खोजमें चली। निस्तब्ध रात्रि थी, शब्दहीन, किन्तु मधुर। मधुर रात्रिमें स्निग्ध और उज्ज्वल किरण फैलाते हुए चन्द्रदेव आकाशमें रुपहले बादलोंको अतिक्रम करते अपनी यात्रा कर रहे थे। नीरव हो वृक्षके पत्ते उन किरणोंसे अठखेलियाँ कर रहे थे। शान्त लतागुल्मोंके बीच फूल खिलकर सफेद चाँदनीमें अपने अस्तित्वसे होड़ लगा रहे थे। पशु-पक्षी सब नीरव थे, प्रकृति नीरव थी, लेकिन कभी-कभी घोसलोंमें बैठे पक्षियोंके डैनोंकी फड़फड़ाहट, सूखे पत्तोंके गिरनेका शब्द, सर्पादि जीवोंके रेंगने और दूर कुत्तोंके भौंकनेका शब्द सुनाई पड़ जाता था। वायु भी निस्तब्ध थी, यह बात नहीं, वह चल रही थी, लेकिन इतनी मृदुगतिसे कि केवल ऊपरी वृक्षपत्रमात्र हिलते थे, लताएँ रस लेती थीं; आकाशमें निरभ्र मेघखण्ड धीरे-धीरे उड़ रहे थे। उस प्रकृतिकी नीरवताका सुख लेनेवाला अनुभव कर सकता था कि मन्द वायु-प्रवाह जारी है। पूर्व-सुखकी स्मृति जाग रही थी।

कपालकुण्डलाकी पूर्व स्मृति इस समय जागी। उसे याद आया कि सागर तटवर्ती बालियाड़ी ढूहेपर मन्द वायु किस प्रकार उसके केशोंके साथ खिलवाड़ करती थी। आकाशकी तरफ देखा, अनन्त नील मण्डल याद आया, समुद्रका रूप। कपालकुएडला इसी तरहकी पूर्व स्मृतिसे अनमनी चली जा रही है।

अनमनी होनेके कारण, कपालकुण्डलाको याद न रहा कि वह किस कामके लिए कहाँ जा रही है। जिस राहसे वह जा रही है, वह क्रमशः अगम्य होने लगा। जगल घना हो गया। मस्तकपर लता-वृक्षका वितान घना हो गया। चाँदनी न आनेके कारण अँधेरा हो गया। क्रमशः राह भी गुम हो गयी। राह न मिलनेके कारण कपालकुण्डलाका स्वप्न भंग हुआ। उसने उधर ताक कर देखा, दूर एक रोशनी जल रही थी। लुत्फुन्निसाने भी पहले इसी रोशनीको देखा था। पूर्व अभ्यासके कारण कपालकुण्डला इन सब बातोंसे भयरहित थी; लेकिन कौतूहल तो अवश्य हुआ। वह धीरे-धीरे उस ज्योतिके समीप पहुँची। उसने जाकर देखा कि जहाँ रोशनी जल रही है, वहाँ तो कोई भी नहीं; किन्तु उससे थोड़ी ही दूर पर घना जंगल होनेके कारण एक टूटी मड़ैया-सी अस्पष्ट दिखाई दी। उसकी दीवारें यद्यपि ईटों की थीं, किन्तु टूटी-फूटी-छोटीसी केवल एक कोठरीमात्र थी। उस घरमें से बातचीतकी आवाज आ रही थी। कपालकुण्डला निःशब्द पैर रखती हुई उस मड़ैयाके पास जा पहुँची। पास पहुँचते ही मालूम हो गया कि दो मनुष्य सावधानीके साथ बातें कर रहे हैं। पहले तो वह बात कुछ समझ न सकी; लेकिन बादमें पूरी चेष्टा करने पर निम्नलिखित प्रकार की बातें सुनाई पड़ीं—

एक कह रहा है—“मेरा अभीष्ट मृत्यु है; इसमें यदि ब्राह्मण सहमत न हों, तो मैं तुम्हारी सहायता न करूँगा; तुम भी मेरी सहायता न करना।”

दूसरा बोला—“मैं भी मंगलाकांक्षी नहीं हूँ, लेकिन जीवन भरके लिए, उसका निर्वासन हो; इसमें मैं राजी हूँ। लेकिन हत्याकी कोई चेष्टा मेरे द्वारा नहीं हो सकती, वरन् उसके प्रतिकूलाचरण ही करूँगी।

फिर पहलेने कहा—“बहुत अबोध हो तुम। तुम्हें कुछ ज्ञान सिखाता हूँ। मन लगाकर सुनो। बहुत ही गूढ़ बातें कहूँगा। एक बार चारों तरफ देख तो जाओ, मुझे श्वासकी आवाज लग रही है।”

वस्तुतः बातें मजेमें सुनने के लिए कपालकुण्डला मड़ैयाके दरवाजेके समीप ही आ गयी थी। अतीव आग्रह होनेके कारण उसकी साँसें जोर-जोरसे चल रही थीं।

साथीकी बातोंपर एक व्यक्ति घर के दरवाजे पर आया और आते ही उसने कपालकुण्डलाको देख लिया। कपालकुण्डलाने भी चमकीली चाँदनीमें उस आगन्तुकको देखा। वह स्थिर न कर सकी कि उस आगन्तुकको देखकर वह खुश हो, या डरे। उसने देखा कि आगन्तुक ब्रह्मवेशी है। सामान्य धोती पहने हुए है, शरीर एक उत्तरीय द्वारा अच्छी तरह ढँका हुआ है। ब्राह्मणकुमार बहुत ही कोमल और नवयुवक जान पड़ा; कारण, उसके चेहरेसे बहुत ही कमनीयता दिखाई पड़ी थी, चेहरा अतीव सुन्दर है, स्त्रियों के चेहरेके अनुरूप, लेकिन रमणी दुर्लभ तेजविशिष्ट है। उसके बाल मर्दोंकी तरह कटे हुए नहीं, बल्कि स्त्रियोंकी तरह घुँघराले कुछ पीठ और छाती पर लटक रहे थे। ललाट पर चमक, उभरा हुआ और एक शिरा साफ दिखाई पड़ती थी। दोनों आँखोंमें गजबका तेज था। हाथमें एक नङ्गी तलवार थी। किन्तु इस रूपराशिमें एक तरहका भीषण भाव दिखाई पड़ रहा था। हेमन्त वर्णपर मानो कोई कराल छाया पड़ गयी हो उसकी अन्तस्तल तक धँस जानेवाली आँखोंकी चमक देखकर कपालकुण्डला भयभीत हुई।

दोनों एक दूसरेको एक क्षण तक देखते रहे। पहले कपालकुण्डलाने आँखें झपकायीं। उसकी आँखें झपकते ही आगन्तुकने पूछा—“तुम कौन?”

यदि एक वर्ष पहले उस जङ्गलमें ऐसा प्रश्न किसीने किया होता तो कपालकुण्डला समुचित उत्तर तुरंत प्रदान करती, लेकिन इस समय इस बदली हुई परिस्थितिमें वह गृहलक्ष्मी-स्वभाव हो गयी थी, अतः सहसा उत्तर दे न सकी। ब्राह्मणवेशी कपालकुण्डलाको निरुत्तर देखकर गम्भीर होकर कहा—“कपालकुण्डलाǃ इस रातमें भयानक जंगलमें तुम किस लिए आई हो?”

