कपाल कुण्डला (बंगला उपन्यास) : बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय

Kapalkundala (Bangla Novel) : Bankim Chandra Chattopadhyay/Chatterjee

द्वितीय खण्ड

:१: शाही राहपर

“—There–now lean on me,
Place your foot here.
—Manfred.

किसी लेखकने कहा है—“मनुष्यका जीवन काव्य विशेष है।” कपालकुण्डलाके जीवनकाव्यका एक सर्ग समाप्त हुआ। इसके बाद?

नवकुमारने मेदिनीपुर पहुँचकर अधिकारी प्रदत्त धनके बलसे कपालकुण्डलाके लिए एक दासी, एक रक्षक और शिविका-वाहक नियुक्त कर, उसे शिविकापर चढ़ाकर आगे भेजा। पैसे अधिक न होनेके कारण वह स्वयं पैदल चले। नवकुमार एक दिन पहलेके परिश्रमसे थके हुए थे। दोपहरके भोजनके बाद पालकी ढोनेवाले कहार उन्हें पीछे छोड़ बहुत आगे निकल गये। क्रमशः सन्ध्या हुई, शीतकालके विरल बादलोंसे आकाश भरा हुआ था। सन्ध्या भी बीती। पृथ्वीने अन्धकार वस्त्रसे अपनेको ढंक लिया। कुछ बूँदा-बाँदी भी होने लगी। नवकुमार कपालकुण्डलाके साथ एकत्र होने के लिए व्यग्र होने लगे। उन्होंने मनमें सोचा था कि आगेकी सरायमें मुलाकात होगा, लेकिन पालकी वहाँ भी न थी। रात कोई ९ बजेका समय हो आया। नवकुमार तेजीसे पैर बढ़ाते हुए आगे बढ़ रहे थे। एकाएक कोई कड़ी चीज उनके पैरके नीचे आयी और ठोकर लगी। पैरकी ठोकरसे वह वस्तु कड़कड़ाकर टूटी। नवकुमार खड़े हो गये; फिर पैर बढ़ाया, लेकिन फिर ऐसा ही हुआ। पैरसे लगनेवाली चीजको हाथसे उठाकर देखा, वह टूटा हुआ तख्ता था।

आकाशके बादलोंसे घिरे रहनेपर भी प्रायः ऐसा अन्धकार नहीं रहता, कि कोई बड़ी वस्तु दिखाई न पड़े। सामने कोई बहुत बड़ी चीज पड़ी थी। नवकुमारने गौरसे देखकर जान लिया कि वह चीज टूटी हुई पालकी है। पालकी देखते ही नवकुमारका हृदय काँप उठा और कपालकुण्डलाकी विपद्‌की आशंका हुई। शिविकाकी तरफ आगे बढ़नेपर किसी कोमल वस्तुसे उनका पदस्पर्श हुआ। यह स्पर्श कोमल, मनुष्य जैसा जान पड़ा। तुरन्त बैठकर हाथसे टटोलकर देखा कि मनुष्य शरीर ही था। लेकिन साथ ही कोई द्रव्यपदार्थ भी हाथसे लगा है, मनुष्य शरीर लेकिन बर्फ जैसा ठण्डा। नाड़ी देखी, चलती न थी। क्या यह मृत है? विशेष मन लगाकर देखा श्वास-प्रश्वासका शब्द सुनाई पड़ रहा था। श्वास हैं, तो नाड़ी क्यों नहीं चलती है? क्या यह रोगी है? नाकपर हाथ रखकर देखा साँस बिलकुल जान न पड़ी। फिर यह शब्द कैसा? शायद कोई जीवित व्यक्ति भी यहाँ है; यह सोचकर उन्होंने पूछा—“कोई यहाँ जिन्दा है?”

धीमे स्वरमें उत्तर मिला—“है।”

नवकुमारने पूछा—“तुम कौन हो?”

उत्तर मिला—“तुम कौन हो?” नवकुमारको यह स्वर स्त्रीके जैसा जान पड़ा।

व्यग्र होकर उन्होंने पूछा—“क्या कपालकुण्डला?”

स्त्रीने कहा—“कपालकुण्डला कौन है, मैं नहीं जानती—मैं पथिक हूँ, अवश्य ही डाकुओं के द्वारा निकुण्डला हुई हूँ।”

व्यंग सुनकर नवकुमार कुछ प्रसन्न हुए। पूछा—“क्या हुआ है?”

उत्तर देनेवालीने कहा—“डाकुओंने मेरी पालकी तोड़ दी मेरे एक रक्षकको मार डाला। बाकी सब भाग गये और डाकुओंने मेरे अंगके सारे गहने लेकर मुझे पालकीसे बाँध दिया।”

नवकुमारने अंधकारमें ही जाकर देखा कि वस्तुतः एक स्त्री पालकीमें कसकर कपड़ेसे बँधी है। नवकुमारने शीघ्रतापूर्वक उसके बन्धन खोलकर पूछा—“क्या तुम उठ सकोगी?” स्त्रीने जवाब दिया—“मेरे पैरमें लाठीकी चोट लगी है। पैर में दर्द है, फिर भी, जरा सहायता मिलते ही उठ खड़ी हूँगी।”

नवकुमारने हाथ बढ़ा दिया। रमणी उसकी सहायतासे उठी। नवकुमारने पूछा—“क्या चल सकोगी?”

