कड़वा सच (कहानी) : रावुरी भारद्वाज

Kadwa Sach (Telugu Story in Hindi) : Ravuri Bharadwaja

"स्मर समरोचित निश्चित वेसा । गलित कुसुमदर विलुलित केसा ।
हरि परिरम्भण वलित विकारा । कुचकलशोपरि तरलित हारा।
विचलदलक ललितानन चन्द्रा । तदधरपान रभस कृततन्द्रा।
चंचल कुण्डल ललित कपोला । मुखरित रसन जघन गति लोला।"

चारों ओर अंधेरा छाता जा रहा है। खिड़की से गरम हवा चलने लगी है। वह हवा"आवाज करती हुई दीवारों से टकराकर, खिड़की से बाहर जा रही है । वसन्त राग का आलाप चल रहा है। साथ-साथ जयदेव के गीत का पालाप मिल कर स्वच्छन्द चाँदनी की तरह मन को पागल बना रहा है।

रामनाथ आगे पढ़ न सका । एक के बाद एक पन्ने पलटे जा रहे हैं। एक भी बात समझ में नहीं आ रही है। अक्षरों की जगह कुछ अजीब-सी तस्वीरें सामने आने लगीं। कुछ पुरानी यादें अचानक जागकर, मन को कल्लोलित करने लगीं। रामनाथ को लगा कि कोई उसे अपने आलिंगन में बांधने का प्रयत्न कर रहा है । उनके हाथों को स्पर्श करके या करने के बहाने वह यह जानने का प्रयत्न कर रहा होगा कि वह व्यक्ति कोन है। फिर जयदेव का गीत सुनाई दिया.."चंचल कुण्डल ललित कपोला, मुखरित रसन जघन गतिलोला।"

फिर वसन्तराग का चोला पहनकर, हवा के झोंके-सा यह गीत सुनाई पड़ा। 'सामने का चित्र धुल गया। उसने एक बार बाजू में देखा। उसकी पत्नी तब तक निद्रा देवी की गोद में आराम करने लगी थी। स्थिति बड़ी अस्त-व्यस्त है । छोटा बच्चा पास में लेटा हुआ है। रोशनी में उसके बदन से बहती हुई पसीने की हल्की-सी धारा चाँदी के तार की तरह चमकती हुई दिखाई देने लगी। बचपन में किसी बीमारी के समय उसकी नाभि के चारों ओर कुछ चुरके के निशान उसकी उम्र के साथ बढ़ते-बढ़ते बहत विकृत दिखाई दे रहे हैं। पैरों पर कुछ फोड़े-फुन्सियों की स्थिति बड़ी ही अजीब है।

पत्नी की ओर देखकर रामनाथ ने एक लम्बी साँस छोड़ी। राधा से शादी करने का उसका इरादा ही नहीं था। शादी हो चुकी, उसके बाद भी उसके साथ गृहस्थ जीवन बिताने का इरादा नहीं था। फिर वह भी हो गया। बच्चों का बाप भी बन गया। अब उसकी समझ में यह बात नहीं आ रही है कि यह सब उसने क्यों किया? कैसे किया? किस लिए किया? ये प्रश्न कई बार उसके मन में उठे । आज तक तसल्ली देने वाला एक भी उत्तर उसे नहीं ङ्केपिला कभी भी, उसने अपने आप को . मी सलती देने की कोशिश की-यह सब कुछ मेरे एक के साथ नहीं हुआ, किसी और के साथ हुआ और मैं इसका गवाह मात्र हूँ। कोई किस्मत वाना होता है जो मन की हरेक इच्छा पूरी कर पाता है। मेरे जैसा बदकिस्मत आदमी यह सोच भी नहीं सकता कि मैं कुछ करूं। कभी सोचा भी तो इस जन्म में वह पूरा नहीं कर पायेगा। जो काम करना चाहते उसे नहीं कर सकने का और जिसे करना नहीं चाहते उसे करने पड़ने के कुछ और कारण भी हो सकते हैं शायद ।

यदि सब ठीक-ठाक होता तो रामनाथ की शादी सुमित्रा से होनी थी।' वह शादी अगर हुई होती तो उसकी जिन्दगी कुछ और ही होती। "हाँ ! सुमित्रा से मेरी शादी क्यों नहीं हुई ?" उसके इस प्रश्न का उसे आज तक जवाब नहीं मिला । यदि सुमित्रा जिन्दा है, उसको यही आशा है कि वह जिन्दा ही रहे, यदि उसके सामने भी यही सवाल उठता तो शायद ही उसे भी कोई उत्तर मिल जाता । ऐसा सोचने में ही उसे कुछ आनन्द मिल रहा है। तसल्ली देने वाला जवाब सुमित्रा को मिला हो, रामनाथ ने ऐसा कभी सोचा नहीं। ऐसा सोचना भी वह नहीं चाहता ।

शायद 1956 की बात है ! हाँ ! शायद क्या, 1956 की ही बात है। सुमित्रा को रामनाथ ने पहली बार देखा था । उस यात्रा में सुमित्रा जैसी युवती से मुलाकात होगी, यह रामनाथ ने कभी नहीं सोचा था। चार साल से बह हैदराबाद में ही है फिर भी गोलकुण्डा उसने देखा ही नहीं। देखना तो उसने बहुत बार चाहा। कोई-न-कोई अड़चन या खुद कोई-न-कोई बहाना बनाकर टालते जाना! यही हो रहा था। किसी मैगजीन में गोलकुण्डा के बारे में पढ़ा उसने । देखने निकला । दूर से केवल एक पहाड़ की तरह दीखने वाला वह स्थान नजदीक से देखने पर कुछ और हो लग रहा था। उसका दिमाग चक्कर खा गया । यौवन के बीत जाने के बाद वृद्धावस्था में कदम रखने वाली एक सुन्दरी के समान उस शिथिलावस्था में गोलकुण्डा उसे दिखाई देने लगा। फतेह-दरवाजे से वह अन्दर गया। बालाहिसारद्वार से होते हुए सबके साथ मण्डप के मध्य में जाकर उसने तालियाँ बजायीं । उसकी प्रतिध्वनि की तरंगों को सुना । उसी की तरह कई लोगों ने यह प्रतिध्वनि सुनी। उन लोगों में ही उसने सब से पहले सुमित्रा को देखा था। यही उसे याद है।

