कपाल कुण्डला (बंगला उपन्यास) : बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय

Kapalkundala (Bangla Novel) : Bankim Chandra Chattopadhyay/Chatterjee

तृतीय खण्ड

:१: भूतपूर्व में

“कष्टोऽयं खलु मृत्यु भावः”

कपालकुण्डलाको लेकर नवकुमारने जब सरायसे घरकी यात्रा की तो मोती बीबीने वर्द्धमानकी तरफ यात्रा की। जबतक मोती बीबी अपनी राह तय करें, तबतक हम उनका कुछ वृत्तान्त कह डालें। मोतो बीबीका चरित्र जैसा महापातकसे भरा हुआ है, वैसे ही अनेक तरहसे सुशोभित है। ऐसे चरित्रका विस्तृत वृत्तान्त पढ़नेमें पाठकोंको अरुचि न होगी।

जब इनके पिताने हिन्दू-धर्म बदलकर मुस्लिम धर्म ग्रहण किया, तो उस समय इनका हिन्दू नाम बदलकर लुत्फुन्निसा पड़ा। मोती बीबी इनका नाम कभी नहीं था। फिर भी छिपे वेशमें देश-विदेश भ्रमणके समय यह कभी-कभी नाम पड़ जाता है। इनके पिता ढाकामें आकर राजकार्यमें नियुक्त हुए। लेकिन वहाँ अनेक स्वदेशीय लोगोंका आना-जाना हुआ करता था। अपने देशमें जान-पहचानवालोंके सामने विधर्मी होकर रहना भला जान नहीं पड़ता। अतएव वह कुछ दिनोंमें अच्छी ख्याति लाभ कर अपने मित्र अनेक उमरा लोगोंसे पत्र लेकर सपरिवार आगरे चले गये। अकबर बादशाहके सामने किसीका गुण छिपा नहीं रहता था। शीघ्र ही इन्होंने अपने गुण प्रकट किये। इसके फलसे वह आगरेके उमरा लोगोंमें गिने जाने लगे। इधर लुत्फुन्निसा भी यौवनमें पदार्पण करने लगी। आगरेमें आकर इन्होंने फारसी, संस्कृत, नृत्यगीत, रसवादन आदिमें अच्छी शिक्षा ग्रहण कर ली। राजधानीकी सुन्दरियों और गुणवतियोंमें यह अग्रगण्य बनने लगीं। दुर्भाग्यवश लुत्फुन्निसाके पूर्ण युवती होनेपर जान पड़ा कि उसकी मनोवृत्ति दुर्दमनीय और भयानक है। इन्द्रियदमनकी न तो इच्छा थी और न क्षमता ही थी। सद् और असद् में समान प्रवृत्ति थी। यह कार्य अच्छा है और यह बुरा, ऐसा सोच कभी उसने कार्य नहीं किया। जो अच्छा लगता था, वही काम करती थी। जब सत् कर्मसे अन्तःकरण सुखी होता, तो वह करती और असत्‌कर्मके समय भी वही करती। यौवनकालकी दुर्दमनीय मनोवृत्तिके अनुकूल ही लुत्फुन्निसा भी बन गयी। उसके पूर्वपति वर्त्तमान हैं, उमरा लोगों में किसीने उसके साथ शादी न की। वह भी शादी की लालायित न रही। मन ही मन सोचा, फूल-फूलपर घूमनेवाली भ्रमरीको एक का बनाकर बाँध क्यों दूँ? पहले कानाफूसी हुई, इसके बाद मुँह पर कलंककी कालिमा लग गयी। उसके पिताने विरक्त होकर उसे घरसे निकाल दिया।

लुत्फुन्निसा गुप्त रूपसे जिन्हें कृपा-वितरण करती रही, उनमें युवराज सलीम भी एक थे। एक उमराके कुलके कलंकका कारण होनेपर पीछे बादशाहका कोपभाजन न बनना पड़े, इस कारण खुलकर सलीमशाहने लुत्फुन्निसाको अपने महलमें नहीं रखा। अब सुयोग मिल गया। राजपूतपति मानसिंहकी बहन सलीमकी प्रधान महिषी हुई। युवराजने लुत्फुन्निसाको अपनी महिषीकी प्रधान अनुचरी बना दिया। लुत्फुन्निसा बेगमकी सखी बन गयी और परोक्ष रूपसे युवराजकी अनुग्रह-भागिनी हुई।

लुत्फुन्निसा जैसी बुद्धिमती महिला शीघ्र ही युवराजके हृदय पर अधिकार कर लेगी, यह सहज अनुमेय है। सलीमके हृदयपर उसका अधिकार इस तरह प्रतियोगीशून्य हो गया कि लुत्फुन्निसा ने प्रण कर लिया कि वह इनकी पटरानी होकर रहेगी। केवल लुत्फुन्निसाकी ही ऐसी प्रतिज्ञा हुई, यह बात नहीं, बल्कि इसका विशवास महल भरमें हो गया। ऐसी ही आशामय स्वप्नमें लुत्फुन्निसाका जीवन पतिमें लगा। लेकिन इसी समय उसकी नींद टूटी। अकबर बादशाहके कोषाध्यक्ष ख्वाजा अब्बासकी कन्या मेहरुन्निसा यवनकुलकी प्रधान सुन्दरी निकली। एक दिन कोषाध्यक्ष ने युवराज सलीम और अन्य उमराको निमंत्रण देकर घर बुलाया। उसी दिन सलीमकी मुलाकात मेहरके साथ हो गयी। उसी दिन सलीमने भी अपना हृदय मेहरुन्निसा को सौंप दिया। इतिहासप्रेमीमात्र इस घटनाको जानते हैं। इसके बाद मेहरकी शादी शेर अफगनके साथ हो गयी। यह शादी अकबरशाह के षड्यन्त्रका फल थी। यद्यपि सलीमको निरस्त होना पड़ा, लेकिन उन्होंने आशाका त्याग न किया। सलीमकी चित्तवृत्ति लुत्फुन्निसा के नखदर्पणवत् थी। वह समझ गयी कि शेर अफगनके जीवनकी खैरियत नहीं और सलीमकी महिषी मेहर ही होगी। लुत्फुन्निसाने सिंहासनकी आशा त्याग दी।

विचक्षण मुगल-सम्राट् अकबरकी परमायु पूरी हुई। जिस प्रचण्ड सूर्यकी प्रभा तुर्कीसे लेकर ब्रह्मपुत्र तक प्रदीप्त थी, उस सूर्य का अस्त हुआ। इस समय लुत्फुन्निसाने आत्मप्राधान्यकी रक्षाके लिये एक दुःसाहसिक संकल्प किया।

राजपूत राजा मानसिंहकी बहन सलीमकी प्रधान महिषी थी। खुसरू उनके पुत्र हैं। एक दिन उनके साथ अकबर बादशाहकी बीमारीकी बात चल रही थी जिस सम्बन्धमें शीघ्र ही बादशाहकी महिषी बननेकी बधाई लुत्फुन्निसा दे रही थी; प्रत्युत्तरमें खुसुरूकी जननी ने कहा—“बादशाहकी प्रधान महिषी होने से मनुष्य जन्म सार्थक अवश्य होता है, लेकिन सर्वश्रेष्ठता उसकी है जिसका पुत्र बादशाह हो और वह बादशाहजननी बने।” यह उत्तर सुनते ही लुत्फुन्निसाके हृदयमें एक चिन्तनीय अभिसन्धिका उदय हुआ। उसने उत्तर दिया—“तो ऐसा ही क्यों न हो! वह भी आपके ही इच्छाधीन है।” बेगमने पूछा—“यह कैसे?” चतुराने उत्तर दिया—“युवराज खुसरूको ही सिंहासनपर बिठाइये।”