इस प्रश्नका कोई जवाब न देकर रमणीने पूछा—“आपके पीछे क्या कोई पथिक आ रहा था?”

नवकुमारने कहा—“नहीं।”

स्त्रीने फिर पूछा—“यहाँसे चट्टी कितनी दूर है?”

नवकुमारने जवाब दिया—“कितनी दूर है, यह तो मैं नहीं कह सकता—लेकिन जान पड़ता है कि निकट ही है।”

स्त्रीने कहा—“अँधेरी रातमें अकेली जंगलमें बैठकर क्या करूँगी; आपके साथ अगली मञ्जिल तक चलना ही उचित है। शायद कोई सहारा पानेपर चल सकूंगी।”

नवकुमारने कहा—“विपद्‌कालमें सङ्कोच करना मूर्खता है। मेरे कन्धेका सहारा लेकर चलो।”

:२: सराय में

“कैषा योषित प्रकृतिचपला।”
—उद्घवदूत।

यदि रमणी निर्दोष सौन्दर्यविशिष्टा होती, तो कहता, पुरुष पाठक! यह आपकी गृहिणी जैसी सुन्दरी है। और सुन्दरी पाठिका रानी! यह आपकी शीशेमें पड़ने वाली प्रति छाया जैसी है। ऐसा होनेसे रूपवर्णनका शीघ्र ही अन्त हो जाता। दुर्भाग्यवश यह सर्वाङ्ग-सुन्दरी नहीं है, इसलिए निरस्त होना पड़ता है।

यह निर्दोष सुन्दरी नहीं है, यह कहने का प्रथम कारण यह है कि इसका शरीर मध्यम आकृतिकी अपेक्षा कुछ दीर्घ है। दूसरे अधरोष्ठ चिपटे हैं, तीसरे वास्तविक रूपमें यह गोरी भी नहीं है।

शरीर कुछ दीर्घ अवश्य है, लेकिन हाथ, पैर, हृदयादि सर्वाङ्ग सुडौल तथा निठोल हैं। वर्षाकालमें लता जैसे अपने पत्रादिकी बहुलताके कारण भरीपूरी और झलझलाती रहती है, वैसे ही इस कामिनीकी देह-लता भी पूर्णतासे झलझला रही है; अतएव शरीरके ईषद्दीर्घ होनेपर भी वह पूर्णताके कारण शोभाका ही कारण हो गया है, जिन्हें हम वास्तव में गौरांगी कहते हैं, उनमें किसीका रंग पूर्णचन्द्र कौमुदीकी तरह, किसीकी ईषदारक्त ऊषा जैसा होता है। इस रमणीका वर्ण इन दो में कोई भी नहीं, अतः इसे प्रकृत गौरांगी न कहे जानेपर भी इसका वर्ण मनोमुग्धकर अवश्य है। जो हो, यह श्यामवर्णा है। ‘श्यामा’ या ‘श्यामवर्ण कृष्ण’ का जो रंग वर्णित है, यह वह रंग नहीं है। तप्तकाञ्चनविशिष्ट श्यामवर्ण है। यह पूर्णचन्द्रकरलेखा या हेमाम्बुदकिरीटिनी ऊषा यदि गौरांगियोंकी प्रतिमा है, तो वसन्तजनित नवआम्रमञ्जरीकी शोभा इन श्यामांगियोंकी भी है। पाठकों में अनेक गौरांग वर्णकी प्रतिष्ठा करते होंगे, लेकिन यदि कोई श्याम की मायासे मुग्ध है, तो उसे हम वर्णज्ञान शून्य नहीं कह सकते। इस बातसे जिन्हें विरक्ति पैदा होती हो, वह कृपा करके एकबार नवमञ्जरीविहारी भ्रमरश्रेणीकी तरह इस उज्ज्वल श्यामललाट विलम्बीकी याद करें, उस सप्तमी चन्द्राकृति ललाटके नीचेकी वक्र भृकुटिकी याद करें, उन पके हुए आम्रपुष्पके रंगवाले कपोलोंको याद करें, उसके बीच पक्व बिम्बाधर ओष्ठोंकी याद करें, तो इस अपरिचिता रमणीको सुन्दरी-प्रधान समझ और अनुभव कर सकेंगे। दोनों आँखें एकदम बड़ी-बड़ी नहीं हैं, लेकिन बड़ी ही बङ्किम सुरेखावाली हैं और उनमें बड़ी ही चमक है। उसका कटाक्ष स्थिर लेकिन मर्मभेदी है। यदि तुम्हारे ऊपर उसकी दृष्टि पड़े तो यही समझोगे कि वह तुम्हारे हृदय तकका हाल देख रही है। देखते-देखते उस मर्मभेदी दृष्टिसे भावान्तर हो जाता है, आँखें सुकोमल स्नेहमय रससे गली जाती हैं और कभी-कभी उसमें सुखावेशजनित क्लान्ति ही दिखाई देती है। मानो वह नयन नहीं, मन्मथकी स्वप्न-शय्या है। कभी लालसा विस्फारित मदनरससे झलझलाती रहती है और कभी उस लोल कटाक्षमें मानो बिजली कौंधती रहती है। मुखकी कान्तिमें दो अनिर्वचनीय शोभा हैं; पहली सर्वत्रगामिनी बुद्धि का प्रभाव, दूसरी महान् आत्मगरिमा। इस कारण जब वह मराल-जैसी ग्रीवा टेढ़ी कर खड़ी होती है, तो सहज ही जान पड़ता है कि, यह रमणीकुलराज्ञी है।

