कबूतरों वाला साईं (कहानी) : सआदत हसन मंटो

Kabutron Wala Saeen (Hindi Story) : Saadat Hasan Manto

पंजाब के एक सर्द देहात के तकिए में माई जीवां सुबह सवेरे एक ग़लाफ़ चढ़ी क़ब्र के पास ज़मीन के अंदर खुदे हुए गढ़े में बड़े बड़े उपलों से आग लगा रही है। सुबह के सर्द और मटियाले धुँदलके में जब वो अपनी पानी भरी आँखों को सुकेड़ कर और अपनी कमर को दुहरा करके, मुँह क़रीब क़रीब ज़मीन के साथ लगा कर ऊपर तले रखे हुए उपलों के अंदर फूंक घुसेड़ने की कोशिश करती है तो ज़मीन पर से थोड़ी सी राख उड़ती है और इस के आधे सफ़ैद और आधे काले बालों पर जो कि घिसे हुए कम्बल का नमूना पेश करते हैं बैठ जाती है और ऐसा मालूम होता है कि उस के बालों में थोड़ी सी सफेदी और आगई है।
उपलों के अंदर आग सुलगती है और यूं जो थोड़ी सी लाल लाल रोशनी पैदा होती है माई जीवां के स्याह चेहरे पर झुर्रियों को और नुमायां कर देती है।
माई जीवां ये आग कई मर्तबा सुलगा चुकी है। ये तकिया या छोटी सी ख़ानक़ाह जिस के अंदर बनी हुई क़ब्र की बाबत उस के परदादा ने लोगों को ये यक़ीन दिलाया था कि वो एक बहुत बड़े पीर की आरामगाह है, एक ज़माने से उन के क़बज़ा में थी। गामा साईं के मरने के बाद अब उस की होशियार बीवी एक तकीए की मुजाविर थी। गामा साईं सारे गांव में हर-दिलअज़ीज़ था। ज़ात का वो कुमहार था मगर चूँकि उसे तकीए की देख भाल करना होती थी। इस लिए उस ने बर्तन बनाने छोड़ दिए थे। लेकिन उस के हाथ की बनाई हुई कूंडियां अब भी मशहूर हैं। भंग घोटने के लिए वो साल भर में छः कूंडियां बनाया करता था जिन के मुताल्लिक़ बड़े फ़ख़्र से वो ये कहा करता था। “चौधरी लोहा है लोहा फ़ौलाद की कोंडी टूट जाये पर गामा साईं की ये कोंडी दादा ले तो उस का पोता भी इसी में भंग घोट कर पीए।”
मरने से पहले गामा साईं छः कूंडियां बना कर रख गया था जो अब माई जीवां बड़ी एहतियात से काम में लाती थी।
गांव के अक्सर बूढ़े और जवान तकीए में जमा होते थे और सरदाई पिया करते थे। घोटने के लिए गामा साईं नहीं था पर उस के बहुत से चेले चाँटे जो अब सर और भवें मुंडा कर साईं बिन गए थे, इस के बजाय भंग घोटा करते थे और माई जीवां की सुलगाई हुई आग सुल्फ़ा पीने वालों के काम आती थी।
सुबह और शाम को तो ख़ैर काफ़ी रौनक रहती थी, मगर दोपहर को आठ दस आदमी माई जीवां के पास बेरी की छाओं में बैठे ही रहते थे। इधर उधर कोने में लंबी लंबी बेल के साथ साथ कई काबुक थे जिन में गामा साईं के एक बहुत पुराने दोस्त अब्बू पहलवान ने सफ़ैद कबूतर पाल रखे थे। तकीए की धूएँ भरी फ़िज़ा में उन सफ़ैद और चितकबरे कबूतरों की फड़फड़ाहट बहुत भली मालूम होती थी। जिस तरह तकीए में आने वाले लोग शक्ल व सूरत से मासूमाना हद तक बे-अक़ल नज़र आते थे इसी तरह ये कबूतर जिन में से अक्सर के पैरों में माई जीवां के बड़े लड़के ने झांझ पहना रखे थे बे-अक़ल और मासूम दिखाई देते थे।
