जंगली फूल (उपन्यास) : जोराम यालाम नाबाम

Jungli Phool (Hindi Novel) : Joram Yalam Nabam

(अरुणाचल प्रदेश की आबोतानी समुदाय पर केन्द्रित उपन्यास)

प्रस्तावना : जंगली फूल (उपन्यास)

सुना है कभी तानी नाम का कोई फूल कहीं पर खिला था। लोगों की जुबान पर वह सिर्फ एक फूल है— रंगोंवाला फूल–रंगीन फूल–मानो उसमें कोई खुशबू ही नहीं थी। वह बहुत ही बदनाम फूल रहा। यहाँ तक कि उसे बलात्कारी तक कहा गया। कहते हैं, सम्भोग के लिए वह कुछ भी कर सकता था। अनगिनत पत्नियाँ रखीं उसने। प्रेम किसी से भी नहीं किया। वह गृहस्थी के लिए बना ही नहीं था। आवारा-सा कोई पैदा हुआ था। उसकी शक्ति और बुद्धि के चर्चे भी खूब रहे। उसने उसका इस्तेमाल भी औरतों के शरीरों को हासिल करने के लिए ही किया था। वह सिर्फ और सिर्फ अपना वंश बढ़ाना चाहता था।

सोचती हूँ कि क्या सच में वह इतना कायर, नीच, स्वार्थी और डरपोक था? अपने को बचाने के लिए वह इस हद तक जा सकता था? क्या वंश बढ़ा लेने मात्र से ही कोई अमर हो जाता है? कोई तो वजह रही होगी जिसके कारण आज तक लोग उसके नाम को भूल नहीं पाए हैं। कोई तो ऐसी वजह रही होगी जिसके चलते लोगों ने उसे ‘पिता’ कहा होगा। वरना उससे भी बड़े-बड़े भोगी आज भी हैं और हमेशा रहेंगे। वे कीड़े-मकोड़ों की तरह पैदा होते हैं और मर जाते हैं! भोग को उसने किस रूप में देखा होगा ? क्या उसने उसमें प्रेम को ढूँढ़ा होगा ? क्या उसने प्रेम को सिर्फ और सिर्फ स्त्री-शरीर के ही रूप में जाना होगा?

मैंने उस फूल को अपनी दृष्टि से देखने की कोशिश की है। मेरी आँखें उसके सौन्दर्य को देखना चाहती थीं। उसकी खुशबू को ढूँढ़ना चाहती थीं। महसूस करना चाहती थीं। वह रंग जो आँखों में ही ठहरकर रह न जाए ... उसमें खुशबू थी। वह मुझमें उतरकर मुझको भी झूमने पर मजबूर कर दे। ऐसा हुआ भी। मैंने यहाँ कल्पनाओं की उड़ान भरने की कोशिश की है। मेरी कल्पनाएँ जहाँ तक पहुँच सकीं–वहाँ वह मुझसे मिले।

हमारी संस्कृति में गाँववाले आज भी गाकर अपने भावों की अभिव्यक्ति करते हैं। यह तब होता है, जब बातों अथवा वाक्यों से कहा न जाए। भावों के अतिरेक ही गीत बनकर फूट पड़ते हैं। मैंने भी इस कहानी में कई स्थानों पर उसी तरह के भावों का अनुभव किया है। वाक्यों से अभिव्यक्ति उस तरह नहीं हो पाती थी, जिस तरह मैं चाहती थी। यही वजह है कि कविता की काबिलियत न रखते हुए भी कविता की है। वे अपने-आप स्वत: फूट पड़ते थे। कविता के मर्मज्ञ मुझे प्रेम सहित क्षमा करें। मैंने कहानी को कुछ इस ढंग से लिखा है— मानो पाठक पढ़ नहीं रहे, बल्कि मैं उनके सामने बैठकर स्वयं उनको कहानी सुना रही हूँ।

“जंगली” होने का अर्थ मेरे लिए इस प्रकार है— प्रकृति से जुड़ना। उनके साथ स्वयं को अभिन्न अंग जानकर चलना। फूलों के साथ जो मुस्कुरा सके। नदी की बहती लहरों का गान सुन सके। हृदय के अन्तरतम समु्द्र से जो सूक्ष्म पुकार आती है— उसे सुन सके। सूरज की स्वर्णिम किरणों-सा बिखर सके। एक हाथ तारों को छूए और दूसरा ज़मीन को। पथरीले शिखरों पर बिखरी चुटकी-भर मिट्टी में भी उग-उग आना। क्षण भर खिलकर मर जाना। चाँद न छिटकाए चाँदनी, सूरज काली चादर ओढ़े सो जाए, जंगली फूल फिर भी खिलता और महकता रहता है। उन स्थानों पर भी खिलता है जिसकी कल्पना तक हम नहीं कर सकते। यह एक सतत यात्रा होती है। बिल्कुल नदी की तरह। नवीनतम चाल से चलने का साहस। भय का सामना करने का साहस। यही जंगलीपन है।

जंगल पक्षपाती नहीं होता। उसमें जो जीवन है, वह तटस्थ है। वहाँ खिलने वाले फूलों की अपनी ही मर्जी और मौज होती है। न मोह, न आसक्ति और न त्याग। सभी तरह के बन्धनों से मुक्त स्वतन्त्रता का नाम जंगल है। वह स्वतन्त्रता, जो परम अनुशासन से उत्पन्न होती है। मौत कदम से कदम मिलाकर चलती रहती है। सतर्कता का नाम जंगल है। चुनौती का नाम जंगल है। जो भटके हुए से लगते हैं, वही रास्ता ढूँढ़ सकते हैं। जंगल भटका सकता है लेकिन वही जिन्दा भी करता है। बचने का आनन्द भी उसी में है। तानी जंगली फूल था। तभी तो वह पिता कहलाया। तभी तो उसने प्रेम को जीया। कोई रुकावट, कोई नियम, कोई डर उसे रोक नहीं पाया। वह उग-उग आता था— हर परिस्थिति में। उगकर खिल जाना ही उसकी परम गति थी। उसके खिलने में जीवन था।

कहानी काल्पनिक है, लेकिन कुछ घटनाएँ और कुछ पात्रों के नाम उन कहानियों से हुबहू लिये हैं, जैसे प्रचलित ‘तानी कहानियों’ में मिलते हैं। यह उपन्यास मेरे खुराफाती मन की उपज है। सहृदय पाठक मुझे स्नेह सहित अवश्य क्षमा कर पाएँगे, यदि उन्होंने कोई कमी मेरे लेखन में देख ली होगी। ऐसा मुझे भरोसा है।

मैंने कुछ कहानियाँ लिखी हैं। याद नहीं पड़ता कि कभी कोई प्रेम कहानी लिखी हो, हालाँकि हर रचनात्मक चीज गहरे में प्रेम की ही अभिव्यक्ति है। एक लम्बी कहानी लिखना चाहती थी मैं—वह भी प्रेम की। मेरा वह चाहना मेरे खुद के लिए, खुद के प्रति एक वादा-सा बन गया। इसे प्रेम-कहानी कहना चाहिए या नहीं– मैं नहीं जानती। लेकिन अब चैन की साँस ले सकती हूँ। मैंने अपना वादा निभाया है।

जो खुले हैं, खाली हैं आकाश की भाँति; किसी भी तरह के निर्णयात्मक विचारों, पूर्वाग्रहों और अनुमान से परे हैं, जो प्रेम के प्रेमी हैं— वे बाँहें फैलाए इस कहानी का स्वागत करेंगे। आओ मिलते हैं वहाँ, उस झील के किनारे। देखते हैं अपनी ही आँखों से उन्हें ...रंगों की टोली बना-बनाकर तितलियाँ नाचती हैं यहाँ। तारों भरी रातों में। कभी अमावस्या की रातों में। कभी बारिश में। कभी गर्मियों की उमस भरी दोपहर में। इन अक्षरों को मैंने तिनका-तिनका जोड़ा है।

मैं इन्द्रधनुष बुनूँ, तुम आकाश तैयार रखना
रंगों की ओट लिये आऊँ, तुम बाँहें खोले रखना
लो वादा निभाया मैंने, तुम हृदय खोले रखना
बारिश को चुना मैंने, और वसन्त तुम रख लेना
मुड़-मुड़ कर देखना मुझको, दिल लोहे का न ले आना
सीने से लगाकर मुझको, तुम धड़कन अपनी सुनाना।

— यालाम

1 : जंगली फूल (उपन्यास)

लोगों के पास करने को कुछ नहीं होता इन दिनों। सर्दी इतनी होती है कि कुछ भी उगाया नहीं जा सकता। पहाड़ों को बर्फ ढक देती है अक्सर। लेट जाती है इन पहाड़ों पर–जैसे कभी नहीं पिघलेगी वह अब। बीच-बीच में बर्फ को चीरकर कई वृक्ष इस तरह दिखते हैं— मानो उस बेदर्द बर्फ को चुनौती देकर अपने होने को साबित कर रहे हों। दिन में आसमान का नीलापन इनमें उतर आता है। ज़मीन और आसमान एक हो जाते हैं। श्वेत तैरते बादलों में और पहाड़ों पर लेटी बर्फ में कोई फर्क नहीं नजर आता। छोटी नदियाँ जम जाती हैं। पत्थरों के नीचे मछलियाँ भी दुबक जाती हैं। ऐसे में उनको पकड़ना बहुत आसान हो जाता है।

यह मौसम शिकार और यात्रा के लिए उत्तम है। इन दिनों जंगली जानवरों के मीट में अतिरिक्त चर्बी और स्वाद आ जाया करता है। उन्हें सुखाकर महीनों थोड़ा थोड़ा खाने के लिए रख लेते हैं लोग। जंगली फल, मधु, इत्यादि इसी महीने में मिला करते हैं। इसके अलावा लोग कच्ची लकड़ियों को इकट‍्ठा करते हैं और उन्हें फाड़कर जमा करते रहते हैं। बरसात के दिनों में जंगल से लकड़ियाँ लेने जाना बड़ा ही जोखिम का काम होता है। बाँस और लकड़ियों से बने घरों में–जगह-जगह से ठंडी हवा को अन्दर आने का रास्ता मिल ही जाता है। हर वह सम्भव उपाय किया जाता है जिनसे शरीर को कुछ गर्माहट मिल सके। नवजात शिशुओं के लिए यह मौसम कभी-कभी जानलेवा भी हो जाता है।