सुन्दरी की उम्र कोई सत्ताईस वर्ष की होगी, मानों भादों मासकी भरी हुई नदी। भादों मासके नदी-जलकी तरह रूपराशि झलझला रही है—उछली पड़ती है। वर्षाकी अपेक्षा नयनकी सर्वापेक्षा, उस सौन्दर्यकाबहाव मुग्धकर है। पूर्ण यौवन के कारण समूचा शरीर थोड़ा चंचल है, बिना वायुके नवशरत्‌की नदी जैसे मंथर चंचला होती है, ठीक वैसी ही चंचल; वह चंचलता क्षणक्षणपर नये-नये शोभाके विकासके कारण है। नवकुमार निमेषशून्य हो उस नित्य नव शोभा को निरख रहे थे।

सुन्दरी नवकुमार की निमेषशून्य आँखें देखकर बोली—“आप क्या देखते हैं? मेरा सौन्दर्य!”

नवकुमार भले आदमी थे, अप्रतिभ होकर, शर्माकर उन्होंने आँखें नीची कर लीं। नवकुमारको निरुत्तर देख अपरिचित रमणीने फिर हँसकर कहा—“आपने क्या कभी किसी युवतीको देखा नहीं है? अथवा मैं ही बहुत सुन्दर दिखाई देती हूँ?”

यह बात सहज ही कही गयी होती तो तिरस्कार जैसी जान पड़ती, लेकिन रमणीने जिस हँसीके साथ कहा था, उससे व्यंगके अतिरिक्त और कुछ जान नहीं पड़ा। नवकुमारने देखा कि रमणी बड़ी मुखरा है; फिर भला मुखराकी बातका जवाब क्यों न देते। बोले—“मैंने युवतियोंको देखा है, लेकिन ऐसी सुन्दरी नहीं।”

रमणीने सगर्व पूछा—“क्या एक भी नहीं!”

नवकुमारके हृदयमें कपालकुण्डलाका रूप जाग रहा था; उन्होंने भी सगर्वे उत्तर दिया—“एक भी नहीं, ऐसा तो नहीं कह सकता।”

पत्थरपर मानो लोहेका आघात हुआ। उत्तरकारिणीने कहा—“तब तो ठीक है? क्या वह आपकी गृहिणी हैं?”

नव०—“क्यों? गृहिणी, मनमें क्या सोचती हो?”

स्त्री—“बंगाली लोग अपनी गृहिणीको सबसे ज्यादा सुन्दर समझते हैं।”

नव०—“मैं बंगाली अवश्य हूँ, लेकिन आप भी तो बंगालीकी तरह ही बातें कर रही हैं, तो आप किस देशकी हैं?”

युवती ने अपनी पोशाककी लटक देखकर कहा—“अभागिनी बंगाली नहीं है। पश्चिम प्रदेशवासी मुसलमान है।”

नवकुमारने मजेमें देखकर सोचा, पहनावा तो जरूर पश्चिमदेशीय मुसलमानोंकी तरह है, लेकिन बोली बिल्कुल बंगालियों जैसी है। थोड़ी देर बाद तरुणीने कहा—“महाशय वाक्‌चातुरीसे आपने मेरा परिचय तो ले लिया—अब आप अपना परिचय दें। जिस घरमें वह अद्वितीय रूपसी गृहिणी है, वह घर कहाँ है?”

नवकुमारने कहा—“मेरा घर सप्तग्राम है।”

विदेशिनीने कोई उत्तर न दिया। सहसा मुँह फेरकर वह प्रदीप उज्ज्वल करने लगी।

थोड़ी देर बाद बिना मुँह उठाये ही बोली—‘दासी का नाम मोती है। महाशयका नाम क्या है, सुन सकती हूँ?’

नवकुमारने कहा—“नवकुमार शर्मा।”

प्रदीप बुझ गया।

:३: सुन्दरी-संदर्शन

“धरो देवि मोहन मूरति।
देह आज्ञा, सजाई ओ वरवपु आनि
नाना आभरण!”
⁠मेघनादवध

नवकुमार ने गृहस्वामिनी को बुलाकर दूसरा दीपक लाने के लिए कहा। दूसरा दीपक लाये जाने के पहले नवकुमार ने उस सुन्दरी को एक दीर्घ निश्वास लेते सुना। दीपक लाये जाने के थोड़ी देर बाद ही वहाँ एक नौकर वेशमें मुसलमान उपस्थित हुआ। विदेशिनी ने उसे देखकर कहा—“यह क्या, तुम लोगों को इतनी देर क्यों हुई? और सब कहाँ हैं?”