एक अज्ञात रात्रिचर पुरुषके मुखसे अपना नाम सुनकर कपालकुण्डला अवाक् हो रही। फिर उसके मुँहसे कोई जवाब न निकला।

ब्राह्मणवेशीने फिर पूछा—“तुमने हम लोगोंकी बातें सुनी हैं?”

सहसा कपालकुएडलाकी वाक्‌शक्ति फिर जागी। उसने उत्तर देनेके बाद पूछा—“मैं भी वही पूछती हूँ। इस जंगलमें रातके समय तुम दोनों कौन-सी कुमन्त्रणा कर रहे थे?”

ब्राह्मणवेशी कुछ देरतक चिन्तामग्न निरुत्तर रहा। मानो उसके हृदयमें कोई नयी इष्टसिद्धिका प्रकार आ गया हो। उसने कपालकुण्डला का हाथ पकड़ लिया और उस मड़ैयासे थोड़ा किनारे हटा कर ले जाने लगा। कपालकुण्डलाने बड़े ही क्रोधसे झटका देकर अपना हाथ छुड़ा लिया। ब्राह्मणवेशीने बड़ी मिठाससे कानोंके पास धीरेसे कहा—“चिन्ता क्यों करती हो? मैं पुरुष नहीं हूँ।”

कपालकुण्डला और आश्चर्यमें आई। इस बातका उसे कुछ विश्वास भी हुआ और नहीं भी। वह ब्राह्मणवेशधारिणीके साथ गयी। उस टूटे घरसे थोड़ी दूर आड़में पहुँचकर उसने कहा—“हम लोग जो कुपरामर्श कर रहे थे, उसे सुनोगी? वह तुम्हारे ही सम्बन्ध में है।”

कपालकुण्डलाका भय और आग्रह बढ़ गया। बोली—“सुनूँगी।” छद्मवेशीने कहा—“तो जबतक न लौटूँ, यहीं प्रतीक्षा करो।”

यह कहकर वह छद्मवेशी उस भग्न घरमें लौट गया। कपालकुण्डला कुछ देर तक यहाँ खड़ी रही। लेकिन उसने जो कुछ सुना और देखा था, उससे उसे बहुत भय जान पड़ने लगा। यह कौन जानता है कि वह छद्मवेशी उसे यहाँ क्यों बैठा गया है? हो सकता है, अपना अवसर पाकर वह अपनी अभिसन्धि पूर्ण किया चाहता हो। यह सब सोचती हुई कपालकुण्डला भयसे विह्वल हो गयी। इधर ब्रह्मवेशीके लौटनेमें देर होने लगी। अब कपालकुण्डला बैठी रह न सकी, तेजीसे घरकी तरफ चली।

उधर आकाश भी घटासे काला पड़ने लगा। जंगलमें चाँदनी से जो प्रकाश फैल रहा था, वह भी दूर हो गया। कपालकुण्डला को प्रतिपल देर जान पड़ने लगी। अतः वह तेजीसे जंगलसे बाहर होने लगी। आनेके समय उसे साफ पीछेसे दूसरेकी पदध्वनि सुनाई पड़ने लगी। पीछे फिरकर देखनेसे अन्धकारमय कुछ दिखाई न पड़ा। कपालकुण्डलाने सोचा कि ब्रह्मवेशी उसके पीछे आ रहा है। घना जंगल पीछे छोड़ वह उस क्षुद्र जंगली राह पर आ गयी थी। वहाँ उतना अँधेरा न था, देखनेसे कुछ दिखाई पड़ सकता था, लेकिन उसे कुछ भी दिखाई न पड़ा। अतः वह फिर तेजीसे कदम बढ़ाती हुई चली, फिर पदशब्द सुनाई पड़ा। आकाश काली-काली घटाओंसे भयानक हो उठा था। कपालकुण्डला और भी तेजी से आगे बढ़ी। घर बहुत ही करीब था; लेकिन इसी समय हवा के झटकेके साथ बूँदी पड़ने लगी। कपालकुण्डला दौड़ी। उसे ऐसा जान पड़ा कि पीछा करनेवाला भी दौड़ा। घर सामने दिखाई पड़ते-न-पड़ते भयानक वर्षा शुरू हो गयी। भयानक गर्जनके साथ बिजली चमकने लगी। आकाशमें बिजलीका जाल बिछ गया और रह-रहकर वज्र टूटने लगा। कपालकुण्डला किसी तरह आत्मरक्षा कर घर पहुँची। पास का बगीचा पारकर दरवाजेके अन्दर दाखिल हुई। दरवाजा उसके लिए खुला हुआ था। दरवाजा बन्द करनेके लिए वह पलटी। उसे ऐसा जान पड़ा कि सामने दरवाजेके बाहर कोई वृद्धाकार मनुष्यमूर्ति खड़ी थी। इसी समय एक बार बिजली चमक गयी। उस एक ही चमकमें कपालकुण्डला उसे पहचान गयी। वह सागरतीरवासी वही कापालिक है।

:३: स्वप्न में

“I had a dream; which was
not at all adream.”
—Byron

कपालकुण्डलाने धीरे-धीरे दरवाजा बन्द कर दिया और शयनागारमें आयी। वह धीरेसे अपने पलंगपर सो रही। मनुष्यहृदय अनन्त समुद्र है, जब उससे प्रबल वायु समर करने लगती है तो कितनी तरंगें उठती हैं, यह कौन गिन सकता है। प्रबल वायुसे हिलता और वर्षाजलसे भींगा हुआ जटाजूटधारी कापालिकका चेहरा उसे सामने दिखाई पड़ने लगा; पहलेकी समूची घटनाओंकी कपालकुण्डला याद करने लगी। घने जंगलमें कापालिककी वह भैरवी पूजा, अन्यान्य पैशाचिक कार्य, वह उसके साथ कैसा आचरण कर भागकर आयी है, नवकुमारको बन्धन, यह सब याद आने लगा। कपालकुण्डला काँप उठी। आज रातकी सारी घटनाएँ आँखके सामने नाच उठीं। श्यामाकी औषधिकामना, नवकुमारका निषेध, उनके प्रति कपालकुण्डलाका तिरस्कार, इसके बाद अरण्यकी ज्योत्स्नामयी शोभा, वह भीषण दर्शन सब याद आया।

