कहाँ जा रहे है हम (उपन्यास) : अखिलन

Kahan Ja Rahe Hain Ham ? (Tamil Novel in Hindi) : P. V. Akilan

1. योग्य पिता का योग्य पुत्र

1955-जनवरी की पच्चीसवीं तारीख। सुबह सात बजे का समय।
चेन्नई की प्रधान सड़क अण्णा सालै के गोल चक्कर में अभी गहमागहमी शुरू नहीं हुई है। थोड़ी देर बाद यहाँ का दृश्य देखने लायक होगा। लोग तरह-तरह के गाड़ियों में सवार होकर इस ‘राउण्ड ठाना’ के चक्कर काटते नजर आएँगे। तेजी,हड़बड़ी,अफरा-तफरी, गाडि़यों का शोरगुल,फुटपाथ की चहल-पहल इन सबका मिला-जुला रूप है ‘राउण्ड ठाना’।
महानगर के इस हिस्से से लगा हुआ,लेकिन इसके ठीक विपरीत एक शान्त-सुन्दर नन्दनवन भी वहाँ पर है। शाखा-प्रशाखाओं के संग ऊंचे उठे सघन वृक्षों,हरी-भरी झाड़ियों और मखमल जैसी हरी घास के मैदानों से पटा एक शानदार आहाता। परकोटे जैसी ऊँची दीवारों के पीछे स्थित यह आहाता ‘गवर्नमेण्ट एस्टेट’ या ‘माउण्ड रोड एवरेस्ट’ के नाम से मशहूर है। चेन्नई के निवासियों के लिए यह नाम जाना-पहचाना है। सन् सैंतालीस तक इस देश में राज करनेवाली ब्रिटिश सरकार ने शायद इसी कल्पना के साथ इस नन्दनवन को बसाया था कि वे हमेशा के लिए यहाँ राज करते रहेंगे।
सर्दी का मौसम। अभी सुबह का उजास नहीं हुआ था। सघन तरू-शाखाओं के बसेरे में सोये भाँति-भाँति के पंछी जमकर चहकने लगे। पूस की कड़कती ठण्ड न पड़ती होती तो इनकी मीठी तान संगीत की महफिल में बदल गयी होती।

सोये हुए पत्तों को फैलाकर उन्हें सहला रही प्रभात की किरणें उनींदे तमाल-वृक्षों को जगा रही थीं। मोती सरीखी ओस की बूँदें जहाँ-तहाँ टपक रही थीं। आँखमिचौनी खेलती गिलहरियों की धमाचौकड़ी शुरू हो गयी थी।

आहाते की दीवार की पिछवाड़े को सरहद बनाकर दूसरी तरफ मुखातिब था एक घर। इस घर के बाहरी कक्ष में टेलीफोन की घण्टी बज उठी। कमरे में कोई नहीं था। घण्टी लगातार बजती रही। बगलवाले कमरे में काम में व्यस्त चिदम्बरम ने जल्दी से आकर चोंगा उठाया । पूछा,जी कौन बोल रहे हैं ?
कहाँ गये तुम्हारें पिताजी ?
आवाज पहचानकर चिदम्बरम जरा झिझका। झट जबाव नहीं दे पाया। थोड़ा सकपकाया भी।
क्यों बेटे ! हमें पहचाना नहीं ? नींद से अभी-अभी उठे हो ? या बाहर जाने से पहले तुम्हारे पिता ने तुम्हे मना कर दिया है कि मुझे भी सूचना न दी जाए ?

इसके बाद उनके हँसने की आवाज सुनाई दी। सहज स्वाभाविक हँसी नहीं थी वह।
पोन्नय्या के सवाल और हँसी चिदम्बरम के मन में चुभ गये। उसे पता था कि पिछले कई महीनों से पोन्नय्या और उसके पिता में पट नहीं रही थी। इसे जाहिर किये बिना बोला,ऐसी कोई बात नहीं है चाचाजी जो कि आपसे छिपाई जाए।
तो बताओ न ,कहाँ गये हैं ? कब आएँगे ?
मदुरै के आसपास दौरे पर गये है। आज शाम को नहीं तो कल सुबह तक जरूर आ जाएँगे। आते ही मैं बता दूंगा कि आपने याद किया था।

तुम दफ्तर कब जाते हो ?
दस बजे पहुँचना है चाचाजी ! ‘भोर का तारा’ का आखिरी फर्मा आज छपाई के लिए भेजना है...
अच्छा....इसके बाद थोड़ी देर तक फोन से कोई आवाज नहीं आयी। चिदम्बरम समझ गया कि पोन्नय्या कुछ सोच रहे हैं। कुछ सेकेण्ड बाद उनकी आवाज सुनाई पड़ी। ऐसा है तो दफ्तर जाते हुए इधर से निकलना। जरूरी बात करनी है तुमसे। नौ-सवा नौ तक पहुँच जाओ तो अच्छा रहेगा,ठीक है।
जी चाचाजी !

देखो बैठक में कई मुलाकाती बैठे मिलेंगे। कहीं उनके साथ न बैठ जाना,समझे ? घर के आदमी हो,सीधे अन्दर पहुँच जाना। वैसे, पीछे वाले दरवाजे से भी आ सकते हो। बहुत ही खास बात है,जरूरी भी। आखिरी वाक्य के बोल थोड़ी देर तक उसके कानों में डोलते रहे। दो दिन पहले एकाएक दौरे पर निकले पिताजी ने भी गाड़ी में बैठने से पहले यही बात कही थी,बहुत ही खास बात है,जरूरी भी है।
पिताजी को जब दौरे पर जाना होता,पहले से ही रेल में आरक्षण करवा लेते। जहाँ जैसी सवारी,जीप या ट्रक मिले,उस पर घूमते और फिर किसी रेलगाड़ी से लौटते।
अबकी बार बिना किसी पूर्व ,सूचना के दफ्तर की कोई गाड़ी लेकर निकल पड़े थे। तब से ही उसे यही लग रहा था, मामला जरूर कुछ टेढ़ा है।

चिदम्बरम ने घड़ी देखी। सवा सात बज रहे थे। पोन्नय्या ने जो खबर दी थी, उसके झटके से बाहर आने की कोशिश में वह अपने पिता की कुर्सी पर बैठ गया। सामने गाँधी जी का चित्र लगा था। इस चित्र के शीशे के अन्दर उसे अपनी धुँधली परछाई दिखाई दी।

करीने से कटे हुए घुँघराले बाल,लम्बा-सा गोल चेहरा, घनी भौहों के ऊपर विशाल माथा,उभरी हुई नासिका,पैनी चितवन। फड़कते हुए अधर उसके संवेदनशील स्वभाव की ओर इंगित कर रहे थे। आधी बाँह की खादी की कमीज और चार हाथ की धोती पहने था। उम्र कोई सत्ताईस-अट्ठाईस साल की होगी।

अचानक उसकी नजर मेज के ऊपर रखे,छपे हुए कागज पर पड़ी। लकडी के सुन्दर फ्रेम में मढ़ा वह कागज कोई खास दस्तावेज था। 1950 जनवरी की 26वीं तारीख को जन्मे भारतीय गणतन्त्र घोषणापत्र, जिसमें भारतीय नागरिकों के मूलाधिकारों का उल्लेख था। उसके पिता रामलिंगम इसे ‘भारतीय संविधान का मूल मन्त्र’ कहते थे। अगले दिन गणतन्त्र दिवस का समारोह था। चिदम्बरम उस घोषणा को पढ़ने लगा।

हम भारत के लोग भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न लोकतान्त्रिक गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों को सामाजिक,आर्थिक और राजनीतिक न्याय दिलाने विचार और अभिव्यक्ति की तथा धर्म और उपासना की स्वतन्त्रता दिलाने,समान अवसर, समान प्रतिष्ठा तथा व्यक्ति की गरिमा एवं राष्ट्र की एकता को महत्व देने का संकल्प करते हुए अपने-आपको यह संविधान दे रहे हैं।

इस छपे हुए कागज के नीचे रामलिंगम ने महात्मा गाँधी के एक विचार को अपने हाथ से लिख रहा था,स्वतन्त्र भारत के आर्थिक सिद्धान्त के अनुसार देश के किसी भी नागरिक को भोजन और वस्त्र के बिना कष्ट उठाने की नौबत नहीं आनी चाहिए।
आजादी के कुछ ही महीनों बाद किसी धर्मान्ध व्यक्ति की गोलियों का शिकार बनकर महात्मा ने अपने प्राणों की आहुति दे दी। लेकिन देश की आजादी के पहले ही महात्मा संविधान में शामिल करने के लिए इस बुनियादी विचार को विरासत के रूप में छोड़ चुके थे। बापू के इस विचार को मूलाधिकार वाले अंश में निष्ठपूर्वक लिपिबद्ध ,करने की अपने पिता की जागरूकता का खयाल आते ही चिदम्बरम का मन पुलकित हो उठा।

चिदम्बरम की छोटी बहन भारती ने उस कमरे के अन्दर पहले ही अगरबत्ती जला रखी थी। घर के बगीचे में खिले-बिरंगे ताजे फूल सामने रखे फूलदान में महक रहे थे। गाँधी जी के चित्र के अगल-बगल में स्वतन्त्रता-संग्राम के जाने-माने सेनानी व उ.चिदम्बरम पिल्लै, राष्ट्रीय कवि सुब्रह्मण्य भारती,तिरु.वि.कल्याण सुन्दर मुदलियार आदि के चित्र रखे थे। ऐसे महान नेताओं की स्मृतियों को उनके चित्रों के साथ भूल-भुला न दें,इसी अच्छे विचार के साथ रामलिंगम ने अपने बच्चों को उनके नाम दे रखे थे। पहला बेटा जब हुआ, उसका नाम रखा चिदम्बरम। दूसरे नम्बर पर बेटी हुई तो उसे भारती नाम दिया। आखिरी बेटा ‘सुभाष’ था।

हाथ में जो काम था, उसे पूरा करने के लिए चिदम्बरम अपने कमरे की ओर लौटा। उस छोटे-से-कमरे के अन्दर चारों ओर किताबें-ही-किताबें थीं। झुग्गी-झोंपड़ियों में रहनेवाले गरीब कारीगरों द्वारा बाँस की खपच्चियों से निर्मित किताबों की अलमारियों पर दुनिया के मशहूर ज्ञानी और विद्वान पुस्तकों के आकार में विराजमान थे। ‘भोर का तारा’ में देने के लिए पिछली रात को उसने जो सम्पादकीय तैयार किया था उसका प्रूफ देखकर आवश्यक संशोधन करने के बाद बापू जी की तस्वीर को एक बार निहारा। प्रसन्न मन से फिर दोनों कागजों को दफ्तर ले जानेवाली झोली में हिफाजत के साथ रख लिया।

उसकी माँ लक्ष्मीदेवी रसोईघर में अपने काम में लगी हुई थी। साढ़े आठ बजे तक रोज ही खाना बनकर तैयार हो जाता है। सुभाष अपनी किताब और काँपियों को फर्श पर फैलाये घुटने के बल बैठा था और नीचे झुका हुआ गणित से जूझ रहा था। यद्यपि उसके सामने मुनीमोंवाली लकड़ी की छोटी-सी मेज पड़ी थी,लेकिन सुभाष को उसकी परवाह नहीं थी। फर्श पर औंधा लेटकर लिखने-पढ़ने में ही मानो उसे आनन्द आता हो !

