कानिया ढोली : गुजरात की लोक-कथा

Kaniya Dholi : Lok-Katha (Gujrat)

महाराज के अंत की वेला हो आई थी। उस समय सिवान में से चौकीदार ने हाँफते हुए आकर सुदामडा गाँव को समाचार दिया कि गाँव के छोर पर धूल उड़ती आ रही है। माणिया के मुसलमानों का सैन्य एक साथ सौ-सौ बंदूकों सहित सुदामडा को रौंदने आ रहा है।

यह सुनकर दरबार शादूण खावड़ का माथा ठिकाने नहीं रहा। आज उसे अपनी इज्जत धूल में मिलने का समय प्रतीत हुआ। उसके तमाम नवयुवक गाँव से बाहर गए हुए थे। गाँव में वृद्ध-बूढ़ों के अतिरिक्त कोई लड़नेवाला नहीं था। हथियार थे नहीं और हथियार चला सके, ऐसी आबादी भी नहीं थी। शादूण खावड़ बहुत देर तक कनपटी पर हाथ रखे बैठे रहे।

‘सैन्य आ रहा है! मुसलमानों का विशाल सैन्य आ रहा है!’ ऐसी पुकार पूरे सुदामडा में फैल गई और यह पुकार सुनते ही लोग धड़ाके से घर में से बाहर आए। काठियारिनें मूसल लेकर चौखट पर डट गईं तो बच्चे पत्थरों का ढेर करके शत्रुओं के विरुद्ध लड़ाई के लिए एकत्र हो गए।

किसी ने कहा कि ‘बापू बेचैन होकर बैठे हैं। हथियार नहीं हैं, आदमी नहीं हैं, गाँव लुट जाएगा, स्त्रियों के सिर पर तुर्कों का हाथ पड़ेगा, इसलिए बापू तलवार मार के मर जाएँगे।’

‘अरे, क्यों मरेंगे! क्यों मरेंगे! हमने क्या चूड़ियाँ पहन रखी हैं?’ नन्हे-नन्हे बालक और दुबले-पतले बुड्ढे बोल उठे।

‘और हम चूड़ियाँ पहननेवाली क्या घूँघट तानी हुई हैं कि अपने सिर पर दूसरे आदमी का हाथ पड़ने देंगी? अपना कड़ा जिसके माथे पर मारेंगी, उसकी खोपड़ी चकनाचूर नहीं कर देंगी? जाओ बापू के पास और उन्हें हुरमत दो।’

बस्ती के जो दस-बीस आदमी थे, वे शादूण खावड़ की ड्योढ़ी पर गए। जाकर हल्ला-गुल्ला करने लगे—‘ओ मालिक

शादूण! ऐसा शार्दुल होकर तब से क्या विचार कर रहे हैं? हमारे शरीर में प्राण हैं, तब तक नामर्द मियाँ क्या सुदामडा का फाटक भी मरोड़ सकेंगे। अरे! हथियार धारण करो। तुम्हारे गाँव की औरतें कछौटा बाँधकर तैयार हो गई हैं!’

तभी एक स्त्री बोली, ‘अरे बाप! शादूण खवड़ हम सभी तो सुदामड़ा के मालिक हैं। क्या उस दिन लाखा करपडा ने नींभणी नदी के किनारे पूरे गाँव को नहीं कहा था कि सुदामडा तो सबके मत्थे है! उस दिन से पूरी आबादी गाँव की बराबर की भागीदार हो गई है। तुम्हारी ड्योढ़ी और हमारी कुटिया के बीच फर्क नहीं रहा। सुदामडा की लाज के लिए माथा जाए तो क्या हुआ, स्वामी हैं!’

हाँ-हाँ! हम सभी सुदामडा के बराबर के मालिक हैं। पूरी बस्ती ऐसे ही गरज उठी।

संवत् 1806 के बीच पूरा गाँव एक शत्रु के विरुद्ध लड़ा था। उसी दिन से ही ‘सबके माथे सुदामडा’ का करार हुआ था। मतलब कि पूरी बस्ती में गाँव की जमीन का बराबर भाग में बँटवारा हुआ था, यह बात स्त्री भी नहीं भूली थी।

एक ढोली भी उस समय वहाँ खड़ा था। ‘अबे दूर खड़ा रह दूर।’ इसी तरह सब उसको दुत्कारते थे। तभी उसके सामने अंगुली दिखाकर उसकी पत्नी कहने लगी, ‘और वो शादूण बापू! यह मेरा पति कानिया तुम्हारा उत्साह बढ़ाने के लिए ढोल बजाएगा। ये भी सुदामडा का भागीदार है और मुआ सुदामडा के लिए यदि तू आज नहीं मरेगा न तो मैं तुझको घर में घुसने नहीं दूँगी।’