"आप आन्ध्र के हैं ?" तेलुगु का कितना सुन्दर और स्पष्ट उच्चारण ! क्षणभर के लिए वह मुग्ध रह गया। रामनाथ ने उस ओर देखा जहाँ से यह आवाज़ आयी थी। दस-बारह लड़कियाँ वहाँ से थोड़ी दूर पर खड़ी हैं। रामनाथ यह समझ नहीं पाया कि किसने उससे यह प्रश्न किया। "यह प्रश्न शायद मेरे लिए नहीं है। मैं क्यों समझ रहा हूँ कि मुझसे यह प्रश्न किया गया ?" रामनाथ ने थोड़ी देर के लिए सोचा। फिर सोचने लगा, इसलिए मैंने सोचा कि ये लड़कियाँ हैं ? वह भी इतनी सुन्दर !! इसलिए? सब की ओर एक बार और देखकर वह पीछे मुड़ गया। सिगरेट सुलगाकर 'सिलाहखाने' की ओर गया । पूरी जमीन राख से भरी हुई थी। हजारों लोगों के पैरों के निशान तितर-बितर दिखाई दे रहे हैं । शस्त्रागार को इधर से उधर, उधर से इधर बड़े ही ध्यान से उसने देखा। जंग खाकर, टूटने की हालत में पड़ी हुई उस समय की बन्दूकें दिखाई दीं। उन्हें छुकर भी देखा। उसे लगा कि उसके शरीर में रक्त का प्रवाह तेज होता जा रहा है। कितने सिपाहियों ने इन्हें इस्तेमाल किया होगा? कितने मासूम लोगों के मन में इन बन्दूकों ने डर पैदा किया होगा? अन्तिम समय में किले को बचाने के लिए इन बन्दूकों ने कितनी बार आग बरसायी होगी ? यह सारी कहानी शायद ही कहीं लिखी गयी होगी। अफसोस ! आज इनकी यह दयनीय स्थिति कि पहरेदार उनके ऊपर अपना अंगोछा सुखा रहा है !

"उस तरफ से किले पर चढ़ना मुश्किल है-", किसी ने कहा । रामनाथ पीछे मुड़कर नगीना बाग की तरफ आया । चने खाती हुई सुमित्रा फिर वहाँ दिखाई दी । अब उसके साथ और कोई नहीं है । टूट गिरने को तैयार उस दीवार के साथ लगे पत्थर पर, पैर हिलाती हुई बैठी है वह । शायद उसकी समझ में और कुछ नहीं आ रहा है । "आप आन्ध्र के ही हैं न?"

चारों और देखकर रामनाथ ने निश्चय कर लिया कि "उसने यह प्रश्न मुझ से ही किया था।" थोड़ी दूर पर खड़े होकर "जी हाँ ! आप?" रामनाथ ने पूछा। सुमित्रा एकदम हंस पड़ी। रामनाथ को लगा कि उसकी हंसी में कई फूल खिल उठे हैं । "आन्ध्र के हैं !" रामनाथ पहले शरमाया, फिर हंस पड़ा । वह इसलिए शरमाया कि सुमित्रा इतनी अच्छी तेलुगु में बात कर रही है । फिर मेरा यह प्रश्न !! अपने प्रश्न पर वह शरमाया । जब बात समझ में आ गयी तो उसे हंसी आ गयी। खुद उसकी समझ में यह नहीं आया कि उसने यह प्रश्न क्यों किया।

"आपकी सहेलियाँ कहाँ हैं ?" रामनाथ ने पूछा।

"कौन सहेलियाँ ?"

"वे ही जो पहले आप के साथ थीं।"

"आगे निकल गयी हैं । मैं यहाँ अकेली रह गयी ।"

"चल नहीं पायीं क्या ?"

"आपके यह कहने तक मेरी समझ में नहीं आया कि चलना भी मुश्किल है। पर मैं इस बगीचे को देखने के लिए रुक गयी।" सुमित्रा ने कहा।

"अब यहाँ कुछ भी नहीं है न?"

"एक समय था। गोलकण्डा के नवाबों के समय में-उस समय उस वातावरण की कल्पना मात्र से समझ सकते हैं कि यह बगीचा कितना सुन्दर रहा होगा । यह दुनिया, यह प्रजा, ईश्वर, अकाल, युद्ध, भय, आधि-व्याधि, जैसी सारी बातें उनके लिए कुछ महत्त्व ही नहीं रखती थीं शायद । इसीलिए वे लोग सौन्दर्य एवं आनन्द का आस्वादन कर सके । संसार के प्रति यदि उनके मन में अधिक आकर्षण होता तो शायद ही वे इस सौन्दर्य एवं आनन्द का इतना आस्वादन कर पाते।" सुमित्रा ने कहा।

सीढ़ियां चढ़कर दोनों जा रहे हैं। उनके बायीं ओर पत्थर की दीवारें, दायीं ओर बड़े-बड़े पहाड़ जैसे पत्थर-उनके बीच पानी के लिए तरस-तरस कर प्यासे ही रहकर सूख-मर गये घास-फूस, कहीं-कहीं हिलने वाली पत्थर की सीढ़ियाँ, उनके बीच माचिस की काड़ियाँ, सिगरेट के टुकड़े, पान की थूक के निशान ।