पूर्व दिशामें उषाकी मुकुट ज्योति प्रकट हुई, उस समय कपालकुण्डलाको तन्द्रा आ गयी। उस हल्की नींदमें कपालकुण्डला स्वप्न देखने लगी। मानों वह उसी सागरवक्षपर नावपर सवार चली जा रही है, तरणी सजी हुई, उसपर वासन्ती रंगकी ध्वजा फहरा रही है, नाविक फूलोंकी माला पहने हुए, नाव खे रहे हैं। राधेश्यामका अनन्त प्रणयगीत हो रहा है। पश्चिम गगनसे सूर्य तप रहे हैं, स्वर्ण धारामें समुद्र हँस रहा है। आकाशमें खण्ड-खण्ड मेघ भी उस धारामें स्नान कर रहे हैं। एकाएक रात हो गयी। सूर्य कहाँ चले गये! सुनहले बादल कहाँ गए! घने-काले बादल छा गये। समुद्रमें दिक्भ्रम होने लगा। किधर जाया जाय! नाव पलटी। गाना बन्द हुआ, गलेकी माला फेंक दी गयी, पताका गायब हो गयी, आँधी आयी। सागरमें वृक्ष-परिमाण लहरें उठने लगीं। लहरसे कापालिक प्रकट हुआ। बाएँ हाथमें नाव पकड़ डुबानेको तैयार हुआ। इसी समय वह ब्राह्मणवेषधारी प्रकट हुआ। उसने पूछा—“बोलो नाव डुबा दें, या बचा दें?” कपालकुण्डलाने कहा—“डुबा दो।” उसने नावको छोड़ दिया। नाव भी बोल उठी—“अब मैं भार उठा न सकूँगी, पातालमें जाती हूँ?” यह कहती हुई नाव पातालमें प्रवेश कर गयी।

पसीनेसे नहायी हुई, कपालकुण्डला स्वप्नसे जाग उठी। उसने देखा कि सबेरा हो गया है। उन्मुक्त खिड़कीसे वासन्ती हवा आ रही है। वृक्ष हलकी हवासे फूल सहित झूम रहे हैं। हिलती शाखाओंपर बैठे पक्षी गा रहे हैं। कितनी फूलोंसे लदी शाखाएँ खिड़की के अन्दर घुसी आ रही हैं। कपालकुण्डला नारी-स्वभाववश उन शाखाओंको एकत्र करने लगी। एकाएक उसमेंसे एक लिपि बाहर हुई। कपालकुण्डला पढ़ना जानती थी; उसने पढ़ा—पत्र यों था—

“आज शामके बाद कल रातकी तरह ब्राह्मणकुमारके साथ मुलाकात करो। तुम अपने बारेमें जो प्रयोजनीय बात सुनना चाहती थीं, उसे सुनोगी।—अहं ब्राह्मणवेशी।”

:४: संकेतानुसार

उस दिन शामतक कपालकुण्डला केवल यही चिन्ता करती रही कि ब्राह्मणवेशीके साथ मुलाकात करना चाहिए या नहीं। एक पतिव्रता युवतीके लिये निर्जन रातमें परपुरुष सम्भाषण बुरा और निन्दनीय है, केवल यही विचार कर वह मिलनेमें हिचकती थी, कारण, उसका सिद्धान्त था कि असद्उद्देश्यसे न मिलनेसे कोई हानि नहीं है। स्त्रीको स्त्रीसे या पुरुषको पुरुषसे मिलनेका, जैसा अधिकार मुझे है, वैसा ही अधिकार निर्मल चित्त रखनेपर उसे भी प्राप्त है। सन्देह केवल यह है कि ब्राह्मणवेशी पुरुष है या स्त्री। उसे संकोच था तो केवल इसलिए कि मुलाकात मंगलजनक है अथवा नहीं। पहले ब्राह्मणवेशीसे मुलाकात, फिर कापालिक द्वारा पीछा और दर्शन और अन्तमें स्वप्न, इन सब घटनाओंने कपालकुण्डलाको बहुत डरा दिया था। उसका अमङ्गल निकट है उसे ऐसा जान पड़ने लगा और उसे यह भी सन्देह न रहा कि यह अमङ्गल कापालिकके आगमनके कारण है। यह तो स्पष्ट ही उसने कहा कि बातें कपालकुण्डलाके बारेमें ही हो रही थीं। हो सकता है, उसके द्वारा कोई बचावकी भी राह निकल आये। लेकिन बातोंसे तो यही जान पड़ता है कि या तो मृत्यु अथवा निर्वासन दण्ड। तो क्या ये सारी बातें मेरे ही लिए हैं? ब्राह्मणवेशीने तो कहा था कि उसके बारेमें ही बात है। ऐसी कुमंत्रणामें ब्राह्मणवेशी जब सहकारी है, तो उससे मिलना मंगलजनक नहीं, बल्कि आफत स्वयं बुलाना होगा। लेकिन रातमें जो स्वप्न देखा उसमें तो ब्राह्मणवेशीके कथनसे जान पड़ा कि वह रक्षा भी कर सकता है। तो क्या होगा? क्या वह स्वप्नकी तरह डुबायेगा? हो सकता है, माताजीने उसे इसीलिए भेजा हो कि उससे मेरी रक्षा ही हो। अतएव कपालकुण्डलाने मुलाकात करनेका ही निश्चय किया। बुद्धिमान ऐसा सिद्धान्त करता या नहीं, सन्देह है, लेकिन यहाँ बुद्धिमानीसे हमारा कोई सम्बन्ध नहीं है। कपालकुण्डला कच्ची उम्र की थी, अतः उसने बुद्धिमानीका विचार नहीं किया। उसने कुतूहली रमणी जैसा सिद्धान्त किया; भीमकान्त रूपराशि दर्शन लोलुप जैसा कार्य किया; नैशवनविहारिणी संन्यासीपालिताकी तरह सिद्धान्त किया और सिद्धान्त किया दीपक शिखापर पतित होनेवाले पतंगेकी तरह।

सन्ध्याके बाद बहुत-कुछ गृह-कार्य समाप्त कर कपालकुण्डलाने पहलेकी तरह वनयात्रा की। यात्राके समय कपालकुण्डलाने अपने कमरेका दीपक तेज कर दिया। लेकिन वह जैसे ही घरके बाहर हुई दीपक बुझ गया।

यात्राके समय कपालकुण्डला एक बात भूल गयी। ब्राह्मणवेशधारीने किस जगह मुलाकातके लिए लिखा है? अतः पत्र पढ़नेकी फिर आवश्यकता हुई। उसने लौटकर पत्र रखा हुआ स्थान ढूँढा, लेकिन वहाँ पत्र न मिला। याद आया कि उसने पत्रको अपने जूड़ेमें खोंस लिया था। अतः जूड़ेमें देखा, वेणी खोलकर देखा, लेकिन पत्र न मिला। घरके अन्य स्थानोंको खोजा। अतएव पूर्व स्थानपर मिलनेके ख्यालसे निकल पड़ी। जल्दीमें उसने फिर अपने खुले बाल बाँधे नहीं। अतः आज कपालकुण्डला प्रथम अनूढ़ाकी तरह उन्मुक्तकेश होकर चली।

:५: दरवाजे पर

“Stand you a while apart
Confine yourself, but in a patient list.
—Othello

सन्ध्यासे पहले जब कपालकुण्डला गृहकार्यमें लगी हुई थी, उसी समय वह पत्र जूड़ेसे खसककर गिर पड़ा था। कपालकुण्डलाको पता न रहा। उसे नवकुमारने देख लिया। जूड़ेसे पत्र गिरते देख उन्हें आश्चर्य हुआ। कपालकुण्डलाके वहाँसे हट जानेपर उन्होंने पत्रको पढ़ा, उसके पढ़नेसे एक ही सिद्धान्त सम्भव है। “जो बात कल सुनना चाहती थी, वह आज सुनेंगी?” वह कौनसी बात है? क्या प्रणय वाक्य? क्या ब्राह्मणवेशधारी मृण्मयीका उपपति है? जो व्यक्ति पहली रातकी घटनासे अवगत नहीं है, वह केवल यही सोच सकता है।