ढोली हँसा। कुछ बोला नहीं, पर गले में कठुला सा ढोल टाँगकर अपने मजबूत हाथों से ढोल पर डंडियाँ बजाने लगा। उसकी जोरदार डंडी पड़ते ही मानो आसमान गूँजने लगा। उसका नाम कानिया भंगी।

अरे बैलगाड़ी लाओ, जल्दी से गाड़ी एक साथ लगा दो। ऐसी हाँक हुई। कानिया के ढोल से कायर की छाबड़ी में भी हरि पधारे।

हड़हड़ाते हुए बैलगाड़ियाँ आ गईं। झटपट गाँव का फाटक बंद हुआ और फाटक के किनारे पूरे गाँव की बैलगाड़ी खड़ी कर दी गई। उसकी आड़ में दस-दस आदमी तलवार लेकर खड़े रहे। साँझ की वेला हो गई। गाँव का साधु ध्यान करके ठाकुर महाराज की आरती करने लगा। पाँच शेर पीतल की उस उज्ज्वल आरती में से दस-दस ज्योति की चमचमाहट ठाकुर महाराज के मुख पर बिखरने लगी। नन्हा बच्चा हाँफते हुए चौरे के उस भारी नगारे पर डंडी की चोट करने लगा और दूसरी तरफ फाटक के बाहर मंद अँधेरे में नींभणी नदी के किनारे दुश्मनों के बंदूकों की जामगी झिलमिलाने लगी।

उस स्त्री की कुटिया फाटक के ठीक बगल में ही थी। शिकार करनेवाली बंदूक में बारूद ठूँसकर जामगी जलाकर वाघरण ने अपने पति के हाथ में दिया और कहा, ‘ओ मुआ तीतर और खरगोश तो रोज मारता है, आज एकाध आदमी को मारकर गाँव का स्वामित्व तो बताकर दिखा।’

एक आदमी को चालाकी सूझी। हाथ में बंदूक लेकर बैलगाड़ी के धुर्रे के बीच सँभलकर बैठ गया। मियाँ आ गए थे। आगे उनका सरदार लखा पाडेर चला आ रहा था। लखा पाडेर हाथ के में जो जामगी जल रही थी, उसके उजाले में उसकी राक्षसी काया बिल्कुल साफ दिख रही थी। उसको देखते ही कुटिर की आड़ में खड़े-खड़े स्त्री ने आदमी को आवाज दी, ‘ओ निगोड़े! देख क्या रहा है? मार-मार, उस सरदार के कपाल के बीच में निशाना, कर दे धड़ाका! खोपड़ी की धज्जियाँ उड़ा दे। जल्दी मार! चारों युग में तेरा नाम रहेगा।’

परंतु आदमी का हाथ काँपने लगा। बंदूक चलाने की उसकी हिम्मत नहीं हुई। सिर पर बिजली गिरी हो, इस प्रकार वह वहीं-का-वहीं जड़ हो गया। उसी समय एक बढ़ई बँसूला लेकर खड़ा था। कानिया ने बड़ी ढोल पर डंडी बजाई, तभी बढ़ई का सत जाग उठा। उसके मन में उजाला हो गया कि हाय-हाय! मैं भी सुदामडा का बराबर का मालिक हूँ! और ऐसा अवसर निकल जाएगा?’

उसने दौड़ लगाई। आदमी के हाथ से बंदूक खींचकर कंधे पर रख ली। लखा पाडेर के ललाट का निशाना लिया, दाग दिया और हडुडुडु करती हुई गोली के छूटते ही लखा की खोपड़ी से फटाक की आवाज हुई। हरिद्वार के मेले में किसी जबरदस्त हाथ का तमाचा लगते ही दुबले साधु के हाथ से सवाशेर खिचड़ी के साथ भिक्षा पात्र उड़ जाता है, उसी तरह लखा की खोपड़ी उड़ गई। जीवन में पहली बार ही हाथ में बंदूक उठानेवाले उस बढ़ई ने रंग रख लिया।