"इन सीढ़ियों पर कितने लोग चढ़े-उतरे होंगे, कहा नहीं जा सकता। किसी समय में यह जगह शायद सुगन्धों से भरी रही होगी। इन्हीं सीढ़ियों से होते हए कितनी ही स्त्रियों को नवाबों के जनाना के लिए ले जाया गया होगा। कितने ही हजारों का सौन्दर्य इन पहाड़ों पर विकसित-पुष्पित होकर, अपनी सुगन्धों को चारों ओर फैलाकर, वहीं पर समाप्त भी हो गया होगा! यह सब सोचने पर दिल की धड़कन जैसे बन्द ही हो जा रही हो !" एक सीढ़ी पर रुक कर गहरी सांस लेती हुई सुमित्रा ने कहा ।

उसकी ओर रामनाथ ने चकित होकर देखा । तेज हवा पहाड़ों से टकरा कर जोर से आवाज करती हुई बह रही है। "एक बार सिर उठाकर देखकर पटक-मटक कमर हिलाती हुई बड़ी अनोखी अदा दिखाती हुई पहाड़ों के पत्थरों के बीच में अदृश्य हो गयी।

छोटे से पत्थर से कूदकर दोनों ने रामदास की जेल की ओर जाकर, उसे देखा।

"कोई भी काम करने के लिए लगन चाहिए। कहते हैं कि इस जेलखाने में रामदास को बारह साल तक रखा गया। किसी-न-किसी दिन मुक्ति पाने की आशा से ही उसने बारह साल इसमें बिताये होंगे। वरन् दम घुटकर कब का ही मर गया होता न !" सुमित्रा ने कहा ।

"कहते हैं न कि राम-लक्ष्मण ने आकर तानाशाह को रकम अदा कर रामदास को मुक्ति दिलायी ?"

"आये, नहीं आये, वह सब अलग बात है। मगर आयेंगे, यह अटल विश्वास-उसके बारे में मैं सोच रही है। आज इसी विश्वास का हम लोगों में अभाव है। हर बात को हम सन्देह की दष्टि से देखते हैं। कदम-कदम पर सन्देह करते हैं। कोई भी काम आधे मन से करते हैं। किसी बात के बारे में भी आधा ही सोचते हैं। जिन्दगी को आधा ही जीते हैं । जीवन का अनुभव भी हमारा आधा ही है । आधा खाते हैं। अन्त में हमारी मौत भी आधी ही है। पूरी तरह से न तो जीवित रह सकते हैं, न मर पाते हैं। हमें 'अर्धजीवी' कहा जा सकता है। 'अर्ध-मानव' हैं हम । "यह सब ठीक है । मैं पूछना ही भूल गयी। आपका नाम ?" सुमित्रा ने कहा।

"सुमित्रा ! आ जाओ!" पहाड़ पर से शोर मचाते हुए एक साथ कई आवाजें सुनाई दीं। तब रामनाथ को मालूम हुआ कि उसका नाम 'सुमित्रा' है।

"वे लोग सब मुझे बुला रहे हैं। चलती है। आप भी आ रहे हैं क्या ? नाम तो आपने बताया ही नहीं।" सुमित्रा ने कहा। फिर उसने अपनी सहेलियों की ओर मुड़कर हवा में हाथ हिलाया। साड़ी की किनारियों को अनोखी अदा से संभालती हुई, हवा में उड़ते जाने वाली पल्लू को पकड़कर, कमर पर लपेटती हुई, पहाड़ियों में चली गयी सुमित्रा।

रामनाथ ने सोचा ही नहीं था कि वह फिर जिन्दगी में सुमित्रा को कभी देख पायेगा । उसका पता तक नहीं पूछा रामदास ने । इसपर उसे बड़ा ही अफसोस हुआ। मन सारा व्याकुल हो गया। यादें लहरों की तरह उठ-उठकर मन को कल्लोलित कर दे रही हैं। असहनीय पीड़ा पूरे शरीर में फैल गयी। अकथनीय अतृप्ति ! अंधेरा ! संकटीलापन ! अन्तर्युद्ध ! बेचनी, युद्ध के चित्र ! तोपों की, बन्दूकों की आवाजे ! बीच-बीच में ठण्डी हवा की लहरें... सैकडों स्त्रियों के रोदन की आवाजें "सब गड़बड़ !! सब अन्धकारमय ! कुछ समझ में नहीं आ रहा था।

अचानक चारों ओर अंधेरा छा गया। सड़कों पर धूल खूब उड़ रही है। हैदराबाद की ओर से चार मिलिट्री टैंक, कछुओं की चाल से धीरे-धीरे चले आ रहे हैं। नासिंगी से एक लारी धूल उड़ाती हुई तेजी से चली गयी, बड़ी आवाज करती हुई । हवा संसार को नींद से मानो जगा रही है। हवा का सामना करता हवा मानो पहाड़ उसका उत्तर दे रहा है । पहाड़ से आवाज गूंज रही है। मगर हवा पहाड़ को हिला नहीं पा रही है।"घास-फूस हवा के मारे छोटे बच्चों की तरह बिलखने लगे।"नाराज होकर मानो पुकारने लगे हों, आपस में लड़ रहे हों, बादल गरजने लगे। एकदम बिजली चमककर पहाड़ों को रोशनी से भरकर गायब हो जा रही है। मूसलाधार वर्षा होने लगी।

अंधेरा छाया हुआ है। बिजली चमकने पर ही कुछ दिखाई दे जाता है। हवा की तेजी से बादल तितर-बितर हो जा रहे हैं। वर्षा की बूंदें भी पत्थरों पर गिरकर, छोटे-छोटे टुकड़ों में बंट जाती हई, मानो रोती हई फिसल कर, नीचे मिट्टी में घुल-मिल जा रही हैं । बेकार की सोच में पड़कर रामनाथ नीचे उतरना ही भूल गया। "अब क्या करें? कैसे जाना होगा? यह बारिश कब रुकेगी ? कितनी देर तक मैं यहाँ रह जाऊँ ?" बिजली चमकी । आँखें चकाचौंध हो गयीं । तुरन्त दिल की धड़कन को बढ़ाते हुए बादल जोर से गरजने लगा!