उस दिन गाँव से दूर एक ऊँचे टीले पर घुटनों को दोनों हाथों से मजबूती से पकड़े हुए, उकड़ूँ बैठा था कोई। कन्धे पर धनुष लटक रहा था। दोनों घुटनों पर काले रंग के धागे बँधे थे। मुँह में छोटे बाँस का हुक्का हल्का-हल्का धुआँ उसमें से निकल रहा था। कमान से तीर छोड़ते समय उँगलियों को चोट न लग जाए–जानवर की चमड़ी से बने सख्त कवच पहने हुए था। वह इस तरह बैठा था–दोनों सख्त नंगी एड़ियाँ मानो सूरज को मुँह चिढ़ा रही हों। मज़बूत कन्धे, जिसकी छाती में शक्ति स्वयं विराजमान होती है... परन्तु आज क्यों कुछ सिकुड़ा हुआ-सा था वह? लिंग को एक पतले से काले कपड़े से ढका हुआ था। लम्बे, घने, काले, घुँघराले और बिखरे केशों के बीच से दमकता हुआ चाँद-सा मुखड़ा। हवा बीच-बीच में कुछ सख्त और तेज हो जाती थी, और सुन्दर केश आँखों को ढक-ढक जाते थे, पर वह उसे हटाने की कोशिश ज़रा भी नहीं करता। त्वचा कितनी सख्त और अभ्यस्त हो गई थी! यह और कोई नहीं–तानी था...सूर्यवंशी तानी; महान यात्री।

कभी-कभी वेदना से भरे उसके शरीर से जैसे कोई अलग हो जाना चाहता है। हल्का...बहुत ही हल्का होकर आसमान में चील की भाँति हवा में यूँ ही तैरते रहना चाहता है। मन ठहर जाए, विश्राममय हो जाए। ऐसा भी नहीं कि वह मर जाना चाहता है; बस कोई अदना-सी ही सही–राह मिल जाए! व्याकुल और भ्रान्त है मन। लगता है जैसे सब कुछ अस्त-व्यस्त बिखरा पड़ा है। विचारों का लगातार आना-जाना और फिर अन्त में वही थकान।

सूरज ढलता जा रहा है। पीलापन लिये शाम आ जाएगी, और फिर तिमिर के घोर अन्धकार में नींद हमेशा की तरह कोसों दूर होगी आज भी...पर मानो उसको कोई ज़ल्दी ही नहीं हो। विचारमग्न आँखें एकटक नीचे खाई को ताकती जा रही हैं। उसके बगल में स्वर्ण रंग का एक कुत्ता बीच-बीच में कूँ-कूँ करता हुआ बैठा हुआ है। यह तानी का अजीज मित्र कीपुंग है।

तानी स्मृतियों में खो गया है। उस बीते हुए वक्त में वापस लौट गया है। एक-एक कर दृश्य उभरने लगे हैं — पिताजी की चार पत्नियाँ थीं। जिसकी जितनी पत्नियाँ–वे उतना ही धनवान और शक्तिशाली माने गए। एक से अधिक विवाह करो और बच्चे जितना हो सके पैदा करो–अपना कबीला छोटा है। जनसंख्या जितनी अधिक हो, उतना अच्छा। जिन कबीलों में लोगों की संख्या अधिक होती, वे शक्तिशाली भी उतने ही होते। जिन परिवारों में अधिक लोग होते, वे परिवार भी शक्तिशाली माने जाते। जरूरत थी यह उस समय। हर कोई स्वयं को जिन्दा रखना चाहता था।

तानी के पिताजी उसकी माँ के ज्यादा करीब थे। वह सबसे छोटी थी, लेकिन सबसे तेज और समझदार थी। पिताजी के बाद लोगों को उसी पर भरोसा होता था। हर मुश्किल को हल करने और सलाह देने में वह सबसे आगे थी। युद्ध के दिनों में उन्हीं के नेतृत्व में गाँव की औरतों ने अपनी और बाकी लोगों की रक्षा की थी। पहली पत्नी से रोबो तानी हुआ, दूसरी वाली से दोदर तानी, तीसरी वाली से तापिंग तानी और चौथी वाली से तानी और दोलियाँग तानी जन्मे। तानी सबसे छोटा और तेज-तरार्र था। उसकी बुद्धि के चर्चे जन्म से ही शुरू हो गए थे। माँ कहती थी, “प्रात: मुर्गे की पहली बाँग के साथ जन्मा था तू। उसी समय पंछी गाने लगे थे! सृष्टि चाहती है कुछ बदलाव हो, इसलिए तुझे भेजा है संसार में।” माँ की आवाज उसके कानों में आज भी बार-बार गूँजती रहती है।

वह जन्म स्थान – सुपुंग। ऊँचें-ऊँचे पहाड़, बहुत गहरी-गहरी खाइयाँ, बेहद पथरीले, कहीं घने जंगल, कहीं अत्यधिक बर्फ और ठंड की मार सहते अनेक अधनंगे शरीर, कहीं भूस्खलन के चलते खेत तबाह हो गए, तो कहीं बरसातों ने जीने की सारी वजहें छीन लीं, और ऊपर से अजीब-अजीब तरह की बीमारियों ने किसी को भी कहीं का नहीं छोड़ा था। कितने ही लोग अपनों को बिलखता छोड़कर हमेशा के लिए दूर कहीं शून्य में खो गए थे। ऐसे में दुश्मनों का जब तब हमला, सो अलग मुसीबत। यह रोज का काम था। कभी इस कबीले से तो कभी उस कबीले से। रोज चौकन्ना रहो...रोज मरो...रोज मारो...जिन्दा बचने के हजार तरीके खोजो।

इसी सुपूंग नामक धरती ने तानी को जन्म से पहले भी देखा था। उसके छोटे-छोटे नन्हें क़दमों से इसका हर कोना महकता था। यही वह जगह थी जहाँ उसने रोना, चलना, गाना सीखा था। ममता से पहला परिचय यहीं तो हुआ था उसका। नन्हें क़दमों के निशां शायद अब भी मौन में वहीं कहीं पड़े होंगे। धरती के जिस कोने को पहली बार आदमी छूता है, महसूस करता है उसे जीवन-भर कौन भुला पाता है। शेर से लेकर एक चींटी तक से उसने दोस्ती यहीं से तो करनी शुरू की थी। प्रेम को भाषा की कभी कोई जरूरत नहीं पड़ी थी। अधिकांश समय उसने इन्हीं मूक पशुओं के साथ बिताया था। कभी भी इन्होंने कोई चोट नहीं पहुँचाई थी किसी को भी; बशर्ते उन्हें बेवजह तंग न किया जाता हो।

यहीं पर शेर की सवारी करता देख माँ ने मुस्कुराकर एक दिन कहा था, “तानी ...तुम तानी हो! तुम्हारा नाम आज से तानी हुआ। आज से तुम्हारे पिता का दिया ‘दोन्यी’ नाम छोड़ दिया। सिर्फ और सिर्फ तानी। तुममें वह सारी शक्ति है जो सूर्य में है। जब कभी तुम्हें महसूस होने लगे कि जैसे तुम स्वयं सबकी माँ हो, कोई भी रोए तो तुम्हें नींद न आए... तब उस समय संसार तुम्हें आबोतानी कहकर पुकारेगा। तानी वंश का पिता कहलाओगे। भीतर माँ का स्वभाव, और बाहर पिता का–जैसे सूरज माँ कहलाता है लेकिन उसका नाम पुरुष का है— तानी–अर्थात दोनों तरह की शक्ति जिसके अन्दर हो। तुम्हारे नज़रों के सामने जो कोई भी हो–वह भूख से न रोयें और न ही उससे मरें। तुम्हारे कई शक्तिशाली पूर्वज हुए–निकूम तानी, निया तानी, न्यदर तानी इत्यादि–जिन्होंने इस वंश की रक्षा की, और इसे चलाते रहने में अपनी जिम्मेदारी को निभाते रहे। लेकिन कोई भी ऐसा न हुआ, जिसने इनकी भूख को हमेशा के लिए मिटा दिया हो। हम दर-दर भटकते रहे, स्थान बदलते रहे, मरते रहे और भूख उतनी ही बढ़ती चली गई। अब हमें फिर से इस जगह को भी छोड़कर जाना होगा जहाँ हमारे पेट को भरने के लिए कुछ मिल जाए। क्योंकि अब यहाँ कुछ भी नहीं रखा। मृत रिश्तेदारों की इन निशानियों को कब तक देख-देखकर रोते रहेंगे हम?”

इसके बाद वे फिर एक नए स्थान पर आ गए थे। यह स्थान सुपूंग से कुछ बेहतर था। इस स्थान का नाम ‘नर्रबा’ रखा गया। ‘नर्रबा’ अर्थात वह स्थान जो लोगों के दिलों को उजला-सा अहसास दे। सब घर बनाने और बसाने में व्यस्त थे। चहल-पहल, शोर-शराबों के बीच... लेकिन उनसे दूर इस नन्हें-से आदमी की दो बड़ी-बड़ी आँखें कुछ और ही ढूँढ़ रही थीं। आवाजों के बीच भी वह उन आवाजों से दूर रह सकता था। फिर कदम स्वत: ही बढ़ने लगे जंगल की ओर। प्रकृति की हलचल में जो संगीत है— वही उसको खींचता था। घने जंगल, कल-कल बहती छोटी-छोटी नदियाँ, उनमें तैरती मचलती छोटी प्यारी मछलियाँ, बाँस के लम्बे-लम्बे आकाश छूते पेड़, कई अजनबी जानवर जिनसे दोस्ती करने में कुछ वक्त लगने वाला था। छोटी चिड़िया फुदकती हुई चहक रही थी, मानो होने वाले पिता को वह युगों से जानती हो!