और फिर तो मारो-मारो की हुँकार की। पाडेर गिर पड़ा और अँधेरे में मुसलमान अकुला उठे। मन में लगा कि फाटक में कौन जाने कितने योद्धा बैठे होंगे। शोरगुल भी गजब का काला हो गया, पत्थर पड़ने लगे। मुसलमानों की जामगी बंदूकों के कान में लगाई जाने लगी। धड़ाका हुआ, लेकिन गोलियाँ ठन्-ठन् करती हुई बैलगाड़ी से टकराकर जमीन पर गिरने लगीं, फिर भी वे तो मुसलमानों की बंदूके थीं। बहुतों को घायल करके मुसलमानों ने लखा पाडेर की लाश उठाकर चलती पकड़ी।

फाटक पर तो रंग दिखा दिया, लेकिन कानिया ढोली आपा शादूण को ढूँढ़ रहा है, ‘वे कहाँ हैं?’ फाटक के पास अंतिम श्वासें ले रहे घायलों ने कहा, ‘कानिया! आपा शादूण को खोजो, उन्हें बचाना है।’

कानिया ढोली स्वामी को ढूँढ़ने लगा। हाथ में नंगी तलवार लेकर आपा शादूण गढ़ के किनारे-किनारे अंदर से खोजते हुए चले जा रहे हैं। दूसरा कोई आदमी उनके पास नहीं है। उनको शंका थी कि शत्रु गढ़ को लाँघकर गाँव में न घुस आएँ।

मुसलमान भी बाहर के रास्ते से ठीक गढ़ के किनारे-किनारे चले आ रहे थे। इतने में उन्होंने गढ़ की दीवार में एक छोटा सा नाला बनाया। अवसर पाकर मुसलमान अंदर घुसने लगे, उनके पास हड्डी की बड़ी भारी सी नाल पड़ी थी, उसको उठाकर मुसलमानों ने आपा शादूण के माथे पर दे मारा। पहलवान मुसलमान के भीषण चोट से आपा शादूण बेहोश होकर धरती पर गिर पड़े।

‘परंतु तभी धड़-धड़-धड़...।’ इसी तरह से कौन जाने कहाँ से एक साथ कितनी तलवार का झटका मियों के सिर पर टूट पड़ा। भूतनाथ के भैरव जैसे कद्दावर और खूनी मुसलमान विशाल पहाड़ की चोटी से पत्थर गिरता है, उसी तरह गिरने लगे। ये किसकी तलवार हमला कर रही है, यह देखने के लिए नजर ऊपर उठाने का भी समय नहीं था। ‘ये लो, ये लो’—ऐसा शोर होता जा रहा है और तलवार का हमला होता जा रहा है। शत्रुओं का दम निकल गया। आमने-सामने तलवारें टकराईं। कौन किसको मार रहा है अँधेरे में उसका पता न चला। मुसलमान भागे और जो भागे वे भी द्वारका के यात्री की भाँति सुदामडा के यात्रा की पहचान रूपी द्वारका छाप तलवार की चोट लेते गए।

ये छापे लगाने वाली भुजा किसकी थी? उस अँधेरे में कौन, कितने जन मदद में आए थे दूसरा कोई नहीं, केवल कानिया ही था। कानिया बापू को ढूँढ़ रहा था। वह ठीक समय पर आ गया था। बापू की बेहोश देह गिर पड़ी थी। उनके ही कमर से कानिया ने तलवार खींच ली और अँधेरे में उसकी एकमात्र भुजा ने इतनी तीव्रता से तलवार चलाई, मानो पंद्रह-पंद्रह झटके एक साथ लग रहे हों। अकेले उसने ही हुंकार लगाई। सुदामडा को सबसे अधिक बचानेवाला यह कानिया था।

आपा शादूण का दुःख दूर हुआ। उन्होंने आँखें खोलीं। बगल में देखा तो वहाँ पच्चीस-पच्चीस घाव के टुकड़े होकर कानिया पड़ा है।

‘बापू सुदामडा’—वह इतना ही बोल सका, फिर उसके प्राण दीप बुझ गए।

सुबह चौक में बिरुदावली गाई गई। मृतकों के अग्नि-संस्कार की तैयारी हो रही थी। सभी लाशें सामने पड़ी थीं। उस समय लोगों का गम कम करने के लिए गढवी ने पौरुष की वाणी कही, ‘धन्य है तुझको आपा शादूण! आज तुमने काठियावाड की कोख को रोशन किया है। जोगमाया ने सुदामडा की इज्जत रखी। वाह रे रण-बाँकुरे!’