"रामनाथ जी !"

काँप उठा रामनाथ । “वातावरण इतना भयंकर है-ऐसी स्थिति में मुझे कौन बुला रहा है? या यह मेरा भ्रम तो नहीं है? या यह भूत-प्रेतों की आवाज तो नहीं? कहते हैं कि दिवंगत आत्माएँ प्रेतों के रूप में भ्रमण करती रहती हैं। वे तो नहीं पुकार रही हैं मेरा नाम लेकर ! फिर उन मुसलमान प्रेतों को मेरा नाम कैसे मालूम है ?" धीरे-धीरे पास ही में कदमों की आहट सुनाई देने लगी। रामनाथ घबरा गया। इतनी ठण्डक में भी पसीना छूटने लगा।

"रामनाथ जी ही हैं न?".."सुमित्रा की आवाज पहचानने के बाद रामनाथ की जान में जान आयी। धीरे-धीरे कम्पन भी कम होने लगा। रामनाथ ने सोचा कि अब तो उसका अता-पता पूछ लेना चाहिए।

"आप भी नहीं गये?" सुमित्रा ने रामनाथ की ओर कदम बढ़ाते हुए पूछा।

"नहीं।" सुमित्रा का आहें भरना रामनाथ ने सुन लिया।

"पूरा अंधेरा है । आप कहाँ हैं ? दिखाई नहीं दे रही हैं ?"

"इस तरफ आइये । यहाँ इतनी ठण्ड नहीं है। नहीं तो मैं ही उधर आ जाऊँ क्या?"

"आ जाओ।" रामनाथ ने कहा । उसके आने के बाद रामनाथ की समझ में कुछ नहीं आया कि उससे क्या बातें करे । फिर भी पूछा-"आप क्यों जा न सकीं?"

"कुछ कह नहीं सकती। इस सुन्दर पहाड़ को छोड़कर जाने का मन नहीं कर रहा था। यहीं पर इसी तरह आजीवन रह जाने को जी चाहता है। इस किले में जो लोग रहा करते थे, उनकी आत्माएं मानो मुझे यहीं रह जाने के लिए आमन्त्रित कर रही हों-ऐसा लग रहा है । इन खण्डहरों के बीच आँखें मूंदकर बैठने का और विगत वैभवों का स्मरण करते हुए, उस मधुर भावना में डूबकर यहीं जीवन समाप्त कर देने का विचार मन में उठ रहा है।... खैर ! अब हम कहाँ पर खड़े हैं, रामनाथ जी !"

"मेरा खयाल है, बारादरी में।"

कुछ देर तक दोनों मौन रहे। हवा तेजी से चल रही थी। बारिश कुछ कम हो गयी । बादल धीरे-धीरे हटते जा रहे हैं।

"यदि औरंगजेब से शत्रुता न हुई होती तो गोलकुण्डा का इतिहास शायद कुछ और ही होता। वास्तव में वह शत्रुता क्यों हुई, आपको कुछ मालूम है, रामनाथ जी?" सुमित्रा ने अचानक पूछा ।

"कछ सुना तो है मैंने । मगर सच क्या है, कुछ पता नहीं । मोरजुम्ला तुर्किस्तान का निवासी था। व्यापार के लिए यहाँ गोलकुण्डा आया हुआ था। शीघ्र ही वह महामन्त्री बन बैठा । कहते हैं, उसके पास बीस मन हीरेजवाहरात थे। इसी मीरजुम्ला ने जगत्-प्रसिद्ध हीरा कोहिनूर शाहजहाँ को भेंट किया। इस मीरजुम्ला और उस समय के गोलकुण्डा का जो सुल्तान थाअब्दुल्ला कुतुबशाह-दोनों के बीच मन-मुटाव हो गया । राजमाता हैयत बक्श बेगम के साथ इनके कुछ नाजायज सम्बन्ध थे। यही माना जाता था। उनका पता चलते ही राजा और मन्त्री के बीच वैर हो गया। मीरजुम्ला औरंगजेब के आश्रय में चला गया।"

"जुम्ला को ऐसा नहीं करना चाहिए था। यदि आप का यह कहना ठीक है तो।"

"शायद गलत नहीं हैं । हैयत बक्श बेगम की भी इसमें गलती होगी। आज इस तरह बारादरी के खण्डहरों में बैठे हम, उस समय की अच्छी-बुरी बातों का जो निर्णय कर रहे हैं, वह शायद ठीक नहीं है। बक्श बेगम बेहद सुन्दर थी। मीरजुम्ला दूसरा चाणक्य था। मैं यह भी उचित नहीं समझता कि उस बेगम का अपार सौन्दर्य चार-दीवारी में ही नष्ट हो जाये । गोलकुण्डा का भविष्य, अपने स्वामी से छल-कपट-ये सब ठीक हैं। उनसे हटकर-इस प्रकार की बात कितनी खतरनाक है"वे खुद नहीं जानते थे क्या ? जानकर भी उन सम्बन्धों को जारी रखना-यह समझने की ही बात है। प्यार के लिए खून की नदियाँ बहाने में भी पीछे नहीं हटने वाले यवनों का खून हैयत बक्श बेगम के शरीर में बह रहा था। बस ।” रामनाथ ने कहा।

बारिश पूरी तरह से रुक गयी है । बादल छंट गये हैं । हवा तो पहाड़ों से टकराती हुई आँख-मिचौली खेल रही है। कभी-कभी पहाड़ को आलिंगन कर उनके कानों में मानो कानाफूसी कर रही हो। सारे शहर में दीप जलकर दूर से आसमान के तारों की तरह टिम-टिमा रहे हैं। चाँदनी अपनी मुसकुराहट को चारों ओर फैला रही है।

"ठण्ड लग रही है न ?"