माई जीवां के बड़े लड़के का असली नाम अबदुलग़फ़्फ़ार था। उसकी पैदाइश के वक़्त ये नाम शहर के थानेदार का था जो कभी कभी घोड़ी पर चढ़ कर मौक़ा देखने के लिए गांव में आया करता था और गामा साईं के हाथ का बना हुआ एक पियाला सरदाई का ज़रूर पिया करता था। लेकिन अब वो बात न रही थी। जब वो ग्यारह बरस का था तो माई जीवां उस के नाम में थानेदारी की बू सून्घ सकती थी मगर जब उस ने बारहवीं साल में क़दम रखा तो उस की हालत ही बिगड़ गई। ख़ासा तगड़ा जवान था पर न जाने क्या हुआ कि बस एक दो बरस में ही सचमुच का साईं बन गया। यानी नाक से रेंठ बहने लगा और चुप चुप रहने लगा। सर पहले ही छोटा था पर अब कुछ और भी छोटा होगया और मुँह से हर वक़्त लुआब सा निकलने लगा। पहले पहल माँ को अपने बच्चे की इस तबदीली पर बहुत सदमा हुआ मगर जब उस ने देखा कि उस की नाक से रेंठ और मुँह से लुआब बहते ही गांव के लोगों ने उस से ग़ैब की बातें पूछना शुरू करदी हैं और उस की हर जगह ख़ूब आओ भगत की जाती है तो उसे ढारस हुई कि चलो यूं भी तो कमा ही लेगा। कमाना वमाना क्या था। अबदुलग़फ़्फ़ार जिस को अब कबूतरों वाला साईं कहते थे, गांव में फरफरा कर आटा चावल इकट्ठा करलिया करता था, वो कभी इस लिए कि उस की माँ ने उस के गले में एक झोली लटका दी थी, जिस में लोग कुछ न कुछ डाल दिया करते थे। कबूतरों वाला साईं उसे इस लिए कहा जाता था कि उसे कबूतरों से बहुत प्यार था। तकीए में जितने कबूतर थे उन की देख भाल अब्बू पहलवान से ज़्यादा यही किया करता था।
उस वक़्त वो सामने कोठड़ी में एक टूटी हुई खाट पर अपने बाप का मेला कुचैला लिहाफ़ ओढ़े सो रहा था। बाहर उस की माँ आग सुलगा रही थी....
चूँकि सर्दियां अपने जोबन पर थीं इस लिए गांव अभी तक रात और सुबह के धोईं में लिपटा हुआ था। यूं तो गांव में सब लोग बेदार थे और अपने काम धंदों में मसरूफ़ थे मगर तकिया जो कि गांव से फ़ासिला पर था अभी तक आबाद न हुआ था, अलबत्ता दूर कोने में माई जीवां की बकरी ज़ोर ज़ोर से मिमया रही थी।
माई जीवां आग सुलगा कर बकरी के लिए चारा तैय्यार करने ही लगी थी कि उसे अपने पीछे आहट सुनाई दी। मुड़ कर देखा तो उसे एक अजनबी सर पर ठाटा और मोटा सा कम्बल ओढ़े नज़र आया। पगड़ी के एक पल्लू से उस आदमी ने अपना चेहरा आँखों तक छिपा रखा था। जब उस ने मोटी आवाज़ में “माई जीवां अस्सलामु अलैकुम” कहा तो पगड़ी का खुर्दरा कपड़ा इस के मुँह पर तीन चार मर्तबा सिकुड़ा और फैला।
माई जीवां ने चारा बकरी के आगे रख दिया और अजनबी को पहचानने की कोशिश किए बग़ैर कहा “वाअलैकुम अस्सलाम। आओ भाई बैठो। आग तापो।”
माई जीवां कमर पर हाथ रख कर उस गढ़े की तरफ़ बढ़ी जहां हर रोज़ आग सुलगती रहती थी। अजनबी और वो दोनों पास पास बैठ गए। थोड़ी देर हाथ ताप कर उस आदमी ने माई जीवां से कहा। “माँ। अल्लाह बख़्शे गामां साईं मुझे बाप की तरह चाहता था। उस के मरने की ख़बर मिली तो मुझे बहुत सदमा हुआ। मुझे आसीब होगया था, क़ब्रिस्तान का जिन्न ऐसा चिमटा था कि अल्लाह की पनाह, गामा साईं के एक ही तावीज़ से ये काली बला दूर होगई।”