इस बात का बेगमने कोई जवाब न दिया। उस दिन फिर यह प्रसङ्ग न उठा। लेकिन यह बात किसीको भूली नहीं। स्वामीके बदले पुत्र राज्यसिंहासनपर आसीन हो, यह बेगमकी इच्छा अवश्य है, लेकिन मेहरुन्निसाके प्रति सलीम का प्रेम जैसे लुत्फुन्निसा के हृदयमें काँटेकी तरह खटकता है, वैसे ही बेगमके हृदयमें भी खटकता है। मानसिंहकी बहन एक तुर्कमानकी कन्या की आज्ञानुवर्तिनी होकर कैसे रह सकती है? लुत्फुन्निसाका भी इस विषय में गहरा तात्पर्य था। दूसरे दिन फिर यह प्रसङ्ग उत्थापित हुआ। दोनोंका एक अभिमत स्थिर हुआ।

सलीमको त्यागकर खुसरूको सिंहासनपर बैठाना कोई असम्भव बात न थी। इस बातको लुत्फुन्निसाने बेगमको अच्छी तरह समझा दिया। उसने पूछा,—“मुगल साम्राज्य राजपूतोंके बाहुबलपर स्थापित हुआ है और आज भी निर्भर करता है। वही राजपूत कुल-तिलक मानसिंह खुसरूके मामा हैं और प्रधान राजमंत्री खान आजम खुसरूके श्वसुर हैं, इन दोनों आदमियोंके खड़े होनेपर कौन इनकी आज्ञा न मानेगा? फिर किसके बलपर युवराज सिंहासनपर अधिकार कर सकते हैं? राजा मानसिंहको राजी करना आपके ऊपर है। खान आजम और अन्यान्य उमराको तैयार करना मेरे ऊपर छोड़ दीजिये? आपके आशीर्वादसे अवश्य कृतकार्य हूँगी; लेकिन एक आशंका है कि कहीं सिंहासनासीन होनेके बाद खुसरू मुझे इन दुराचारियों को….निकाल बाहर न कर दें।”

बेगम सहचरीका अभिप्राय समझ गयी। हँसकर बोली,—“तुम आगरेमें जिस उमराकी गृहिणी होना चाहोगी, वह तुम्हारा पाणिग्रहण करेगा। तुम्हारे पति पंचहजार मंसबदार होंगे।”

लुत्फुन्निसा सन्तुष्ट हुई। यही उसका उद्देश्य था। यदि राजपुरीमें सामान्य स्त्री होकर रहना हुआ, तो फूलोंपर घूमकर रस लेनेवाली भ्रमरी बननेसे क्या फायदा हुआ? यदि स्वाधीनता ही त्याग करना होता तो बालसखी मेहरुन्निसाकी दासी होनेमें ही क्या हर्ज था? इससे तो कहीं अधिक गौरवकी बात है कि किसी राजपुरुषके गृहकी गृहस्वामिनी बनकर बैठा जाये?

केवल इसी लोभसे लुत्फुन्निसा इस कार्यमें लिप्त न हुई। सलीम उसकी उपेक्षा कर जो मेहर के पीछे पागल हो रहे हैं, उसका उसे प्रतिशोध भी लेना है?

खान आजम आदि आगरे और दिल्लीके उमरा लुत्फुन्निसाके यथेष्ठ साधित थे। खान आजम अपने दामादके लिये उद्योग करेंगे इसकी भी पूरी आशा थी। वह और अन्यान्य उमरा राजी हो गये। खान आजमने लुत्फुन्निसासे कहा—“मान लो यदि हम लोग कृतकार्य न हुए तो हम लोगोंको अपने बचावकी भी कोई राह निकाल लेनी चाहिए।”

लुत्फुन्निसाने कहा,—“आपकी क्या राय है?”

खानने कहा, ‘उड़ीसाके अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं है। केवल उसी जगह मुगलोंका शासन प्रखर नहीं है, उड़ीसाकी सेना हमारे हाथ में रहना आवश्यक है। तुम्हारे भाई उड़ीसाके मंसबदार हैं। मैं कल प्रचार करुँगा कि वह युद्धमें आहत हुए हैं। तुम उन्हें देखने के बहानेसे कल ही उड़ीसाको यात्रा करो। वहाँका कार्य समाप्त कर तुरंत वापस जाओ।’

लुत्फुन्निसा इसपर राजी हो गयी। वह अपना कार्य कर लौटते समय पाठकों से मिली है।

:२: दूसरी जगह

“जे माटीते पड़े लोके उठे ताइ धरे।
बारेक निराश होये के कोथाय मरे॥
तूफाने पतित किन्तु छाड़िबो ना हाल।
आजिके विफल होलो, होते पारे काल॥”
नवीन तपस्विनी।

जिस दिन नवकुमारको बिदा कर मोती बीबी या लुत्फुन्निसाने बर्द्धमानकी यात्राकी, उस दिन वह एकदम बर्द्धमान तक पहुँच न सकी। दूसरी चट्टीमें रह गयी। संध्याके समय पेशमन्‌के साथ बैठकर बातें होने लगीं। ऐसे समय सहसा मोती बीबीने पेशमन्‌से पुछा,—“पेशमन्! मेरे पतिको देखा, कैसे थे?”

पेशमन्‌ने कुछ विस्मित होकर कहा,—“इसके क्या माने?” मोती बोली,—“सुन्दर थे या नहीं?”

नवकुमारके प्रति पेशमन्‌को विशेष विराग हो गया था। जिन अलङ्कारोंको मोती ने कपालकुण्डलाको दे दिया उनके प्रति पेशमन् का विशेष लोभ था। मन-ही मन उसने सोच रखा था, कि एक दिन माँग लूँगी। उस बेचारीकी वह आशा निर्मूल हो गयी। अतः कपालकुण्डला और उसके पति दोनोंके प्रति उसे जलन थी। अतएव स्वामिनीके प्रश्नपर उसने उत्तर दिया—‘दरिद्र ब्राह्मणकी सुन्दरता और कुरूपता क्या है?”

सहचरीके मनका भाव समझकर मोतीने हँसकर कहा—दरिद्र ब्राह्मण यदि उमरा हो जाये, तो सुन्दर होगा या नहीं?”

पे॰—इसके क्या मानी?

मोती—क्यों, क्या तुमने यह नहीं सुना है कि बेगमके कहने के अनुसार यदि खुसरू बादशाह हो गये तो मेरा पति उमरा होगा?

पे॰—यह तो जानती हूँ, लेकिन तुम्हरा पूर्व पति उमरा कैसे होगा?

मोती—तो हमारे और पति कौन हैं?

पे॰—जो नये होंगे।

मोतीने मुस्कराकर कहा—“मेरी जैसी सतीके दो पति, यह बड़े अन्याय की बात होगी। हाँ, यह कौन जा रहा है?”