उसकी बड़ी बहन दोलियाँग (दोरिंग चीजिंग) उसके साथ साये की तरह रहती थी। भाई जानवर की सवारी करता तो बहन वहीं किसी पौधे का निरीक्षण करती हुई मिलती। जंगली जड़ी-बूटियों की जानकारी में उसने इतनी ज़ल्दी महारत हासिलकर ली थी। पौधों के करीब जाकर जाने क्या बुदबुदाती रहती थी मानो पौधा भी उससे कुछ कह रहा हो। पूरे तानी वंश की बेहद प्यारी-सी, छोटी चमत्कारी पुजारिन थी वह। जंगलों में ही जब देखो घूमती रहती। सबका इलाज उसके पास था। अगर कोई इलाज नहीं था तो निरन्तर कुलबुलाते पेट की आग को बुझाने का। दुश्मन कबीलेवाले भी उसका सम्मान करते थे। कई बार उसके चलते ही तानी कबीले दुश्मनों के हमले से बच जाते थे। क्यों न हो, वह नाराज हो गई तो उनका इलाज कौन करेगा? साँपों के ज़हर उतारने से लेकर बुखार तक का इलाज वह करती थी। मुखिया की बेटी से अधिक वह अपने गुणों से पहचानी गई। तानी वंश की पहली स्त्री पुजारिन। छवि में आसमान का नीलापन–जिसे देख सकते हैं लेकिन पकड़ नहीं सकते। आवाज में समन्दर की मचलती मौन लहरों का गान। आँखों में शून्य की निमन्त्रण भरी पुकार। छुवन में चाँद की जादू भरी चाँदनियाँ। मुस्कान मानो ध्रुव तारा। अपनी माँ का दूसरा रूप। कई बीमारियाँ उसे देखते ही छूमन्तर हो जाती थीं। तानी की चहेती बहन और गुरु थी वह।

तानी को याद है वह दिन। उस रोज पिताजी घाटी के उस पार वाले कबीलों से लोहा लेने तानी गाँव के सारे मज़बूत और शक्तिशाली पुरुषों को लेकर चले गए थे। घर के बरामदे में खड़े होकर उन लोगों को विजय-नाद करते हुए दूर तक जाते हुए देखते रहे थे, जब तक कि वे आँखों से ओझल न हो गए थे। पहाड़ों का आँखों के बीच आ जाना बहुत अधिक तब खटकता है, जब कोई अपना अजीज उस यात्रा पर निकल जाए, जिसके लौट आने की उम्मीद को भी कोई उम्मीद नहीं होती। कुछ देर ही सही...जाते हुए उनके लहराते सायों को भी आँखों में बसते देखना चाहते हैं तब। शब्द नहीं निकल रहे थे किसी के भी होंठों से ...सिसकियों से सारा गाँव भर गया था...सब लोग किसी काली, आँधी, गहरी झील में मानो डूब रहे हों...जो गए वह तो गए; जो यहाँ घर और गाँव के नाम पर रह गए थे क्या वे नहीं गए थे! यहाँ बचा ही कौन था। मरघट-सा हो गया था तानी गाँव।

कहीं दूसरा कोई शत्रु पीछे से आकर इन औरतों और बच्चों को बन्धक न बना ले...बुजुर्ग पुरुषों के साथ-साथ औरतों ने भी मजबूती के साथ तीर धनुष उठा लिये थे। इन स्त्रियों की ताकत और बुद्धि पर उनको भरोसा था, जो दूर युद्ध को गए हैं। गाँव के चारों ओर बारी-बारी से पहरा और गश्त लगाती थीं वे। रोज नयी उम्मीद...रोज उन्हीं उम्मीदों को मरते हुए देखते रहे थे अब तक। जरूरत किसी को भी ताकतवर बना देती है। घर, बच्चे और कुछ बचे हुए खेतों की देखभाल ...सब उन्हीं के जिम्मे था। घर पर सारे बच्चे भूख से बिलबिला रहे थे। माँ ने जंगल से जंगली आलू, केले और केले के छिलकों को ला-लाकर उन्हें जिन्दा रखा था। तानी मात्र छ: साल का रहा होगा उस वक्त। लेकिन छ: हजार सालों की ऋतुओं को मानो उसने देख लिया था।

उन दुष्ट शत्रुओं ने खूब लूटपाट की थी। सारा अनाज लूट लिया था उन्होंने। कुछ भी न बचा था। रात के तीसरे पहर जब दुनिया गहरी नींद में गोते लगा रही हो, ऐसे में कायर लोग उन सोते हुए मासूम लोगों पर हमला करते हैं और अपनी जीत का बेशर्मी से जश्न मनाते हैं। ये वही कायर थे जिन्होंने तानी वंश पर हमला किया था। ऐसे लोग गन्दे कीचड़ में लड़ते-झगड़ते, छीना-झपटी करते सूअरों की आवाज़ लिये हुए होते हैं। शरीर आदमी का होता है, लेकिन कहने भर को। और यहाँ–तानी कबीले का एक सख्त नियम था–कभी भी पहले हमला नहीं करना और न ही लूटना है— लेकिन किसी ने उन्हें छेड़ा तो छोड़ना भी नहीं चाहिए। इसीलिए उनसे बदला लेना अति आवश्यक हो गया था। नहीं तो फिर वे लौट आते और तानी कबीले पर हमला कर सकते थे। शक्ति का परिचय देना बहुत आवश्यक हो गया था...दुनिया में शक्ति की ही पूजा होती है। साँप में खतरनाक ज़हर है, छेड़ा तो खैर नहीं; इसका पता दुश्मनों को होना जरूरी है। उस दिन की हार के बाद हालाँकि दूसरे कबीलों से लड़ाई तानी लोगों की होती रही, परन्तु उस कबीले ने इन पर हमला करने की फिर कभी हिम्मत नहीं की थी। गाँव वालों ने तानी के पिता निया को सिर आँखों पर उठा लिया था। उसी की अगुवाई में इन लोगों ने अपनी खोई हुई प्रतिष्ठा वापस पा ली थी, वरना हारे हुए कमजोर कबीले को कहीं भी जीने का हक मानो प्राप्त ही नहीं था। किसी दूसरे के दास बनने से बच गए थे वे।

तानी को भी अपने पिता निया तानी पर बहुत गर्व हुआ था। लेकिन कई रिश्तेदार वापस लौटकर नहीं आए थे। मामाजी को उस दिन के बाद कभी नहीं देख पाए जिनकी ममता-भरी गोद में बैठकर जाने कितनी ही कहानियों को उसने सुन लिया था। उनकी हाथों की छुवन अब भी वह अपने बालों पर महसूस कर सकता था। जाते हुए को देखना कितना पीड़ादायक होता है...वह भी उसके लौट आने की उम्मीद करनी चाहिए भी या नहीं... ऐसे में। कुछ लोगों के हाथ, कुछ के सिर और कुछ के तीर-धनुष लौट आए थे ताकि दाह-संस्कार किया जा सके। दुश्मन सरदार का सिर भी आया था। गाँव के बीचों-बीच उसे लकड़ियों से ‘दापो’ बनाकर कई दिनों तक लटकाया गया। कई रोते-चिल्लाते बच्चे और औरतें रस्सियों में मजबूती से बाँधकर लाए गए थे।

न लौटने वालों के बीवी-बच्चों का करुण क्रन्दन रूह तक को चीर देता था। तानी ने पहले भी ऐसे कई हृदयविदारक रुदन सुने थे। रात के सन्नाटों में...गहन अन्धकार में जब झिंगूर चिल्लाने लगते थे, तब उन औरतों का रुदन एक अजीब-सी तड़प पैदा करता था। कुछ कहती हुई, और गाती हुई सी रोती थीं। रात को एक-एक शब्द स्पष्ट सुनाई देता था। बीच-बीच में कुछ क्षण ठहर-सी जाती ...मानो अन्धकार में कुछ तलाशती होंगी सहारे के लिए; और फिर दुगुने वेग से रोने लगती थीं। दुश्मनों की औरतें और बच्चे धीरे-धीरे सिसकते थे। अब वे तानी लोगों के दास-दासियाँ थे। आँसू किसी के भी हों ...दर्द तो दर्द होता है।

नर्बा में जो कुछ उन लोगों पर बीता था, वह दिल पर इस कदर अंकित हो गया था कि जिसकी यादें शायद युगों पीछा करेंगी। रात-भर खेतों की रखवाली करते-करते पिताजी इन पागल हाथियों की भेंट चढ़ गए थे। पिता का शरीर टुकड़ों में...आँखें कहाँ, सिर कहाँ, पेट कहाँ, हाथ कौन-सा...आह! आखिर कब तक यह सिलसिला चलता रहेगा? तानी के चेहरे पर दर्द की लकीरें उभरने लगीं। दो बूँद समु्द्र की खाली आसमान में छलक गई।

पिछली बारिश के दिनों से ही पिताजी बीमार रहने लगे थे। बहन ने कितनी ही कोशिशें की, लेकिन वह बेबस महसूस करती जा रही थी। माँ की झिलमिलाती आँखें तब से हमेशा भीगी रहने लगी थीं। ‘बच्चे बड़े हो जाएँ तो चले जाना’, माँ भर्राई गले से कहती। वह दिन आ ही गया। पिताजी ने दुनिया छोड़ दिया। खेत से उनका मृत शरीर टुकड़ों में लौटा था। पति के शरीर को टुकड़ों में देखकर अचानक माँ की हालत बिगड़ने लगी, उसकी साँसें जोर-जोर से चलने लगीं। शरीर तड़पने लगा जैसे बिन जल के मीन। वह मृत पति के बगल में लेट गई। इशारे से तानी को पास बुलाया। सारे लोग चारों ओर खड़े होकर सुनने लगे ध्यान से। धीरे-धीरे, रुक-रुककर कहने लगी वह–“सुनो, मेरे प्यारे! अब से तुम पर सारे तानी कबीलेवालों की जिम्मेदारी होगी। तुम्हारा अपना निजी जीवन नहीं होगा, जब तक हमारे लोग दर-दर भटकना छोड़कर, किसी उपजाऊ भूमि में नाचते-गाते न ठहर जाएँ हमेशा के लिए। तानी वह है... जो सूरज की गैर-मौजूदगी में भी चमकता और जलता रहता है। सूर्य से पैदा हुई अग्नि जिसके भीतर अन्धकार में भी जलती रहती है। अपने बल और ...और पौरुष से तुझे ...खुद को साबित करना होगा ...तेरे पिता कुछ ...बोल नहीं पाए...मेरी सुनो ...अपने लोगों का ख्याल रखना, जैसे खुद का रखोगे। तानी वंश रेत के कणों की तरह फैले। दोरिंग चीजिंग हर हाल में भाई को अपनी प्रतिज्ञा भूलने नहीं देगी। प्रतिज्ञा करो मेरे बच्चे।” दोनों बच्चों ने सिर हिलाकर माता से प्रतिज्ञा की। अन्त में माँ की दोनों आँखें गोल-गोल घूमने लगीं और धीरे से बन्द हो गईं।