माई जीवां ख़ामोशी से अजनबी की बातें सुनती रही जो कि उस के शौहर का बहुत ही मोतक़िद नज़र आता था। उस ने इधर उधर की और बहुत सी बातें करने के बाद बुढ़िया से कहा। “मैं बारह कोस से चल कर आया हूँ, एक ख़ास बात कहने के लिए।” अजनबी ने राज़दारी के अंदाज़ में अपने चारों तरफ़ देखा कि उस की बात कोई और तो नहीं सुन रहा और भिंचे हुए लहजा में कहने लगा। “मैं सुनदर डाकू के गिरोह का आदमी हूँ। परसों रात हम लोग इस गांव पर डाका मारने वाले हैं। ख़ूनख़राबा ज़रूर होगा, इस लिए मैं तुम से ये कहने आया हूँ कि अपने लड़कों को दूर ही रखना। मैंने सुना है कि गामा साईं मरहूम ने अपने पीछे दो लड़के छोड़े हैं। जो इन आदमियों का लहू है बाबा, ऐसा न हो कि जोश मार उठे और लेने के देने पड़ जाएं। तुम उन को परसों गांव से कहीं बाहर भेज दो तो ठीक रहेगा। बस मुझे यही कहना था। मैंने अपना हक़ अदा कर दिया है। अस्सलामु अलैकुम।”
अजनबी अपने हाथों को आग के अलाव पर ज़ोर ज़ोर से मल कर उठा और जिस रास्ते से आया था इसी रास्ते से बाहर चला गया।
सुन्दर जाट बहुत बड़ा डाकू था। उस की दहश्त इतनी थी कि माएं अपने बच्चों को उसी का नाम लेकर डराया करती थीं। बेशुमार गीत उसकी बहादुरी और बेबाकी के गांव की जवान लड़कीयों को याद थे। इस का नाम सुन कर बहुत सी कुंवारियों के दिल धड़कने लगते थे। सुनदर जाट को बहुत कम लोगों ने देखा था मगर जब चौपाल में लोग जमा होते थे तो हर शख़्स उस से अपनी अचानक मुलाक़ात के मन-घड़त क़िस्से सुनाने में एक ख़ास लज़्ज़त महसूस करता था। उस के क़द-ओ-क़ामत और डीलडौल के बारे में मुख़्तलिफ़ बयान थे। बाअज़ कहते थे कि वो बहुत क़दआवर जवान है, बड़ी बड़ी मूंछों वाला। इन मूंछों के बालों के मुतअल्लिक़ ये मशहूर था कि वो दो बड़े बड़े लेमूँ उन की मदद से उठा सकता है। बाअज़ लोगों का ये बयान था कि उस का क़द मामूली है मगर बदन इस क़दर गट्ठा हुआ है कि गेंडे का भी ना होगा। बहरहाल सब मुत्तफ़िक़ा तौर पर उसकी ताक़त और बेबाकी के मोअतरिफ़ थे।
जब माई जीवां ने ये सुना कि सुनदर जाट उनके गांव पर डाका डालने के लिए आ रहा है तो उसके आए औसान ख़ता होगए और वो उस अजनबी के सलाम का जवाब तक न दे सकी और न उस का शुक्रिया अदा कर सकी। माई जीवां को अच्छी तरह मालूम था कि सुनदर जाट का डाका क्या मानी रखता है। पिछली दफ़ा जब उस ने साथ वाले गांव पर हमला किया था तो सखी महाजन की सारी जमा पूंजी ग़ायब होगई थी और गांव की सब से सुनदर और चंचल छोकरी भी ऐसी गुम हुई थी कि अब तक उस का पता नहीं मिलता था। ये बला अब उन के गांव पर नाज़िल होने वाली थी और इस का इल्म सिवाए माई जीवां के गांव में किसी और को न था। माई जीवां ने सोचा कि वो इस आने वाले भूंचाल की ख़बर किस किस को दे........ चौधरी के घर ख़बर करदे........ लेकिन नहीं वो तो बड़े कमीने लोग थे। पिछले दिनों उस ने थोड़ा सा साग उन से मांगा था तो उन्हों ने इनकार कर दिया था। घसीटा राम हलवाई को मुतनब्बा करदे.... नहीं, वो भी ठीक आदमी नहीं था।