स्वामीके साथ सती होनेके समय अन्य किसी कारणसे जब कोई जीता हुआ चितारोहण करता है और चितामें आग लगा दी जाती है तो पहले धुएँसे उसके चारों ओरका स्थान घिर जाता है, फिर क्रमशः लकड़ियोंके बीचसे एक-दो अग्निशिखा सर्प जिह्वाकी तरह उसके अंगपर आकर आक्रमण करती हैं, फिर अन्तमें ज्वालमाला चारों तरफसे घेर लेती है और शिरपर्यन्त अग्नि पहुँच कर उसे दग्ध कर राख बना देती है।

पत्र पढ़नेपर नवकुमारका भी यही हाल हुआ। पहले समझे नहीं, फिर संशय, निश्चयता, अन्तमें ज्वाला। मनुष्यका हृदय एकबारगी दुःख या सुख बर्दाश्त कर नहीं सकता; क्रमशः ग्रहण कर सकता है। पहले तो धुएँने नवकुमारको घेर लिया; इसके बाद अग्निशिखा हृदयपर ताप पहुँचाने लगी, अन्तमें हृदय भस्म होने लगा। उन्होंने विचारकर देखा कि अबसे पहले किन बातोंमें कपालकुण्डला अबाध्य रही है। उन्होंने देखा कि यह स्वतन्त्रता ही है। वह सदा स्वतन्त्र रही, जहाँ कहीं घूमने गयी अकेली। दूसरोंके शिकायत करनेपर भी नवकुमारने कभी उसपर सन्देह न किया, लेकिन आज वह सब यादकर उन्हें प्रतीति होने लगी।

यंत्रणाका प्रथम वेग निकल गया। नवकुमार एकान्तमें चुपचाप बैठ कर रोने लगे, रोनेके बाद कुछ स्थिर हुए। इसके बाद उन्होंने अपना कर्त्तव्य निश्चित किया। आज वह कपालकुण्डलासे न कहेंगे। रातको कपालकुण्डला जब यात्रा करेगी, तो उसका पीछा करेंगे और इसके बाद अपना जीवन-त्याग देंगे। कपालकुण्डलाको कुछ न कहेंगे, बल्कि अपना प्राणनाश करेंगे।

ऐसा सोचकर वह कपालकुण्डलाके जानेकी राह खिड़की द्वारा देखते रहे। कपालकुण्डलाके निकलकर जानेके बाद नवकुमार भी उठकर चले, लेकिन इसी समय कपालकुण्डला फिर वापस आई। यह देख वह धीरेसे खिसक गये। अन्तमें कपालकुण्डलाके फिर बाहर होनेपर, जब नवकुमार भी बाहर चले, तो उन्हें दरवाजेपर एक दीर्घाकार पुरुष खड़ा दिखाई दिया।

वह व्यक्ति कौन है; क्यों खड़ा है, जाननेकी कोई इच्छा नवकुमारको न हुई। वह केवल कपालकुण्डलापर निगाह रखे हुए चले, अतएव खड़े मनुष्यकी छातीपर घक्का दे उन्होंने उसे हटाना चाहा, लेकिन वह हटा नहीं।

नवकुमारने कहा—“कौन हो तुम? हट जाओ, मेरी राह छोड़ो।”

आगन्तुक बोला—“क्या नहीं पहचानते, मैं कौन हूँ?” यह शब्द समुद्रनादवत् जान पड़ा। नवकुमारने और गौरसे देखा—वही पूर्वपरिचित—कापालिक।

नवकुमार चौंक उठे। लेकिन डरे नहीं। सहसा उनका चेहरा प्रसन्न हो गया। उन्होंने पूछा—“क्या कपालकुण्डला तुमसे मिलने जा रही है?”

कापालिकने कहा,—“नहीं?”

आशा-प्रदीप जलते ही बुझ गया। नवकुमारका चेहरा फिर पहले जैसा हो गया। बोले—“तो तुम राहसे हट जाओ।”

कापालिकने कहा—“राह छोड़ दूँगा, लेकिन तुमसे कुछ कहना है, पहले सुन लो।”

नवकुमार बोले,—“तुमसे मेरी कौनसी बात है? क्या तुम फिर मेरा प्राण लेने आये हो? तो ग्रहण करो, इस बार मैं मना न करूँगा। तुम जरा ठहरो, मैं अभी आता हूँ। मैंने क्यों न देवतुष्टिके लिये प्राण दिया! अब उसका फल भुगत रहा हूँ। जिसने मेरी रक्षा की थी, उसीने नष्ट किया। कापालिक! अब अविश्वास न करो। मैं अभी लौटकर, आत्म-समर्पण करता हूँ।

कापालिकने उत्तर दिया—“मैं तुम्हारे वधके लिए नहीं आया हूँ, भवानी की वैसी इच्छा नहीं। मैं जो करने आया हूँ, उसमें तुम्हारा भी अनुमोदन है। घर के अन्दर चलो, मैं जो कहता हूँ, उसे सुनो।”

नवकुमारने कहा—“अभी नहीं, फिर दूसरे समय सुनूँगा। तुम जरा मेरी अपेक्षा करो। मुझे बहुत जरूरी काम है, पूरा कर अभी आता हूँ।”

कापालिकने कहा—“वत्स! मैं सब जानता हूँ तुम उस पापिनीका पीछा करोगे। मैं जानता हूँ, वह जा रही है। मैं अपने साथ तुम्हें वहाँ ले चलूँगा। जो देखना चाहते हो दिखाऊँगा, लेकिन जरा मेरी बात सुन लो। डरो नहीं।”

नवकुमारने कहा—“अब मुझे तुम से कोई डर नहीं, आओ।”

यह कहकर नवकुमार कापालिकको लेकर अन्दर गये और एक आसनपर उसे बिठाकर तथा स्वयं बैठते हुए बोले—“कहो!”

:६: पुनर्वार्ता

“तद्गच्छ सिद्धं कुरु देवकार्यम्।”
—कुमारसंभव

कापालिक ने आसन ग्रहण कर अपनी दोनों बाहें नवकुमारको दिखाई। नवकुमार ने देखा कि दोनों हाथ टूटे हुए थे।

पाठकोंकी याद रह सकता है कि जिस रात कपालकुण्डला के साथ नवकुमार कापालिक-आश्रमसे भागे, उसी रात खोजने में व्यस्त बालियाड़ीके शिखरसे गिरा था। गिरनेके समय उसने शरीर-रक्षाके लिए दोनों हाथोंसे सहारा लिया। इससे उसका शरीर तो बचा, लेकिन दोनों हाथ टूट गये। सारा हाल कहकर कृपालिक ने कहा—“इन हाथों द्वारा यद्यपि दैनिक कार्य हो जाते हैं, किन्तु, इनमें अब बल नहीं है, यहाँतक कि मैं लकड़ी भी उठा नहीं सकता।”