"बहुत।"-सुमित्रा ने जोर देकर कहा। हवा से उसकी साड़ी के चारों कोर उड़कर हलचल मचा रहे हैं। उड़ने वाले उसके धुंघराले बालों से कान ढके जा रहे हैं। कभी-कभी उसके बाल उसके चेहरे को भी ढकने का प्रयत्न कर रहे हैं।

"बारादरी से मतलब ?"

"बारह द्वारों का महल ।" यही उसका अर्थ है । यही राजमहल भी है। यहीं पर सुल्तान बैठा करते थे। वे दोनों तारामती और प्रेमावती के महल हैं । दोनों बहनें थीं। उनकी सुन्दरता से मोहित होकर अब्दुल्ला कुतुबशाह ने उनसे विवाह कर लिया था। वे अच्छी नर्तकियाँ भी थीं। खिलवात के आसपास एक समय संगमरमर के पत्थर से बना हुआ एक तालाब भी था। कहते हैं, उसे गुलाबों के इतर से भरकर अब्दुल्ला कुतुबशाह जलक्रीड़ा में मग्न हो जाता था।"

"हाय रे !"-एक क्षण रुककर सुमित्रा ने धीरे से कहा ।

"ठण्ड लग रही है ?"

"आप को कैसा लग रहा है ?"

"क्या?"

कुछ समय तक खामोशी छा गयी।

"इस बारादरी में रहना?"

"लग रहा है कि यह सारा संसार बहुत ही छोटा है और हम उससे भी छोटे।"

"डर नहीं लग रहा है ?"

"तुम्हें लग रहा है क्या ?"

"यहीं रह जाने का मन हो रहा है।"

रामनाथ ने कुछ भी नहीं कहा । सुमित्रा की आँखों में चमक दिखाई देने सगी । रामनाथ ने एक लम्बी साँस छोड़ी।

"चलिए, ऊपर की मंजिल में चलें। कहते हैं-शाह नशीन के पास सुल्तान लोग शाम के समय, अपने गायकों के साथ, मदिरा-मदवतियों के साथ, वहाँ समय बिताया करते थे।"

"जरूर !"

अंधेरे में, टटोलता हुआ रामनाथ स्वयं सीढ़ियाँ चढ़ रहा था। सुमित्रा उसके कन्धों पर हाथ डालकर सहारा लेती सीढ़ियां चढ़ रही थी। आराम के लिए जिन पवनराजाओं ने अपना सर्वस्व त्याग कर दिया, उन्होंने इतनी तंग सीढ़ियां क्यों बनवायीं?

एक चमगादड़ आवाज करती हई, दीवारों से टकराती हई उनके सिर के ऊपर से निकल गयी। "हाय रे" सुमित्रा जोर से चीखकर, रामनाथ से लिपट गयी। ऊपर चढ़ने के बाद सुमित्रा ने लम्बी साँस ली।

"बहुत अच्छा है न?"

"क्या?"

थोड़ी देर रुककर सुमित्रा जोर से हँस पड़ी।

"शाह-नशीन !"

रामनाथ को यह बात सच नहीं लगी। पहाड़ के पत्थरों से टकराकर उनसे आलिंगन करती हई-सी लगने वाली ठण्डी हवा, सारे संसार को चाँदनी में स्नान कराने वाला चन्द्रमा, जंगली फूलों की खशबू, अकेलापन-ये सब रामनाथ को मानो उन्मत्त कर रहे थे, पागल बना दे रहे थे । “क्या हो रहा है ?" यह समझने से पहले आवेग में, उन्मत्तता में, आवेश में, जिगीषा में रामनाथ की आँखों को-सारे संसार में आनन्द ही आनन्द दिखाई दे रहा था। उसके मन का आनन्द, उद्वेग सीमाओं को पार कर बहने लगा। जागृति या स्वप्नावस्था जो भी हो, उसकी समझ में नहीं आ रहा था । तुरीयावस्था का अनुभव कर रहा था रामनाथ उस समय ।

सपना टूट गया। धीरे से रामनाथ ने आँखें खोली। उसके गालों से जुड़े सुमित्रा के गाल ! उसके हाथों से जकड़े हुए सुमित्रा के बाल ! आँखों से झलकने वाली इस प्रकार की तृप्ति ! थोड़ी-सी फूली हुई साँस !! काँपने वाले ओठ ! इतनी ठण्ड में भी छटने वाले पसीने की बंदों से भरा उसका ललाट !-रामनाथ ने फिर आँखें बन्द कर ली।

यह था पहला परिचय सुमित्रा के साथ ।

प्रातःकाल के सूरज का प्रकाश फैल गया । सूरज की किरणों के शरीर पर लगते ही रामनाथ उठ बैठा । उसे लग रहा था, मानो बाल-सूर्य ने क्रोध में आकर अपने शर से उसे जगाया हो । आस-पास कोई भी नहीं था। मुरझाये फूल, नीले रंग की चूड़ियों के टुकड़े, इधर-उधर जमा हुआ बारिश का पानी-दीवारों पर कूदते हुए, उसे देखकर भाग जाते हुए गिलहरियों के बच्चे ! जैसे उसकी हंसी उड़ा रहे थे।

एक ओर खुशी, दूसरी ओर उदासी मन में छा गयी। रामनाथ पहाड़ से नीचे उतर आया। रास्ते में सोचता ही आ रहा था । कितना सुन्दर सपना ! जेब टटोलकर उसमें से चूड़ियों के टुकड़ों और मुरझाये फूलों को बाहर निकालकर देख लिया। फिर उसने लम्बी सांस ली।