जिसे देखकर मोतीने कहा कि यह कौन जा रहा है, उसे पेशमन् तुरत पहचान गयी। वह आगरेका रहनेवाला खान आजमका आदमी था। दोनों ही न्यस्त हो पड़ीं। पेशमन्‌ने उसे बुलाया। उस व्यक्तिने आकर लुत्फुन्निसाको कोर्निश कर पत्र दिया; बोला—“खत लेकर उड़ीसा जा रहा था। बहुत ही जरूरी खत है।”

पत्र पढ़ते ही मोती बीबीकी सारी आशालतापर तुषारपात हो गया। पत्रका मर्म इस प्रकार था:—

“हमलोगोंका यत्न विफल हो गया। मरते दम तक बादशाह अकबर हमलोगोंको बुद्धिबलसे परास्त कर गये। उनका परलोकवास हो गया। उनकी आज्ञाके बलसे युवराज सलीम अब जहाँगीर शाह हो गये। अब तुम खुसरूके लिए व्यस्त न होना। इस उपलक्ष्यमें कोई तुम्हारी शत्रुता न करे, इस चेष्टाके लिये तुरन्त आगारा आ जाओ।”

अकबर बादशाहने किस तरह इस षड्यन्त्रकी विफल किया, यह इतिहासमें अच्छी तरह वर्णित है। इस तरह उसके विस्तारकी आवश्यकता नहीं।

पुरस्कार देकर दूतको बिदा करनेके बाद मोतीने वह पत्र पेशमन् को पढ़कर सुनाया। पेशमन्‌ने सुनकर कहा—“अब उपाय?”

पे॰—(थोड़ा सोचकर) अच्छा, हर्ज ही क्या है? जैसी थी, वैसे ही रहोगी। मुगल बादशाहकी परस्त्रीमात्र ही किसी दूसरे राज्य की पटरानीकी अपेक्षा भी बड़ी है।

मोती—(मुस्कराकर) यह हो नहीं सकता। अब उस राजमहलमें मैं रह नहीं सकती। शीघ्र ही मेहरके साथ जहाँगीरकी शादी होगी। मेहरुन्निसा को मैं बचपनसे अच्छी तरह जानती हूँ। एक बारके पुरवासिनी हो जानेपर वही बादशाहत करेगी। जहाँगीर तो नाममात्र के बादशाह रहेंगे। मैंने उनके सिंहासनकी राहमें बाधा उपस्थित की थी, यह उनसे छिपा न रहेगा। उस समय मेरी क्या दशा होगी?

पेशमन्‌ने प्रायः रुआंसी होकर कहा—“तो अब क्या?”

मोतीने कहा,—“एक भरोसा है। मेहरुन्निसाका चित्त जहाँगीरके प्रति कैसा है? वह जैसी तेजस्विनी है, यदि वह जहाँगीरके अति अनुरागिनी न होकर वस्तुतः शेर अफगनसे प्रेम करती होगी, एक नहीं सौ शेर अफगनके मरवाये जानेपर भी मेहर कभी जहाँगीरसे शादी न करेगी। और यदि सचमुच मेहर भी जहाँगीरकी अनुरागिनी हो, तो फिर कोई भरोसा नहीं है।”

पे॰—मेहरुन्निसाका हृदय कैसे पहचान सकोगी?

मोतीने हँसकर कहा,—“लुत्फुन्निसा क्या नहीं कर सकती? मेहर मेरी बचपनकी सखी है—कल ही बर्द्धमान जाकर दो दिन उसकी अतिथि बनकर रहूँगी।”

पे०—यदि मेहरुन्निसा बादशाहकी अनुरागिनी न हो तो क्या करोगी?

मो०—पिताजी कहा करते थे,—“क्षेत्रे कर्म विधीयते।”

दोनों कुछ देर चुप हो रहीं। हलकी मुस्कराहटसे मोती बीबीके होठ खिल रहे थे। पेशमन्‌ने फिर पूछा,—“हँसती क्यों हो?”

मोतीने कहा,—“एक खयाल मनमें आ गया।”

पे०—“कैसा खयाल?”

मोतीने यह पेशमनको न बताया। हम भी उसे पाठकोंको न बतायेंगे। बादमें प्रकट करेंगे।

:३: प्रतियोगिनी के घर

“श्यामादन्यो नहि नहि नहि प्राणनाथो ममास्ते।”
उद्धवदूत।

शेर अफगन इस समय बंगालकी सूबेदारीमें बर्द्धमानमें रहते थे; मोती बीबी बर्द्धमानमें आकर शेर अफगनके महलमें उतरी। शेर अफगनने सपरिवार उसकी अभ्यर्थना कर बड़े आदरके साथ आतिथ्य किया। जब शेर अफगन और उसकी स्त्री मेहरुन्निसा आगरेमें रहते थे तो उनका मोती बीबीसे काफी परिचय था! मेहरुन्निसासे तो वास्तवमें प्रेम था; दोनों बाल्यसखी थीं; बादमें दोनों ही साम्राज्यलाभके लिए प्रतियोगिनी हुई। इस समय दोनोंके एकत्र होनेपर उनमें एक मेहरुन्निसा अपने मनमें सोच रही थी—“भारतवर्षका कर्त्तव्य विधाताने किसके भाग्यमें लिखा है? विधाता जानते हैं, सलीमशाह जानते हैं, और तीसरा यदि कोई जानता होगा, तो लुत्फुन्निसा जानती होगी। देखें, लुत्फुन्निसा इस बारेमें कुछ बताती है या नहीं!” इधर मोती बीबी भी मेहरका हृदय टटोलना चाहती हैं।

मेहरुन्निसाने उस समय समूचे हिन्दुस्तानमें प्रधान रूपवती और गुणवतीके रूपमें ख्याति प्राप्त की थी। वास्तवमें संसारमें वैसी कम स्त्रियोंने जन्म लिया था। सौंदर्यका वर्णन करनेवाले इतिहासकारोंने अपने इतिहासमें उसे अद्वितीय सुन्दरी बताया है। उस समयकी विद्यामें कितने ही पुरुष उस समय उसकी बराबरी नहीं कर सकते थे। नृत्य-गीतमें मेहर अद्वितीय थी; कविता-रचना या तूलिका-कलामें वह लोगोंको मुग्ध कर देती थी। उसकी सरस वार्ता उसके सौंदर्यसे भी अधिक मोहक थी। मोती बीबी भी इन सब गुणोंमें न्यून न थी। आज ये दोनों ही चमत्कारिणी प्रतियोगिनियाँ एक दूसरेके मनकी थाह लेनेके लिए बैठी हैं।

मेहरुन्निसा खास कमरेमें बैठी तस्वीर बना रही थी। मोती मेहरकी पीठकी तरफ बैठी तस्वीर देख रही थी और पान चबा रही थी। मेहरुन्निसाने पूछा—“तस्वीर कैसी हो रही है?” मोती बीबीने उत्तर दिया—“तुम्हारे हाथकी तस्वीर जैसी होनी चाहिए वैसी ही हो रही है! दुःख यही है कि कोई तुम्हारी बराबरीका कलाकार नहीं है।”

मेह०—“अगर यही बात हो, तो इसमें दुःख किस बातका है?”
मोती—“तुम्हारी बराबरीका यदि कोई होता, तो तुम्हारे इस चेहरेका आदर्श रख सकता।”
मेह०—“कब्रकी मिट्टीमें चेहरेका आदर्श रहेगा!”
मोती—“बहन! आज हृदयकी हास्यप्रियतामें इतनी कमी क्यों है?”