जिस तरह ताई रूंगरी नामक कीड़े मिट्टी को खोद-खोदकर घर बनाते हैं, उसी तरह कब्र खोदी गई। आतुम चारुम नामक कीड़ा मरने से पूर्व अपने शरीर को गोलाकार बनाकर सो जाता है— ठीक वैसे ही जैसे की माता पेदूँग के शरीर को ठंडा पड़ जाने से पहले ही मोड़ा गया। तानी ने तब भी माँ का हाथ नहीं छोड़ा था। उसे ठंडा होते हुए देख रहा था वह।

हर चीज गोल है...जन्म और मरण दोनों गोल-गोल घूमते रहते हैं— इसलिए शरीर को उसके प्रतीक के तौर पर ऐसा किया जाता है। इसके बाद श्वेत वस्त्र से उन्हें ढक दिया गया जो शून्य और निर्दोषिता का प्रतीक है। जो दाग वस्त्र में अर्थात शरीर में लगा था अन्त में उसे भी छोड़कर जाना पड़ता है। दोनों दम्पत्ति को लोगों ने पूरे आदर के साथ पुजारी के मन्त्रोचरण सहित मिट्टी में डाल दिया। उनके शरीरों पर अब मिट्टी पड़ने लगी...धीरे-धीरे उनके शरीर मिट्टी के तले छिपने लगे ...वह नन्हां बालक एकटक देख रहा था! मृत शरीरों को मिट्टी में दफनाने के बाद उसके ऊपर पिरामिड के आकार के बाँस की वेदी बनाई गई। बीच-बीच में पड़ाव के भी प्रतीक बनाए गए।

तानी की नन्हीं-सी छाती में कुछ भारीपन-सा होने लगा। सब रोने-चिल्लाने लगे। शोर था, हाहाकार था, सब ओर अफरा-तफरी थी। मृत्यु देखी थी पहले भी कई बार, लेकिन ऐसी न थी। दर्द होता था पहले भी, लेकिन इस तरह न था। रोया भी जाने कितनी ही बार। इस बार के आँसू कुछ और ही थे। कुछ था, जो छाती से होकर गले तक आ गया था, और तूफ़ान की तरह बाहर आने के लिए मचलने लगा था। बड़ी-बड़ी आँखों से जल की बूँदें छलक गईं। लगता था जैसे उसने दर्द से सामना पहली बार किया हो। गहन वेदना थी। कोई शब्द न था। शरीर के पोर-पोर में पीड़ा समा गई थी। कोई विचार न था...बस एक तड़प थी। वेदना जब उथली न हो–वह बहुत गहरी हो तो उसे कह देना असम्भव होता है। माँ का स्पर्श अब स्मृतियाँ बन जाने वाली थीं। ममताभरी गोद अब नहीं होगी। सूर्यपुत्र तानी के रुदन से संसार सन्न रह गया था उस दिन।

माता-पिता के गुजर जाने के बाद उन अनाथ बच्चों ने कई-कई दिनों तक भूखा रहना सीख लिया था। छोटे-से तानी को लोगों ने सारे बुजुर्गों और सूर्य को साक्षी मानकर तानी वंश का सरदार बना दिया। उसमें वह सारे गुण मौजूद थे जो एक सरदार में होने चाहिए। बस कुछ साल प्रतीक्षा करनी होगी उसके बड़े होने तक। बहन दोलियाँग ने अपने सारे पूर्वजों का स्मरण करते हुए मन्त्रोच्चारण किया। चारों दिशाओं से आशीर्वाद माँगा गया।

कुछ यादें ज़हर-सी होती हैं, लेकिन जिन्दा भी वही करती हैं। एक नए आदमी का गर्भ वही तो हैं। स्मृतियों से शक्ति और सबक ग्रहण करना चाहिए, न कि कमजोरी। उनकी हर परिस्थितियों को अपनी शक्ति बना लेना चाहिए। आदमी को कुछ भी बना सकती है स्मृतियाँ! बना सकती हैं तो बर्बाद भी कर सकती हैं। चाहिए बस एक संकल्प–आगे बढ़ना है या पीछे ही लौटना है, अथवा उसी में- अर्थात बीच में– यूँ ही सुस्त हिलते-डुलते अजगर की मानिन्द ठहर जाना है।

तानी बहुत देर तक सोचता रहा। याद करता रहा। पहाड़ों को यूँ ही ताकता रहा। अब बस बहुत हो गया। यूँ ही नहीं बैठा जा सकता। चिन्ता को कर्म में बलना होगा। वैसे भी सूरज कब का ढल गया है। वह तेजी से उठा और कीपुंग के साथ ‘यालंग-पू’ की ऊँची चोटी से उतरकर घर की ओर चलने लगा। उसकी चाल में जैसे बिजली स्वयं समा गई हो। चेहरे पर एक आभा थी अब। नई यात्रा अब प्रारम्भ होने को थी शायद।

2 : जंगली फूल (उपन्यास)

अब नर्बा को भी छोड़कर अपने नए सरदार के साथ आगे बढ़ने लगा काफिला। ऊँचे पहाड़ों से नीचे ढलानों की ओर उतरते गए–कुछ छोटे-छोटे मैदानी इलाके मिलते गए। बगी और बोलों से होते हुए ‘यालंग-पू’ नामक स्थान पर आ गए। इस स्थान में कई वर्ष रहा जा सकता था। इस यालंग-पू की मिट्टी लाल है। इसीलिए दोरिंग चीजिंग ने इसका नाम यालंग पू अर्थात ‘लाल-पहाड़’ रखा था। ज्यादा उपजाऊ नहीं है, परन्तु यहाँ के जंगलों में शिकार काफी मिल जाता है। इस बार भी मकई के खेतों को लम्पट बन्दर चट कर गए, जो बचे थे उसे हाथियों ने सफाचट कर दिया। वे जो हर पहाड़ पर खेत दिख रहे हैं न, वह बस दिख रहे हैं— बिना फसल के खेत। लोगों ने इस बार भी अपने हाथों से गाते-मुस्कुराते हुए फसल नहीं काटी थी।

और तानी आज यालंग-पू में एक बार फिर से इन लोगों को भूख से मरते हुए देख रहा था। अब जबकि खुद जवान हो गया है, लेकिन...। सभी को उसी पर भरोसा है। वह अपने लोगों के लिए कुछ-न-कुछ तो जरूर करेगा। स्वयं भूख से जूझ रहे हों और कोशिश भी बहुत कर चुके हों, लेकिन सब धरे-के-धरे रह जाएँ। स्वयं को ही समझा नहीं पा रहे हों। ऐसे में अपना दर्द किसके साथ बाँट सकता है आदमी। यह पीड़ा असहनीय है।

बड़े भाई रोबो की ईर्ष्या ने कितनी ही बार घर को जलाया। अपनी ही माँ को भी मार डालने की कोशिश की थी उसने–क्योंकि वह तानी पर भी उतना ही स्नेह लुटाती थी जितना उस पर। तानी ने उसकी कोख से जन्म नहीं लिया था, लेकिन फिर भी तानी की माता थी वह। वह रोबो की माँ थी और तानी की बड़ी माँ। रोबो और उसकी पत्नी को लगता था कि उसकी माँ तानी से मिल गई है और उनके खिलाफ षड्यन्त्र करती है। बहन दोलियाँग के साथ मिलकर उसको कहीं का नहीं छोड़ना चाहती है। विवाह के बाद उसके भीतर का अन्धकार दुगुना हो गया। आग में चिनगारी डालना उसकी पत्नी को अच्छी तरह आता था। दोनों मिल गए–ज़हर से जहरीले होते गए। कोई सन्तुलन नहीं था–दोनों ही अन्धकारमय। कुछ विवाह खानदान को तोड़ने के लिए ही शायद किए जाते हैं।

तानी और रोबो की शक्ति चारों ओर फैलने लगी थी। किसी की हिम्मत नहीं होती थी इस कबीले पर हमला करने की अब। फर्क सिर्फ दोनों भाइयों में बुद्धि का था। रोबो कुछ मन्द बुद्धिवाला था, लेकिन शारीरिक तौर पर उससे अधिक शक्तिशाली कोई न था। तानी को अपने बड़े भाई से कोई बैर भावना कभी नहीं थी। बड़े भाई दोदर को भाई तानी से बहुत स्नेह था। कई यात्राओं में वह तानी के साथ गए।

स्थान बदलते रहना जरूरी होता था पेट के लिए। मजबूरी थी। लोग खानाबदोश का जीवन जीते थे। अच्छी उपजाऊ ज़मीन के लिए अन्य कबीलों से भी भिड़ना पड़ता था। एक ही स्थान पर झूम खेती किया नहीं जाता, क्योंकि खार खत्म हो जाते हैं। उसमें फिर से पेड़-पौधों को उगने तथा बड़े होने में समय लगता है। सूरज के सीधे प्रभाव से मिट्टी सख्त रहती है और उसमें झूम खेती के लिए उपयुक्त खार नहीं होते। बड़े-बड़े पेड़ों को काटकर गिराया जाता है। लम्बे समय तक पेड़ों के तले रहने के कारण मिट्टी नर्म और उपजाऊ रहती है। कटे हुए पेड़ और पौधे जब सूख जाएँ तो उन्हें वहीं खेत में ही जलाया जाता है, ताकि उनकी जली राख से ज़मीन और अधिक उपजाऊ बन सके। एक बार उस स्थान का उपयोग हो गया तो उसे छोड़कर फिर नया स्थान खोजना अनिवार्य हो जाता है। लेकिन इतनी मेहनत के बावजूद लोग भूखों मरते थे। धान की खेती अर्थात पानी खेती तो होती नहीं थी; सिर्फ मकई, मड़ुआ, तिल, ककड़ी, कद्दू इत्यादि ही होता था। उनसे कितने दिन और कितनों का पेट भरता!