एक सप्ताह के बाद शायद सुमित्रा से फिर भेट हुई । इतने दिन रामनाथ का मन सुमित्रा के सपने देखता ही रहा । उसने सोचा कि अब यदि सुमित्रा दिखाई दे तो उसका पता जरूर ले लेना चाहिए।

सुमित्रा आयी।

"फिर एक बार गोलकुण्डा चलेंगे ?" पिछले भावों को ताजा करते हुए रामनाथ ने पूछा।

"क्यों ?" कुछ अजीब-सी सूरत बनाकर आँखें फाड़-फाड़कर देखती हुई सुमित्रा ने पूछा।

"सुन्दर सपने देखने के लिए।"

सुमित्रा जोर से हँस पड़ी।

उसके गालों पर लज्जा के लक्षण रामनाथ को दिखाई दिये।

"सपने देखने की शक्ति हो तो-" एकदम सुमित्रा रुक गयी।

"हाँ...हो तो...?" उसको प्रोत्साहन देते हुए गमनाथ ने पूछा । आज तक वह वाक्य अधूरा ही रह गया।

"सारी जगहें अच्छी और एक जैसी अच्छी नहीं होतीं। किसी स्थान पर देवी-देवताओं का निवास होता है। कहीं-कहीं देवता-गण धरती पर आकर निवास करने लग जाते हैं। कहीं-कहीं मानव ही दानव बन जाता है । अतः हे बालिके ! किसी क्षेत्र की महत्ता भी कुछ होती है।" रामनाथ ने बड़े नाटकीय ढंग से कहा।

आज रामनाथ को याद नहीं कि सुमित्रा ने इसके उत्तर में क्या कहा था। कुछ भी तो कहा होगा। अभी भी रामनाथ को लगता है कि चतुरता से बात करने का ढंग सुमित्रा का अनोखा था। उसकी तरह कोई भी बात नहीं कर सकता । साधारण से साधारण बात भी उसके मंह से जब निकलती है तो कुछ विशेष ही लगती थी। उसके मंह से सनने के बाद ही रामनाथ को उसकी विशेषता का पता चलता था। उसकी भावनाएं भी बड़ी विचित्र-सी लगती थीं। उसके विचार अनोखे थे। हमेशा लगता था कि स्वतन्त्रता की अपार इच्छा उसे सिर से पैर तक प्रज्वलित करती रहती है। अटूट आत्म-विश्वास । कभी भी, कहीं भी, किसी के वश में न गनेवाला, किसी के सामने सिर न झुकाने वाला उसका आत्म-विश्वास ! वह सदा उसे उत्तेजित करती रहती थी। याद है, उसके अनुसार आनन्द एक अमृत भण्डार की तरह है। उसको चारों ओर से देवता एवं राक्षस घेरे हुए हैं। करोड़ों परेशानियों को, रुकावटों को पार कर सकने वाले ही उसको प्राप्त कर सकते हैं। भीरु लोग यह साहस न कर सकने के कारण बेकार की बातों में लगे रहते हैं । सुमित्रा हमेशा कहा करती थी कि जीवन से सुखों को चुनना हमारा काम है। ऐसी सुमित्रा "कल तुम्हारी प्रतीक्षा करूंगी रामनाथ !" कहकर अदृश्य हो गयी। रामनाथ उसके घर गया। दरवाजे पर बड़ा ताला पाकर लौट आया।

इस बीच एक पंचवर्षीय योजना का समय बीत गया। समय इन्सान से पूरा बदला लेने लगा। उसे विकल करने लगा। मानव अपने मार्ग को तय नहीं कर पा रहा था। उसे कोई ठीक दिशा नहीं मिल पा रही थी। मानव के जीवन में धुंधलापन-सा छा गया। उसे कुछ भी स्पष्ट दिखाई नहीं दे रहा था।"दिन-रात, रात-दिन-यह चक्र खामोशी से चल रहा है।

रामनाथ ने सोचा कि जरूर कुछ होकर रहेगा। मगर कुछ भी नहीं हुआ। रास्ते से हटे हुए-गिरे हुए राकेट को उसने फिर रास्ते पर लगा दिया। गाड़ी जहाँ टूटी, वहाँ जोड़ पड़ गया । गाड़ी चल रही है। मगर उस चलने में सुख-आराम नहीं है। धक्के बहुत लग रहे हैं। आवाज बहुत हो रही है । कभी-कभी लगता है कि कहीं जोड़ टूट न जाये। फिर नये-जोड़ लग जाना, नयी-नयी पट्टियाँ लगने पर फिर गाड़ी चल पड़ने लग जाती है । वे ही धक्के-मुक्के-फिर वही जोड़-तोड़-जीवन चल रहा है।

समय ने घावों को कुछ भर दिया । फिर भी कभी-कभी घाव हरे होते रहते हैं। यादों पर से समय का परदा जब कभी हट जाता है तो यादें ताजी होती रहती हैं। वे फीकी नहीं पड़ी। अपने आपसे समझौता करने का रामनाथ ने कितनी ही बार सोचा। पत्नी, सन्तान, धन-दौलत, अधिकार, ओहदा-नौकरी-प्रत्येक क्षेत्र में समझौते के पैगाम सफल नहीं हो पाये । यह भी नहीं कहा जा सकता कि रामनाथ इन बातों में-इन प्रयत्नों में असफल भी रहा । वे सब वैसे के वैसे ही हैं । आप भी वैसे ही हैं। मन के किसी कोने में, अतृप्ति, अकारण ही क्रोध, निराशा, चिड़चिड़ाहट, अशान्ति, दुख-बस ! यही है उसके जीवन में । एक मानव के जीवन में प्रवेश कर दूसरा मानव इससे बढ़कर और क्या बिगाड़ सकता है ? कभी-कभी रामनाथ यही सोचता रहता है। पहाड़ों से, वर्षा से, हरियाली से, गिलहरियों से उसे चिढ़ हो गयी। क्योंकि ये सब सुमित्रा की याद दिलाकर मन को कलुषित कर देने वाले उद्दीपन हैं।