मेह०—“नहीं, प्रसन्नतामें कमी तो नहीं है। फिर भी, कल सबेरे ही जो तुम मुझे त्यागकर चली जाओगी, इसको कैसे भूल सकती हूँ! और दो दिन रहकर तुम मुझे कृतार्थ क्यों नहीं किया चाहती?”
मोती—“सुखकी किसे इच्छा नहीं होती? यदि वश चलता तो मैं क्यों जाती? लेकिन क्या करूँ, पराधीन हूँ।”
मेह०—“मुझपर अब तुम्हारा वह प्रेम नहीं। यदि रहता, तो तुम अवश्य रह जातीं। आई हो, तो रह क्यों नहीं सकती?”

मोती—“मैं तो तुमसे सब कह चुकी हूँ। मेरा छोटा भाई मुगल सैन्यमें मंसबदार है। वह उड़ीसाके पठानोंके युद्धमें आहत होकर संकटमें पड़ गया था। मैं उसकी ही विपद्‌की खबर पाकर बेगमसे छुट्टी लेकर आयी थी। उड़ीसामें बहुत दिन लग गये, अब अधिक देर करना उचित नहीं। तुमसे बहुत दिनोंसे मुलाकात हुई न थी, इसलिए यहाँ दो दिन ठहर गयी।”
मेह०—“बेगमके पास किस दिन पहुँचना स्वीकार कर आई हो?”

मोती बीबी समझ गयी कि मेहर व्यंग कर रही है। मार्मिक व्यङ्ग करनेमें मेहर जैसी निपुण है, वैसी मोती नहीं। लेकिन वह अप्रतिभ होनेवाली भी नहीं है उसने उत्तर दिया—‘भला’ तीन महीने की यात्रामें दिन भी निश्चित कर बताया जा सकता है? लेकिन बहुत दिनों तक विलम्ब कर चुकी; और अधिक विलम्ब असन्तोषका कारण बन सकता है।’
मेहरने अपनी लोकमोहिनी हँसीसे हँसकर कहा—“किसके असन्तोषकी आशंका कर रही हो? युवराजकी या उनकी महिषी की?”
मोती बीबीने थोड़ा अप्रतिभ होकर कहा—“इस लज्जाहीनाको क्यों लजाती हो? दोनोंको असन्तोष हो सकता है।”

मेह०—“लेकिन मैं पूछती हूँ—तुम स्वयं बेगम नाम क्यों धारण नहीं करतीं? सुना था? कुमार सलीम तुम्हारे साथ शादी कर तुम्हें अपनी बेगम बनाना चाहते हैं। उसमें क्या देर है?”

मो०—“मैं स्वभावकी स्वाधीन ठहरी। जो कुछ स्वाधीनता है उसे क्यों नष्ट करूँ? बेगमकी सहचारिणी होकर आसानीसे उड़ीसा भी आ सकी, सलीमकी बेगम होकर क्या इस तरह आ सकती?”
मे०—“जो दिल्लीश्वरकी प्रधान महिषी होगी, उसे उड़ीसा अनेकी जरूरत?”
मो०—“सलीमकी प्रधान महिषी हूँगी, ऐसी स्पर्द्धा तो मैंने कभी नहीं की। इस हिन्दोस्तानमें दिल्लीश्वरकी प्राणेश्वरी होने लायक तो एक मेहरुन्निसा ही है।”

मेहरुन्निसाने सर नीचा कर लिया। थोड़ी देर चुप रहनेके बाद बोली—“बहन! मैं नहीं जानती कि वह बात तुमने मुझे दुःख पहुँचानेके लिये कही, या मेरी थाह लेनेके लिए। लेकिन तुमसे मेरी भीख है मैं शेर बीबी हूँ, हृदयसे उसकी दासी हूँ, भूलकर ऐसी बात न करो।”

निर्लज्जा मोती तिरस्कारसे लजाई नहीं वरन् उसने और भी सहयोग पाया। बोली—“तुम जैसी पतिगतप्राणा हो, यह मैं अच्छी तरह जानती हूँ। इसीलिये तो तुमसे यह बात मैंने कही है। सलीम अभी तक तुम्हारे सौन्दर्यको भूल नहीं सके हैं, मेरे कहनेका यही तात्पर्य है। सावधान रहना।”
मे०—“अब समझी। लेकिन डर किस बात का?”
मोती बीबीने जरा इधर-उधर करनेके बाद कहा—“वैधव्यकी आशंका।”

यह कहकर मोती मेहरुन्निसाके चेहरेपर एक गहरी निगाह डाल कुछ समझनेकी चेष्टा करने लगी, लेकिन मेहरुन्निसाके चेहरेपर डर या प्रसन्नताके कोई भी लक्षण दिखाई न दिये। मेहरुन्निसा ने बड़े ही घमण्डके साथ कहा—“वैधव्यकी आशंका! शेर अफगन अपनी रक्षा करनेमें कमजोर नहीं है। विशेषतः अकबरके शासनमें उनका लड़का भी बिना दोषके दूसरे का प्राण नष्ट कर बच नहीं सकता।”

मोती०—“यह सच है, लेकिन आगरेके ताजे समाचारोंसे मालूम हुआ है कि अकबर बादशाहका अन्तकाल हो चुका है। सलीम सिंहासनारूढ़ हुए हैं। दिल्लीश्वरका दमन कौन कर सकता है?”

मेहरुन्निसा आगे कुछ सुन न सकी। उसका समूचा शरीर सिहर और काँप उठा। उसने फिर अपना सिर नीचा कर लिया। उसकी दोनों आँखोंसे आँसूकी धारा बह गई। मोती बीबीने पूछा—“क्यों रोती हो?”
मेहरुन्निसा एक ठण्ढी साँस खींचकर बोली—“सलीम हिन्दोस्तान के तख्तपर है लेकिन मैं कहाँ हूँ?”
मोती बीबीका मनस्काम सिद्ध हुआ। उसने कहा—“आज भी तुम युवराजको एक क्षणके लिए भी भूली नहीं?”

मेहरुन्निसाने गद्गद स्वरमें कहा—“कैसे भूलूँगी! अपने जीवन को भूल सकती हूँ, लेकिन युवराज को भूल नहीं सकती। लेकिन सुनो बहन! एकाएक हृदयका आवरणपट खुल गया और तुमने सारी बातें जान लीं। लेकिन तुम्हें मेरी कसम है, यह बात दूसरेके कानमें न पहुँचे।”

मोतीने कहा—“अच्छा ऐसा ही होगा। लेकिन सलीम जब यह सुनेंगे कि मैं बर्द्धमान गयी थी, तो वह अवश्य पूछेंगे कि मेहरुन्निसाने मेरे बारेमें क्या कहा, तो मैं उनसे क्या कहूँगी?”