धुले हुए कपड़ों को हाथ में लेकर चिदम्बरम गुसलखाने की ओर जा रहा था। क्षण-भर रुककर उसने देखा,छोटी बहन भारती खिड़की से बाहर झाँकती हुई खडी है और कोयल की कूक का जवाब दे रही है। जोर से हँसने पर भारती के दिल में उभरती खुशी में खलल पड़ जाएगी,इसी खयाल से उसे अपनी हँसी रोकनी पड़ी। भारती की कांलेज की पढ़ाई अभी-अभी पूरी हुई थी। इस समय खिड़की के बाहर पेड़ की डाल पर सुस्ता रही किसी कोयल की एकल कूक का जवाब देने में वह मशगूल थी मानो वह उसकी सहेली हो ! कोयल ने आवाज दी-कू...! इधर से उसी तर्ज पर कूक उठी। बारी-बारी से उठी ‘कू..कू’ ध्वनियों में से कौन सी कोयल की थी और कौन-सी भारती की थी,यह बता पाना कठिन हो रहा था।

आमतौर पर यह देखा जाता है कि चैत्र-वैशाख के महीनों में कोयलों में अजीब किस्म की मस्ती छा जाती है। लेकिन पता नहीं क्यों, चेन्नई नगर की यह कोयल पूस के महीने में ही कैसे इतनी अलमस्त है,जिसकी तान सुनकर भारती भी अपने-आपको भूल गयी।
नलके के नीचे खडे होकर ठण्डे पानी में स्नान कर रहा चिदम्बरम अपनी बहन की मनोदशा पर भावुक हो उठा। उसे खयाल आया,इन दिनों वह हर रोज नयी सुबह का स्वागत करती हुई भाव-विभोर हो जाती है। भारती के अन्तर में उमड़-घुमड़कर फूटती उल्लासमय उमंग ने शायद उसे पंख फड़फड़ाते हुए कोयल के साथ होड़ लगाने की प्रेरणा दी। उसकी नन्ही-सी आत्मा स्वयं कोयल का रूप लेकर मधुमय तान बरस रही थी। हाँ इस समय वह अपने होनेवाले पति राजन की याद में अपने-आपको भूली हुई थी।

राजन डाँक्टर की पढ़ाई पूरी करके ‘हाउस सर्जन’ के रूप में सेवारत था। भारती भी कुछ समय पहले बी.ए.की अपनी पढाई पूरी कर चुकी थी। जब घर में कोई न होता,कभी-कभी भारती राजन से टेलीफोन पर बात कर लेती। चिदम्बरम ने एकाध बार इसे देख लिया है। मौका मिलने पर वे दोनों घर के बाहर भी एक-दूसरे से मिलते थे,यह बात केवल चिदम्बरम को मालूम थी। एक दिन शाम को चिदम्बरम अपने मित्रों के साथ समुद्र-तट पर टहलने गया था उसने देख लिया कि वहाँ नाव की ओट में भारती और राजन अकेले में बैठकर बतिया रहे हैं। उस दिन उन दोनों की नजर से बचना और अपने साथियों की नजर से उन्हें बचाना उसके लिए बहुत दुश्वार बन गया था।

कल वे दोनों पति-पत्नी बनकर जीवन बितानेवाले हैं। इस तरह दूसरों की नज़र बचाकर एकान्त में मिलने में जो आनन्द आता है, वैसी खुशी बाद में नहीं मिल पाएगी। वे दोनों सम्भवतः इस समय अपने जीवन के सबसे अधिक उल्लासमय क्षणों का अनुभव कर रहे होंगे। यों आनन्दमय अनुभूति में झूमते हुए एक-दूसरे को समझने का प्रयत्न करें, इसमें उसे कोई गलती नहीं दिखाई पड़ी।

विवाह करने योग्य उम्र होने पर भी चिदम्बरम उस दिन को टालता आ रहा था। इस तरह का मीठा अनुभव उसके जीवन में भी एक बार हुआ था, जो भूला हुआ सपना बन गया था। इसलिए वह अपनी बहन की भावनाओं को समझ सकता था।

चिदम्बरम जब थाली के सामने बैठा, तो खुद भारती भागी-भागी आयी और खाना परोसने लग गयी। सुभाष ने गणित का सवाल पूरा होने से पहले भोजन करने से मना कर दिया। माँ लक्ष्मी रसोई में पापड़ तल रही थी।

भारती ज़बर्दस्ती उसकी थाली में ज़्यादा चावल परोसने लगी। उसे टोकते हुए चिदम्बरम ने हँसते-हँसते पूछा, “पिताजी की बात भूल गयी?"

“छोड़ो भैया!" भारती बोली।

चिदम्बरम भला क्यों छोड़ता? वह उसे छेड़ता गया, “सुन मेरी बहना! रसोई बनाना असल में 'प्रोडक्शन' है-उत्पादन का काम है और परोसना 'डिस्ट्रीब्यूशन' है यानी वितरण। सबके बीच में बाँटने का काम है। अपने चहेतों को ज़्यादा खिलाना ग़लत है, समझी? समाजवाद का उदय यहीं से शुरू होना चाहिए। कल राजन आ जाए तो तुम्हारे ये हाथ बड़ी उदारता के साथ उस ओर बढ़ जाएँगे, मैं तो यही देख रहा हूँ।"

“माँ, देखो न भैया को!" भारती लजाती हुई बोली, "इसे और इसके पिताजी को समझाओ न, दुनिया को उपदेश देने तक अपने को सीमित रखें।"

“सो ठीक है भारती! मैं तो पूरी गम्भीरता से बात कर रहा हूँ,” चिदम्बरम आगे बोलता गया, “जब तक तुम्हारे 'वे' हाउस सर्जन की प्रैक्टिस पूरी कर लें, तुम भी यहाँ 'हाउस वाइफ़' की ट्रेनिंग ले लो। कॉलेज की पढ़ाई और इस प्रशिक्षण में काफ़ी दूरी है, हाँ!"

"माँ!...माँ!...” झूठी नाराजगी दिखाती हुई भारती चिल्लायी।

“मैं पूछती हूँ, उसे क्यों छेड़ रहा है? कल तुम्हारी होकर जो लड़की आएगी, उसे पढ़ा लेना ये सारे सबक!” लक्ष्मी अपनी बेटी की तरफ़दारी लेती हुई आ गयी। अगर रामलिंगम घर पर होते तो इस तरह की नोक-झोंक का मौका नहीं मिलता। उनकी गैर-हाज़िरी में ही ऐसा हल्ला-गुल्ला सम्भव था।

भोजन समाप्त हुआ। दफ़्तरवाले झोले को कन्धे पर लटकाये चिदम्बरम बाहर निकला। वह आहाते के अन्दर पेड़ों की छाँह का आनन्द लेते हुए पाँच मिनट पैदल चला होगा। एस्टेटवाले फाटक के बाहर आते ही चेन्नई नगर की हड़बड़ी ने उसे भी अपने अन्दर समेट लिया। चारों तरफ़ भागा-दौड़ी और अफरा-तफरी। साइकिलें, टैक्सियाँ, मोटरगाड़ियाँ, बसें सब-की-सब बेतहाशा भाग रही थीं। लोग विभिन्न प्रकार के वाहनों में सवार होकर सभी दिशाओं में अन्धाधुन्ध भाग रहे थे।

चिदम्बरम भी भीड़ के साथ तेज़ी से भागता हुआ आगे बढ़ा। सामने एक टैक्सी दिखाई दी। उसे रोक लिया। टैक्सी के अन्दर बैठकर चालक को निर्देश दिया-'मइलापुर चलो।'

2. गले का फन्दा

मइलापुर के दक्खिनी भाग में नयी-नयी कॉलोनियाँ बन रही थीं। चिदम्बरम की टैक्सी इन नयी बस्तियों में एक के अन्दर मुड़ी और एक आलीशान मकान के सामने खड़ी हुई। पोन्नय्या यहीं रहते थे। मकान उनका अपना नहीं था। जान-पहचान के किसी मित्र का था। आहाते में पहले से ही कई गाड़ियाँ खड़ी थीं। देश की आज़ादी के बाद नगरों में उगते नये-नये मकानों और नयी-नयी गाड़ियों के साथ नयी झुग्गी-झोंपड़ियाँ भी तेज़ी से बढ़ रही थीं।

चिदम्बरम ने देखा, पोन्नय्या की बैठक में ही नहीं, बाहरी बरामदे में भी मुलाक़ातियों की भीड़ थी। टैक्सी का किराया चुकाकर वह बड़ी फुर्ती से भीतर चला गया। पोन्नय्या का निजी सचिव वेणु, जिसने शहर के जाने-माने लोगों को प्रतीक्षा में रोक रखा था, चिदम्बरम को देखकर मुस्कराया। भीतर जाने की अनुमति-सूचक मुस्कान। चिदम्बरम को पिछवाड़े का रास्ता ढूँढ़ने की ज़रूरत नहीं पड़ी।

भीतर जाते ही उसे पता चला कि सुबह के नाश्ते का समय है। पोन्नय्या, उनका बेटा और बेटी तीनों खाने की मेज़ पर बैठकर नाश्ते के साथ न्याय कर रहे थे। उनकी धर्मपत्नी परोसने में व्यस्त थीं।

“आओ बेटे, ठीक समय पर आ गये। आओ, इधर बैठ जाओ।"

पोन्नय्या ने बग़लवाली कुर्सी की ओर इशारा किया। परिवार के बाकी तीनों सदस्यों ने भी उसकी आवभगत में कोई कसर नहीं छोड़ी। चिदम्बरम इस आवभगत से बचने की कोशिश में कहने लगा, "नाश्ता रहने दीजिए चाचाजी, मेरा तो खाना भी हो चुका है।" बार-बार मना करने पर भी किसी ने उसकी बात मानी नहीं। उसके सामने हाज़िर हो गया स्टील की थाली पर दोसा। घी की सुगन्ध आ रही थी। साथ में नारियल की चटनी। अब कोई चारा नहीं, धीरे-धीरे दोसा के टुकड़े करके निगलने लगा।

पोन्नय्या नाटे क़द के थे। गठा हुआ बदन। तराशकर चिकना किया सागौन जैसा रंग। चौकोर-सा चेहरा, ज़रा उभरे गाल, और आँखें गोल-मटोल । उजली खादी की धोती-कमीज़ । तह किया हुआ अंगोछा कन्धे पर लटका था। पूरा लिबास खद्दर का। उम्र पचास साल के क़रीब होगी। कटे हुए छोटे बाल। मांसल शरीर से बाहर को झाँक रही छोटी तोंद। जल्दी-जल्दी दो-तीन दोसे पेट के अन्दर धकेलने के बाद पोन्नय्या ने उसके ऊपर काफ़ी उँडेल ली। थाली में ही हाथ धोने के बाद अंगोछे से मुँह पोंछते हुए उठे। चिदम्बरम उनसे पहले ही तैयार होकर खड़ा था।

उधर दरवाजे के पास अदब के साथ खड़े वेणु के हाथ से पोन्नय्या ने पर्ची लेकर सरसरी निगाह दौड़ायी-यह जानने के लिए कि कौन-कौन आये हुए हैं। फिर वेणु को हिदायत दी, “बोल देना, जरा ठहरें। देखो, टेलीफ़ोन आने पर सुन लेना।"

उसके बाद चिदम्बरम को लेकर बग़लवाले छोटे कमरे में घुसे। वहाँ पड़े सोफ़े पर आराम से पसरते हुए उसे अपनी बग़ल में बिठा लिया। फिर पूरे एक मिनट तक कुछ नहीं बोले। उनकी आँखें शून्य में कहीं टिकी हुई थीं। चेहरे पर छलकता चिन्ता का उद्वेलन चिदम्बरम से छिप नहीं पाया।

"मेरा एक ज़रूरी काम है, तुम्ही मदद कर सकते हो” पोन्नय्या ने सहसा कहा।

चिदम्बरम को अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ। पोन्नय्या से काम बनवाने के लिए कई लखपति उनके द्वार पर तपस्या कर रहे हैं। इनके अलावा दूर-दराज़ के लोग भी अपना काम बनवाने के लिए पोन्नय्या पर आस लगाये बैठे हैं। ऐसी पहुँचवाले व्यक्ति का ऐसा कौन-सा काम है जिसे साधने के लिए मेरी ज़रूरत पड़ रही है ?