वो देर तक इन ही ख़यालात में ग़र्क़ रही। गांव के सारे आदमी वो एक एक करके अपने दिमाग़ में लाई और इन में से किसी एक को भी इस ने मेहरबानी के काबिल न समझा। इस के इलावा उस ने सोचा अगर उस ने किसी को हमदर्दी के तौर पर इस राज़ से आगाह कर दिया तो वो किसी और पर मेहरबानी करेगा और यूं सारे गांव वालों को पता चल जाएगा जिस का नतीजा अच्छा नहीं होगा। आख़िर में वो ये फ़ैसला करके उठी कि अपनी सारी जमा पूंजी निकाल कर वो सब्ज़ रंग की ग़लाफ़ चढ़ी क़ब्र के सिरहाने गाड़ देगी और रहमान को पास वाले गांव में भेज देगी।
जब वो सामने वाली कोठड़ी की तरफ़ बढ़ी तो दहलीज़ में उसे अबदुलग़फ़्फ़ार यानी कबूतरों वाला साईं खड़ा नज़र आया। माँ को देख कर वो हंसा। उस की ये हंसी आज खिलाफ-ए-मामूल मानी ख़ेज़ थी। माई जीवां को उस की आँखों में संजीदगी और मतानत की झलक भी नज़र आई जो कि होशमन्दी की निशानी है।
जब वो कोठड़ी के अंदर जाने लगी तो अबदुलग़फ़्फ़ार ने पूछा। “माँ, ये सुबह सवेरे कौन आदमी आया था?”
अबदुलग़फ़्फ़ार इस क़िस्म के सवाल आम तौर पर पूछा करता था, इस लिए उस की माँ जवाब दिए बग़ैर अन्दर चली गई और अपने छोटे लड़के को जगाने लगी। “ए रहमान, ए रहमान उठ उठ।”
बाज़ू झिंझोड़ कर माई जीवां ने अपने छोटे लड़के रहमान को जगाया और वो जब आँखें मिल कर उठ बैठा और अच्छी तरह होश आगया तो उस की माँ ने उस को सारी बात सुना दी। रहमान के तो औसान ख़ता होगए। वो बहुत डरपोक था गो उस की उम्र उस वक़्त बाईस बरस की थी और काफ़ी ताक़तवर जवान था मगर इस में हिम्मत और शुजाअत नाम तक को न थी। सुनदर जाट!.... इतना बड़ा डाकू, जिस के मुतअल्लिक़ मशहूर था कि वो थोक फेंकता था तो पूरे बीस गज़ के फ़ासले पर जा कर गिरता था, परसों डाका डालने और लूट मार करने के लिए आरहा था। वो फ़ौरन अपनी माँ के मश्वरे पर राज़ी होगया बल्कि यूं कहीए कि वो उसी वक़्त गांव छोड़ने की तैय्यारियां करने लगा।
रहमान को नीयती चमारन यानी इनायत से मुहब्बत थी जो कि गांव की एक बेबाक शोख़ और चंचल लड़की थी। गांव के सब जवान लड़के शबाब की ये पोटली हासिल करने की कोशिश में लगे रहते थे मगर वो किसी को ख़ातिर में नहीं लाती थी। बड़े बड़े होशियार लड़कों को वो बातों बातों में उड़ा देती थी। चौधरी दीन मुहम्मद के लड़के फ़ज़लदीन को कलाई पकड़ने में कमाल हासिल था। इस फ़न के बड़े बड़े माहिर दूर दूर से उस को नीचा दिखाने के लिए आते थे मगर उस की कलाई किसी से भी न मुड़ी थी। वो गांव में अकड़ अकड़ कर चलता था मगर उस की ये सारी अकड़ फ़ूं नीयती ने एक ही दिन में ग़ायब कर दी जब उस ने धान के खेत में उस से कहा। “फ़जे, गंडा सिंह की कलाई मरोड़ कर तो अपने मन में ये मत समझ कि बस अब तेरे मुक़ाबला में कोई आदमी नहीं रहा.... आ मेरे सामने बैठ, मेरी कलाई पकड़, इन दो उंगलियों की एक ही ठुमकी से तेरे दोनों हाथ न छुड़ा दूँ तो नीयती नाम नहीं।”