नौकरने कहा—“पालकी ढोनेवाले सब मतवाले हो रहे थे। उन सबको बटोरकर ले आनेमें हमलोग पालकीसे बहुत ही पीछे छूट गये। इसके बाद टूटी पालकी और आपको न देखकर हमलोग पागलसे हो गये। अभी कितने ही उसी जगह हैं। कितने दूसरी तरफ आपकी खोजमें गये हैं। मैं खोजनेके लिए इधर आया।”

मोतीने कहा—“उन सबको ले आओ।”

नौकर सलाम कर चला गया। विदेशिनी कुछ समय तक ठुड्ढीपर हाथ रखे बैठी रही।

नवकुमारने विदा होना चाहा। इसके बाद मोती बीबीने स्वप्नोत्थिताकी तरह एकाएक खड़ी होकर पूछा—“आप कहाँ रहेंगे?”

नव०—यहीं बगलके कमरेमें।

मोती०—आपके कमरेके सामने एक पालकी रखी थी। क्या आपके साथ कोई है?”

“मेरी स्त्री मेरे पास है।”

मोती बीबीने फिर व्यङ्गका अवकाश पाया। बोली—“क्या वही अद्वितीय रूपवती है?”

नव०—देखनेसे स्वयं समझ सकेंगी।

मोती०—क्या मुलाकात हो सकेगी?

नव०—(विचारकर) हर्ज क्या है?

मोती०—तो कृपा कीजिए न! अद्वितीय रूपवतीको देखनेकी बड़ी इच्छा होरही है। आगरे जाकर मैं कहना चाहती हूँ। लेकिन अभी नहीं—अभी आप जायँ। थोड़ी देर बाद मैं खबर दूँगी।

नवकुमार चले गये। थोड़ी देर बाद बहुतेरे आदमी, दासदासी और वाहक सन्दूक आदि लेकर उपस्थित हुए। एक पालकी भी आयी। उसमें एक दासी थी। इसके बाद नवकुमारके पास खबर आई—“बीबी आपको याद करती हैं।”

नवकुमार मोती बीबीके पास फिर वापस आए। देखा, इस बार दूसरा ही रूपान्तर है। मोती बीबीने पूर्व पोशाक बदलकर स्वर्णमुक्तादि शोभित कासकार्ययुक्त वेश-भूषा की है। सूनी देह अलंकारोंसे सज गयी है। जिस जगह जो पहना जाता है—कानोंमें, कबरीमें, कपालमें, आँखोंकी बगलमें, कण्ठमें, हृदयपर बाहू आदि सब जगह सोनेके आभूषणोंमें हीरकादि रत्न झलक रहे थे। नवकुमारकी आँखें नाच उठीं। अधिकांश स्त्रियाँ अधिक आभूषण पहन लेने पर श्री हीन हो जाती हैं—अनेक सजाई गयी पुतलीकी तरह दिखाई पड़ने लगती हैं। लेकिन मोती बीबीमें श्रीहीनता नहीं आयी थी। प्रभूत नक्षत्रमाला-भूषित आकाशकी तरह उसकी देहपर अलंकार शोभा दे रहे थे। शरीरकी माधुरी पर वह अलंकार मिलकर अद्भुत छटा दिखा रहे थे। शरीरका सौन्दर्य और बढ़ गया था। मोती बीबीने नवकुमारसे कहा—“महाशय! चलिए आपकी पत्नी के साथ परिचय प्राप्त कर आयें।” नवकुमार ने कहा—“इसके लिए अलंकार पहननेकी तो कोई जरूरत थी नहीं। मेरे परिवारमें तो गहना है नहीं।”

मोती बीबी—गहनोंको दिखाने के लिये ही पहन लिया है। आप नहीं जानते, स्त्रियों के पास गहने रहें और न दिखायें, यह हो नहीं सकता। यह स्त्री-प्रकृति है। खैर चलिये चलें।

नवकुमार मोती बीबी को साथ लेकर चले। जो दासी पालकी पर आयी थी, वह भी साथ चली। इसका नाम पेशमन् है।

कपालकुण्डला दुकान जैसे कमरेकी मिट्टीके फर्शपर बैठी थी। एक धीमी रोशनीका दीपक जल रहा था। आबद्ध निबिड़ केशराशि पीछेके हिस्सेमें अन्धकार किए हुई थी। मोती बीबीने पहले उन्हें जब देखा, तो होठके किनारेकी ओर आँखोंमें कुछ हँसीकी रेखा दिखाई दी। अच्छी तरह देखनेके लिए वह दीपक उठाकर कपाल कुण्डलाके चेहरेके पास ले आई।

लेकिन देखते ही फिर हँसी उड़नछू हो गयी। मोती बीबीका चेहरा गम्भीर हो गया। वह अनिमेष लोचन से सौन्दर्य देखती रह गयी। कोई कुछ न बोला। मोती मुग्ध थी—कपालकुण्डला कुछ विस्मित थी।

थोड़ी देर बाद मोती बीबी अपने शरीरसे गहने उतारने लगी। इस तरह अपने शरीर से गहने उतारकर वह एक-एक करके कपालकुण्डलाको पहनाने लगी। कपालकुण्डला कुछ न बोली। नवकुमार कहने लगे—“यह क्या करती हैं?” मोती बीबीने इसका कोई जवाब नहीं दिया।

अलंकार-सज्जा समाप्त कर और अच्छी तरह निरखकर मोती बीबीने कहा—“आपने सच कहा था। ऐसे फूल राजोद्यान में भी नहीं खिलते। दुःख यही है कि इस रूपराशिको राजधानीमें न दिखा सकी। यह गहने इसी शरीरके उपयुक्त हैं। इसीलिए मैंने पहना दिए हैं। आप भी इन्हें देखकर कभी-कभी मुखरा विदेशिनीको याद किया करेंगे।”

नवकुमारने चमत्कृत होकर कहा—“यह क्या? यह सब बहुमूल्य अलंकार हैं, मैं इन्हें क्यों लूँ?”