"मुझसे?” उसने जिज्ञासा के स्वर में पूछा।

पोन्नय्या की निगाह अब भी दूर कहीं टिकी थी और उन्होंने बात भी कहीं दूर से शुरू की। चिदम्बरम ने महसूस किया-उनकी आवाज़ भी पच्चीस-तीस साल पीछे अतीत के किसी गर्त से निकल रही है।

“जानते हो, तुम्हारे पिताजी के साथ मेरी घनिष्ठता आज या कल शुरू नहीं हुई। हमारी यह निकटता तुम्हारे जन्म के समय से चली आ रही है। तब वे रेवेन्यू इन्स्पेक्टर के ओहदे पर थे। अंग्रेज़ सरकार उनकी कार्यकुशलता से खुश थी, एक-साथ तीन तरक्तियाँ देकर उन्हें तहसीलदार बना दिया। तब उनकी उम्र तुम्हारी उम्र से भी कम रही होगी। उन दिनों तहसीलदारी करना राजदरबार चलाने के बराबर था। जमाबन्दी क्या होती थी, पूरा इलाका सही माने में तहसीलदार की उँगलियों पर नाचता था। तुम्हारे पिता ने ऐसी तहसीलदारी का नियुक्ति-पत्र फाड़कर कूड़ेदान में फेंक दिया और आज़ादी की लड़ाई में कूद पड़े। अनगिनत यातनाएँ झेलीं। ये पुरानी बातें आज तुम्हें क्यों सुना रहा हूँ, पता है? इसलिए कि तुम्हें भी पता हो जाए-मेरे मन में तुम्हारे पिता के प्रति कितना आदर है।"

चिदम्बरम ने देखा-आँधी-तूफ़ान में भी चट्टान की तरह अविचल खड़े रहनेवाले पोन्नय्या का धीरज आज टूट रहा था, उनकी आँखें छलछला रही थीं। चिदम्बरम उन्हें टोकते हुए बोला, “आपने भी, चाचाजी, क्या कम उपकार किया है? इन बातों का लिहाज़ करते हुए उन्हें अच्छे ओहदे पर बिठाया है।"

“केवल उसी लिहाज़ से नहीं बेटे! इस ज़माने में जनता की भलाई के लिए अपने-आपको इस क़दर खपा देनेवाला उन जैसा इन्सान कहाँ मिलता है? वे तो लाखों में एक हैं। उन्हें मैं कब से देख रहा हूँ। सच्चाई के प्रति जो आग्रह, लगन और निष्ठा उनके मन में थी, आज भी बरकरार है। इन गुणों को एक जुनून की तरह पकड़े हुए हैं ।"

चिदम्बरम का सीना अभिमान से चौड़ा हो गया। पिता के गुणों की प्रशंसा सुनकर उसके हृदय में गर्व का भाव समा नहीं रहा था। बाबूजी के साथ कई मामलों में मतभेद रखने के बावजूद पोन्नय्या के मन में उनके प्रति कितना आदर है, इसका एहसास करके वह गद्गद हो उठा।

चन्द मिनटों में ही प्रशंसा-पुराण की इतिश्री करते हुए पोन्नय्या सीधे अपने असली मुद्दे पर आ गये।

“बेटे, मुझे सचमुच इस बात की चिन्ता हो रही है कि कहीं हम दोनों का रिश्ता टूट न जाए। इसलिए जो बात उनसे सीधे करनी चाहिए थी, तुम्हें सुना रहा हूँ। सिद्धान्त के प्रति उनकी समर्पण-भावना, लक्ष्य की दृढ़ता, गाँधीजी पर अटूट आस्था आदि को मैं लम्बे अर्से से जानता हूँ। मैं उनका दाहिना हाथ रहा हूँ, लेकिन कोरा सिद्धान्त कुछ नहीं होता, काम साधना ही प्रमुख बात होती है, यह बात उनकी समझ में नहीं आ रही है।"

“हुक्म दीजिए चाचाजी, मुझे क्या करना है?"

"बेटे! बात यों है-उनकी देखरेख में ग्रामीण विकास का जो महकमा है, उसमें मैंने अपने एक आदमी को ठेका देने को कहा! यह वाक़या पिछले साल का है। तुम्हारे पिताजी को यह बात अच्छी नहीं लगी। मेरे दबाव की वजह से उन्होंने ठेके की मंजूरी दे दी। जैसा कि उन्हें अन्देशा था, अब उस आदमी ने ग़लत काम कर दिया। शहद के मर्तबान में जो हाथ डाले, वह अपनी हथेली चाट ले, यहाँ तक तो छूट दी जा सकती है; मगर वह साला तो पूरा शहद चट कर गया। मानता हूँ उससे बहुत बड़ा कसूर हुआ है। लेकिन तुम्हारे पिता इस अपराध के लिए उसका गला मरोड़ने के लिए चल पड़े हैं।"

“जाते हुए वे यही कह रहे थे काम बहुत ज़रूरी है। मगर काम क्या है, यह नहीं बताया।"

“वे क्यों बताने लगे? देखो, मुझे भी सूचित किये बिना चले गये!” पोन्नय्या ने लम्बी साँस ली। आगे बोलते गये, “परिवार में यदि किसी बच्चे ने ग़लती कर दी तो इसी बात पर उसका गला घोंट देना ठीक नहीं है। मुझे यह सही नहीं लगता। देश क्या है, एक बड़ा परिवार ही तो है! इसी नज़रिए से देखना चाहिए। फिर उस आदमी के पास धनबल और भुजबल के साथ जनबल भी है। उसकी जाति के सभी लोग उसके ज़बान हिलाने पर कुछ भी कर गुज़रने को तैयार बैठे होते हैं। बाहर बैठे लोगों में दो आदमी उसके रिश्तेदार हैं।"

चिदम्बरम को अब पता चल गया कि वह कितने भारी संकट में फँसा हुआ है। उसे महसूस हुआ कि यह काम न केवल उसकी उम्र और अनुभव से परे है, बल्कि उसूल के ख़िलाफ़ भी है।

पोन्नय्या ने बात जारी रखी :

“हेराफेरी पचास हज़ार रुपये की हुई है या एक लाख की, मुझे ठीक-ठीक पता नहीं। तुम्हारे सामने एक बात स्पष्ट कर देना चाहता हूँ। मेरा इस पैसे से कोई सरोकार नहीं है। इसमें से एक कौड़ी का भी लालच मुझे नहीं है। लेकिन इस मामले में अगर मैंने कुछ नहीं किया तो वह आदमी पार्टी के लिए झंझट खड़ा कर सकता है। मैंने ऊपर के अधिकारियों को तो समझा दिया है कि उसके खिलाफ कोई कार्रवाई न की जाए। और नीचे के लोगों की क्या हस्ती, उन्हें तो हमारी बात माननी ही पड़ेगी। मगर बीच में ये जो तुम्हारे पिताजी हैं, अगर वे टाँग अड़ाये बिना चुप रह लें तो मामला रफा-दफा हो जाएगा। उन्हें रास्ते पर लाना तुम्हारा काम है।"

पोन्नय्या सत्ताधारी पार्टी के स्तम्भों में एक थे। संकट की हर घड़ी में पार्टी की रक्षा करते हुए उसे इतनी शक्तिशाली बनाने में उनका बड़ा योगदान रहा है। यह कहना गलत नहीं होगा कि पार्टी को उन्होंने अपने बच्चे की तरह पाला-पोसा था। उसके विकास और संवर्धन में अपना जीवन खपा दिया था, इसलिए पार्टी में किसी के अन्दर हिम्मत नहीं कि उनकी बात का प्रतिवाद करे। लेकिन चिदम्बरम की समझ में नहीं आ रहा था कि पोन्नय्या ने उसके सामने जो बात रखी है, उसे वह अपने पिता के सामने कैसे प्रस्तुत करे। वे तो सच्चाई के इतने कायल हैं कि यदि पोन्नय्या उनके सामने ऐसी बात करें तो बिना किसी लाग-लपेट के उनके मुँह पर ही मना कर देंगे।

अपनी बात ख़त्म करने के बाद पोन्नय्या चिदम्बरम की प्रतिक्रिया जानने की उत्सुकता से उसके मुँह की तरफ़ घूरने लगे। चिदम्बरम को तत्काल कोई जवाब नहीं सूझ रहा था। पोन्नय्या की पैनी दृष्टि तीव्र से तीव्रतर होती हुई बेधती जा रही थी। आमने-सामने खड़े दो पहाड़ यदि एक-दूसरे से टकराने क लिए सरकते हुए आने लगें तो बीचवाले मैदान पर खूटी से बँधे हिरन की जो दशा होती होगी, वही हालत चिदम्बरम की थी।

“तुम्हारा क्या जवाब है?" सब्र खोकर सीधे प्रहार कर दिया पोन्नय्या ने।

"पिताजी के सामने यह बात कैसे रखू, कुछ समझ में नहीं आ रहा है चाचाजी!”

"यह बात है!" आँखों में धधकते अंगारे से आवाज़ में गर्माहट आ गयी थी।

फटाक से अपना अंगोछा झटककर कन्धे पर डालते हुए वे सोफ़े से उठे। उस पर गड़ी अपनी तीखी निगाह हटाये बिना ही बोले, “वे जैसा चाहें फ़ाइल पर लिखते रहें, लेकिन जो होना है, वही होगा। मैं तो यही चाहता हूँ, आपसी रिश्ता टूटे नहीं, दुश्मनी नाहक बढ़े नहीं। आगे तुम्हारी मर्जी!"

चिदम्बरम को अब बोध होने लगा कि उसे जो ज़िम्मेदारी सौंपी गयी है, वह एक दूत की है। बिना किसी मोह या द्वेष के अपना कर्तव्य निभाना ही दूत का काम होता है। पोन्नय्या जब उठ गये, वह कैसे बैठा रह सकता है?