फ़ज़लदीन उस को मोहब्बत की निगाहों से देखता था और उसे यक़ीन था कि उसकी ताक़त और शहज़ोरी के रुअब और दबदबे में आकर वो ख़ुदबख़ुद एक रोज़ राम हो जाएगी। लेकिन जब उस ने कई आदमियों के सामने उस को मुक़ाबले की दावत दी तो वो पसीना पसीना होगया। अगर वो इनकार करता है तो नीयती और भी सर पर चढ़ जाती है और अगर वो उसकी दावत क़बूल करता है तो लोग यही कहेंगे। औरत ज़ात से मुक़ाबला करते शर्म तो नहीं आई मर्दूद को। उस की समझ में नहीं आता था कि क्या करे। चुनांचे उस ने नीयती की दावत क़बूल करली थी। और जैसा कि लोगों का बयान है उस ने जब नीयती की गदराई हुई कलाई अपने हाथों में ली तो वो सारे का सारा काँप रहा था। नीयती की मोटी मोटी आँखें उस की आँखों में धँस गईं, एक नारा बुलंद हुआ और नीयती की कलाई फ़ज़ल की गिरिफ़त से आज़ाद होगई........ उस दिन से लेकर अब तक फ़ज़ल ने फिर कभी किसी की कलाई नहीं पकड़ी।
हाँ, तो इस नीयती से रहमान को मुहब्बत थी, जैसा कि वो आप डरपोक था इसी तरह उस का प्रेम भी डरपोक था। दूर से देख कर वह अपने दिल की हवस पूरी करता था और जब कभी उस के पास होती तो उस को इतनी जुर्रत नहीं होती थी कि हर्फ़-ए-मुद्दा ज़बान पर लाए। मगर नीयती सब कुछ जानती थी। वो क्या कुछ नहीं जानती थी। उसे अच्छी तरह मालूम था कि ये छोकरा जो दरख़्तों के तनों के साथ पीठ टीके खड़ा रहता है उस के इश्क़ में गिरफ़्तार है, उस के इश्क़ में कौन गिरफ़्तार नहीं था? सब उस से मोहब्बत करते थे। इस किस्म की मोहब्बत जो कि बेरियों के बेर पकने पर गांव के जवान लड़के अपनी रगों के तनाव के अंदर महसूस किया करते हैं मगर वो अभी तक किसी की मोहब्बत में गिरफ़्तार नहीं हुई थी। मोहब्बत करने की ख़्वाहिश अलबत्ता उसके दिल में इस क़दर मौजूद थी कि बिलकुल उस शराबी के मानिंद मालूम होती थी जिस के मुतअल्लिक़ डर रहा करता है कि अब गृह और अब गृह........ वो बेख़बरी के आलम में एक बहुत ऊंची चट्टान की चोटी पर पहुंच चुकी थी और अब तमाम गांव वाले उस की उफ़्ताद के मुंतज़िर थे जो कि यक़ीनी थी........।
रहमान को भी इस उफ़ताद का यक़ीन था मगर उस का डरपोक दिल हमेशा उसे ढारस दिया करता था कि नहीं, नीयती आख़िर तेरी ही बांदी बनेगी और वो यूं ख़ुश होजाया करता था।
जब रहमान दस कोस तय करके दूसरे गांव में पहुंचने के लिए तैय्यार हो कर तकीए से बाहर निकला तो उसे रास्ते में नीयती का ख़याल आया मगर उस वक़्त उस ने ये न सोचा कि सुनदर जाट धावा बोलने वाला है। वो दरअसल नीयती के तसव्वुर में इस क़दर मगन था और अकेले में उस के साथ मन ही मन में इतने ज़ोरों से प्यार मोहब्बत कर रहा था कि उसे किसी और बात का ख़याल ही न आया। अलबत्ता जब वो गांव से पाँच कोस आगे निकल गया तो इका ईकी उस ने सोचा कि नीयती को तो बता देना चाहिए था कि सुंदर जाट आरहा है। लेकिन अब वापस कौन जाता।