"विचलदलक ललितानन चन्द्रा।
तदधरपान रभसकृत चन्द्रा।
चंचल कुण्डल ललित कपोला।
मुखरित रशन जघनगति लोला ॥"

रामनाथ झट उठकर बैठ गया। उसे लगा कि किसी ने उसकी पीठ पर कोड़ा दे मारा।

"चलो अच्छा हुआ। अब तो उठो, कम से कम । सुमित्रा आपकी प्रतीक्षा कर रही है—काफी भी नहीं पी रही थी। जल्दी मुंह धोकर आना..." राधा ने आवाज दी।

"अभी आया।" रामनाथ ने जवाब दिया।

तौलिया कन्धे पर डालकर बावडी की ओर गया। चावल धोकर चढ़ाने के लिए उँगलियों से पानी माप रही थी राधा । सुमित्रा थर्मस फ्लास्क के पास पालथी मारकर जमकर बैठी है । रामनाथ के मन में अचानक ही बेटी पर प्यार उमड़ आया। उसे एकदम उठाकर बहुत ही प्यार करने लगा।

सुमी बेचैन होने लगी। "गुदगुदी हो रही है डैडी !"

"आप पहले दांत साफ कर आइये न ? वरन् जूठे मुंह से प्यार करने से बच्चों के गालों पर काले धब्बे पड़ जाते हैं।" मुसकुराती हुई और कपड़े से हाथ पोंछती हुई राधा ने कहा। कॉफी पीता हुआ रामनाथ पत्नी से पूछने लगा-

"मेहमान आये होंगे।"

"पता नहीं।"

"थोड़ा पता कर लो।" रामनाथ ने कहा ।

राधा की समझ में कुछ नहीं आया। आश्चर्य से वह रामनाथ की ओर देखने लगी।

"कुछ भी तो नहीं। महीने में पन्द्रह दिन बीत गये हैं न? पता नहीं बेचारा शेषगिरि राव कितना परेशान हो रहा होगा।" बेटी के ओठों पर लगी काफी को पोंछते हुए रामनाथ ने पत्नी से कहा ।

रामनाथ दफ्तर गया । पर मन नहीं लगा। उसने छुट्टी ले ली, पूरा शहर घूम-घामकर घर लौट आया। दरवाजा भीतर से बन्द कर रखा हुआ था। सुमी शेषगिरि की बेटी पिल्लम्मा के साथ खेल रही थी। एक क्षण के लिए बेटी की ओर देखकर रामनाथ बेजार होकर सिर खुजलाता हुआ भीतर चला गया । पूरा मन धुंधलेपन से भर गया। औरतों की बातों की आवाज आ रही है। उन आवाजों में से एक पहचानी हुई आवाज ! स्तब्ध रह गया रामनाथ, जैसे किसी ने उसकी नसों को मरोड़ दिया हो।

"स्मर समरोचित विरचित वेशा । गलित कुसुम दर विलुलित केशा।"

खून के प्रवाह की गति बढ़ गयी। रामनाथ विचलित हो गया। यह आवाज-वह अच्छी तरह पहचानता है । शाहनशीन में, अकेलेपन में, झाड़ों की छाँव में, छोटी-छोटी लहरियों में, सपनों में, उसका पीछा करता हुआ, सारे जीवन उसने आप्लावित कर दिया। यह वही आवाज है जिसने रामनाथ की जिन्दगी अशान्त कर रखी है। सारे जीवन को विचलित कर दिया है। निरन्तर उसी आवाज की खोज में है रामनाथ । आज भी रामनाथ ने पलंग पर लेटकर तकिये में मुंह छिपा लिया। सारा शरीर श्रवणेन्द्रिय बनकर उस आवाज के माधुर्य का अनुभव कर रहा है।

"कितनी देर हुई आपको आये हुए ?" राधा ने पति की पीठ पर हाथ रखकर कहा।

“डैडी ! डेडी ! सुनिए !!-मेरे लिए." सुमी कुछ कहने जा ही रही थी। फिर रामनाथ की सूरत देखकर एकदम चुप हो गयी।

"बहुत जल्दी आ गये!"

"तबीयत कुछ ठीक नहीं है।" रामनाथ ने कहा ।

समी चाकलेट चबाती हुई वहां से चली गयी।

"सुमी ने बताया कि आप आ गयी हैं।"...थोड़ा रुक कर राधा ने पूछा-"काफी बनाऊँ?"

"नहीं बाबा, नहीं ! मुझे अकेला छोड़ दो।"

"...............................।"

स्टूल पलंग के पास खींचकर उस पर बैठ गयी राधा ।

मौसी जी से मैंने पूछ लिया। सारा सामान है."मह ढको मत !... एक अच्छी बात सुनाऊँगी !"

रामनाथ ने आँखें खोलकर राधा की ओर देखा।

"कितना अच्छा गाती है वह ! जयदेव के सारे गीत–अष्टपदी भी बहुत ही अच्छा गाती है। खास एक गीत है-याद नहीं आ रहा है । अभी बता रही थी।"

"स्मर समरोचित..." रामनाथ ने याद दिलाया।

"हाँ ! बिलकुल !" राधा ने हँसकर कहा, "वही गीत उसे बहुत ही पसन्द है । बार-बार दस बार वही गुनगुनाती रहती है । मैंने कहा-मेरे पति को भी यह गाना बहुत पसन्द है । एक बार हमारे घर आकर पूरा गीत अच्छी तरह सुनाने के लिए मैंने आग्रह किया। उसने 'हाँ' कर दिया। सुन रहे हैं या सो रहे हैं ?" राधा ने पूछा।

"हाँ...हाँ..." रामनाथ ने कहा ।

"क्या ? सुनना या सोना?" हँसकर राधा ने फिर पूछा।

"दोनों।"