बड़े भाई रोबो की ईर्ष्या ने उसे शुरू से ही परेशानकर रखा था, अब और ज्यादा बढ़ने लगी। लेकिन तानी को यूँ ही हराना और कमजोर करना इतना आसान नहीं था। साथ रहना मजबूरी थी। खतरे हर तरफ से थे। इसी यालंग पू में ही वे धीरे-धीरे साथ-साथ हँसते-खेलते, लड़ते-झगड़ते बड़े होने लगे। तीनों माँओं ने कभी उनमें कोई फर्क नहीं रखा। एक ही पिता की सन्तान थे आखिर। स्नेह बराबर मिलता था, लेकिन अपनी माँ की छुवन में जो बात होती है वह किसी और में कहाँ। शाम को माँ की यादें बहुत तेज हो जाती थीं, लेकिन जीवन-नदी को बहते रहना ही होता है।

यालंग-पू के सबसे ऊँचाई वाले स्थान पर तानी गाँव बसा हुआ था। कुछ-कुछ दूरी पर एक-एक घर। यहाँ से चारों दिशाओं को देखा जा सकता है। यहाँ तक पहुँचने के लिए दो ही प्रवेश मार्ग हैं। इन मार्गों पर बारी-बारी से किसी-न-किसी को पहरे पर रहना होता था। चारों ओर गहरी-गहरी खाइयाँ। दुश्मनों से बचने तथा उनसे लोहा लेने में आसानी हो–इसके लिए इस प्रकार के स्थानों को ही चुना जाना जरूरी होता था। दोनों ही प्रवेश-स्थान के पास छोटी-छोटी नदियाँ बहती हैं। छोटे-छोटे बच्चों को दिन-भर अपने नन्हें क़दमों से नीचे घाटी की ओर हाँफते-हाँफते पानी लेने चढ़ना-उतरना पड़ता था। बारिश और ठंड के दिनों में उनकी हालत और बुरी हो जाती थी–वह भी जब प्रात: पौ फटने से पूर्व दौड़-दौड़कर नीचे खाई की ओर बिना ना नुकुर के उन्हें जाना ही होता था।

पूर्व की ओर का जो प्रवेश मार्ग था–सामने एक बहुत ही बड़ा और मज़बूत-सा पत्थर, चिर ध्यान में पड़ा रहता था। इसी के ऊपर रात-भर लोग बैठकर पहरेदारी किया करते। पतला, दुबला, नाटा-सा, पिंज नामक एक आदमी, गोरा और बड़ा-सा चेहरा लिये, जो शरीर के हिसाब से सामंजस्य ही नहीं बैठता था। उसकी पहरेदारी की बारी जब भी आती–लोग रात-भर उसका चिल्लाना सुनते रहते, “देख ! देख मेरे इन पैरों के तले, यह पत्थर कैसे पड़ा हुआ है। इसे मैं छोटे-छोटे टुकड़ों में तोड़ सकता हूँ! और वह पिशाचिनी ! मैं बच्चा पैदा कर सकता हूँ। उस शैतान स्त्री ने मुझे तीन साल की सजा दिलवाई थी।” यह कहकर वह अपना धनुष उठा लेता और एक तीर खाली आसमान की तरफ तानकर छोड़ देता था। वह तो आसमान को भी दो भागों में चीर देना चाहता था।वह पत्थर उसके रहमों-करम पर था। कहता था,“बस अपना जी नहीं चाहता टुकड़ों में बाट देने का।” दोनों पाँव को इस तरह पत्थर पर रख देता मानो सचमुच उसे वह तोड़ ही देगा। यह तो उसकी महानता थी कि अब तक उसने उसे तोड़ा नहीं था। “तानी ! तेरा भी असली नाम तानी नहीं, दोन्यी था ! अभी तक सूरज की तरह चमका नहीं तू?” इस वाक्य को हालाँकि वह बुदबुदाकर धीरे-से ही कहता था।

किसी को उस पर गुस्सा नहीं आता था। लोग उसका मज़ा ही लिया करते। अभ्यस्त हो गए थे सब। चुगलखोरी और लोगों को भड़काने तथा झूठ बोलने में उसे महारत हासिल थी। माँ-बाप ने बचपन में नाम कुछ और ही रखा था, लेकिन उसके स्वभाव के कारण उसका नाम जाने किसने ‘पिंज’ यानी चमगादड़ रख दिया था। लोग अब उसके असली नाम को भी भूल चुके हैं। दिन को जब सारे लोग खेतों के लिए निकल जाते, तब किसी-न-किसी की मुर्गी को मुफ्त में मज़े से खा लेता। गालियाँ देने पर कहता, “जंगली मुर्गी थी। अच्छा शिकारी हूँ, किसी की मुर्गी क्यों चुराकर खाता ? ” कभी किसी के गोदाम में किसी तरह घुसकर सूखे मीट को चट कर जाता। पकड़े जाने पर कहता, “बिल्ली खा गई होगी। कुछ भी टूटा-फूटा नहीं, कहीं पर भी। आदमी इस तरह नहीं घुसते गोदाम के अन्दर!” उसकी चोरी की इसी आदत के कारण उसका एक और नाम प्रचलित हो गया था, ‘तासी’ यानी मुर्गी चोर जंगली बिल्ली। कभी पिंज, तो कभी तासी कहकर उसे लोग बुलाते। सभी जानते थे वह कैसा है, लेकिन वह इस तरह बातें बनाता था कि लोगों के पास कहने को कुछ बचता ही नहीं था। बार-बार उसके झाँसे में कोई-न-कोई तो आ ही जाता था।

पिंज तो बदलने से रहा–उसके ऐसा होने को ही स्वीकार कर लेने में सबकी बुद्धिमानी थी। गाँव के कुछ डरपोक लोगों के लिए बहुत मदद हो जाती थी उससे। जब गहन अन्धकार में घर के बाहर पेशाब करने जाना होता था। पिंज की आवाज नीचे घाटी से सुनाई देती रहती। लोगों को तस्सली हो जाती थी कि भूत-प्रेत जब उसे नहीं खाए तो इसका अर्थ है— वे भी बच गए। किसी समय उसकी भी एक पत्नी हुआ करती थी। सुन्दर और जवान। मेहनती और मुँहफट। बच्चे नहीं हुए। लोग कहते थे वह बाँझ है। दिन-रात मेहनत करती लेकिन पति के प्रेम की अधिकारी कभी नहीं रही। रहती भी कैसे? दासी थी। युद्ध से जीतकर लाई गई थी। उसके शरीर का काम सिर्फ पति के शारीरिक प्यास को ही बुझाने का होता था।

एक दिन किसी के साथ पकड़ी गई। हुआ कुछ भी नहीं था। बस वे अँधेरे में कुछ बातें ही कर रहे थे। पिंज के खानदानवालों ने उसे धर दबोचा। दूसरे दिन उसे खानदान के सारे पुरुषों ने रस्सी से एक पेड़ के साथ बाँध दिया। बारी-बारी से लात-घूँसे मारे। तीन दिनों तक भूखी-प्यासी रखी गई और फिर चौथे दिन उसकी योनि में सूखी मिर्ची का पाउडर डाल दिया गया। “तानी ...तानी ...दोन्यी तानी ...बचाओ!” कैसी पीड़ा थी उसकी पुकार में। किसी को दया तक नहीं आई! “ऐसा क्या है उस कमीने में, जिसका नाम हर वक्त लोगों के जुबान पर चढ़ा रहता है? और ये औरतें, यह तो दुःख में, सुख में हर समय तानी का नाम ही जपती हैं!” यह सोचता हुआ सामने खड़े रोबो ने घृणा से उस औरत की तरफ थूक दिया था, “थूह ! चरित्रहीन औरत। इस वक्त तो किसी मर्द का नाम न लेती।”

विवाहित महिला किसी गैर-मर्द के साथ पकड़ी गई तो नर्क से भी बदतर सजा उसे मिलती थी। या तो उसे ऐसे आदमी के साथ बेच देते थे जो उसको पसन्द नहीं होते, या फिर कई-कई दिनों तक उसे भारी-भरकम लकड़ी के साथ बाँध दिया जाता था और उसकी मर्जी के खिलाफ उसके शरीर के साथ कई तरह से खिलवाड़ किया जाता। मददगार को कई तरह के जुर्माने लगते थे। कभी-कभी मार-पीट और खून-खराबे तक की नौबत आ जाती। मर्द कई-कई पत्नियाँ रख सकते हैं। उनके लिए कोई ख़ास सजा तय नहीं है।

कई दिनों की “न्येम-न्येपा” यात्रा से तानी अपनी बहन दोलियाँग और कुछ लोगों के साथ बहुत सारा नमक लेकर लौटा था। सोचा था, अपने लोग कितने प्यार और मुस्कान के साथ उनका स्वागत करेंगे। और यहाँ यह सब कुछ घट चुका था। लोग स्वागत को जमा तो हुए–लेकिन सिर झुकाए! “भैया, वह आपका नाम लेकर बहुत रोई और चिल्लाई भी थी। इन लोगों ने उसे बहुत-बहुत मारा!” पिंज के खानदानवालों की ओर उँगली करता हुआ एक बच्चा हाँफ-हाँफकर कहता जा रहा था। तानी को उसकी चीखें चारों ओर सुनाई देने लगीं। बिल्कुल वैसे ही रोई-चिल्लाई होगी, जब किसी पर अचानक कोई दुश्मन हमला कर देता है और सारे मर्दों की हत्या करने के बाद औरतों के केशों को पकड़-पकड़कर उन्हें खींच-खींच कर अपने यहाँ ले जाया जाता है।