इसके बाद बोला—“गिरते ही मैं जान गया कि मेरे दोनों हाथ टूट गये, लेकिन बादमें मैं बेहोश हो गया। पहले बेहोश और इसके बाद धीरे-धीरे जब मुझे ज्ञान हुआ तो मैं नहीं जानता था कि इस तरह मुझे कितने दिन बीते। शायद दो रातें और एक दिन था। सबेरेके समय मैं फिर पूरी तरह होशमें आया। इससे ठीक पहले मैंने स्वप्न देखा—मानो भवानी—यह कहते-कहते कापालिकको रोमांच हो आया—मेरे सामने प्रत्यक्ष आकर खड़ी हो गयी हैं। भौंहें टेढ़ी कर ताड़ना करती और कहती हैं—‘अरे दुराचारी! तेरी ही चित्तकी अशुद्धिके कारण मेरी इस पूजामें विघ्न हुआ है। इतने दिनोंतक इन्द्रिय-लालसा के वशीभूत होकर उस कुमारीके रक्तसे तूने मेरी पूजा नहीं की। अतएव इसी कुमारी द्वारा तेरे सारे पूर्व कर्मोंका नाश हो रहा है। अब मैं तेरी पूजा ग्रहण न करूँगी।’ इसपर मैं रोकर भगवतीके चरणोंपर लोटने लगा, तो उन्होंने प्रसन्न होकर कहा—‘भद्र! इसका सिर्फ एक प्रायश्चित्त बताती हूँ। उसी कपालकुण्डलाका मेरे सामने बलिदान कर। जितने दिनोंतक तुझसे यह न हो सके, मेरी पूजा न करना।’

कितने दिनों तक और किस प्रकार मैं आरोग्य हुआ, यह बताने की आवश्यकता नहीं है। क्रमशः आरोग्यलाभ करनेके बाद देवीकी आज्ञा पूरी करनेकी कोशिशमें लग गया। लेकिन मैंने देखा कि इन हाथोंमें एक बच्चे जैसा बल भी नहीं। बिना बाहुबलके यत्न सफल होनेका नहीं। अतएव इसमें सहायताकी आवश्यकता हुई। विदेशी और विधर्मी राजमें इस बातमें कौन सहायक हो सकता है। बड़ी कोशिशसे पापिनीका आभास मालूम हुआ। लेकिन बाहुबलके अभावसे कार्य पूरा नहीं होता है। केवल मानससिद्धिके लिए होमादि करता हूँ। कल रातको मैंने स्वयं देखा कि कपालकुण्डलाके साथ ब्राह्मणकुमारका मिलन हुआ। आज भी वह उससे मिलने जा रही है। देखना चाहो, तो मेरे साथ आओ।

वत्स! कपालकुण्डला वधके योग्य है। मैं भवानीके आज्ञानुसार उसका वध करूँगा। वह तुम्हारे प्रति भी विश्वासघातिनी है, अतएव तुम्हें भी उसका वध करना चाहिए। अविश्वासीको पकड़ कर मेरे यज्ञ-स्थान पर ले चलो। वहाँ अपने हाथसे उसका बलिदान करो। इससे भगवतीका उसने जो अपकार किया है, उसका दण्ड होगा, पवित्र कर्मसे अक्षय पुण्य होगा; विश्वासघातिनीका दण्ड होगा, चरम प्रतिशोध होगा।”

कापालिक चुप हुआ। नवकुमार कुछ भी न बोले। कापालिक ने उन्हें चुप देखकर कहा—“अब चलो, वत्स! जो दिखानेको कह चुका हूँ, दिखाऊँगा|”

नवकुमार पसीनेसे तर कापालिकके साथ चले।

:७: सपत्नी संभाषण

“Be at peace: it is your sister that addresses you, Require Lucretia’s love.
—Lucretia

कपालकुंडला घरसे निकलकर जंगलमें घुसी। वह पहले उस टूटे घरमें पहुँची। वहाँ ब्राह्मणसे मुलाकात हुई। दिनका समय होता तो वह देखती कि उसका चेहरा बहुत उतर गया है। ब्राह्मणवेशीने कपालकुंडलासे कहा—“यहाँ कापालिक आ सकता है, आओ अन्यत्र चलें।” जंगलमें एक खुली जगह थी, चारों तरफ वृक्ष, बीचमें चौरस, साफ और समतल था। वहाँ बैठनेपर ब्राह्मणवेशीने कहा—“पहले मैं अपना परिचय दूँ। मेरी बात कहाँ तक विश्वासयोग्य है, स्वयं समझ सकोगी। जब तुम अपने स्वामोके साथ हिजली देश से आ रही थी, तो राहमें एक यवन कन्याके साथ मुलाकात हुई थी। क्या तुम्हें याद है?”

कपालकुंडला बोली—“जिसने मुझे अलंकार दिये थे?”

ब्राह्मणवेशधारिणीने कहा—“हाँ, मैं वही हूँ।”

कपालकुंडला बड़े आश्चर्यमें आई। लुत्फुन्निसाने उसका विस्मय देखकर कहा—“और सबसे बड़ी अचरज की बात है कि मैं तुम्हारी सौत हूँ।”

कपालकुंडलाने चौंककर कहा—“हैं, यह कैसे?”

इस पर लुत्फुन्निसाने शुरूसे अपना परिचय दिया। विवाह, जातिनाश, स्वामी द्वारा त्याग, सप्तग्राम आगमन, नवकुमारसे मुलाकात और व्यवहार, गत दिवस जंगल में आना, होमकारीसे मुलाकात आदि बातें वह क्रमशः कह गयी। इस समय कपालकुंडलाने पूछा—“तुमने किस अभिप्रायसे हमारे घर छद्मवेशमें आनेकी इच्छा की?”

लुत्फुन्निसाने कहा—“तुम्हारे साथ पतिदेवका चिरविच्छेद करानेके लिए।”

कपालकुंडला सोचमें पड़ गयी बोली—“यह कैसे सिद्ध कर पाती?”

लु०—तुम्हारे सतीत्वके प्रति तुम्हारे पतिको संशयमें डाल देती। लेकिन उसकी जरूरत नहीं; वह राह मैंने त्याग दी है। अतः अगर तुम मेरे कहे मुताबिक कार्य करो, तो सारी कामना सिद्ध हो; साथ ही तुम्हारा भी मंगल होगा।

कपा०—होमकारीके मुँहसे तुमने किसका नाम सुना था?

लु०—“तुम्हारा ही नाम। वह तुम्हारी मंगल या अमंगल कामनासे होम कर रहे हैं, यही जाननेके लिए प्रणाम कर मैं वहाँ बैठी। जब तक उनकी क्रिया समाप्त न हुई, मैं वहीं बैठी रही। होमके अन्तमें छलपूर्वक तुम्हारे नामके साथ होमका अभिप्राय पूछा। थोड़ी ही देरकी बातमें मैं समझ गयी कि होम तुम्हारी अमंगलकामनाके लिए है। मेरा भी वही प्रयोजन था, मैंने यह भी बताया। परस्पर सहायता के लिए वचनबद्ध हुए, विशेष परामर्शके लिए भग्नकुटीमें गये। वहाँ उसने अपना मनोरथ कहा कि तुम्हारी मृत्यु ही उसे अभीष्ट है। इससे मेरा कोई प्रयोजन नहीं। यद्यपि मैंने इस जन्ममें पाप ही किये हैं, लेकिन मैं इतनी पतित नहीं हूँ कि एक निरपराध बालिकाकी हत्याकी कामना करूँ। मैं इसपर राजी नहीं हुई। इसी समय तुम वहाँ पहुँची। शायद तुमने कुछ सुना हो।”

कपा०—केवल तर्क ही मैंने सुना।

लु०—उस व्यक्तिने मुझे अबोध जानकर कुछ शिक्षा देना चाहा। अन्तमें क्या निश्चय होता है, यह जाननेके लिए तुम्हें एकान्तमें बैठाकर मैं गयी।

कपा०—फिर लौटकर क्यों नहीं आयी?