मोती ने कहा—“ईश्वर की कृपा से मेरे पास बहुत हैं। मैं निराभरण न हूँगी। इन्हें पहनाकर यदि सुखी होती हूँ, तो उसमें व्याघात क्यों उपस्थित करते हैं?”

यह कहती हुई मोती बीबी दासीके साथ वापस चली गई। अकेलेमें पहुँचनेपर पेशमनने मोती बीबीसे पूछा—“बीबी यह शख्स कौन है?”

यवनबालाने उत्तर दिया—“मेरा खसम।”

:४: पालकी सवारी से

—“खुलिनु सत्वरे,
कंकण, वलय, हार, सींथि, कण्ठमाला,
कुण्डल, नूपुर, काँची।”
मेघनादवध

अब उन गहनोंकी क्या दशा हुई सुनो। मोती बीबीने गहना रखनेके लिए हाथीदाँतका बना एक बक्स भेज दिया। उस सन्दूकपर चाँदी जड़ी हुई थी। डाकुओंने बहुत थोड़ी ही चीजें लूटी थीं। पासमें जो कुछ था वही लूटा; इसके अतिरिक्त पीछे सेवकोंके पास जो था, वह बच गया था।

नवकुमारने दो एक गहने कपालकुण्डलाके शरीरपर छोड़कर शेष सबको सन्दूकमें रख दिया। दूसरे दिन सबेरे मोतीबीवीने वर्द्धमानकी तरफ और नवकुमारने सप्तग्रामकी तरफ यात्रा की। नवकुमारने कपालकुण्डलाको पालकीपर बैठा गहनोंका सन्दूक साथ ही रख दिया। कहार सहज ही नवकुमारको पीछे छोड़ आगे बढ़ गये। कपालकुण्डला पालकीका दरवाजा खुला रख चारो तरफ देखती जा रही थी। एक भिक्षुक उसे देख दौड़ लगाकर भीख माँगता हुआ पालकीके साथ-साथ चलने लगा।

कपालकुण्डलाने कहा—“मेरे पास तो कुछ भी नहीं है, तुम्हें क्या दूँ?” भिक्षुकने कपालकुण्डलाके अंगपरके गहने दिखाकर कहा—यह क्या कहती हो माँ! तुम्हारे पास हीरे-मोतीके गहने हैं—तुम्हारे पास क्यों नहीं?”

कपालकुण्डला ने पूछा—“गहना पा जानेसे तुम सन्तुष्ट हो जाओगे?”

भिक्षुक कुछ विस्मित हुआ। भिक्षुककी आशा असीमित होती है। और बोला—“क्यों नहीं, माँ।”

कपालकुण्डला ने अकपट हृदयसे कुल गहने, मय सन्दूकके भिखमंगेको दिए। शरीरके गहने भी उतारकर दे दिए।

भिक्षुक विह्वल हो गया। दास-दासी कोई भी जान न सका। भिक्षुक का विह्वल भाव क्षणभरका था। इधर-उधर देखकर एक साँससे एक तरफ भागा। कपालकुण्डलाने सोचा—“भिक्षुक भागा कयों?”

:५: स्वदेश में

शब्दाख्येयं यदपि किल ते यः सखीनां पुरस्तात्
कर्णे लोलः कथयितुमभूदाननस्पर्शलोभात्।
मेघदूत

नवकुमार कपालकुण्डलाको लिये हुए स्वदेश पहुँचे, नवकुमार पितृहीन थे; घरमें विधवा माता थी और दो बहनें थीं। बड़ी विधवा थी, जिससे पाठक लोग परिचित न हो सकेंगे; दूसरी श्यामासुन्दरी सधवा होकर भी विधवा है, क्योंकि वह कुलीन की स्त्री है। वह दो-एक बार हम लोगोंको दर्शन देगी।

दूसरी अवस्थामें यदि नवकुमार इस तरह अज्ञातकुलशीला तपस्विनी को विवाह कर घर लाये होते, तो उनके आत्मीय-स्वजन कहाँ तक सन्तुष्ट होते, यह बताना कठिन है। किन्तु वास्तवमें उन्हें इस विषयमें कोई क्लेश उठाना न पड़ा। सभी लोग उनके वापस पहुँचनेमें हताश हो चुके थे। सहयात्रियोंने लौटकर बात उड़ा दी थी कि नवकुमारको शेरने मार डाला। पाठक सोच सकते हैं, इन सत्यवादियोंने आत्मविश्वासके बलपर ही यदि ऐसा कहा होगा, तो यह ठगकी कल्पनाशक्तिका अपमान करना होगा। लौटकर वापस आनेवाले कितने ही यात्रियोंने तो यहाँतक कह दिया था कि नवकुमारको व्याघ्र द्वारा आक्रान्त होते उन्होंने अपनी आँखों देखा है। कभी-कभी तो उस शेरको लेकर आपसमें तर्क-वितर्क हुये। कोई कहता,—“वह आठ हाथ लम्बा रहा होगा।” दूसरेने कहा,—“नहीं-नहीं, वह पूरा चौदह हाथ लम्बा था।” इसपर पूर्व परिचित यात्रीने कहा था—“जो भी हो, मैं तो बाल-बाल बच गया था। बाघने पहले मेरा पीछा किया था, लेकिन मैं भाग गया, बड़ी चालाकीसे भागा, किन्तु क्या कहें, नवकुमार बेचारा भाग न सका। वह साहसी न था, यदि भागता तो शायद मेरी तरह वह भी बच जाता।”