अबदुलग़फ़्फ़ार यानी कबूतरों वाला साईं तकीए से बाहर निकला। उस के मुँह से लूआब निकल रहा था जो कि मैले कुरते पर गिर कर देर तक गलीसरीन की तरह चमकता रहता था। तकीए से निकल कर सीधा खेतों का रुख़ किया करता था और सारा दिन वहीं गुज़ार देता था। शाम को जब ढोर डंगर वापस गांव को आते तो उन के चलने से जो धूल उड़ती है इस के पीछे कभी कभी ग़फ़्फ़ार की शक्ल नज़र आजाती थी। गांव उस को पसंद नहीं था। उजाड़ और सुनसान जगहों से उसे ग़ैर महसूस तौर पर मोहब्बत थी यहां भी लोग उस का पीछा न छोड़ते थे और उस से तरह तरह के सवाल पूछते थे। जब बरसात में देर हो जाती तो क़रीब क़रीब सब किसान उस से दरख़ास्त करते थे कि वो पानी भरे बादलों के लिए दुआ मांगे और गांव के इश्क़ पेशा जवान उस से अपने दिल का हाल बयान करते और पूछते कि वो कब अपने मक़सद में कामयाब होंगे, नौजवान छोकरियां भी चुपके चुपके धड़कते हुए दिलों से उस के सामने अपनी मोहब्बत का एतराफ़ करती थीं और ये जानना चाहती थीं कि उन के माहिआ का दिल कैसा है। अबदुलग़फ़्फ़ार इन सवालियों को ऊटपटांग जवाब दिया करता था इस लिए कि उसे ग़ैब की बातें कहाँ मालूम थीं, लेकिन लोग जो उस के पास सवाल लेकर आते थे उस की बेरब्त बातों में अपना मतलब ढूंढ लिया करते थे।
अबदुलग़फ़्फ़ार मुख़्तलिफ़ खेतों में से होता हुआ उस कुँवें के पास पहुंच गया जो कि एक ज़माने से बेकार पड़ा था। उस कुँवें की हालत बहुत अबतर थी। उस बूढ़े बरगद के पत्ते जो कि सालहा साल से उस के पहलू में खड़ा था इस क़दर उस में जमा होगए थे कि अब पानी नज़र ही न आता था और ऐसा मालूम होता कि बहुत सी मकड़ियों ने मिल कर पानी की सतह पर मोटा सा जाला बुन दिया है। उस कुँवें की टूटी हुई मुंडेर पर अब्दुल-ग़फ़्फ़ार बैठ गया और दूसरों की उदास फ़िज़ा में उस ने अपने वजूद से और भी उदासी पैदा करदी।
दफ़्फ़ातन उड़ती हुई चीलों की उदास चीख़ों को अक़ब में छोड़ती हुई एक बुलंद आवाज़ उठी और बूढ़े बरगद की शाख़ों में एक कपकपाहट सी दौड़ गई।
नीयती गा रही थी
माही मिरे ने बाग लवाया
चंपा, मेवा ख़ूब खिलाया
असी तां लाईयां खट्टीयाँ वे
रातें सौन ना देंदियां अखयां वे
इस गीत का मतलब ये था कि मेरे माहिआ यानी मेरे चाहने वाले ने एक बाग़ लगाया है, इस में हर तरह के फूल उगाए हैं, चंपा, मेवा वग़ैरा खिलाए हैं। और हम ने तो सिर्फ़ नारंगियां लगाई हैं.... रात को आँखें सोने नहीं देतीं। कितनी इनकिसारी बरती गई है। माशूक़ आशिक़ के लगाए हुए बाग़ की तारीफ़ करता है, लेकिन वो अपनी जवानी के बाग़ की तरफ़ निहायत इन्किसाराना तौर पर इशारा करता है जिस में हक़ीर नारंगियां लगी हैं और फिर शब जवाबी का गिला किस ख़ूबी से किया गया है।
गो अबदुलग़फ़्फ़ार में नाज़ुक जज़्बात बिलकुल नहीं थे फिर भी नीयती की जवान आवाज़ ने उस को चौंका दिया और वो इधर उधर देखने लगा। उस ने पहचान लिया था कि ये आवाज़ नीयती की है।