कितनी ही मुसीबतें थीं, जिन्हें हल करना था। यहाँ ये लोग इस तरह के कामों में व्यस्त थे। किसने किसको सुलाया? क्यों सुलाया? बदले में कितने मिथुन या अन्य सामान मिले? यह पहाड़ मेरा, वह पहाड़ तेरा। यह पेड़ मेरा, वह पेड़ तेरा। नदी का यह भाग मेरा, वह भाग तेरा। यहाँ से कोई लकड़ियाँ नहीं ले सकता, और न ही शिकार कर सकता है। इस तरह के झगड़ों से तानी और दोलियाँग तंग आ चुके थे। यही झगड़े अन्य कबीलों से भी लड़ने पड़ते थे सो अलग। दोनों का सपना था— एक विश्राममय समाज का निर्माण करना। खानाबदोशी जीवन से अलग–एक ऐसा देश हो, जहाँ लोग हमेशा के लिए ठहर जाएँ। लहलहाते खेत हों। नाचते-गाते लोग हों। सारे लोग हर प्रकार के भय से मुक्त हों। और भी बहुत कुछ। लेकिन लोगों को इसके लिए संकल्पनिष्ठ तो होना ही होगा न!

तानी के कोप का भाजन पिंज और उसके खानदानवालों को अच्छी तरह भुगतना पड़ा था कि उन्हें पूरे तीन सालों के लिए कबीले से अलग कर दिया गया। इसकी घोषणा बड़े जोरदार तरीके से की गई। अपने लोगों से दूर किसी जंगल में अकेले रहना–वह भी कम संख्या में। डर क्या होता था, इसका तो हम सिर्फ अनुमान ही लगा सकते हैं। इन सजा के दिनों में कोई भी उनसे नहीं मिल सकता था, और न ही वे उनसे मिल सकते थे। यह तानी का नया फरमान हुआ। किसी कबीले के यहाँ भी, कहीं भी सहारा नहीं ले सकते थे वे। तानी से दुश्मनी लेने की हिम्मत किस कबीले में थी।

सुना है पिंज की पूर्व पत्नी अन्य कबीलेवालों के यहाँ बहुत खुश है। पति उससे बहुत बूढ़े हैं तो क्या हुआ–शान्ति तो है। और अब उसने एक पुत्र भी पैदा कर लिया है।

3 : जंगली फूल (उपन्यास)

एक दिन सारे लोग गाँव में एक साथ मौजूद थे। दिन ढलने लगा था। पहाड़ की ओट में कुछ ही देर में सूरज छिप जाने वाला था। इस समय जंगल के उन सारे हरे दिखते पत्तों में कुछ पीलापन-सा उतरने लगता है। सुनहरे-सुनहरे, जैसे कोई असीम प्रेम से भरकर अपनी तरफ खींच रहा हो। पतझड़ में जब ये सारे पत्ते हवा में हौले-हौले तैरते हुए नीचे उतरते हैं। एक उम्र जैसे बीत गई। एक यात्रा पूरी हुई। एक दर्द-सा उतरता है। नीचे ज़मीन पर पड़े उन असंख्य सूखे पत्तों की मर्मर की ध्वनि–एक मीठी वेदना को जन्मती है। तानी ने जाने कितने गीतों की रचना की थी, उन जंगलों में खड़े पेड़ों के शाखाओं पर बैठकर।

उधर पश्चिम दिशा से–दो लोग–दूर से आ रहे थे। उन पर सूरज की चमकीली किरणें पड़ रही थीं। वे चमक रहे थे। और वे नज़दीक आते जा रहे थे। छोटे कद-काठी, छोटी-छोटी आँखें, छोटी नाक, गोरा रंग। लम्बे बालों को सिर के ठीक ऊपरी भाग में गोल और करीने से बाँधे। कन्धों पर धनुष लटकाए। घुटनों तक लम्बे चोंगानुमा वस्त्र पहने, दो व्यक्ति इस ओर तेज-तेज क़दमों से आ रहे थे। बच्चे दौड़-दौड़कर देखने लगे। कुछ लोगों ने हथियार सँभाल लिये। तीर को कमान में चढ़ाए यहाँ-वहाँ सही स्थानों पर खड़े हो गए। औरतें किसी अनहोनी से डर कर एक-दूसरे की ओर शंका से बिना कुछ कहे ताकने लगीं। लेकिन ज़रा ठहरो तो।

ओह ! ऐश्वर्य सम्पन्न लोग हैं। देखो उनका शरीर! कैसे सुन्दर वस्त्र से ढका हुआ है। प्यामी-प्यालंग (लाल-नीले चटख रंगों) से बुने वस्त्र। सुन्दर फूलों की कारीगरी। ज़रा पास जाकर देखें। वे हसरत भरी नज़रों से उनके कपड़ों को देखने लगीं। छूकर देखना चाहती थीं वे उन्हें। तानी ने सबको शान्त रहने के लिए इशारा किया। कमर पर दोनों हाथों को रखे, दोनों मज़बूत जंघाओं को एक-दूसरे के कुछ दूरी पर फैलाए हुए, प्रश्नवाचक मुद्रा में खड़ा हो गया वह। औरतें पीछे हट गईं। नंग-धड़ंग बच्चे, धक-धक करते धड़कनों को रोके यहाँ-वहाँ से झाँक-झाँककर देखने लगे। उन्होंने झुककर, शान्त शीतल, मित्रता भरी मुस्कान के साथ ठीक तानी के सामने आकर उसे सम्मान दिया। कैसे नहीं पहचान जाते उसे। सबसे अलग दिखता था वह। तारों भरी रात में अकेला अन्धकार को दूर करता चमकते उस चाँद को। हर भाव को पढ़ लेने की आँखों में अद‍्भुत शक्ति थी जिसकी। बिन कहे बहुत कुछ कह देने वाली चमत्कारी आँखें। जिसके मस्तक की आभा से कोई भी प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता था।

मदद माँगने आए थे वे यहाँ। तानी कबीलेवालों के सीने में गर्व का भाव हिलोरें लेने लगा। जिनको कोई कमी नहीं, धन-धान्य से परिपूर्ण हैं। वही लोग गरीब तानी से मदद माँगने आए थे। तानी वंश के लोगों के दिलों में पहली बार मालिक का-सा भाव जागा। आँखें सबकी चमक गईं। खुद को पहली बार बहुत ऊँचा महसूस किया उन लोगों ने।

मेहमान का बहुत ध्यान रखा गया। कोई भी कमी नहीं रखी! बस, दूसरे दिन वे तानी लोगों के मर्दों की तरह कपड़े पहने हुए थे। हाय, कितने घने, काले और लम्बे केश थे उनके। काले बादल-सा कन्धों पर पड़े हिलडुल रहे थे। उनके सारे कपड़े औरतों ने आधे-आधे बाँट लिये थे। किसी बच्चे के शरीर पर आधा कपड़ा झूल रहा था, किसी के शरीर पर आधा, किसी औरत के बालों में कुछ लटक रहे थे तो किसी में कुछ। कोई फूले नहीं समा रही थी, तो कोई हँसी के मारे कुछ बोल नहीं पा रही थी। शर्माते, सकुचाते, खी-खी करते भले मानुस–दोनों फिर भी खुश थे। उनकी यात्रा सफल जो रही थी। तानी मान गया था उनके साथ चलने के लिए, हालाँकि कुछ शर्तें थीं जिन्हें काम पूरा हो जाने पर उनको पूरा करना था।

कहते हैं एक ऐश्वर्य-सम्पन्न, शक्तिशाली कबीला था–मैकार-मैंरांग नामक स्थान पर। वहाँ तक पहुँचने के लिए यालंग पू से लगभग पन्द्रह से बीस दिन लग जाते थे। लोग टेड़े-मेढ़े, आड़े-तिरछे और उतार-चढ़ाव भरे पहाड़ी रास्तों से कई-कई दिनों तक पैदल चलकर अपनी यात्रा पूरी करते थे। यह जोखिम भरे होते थे। बीच-बीच में पड़ाव–लोग वहाँ कुछ देर ठहरते, या फिर रात बिताते और आगे चल देते। मांसाहारी जानवरों का खौफ बना रहता था। लूटेरे कबीलों की भी कमी नहीं थी। जान हथेली पर हर समय रखनी पड़ती थी। कुछ भी हो, चलना तो था ही ...।

लोग कहते थे, तानी के घुटनों में जादू है। हवा की वेग से चलता था। वायु-पुत्र यूँ ही नहीं कहलाता था वह। पन्द्रह दिनों की यात्रा को पाँच दिनों में पूरा करने की ताकत थी उसमें। दुश्मनों से लोहा लेने और उन्हें बेवकूफ बनाकर रफ्फू चक्कर हो जाने में महारत हासिल थी उसे। किसी की हत्या करने के बजाय उन्हें चालाकी से बेहोश कर देता था और गायब हो जाता था। जानवरों का खौफ उसे कभी नहीं था, क्योंकि वह उनकी भाषा समझता था। हर पड़ाव पर कोई-न-कोई जंगली मित्र मिल ही जाता था। उसको किसी हथियार की आवश्यकता ही नहीं होती थी। फिर भी तीरन्दाजी में कोई सानी नहीं था। पक्का निशानेबाज था। लेकिन उसके साथ चलने वालों की कयामत आ जाती थी। इसी के चलते अधिकतर वह अकेला ही चलता था। अपने लोगों के लिए कई तरह की चीजें लाता था। कई तरह के बीज वही तो लाया था। उन्हें कैसे बोया जाए, इसकी जानकारियाँ भी साथ-साथ लेकर आता।