सोफ़े से उठते हुए बोला, “ठीक है चाचाजी! उनके बाहर से वापस आते ही मैं उन्हें बता दूँगा।”

सामने खड़े चिदम्बरम के कन्धे पर उन्होंने नर्मी के साथ अपना हाथ रखा। चिदम्बरम को अहसास हुआ कि वे फिर से लाड़-प्यार बरसा रहे हैं। उसके और करीब आकर पोन्नय्या ने उसकी गर्दन को अपनी बाँह के घेरे में ले लिया।

“मैंने जो बात कही है, उसे उन्हें सुनाना-भर काफ़ी नहीं होगा। उनसे मिले बगैर फ़ोन पर भी यह काम कर सकता था। लेकिन उन्हें रास्ते पर ले आना है। यह काम तुम्हारा है। तुम अच्छे पढ़े-लिखे और समझदार हो। अख़बार में सम्पादकीय लिखकर हज़ारों पाठकों को अपनी राह पर ले आने में होशियार हो। इसे अपनी क्षमता की चुनौती मान लो।"

कन्धे पर धरी उनकी बाँह चिदम्बरम को फाँसी का फन्दा जैसी लगी। चूहेदानी में फँसे मूषक जैसा बन गया था वह! जिस शर्त को मानने के लिए खुद अपना मन राज़ी न हो, उसे मनवाने के लिए पिताजी को कैसे वह तैयार कर सकता है? उसकी आँखें छलछला आयीं, साँस फूलने लगी।

“मैं जिस किसी भी तरह उसे बचाने का वादा कर चुका हूँ। मेरी बात रखने की ज़िम्मेदारी अब तुम दोनों पर है।" यह कहते हुए उसके कन्धे पर से अपनी बाँह हटाकर पोन्नय्या ने उसे छुटकारा दे दिया।

"तो मैं चल रहा हूँ चाचाजी!" दोनों हाथ जोड़कर प्रणाम करते हुए चिदम्बरम बोला।

"तुम्हारे पिताजी को कभी भी अपने परिवार की चिन्ता नहीं रहती। परिवार के भविष्य की ज़िम्मेदारी अब तुम्हें लेनी होगी। उस आदमी के लिए जितनी सिफ़ारिशें आयी हैं उनमें पहली सिफ़ारिश तुम्हारे अख़बार के मालिक की ओर से है। इन सब बातों पर विचार करने के बाद ही मैंने तुम्हें यहाँ बुलाया था।"

उसके बाद भी चिदम्बरम असमंजस की हालत में खड़ा रहा। लेकिन उसकी मौजूदगी की मानो अनदेखी करते हुए पोन्नय्या बैठक की ओर चल पड़े, “हाँ, मैं आ गया।"

चिदम्बरम सड़क पर आकर अपने दफ़्तर जाने के लिए टैक्सी ढूँढ़ने लगा। उस इलाके में टैक्सी मिलना दूभर था। थोड़ी देर भटकने के बाद तेज़ी से क़दम बढ़ाते हुए बस-स्टैण्ड की ओर चला।

ऐसा एक अहसास साये की तरह उसका पीछा कर रहा था कि रस्सी का कोई फन्दा उसके गले को धीरे-धीरे जकड़ रहा है।

3. भोर का तारा

तमिल समाचारपत्रों की दुनिया में 'भोर का तारा' का अपना अलग स्थान है और उसका एक गौरवपूर्ण इतिहास है। यह कहना गलत नहीं होगा कि स्वतन्त्रतासंग्राम के इतिहास को 'भोर का तारा' के इतिहास से अलग करके देखा नहीं जा सकता। क़लम के सेनानी गोपालन ने इसकी स्थापना की थी। उस ज़माने के ‘भोर का तारा' में उनके मन-प्राण तथा हृदय की धड़कनों की अनुभूति को महसूस किया जा सकता है।

यदि व्यक्ति के सामने एक निश्चित लक्ष्य हो, हर तरह से उसे पाने की लगन हो, अथक परिश्रम करने की साध हो, पहाड़ टूटने पर भी अविचल खड़े रहने का स्थैर्य हो, तो उसे दुनिया की कोई ताक़त कुचल नहीं सकती। गोपालन इसके जीते-जागते उदाहरण थे। विदेशी हुकूमत के पंजे में फंसकर जब लेखन का अधिकार छटपटा रहा था, उसे देखकर उनकी आत्मा तिलमिला उठी थी। इसके खिलाफ़ एक ज़बर्दस्त मुहिम छेड़ने के लिए उन्होंने एक अख़बार निकालने का संकल्प लिया। लागत के नाम पर उनके हाथ में एक कौड़ी भी नहीं थी। इसके बावजूद केवल अपनी क़लम की ताक़त और मित्र दुरैसामी की प्रबन्ध-कुशलता के भरोसे उन्होंने अख़बार शुरू कर दिया। हाँ, वह ज़माना ऐसा था जबकि धन-दौलत की अपेक्षा, शक्तिशाली मशीनों की अपेक्षा सच्चे इनसान की क़द्र होती थी।

"भोर का तारा' द्वारा लगायी गयी ललकार केवल राजनीतिक गुलामी का विरोध करने से रुकी नहीं, वह आर्थिक असमानता के ख़िलाफ़ लड़ाई तक भी सीमित नहीं रही, बल्कि हृदय में घुन लगने से संवेदनहीन होने की वजह से अपनी दुरवस्था से अनभिज्ञ तमिल समुदाय को झकझोर कर जगाने की गज़ब की ताक़त उस ललकार में थी। ‘भोर का तारा' के कला-साहित्य-संस्कृति स्तम्भों में प्रकाशित सामग्री जड़ीभूत जनजीवन में नयी आशा और विश्वास की ज्योति जगाती थी। पत्रिका उन प्रतिभाओं को ढूँढ़कर प्रकाश में ले आयी जो घड़े के अन्दर जलते दीये के समान जनता के लिए अज्ञात पड़े हुए थे। पत्रिका ने इन प्रतिभाओं को गोपुर पर चढ़ाकर सम्मान दिया। साथ ही समय के फेर के कारण गोपुर पर चढ़कर शराफ़त का स्वाँग रचते बन्दरों की कुटिलता का पोल खोलने में भी वह पीछे नहीं रही।

ब्रिटिश शासन की दी हुई भीख पर पलते हुए पूँजी बटोरनेवालों के नक़ली मुखौटे को उतारने के लिए क़लम द्वारा छेड़े गये इस मुहिम को देखकर भला हुकूमत की संगीनें कहाँ चुप रह सकती थीं? उसके तरकस से एक-एक करके ज़हरीले तीर छूटने लगे-लपलपाती जीभ से आग उगलते अग्निबाण भेजे गये-एक-एक करके राजद्वेष के आरोप, मुक़दमे, सज़ाएँ, पाबन्दियाँ, पुलिस की यन्त्रणाएँ, जेल-इस तरह की कितनी ही यातनाएँ दी गयीं। लेकिन गोपालन की क़लम लगातार आग उगलती रही। लेकिन उनके लेखों और क्रान्तिकारी विचारों से प्रभावित जनता उनके समर्थन में खड़ी रही।

एक बार की बात है। दिन-रात अथक परिश्रम करते-करते उनकी सेहत काफ़ी खराब चल रही थी। ऐसे में किसी आपत्तिजनक लेख के लिए उन्हें एक साल के कठोर कारावास की सजा सुनाई गयी। उस ज़माने की जेल की कोठरियाँ ख्वार अपराधियों को यन्त्रणा देने के लिए बनी हुई थीं। जेलों में कार्यरत अधिकारी भयंकर कैदियों को काबू में रखते हुए स्वयं पत्थर-दिल बन गये थे। अपनी नाजुक सेहत को देखते हुए गोपालन को उम्मीद नहीं हो रही थी कि अब की बार सजा भुगतने के बाद वे ज़िन्दा लौट पाएँगे।

मन में सोच लिया कि आज जो लिख रहे हैं, वही उनका आखिरी सम्पादकीय होगा। उनका अग्रलेख यों बना :

"युग-युग से अपने नीति-ग्रन्थों में हम इस सूक्ति को पढ़ते आ रहे हैं कि मानव-सेवा ही माधव-सेवा है। लेकिन पहली बार एक महात्मा ने हमारे अन्दर यह समझ पैदा कर दी है कि यह सूक्ति पढ़कर आनन्दित होने के लिए नहीं, बल्कि अपने जीवन में उतारने के लिए है। उन्होंने अपने मन-वचन-कर्म से और जीवन के हर क्षेत्र में इसे साकार किया। ये महापुरुष पूज्य बापूजी थे। वही बापू मेरी लेखनी की मसि में समाये हैं, मैं जिसे अपना धर्म मानता हूँ उसमें समाये हैं और मुझे लिखने की प्रेरणा दे रहे हैं। ब्रिटिश हुकूमत ने मेरे लेखन के पुरस्कार के रूप में मुझे एक साल का कारावास दिया है। मेरे प्रिय मित्रो, आप सबसे विदा माँग रहा हूँ। जन्म गुलाम देश की मिट्टी में हुआ, फिर भी मैंने अपने मन में यह मंसूबा बाँधा था कि आज़ाद हिन्दुस्तान की मिट्टी में यह शरीर मिलेगा...किन्तु लगता है, शायद मुझे ऐसा मौक़ा नहीं मिलेगा। यह मेरा अनुरोध है दोस्तो, आप लोग कभी भी धीरज न खोएँ, अपने हृदय में स्वतन्त्रता की पौध को पालते रहें। देश की मिट्टी में मिलनेवाले मुझ-जैसे लोगों की हड्डियाँ और मांस-मज्जा स्वतन्त्रता की पौध को लहलहाने में खाद के रूप में काम आएँ तो उसी में मुझे कृतार्थता मिलेगी।"

आज़ाद हिन्दुस्तान की मिट्टी में प्राणोत्सर्ग करने की गोपालन की साध बेकार नहीं गयी। जिस सरकार ने उन्हें एक साल की सजा सुनाई थी, जेल के अन्दर उन्हें ख़त्म करने का साहस न बटोर पायी। पाँचवें महीने में ही वे जेल से छूट गये! धन जमा करने की कला से अनभिज्ञ इस सम्पादक का इलाज करने के लिए न जाने कहाँ-कहाँ से डॉक्टर लोग पहुँच गये। वह ऐसा ज़माना था जब लोग धन को तिनका बराबर, मानव को मानव के समान मानते थे।

जानलेवा बीमारी को धता बताते हुए उठे गोपालन फिर एक बार अपनी लेखनी के माध्यम से आग उगलने लगे।

इस तरह गाँधीवाद की चुम्बकीय शक्ति से बुद्धिजीवी, समाज के मार्गदर्शक अभिभूत हुए। कॉलेज के प्रोफ़ेसर, स्कूली शिक्षक, वकील, डॉक्टर, कवि, साहित्यकार, पत्रकार और सम्पादक आदि गाँधीवाद की ओर आकर्षित हुए। उनके मार्गदर्शन में वह ज्योतिधारा देश के गाँवों-नगरों में प्रवाहित हुई। उसने अज्ञान के गहन-गर्त में गिरे अन्धों को जगाया। पामर जनता का समुद्र उमड़ पड़ा। किसान, मज़दूर और छोटे-छोटे काम-धन्धों में लगे सामान्य जन के अन्दर भी आत्मविश्वास भर गया और सब-के-सब सीना तानकर खड़े हो गये।