मेहरुन्निसाने कुछ देर सोचकर कहा—“यही कहना कि मेहरुन्निसा हृदयमें तुम्हारा ध्यान करेगी। प्रयोजन होनेपर उनके लिए प्राण तक विसर्जन कर सकती है। लेकिन अपना कुल और मान समर्पण नहीं कर सकती। इस दासीका स्वामी जब तक जीवित है, तब तक वह दिल्लीश्वरको मुँह नहीं दिखा सकती और यदि दिल्लीश्वर द्वारा मेरे पतिका प्राणान्त होगा तो इस जन्ममें स्वामीहन्ता के साथ मिलन हो न सकेगा।”

यह कहकर मेहरुन्निसा अपने स्थानसे उठकर खड़ी हो गयी। मोती बीबी आश्चर्यान्वित होकर रह गई। लेकिन विजय मोती बीबीकी ही हुई। मेहरुन्निसाके हृदयका भाव मोती बीबीने निकाल लिया। मोती बीबीके हृदय की आशा या निराशाकी छाँह मेहरुन्निसा पा न सकी। जो अपनी विलक्षण बुद्धिसे बादमें दिल्लीश्वर की ईश्वरी हुई, वह बुद्धि-चातुरीमें मोती बीबीके सामने पराजिता हुई। इसका कारण? मेहरुन्निसा प्रणयशालिनी है और मोती बीबी केवल स्वार्थपरायणा।

मनुष्य-हृदयकी विचित्र गतिको मोती बीबी खूब पहचान सकती है। मेहरुन्निसाके बारेमें हृदयमें आलोचना कर जिस सिद्धान्तपर वह उपनीत हुई, अन्तमें वही सिद्ध हुआ। वह समझ गई कि मेहरुन्निसा वास्तव में जहाँगीरकी प्रणयानुरागिनी है; अतएव नारी दर्पवश अभी चाहे जो कहे, कालान्तरमें सुयोग उपस्थित होनेपर वह अपने मनकी गतिको रोक न सकेगी। बादशाह अपनी मनोकामना अवश्य सिद्ध करेंगे।

इस सिद्धान्तपर उपनीत होकर मोती बीबीकी सारी आशा निर्मूल हो गयी। लेकिन इससे क्या मोती बहुत दुखी हुई? यह बात नहीं। इसके बदले उसने स्वयं कुछ सुखका अनुभव ही किया। हृदयमें ऐसा भाव क्यों उदित हुआ, मोती स्वयं भी पहले समझ न सकी। उसने आगरेके लिए यात्रा की; राहमें कितने ही दिन बीते। इन कई दिनोंमें वह अपने चित्तके भावको समझती रही।

:४: राज निकेतन में

“पत्नी भावे आर तुमि भेवो ना आमारे”
—वीराङ्गना काव्य।

मोती बीबी यथा समय आगरे पहुँची। अब इसे मोती कहनेकी आवश्यकता नहीं है। इन कई दिनोंमें उसकी मनोवृत्ति बहुत कुछ बदल गयी थी। उसकी जहाँगीरके साथ मुलाकात हुई। जहाँगीरने पहलेकी तरह उसका आदर कर उसके भाईका कुशलसंवाद और राहकी कुशल आदि पूछी। लुत्फुन्निसाने जो बात मेहरुन्निसासे कही थी, वह सच हुई। अन्यान्य प्रसङ्गके बाद बर्द्धमानकी बात सुन कर जहाँगीरने पूछा—‘कहती हो कि मेहरुन्निसाके पास दो दिन तुम ठहरी, मेहरुन्निसा मेरे बारेमें क्या कहती थी?” लुत्फुन्निसाने अकपट हृदयसे मेहरुन्निसाके अनुरागकी सारी बातें कह सुनायी। बादशाह सुनकर चुप हो रहे। उनके बड़े-बड़े नेत्रोंमें एक बिन्दु जल आकर ही रह गया।

लुत्फुन्निसाने कहा—“जहाँपनाह! दासीने शुभ संवाद दिया है। अभी भी दासीको किसी पुरस्कारका आदेश नहीं हुआ।”

बादशाहने हँसकर कहा—“बीबी! तुम्हारी आकाँक्षा अपरिमित है।”

लु०—“जहाँपनाह! दासीका कुसूर क्या है?”

बाद०—“दिल्लीके बादशाहको तुम्हारा गुलाम बना दिया है और फिर भी पुरस्कार चाहती हो!”

लुत्फुन्निसाने हँसकर कहा—“स्त्रियोंकी आकाँक्षा भारी होती है।”

बाद०—“अब और कौन-सी आकांक्षा है?”

लु०—“पहले शाही हुक्म हो कि बाँदीकी अर्जी कुबूल की जायगी।”

बाद०—“अगर हुकूमतमें खलल न पड़े।”

लु०—“एकके लिए दिल्लीश्वरके काममें खलल न पड़ेगा।”

बाद०—तो मंजूर है, बोलो कौन-सी बात है?”

लु०—“इच्छा है, एक शादी करूँगी।”

जहाँगीर ठहाका मारकर हँस पड़े; बोले—“है तो बड़ी भारी चाह। कहीं सगाई ठीक हुई है?”

लु०—“जी हाँ, हुई है। सिर्फ शाही फरमानकी देर है। बिना हुजूरकी इच्छाके कुछ भी न होगा।”

बाद०—“इसमें मेरे हुक्मकी क्या जरूरत है। किस भाग्यशालीको सुख-सागर में डुबोओगी?”

लु०—“दासीने दिलीश्वरकी सेवा की है, इसलिये द्विचारिणी नहीं है। दासी अपने स्वामीके साथ ही शादी करनेका विचार कर रही है।”

बाद०—“सही है, लेकिन इस पुराने नौकरकी क्या दशा होगी?”

लु०—“दिल्लीश्वरी मेहरुन्निसाको सौंप जाऊँगी।”

बाद०—“दिल्लीश्वरी मेहरुन्निसा कौन?”

लु०—“जो होगी।”

जहाँगीर मन-ही-मन समझ गये कि मेहरुन्निसा दिल्लीश्वरी होगी, ऐसा विश्वास लुत्फुन्निसाको हो गया है। अतएव अपनी इच्छा विफल होनेके कारण राज्य-परिवारसे विरागवश हटनेका अवसर लिया चाहती है।

ऐसा सोचकर जहाँगीर दुःखी होकर चुप रहे। लुत्फुन्निसाने पूछा—“शाहंशाहकी क्या ऐसी मर्जी नहीं है?”

बाद०—“नहीं, मेरी गैरमर्जी नहीं है, लेकिन स्वामीके साथ फिर विवाह करनेकी क्या जरूरत है?”

लु०—“कालक्रमसे प्रथम विवाहमें स्वामीने पत्नी रूपमें ग्रहण किया। अभी जहाँपनाह दासीका त्याग न करेंगे?”

बादशाह मजाकमें हँसकर फिर गम्भीर हो गये।

बोले०—“दिलजान! कोई चीज ऐसी नहीं है, जो मैं तुम्हें न दे सकूँ अगर तुम्हारी ऐसी ही मर्जी है, तो वही करो। लेकिन मुझे त्यागकर क्यों जाती हो? क्या एक ही आसमानमें चाँद और सूरज दोनों नहीं रहते? एक डालीमें दो फूल नहीं खिलते?”

लुत्फुन्निसा आँखें फाड़कर बादशाहको देखती रही। बोली—“हुजूर! छोटे-छोटे फूल जरूर खिलते हैं, लेकिन एक तालमें दो कमल नहीं खिलते। हुजूरके शाही तख्तकी काँटा बनकर क्यों रहूँ?”