लु०—ठीक है। कापालिकने तुम्हारी प्राप्ति और पालनसे लेकर तुम्हारे भागने तकका सारा हाल कह सुनाया।

यह कहकर लुत्फुन्निसाने कापालिकका शिखरसे गिरना, हाथ टूटना, स्वप्न आदि सब कह सुनाया! स्वप्नकी बात सुनकर कपालकुण्डला चमक उठी; चित्तमें चञ्चलता भी हुई। लुत्फुन्निसाने कहा—“कापालिककी प्रतिज्ञा भवानीकी आज्ञाका प्रतिपालन है। बाहुमें बल नहीं है, इसलिये दूसरेकी सहायता चाहता है। मुझे ब्राह्मणकुमार समझकर सहायताकी आशासे उसने सब कहा। मैं अभी तक राजी नहीं हूँ। आगे भी राजी नहीं हो सकती। इस अभिप्रायसे मैं तुमसे मिली हूँ, लेकिन यह कार्य भी मैंने केवल स्वार्थसे ही किया है। तुम्हें प्राणदान देती हूँ। लेकिन तुम क्या मेरे लिए कुछ करोगी?”

कपालकुण्डलाने पूछा—“क्या करूँ?”

लु०—मुझे भी प्राणदान दो—स्वामीका त्याग करो।

कपालकुण्डला बहुत देर तक कुछ न बोली। बहुत देर बाद बोली “स्वामीको त्याग कर कहाँ जाउँगी?”

लु०—विदेशमें बहुत दूर। तुम्हें अट्टालिका दूँगी, धन दूँगी, दास-दासी दूँगी, रानीकी तरह रहोगी।

कपालकुण्डला फिर चिन्तामें पड़ गई। पृथ्वीमें उसने सब देखा, लेकिन कोई दिखाई नहीं दिया। अन्तःकरणमें देखा नवकुमार कहीं भी न थे, तो क्यों लुत्फुन्निसाकी राहका काँटा बनूँ? फिर बोली—“तुमने मेरी क्या सहायता की है, यह अभी समझ नहीं पाती हूँ। अट्टालिका, धन, दास, दासी नहीं चाहती। मैं तुम्हारे सुखमें क्यों बाधा दूँ! तुम्हारी इच्छा पूरी हो—कलसे इस विध्नकारिणीकी कोई खबर न पाओगी। मैं वनचरी थी, वनचरी हो जाऊँगी।”

लुत्फुन्निसा आश्चर्यमें आई। उसे इतनी जल्दी स्वीकार कर लेनेकी आशा न की थी। मोहित होकर उसने कहा—“बहन! तुमने मुझे जीवनदान दिया है। लेकिन मैं तुम्हें अनाथा होकर जाने न दूँगी। कल सबेरे मैं तुम्हारे साथ एक चतुर दासी भेजूँगी। उसके साथ जाना। वर्द्धमानमें एक बहुत बड़ी प्रधान महिला मेरी मित्र हैं, वह तुम्हारी सारी इच्छा पूरी कर देंगी।”

कपालकुण्डला और लुत्फुन्निसा इस प्रकार निश्चिन्त हो बातें कर रही थीं कि सामने कोई विध्न ही नहीं। उसके स्थानसे जो वन्यपथ आया था, उसपर खड़े होकर कापालिक और नवकुमार उनके प्रति कराल दृष्टिसे देख रहे थे, उसे उन्होंने देखा ही नहीं।

नवकुमार और कापालिक केवल इन्हें देख रहे थे, दुर्भाग्यवश इनकी बातें सुननेकी परिधि से वे दूर थे। कौन बता सकता है कि यदि मनुष्यकी श्रवणेन्द्रिय और आँखें मनुष्य के अन्दर तकका हाल देख-सुन लेतीं तो मनुष्यका दुःख-वेग कम होता या बढ़ता। लोग कहते हैं, संसारकी रचना अपूर्व और कौशलमय है।

नवकुमारने देखा, कपालकुण्डला आलुलायित-कुन्तला है। जब वह उनकी हुई न थी, तबतक भी वेणी बाँधती न थी। उसके बाल इतने लम्बे थे और धीमे स्वरमें बातें करनेके लिये वह इतनी पास बैठी थी कि सारे बाल लुत्फुन्निसाकी पीठ तक उड़कर जा रहे थे। उनका इधर ध्यान न था। लेकिन नवकुमार यह देखकर हताश हो जमीनपर बैठ गये, यह देखकर कापालिकने अपनी बगल से लटकते एक नारियल पात्रको निकलकर कहा—“वत्स! बल खोते हो? हताश होते हो? लो यह भवानी का प्रसाद पियो। पियो, बल प्राप्त करोगे।”

कापालिकने नवकुमारके मुँह के पास पात्र लगा दिया। नवकुमारने अनमने होकर उसे पिया और दारुण प्यास दूर की। नवकुमारको यह मालूम न था कि यह पेय कापालिक की स्वयं तैयार की हुई तेज शराब है। उसे पीते ही बल आ गया।

उधर लुत्फुन्निसाने पहलेकी तरह मृदुस्वरमें कहा—“बहन! जो काम किया है, उसका बदला दे सकनेकी मेरी शक्ति नहीं है। फिर भी, चिर दिनोंतक मैं तुम्हें याद करती रहूँ, तो यही मेरे लिये सुखकर होगा। मैंने सुना है कि जो अलङ्कार मैंने तुम्हें दिये थे, उन्हें तुमने गरीबोंको दे डाला। इस समय मेरे पास कुछ नहीं है। कल दूसरा प्रयोजन सोचकर अपने साथ अंगूठी भर ले आयी थी। भगवान्‌की कृपासे उस पापसे दूर रही। यह अंगूठी तुम रखो। इसके उपरान्त इस अंगूठी को देखकर तुम अपनी मुफलिस बहनको याद करना। आज यदि स्वामी पूछें कि यह अंगूठी कहाँ पायी, तो कह देना—“लुत्फुन्निसाने दिया है।” यह कहकर लुत्फुन्निसाने बहुत धन देकर खरीदी गयी उस अंगूठीको ऊँगलीसे उतारकर कपालकुण्डलाके हाथमें दे दिया। नवकुमारने यह भी देखा। कापालिकने नवकुमार को पकड़ रखा था, उन्हें फिर काँपते देख फिर शराब पिलायी। मदिरा नवकुमारके माथेपर पहुँचकर उनके प्रकृत स्वभावको बदलने लगी। उसने स्नेहांकुर तकको उखाड़ फेंका।

कपालकुण्डला लुत्फुन्निसासे बिदा होकर घरकी तरफ चली। नवकुमार और कापालिक ने लुत्फुन्निसासे छिपकर कपालकुण्डलाका अनुसरण किया।