“यदि देश में कहीं भी है एक सज्जन पुरुष
उसके निमित्त सबके लिए
मेह बरसते हैं झड़ी लगाकर"

-कुरल के इस नीतिवाक्य में निहित अर्थ आज सबकी समझ में आ गया। कोई भी भूभाग सच्चे माने में देश नहीं कहला सकता। जहाँ दयालु सज्जन निवास करते हैं, वही भूभाग देश कहलाने योग्य है-किसी ज्ञानी द्वारा कही यह सूक्ति आज पामर जनता के हृदय में भी गूंज उठी।

अंग्रेज़ सरकार द्वारा भीख के रूप में दी गयी धन-दौलत के बल-बूते पर झूठी शान की ज़िन्दगी बितानेवाले पूँजीपति और ओहदों के साथ चिपककर दमन का अट्टहास करनेवाले अधिकारी गाँधीवाद की विशुद्ध प्राणवायु में साँस लेनेवाले सज्जन पुरुषों के लिए ढपोरशंख लग रहे थे। आदमी के चोले में घूमनेवाले वहशियों को इनसान कैसे माना जा सकता है? स्वार्थ को तिलांजलि देकर जनता के अभाव को मिटाने में जो धीर पुरुष अपनी ज़िन्दगी खपा रहे थे, जनता के बीच में उन्हीं का मान-सम्मान होता था।

इस रुझान के चलते देश की मिट्टी में एक महान चमत्कार हुआ। दुनिया के किसी भी हिस्से में ऐसा अद्भुत चमत्कार नहीं हुआ है।

हजारों वर्ष पहले एक महापुरुष यह सूत्रवाक्य दे गये- 'अहिंसा परमो धर्मः' । बुद्ध और महावीर ने इस महावाक्य को जन-जीवन में उतारने का भरसक प्रयत्न किया। अन्त में उन्हें अपनी दुकान बढ़ाकर जाना पड़ा। दक्षिण में तिरुवल्लुवर ने सत्य और अहिंसा के लिए आवाज़ दी। वे भी हार गये। लेकिन इन सब महानुभावों के लिए जो लक्ष्य अप्राप्य रहा, उसने बीसवीं सदी में एक महामानव को जन्म दिया। हमारे देश के काव्य और इतिहास अपनी कल्पना में भी जिस पात्र का सृजन नहीं कर पाये, ऐसे एक सूरमा यहाँ सत्य और अहिंसा के अपने संघर्ष के बल पर देश को आजादी दिलाने में कामयाब हो गये! देवताओं के रूप में वन्दित काव्यनायकों ने भी यहाँ मारक संग्राम के मार्ग से ही शत्रुओं पर विजय पायी है। विश्व के इतिहास में जितनी राजनीतिक क्रान्तियाँ हुई हैं, वे सब हिंसा के मार्ग से ही हुई हैं। राजनीतिक क्रान्ति के इतिहास में गाँधी ने एक ऐसा नया रास्ता दिखाया जिसे दुनिया ने आज तक न देखा है, न सुना है।

जिन लोगों ने गाँधी के पथ का अनुसरण किया, पता है उन्हें क्या हासिल हुआ? लाठियाँ, घोड़ों की लातें, सम्पत्ति की कुरकी, संन्यास का जीवन, बन्दूक़ की गोलियाँ, फाँसी का तख्ता, भूख, फ़ाकामस्ती, धमकियाँ...

अन्त में क्या हुआ?

अंग्रेज़ हुक्मरान, जिन्होंने 1919 में चारों तरफ़ दीवारों से घिरे एक चौकोर बाग़ के एकमात्र फाटक को बन्द करने के बाद अन्दर जमा हुई हज़ारों की निहत्थी भीड़ को अपनी बन्दूकों का निशाना बनाया था और तब तक बन्दूक चलाते रहे जब तक गोलियाँ ख़त्म नहीं हुईं,...जिन्होंने खुली सड़क पर हिन्दुस्तानियों को चौपायों की तरह चलने को मजबूर करके ज़लील किया था...जिन्होंने 1928 में पंजाब के शेर लाला लाजपत राय के सिर और सीने पर लाठियों का प्रहार किया था, जिससे वे शहीद हो गये थे...1942 में जिन्होंने मर्दो के ऊपर अपनी हैवान फ़ौज को हाँकने के बाद महिलाओं का सतीत्व लूटा था...निहत्थे लोगों के ऊपर हवाई जहाज़ों से गोलियाँ बरसायी थीं...गाँधीजी को चुपके से किसी अज्ञात स्थान में ले जाकर आमरण अनशन के द्वारा उन्हें जान से मारने की साजिश की थी...आख़िर मुसकान-भरे चेहरे के साथ अपने दुश्मन गाँधी से हाथ मिलाने के बाद जहाज़ों पर चढ़कर जाने का दृश्य विश्व के इतिहास में केवल इसी देश की मिट्टी ने देखा।

गाँधी कहा करते थे, "किसी भी व्यक्ति या जाति के प्रति मेरी कोई दुश्मनी नहीं है। बुराई कहीं भी हो, किसी भी रूप में हो मैं उसका विरोध करूँगा।” ज़िन्दगी भर अपने इस उसूल पर चलनेवाले महान नेता से गले मिलने के बाद विदेशी हुकूमत के आखिरी प्रतिनिधि ने विदा ली थी।

देश को राजनीतिक स्वतन्त्रता मिल गयी। जनता के आनन्द का पारावार न रहा। गली-गली में लोग आनन्दमय स्वतन्त्रता का स्वागत करते हुए नाचे...भारती का आजादी का तराना गाते हुए झूम-झूमकर नाच उठे।

गोपालन तसल्ली की साँस लेते हुए सोचने लगे, चलो बाधाएँ हट गयीं। प्रशस्त है प्रगति का पथ, अब उपलब्धियों के लिए जनता को तैयार करने का समय आ गया है। लेकिन आज़ादी के चन्द महीनों में ही आशा की किरणों को धुंधला करते हुए संकट के बादल घिर उठे। ये बादल और कहीं से नहीं आये, बल्कि अख़बार के प्रबन्धन के काम में लगे अपने मित्र दुरैसामी के रूप में आये।

'भोर का तारा' का लक्ष्य पूरा हो गया। स्वतन्त्रता की सुनहली सुबह हो गयी।

अब 'भोर का तारा' का क्या काम है? यों बात छेड़ते हुए दुरैसामी ने गोपालन को सलाह दी, “आपको जनसाधारण का खूब सारा समर्थन प्राप्त है, इसके बल पर मन्त्रिमण्डल में पहुँचकर देश चलाने के काम में लग जाइए। इधर मैं भी ऐसा कोई काम-धन्धा शुरू करता हूँ जिसमें अच्छा मुनाफ़ा हो।"

“अगर मैंने केवल राजनीतिक स्वतन्त्रता को अपने लक्ष्य के रूप में चुना होता तो वही रास्ता अपनाता जो आपने सुझाया है। लेकिन मेरा ख्याल है, देशहित में पत्रकारिता की अहम भूमिका यहीं से शुरू हो रही है, हमारा दायित्व अभी पूरा नहीं हुआ है।"

दुरैसामी इस बात की अनसुनी करके अपनी धुन में बहते हुए उत्साह से बोलते गये। कहने लगे, “सम्पादक गोपालन ने अब तक अपनी लेखनी द्वारा जो योजनाएँ बनायी थीं उन्हें अमली जामा पहनाने का समय आ गया है। इसलिए उन्हें वक़्त के तकाज़े को नज़रअन्दाज़ नहीं करना चाहिए।" फिर बोले, “इस सुनहले मौके से लाभ उठाएँ और मेरे लिए भी मुनाफ़ेवाले उद्योग-धन्धे का जुगाड़ बिठाएँ।"

व्यावहारिक अनुभव के बल पर अर्थशास्त्र में निपुणता प्राप्त दुरैसामी के लिए स्वतन्त्रता का अर्थ केवल 'खाना, कपड़ा और मकान' था। उनका ख्याल था कि यदि हम पश्चिमी देशों की औद्योगिक क्रान्ति को उसी रूप में हिन्दुस्तान में लागू कर दें तो देश मालामाल हो जाएगा और यहाँ दूध और शहद की नदियाँ बहने लगेंगी। जो जितना चाहे दूध की इस नदी में गोता लगाए, इसका पान कर ले, इसी से कुल्ला भी कर ले।

आज़ादी का सही मतलब जब दुरैसामी के तबके के लोगों की समझ में न आये तो लाखों-करोड़ों असहाय जनों को इसका अर्थ कैसे समझाया जाए? गोपालन की चिन्ता यही थी।

उन्होंने कहा, “दुरैसामी! यह जो आज़ादी मिली है-यह ज़िन्दगी जीने का एक नया तरीक़ा है, एक निराला मार्ग है। यह एक प्रशस्त मार्ग है जिस पर चलनेवालों का संकल्प दृढ़ हो, कार्यशैली ईमानदारी से प्रेरित हो, झूठ-फ़रेब और धोखाधड़ी के बिना लोग स्वयं अनुशासित रहकर देश की सत्ता का संचालन करें। आज़ादी महज़ एक मार्ग है। लोगों को हमें आगाह करना होगा कि वे अपने कर्तव्य और अधिकारों को निभाते हुए कैसे इस मार्ग पर आगे बढ़ें। इसके लिए जनता में जागरण पैदा करना ज़रूरी है। दूसरी ओर शासन की गद्दी पर बैठे लोगों पर हमें जनता की ओर से निगरानी करनी चाहिए। स्वतन्त्र देश का राजदण्ड वास्तव में पत्रकार की कलम की नोक है। यदि वह उसका ग़लत ढंग से इस्तेमाल करे या म्यान में बन्द कर दे तो देश में जनता भेड़-चाल चलने लगेगी। समाज भेड़ों के अलग-अलग रेवड़ में बँट जाएगा। फिर इन झुण्डों को धमकाकर अपने अधीन कर लेने के लिए कहीं से कोई बन्दूकधारी आ जाएगा।"

दुरैसामी गोपालन को शिक्षक मानकर उनसे आज़ादी का कोई सबक सीखने के लिए थोड़े ही गये थे! वे तो अपने मन में कोई पक्का इरादा लेकर आये थे। उनका इरादा था-सम्भव हुआ तो गोपालन को राजनीति का राजमार्ग दिखाकर उनकी छत्रछाया में अपने कारोबार को उज्ज्वल बनाएँगे। यह मुमकिन नहीं हुआ तो समाचारपत्र की झंझट से कम-से-कम अपने को छुड़ा लेंगे।

“ऐसा होना हो तो 'भोर का तारा' की ज़िम्मेदारी से मुझे आज़ाद कर दीजिए।" दुरैसामी ने ज़िद पकड़ ली।

यह सुनकर गोपालन भौचक्के रह गये। दोनों दूध और चीनी की तरह एक-दूसरे से घुल-मिल गये थे। गोपालन ‘भोर का तारा' के प्राण थे तो दुरैसामी उसका शरीर। जब-जब गोपालन जेल में होते, दुरैसामी पूरी ज़िम्मेदारी के साथ ‘भोर का तारा' की परवरिश करते। यही नहीं, ढलती उम्र में पहुंचे गोपालन के कोई सन्तान नहीं थी। ‘भोर का तारा' ही उनका इकलौता बेटा था।