गाती गाती नीयती कुँवें की तरफ़ आ निकली। ग़फ़्फ़ार को देख कर वह दौड़ी हुई उस के पास आई और कहने लगी। “ओह, ग़फ़्फ़ार साईं.... तुम.... ओह, मुझे तुम से कितनी बातें पूछना हैं.... और इस वक़्त यहां तुम्हारे और मेरे सिवा और कोई भी नहीं.... देखो मैं तुम्हारा मुँह मीठा कराऊंगी अगर तुम ने मेरे दिल की बात बूझ ली और.... लेकिन तुम तो सब कुछ जानते हो अल्लाह वालों से किसी के दिल का हाल छुपा थोड़ी रहता है।”
वो उस के पास ज़मीन पर बैठ गई और उस के मैले कुरते पर हाथ फेरने लगी।
खिलाफ-ए-मामूल कबूतरों वाला साईं मुस्कुराया मगर नीयती उस की तरफ़ देख नहीं रही थी, उस की निगाहें गाड़हे के ताने बाने पर बग़ैर किसी मतलब के तेर रही थीं। खुरदरे कपड़े पर हाथ फेरते फेरते उस ने गर्दन उठाई और आहों में कहना शुरू किया। “ग़फ़्फ़ार साईं तुम अल्लाह मियां से मोहब्बत करते हो और मैं.... मैं एक आदमी से मोहब्बत करती हूँ। तुम मेरे दिल का हाल क्या समझोगे!.... अल्लाह मियां की मोहब्बत और उस के बंदे की मोहब्बत एक जैसी तो हो नहीं सकती.... क्यों ग़फ़्फ़ार साईं.... अरे तुम बोलते क्यों नहीं.... कुछ बोलो.... कुछ कहो.... अच्छा तो मैं ही बोले जाऊंगी........ तुम नहीं जानते कि आज मैं कितनी देर बोल सकती हूँ.... तुम सुनते सुनते थक जाओगे पर मैं नहीं थकूंगी.... ” ये कहते कहते वो ख़ामोश होगई और उस की संजीदगी ज़्यादा बढ़ गई। अपने मन में ग़ोता लगाने के बाद जब वो उभरी तो उस ने इका ईकी अबदुलग़फ़्फ़ार से पूछा। “साईं। मैं कब थकूं गी?”
अबदुलग़फ़्फ़ार के मुँह से लूआब निकलना बंद हो गया। उस ने कुँवें के अंदर झुक कर देखते हुए जवाब दिया। “बहुत जल्द।”
ये कह कर वो उठ खड़ा हुआ। इस पर नीयती ने उस के कुरत का दामन पकड़ लिया और घबरा कर पूछा। “कब?.... कब?.... साईं कब?”
अबदुलग़फ़्फ़ार ने इस का कोई जवाब न दिया और बबूल के झुनड की तरफ़ बढ़ना शुरू कर दिया। नीयती कुछ देर कुँवें के पास सोचती रही फिर तेज़ क़दमों से जिधर साईं गया था उधर चल दी।
वो रात जिस में सुनदर जाट गांव पर डाका डालने के लिए आरहा था। माई जीवां ने आँखों में काटी। सारी रात वो अपनी खाट पर लिहाफ़ ओढ़े जागती रही। वो बिलकुल अकेली थी। रहमान को उस ने दूसरे गांव भेज दिया और अबदुलग़फ़्फ़ार न जाने कहाँ सौ गया था। अब्बू पहलवान कभी कभी तकीए में आग तापता तापता वहीं अलाव के पास सौ जाया करता था मगर वो सुबह ही से दिखाई नहीं दिया था, चुनांचे कबूतरों को दाना माई जीवां ही ने खिलाया था।
तकिया गांव के उस सिरे पर वाक़्य था जहां से लोग गांव के अंदर दाख़िल होते थे। माई जीवां सारी रात जागती रही मगर उस को हल्की सी आहट भी सुनाई न दी। जब रात गुज़र गई और गांव के मुर्गों ने अजानें देना शुरू करदीं तो वो सुनदर जाट की बाबत सोचती सोचती सौ गई।
चूँकि रात को वो बिलकुल न सोई थी इस लिए सुबह बहुत देर के बाद जागी। कोठड़ी से निकल कर जब वो बाहर आई तो उस ने देखा कि अब्बू पहलवान कबूतरों को दाना दे रहा है और धूप सारे तकीए में फैली हुई है। उस ने बाहर निकलते ही उस से कहा। “सारी रात मुझे नींद नहीं आई। ये मोह बुढ़ापा बड़ा तंग कर रहा है। सुबह सोई हूँ और अब उठी हूँ.... हाँ तुम सुनाओ कल कहाँ रहे हो?”