:८: घर की तरफ

कपालकुण्डला धीरे-धीरे घर की तरफ चली। बहुत ही धीरे मृदु-पादविक्षेपसे। इसका कारण यह था कि वह बहुत ही गहरी चिन्तामें डूबी हुई थी। लुत्फुन्निसाकी दी हुई खबरसे कपालकुण्डलाका चित्त बिल्कुल परिवर्तित हो गया था। वह अपने आत्म-विसर्जनके लिये तैयार हुई। आत्म-विसर्जन किसलिये? क्या लुत्फुन्निसाके लिये? यह बात नहीं।

कपालकुण्डला अन्तःकरण से तान्त्रिक की सन्तान है। जिस प्रकार तान्त्रिक भवानीके प्रसादके रूपमें दूसरेकी जान लेनेका आकांक्षी हैं, वैसे ही वह भी उसी आकांक्षासे आत्म-विसर्जनके लिये तैयार है। कापालिककी वजहसे कपालकुंडला केवल शक्तिप्रार्थिनी है, यह बात नहीं, बल्कि असली कारण यह है कि संगति प्रभावके कारण देवीकी श्रद्धाभक्तिमें मनसे अनुरागिनी है। वह मजेमें समझ चुकी है कि सृष्टिशासनकर्त्री और मुक्तिदात्री एकमात्र भैरवी ही हैं। यह सही है कि भैरवीपूजामें नरबलिके रक्तसे प्राङ्गण भर उठता है, यह उसका परदुःखकातर हृदय सहनेमें असमर्थ है, किन्तु और किसी कार्यमें उसकी भक्तिभावना कुंठित नहीं है। उन्हीं जगतशासनकर्त्री, सुख-दुःख-विधायिनी और मोक्षदायिनी भगवतीने स्वप्नमें उसे आत्मविसर्जनका आदेश दिया है। फिर कपालकुण्डला क्यों न उस आज्ञाको माने?

हम तुम प्राणत्याग करना नहीं चाहते। बड़े प्रेम से जो कहते हैं कि यह संसार सुखमय है, सुखकी ही आशासे बैलकी तरह बराबर घूम रहे हैं—दुःखकी प्रत्याशासे नहीं। कहीं यदि आत्मकर्मदोषसे इस प्रत्याशामें सफलता प्राप्त न की, तो दुःख कहकर हम चिल्लाने लगते हैं किन्तु ऐसा होनेसे ही नियम नहीं बन जा सकता, ऐसा सिद्धान्त होता है। नियमका व्यतिक्रम माना है। हमें तुम्हें हर जगह सुख ही है। उसी सुखसे संसार में हम बँधे हुए हैं, छोड़ना नहीं चाहते। लेकिन इस संसार-बन्धनमें प्रणय ही प्रधान रस्सी है। कपालकुण्डलाके लिए वह बन्धन या नहीं कोई भी बन्धन नहीं। फिर कपालकुण्डलाको कौन रोक सकता है? जिसके लिए बन्धन नहीं है, वही सबसे अधिक बलशाली है। गिरिशिखरसे नदीके उतरने पर कौन उसका गतिरोध कर सकता है? एक बार आँधी आनेपर उसे कौन रोक सकता है? कपालकुण्डलाका चित्त डाँवाडोल हो जाये, तो उसे कौन स्थिर कर सकता है? नये हाथीके मस्त हो जाने पर उसे कौन शान्त करे?

कपालकुंडलाने अपने हृदयसे पूछा—“अपने इस शरीरको जगदीश्वरीके लिए क्यों न समर्पण करूँ? पंचभूतको रखकर क्या होगा। प्रश्न वह करती थी, लेकिन कोई निश्चित उत्तर न दे सकती थी। संसारमें और कोई भी बन्धन न होनेपर पंचभूतका बन्धन तो है ही।

कपालकुंडला नीचा सिर किये चलने लगी। जब मनुष्यका हृदय किसी बड़े भावमें डूबा रहता है, तो उस समय चिन्ताकी एकाग्रतामें बाहरी जगतकी तरफ ध्यान नहीं रहता। उस समय अनैसर्गिक वस्तु भी प्रत्यक्षीभूत जान पड़ती है। इस समय कपालकुंडलाकी ऐसी ही अवस्था थी।

मानों ऊपरसे उसके कानोंमें वह शब्द पहुँचा—“वत्से, मैं राह दिखाती हूँ।” कपालकुंडला चकितकी तरह ऊपर देखने लगी। देखा, मानो आकाशमें नवनीरद-निन्दित मूर्ति है; गलेमें लटकनेवाली नरमुंडमालासे खून टपक रहा है; कमरमें नरकरराजि झूल रही है; बाँये हाथमें नरकपाल; अंगमें रुधिरधारा, ललाटपर विषम उज्जवल ज्वाला विभासित है और लोचन प्रान्तोंमें बालशशि शोभित है; मानों दाहिने हाथसे भैरवी कपालकुंडलाको बुला रही है।

अब कपालकुंडला ऊर्ध्र्वमुखी होकर चली। वह अद्भुत देवी रूप आकाशमें उसे राह दिखा रहा था, कभी कपालमालिनीका अंग बादलोंमें छिपता, कभी सामने प्रकट होकर चलता। कपालकुंडला उन्हींको देखती हुई चलने लगी।

नवकुमार या कापालिकने यह सब कुछ न देखा। नवकुमारने सुरा-गरल-प्रज्ज्वलित-हृदयसे—कपालकुंडलाके धीरपदक्षेपसे असहिष्णु होकर साथीसे कहा, “कापालिक!”

कापालिकने पूछा—“क्या?”

“पानीयं देहि मे।”

कापालिकने नवकुमारको फिर शराब पिलायी।

नवकुमारने पूछा—“अब देर क्यों?”

कापालिकने भी कहा—“हाँ-हाँ, कैसी देर?”

नवकुमारने भीमनादसे पुकारा—“कपालकुंडला!”

कपालकुंडला सुनकर चकित हुई। अभी तक यहाँ कपालकुंडला कह कर किसीने पुकारा न था। वह पलटकर खड़ी हो गयी। नवकुमार और कापालिक उसके सामने आकर खड़े हो गये। कपालकुंडला पहले उन्हें पहचान न सकी, बोली—“तुम लौग कौन हो? यमदूत?”

लेकिन दूसरे ही क्षण पहचान कर बोली—“नहीं नहीं, पिता! क्या तुम मुझे बलि देनेके लिए आये हो?”