गोपालन बोले, “भाई, जब तक ज़िन्दा रहें, हम दोनों को इससे अलग नहीं होना चाहिए। इसमें रहते हुए अपनी पसन्द का दूसरा व्यवसाय आप शुरू कर सकते हैं। यहाँ पर अपने मातहत किसी को तैनात कर दीजिए। सम्पादकीय विभाग मैं सँभाल लूँगा। आइन्दा जेल जाने की नौबत भी नहीं आएगी।"

दुरैसामी ने सोचकर देखा। यह व्यवस्था भी उन्हें सुविधाजनक ऊँची। आनेवाले ज़माने में लोगों में साक्षरता बढ़ेगी। तब समाचारपत्र का काम अच्छा मुनाफ़ा देनेवाला व्यवसाय साबित हो सकता है। एक की जगह दो-तीन क्यों, दस व्यवसाय हो जाएँ, तो बुराई क्या है? किसी में नुकसान उठाना पड़े तब भी दूसरे से उसकी भरपाई होगी।

"मुझे मंजूर है। लेकिन आप नाहक मौक़ा जो गँवा रहे हैं, यही मुझे अच्छा नहीं लगता। यदि आप चुनाव लड़ेंगे, तो कोई भी आपके खिलाफ़ खड़ा नहीं होगा। चुनाव जीतने पर आप मन्त्रिमण्डल पहुँचेंगे तो मेरा भी भला कर सकते हैं।"

अगर दुरैसामी कहते, आपका मन्त्री बनना देश-हित में अच्छा रहेगा तो गोपालन को प्रसन्नता होती। उन्हें यह देखकर सदमा पहुँचा कि यहाँ देश ने 'हम' का रूप लिया और अब 'मैं' बनकर रह गया।

“जहाँ तक मैं समझता हूँ इससे पवित्र कार्य और कोई नहीं है। विश्व राजनीति पर गौर करें तो पाएँगे कि कहीं क़लम का पलड़ा भारी है तो कहीं बन्दूक़ का। क़लम ही स्वतन्त्रता का मूलाधार है। मेरी तो यही कामना है कि लिखते-लिखते जियूँ और लिखते हुए ही मेरे शरीर से प्राण निकल जाएँ। मेरे लिए कोई भी पद इससे बड़ा नहीं है। लेकिन मुझे यह देखकर दुःख होता है कि आप पैसे को इतनी अहमियत क्यों देते हैं?"

दुरैसामी इससे आगे वहाँ रुके नहीं, गोपालन से विदा लेकर चले गये। उनका मानना था कि सेवा करने का ज़माना दूर हो गया है, अब मेवा खाने का ज़माना आ गया है। सो, क्या वे पागल थे जो गोपालन की बातों को वहाँ खड़े-खड़े सुनते रहते?

हिसाब-किताब और रोकड का काम करनेवाले मनीम को प्रबन्धन के थोडे गर सिखा दिये। उसे काम सौंपकर दुरैसामी अपने दैनन्दिन कार्य की ज़िम्मेदारी से निजात पा गये। फिर इस अनुसन्धान में जुट गये कि हज़ारों-लाखों का मुनाफ़ा देनेवाले उद्योग कौन-कौन से हैं, उन्हें चलाने में दक्ष व्यक्ति कहाँ-कहाँ से मिलेंगे, सरकार की ओर से कैसे-कैसे प्रोत्साहन मिलेंगे। पराये की गाड़ी को अपनी समझते हुए वे इधर-उधर भाग-दौड़ करते हुए जुगाड़ बिठाने लगे। पचास मील प्रति घण्टे की रफ़्तार से प्रगति के मार्ग पर उनकी यात्रा शुरू हो गयी।

गोपालन महसूस करने लगे कि दिनोंदिन दुरैसामी अपने से दूर, बहुत दूर निकले जा रहे हैं। समाचारपत्र की ज़िम्मेदारियाँ उनकी कमर को दबोचने लगीं। सम्पादकीय विभाग में पहले से ही कुछ उपसम्पादक कार्यरत थे, फिर भी भविष्य में अपनी जगह को पूरा करने के लिए उन्हें एक होनहार युवा की ज़रूरत महसूस हुई। एक ऐसा युवक जो लक्ष्य पर दृढ़ हो, साथ ही लेखनी का भी धनी हो।

उसी समय चिदम्बरम का एक लेख डाक में मिला था। चिदम्बरम ने अभी-अभी एम.ए. की पढ़ाई पूरी की थी। लेख पढ़कर सम्पादक गोपालन की बाँछे खिल गयीं। उसे प्रकाशित किया। फिर दूसरा लेख आया। गोपालन ने चिदम्बरम को पत्र लिखा-'किसी दिन आकर मुझसे मिलें।'

पत्र-सहित चिदम्बरम आ गया। उसे पास में बिठाकर गोपालन दिल खोलकर उसकी प्रशंसा करने लगे, “बेटे, तुम्हारे लेख मुझे अच्छे लगे। मैंने पाया कि तुम्हारी दृष्टि किताब की पढ़ाई तक सीमित नहीं है। देश में क्या कुछ हो रहा है, इससे तुम भी वाकिफ़ हो। अपने तईं सोचकर सुलझे हुए दिमाग़ से संवेदनशीलता के साथ लिखते हो।"

लेखन-जगत् के हिमालय के समीप बैठकर वह पुलकित हो रहा था। अब उनके मुँह से तारीफ़ सुनकर उसे हवाई जहाज़ में उड़ने जैसी अनुभूति होने लगी।

“सरकारी नौकरी के लिए कहीं आवेदन किया है?"

“जी नहीं, कॉलेज में प्राध्यापक पद पाने की कोशिश कर रहा हूँ।"

“एम. ए. में तुम्हारे विषय कौन-कौन से रहे?"

“राजनीति, अर्थशास्त्र, इतिहास।"

“सरकारी नौकरी पाने पर अच्छी तनख्वाह के साथ तरक़्क़ी, सुरक्षा यह सब कुछ मिलेगा न?”

“अध्यापकी मेरी पसन्द का काम है। खुद अपनी जानकारी बढ़ाते हुए उसे छात्रों में बाँटने की इच्छा है।"

“अच्छा, मान लो हम अपने अख़बार में उपसम्पादक का काम तुम्हें दे दें तो तुम इसे स्वीकार करोगे? कॉलेज के प्राध्यापक का वेतन यहाँ नहीं मिल सकता है। इस समय मैं तुम्हें डेढ़ सौ रुपये ही दे सकूँगा। आगे तुम्हारी क्षमता और अख़बार की सुविधा देखकर बढ़ा देंगे।"

चिदम्बरम को अपने कानों पर विश्वास नहीं हो रहा था। सम्पादक गोपालन के चरणों में बैठकर काम सीखने का जो अवसर मिल रहा है, इसी को उसने अपना अहोभाग्य माना।

“अभी, इसी वक़्त स्वीकार करता हूँ।"

गोपालन ने चिदम्बरम के पिता रामलिंगम से फ़ोन पर बात की। रामलिंगम ने कहा, “यदि आपकी ऐसी इच्छा है और वह भी मान ले, तो मुझे इसमें कोई एतराज़ नहीं है। वैसे वह बालिग है, अपने बारे में फैसला लेने की उसे पूरी छूट भी है।"

चिदम्बरम के काम पर लगने के एक साल के अन्दर ही गोपालन को उस पर पूरा भरोसा हो गया। अपने परिवार में वारिस न होने के बारे में उन्होंने कभी चिन्ता नहीं की थी, लेकिन 'भोर का तारा' के लिए योग्य उत्तराधिकारी के मिल जाने पर उनके आनन्द का पारावार न रहा। उसकी तरक़्क़ी होती गयी, उसके अनुसार तनख्वाह भी बढ़ी। दो ही साल में वह उनके नीचेवाले ओहदे पर पहुँच गया।

बीमार होकर बिस्तर पकड़े गोपालन ने अपनी मृत्यु की पूर्वसन्ध्या में चिदम्बरम को अन्तिम सन्देश के रूप में कुछ बातें समझायीं :

“आजकल कुछ लोग इसी फ़िराक़ में भागदौड़ कर रहे हैं कि देश से अपने लिए कितना मालमत्ता मिलेगा, कितनी सुविधाएँ मिलेंगी। लेकिन हमी लोग तो इस देश के स्वत्व हैं। हमने देशवासियों को सही रास्ता दिखाने का काम चुना है, जनता को अपने कर्तव्य से फिसलने देकर नीचे गिराने का काम नहीं है यह। सम्पादकीय लिखनेवाला पत्रकार भी नेता होता है। उसमें थोड़ी मात्रा में ही सही, नेतृत्व की योग्यता होनी चाहिए। वह बुराइयों को देखकर न डरे, अपनी सुख-सुविधाओं के लालच में न पड़े। बेटे, जिस बात को तुम सत्य मानते हो, उसे साहस के साथ लिखो। सत्य तुम्हारा साथ नहीं छोड़ेगा।"

गोपालन, जो सत्य के मार्ग पर अपनी आख़िरी साँस तक जूझते रहे, अगले ही दिन चिदम्बरम को और प्राणों से भी प्यारे देशवासियों को छोड़कर चल बसे। देश के इतिहास के साथ जुड़े ‘भोर का तारा' के इतिहास में एक युग पूरा हुआ।

4. अन्तरात्मा के लिए चनौती

पोन्नय्या से मिलने के बाद चिदम्बरम जब तक अपने कार्यालय पहुँचता, उसके पहले से ही वहाँ पर एक ओर छापाखाने की मशीनों पर काम बड़ी चुस्ती से चल रहा था। मज़दूर उसी तेज़ी से घूम रहे थे। दूसरी ओर के कमरे में बिना किसी शोरगुल और चहल-पहल के लेखा-बही का काम चल रहा था। आगे सम्पादकीय विभाग था जहाँ आख़िरी फर्मे का मिलान और प्रूफ़-शोधन का काम मुस्तैदी से चल रहा था। उस दिन सन्ध्या से पहले ही पत्रिका के बण्डल बाहर भेजने के लिए तैयार हो जाने चाहिए थे।

उपसम्पादकों में एक था पंचापकेशन। लोग उसे पंजू कहते थे। वह अजीब तबीयत का शख्स था। अपने हिस्से का काम पूरा होने तक उसमें किसी की दखलन्दाज़ी उसे गवारा नहीं होती। लेकिन अपने काम से निपट लेने के बाद अगल-बगल के लोगों से उलझे बिना उसे चैन भी नहीं मिलता। राघवन उसी के कमरे में बैठता था। दोनों हमउम्र थे। लगभग चालीस-पैंतालीस साल के होंगे।

"देखा राघवन, ताज़ा अंक के मुखपृष्ठ पर पादुका-पट्टाभिषेक सम्पन्न हुआ है!” मुखपृष्ठ का चित्र राघवन की ओर बढ़ाते हुए पंजू ने कहा, "प्रतिवर्ष गाँधी की हहियों की खुदाई करके उनकी 'बरसी' मनाने का दस्तूर चल पड़ा है!"