अब्बू ने जवाब दिया। “गांव में।”
इस पर माई जीवां ने कहा। “कोई ताज़ा ख़बर सुनाओ।”
अब्बू ने झोली के सब दाने ज़मीन पर गिरा कर और झपट कर एक कबूतर को बड़ी सफ़ाई से अपने हाथ में दबोचते हुए कहा। “आज सुबह चौपाल पर नत्था सिंह कह रहा था कि गाम चमार की वो लौंडिया.... क्या नाम है उस का?.... हाँ वो नीयती कहीं भाग गई है?.... मैं तो कहता हूँ अच्छा हुआ.... हराम ज़ादी ने सारा गांव सर पर उठा रखा था।”
“किसी के साथ भाग गई है या कोई उठा कर ले गया है?”
“जाने मेरी बला.... लेकिन मेरे ख़याल में तो वो ख़ुद ही किसी के साथ भाग गई है।”
“माई जीवां को इस गुफ़्तुगू से इत्मिनान न हुआ। सुनदर जाट ने डाका नहीं डाला था पर एक छोकरी तो ग़ायब होगई थी। अब वो चाहती थी कि किसी न किसी तरह नीयती का ग़ायब हो जाना सुनदर जाट से मुतअल्लिक़ हो जाये। चुनांचे वो इन तमाम लोगों से नीयती के बारे में पूछती रही जो कि तकीए में आते जाते रहे लेकिन जो कुछ अब्बू ने बताया था उस से ज़्यादा उसे कोई भी न बता सका।”
शाम को रहमान लोट आया। उस ने आते ही माँ से सुनदर जाट के डाका के मुतअल्लिक़ पूछा। इस पर माई जीवां ने कहा। “सुंदर जाट तो नहीं आया बेटा पर नीयती कहीं ग़ायब होगई है........ ऐसी कि कुछ पता ही नहीं चलता।”
रहमान को ऐसा महसूस हुआ कि उस की टांगों में दस कोस और चलने की थकावट पैदा होगई है। वो अपनी माँ के पास बैठ गया, उस का चेहरा ख़ौफ़नाक तौर पर ज़र्द था।
एक दम ये तबदीली देख कर माई जीवां ने तशवीशनाक लहजा में इस से पूछा। “क्या हुआ बेटा।”
रहमान ने अपने ख़ुश्क होंटों पर ज़बान फेरी और कहा। “कुछ नहीं माँ.... थक गया हूँ।”
और नीयती कल मुझ से पूछती थी, “मैं कब थकूंगी?”
रहमान ने पलट कर देखा तो उस का भाई अबदुलग़फ़्फ़ार आसतीन से अपने मुँह का लुआब पोंछ रहा था। रहमान ने उस की तरफ़ घूर कर देखा और पूछा “क्या कहा था उस ने तुझ से?”
अबदुलग़फ़्फ़ार अलाव के पास बैठ गया। “कहती थी कि मैं थकती ही नहीं.... पर अब वो थक जाएगी।”
रहमान ने तेज़ी से पूछा। “कैसे?”
ग़फ़्फ़ार साईं के चेहरे पर एक बेमानी सी मुस्कुराहट पैदा हुई। “मुझे क्या मालूम?.... सुन्दर जाट जाने और वो जाने।”
ये सुन कर रहमान के चेहरे पर और ज़्यादा ज़रदी छा गई और माई जीवां की झुरयां ज़्यादा गहराई इख़्तियार कर गईं ।
(1941)

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