नवकुमारने मजबूतीके साथ कपालकुंडलाका हाथ पकड़ लिया। कापालिकने करुणार्द्र, मधुर स्वरमें कहा—“वत्से! हम लोगोंके साथ आओ।” यह कह कर कापालिक श्मशानकी राह दिखाता आगे चला।

कपालकुंडलाने आकाशकी तरफ फिर निगाह उठायी, जिधर उस भैरवीकी विकराल मूर्तिको देखा था, उधर देखा। देखा, रणरंगिणी खिलखिला कर हँस रही है। कपालकुंडला अदृष्टविमूढ़की तरह कापालिकका अनुसरण करती चली। नवकुमार उसी तरह उसे पकड़े हुए साथ ले चले।

:९: प्रेत भूमि में

“वपुषा करणोज्झितेन सा निपतन्ती पतिमप्यपातयत्।
ननु तैलनिषेकविन्दुना सह दीप्तार्जिरुपैति मेदिनीम्॥”
—रघुवंश

चन्द्र अस्त हुए। विश्वमंडलपर अन्धकारका पर्दा पड़ गया। कापालिकने जहाँ अपना पूजास्थान बनाया था, वहीं कपालकुडलाको वह ले गया। गङ्गा तट पर वह एक वृहत् बालूकी भूमि है। उसके सामने ही एक ओर बहुत बड़ी रेतीली भूमि है। वही श्मशान है। दोनों रेतीली भूमियोंके बीच जल बढ़नेके समय पानी रहता है। भाटेके समय नहीं रहता—इस समय भी नहीं है। श्मशानभूमिका जो हिस्सा गङ्गातट पर जाता है, वह किनारेपर जाकर बहुत ऊँचा हो गया है, उसके नीचे अगाध जल है। अविरल वायुप्रवाहके कारण किनारा कभी-कभी खिसक कर गङ्गामें गिरा करता है। पूजाके स्थानमें दीपक न था—केवल जलती लकड़ीसे प्रकाश था—ऐसा प्रकाश जो उसकी भयानकताको बढ़ा रहा था। पासमें ही पूजा, होम, बलिका सारा सामान मौजूद था। विशाल नदीका हृदय अन्धकारसे पूर्ण था। चैत्र मासकी वायु गङ्गाको विक्षुब्ध बनाये हुई थी। इस कारण कलकल नाद दिक्मंडलमें व्याप्त हो रहा था। शमशानके शवभक्षक पशु रह-रहकर चिल्ला पड़ते थे।

कापालिकने नवकुमार और कपालकुंडलाको उपयुक्त स्थानपर बैठाया और स्वयं पूजामें लग गया। उससमय उसने नवकुमारको आदेश दिया कि कपालकुंडलाको स्नान करा लावें। नवकुमार कपालकुंडलाको हाथ पकड़े रेत पार कर स्नान कराने चले। उनके पदभारसे हड्डियाँ टूटने लगीं। नवकुमारके पदाघातसे श्मशानका एक कलश भी टूट गया, उसके पास ही एक शव पड़ा हुआ था—हतभागेका किसीने संस्कार तक न किया था। दोनोंके ही पदसे उसका स्पर्श हुआ। कपालकुंडला उसे बचाकर निकल गयी, लेकिन नवकुमार उसे पददलित कर गये। शवभक्षक पशु चारों तरफ घूम रहे थे। दोनों जनको वहाँ उपस्थित देख वे सब चिल्ला उठे। कोई आक्रमण करने आया, तो कोई भाग गया। कपालकुंडलाने देखा कि नवकुमारका हाँथ काँप रहा है। कपालकुंडला स्वयं निर्भय निष्कम्प थी।

कपालकुंडलाने पूछा—“स्वामिन्! क्या डर लगता है?”

नवकुमारका मदिरामोह क्रमशः क्षीण होता जा रहा था। गम्भीर स्वरसे नवकुमारने कहा—“भयसे, मृण्मयी! नहीं!”

कपालकुंडलाने फिर पूछा—“तब काँपते क्यों हो?”

यह प्रश्न कपालकुंडलाने जिस स्वरसे किया, यह केवल रमणी हृदयसे ही सम्भव था। जब रमणी परदुःखकातर होती है, तभी ऐसा स्वर निकलता है। कौन जानता था कि साक्षात् श्मशानमें ऐसी आवाज कपालकुंडलाके मुँह से निकलेगी।

नवकुमारने कहा—“भयसे नहीं। रो नहीं पाता हूँ, क्रोधसे काँपता हूँ।”

कृपालकुंडलाने पूछा—“रोओगे क्यों?”

फिर वही कंठ!

नवकुमार बोले—“क्यों रोऊँगा? तुम क्या समझोगी, मृण्मयी तुम तो कभी सौन्दर्य देखकर उन्मत्त हुई नहीं।”—कहते-कहते यातनासे नवकुमारका गला भर गया। “तुम तो कभी अपना कलेजा स्वयं काटनेके लिये श्मशान आई नहीं, मृण्मयी!” यह कहते-कहते सहसा नवकुमार पुक्का फाड़कर रोते हुए कपालकुंडलाके चरणों पर गिर पड़े।

“मृण्मयी! कपालकुंडले! मेरी रक्षा करो! मैं तुम्हारे पैरपर रोता हूँ, एक बार कह दो, तुम अविश्वासिनी नहीं हो—एक बार कहो मैं तुम्हें हृदयमें उठाकर घर ले चलू।”

कपालकुंडलाने हाथ पकड़ कर नवकुमारको उठाया और मृदुस्वरसे उसने कहा—“तुमने तो मुझसे पूछा नहीं।”

जब यह बातें हुई, तो दोनों तट पर आ खड़े हुए। कपालकुंडला आगे थी उसके पीछे जल था। जलका उछ्वास शुरू हो गया था, कपालकुंडला एक ढूहे पर खड़ी थी। उसने जवाब दिया—“तुमने तो मुझसे पूछा नहीं।”

नवकुमारने पागलोंकी तरह कहा—“अपना चैतन्य खो चुका हूँ—क्या पूछूँ मृण्मयी! बोलो बोलो; मुझे बचालो, घर चलो।”

कपालकुंडलाने कहा—“जो तुमने पूछा है, तो बताती हूँ। आज जिसे तुमने देखा—वह पद्मावती थी, मैं अविश्वासिनी नहीं हूँ। यह वचनस्वरूप कहती हूँ। लेकिन मैं घर न जाऊँगी। भवानीके चरणोंमें देह विसर्जन करने आई हूँ—निश्चय ही करूँगी। स्वामिन्! तुम घर लौट जाओ। मरूँगी—मेरे लिये रोना नहीं।”

“नहीं—मृण्मयी! नहीं!”—यह कहकर दोनों हाथ पसारकर नवकुमार कपालकुंडलाको हृदयसे लगा लेनेके लिये आगे बढ़े—लेकिन कपालकुंडलाको वह पा न सके। चैत्र-वायुसे एक जल तरङ्ग ने उस ढूहेसे टक्कर ली और वह ढूहा कपालकुंडलाके साथ बड़े ही शब्दसे नदी जलमें जा गिरा।

नवकुमारने भीषण शब्द सुना—कपालकुंडलाको अन्तर्हित होते देखा। तुरंत वे भी एक छलाँगमें जलमें जा रहे। नवकुमार तैरना अच्छा जानते थे। बहुत देर तक तैरते-डुबकी लगाते, कपालकुंडलाको खोजते रहे। उन्होंने कपालकुंडलाको न पाया—स्वयं भी जलसे न निकले।

उस अनन्त गंगाप्रवाहमें वसन्त वायुविक्षुब्ध वीचियोंमें आन्दोलित होते हुए कपालकुंडला और नवकुमार कहाँ गये?

॥ समाप्त ॥

  • तृतीय खण्ड : कपाल कुण्डला
  • बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय के उपन्यास हिन्दी में
  • बांग्ला कहानियां और लोक कथाएं
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