गाँधीजी के प्रति कोई अनादर दिखाए तो राघवन के गुस्से का पारा चढ़ जाता। तिस पर, अपने काम से निपटकर दूसरों के काम में खलल डालने की पंजू की हरकत उसे बहुत बुरी लगी। राघवन बरस पड़ा-

“जब-जब आपको छुट्टी लेनी होती है, आपके घर में न जाने किस-किस की 'बरसी' पड़ जाती है! इस देश के सारे लोगों के लिए अपने जीवन का बलिदान करनेवाले महात्मा का साल में एक बार स्मरण किया जाना आपको क्यों अखरता है? क्यों-आप इसी बात पर नाराज़ हैं न कि दो कौड़ी की दूसरी पत्रिकाओं की तरह यहाँ फ़िल्मी दुनिया की किसी परी की तस्वीर क्लोजअप में नहीं छपती?"

“नहीं जी, मेरा मतलब वह नहीं था..." पंजू दुबकते हुए बोला, “बापू की खड़ाऊँ की जगह उनका चित्र छापते, तब भी अच्छा रहता। मेरा इशारा इसी ओर था भई कि हमारे 'युवराज' ने कमाल कर दिया। 'गुरु गुड़ चेला चीनी' वाली बात सही निकली न?"

"इसलिए कि उनकी धमनियों में अब भी स्वदेश का खून दौड़ रहा है। उन्हें पता नहीं है कि लेखन की आज़ादी का मतलब मनमानी और हेराफेरी करने की आज़ादी है।"

राघवन की प्रतिक्रिया से पंजू सहम गया। वह मैदान से पीछे हटने को मजबूर हो गया। बगलें झाँकते हुए बोला, "यूँ ही आपको छेड़ा था। किसी को बताना नहीं।"

“क्या मेरे पास इसे छोड़कर और कोई काम-धन्धा नहीं है?"

पंजू की जान में जान आयी। तसल्ली की साँस लेने लगा। तभी चिदम्बरम को कार्यालय में प्रवेश करते देख फिर घबरा उठा। अभी-अभी जो टिप्पणी की थी। राघवन उसे चिदम्बरम के कानों तक नहीं पहुंचाएगा, यह जानते हुए भी उसके मन का चोर सकपका उठा।

पंजू उस कमरे से चुपचाप खिसककर बाहर निकला और चिदम्बरम के पीछे हो लिया। उसके कमरे में घुसकर बिजली का पंखा चलाया। बोला, “लाइए सर, आपका सम्पादकीय तैयार हो गया होगा। ज़रा दीजिए, कम्पोज़ होने से पहले ताजा-ताज़ा पढ़ तो लूँ!"

चिदम्बरम ने अपने हाथ से लिखी प्रति पंजू के हाथ में रख दी।

उसके सामनेवाली कुर्सी पर बैठकर बाँचता गया और बीच-बीच में तारीफ़ का पुल बाँधता गया- वाह वाह!' 'कमाल कर दिया!' 'क़लम तोड़कर रख दी आपने"

"धन्यवाद!” चिदम्बरम ज़रा शरमाते हुए बोला।

“सच कहता हूँ सर, सम्पादकीय इतना अच्छा बना है कि जी चाहता है, इसका भारत की तमाम भाषाओं में अनुवाद कराके मुखपृष्ठ के चित्र के साथ देश-भर की सभी पत्र-पत्रिकाओं को भेजा जाए। हमारे भूतपूर्व सम्पादक को दाद देनी चाहिए, जो आपकी उम्र का ख्याल न करते हुए अपनी कुर्सी पर बिठा गये हैं।"

ऐसी चापलूसी चिदम्बरम के गले न उतरी। उसका मुँह सिकुड़ गया।

“अच्छा, देर हो रही है। इसे छपने के लिए भेजकर मैं भी अपना काम देखू।" कहते हुए पंजू वहाँ से निकला।

सुबह पोन्नय्या से भेंट होने पर जो झटका मिला था, चिदम्बरम पर अब भी उसका असर बाक़ी था। उन्होंने जो हुक्म जारी किया था, वह भौंरा बनकर उसके मन के एक कोने को बेध रहा था। उसे भूल-भुलाकर दिल के अन्दर सुकून पाने के लिए उसने मुखपृष्ठ का चित्र अपने हाथ में उठाया। चित्र की सतह पर ध्यान केन्द्रित करते हुए उसका मन धीरे-धीरे उसकी गहराइयों में उतरकर गोता लगाने लगा।

बापू ने अपने दैनन्दिन जीवन में इस्तेमाल के लिए जो चीजें इकट्ठी कर रखी थीं और बाद में अपनी विरासत के रूप में जिन्हें वे छोड़ गये थे, ऐसी भौतिक वस्तुओं का चित्र मुखपृष्ठ पर छपा था। उनकी कुल सारी सम्पत्ति यही थी। सेवाग्राम में उनकी जो कुटिया थी उसका भी चित्र नहीं था।

खुरदरे चमड़े की चप्पलों का एक जोड़ा, लकड़ी की बनी खड़ाऊँ, गीता की एक प्रति, एक अदद ऐनक, पुराने ज़माने की एक घड़ी, चरखा, चीनी मिट्टी के दो बरतन-जो खाने-पीने में इस्तेमाल होते थे, दो चम्मच, तीन बन्दरों का खिलौना जो शायद यही आगाह कर रहा था कि 'बन्दर की तरह चंचल मन की राह पर चलकर इन्द्रियों के ज़रिये बुराई को अन्दर घुसने न दो!' पोन्नय्या के मुँह से निकली बातों की याद आयी। बापू के आदर्शों के साथ उनकी तुलना किये बिना रह न पाया। चोरी के धन्धे में लगे उस नालायक को, जनता को ठगनेवाले उस निकम्मे व्यक्ति को, किसी भी सूरत में 'बचाओ'-पोन्नय्या के सन्देश का निचोड़ यही तो था।

चिदम्बरम के मन में बापू के पवित्र जीवन की स्मृति बरबस आ रही थी। देशी रियासत काठियावाड़ के दीवान के सपूत गाँधी...विलायत में पढ़कर बैरिस्टरी की उपाधि प्राप्त गाँधी...दक्षिण अफ्रीका में वकालत का पेशा अकूत धन-सम्पत्ति का ज़रिया बन सकता था...राजनीति में आने के बाद भी उनकी ऐसी धाक थी कि बड़े-बड़े करोड़पति उनके चरणों के तले बैठे रहते थे।

ऐसे महिमामण्डित बापू का जीवन भी कैसा था! लाखों-करोड़ों देशवासियों को अच्छा खाना नहीं मिल पा रहा था, इसलिए स्वयं भी सादा-से-सादा खाना खाते थे। अपनी पगड़ी और कमीज़ के लिए जितना कपड़ा लगता, उससे दो ग़रीबों के लिए अपनी लाज छिपाने की लुंगी बन जाती, इसी ख्याल से चार हाथ के कपड़े पर सब्र किया था। ग़रीब मज़दूर जिस तरह की कुटिया में रहते, उसी को अपना निवास बना लिया था। ऐसे महान बापू के पदचिह्नों पर चलनेवाले पोन्नय्या आज कैसे पलट गये! गरीबों का खून चूस-चूसकर जो ठेकेदार मोटा हो गया है, उसे वे पनाह दिलाना चाहते हैं ताकि आगे भी ग़रीबों का खून चूसकर मोटा बना रहे। चिदम्बरम अपने-आपसे प्रश्न करने लगा-लाखों-करोड़ों की संख्या में उन बेजुबान साधारण जन की रक्षा कौन करेगा-जो ईमानदारी से मेहनत करके जीना चाहते हैं?

ज़माना इस क़दर बुरा हो गया था कि ठग, बिचौलिये और धनलोलुप व्यक्ति, जिनका एकमात्र ध्येय पैसा इकट्ठा करना था, चारों ओर सिर उठाने लग गये थे। चन्द साल पहले गाँधी के बन्दों का नाम सुनते ही जिनका दिल धुक-धुक करने लगता था, ऐसे मनाफाखोर और कालाबाजारी में लाखों में खेलते व्यापारी, मनमाने ढंग से चीज़ों का दाम बढ़ाने के लिए जमाखोरी में डूबे लुच्चे, खाने-पीने की चीज़ों में मिलावट करके जनता की सेहत के साथ खिलवाड़ करनेवाले राक्षस, अधिकारियों के हाथ गरम करके अपना घटिया धन्धा चलानेवाले कमीने, ब्याज-पर-ब्याज लगाकर गरीबों के पेट पर लात मारनेवाले संगदिल अब फिर से अपना सिर उठाने लग गये। इन लोगों ने मोटी खुरदरी खादी को अपने सीने का कवच बना लिया।

इस तरह की बदहाली के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाना जिनका धर्म था, ऐसी पत्र-पत्रिकाओं में से कई एक जनता को धोखा दे रहे लोगों के लिए चँवर डुलाने लगे। अकेला चिदम्बरम अपने 'भोर का तारा' के माध्यम से अपनी पुरजोर आवाज़ उठा रहा था। गणतन्त्र दिवस और गाँधी-स्मृति दिवस पास-पास आ रहे थे, इसी उपलक्ष्य में उसने ऐसा मुखपृष्ठ छपवाकर 'मार्गदर्शन करनेवालों से अनुरोध' शीर्षक के साथ सम्पादकीय लिख डाला था। चिदम्बरम ने अनेक मिसाल देते हुए लिखा था कि समाज की रहनुमाई के लिए ज़िम्मेदार लोग अगर अपने जीवन में सच्चाई और ईमानदारी का पालन करें तो देशवासी भी उनकी राह का अनुकरण करेंगे।

वह सर्वोदय अंक जिस दिन निकल रहा था, वही दिन उसके जीवन की विकट परीक्षा का दिन साबित हुआ। क्या दुनिया यही मानकर चल रही है कि सत्य की परीक्षा तीन गोलियों के साथ खत्म हो गयी?

तीसरे पहर चार बजे उसकी मेज़ पर 'भोर का तारा' का ताज़ा अंक पहुँच गया। उठाकर उसके पन्ने पलटे। सम्पादकीय को एक बार पढ़ा। उसे महसूस हुआ, स्वयं उसकी लेखनी उसकी अन्तरात्मा से प्रश्न पूछ रही है, “सम्पादकीय लिखकर देश की रहनुमाई करनेवाले मेरे युवा नेता, तुझसे एक अनुरोध है। बोल, पोन्नय्या ने जो मार्ग बताया था, उसके बारे में तेरा क्या इरादा है? दूसरों को नसीहत देकर अपने लिए अलग रास्ता अख्तियार करेगा? आखिर क्या करनेवाला है तू?"

पोन्नय्या की कही बात अब भी उसका पीछा कर रही थी-शहद के मर्तबान में हाथ डाले और वह अपनी हथेली चाट ले, यहाँ तक तो छूट दी जा सकती है, मगर साला पूरा शहद चट कर गया...उसका गला मरोड़ने के लिए गये हैं तुम्हारे पिता...उन्हें रास्ते पर लाना तुम्हारा काम है...सम्पादकीय लिखकर हज़ारों लोगों को अपने रास्ते पर लाने में तुम होशियार हो...अब तुम्हारी क्षमता के सामने चुनौती की घड़ी आयी है...

चिदम्बरम ने अपने-आप से प्रश्न किया-क्या यह मेरी क्षमता के सामने चुनौती है या फिर नेकी की चुनौती?