इसके बाद लुत्फुन्निसा अपने महलमें चली गयी। उसकी ऐसी इच्छा क्यों हुई, यह उसने जहाँगीरसे नहीं बताया। अनुभवसे जो कुछ समझा जा सकता था, जहाँगीर वही समझकर शान्त हो रहे। भीतरी वास्तविक तथ्य कुछ भी समझ न सके। लुत्फुन्निसाका हृदय पत्थर है। सलीमकी रमणी हृदयको जीतनेवाली राज्यकान्तिने भी कभी उसका मन मुग्ध न किया; लेकिन इस बार उस पाषाणमें भी कीड़ेने प्रवेश किया है।

:५: अपने महल में

जनम अवधि हम रूप निहारनु नयन न तिरपित भेल।
सोई मधुर बोल श्रवणहि सुननु श्रुतिपथे परस न गेल॥
कत मधुयामिनी रभसे गोंयाइनु न बुझनु कैछन केल।
लाख-लाख युग हिये-हिये राखनु तबू हिया जुड़न न गेल॥
यत-यत रसिक जन रसे अनुगमन अनुभव काहू न पेख।
विद्यापति कहे प्राण जुड़ाइते लाखे ना मिलल एक॥

विद्यापति।

लुत्फुन्निसाने अपने महलमें पहुँच कर पेशमनको बुलाया और प्रसन्न हृदयसे अपनी पोशाक बदली। स्वर्णमुक्तादि खचित वस्त्र उतारकर पेशमन से कहा—“यह पोशाक तुम ले लो।”

सुनकर पेशमन कुछ विस्मयमें आई। पोशाक बहुत ही बेश-कीमती और हालहीमें तैयार हुई थी। बोली—“पोशाक मुझे क्यों देती हो! आज क्या खबर है?”

लुत्फुन्निसा बोली—“शुभ सम्वाद है।”

पे०—“यह तो मैं भी समझ रही हूँ। क्या मेहरुन्निसाका भय दूर हो गया?”

लु०—“दूर हो गया। अब उस बारेमें कोई चिन्ता नहीं है।”

पेशमनने खूब खुशी जाहिर कर कहा—“तो अब मैं वेगमकी दासी हुई?”

लु०—“तुम अगर बेगमकी दासी होना चाहती हो, तो मैं मेहरुन्निसासे सिफारिश कर दूँगी।”

पे०—“हैं यह क्या? आपने ही तो कहा कि मेहरुन्निसाके अब बादशाहकी बेगम होनेकी कोई सम्भावना नहीं है।”

लु०—“मैंने यह बात तो नहीं कही। मैंने कहा था कि इस विषयमें अब मुझे कोई चिन्ता नहीं।”

पे०—“चिन्ता क्यों नहीं है? यदि आप आगरेकी एकमात्र अधीश्वरी न हुई तो सब व्यर्थ है।”

लु०—“आगरासे अब कोई सम्बन्ध न रखूँगी।”

पे०—“हैं! मेरी समझमें कुछ आता ही नहीं। तो वह शुभ संवाद क्या है, समझाकर बताइये न?”

लु०—“शुभ संवाद यही है कि इस जीवनमें आगरेको छोड़कर अब मैं चली।”

पे०—“कहाँ जायँगी?”

लु०—“बंगालमें जाकर रहूँगी। हो सका तो किसी भले आदमीके घर की गृहिणी बनकर रहूँगी।”

पे०—“यह व्यङ्ग नया जरूर है, लेकिन सुनकर कलेजा काँप उठता है।”

लु०—“व्यंग नहीं करती, मैं सचमुच आगरा छोड़कर जा रही हूँ। बादशाहसे बिदा ले आयी हूँ।”

पे०—“यह कुप्रवृत्ति आपकी क्यों हुई?”

लु०—“यह कुप्रवृत्ति नहीं है। बहुत दिनों तक आगरेमें रही, क्या नतीजा हुआ? बचपनसे ही सुखकी बड़ी प्यास थी। उसी प्यासको बुझानेके लिए बंगालसे यहाँ तक आई। इस रत्नको खरीदनेके लिए कौन-सा मूल्य मैंने नहीं चुकाया? कौन-सा दुष्कर्म मैंने नहीं किया? और जिस उद्देश्यके लिए यह सब किया, उसमें मैं क्या नहीं पा सकी? ऐश्वर्य, सम्पदा, धन, गौरव, प्रतिष्ठा सबका तो छककर मजा लिया, लेकिन इतना पाकर भी क्या हुआ? आज यहाँ बैठकर हर दिनको गिनकर कह सकती हूँ कि एक दिनके लिए, एक क्षणके लिए भी सुखी न हो सकी। कभी परितृप्त न हुई। सिर्फ प्यास दिन-पर-दिन बढ़ती जाती है। चेष्टा करूँ, तो और भी सम्पदा, और भी ऐश्वर्य लाभ कर सकती हूँ, लेकिन किसलिए? इन सबमें सुख होता तो क्यों एक दिनके लिए भी सुखी न होती? यह सुखकी इच्छा पहाड़ी नदीकी तरह है—पहले एक निर्मल पतली धार जंगलसे बाहर होती है, अपने गर्भमें आप ही छिपी रहती है, कोई जानता भी नहीं, अपने ही कल-कल करती है, कोई सुनता भी नहीं, क्रमशः जितना आगे बढ़ती है, उतनी ही बढ़ती है—लेकिन उतनी ही पंकिल होती हैं। केवल इतना ही नहीं कभी वायुका झकोरा पा लहरें मारती है—उसमें हिंस्र जीवोंका निवास हो जाता है। जब शरीर और बढ़ता हैं, तो कीचड़ और भी मिलता है—जल गंदला होता है, खारा हो जाता है; असंख्य ऊसर और रेत उसके हृदयमें समा जाता है; वेग मंद पड़ जाता है। इसके बाद वह वृहत् रूप—गंदा रूप—सागरमें जाकर क्यों विलीन हो जाता है, कौन बता सकता है?”

पे०—“मैं यह सब तो कुछ भी नहीं समझ पाती। लेकिन यह सब तुम्हें अच्छा क्यों नहीं मालूम पड़ता?”

लु०—“क्यों अच्छा नहीं मालूम पड़ता, यह इतने दिनोंके बाद अब समझ सकी हूँ। तीन वर्षों तक शाही महलकी छायामें बैठकर जो सुख प्राप्त नहीं हुआ, उड़ीसासे लौटनेके समय बादमें एक रातमें वह सुख मिला। इसीसे समझी!”

पे०—“क्या समझी?”

लु०—“मैं इतने दिनोंतक हिन्दुओंकी देव-मूर्तिकी तरह रही। नाना स्वर्ण और रत्न आदिसे लदी हुई, भीतरसे पत्थर। इन्द्रियसुखकी खोजमें आगके बीच घूमती रही, लेकिन अग्निका स्पर्श कभी नहीं किया। अब एक बार देखना है, शायद पत्थरके अन्दरसे कोई रक्तवाही शिरा हृदयमें मिल जाये।”

पे०—“यह भी तो समझमें नहीं आता।”

लु०—“मैंने इस आगरेमें कभी किसीसे प्रेम किया है?”

पे०—(धीरेसे) “किसीसे भी नहीं।”

लु०—“तो फिर मैं पत्थर नहीं हूँ, तो क्या हूँ?”

पे०—“तो अब प्रेम करनेकी इच्छा है, तो क्यों नहीं करती?”

लु०—“हृदय ही तो है। इसलिए आगरा छोड़ कर जा रही हूँ।”

पे०—इसकी जरूरत ही क्या है? आगरेमें क्या आदमी नहीं हैं, जो दूसरे देशमें जाओगी? अब जो तुमसे प्रेम कर रहे हैं, उन्हें तुम भी प्रेम क्यों नहीं करतीं? रूपमें, धनमें, ऐश्वर्यमें, चाहे जिसमें कहें, इस समय दिल्लीश्वरसे बढ़ कर पृथ्वीपर कौन है!

लु०—“आकाशमें चन्द्र-सूर्यके रहते जल अधोगामी क्यों होता है?”