पिंज के साथ उन दोनों लोगों को दस दिन पहले ही आगे निकल जाने को कहा। बगी-बोलो नदी के पास उन्हें उसकी प्रतीक्षा के लिए कहा गया। क्योंकि वहाँ से कई रास्ते चौराहों में बँट जाते थे। वहाँ तक तानी कई बार जा चुका था, लेकिन मैकार-मैंरांग कभी नहीं गया।

ताप मैकार नाम का एक आदमी था–मैकार-मैंरांग में। वह बड़ा ही अजीब किस्म का था। भारी-भरकम शरीर, शक्तिशाली लेकिन मन्दबुद्धि। पेट उसका निकला हुआ। मोटी नाक। चेहरा बहुत बड़ा, उस पर बेहद छोटी आँखें–जो होकर भी नहीं होने का आभास देती थीं। लेकिन छोटी आँखें भी उतना ही देख सकती हैं जितना बड़ी आँखें देखती हैं। होंठ बेडौल और मोटे। लोग उसे उल्लू कहकर चिढ़ाते। रात-भर जागता था। गाँव से दूर वीराने में एकदम अकेला रहता था। कई दिनों तक अगर वह गाँव में नहीं आता था, तो लोगों को उसके होने का भी अहसास नहीं होता था। मानो वह था ही नहीं कभी। उसे लोग खूब छेड़ते थे। इस बात से वह बहुत ही अधिक चिढ़ जाता था। ऐसे में वह ऐसी हरकतें करता था, जिसे देख कर लोगों की हँसी छूट जाती थी। बहुत अधिक गुस्सा आता था उसे। बहुत ही कम बोलता था। उसे बच्चों से सख्त नफरत थी; क्योंकि वे उसे बहुत ही ज्यादा छेड़ देते थे और खी, खी, खी कर हँस भी देते थे। माता जिमी और पिता जमा हर किसी को कोई-न-कोई रूप देते हैं— जो सबसे भिन्न होते हैं। लोग उसका मजाक फिर भी उड़ा ही देते हैं। ‘मजाक उड़ाना हो तो उसका उड़ाओ जिसने मुझे ऐसा बनाया’, ये कहकर कभी-कभी वह रो देता था। गाँव में बहुत दिनों के बाद दिखता था। उसे कुछ जरूरत होती–नमक, कपड़े इत्यादि–तो ही आ जाता था।

प्यारी-सी एक लड़की थी गाँव में–यासी मैंरांग। बहुत अच्छा नाचती थी। पिछले साल के त्यौहार में उसे नाचती देख ताप का दिल तब से डोलने लगा था। जीवन में पहली बार उसने अपने दिल की धड़कनों को बहुत नजदीक से सुना–धुक...धुक...धुक। चेहरे पर गुलाबी रंगत फ़ैल गई। कैसा अहसास था....कैसी खुमारी थी! एक अनजाना नृत्य–मानो उसके गर्भ से जन्मना चाहता हो। किसके साथ बाँटता इस मस्ती को वह। उसकी आँखों में आँसू आ गए, ‘माँ’, उसने धीरे-से माँ को पुकारा था। कैसी बेबसी थी उसकी पुकार में। जैसे माँ आएगी और खिलौनों की तरह इस प्यारी लड़की को उठाकर उसके हाथ में दे देगी। जब से होश सँभाला उसने अपने माँ-बाप को देखा नहीं था। जिसे कभी देखा भी नहीं होता...उसकी–जिसका स्पर्श आदमी महसूस कर सकता है— वह सिर्फ माँ ही तो है। उसकी यादें भी साथ होने का अहसास देती हैं।

गाँव में घर-घर रहकर काम किया करता और खा-पीकर सो जाता। धीरे-धीरे लोगों के मजाक का केन्द्र बनता गया। उसे देख-देखकर लोग ठहाके लगाते रहते। भीड़ में उसका मज़ाक उड़ाया जाता। इससे तो अच्छा था–कहीं इन सबसे दूर, किसी वीराने में नितान्त अकेला ही वास करता। एक दिन यासी अपनी सहेलियों के साथ जंगल में लकड़ियाँ बीनने जा रही थी। हिलता-डुलता भारी-भरकम शरीर लिये ताप भी इसी ओर ही आ रहा था। यासी को अपनी तरफ आकर्षित करने के कई-कई नाकाम तरीके वह पहले भी अपना चुका था। और इस बार ऐसा क्या किया जाए कि वह शरमाकर मुस्कुरा ही दे। उसने उन लड़कियों का रास्ता रोका। यासी की तरफ तिरछी नजर से देखता हुआ, उसने एक न पसन्द आने वाली हँसी हँस दी। वैसे भी लड़की कब से चिढ़ी हुई थी उससे। लोग मजाक-मज़ाक में उसे उसके साथ छेड़ देते, तो उसका जी चाहता कि वह खुद को ही मार डाल ले और अब ये यहाँ रास्ता रोके खड़ा है।

रास्ते के दोनों किनारों पर कई लोग थे–वे अपने-अपने बागानों में काम कर रहे थे। उस दिन आकाश साफ़ था। इधर-उधर कुछ श्वेत आवारा बादल दौड़ते फिर रहे थे। चहल-पहल थी। लोगों की हँसी-ठिठोली सुनाई दे रही थी। धीरे-धीरे बहती फुसफुसाती हवा; बड़ी मीठी लग रही थी। इतनी गर्मी भी नहीं, और न ही वैसी सर्दी जिसे सहा न जाए। अचानक ताप मैकार नाचने लगा। हो... हो... हाय... हाय... ला... ला ...हय्या ...हय्या। सबकी आँखें फटी-की-फटी रह गईं। यासी को अपने होने पर ही घृणा-सी होने लगी। सुबुक-सुबककर रोने लगी। क्या वह इतनी गई गुजरी है कि कोई सामान्य लड़का उसे पसन्द नहीं कर सकता? यह आदमी कितना भद्दा लग रहा है। उसका गाता हुआ यह मुँह। त्वचा नहीं–कोई हिलता-डुलता कपड़ा हो। छी छी! शरीर का सारा हिस्सा इस तरह हिल रहा है, मानो आदमी नहीं कोई मोटा-तगड़ा सूअर हो। और तो और वह जोर-जोर से कूद-कूदकर नाचने लगा। लोग कुछ देर के लिए हक्के-भक्के रह गए। हो क्या रहा है? लड़कियाँ डर के मारे चीख-पुकार मचाती हुई इधर-उधर दौड़ने-भागने लगीं। उसके कूदने से धरती मानो हिलने लगी थी।

वह इतना मजेदार लग रहा था कि लोग खुद को रोक नहीं पाए। सारी वादी ठहाकों से गूँज गई। ताप पहले तो समझ नहीं पाया कि इसमें हँसने की क्या बात है? ठहरकर चारों ओर देखने लगा–ओह, ओह! कितने सारे लोग उसे देख-देख कर हँस रहे थे। उसे होश ही नहीं रहा कि रास्ते के दोनों किनारों पर कितने लोग थे। यासी को देखा कि कोई दूसरा और नजर ही नहीं आया था। फिर उसने देखा लड़कियाँ मौका पाकर कब की यहाँ से भाग गई हैं। नहीं, नहीं, नहीं ...बस करो अब तो। बचपन से सबकी हँसी का ही पात्र क्यों? आज भी? वह भी उस लड़की के सामने। अब तो यासी कभी नहीं मानेगी ...कभी नहीं।ताप ने ऐसी जोर की दहाड़ लगाई–घाटी हिल गई। पहाड़ हिल गया। ऐसा तो कभी नहीं दहाड़ा था वह। भीमकाय हाथी को भी एक अदना-सा आदमी अपनी बुद्धि से, अपने इशारों पर नचाता है, लेकिन कभी-न-कभी वह भी खतरनाक हो सकता है। यह भी उसी तरह का ही इन्सानी शरीरवाला हाथी था, जिसे लोगों ने न जाने कब से अपने इशारों पर नचाकर रखा था। लकड़ी काट दो–नमक मिलेगा। पानी ला दो, कपड़ा मिलेगा। खेतों में घास छिल दो, तो दारू मिलेगा। लेकिन अब, अब वह बेकाबू होने को था। हाथी के पागल होने का समय आ चुका था।

अभी-अभी तो हँसी-ठहाकों की आवाजों से ये वादी प्रसन्न थी। हवा थम गई...नदी जम गई ...गाँव सन्न रह गया। उसने छोटे-छोटे बच्चों को भी नहीं छोड़ा। उनके शरीरों को दो-तीन भागों में बाँटकर इधर-उधर बिखेर दिए। जैसे मुर्गी के गले को मरोड़कर मार डाला जाता है। उसने इतने लोगों को मार डाला। कइयों का शरीर अब भी अधमृत छटपटा रहे थे। किसी के सिर धड़ से अलग, किसी का एक पाँव यहाँ, तो दूसरा वहाँ। उसने बिना हथियार के ही अपने हाथी के सूँड़नुमा हाथों से ये सब कुछ कर डाला था। कुछ लोग डर के मारे ही मर गए। जिस तरह पहाड़ों में बर्फ की नदियाँ जम जाती हैं; आज यहाँ खून की नदियाँ जम गईं। तीर-धनुष किसी काम नहीं आए। अचानक भयानक आतंक मच गया। लोगों के अन्दर डर इस कदर समा जाता है कि सारा शरीर ढीला पड़ जाता है। लगने लगता है— अब तो इससे कभी नहीं लड़ सकते। वीभत्स दृश्य था उस दिन का।

अब गाँव में जितने भी लोग बचे थे, एक सप्ताह में एक मौत। उसने उन्हें एक-एक करके मार डालने का संकल्प लिया। सबने सुना। सब कुछ यहाँ, इसी गाँव में था उन लोगों का। खेत, खलिहान, पूर्वजों की यादें, और न जाने क्या-क्या। कितनी मुश्किलों से इस स्थान की रक्षा वे करते आए थे। सरदार बहुत निराश हो गए। लड़की से भी अब ताप ब्याहने को तैयार नहीं था। बस खून का प्यासा हो चुका था वह।