समय गुज़रता गया। जिन कर्मचारियों का काम पूरा हो गया, अपने-अपने घर चले गये थे। सम्पादकीय विभाग में उसके सिवा और कोई नहीं था। चिदम्बरम ने पत्रिका को अपने बैग में रख लिया और कुर्सी से उठा। टेलीफ़ोन की घण्टी बजी। चोंगा उठाकर पूछा, “जी, कौन साहब बोल रहे हैं?"

“कौन? चिदम्बरम? मैं दुरैसामी बोल रहा हूँ।"

चिदम्बरम को अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ। दुरैसामी पत्रिका से दूर, बहुत दूर चले गये थे। उनके पास न तो चिदम्बरम से सीधे मिलकर बात करने की फुरसत थी न उसे फ़ोन करने की सुध । पत्रिका के मालिक होने के बावजूद, इन दिनों उसे पलटने के लिए शायद उनके पास वक़्त नहीं होता था। क्या वही दुरैसामी बोल रहे हैं?"

“चिदम्बरम, पोन्नय्या ने आपसे बात की होगी। अपने पिता से ज़रूर कहना, भूलना नहीं। यह भी बता देना कि इस मामले में मेरी भी दिलचस्पी है।"

“सर, बात यह है..."

उसे बोलने दिये बिना दुरैसामी ने फ़ोन नीचे रख दिया। घर जाने के लिए तैयार खड़े चिदम्बरम का चेहरा पसीने से तर-ब-तर हो गया। रूमाल से दबाकर पोंछते हुए वह कार्यालय से बाहर आया। बस में सवार होकर माउण्ट रोड के गोल चक्कर के पास उतरा और उसके पैर गवर्नमेण्ट एस्टेट की ओर चल दिये।

अपने घर के सामने खड़ी गाड़ी उसे जता रही थी कि बाबूजी दौरे से वापस आ गये हैं। बरामदे में खड़े होकर वे किसी मिलनेवाले से बात कर रहे थे। बाबूजी का फ़ौजी अफ़सर जैसा शानदार व्यक्तित्व। सुगठित देहयष्टि और लम्बी क़द-काठी। खिचड़ी बाल। अपने विशाल वक्ष को छोटे-से अंगोछे से छिपाये हुए थे, कमर पर लुंगी।

चिदम्बरम को देखते ही उत्सुकता से पूछा, “ 'भोर का तारा' आ गयी?"

चिदम्बरम ने बैग में से पत्रिका निकालकर उनके हाथ में दी और घर के अन्दर चला गया। मिलनेवाला भी रुखसत हो गया। रामलिंगम थोड़ी देर तक पत्रिका में डूबे रहे। फिर अपने कमरे में चले गये।

चिदम्बरम, जो उनके एकान्त में होने के इन्तज़ार में बैठा था, उनके पास जा खड़े होकर कहने लगा, “बाबूजी, आपसे एक ज़रूरी बात करनी है।"

“बैठो,” कुर्सी की ओर इशारा करते हुए उन्होंने पूछा, “बोलो, क्या बात है?"

कहाँ से शुरू करें, कैसे बताएँ इसी उधेड़बुन में कुछ क्षणों तक ऊबडूब करता रहा चिदम्बरम। उस बात को सुनाने का साहस नहीं बटोर पा रहा था, और बिना बताये रहा भी नहीं जा रहा था। किसी तरह साहस बटोरकर उसने अपनी ख़ामोशी तोड़ ही दी। सुबह टेलीफ़ोन पर पोन्नय्या ने उसे जो बुलाया था, तब से लेकर शाम को दुरैसामी द्वारा की गयी माँग तक की सारी घटना का बयान उसने कर दिया।

“ओह, बात इस हद तक पहुँच गयी?"-यह पूछते हुए रामलिंगम भी बुत बन गये। काफ़ी देर तक निश्चल निस्पन्द बैठे रहे, मानो पलक झपकना तक भूल गये हों। चिदम्बरम ने धीमे से उठकर कमरे में बिजली का बटन दबाया और पंखा चलाया। फिर से अपनी कुर्सी पर बैठकर उनके चेहरे पर अपनी दृष्टि गाड़ दी।

उसे महसूस हुआ कि पिता के चेहरे की पेशियाँ फड़क रही हैं। उनकी नसें वेदना से तड़प रही हैं। दर्द जब हद से ज़्यादा गुज़रता है, उनकी यही स्थिति होती है। ज़ोर से चक्कर खाते लटू की गति को जिस तरह आँखें पकड़ नहीं पातीं, उसी तरह उनके अन्दर चल रहा बवण्डर बाहर दिखता नहीं था।

रामलिंगम अपने आसन से उठे और चलकर बापू के चित्र के सामने कुछ क्षण खड़े रहे। फिर सामने की ओर हाथ बाँधकर उसी कमरे के अन्दर चहलकदमी करते रहे। उनका सीना तना हुआ था, लेकिन भारी चिन्ता के कारण सिर झुका था। अपने-आप में यों मगन थे मानो उन्हें चिदम्बरम की उपस्थिति का भी भान न हो।

"बाबूजी!" चिदम्बरम ने पुकारा। लेकिन शब्द-तरंग शायद उनके कानों पर असर करने में कामयाब न हुई हो। उसने फिर पुकारा। एकाएक चौंककर वे उसकी ओर मुड़े और फिर अपनी कुर्सी पर आकर बैठ गये।

“ऐसे में हमें क्या करना चाहिए?" चिदम्बरम ने पूछा।

वे भी अपने-आपसे इसी प्रश्न को बार-बार दोहरा रहे थे। जहाँ तक उनसे सम्बन्धों की बात है, यह अचानक उठा सवाल नहीं था। ऐसी झंझटें साल-भर पहले शुरू हो गयी थीं। जब भी पोन्नय्या ने भूल-चूक, असावधानी और लापरवाहियों की पैरवी की थी, रामलिंगम ने हर बार उनकी बात रखी किन्तु अब जो हुआ है, वह जान-बूझकर किया गया जघन्य अपराध है। जनकल्याण पर खर्च होनेवाली राशि में गोलमाल करने का अपराध। इसको कैसे नज़रअन्दाज़ किया जाए?

पोन्नय्या से अपना नाता-रिश्ता टूटने पर उसके क्या नतीजे भुगतने पड़ेंगे, इस पर उन्होंने विचार न किया हो, ऐसी बात नहीं थी। जीवन में जवानी के जोश-भरे बीस साल, लगातार के संघर्षों ने निगल लिये थे। अभी पिछले सात-आठ साल से नौकरी का और परिवार का सुख उन्हें मयस्सर हुआ था। चूँकि उनके ओहदे का सम्बन्ध देश में फैले अज्ञान को दूर करने और गरीबी मिटाने से था, इसलिए वे पूरी लगन और निष्ठा के साथ इनसे जूझ रहे थे। अब पोन्नय्या से उलझने पर उसका हश्र क्या होगा, यह कहना कठिन था।

“चिदम्बरम!"

उसने बाबूजी के चेहरे की ओर देखा।

"तुम्हारे विचार में मुझे क्या करना चाहिए?"

"बाबूजी!" चिदम्बरम सकपकाने लगा।

“बेटे, तुम सयाने हो गये हो। कार्य और उनके परिणामों को तोलकर निर्णय पर पहुँचने की स्थिति में हो। इसीलिए तुमसे पूछ रहा हूँ। यदि तुम मेरी जगह होते तो क्या करते?"

"क्या उसका अपराध सिद्ध हो गया बाबूजी?"

"तमाम सारे सबूत इकट्ठा करके ले आया हूँ। जनता को जो फायदा पहुँचना है, उसमें बाधा डालकर, कोई कितनी नीचतापूर्वक पैसा इकट्ठा कर सकता है, इसकी मिसाल के लिए एक यही व्यक्ति पर्याप्त है।"

चिदम्बरम सोचने लगा। लेकिन वह जो बात कहना चाहता था, उसे उनके सामने बोलने का साहस नहीं हुआ। लगातार उनकी आँखों की ओर देखता रहा।

“बताओ चिदम्बरम!”

“यदि मैं आपकी जगह होता तो..."

“हाँ, तुम होते तो...?"

“पोन्नय्या के कहने पर भी नहीं मानता, दुरैसामी के समझाने पर भी नहीं मानता। क्यों न अपना बेटा ही कहे-तब भी नहीं मानता। जिस देश में अपराधी लोग सज़ा पाये बिना साफ़ बरी हो जाते हैं, उस देश में भले और योग्य व्यक्ति सुरक्षा के साथ जी नहीं सकते।"

बेटे की बात सुनकर रामलिंगम गद्गद हो गये। कितने सयानेपन की बात कह दी चिदम्बरम ने। उन्हें लगा-वह अपना ज्येष्ठ पुत्र नहीं है, श्रेष्ठ पुत्र है। उसके जन्म के समय उन्होंने जो आनन्द पाया था उससे हज़ार गुना अधिक आनन्द अब मिला! उन्होंने अपने पुत्र को कुर्सी से उठाकर अपने आगोश में ले लिया और उसका मुख अपने विशाल वक्ष के साथ लगा लिया। आनन्दातिरेक से पुलकित होकर उसे अपने आलिंगन में ले लिया।

गोरे पुलिस अफ़सर के सामने एक दिन रामलिंगम ने अपना चौड़ा सीना खोलकर गोली चलाने के लिए कहा था, आज उसी वक्षस्थल पर उन्होंने अपने प्रिय वत्स चिदम्बरम के अश्रुपात का अनुभव किया। उनके आनन्द का पारावार न रहा। गर्व और अभिमान से वे फूल गये!

"मेरे बेटे, तुम इनसान हो-इनसान हो तुम!...तुम्हीं इनसान हो बेटे!"

"बाबूजी!" चिदम्बरम की जीभ लड़खड़ा उठी।

"चिदम्बरम, मेरे बेटे! मैंने तुम्हारा सम्पादकीय पढ़ा। मुझे इस बात का डर था कि कहीं तुम उस सत्य के ख़िलाफ़ कुछ लिख न दो। मुझे पूरा विश्वास है, अपनी आत्मा बेचकर तुम ज़िन्दगी बसर नहीं करोगे।"

चिदम्बरम के आँसू रुकने का नाम नहीं ले रहे थे। अन्तरात्मा के बलिपीठ पर जितनी बड़ी कुर्बानियाँ देनी होंगी, इसका विचार आते ही वह सहम उठा। गृहस्थी चलाने के लिए इस समय बाबूजी का वेतन प्रतिमास सात सौ रुपये आ रहे थे। साथ ही सुविधाजनक मकान, कार, टेलीफ़ोन, नौकर-चाकर, ऊँचे ओहदे की वजह से सामाजिक प्रतिष्ठा वगैरह वगैरह। उसे भी पत्रिका कार्यालय में चार सौ रुपये मिल रहे थे।

सत्य के लिए जितनी कीमत चुकानी पड़ रही है, उसका ख्याल आते ही उसकी साँसें फूलने लगीं। लेकिन उसके पिता तो इस तरह प्रसन्नचित्त बैठे थे मानो उन्हें किसी बात की परवाह नहीं हो। वे तो अपने बेटे की समझ के बारे में सोचकर आनन्द में झूम रहे थे।

(अधूरी रचना)