जब यह सब गल्प नवकुमारकी माताके कानों में पहुँची तो घरमें वह क्रन्दनका कुहराम मचा, कि कई दिनोंतक शान्त न हुआ। एकमात्र पुत्रकी मृत्युकी खबरसे माता मृत प्राय हो गयी। ऐसे समय जब नवकुमार सस्त्री घर वापस लौटे, ता कौन पूछे कि वह किस जातिकी है और किसकी कन्या है? मारे प्रसन्नताके सब मत्त थे।

नवकुमारकी माताने बड़े आदर के साथ बहूको घर में बैठाया। जब नवकुमारने देखा कि घरवालोंने कपालकुण्डलाको सादर ग्रहण कर लिया, तो उनके हृदयमें अपार आनन्द प्राप्त हुआ। यद्यपि उनके हृदयमें कपालकुण्डला का निवास हो रहा था, फिर भी घरमें कहीं अनादर न हो, इस भयसे अबतक उन्होंने विशेष प्रणय लक्षण दिखाया न था। यही कारण था कि उस समय वह अकस्मात् कपालकुण्डलाके पाणिग्रहणके प्रश्नपर सम्मत न हुये थे। यही कारण था कि राहमें गृहपर न आनेतक नवकुमारने प्रणयसम्भाषण न किया था। उन्होंने अबतक प्रणय-सागर में अनुरागकी वायुको हिलोरें लेने न दिया। लेकिन वह आशंका दूर हो गयी। वेगसे बहनेवाली जलराशिको जिस प्रकार बाँधसे बाँध दिया जाये और बाँध टूटनेपर जलका उच्छ्वास उछल पड़े, वही दशा नवकुमार की हुई।

यह प्रेमका आविर्भाव केवल बातोंमें नहीं होता था; लेकिन कपालकुण्डलाको देखते ही सजल-लोचन ही, अनिमेष लोचनसे देखते रह जाते हैं, उससे ही प्रकट होता है; जिस प्रकार निष्प्रयोजन हो, प्रयोजनकी कल्पना कर वह कपालकुण्डलाके पास आते, इससे प्रकट होता है; बिना प्रसंगके जिस प्रकार बातों में कपालकुण्डला का प्रसंग उत्थापित करते, उससे प्रकट होता है। यहाँ तक कि उनकी प्रकृति भी बदलने लगी। जहाँ चंचलता थी, वहाँ गम्भीरता आने लगी; जहाँ अनमने रहते थे, वहाँ वह हर समय प्रसन्न रहने लगे। नवकुमारका चेहरा सदा प्रसन्नतासे खिला रहने लगा। हृदयके स्नेहका आधार हो जानेके कारण हर एकके प्रति स्नेहका बर्ताव होने लगा। विरक्तिकर लोगोंके प्रति भी स्नेहका बर्ताव होने लगा। मनुष्यमात्र प्रेमपात्र हो गया। पृथ्वी मानो सत्कर्मसाधनके लिये ही है, नवकुमारके चरित्रसे यही परिलक्षित होने लगा। समूचा संसार सुन्दर दिखाई देने लगा। सच्चा प्रणय कर्कशको भी मधुर बना देता है, असत्यको सत्य, पापीको पुण्यात्मा और अन्धकारको आलोकमय बना देता है।

और कपालकुण्डला; उसका क्या भाव था? चलो, पाठक! एक बार उसका भी दर्शन करें।

:६: अवरोध में

“किमित्यपास्या भरणानि यौवने
धृतं त्वया वार्द्धक शोभि वल्कलम्।
वद प्रदोषे स्फुट चन्द्र तारका
विभावरी यद्यरुणाय कल्पते॥”
—कुमारसंभव।

यह सभीको अवगत है कि किसी समय सप्तग्राम महासमृद्धशालिनी नगरी थी। रोम नगरसे यवद्वीपतकके सारे व्यवसायी इस महानगरी एकत्रित होते थे। लेकिन वंगीय दशम-एकादश शताब्दीमें इस नगरीकी समृद्धितामें लघुता आयी। इसका प्रधान कारण यही था कि उस समय इस महानगरीके पादतलको धोती हुई जो नदी बहती थी, वह क्रमशः सूखने और पतली पड़ने लगी। अतः बड़े-बड़े व्यापारी जहाज इस सँकरी राहसे दूर ही रहने लगे इस तरह यहाँका व्यवसाय प्रायः लुप्त होने लगा। वाणिज्यप्रधान नगरोंका यदि व्यवसाय चला गया, तो सब चला गया। सप्तग्रामका सब कुछ गया। वंगीय एकादश शताब्दीमें इसकी प्रतियोगितामें हुगली नदी बनकर खड़ी हो गयी। वहाँ पोर्तगीज लोगोंने व्यापार प्रारम्भ कर दिया। सप्तग्रामकी धन-लक्ष्मी यद्यपि आकर्षित होने लगी, फिर भी सप्तग्राम एकबारगी हतश्री हो न सका। तबतक वहाँ फौजदार आदि राज-अधिकारियोंका निवास था। लेकिन नगरीका अधिकांश भाग बस्तीहीन होकर गाँवका रूप धारण करने लगा।