राधा चुप हो गयी। आँचल से चेहरे का पसीना पोंछकर उसने एक लम्बी सांस ली।

"आज रात को उन्हें मैंने भोजन पर बुलाया। पति मान गया मगर उसी ने "देखेंगे" कहकर टालने का प्रयत्न किया । कोई बात नहीं-आ जायेगी।"फिर आँखें मूंद ले रहे हैं आप! मुझे मुसीबत में मत डालो ! मेहरबानी करो मेरे ऊपर ।" कहती हुई राधा ने चादर खींच दिया।

रामनाथ आलसीपन दिखाता हुआ, झूठी जंभाइयाँ लेता हुआ सोने का प्रयत्न करने लगा।

"कुछ नात करते जाओ। मैं अपना काम भी निपटाती जाऊँगी। खाना बनाना है, उसका पति जल्दी भोजन करने का आदी है। अभी से खाना बनाना शुरू करूं तभी..." राधा अन्दर चली गयी।

"फिर एक बार।"-रामनाथ ने मन-ही-मन कहा।

शाम होने ही वाली है। राधा चिड़चिडाती हई आयी।

"क्या बात है ?" रामनाथ ने पूछा।

"वे लोग चले गये।" राधा ने कहा।

"क्यों ?" मुश्किल से रामनाथ ने पूछा।

"भगवान जाने। दोपहर से वह अपने कमरे से बाहर निकली ही नहीं। अचानक पति को जगाकर निकल गयी। कम-से-कम शेषगिरि भैया के आने तक रुकने के लिए मौसी जी ने कितनी ही विनती की। बस ! वह टस से मस नहीं हुई। कैसे लोग हैं ! कैसी दुनिया है।" राधा चिढ़कर कहने लगी"उस बूढ़े को साथ सेकर इस ठण्ड में..."

"बूढ़ा कौन ?"

"उसका पति ।"

यदि दीवार का सहारा न लिया होता तो रामनाथ गिर जाता।

"कहाँ जा रहे हैं ? खाना तैयार है। आप को पसन्द है न इसलिए मैंने खाने के साथ 'रसम' बनाया। थोड़ा गरम-गरम खाना खा लेना रसम के साथ । नहीं तो फिर कमजोरी हो जायेगी।"

मन न होने पर भी रामनाथ भोजन करने बैठ गया । खाना खाया नहीं जा रहा था। फिर भी खाने का प्रयत्न-सा करते हुए रामनाथ ने पूछा-

"बूढ़े से उसने शादी क्यों की?"

वह खाने के साथ-साथ दुख को भी निगलता जा रहा था।

"उस लंगड़ी के लिए उससे अच्छा पति और कौन मिल सकता है। शक्लसूरत भी वैसी ही है । आप भी अजीब बातें करते हैं ! वह पति भी ईश्वर की कृपा और भाग्य से मिला है।"

राधा को लगा कि रामनाथ को तसल्ली हो गयी।

"थोड़ा और दूं? रसम के साथ ही भोजन करना होगा । और कुछ आज आप को नहीं मिलेगा।" राधा ने खाना और परोस दिया।

"अच्छा हुआ कि मैंने खाना परोस दिया । आप तो कह रहे थे कि भूख ही नहीं । सब झूठ । कितनी भूख लगी है। आप वैसे ही सो जाने वाले थे न?"

रामनाथ ने कुछ कहा नहीं। बस, थाली में ही हाथ धोकर वहाँ से चला गया। सुबह से वह क्या सोच रहा था। कैसे दुखी था-यह सब सोचकर वह अपने आप हँसने लग गया। 'क्या पागलपन है मेरा ! वह भी इतने सालों के बाद । यदि वह सुमित्रा ही होती तो कोई मतलब नहीं कि वह मुझे देखने न आती। यह कोई और है। गलतफहमी में पड़कर मैं बेकार ही दुखी हो गया-' रामनाथ ने पेटी खोलकर एक-एक चीज बाहर रख दी । नीचे का कागज हटाकर देखा-सब खाने अच्छी तरह देखे । कपड़ों की तहों में भी, खोल-खोलकर देखा।

"क्या ढूंढ रहे हैं ?" पीछे खड़े होकर राधा ने पूछा ।

रामनाथ पसीना पोंछने लगा। "एक छोटा-सा..." रुक गया।

"यही है न?" राधा ने एक छोटा-सा हरे रंग का लिफाफा पकड़ाया, "परसों सफाई कर रही थी तो मिला। सोचा, देखू क्या है ! मुरझाये फूल, नीले काँच की चूड़ियों के टुकड़े हैं उसमें । वापस रख देना चाह रही थी। सुस्ती कर गयी । लीजिए।"

रामनाथ उन्हें हाथ में नहीं ले पाया।

"देखो अपने पास ही रखो, राधा । जितना तम संभालकर रख सकोगी, उतना संभालकर मैं नहीं रख सकूँगा।" रामनाथ ने कहा। "दोपहर को उनको देखते ही मुझे इसकी याद आयी । उन्हें ये फूल बहुत ही पसन्द हैं। अब भी नीले कांच की चूड़ियों से हाथ भरा हुआ है।"

रामनाथ की आँखें खुल गयीं । सारे परदे हट गये । जीवन का एक बहुत ही बड़ा सत्य उसके सामने खड़ा हुआ। उसकी समझ में आया कि यह एक विचित्र अनुभव ही मन में, दिमाग में है । इस अनुभव के कारण एक प्रकार की रोशनी छा गयी। यह अनुभूति प्राप्त होते ही मन हल्का-सा हो गया। रामनाथ आँखें मलने लगा। आँखों में आंसू जो भर आये, दीपक की रोशनी में चमकते हुए उसके गालों से बहते हुए, नीचे गिरकर सूख गये ।

(अनुवाद : डॉ. लीला ज्योति)