पे०—“मैं ही पूछती हूँ क्यों?”

लु०—“ललाट लिखन—भाग्य!”

लुत्फुन्निसाने सारी बातें खुल कर न बतायीं।

पाषाणमें अग्निने प्रवेश किया; पाषाण गल रहा था।

:६: चरणों में

“काय मनः प्राण आमि संदिब तोमारे।
भुञ्ज आसि राजयोग दासीर आलये॥”
—वीराङ्गना काव्य

खेतमें बीज बो देनेसे आप ही उगता है। जब अंकुर पैदा होता है, तो न कोई जान पाता है न देख पाता है। लेकिन एक बार बीजके बो जानेपर बोने वाला चाहे कहीं भी रहे; वह अंकुर बढ़कर वृक्ष बनकर मस्तक ऊँचा करता है। अभी वह वृक्ष केवल एक अंगुल मात्रका है, तो देखकर भी देख नहीं सकता। क्रमशः तिल-तिल बढ़ रहा है। इसके बाद वह वृक्ष आधा हाथ, फिर एक हाथ, दो हाथ तक बढ़ा। फिर भी, उसमें यदि किसीका स्वार्थ न रहा तो उसे देखकर भी ख्याल नहीं करता। दिन बीतता है, महीने बीतते हैं, वर्ष बीतते हैं, इससे ऊपर दृष्टि जाती है। फिर उपेक्षाकी तो बात ही नहीं रहती—क्रमशः वह वृक्ष बड़ा होता है, अपनी छायामें दूसरे वृक्षोंको नष्ट करता है—फिर और चाहिये क्या, खेतमें एक मात्र वही रह जाता है।

लुत्फुन्निसाका प्रणय इसी तरह बढ़ा था। पहले एक दिन अकस्मात् प्रणय-भाजनके साथ मुलाकात हुई, उस समय प्रणय-संचार विशेष रूपसे परिलक्षित न हुआ। लेकिन अंकुर उसी समय आ गया। लेकिन इसके बाद फिर मुलाकात न हुई। लेकिन बिना मुलाकात हुए ही बारम्बार वह चेहरा हृदयमें खिलने लगा, याददाश्तमें उस चेहरेकी याद करना सुख कर जान पड़ने लगा, अंकुर बढ़ा। मूर्तिके प्रति फिर अनुराग पैदा हुआ। चित्तका यही धर्म है कि जो मानसिक कर्म जितनी बार अधिक किया जाये, उस कर्ममें उतनी ही अधिक प्रवृत्ति होती है; वह कर्म क्रमशः स्वभाव सिद्ध हो जाता है; लुत्फुन्निसा उस मूर्तिकी रात-दिन याद करने लगी। इससे दारुण दर्शनकी अभिलाषा उत्पन्न हुई। साथ ही साथ उसकी सहज स्पृहाका प्रवाह भी दुर्निवार्य हो उठा। दिल्लीकी सिंहासनलिप्सा भी उसके आगे तुच्छ जान पड़ी। मानों सिंहासन मन्मथशरजालसम्भूत अग्निशिखासे घिरा हुआ जान पड़ने लगा। राज्य, राजधानी राजसिंहासन सबका विसर्जन कर वह प्रिय-मिलनके लिए दौड़ पड़ी। वह प्रियजन नवकुमार है।

इसलिए लुत्फुन्निसा मेहरुन्निसाकी आशानाशिनी बात सुन कर भी दुखी हुई न थी। इसलिए आगरे पहुँच कर सम्पद-रक्षाकी भी उसे परवाह नहीं रही, इसीलिए उसने जीवन-पर्यन्तके लिए बादशाह से बिदा ली।

लुत्फुन्निसा सप्तग्राम में आई। राजपथसे निकट ही नगरीके बीचमें एक अट्टालिकामें उसने अपना डेरा डाला। राजपथके पथिकोंने देखा कि एकाएक वह अट्टालिका जरदोजी और किमखाबकी पोशाकोंसे सजे दास-दासियोंसे भर गई। हर कमरेकी शोभा हरम जैसी निराली थी। सुगन्धित वस्तुएँ, गुलाब, खस, केशर, कपूरादिसे सारा प्रांगण भर गया है। स्वर्ण, रौप्य, हाथीदाँत आदिके सामानोंसे मकान अपूर्व शोभा पाने लगा। ऐसे ही एक सजे हुए कमरेमें लुत्फुन्निसा अधोवदन बैठी हुई है। एक अलग आसन पर नवकुमार बैठे हुए हैं। सप्तग्राममें लुत्फुन्निसासे नवकुमारकी दो-एक बार और मुलाकात हो चुकी है। इन मुलाकातोंसे लुत्फुन्निसाका मनोरथ कहाँ तक सिद्ध हुआ है, वह इस वार्तासे ही प्रकट होगा।

कुछ देर तक चुप रहनेके बाद नवकुमारने कहा—“अब मैं जाता हूँ। फिर तुम मुझे न बुलाना।”

लुत्फुन्निसा बोली—“नहीं, अभी न जाओ। थोड़ा और ठहरो। मुझे अपना वक्तव्य पूरा कर लेने दो।”

नवकुमारने थोड़ी देर और प्रतीक्षा की, लेकिन लुत्फुन्निसा चुप ही रही। थोड़ी देर बाद नवकुमारने फिर पूछा—“और तुम्हें क्या कहना है?” लुत्फुन्निसाने कोई जवाब न दिया। वह चुपचाप रो रही थी।

यह देख कर नवकुमार उठ कर खड़े हो गये; लुत्फुन्निसाने उनका वस्त्र पकड़ लिया। नवकुमारने कुछ विरक्त होकर कहा—“क्या कहती हो, कहो न?”

लुत्फुन्निसा बोली—“तुम क्या चाहते हो? क्या पृथ्वीकी कोई भी चीज तुम्हें न चाहिये? धन, सम्पद, मान, प्रणय, राग-रङ्ग, पृथ्वीमें जिन-जिन चीजोंको सुख कह सकते हैं, सब दूँगी, उसके बदलेमें कुछ भी नहीं चाहती; केवल तुम्हारी दासी होना चाहती हूँ। तुम्हारी धर्मपत्नी बननेका गौरव मुझे नहीं चाहिये, सिर्फ दासी बनना चाहती हूँ।”

नवकुमारने कहा—“मैं दरिद्र ब्राह्मण हूँ, इस जन्ममें दरिद्र ब्राह्मण ही रहूँगा। तुम्हारे दिये हुए धन-सम्पदको लेकर यवनी-जार बन नहीं सकता।”

यवनी-जार!—नवकुमार अबतक जान न सके, कि यही रमणी उनकी पत्नी है। लुत्फुन्निसा सर नीचा किये रह गयी। नवकुमारने उसके हाथसे अपना कपड़ा छुड़ा लिया। लुत्फुन्निसाने फिर उनका वस्त्र पकड़ कर कहा—“अच्छा, यह भी जाने दो। विधाताकी यदि ऐसी ही इच्छा है, तो सारी चित्तवृत्तिको अतल जलमें समाधि दे दूँगी। और कुछ नहीं चाहती; केवल जब इस राहसे हो कर जाना, दासी जानकर एक बार दर्शन दे दिया करना, केवल आँख ठण्डी कर लिया करूँगी।”

नव०—“तुम मुसलमान हो—परायी औरत हो—तुम्हारे साथ इस तरह बात करनेमें भी मुझे दोष है। अब तुम्हारे साथ मेरी मुलाकात न होगी।”