सप्तग्राम के एक निर्जन उपनगर भागमें नवकुमारका निवास था। इस समय सप्तग्राम की गिरी हुई दशाके कारण अधिक आदमियोंका आगमन न होता था। राजपथ लता-गुल्मादिसे आच्छादित हो रहे थे। नवकुमारके घरके पीछे एक विस्तृत घना जङ्गल है। घरके सामने कोई आध कोसकी दूरीपर एक नहर बहती है, जो वनको घेरती हुई पिछवाड़ेके जङ्गलमें से बही है। मकान साधारण ईंटोंका बना हुआ पक्का है। है तो दो-मञ्जिला, किन्तु आज-कलके एक खण्डके मकानोंकी जैसी ऊँचाई उसकी है।

इसी घरकी ऊपरी छतपर दो युवतियाँ खड़ी हो चारों तरफ देख रही हैं। संध्याका समय है। चारों तरफ जो कुछ दिखाई पड़ता है, अवश्य ही वह नयन मोहक है। पासमें ही एक तरफ घना जङ्गल है, जिसमें विविध प्रकारके पक्षी झुण्ड के झुण्ड बैठे कलरव कर रहे हैं। एक तरफ वह नहर, मानों रूपहली रेखाकी तरह बल खाती चली गयी है। दूसरी तरफ नगरकी विस्तृत अट्टालिकाएँ अपना सर ऊँचा किये मानों कह रही हैं कि वसन्त-प्रिय-मधुर सौन्दर्य प्रियजनों का यहाँ निवास है। एक तरफ बहुत दूर नावोंसे सजी हुई भागीरथीकी धारा है, जिसके विशाल वक्षःस्थलपर सांध्यतिमिरका आवरण धीरे-धीरे गाढ़ा हो रहा है।

वे जो दो नवीना मकानके ऊपर खड़ी हैं, उनमें एक चन्द्र-रश्मि-वर्णवाली, अविन्यस्त केशराशिके अन्दर आधी छिपी हुई है; दूसरी कृष्णांगी है। वह सुमुखी षोडशी है। उसका जैसा नाटा कद है, वैसे ही बाल चेहरा भी छोटा है, उसके ऊपरी हिस्सेके चारों तरफसे घुँघराले बाल लटक रहे हैं। नेत्र अच्छे बड़े, कोमल, सफेद मानों बन्द कली के सदृश हैं, छोटी-छोटी उँगलियाँ साथिनीके केशोंको सुलझाती हुई घूम रही हैं। पाठक महाशय समझ गये होंगे कि वह चन्द्ररश्मि-वर्णवाली और कोई नहीं, कपालकुण्डला है; दूसरी कृष्णांगी उसकी ननद श्यामासुन्दरी है।

श्यामासुन्दरी अपनी भाभीको ‘बहू’, कभी आदर पूर्वक ‘बहन’, कभी ‘मृणा’ नामसे सम्बोधित कर रही थी। कपालकुंडला नाम विकट होने के कारण घर के लोगोंने उसका नाम ‘मृण्मयी’ रखा है; इसीलिये संक्षिप्त नामसे ‘मृणा’ कहकर बुलाती है। हमलोग भी कभी-कभी कपालकुंडलाको मृण्मयी नामसे पुकारेंगे।

श्यामासुन्दरी अपने बचपन की याद की हुई एक कविता पढ़ रही थी—

‘बोले—पद्मरानी, बदनखानी, रेते राखे ढेके।
फूटाय कलि, जूटाय अलि, प्राणपतिके देखे॥
आबार—बनेर लता, छड़िये पाता, गाछेर दिके धाय।
नदीर जल, नामले ढल, सागरेते जाय॥
छि-छि—सरम टूटे, कुमुद फूटे, चाँदेर आलो पेले।
बियेर कने राखते नारि फूलशय्या गेले॥
मरि—एकि ज्वाला, विधिर खेला, हरिषे विषाद।
परपरशे, सबाई रसे, भाङ्गे लाजेर बाँध॥

‘क्यों भाभी! तुम तपस्विनी ही रहोगी?’

मृण्मयीने उत्तर दिया,—“क्यों, क्या तपस्या कर रही हूँ?”

श्यामासुन्दरीने अपने दोनों हाथों से केशतरंगमालाको उठाकर कहा,—“तुम अपने इन खुले बालोंकी चोटी नहीं करोगी?”

मृण्मयीने केवल मुस्कराकर श्यामासुन्दरीके हाथसे बालोंको हटा लिया।

श्यामासुन्दरी ने फिर कहा,—“अच्छा, मेरी साध तो पूरी कर दो। एक बार हम गृहस्थोंके घरकी औरतोंकी तरह शृङ्गार कर लो। आखिर कितने दिनोंतक योगिनी रहोगी?”

मृ०—जब इन ब्राह्मण सन्तानके साथ मुलाकात नहीं हुई थी, तो उस समय भी तो मैं योगिनी ही थी।

श्यामा॰—अब ऐसे न रहने पाओगी।

मृ॰—क्यों न रहने पाऊँगी?