‘छोहडां रणभड़ां के’ एम सादो,
लोह झडाका बेसलडां,
भड ऊभे झांपो भेणाये,
(तो) भठ छे जीवन एम भडां।

शादूण खवड़ कहता , ‘हे बलवान योद्धाओ, हे तलवारों के साधक वीर नर! आप हाजिर हों, फिर भी गाँव के दरवाजे से दुश्मन दाखिल हो जाएँ तो वीर ऐसे शूरवीरों का जीवन धूल समान है।

एम मरद लुणाओत आखे।
सणजो गल्ला नरां सरां,
नर ऊभे भोणाय नींगरूं,
तो नानत छे अह नरां।

लूणा खवड़ का पुत्र शादूण कहता है कि ‘हे पुरुषो, सुनिए—यदि मर्द खड़ा हो और गाँव लुट जाए तो ऐसे मर्द को लानत है।

वणग्या गढे माणियावाणा,
माटीपणारा भरेल मियाँ,
पोते चकचूर थियो पवाडे,
एम केक भड चकचूर किया।

माणिया वाले मियाँ लुटेरे जो कि मर्दानगी से युक्त थे, वे सुदामडा के गढ़ पर टूट पड़े। उस समय बहादुर शादूण खवड जान पर खेले और दूसरे कितनों को उन्होंने उत्ताहित किया।

सादे गढ़ राख्यो सुदलपर।
दोखी तणो न लागे दाव,
एम करी कसणे ऊगरियो,
रंग छे थाने, खवडाराव।

सुदामड़ा का गढ़ शादूण खवड ने इसी तरह बचा लिया। दुश्मनों को बिल्कुल मौका नहीं दिया। इस प्रकार शादूण खवड तुम भी सकुशल बच गए। खवडा के राजा तुझे आनंद है।

अपने पराक्रम का गीत सुनकर शादूण खवड ने उदासी भरे चेहरे से गरदन हिलाई। चारण ने पूछा, ‘क्या बाप! कुछ अयोग्य कहा है?’

‘गढवी! कवि की कविता भी छूत लगने से डरती है क्या?’

‘कुछ समझा नहीं, आपा शादूण।’

‘गढवी तुम्हारे गीत में मेरा कानिया कहाँ है? कानिया के नाम रहित कविता का मैं क्या करूँ?’

चारण को झेंप महसूस हुई। उसने फिर से सरस्वती को पुकारा। उसने दोनों हाथ जोड़कर दिशाओं की वंदना किया, तब उसकी जिह्वा से वाणी फूट पड़ी—

अड‍्ड माणिया कड्ड सुदामडे आफण्यो,
भज नगर वातनो थियो भामो,
कोड अपसर तणा चूडला कारणे,
सूंडलानो वाणतल गियो सामे।

माणिया के मियाँ सुदामड़ा पर टूट पड़े, मानो कि भुज और नगर के बीच युद्ध शुरू हो गया। उस समय रणक्षेत्र में मरकर अप्सराओं से विवाह करने की इच्छा से एक झाड़ू लगानेवाला ढोली शत्रुओं के सामने गया।

वरतरिया तणो नके रियो वारियो,
घघुव्यो पाण ने चडयो घोडे,
ढोलना वगडावतल केम नव धडकिया,
ढोलनो वगाडतल गियो घोडे।

अपनी पत्नी के रोकने पर भी वह नहीं रुका। लश्कर तैयार हुआ। खुद घोड़े पर चढ़ा और उससे ढोल बजवाने वाले शूरवीरों को तो अभी शौर्य चढ़ ही रहा था, तब तक ढोल बजानेवाला स्वयं रणमत्त होकर दौड़ पड़ा।

वीभड़ा तणां दण करमडे वाढियाँ,
सभासर आटके लोही सूकाँ,
अपसरा कारणे झाटके आटकी,
झांपडो पोण वच थियो झूका।

शत्रुओं के दल को उसने तलवार से काट डाला, अप्सराओं से ब्याह करने का उत्साही वह कानिया ढोली आखिरकार लड़ते हुए मोहल्ले के बीच शहीद हो गया।

भडया बे रखेहर जेतपर भोंयरे,
वजाडी खाग ने, आग वधको,
रंगे चडयो गामने, सामे कसणे रिया,
एटलो कानियानो मरण अधको।

पहले भी दो अछूत लड़े थे—एक जेतपुर में चांपराज वाणा के युद्ध के समय और दूसरा भोयंरगढ की लड़ाई में। उन दोनों ने भी अपने गाँव के लिए खड्ग उठाया, परंतु कानिया की मृत्यु तो उससे अधिक है, क्योंकि एक तो वह गाँव पर विजय का रंग चढ़ाया और दूसरे अपने मालिक को उसने सुरक्षित रखा।

(झवेरचंद मेघाणी)

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