थोड़ी देर तक सन्नाटा रहा। लुत्फुन्निसाके हृदय में तूफान बह रहा था। वह पत्थरकी मूर्तिकी तरह अचल रही। नवकुमारका वस्त्र उसने छोड़ दिया, बोली—“जाओ।”

नवकुमार चले। जैसे ही वह दो-चार कदम बढ़े थे कि वायु द्वारा उखाड़ कर फेंकी गई लता की तरह लुत्फुन्निसा एकाएक उनके पैरोंपर आ गिरी। अपनी बाहुलतासे चरणोंको पकड़ बड़े ही कातर स्वरमें उसने कहा—“निर्दय! मैं तुम्हारे लिए आगराका शाही तख्त छोड़कर आई हूँ। तुम मेरा त्याग न करो।”

नवकुमार बोले—“तुम फिर आगरे लौट जाओ। मेरी आशा छोड़ दो।”

“इस जन्ममें नहीं।” तीरकी तरह उठकर खड़ी हो सदर्प लुत्फुन्निसाने कहा—“इस जन्ममें तुम्हारी आशा त्याग नहीं सकती।” मस्तक उन्नत और बहुत हल्की टेढ़ी गर्दन किये, अपने आयत नेत्र नवकुमार पर जमाये वह राजराज-मोहनी खड़ी रही। जो अदमनीय गर्व हृदयाग्निमें लग गया था, उसकी ज्योति फिर छिटकने लगी। जो अजेय मानसिक शक्ति भारत राज्य-शासन की कल्पना से भी डरी नहीं, वह शक्ति फिर उस प्रणय दुर्बल देहमें चौंक पड़ी। ललाट पर नसें फूलकर अपूर्व शोभा देने लगीं, ज्योतिर्मयी अाँखें समुद्र जलमें पड़नेवाली रविरश्मिकी तरह झलझला उठीं। नाक का अग्रभाग उत्तेजनासे काँपने लगा। लहरों पर नाचने वाली राजहंसी गतिरोध करने वाले को जैसे देखती है, दलितफण फणिनी जैसे फन उठाकर ताकती है, वैसे ही वह उन्मादिनी यवनी अपना मस्तक उन्नत किये देखती रही। बोली—“इस जन्ममें नहीं, तुम मेरे ही होगे।”

उस कुपित फणिनीकी मूर्ति देख कर नवकुमार सहम गये। लुत्फुन्निसाकी अनिर्वचनीय देह महिमा जैसी इस समय दिखाई दी, वैसी देहमें कभी दिखाई न दी थी। लेकिन उस सौन्दर्यको वज्रसूचक विद्युत् की तरह मनोमोहिनी देखकर भय हुआ। नवकुमार जाना ही चाहते थे, लेकिन सहसा उन्हें एक और मूर्तिका ख्याल हो आया। एक दिन नवकुमार अपनी प्रथम पत्नी पद्मावती के प्रति विरक्त होकर उसे अपने कमरे से निकालने पर उद्यत हुए थे। द्वादशवर्षीया बालिका उस समय जिस दर्दसे मुड़कर उनकी तरफ खड़ी हुई थी, ठीक उसी तरह उसके नेत्र चमक उठे थे, ललाट पर ऐसी ही रेखाएँ खिंच गयी थीं, नासारंध्र इसी प्रकार काँपे थे। बहुत दीनोंसे उस मूर्तिका ख्याल आया न था। ऐसा ही सादृश्य अनुभूत हुआ। संशयहीन होकर धीमे स्वर में नवकुमार ने पूछा—“तुम कौन हो?” यवनीकी आँखें और विस्फारित हो गयीं। उसने कहा—“मैं वही हूँ—पद्मावती।”

उत्तरकी प्रतीक्षा किये बिना ही लुत्फुन्निसा दूसरे कमरे में चली गयी। नवकुमार भी अनमनेसे और शंकित हृदयसे अपने घर लौट आये।

:७: उपनगर के किनारे

“I am settled; and bent up.
Each corporal agent to this terrible feat.”
Macbeth.

दूसरे कमरेमें जाकर लुत्फुन्निसाने अपना दरवाजा बन्द कर लिया। वह दो दिनोंतक उस कमरेसे बाहर न निकली। इधर दो दिनोंमें उसने अपने कर्त्तव्याकर्त्तव्यका निश्चय कर लिया। स्थिर होकर वह दृढ़ प्रतिज्ञ हुई। सूर्य अस्त होना चाहते थे। उस समय लुत्फुन्निसा पेशमनकी सहायतासे अपना श्रृंगार करने लगी। आश्चर्यकारी वेशभूषा थी! पेशवाज नहीं,पाजामा नहीं, ओढ़नी नहीं; रमणी वेशका कोई चिह्न नहीं था। जैसी वेशभूषा उसने की, उसे शीशेमें देखकर उसने पेशमनसे पूछा,—“क्यों पेशमन! क्या मैं पहचानी जा सकती हूँ?”

पेशमन बोली—“किसकी मजाल है?”

लु०—तो मैं जाती हूँ। मेरे साथ कोई भी न जायगा।

पेशमन कुछ संकुचित होकर बोली—“दासीका कसूर माफ हो तो एक बात पूछूँ?”

लुत्फुन्निसाने पूछा—“क्या?”

पेशमनने पूछा—“आपकी मन्शा क्या है?”

लुत्फुन्निसा बोली—“केवल यही कि कपालकुण्डलाका उसके पतिसे चिरविच्छेद हो जाये इसके बाद वह मेरे होंगे।”

पे०—बीबी! जरा मजेमें विचार कर लीजिए; वह घना जंगल होगा; रात हुआ चाहती है; आप अकेली रहेंगी।

लुत्फुन्निसा इसका कोई जवाब न दे घरसे बाहर हुई। सप्तग्राम में जिस जनहीन उपप्रान्तमें नवकुमार रहते हैं, वह उसी तरफ चली। वहाँ पहुँचते-पहुँचते उसे रात होगयी। नवकुमारके घरके समीप ही एक घना जंगल है; पाठकोंको यह याद रह सकता है। उसीके किनारे पहुँचकर वह एक पेड़के नीचे बैठ गयी। कुछ देर बैठ, वह अपने औत्साहसिक कार्यके बारेमें सोचने लगी। घटनाक्रम अपूर्व रूपमें उसका सहायक हो गया।

लुत्फुन्निसा वहाँ बैठी थी, वहाँसे उसे बराबर उच्चरित होनेवाला कोई कण्ठस्वर सुनाई पड़ा। उसने उठकर चारों तरफ देखा, एक रोशनी जलती दिखाई दी। लुत्फुन्निसाका साहस पुरुषसे भी बढ़कर था। जहाँसे रोशनी आ रही थी, वह उधर ही चली। पहले पेड़की आड़से देखा, बात क्या है! उसने देखा कि रोशनी यज्ञ-होमकी है और मनुष्य-कंठ मन्त्रोच्चारण है। मन्त्रमें केवल एक नाम सुन पड़ा। परिचित नाम सुनते ही, लुत्फुन्निसा यज्ञकर्ताके पास जा बैठी।

इस समय वह वहीं बैठी रही। पाठकोंने बहुत कालसे कपालकुण्डलाकी खबर नहीं पायी है। अतः कपालकुण्डला की खबर जरूरी है।

  • चौथा खण्ड : कपाल कुण्डला
  • द्वितीय खण्ड : कपाल कुण्डला
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