श्या॰—क्यों? देखोगी? तुम्हारे योगको तोड़ दूँगी। पारस पत्थर किसे कहते हैं जानती हो?

मृण्म्यीने कहा,—“नहीं।”

श्यामा॰—पारस पत्थरके स्पर्शसे राँगा भी सोना हो जाता है।

मृ॰—तो इससे क्या!

श्या॰—औरतोंके पास भी पारस पत्थर होता है।

मृ॰—वह क्या?

श्या॰—पुरुष! पुरुषकी हवासे योगिनी भी गृहिणी हो जाती है। तूने उसी पारस-पत्थरको छुआ है! देखना—

बांधाबो चूलेर राश, पराबो चिकन वास,
खोँपाय दोलाबो तोर फूल।
कपाले सींथिर धार, काँकालेते चन्द्रहार,
काने तोर दिबो जोड़ा दूल॥
कुङ्कुम चन्दन चूया, बाटा भोरे पान गुया,
राङ्गामुख राङ्गा हबे रागे।
सोनार पुतली छेले, कोले तोर दिबो फेले,
देखी भालो लागे कि ना लागे॥

मृण्मयीने कहा—ठीक, समझ गयी। समझ लो कि पारस पत्थर मैं छू चुकी और सोना हो गयी। चोटी भी कर ली, गलेमें चन्द्रहार पहन लिया, चन्दन, कुंकुम, चोआ, पान, इत्र सब ले लिया, सोनेकी पुतली तक हो गयी। समझ लो, यह सब हो गया। लेकिन इतना सब होनेसे क्या सुख हुआ!

श्यामा॰—तो बताओ न कि फूलके खिलनेसे क्या सुख है?

मृ॰—लोगोंको देखनेका सुख है, लेकिन फूलका क्या?

श्यामासुन्दरीके मुखकी कांति गम्भीर हो गयी। प्रभातकालीन वायुके स्पर्शसे कुमुदिनीकी तरह आँखें नाच उठीं। बोली—फूलका क्या, यह तो बता नहीं सकती। कभी फूल बन कर खिली नहीं लेकिन तुम्हारी तरह कली होती तो खिलकर अवश्य दुःखका अनुभव करती।

श्यामा कुलीन पत्नी है।

हम भी इस अवकाशमें पाठकोंको बता देना चाहते हैं कि फूलको खिलनेमें ही सुख होता है। पुष्परस, पुष्पगन्ध वितरित करनेमें ही फूलका सुख है। आदान-प्रदान ही पृथ्वीके सुखका मूल है; तीसरा और कोई मूल नहीं। मृण्मयी वनमें रहकर कभी इस बातको हृदयंगम कर नहीं सकी; अतएव इस बातका उसने कोई जवाब न दिया।

श्यामा सुन्दरीने उसे नीरव देखकर कहा—अच्छा यदि यह न हुआ तो बताओ तो भला, तुम्हें क्या सुख है?

कुछ देर सोचकर मृण्मयीने कहा—बता नहीं सकती। शायद वही समुद्रके किनारे वन-वनमें घूमनेसे ही मुझे सुख है।

श्यामा सुन्दरी कुछ आश्चर्यमें आई। उन लोगोंके यत्नसे मृण्मयी जरा भी उपकृता नहीं हुई, इस ख्यालसे कुछ क्षुब्ध भी हुई। कुछ नाराज भी हुई। बोली—अब लौट जानेका कोई उपाय है?

मृ०—कोई उपाय नहीं।

श्यामा०—तो अब क्या करोगी?

मृ०—अधिकारी कहा करते थे—यथा नियुक्तोस्मि तथा करोमि।

श्यामा सुन्दरीने मुँहपर कपड़ा रखकर हँसकर कहा—बहुत ठीक महामहोपाध्याय महाशय! क्या हुआ?

मृण्मयीने एक ठण्ढी साँस लेकर कहा—जो विधाता करेंगे, वही होगा। जो भाग्यमें बदा है, वही भोगना होगा!

श्यामा०—क्यों, भाग्यमें क्या है? भाग्यमें सुख है। तुम ठंढी साँस क्यों लेती हो?

मृण्मयीने कहा—सुनो! जिस दिन स्वामीके साथ यात्रा की, यात्राके समय भवानीके पैरपर बेल-पत्ती चढ़ाने गयी। मैं बिना माताके पैरपर बेल-पत्र चढ़ाये कोई काम नहीं करती थी। कार्य यदि शुभजनक होता, तो माता अपने पैरसे पत्र गिराती नहीं थी। यदि अमंगलका डर होता है तो माताके पैरसे वह बेलपत्र गिर पड़ता है। अपरिचित व्यक्ति के साथ विदेश जाते शंका मालूम हुई। शुभाशुभ जाननेके लिए ही मैं यात्राके समय गयी। लेकिन माताने त्रिपत्र धारण नहीं किया, अतएव भाग्यमें क्या है, नहीं कह सकती।

मृण्मयी चुप हो गयी। श्यामा सुन्दरी सिहर उठी।

  • तृतीय खण्ड : कपाल कुण्डला
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  • बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय के उपन्यास हिन्दी में
  • बांग्ला कहानियां और लोक कथाएं
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