कुछ भी हो, लोग अपनी इस उपजाऊ ज़मीन को छोड़कर कहीं भी जाना नहीं चाहते थे। कितने ही दुश्मनों की नज़र थी इस पर। और इस तरह चलता रहा तो इसे वे ज़ल्द ही हाथ से धो बैठेंगे। पुजारी के अनुसार ताप मैकार के अपने ही गाँव वाले उसे मार नहीं सकते थे। मार दिया कि प्रलय आ जाएगा। मुर्गी के अंडों को हाथ में लेकर पुजारी ने मन्त्र फूँक-फूँक भविष्यवाणी की थी। ताप के खून से किसी का हाथ रंग जाए तो धरती क्रोधित हो उठेगी। अनाथ आदमी है, माता सूर्य की कृपा उसके साथ रहती है। इधर कुआँ और उधर खाई। इसके लिए तानी की मदद लेना आवश्यक हो गया था। उसी के हाथों इसकी मृत्यु लिखी जानी चाहिए। तानी को लोग जादूगर की तरह मानते थे। वह कुछ भी कर सकता है।

कई दिनों की यात्रा के बाद तानी, कीपुंग, पिंज और उन दो लोगों के साथ वहाँ उस गाँव में सुबह-सुबह ही पहुँच गए। रात-भर सोए नहीं, चलते रहे थे वे। अजीब आदमी था तानी। समाज जिन्हें इनकार कर देता, या जिसके होने को लोग बेकार समझते थे–उन्हीं को अपनी यात्रा का साथी बना लेता था। रात-दिन जो उसके प्रति गालियाँ बकते थे; वही उसकी लम्बी यात्राओं के हमसफर होते। उन्हीं पर तानी का असीम स्नेह भी बरस जाता था। वक्त आने पर ऐसे ही लोग तानी के लिए जान देने को तत्पर रहते। ये सब लोगों की समझ से बाहर था। कितने लोगों की इच्छा होती थी–वे भी तानी के साथ जाएँ। लेकिन सब मन मसोसकर रह जाते।

सुन्दर-सुन्दर और मज़बूत घर। तानी लोगों के घरों से बहुत ही भिन्न। घर दूर-दूर नहीं थे, पास-पास थे। एक सुन्दर अनुशासन उनमें नजर आता था। दूर तक फैला मैदानी इलाका था। कुछ आगे जाकर पहाड़ शुरू हो जाता था। सारे लोगों के शरीर कपड़ों से ढके हुए थे। कितने सम्पन्न लगते थे वे! लोगों ने बीच गाँव में ही तानी को घेर लिया। सरदार भीड़ से उन्हें बड़ी मुश्किल से निकाल लाए और अपने घर पर उनका जोरदार स्वागत किया।

सरदार की ख़ूबसूरत बेटी आसीन मैंरांग ने शर्माते हुए तानी के खाने-पीने का ख्याल रखा। आह, क्या रूप है गरीब तानी का! अधनंगा है वह ...लेकिन नज़रें जैसे उससे हटना ही नहीं चाहतीं। रूप भी क्या चीज होती है...आँखों ने देखा नहीं कि दिल में उतर ही जाता है। लेकिन उफ़्फ़ ! यह कैसा बेदर्द आदमी है। एक नजर देखता तक नहीं।सीने में कुछ मीठा-सा दर्द उठने लगा है। किसी-न-किसी बहाने वह तानी को अपनी तरफ आकर्षित करना चाहने लगी। क्या माँ-बाप की नज़रों से अपनी औलाद की कोई इच्छा छिप सकती है। वह भी माँ की नज़रों और दिल से। नहीं, कभी नहीं।

पिंज कहीं गायब हो गया। पता नहीं कहाँ चला गया? किसी ने कहा, “अरे, लेकिन यह तानी का साथी कहाँ चला गया? कहाँ गायब हो गया? अपने साथी का हाथ पकड़कर ही चलना चाहिए भीड़ में। वह भी जब अनजान जगह हो। नादान आदमी, कहीं ताप के पास ही चला न गया हो। ख़ामख़ाह लेने के देने न पड़ जाएँ!” लोग परेशान होने लगे। ‘आप लोग परेशान न हों, वह कहीं-न-कहीं सुरक्षित ही होगा। गाँव में ही कहीं होगा वह। कल सुबह तक वह यहाँ आ ही जाएगा,’ यह कहकर तानी इत्मीनान से मुस्कुराने लगा।

एक बुजुर्ग महिला थी उनमें। उसकी आँखें बहुत कुछ कहती थीं। आकाश की गहनता उनमें थी। खामोश; लेकिन मौन। खालीपन नहीं था उनमें। भीड़ में तानी को ताकती थी– जैसे कुछ बताना चाहती हो। यह आँखें उन्हें और उन्हीं से बोलती हैं, जो शब्दों से अधिक गहरे होते हैं ...जिनको सुनना है वे सुन लेते हैं। सुन लिया कि कयामत आ गई...मरकर जी उठने की चाह जगने लगे। बस, सुनना आना चाहिए। तानी को उनका शरीर नहीं, बस वे दो आँखें ही दिखीं। एक सन्देश पा गया। तो क्या सृष्टि ने तानी को यहाँ इसलिए भेजा ताकि वह इन दो बोलती आँखों से मिल सके? शायद ...।

ताप उस आदमी का पुत्र था, जिसे इस वर्तमान सरदार ने धोखे से मार डाला था। उसके पूरे खानदान को खत्म कर दिया था उसने। सारी ज़मीन और जायदाद अपने नाम कर ली थी। इस बच्चे को दूर जंगल में फेंक दिया गया था; लेकिन इस पिशाचिनी औरत ने उसे पालकर बड़ा किया। इसी की आँखें तानी की आँखों से इस तरह मिल रही हैं, मानो उसने सदियों तानी का ही इन्तज़ार किया हो। आज यह बूढ़ी हो गई है। इसी सरदार की बड़ी बहन है यह। इसने कभी विवाह नहीं किया। ताप के पिता से प्रेम करती थी। इसी कारण उसका भाई नाराज हुआ। दोनों परिवारों में दुश्मनी के चलते दो दिल अलग हो गए। फिर लड़के का ताप की माँ से विवाह कर दिया गया, लेकिन यह आजीवन अकेली रह गई। चमत्कारी बात यह थी–उसके भीतर अकेलापन कभी नहीं था, लेकिन ताप के लिए चिन्ता में घुलती रहती थी। ताप को कुछ भी हुआ तो वह अपनी जान दे सकती थी। वह आत्महत्या कर लेती तो कितनी बदनामी होती। यह खानदान के इज्जत का भी सवाल था। इसलिए उसकी बात माननी पड़ी। लेकिन पाँच साल की उम्र हो जाने के बाद ताप को घर से निकाल दिया गया। दर-दर भटकने के लिए। वह पालनहार माँ छुप-छुपकर भोजन देने के सिवाय कुछ नहीं कर सकी उसके लिए। बात न मानने पर ताप की जान ले ली जाती। बेबसी हमेशा उन्हीं लोगों से मिलती है, जिन्हें हम अपना मानते हैं। दिल वही तोड़ता है, जिनसे हम प्रेम करते हैं। वही जिनके लिए लगता है कि वह हमें समझते हैं—वही जीवन-भर नहीं समझ पाते। सर्वाधिक दूरी का अहसास भी उन्हीं अपनों से ही मिला करता है।

उन लोगों ने ताप की यह पूरी कहानी तानी को नहीं सुनाई थी। जितना अपने मतलब का था, वही सुना दी गई थी। सब कुछ सुन लेने के बाद तानी ने उन दो बूढ़ी आँखों की तरफ देखा और कहा, “कोई मेरे पीछे न आए। मैं अकेला ही ताप को देखने आज ही जाना चाहता हूँ। मेरे साथ कोई मेरी चाल से चल भी तो नहीं सकता। मेरा काम करने का ढंग अलग है। मुझे किसी की मदद नहीं चाहिए। मैं अपने तीर-धनुष के अलावा किसी और के हथियारों का प्रयोग भी कभी नहीं करता। मैं ताप को बहाने से फुसलाकर गाँव में लाता हूँ, और आप सबके सामने उसको उसके पूर्वजों के पास पहुँचाता हूँ। लेकिन आप लोग ताप के उस भीमकाय मृत शरीर को रख कर, कहीं दूर जंगल में छोड़ आने के लिए मज़बूत लकड़ियों को तैयार रखना–ताकि उसे लुढ़का-लुढ़काकर ले जा सकें। मेरा आप लोगों से अनुरोध है कि उसके शरीर को कोई भी हाथ न लगाए। मेरे लिए इतना तो कर ही सकते हो।”

लोगों के पास और कोई चारा नहीं था। उन्हें मानना ही पड़ा। उन लोगों को तो उसका मृत शरीर ही देखना था। वैसे उसने कई बार दुश्मनों से उनकी रक्षा की थी। तो क्या हुआ। उसने इतने लोगों की जानें ली हैं। उसको मरना ही होगा। उसके मृत शरीर को दफनाएँगे नहीं–चील-कौवों को चीर-फाड़कर खाने देंगे। उसकी आत्मा अपने पूर्वजों से न मिल पाए–कोई अन्त्येष्ठी नहीं की जाएगी उसकी।

बहुत ही घना था वह जंगल। वीरान। आदमियों के भीड़ से बहुत दूर ...लेकिन जीवन से भरपूर। सूरज की किरणें अधिकतर ज़मीन के भागों को छू नहीं पा रही थीं। आसमान से परी-सी उतरती उन किरणों को छूने की चाह में, शायद कई पेड़-पौधे इतने ऊँचे हो गए थे। बहुत सारे भिन्न-भिन्न आकृतिवाले सुन्दर-डरावने पेड़। उनमें कभी न सुनी गई पंछियों की आवाजें थीं। साँप, केंचुए, केकड़े, मच्छर, जोंक। इन सबसे बचना तानी का बाएँ हाथ का खेल था। सामने आकाश छूते पहाड़ से श्वेत निर्दोष बादल-सा घिरता झरना। उसके किनारे-किनारे जहाँ-तहाँ कई रंग के खिलते सुन्दर फूल। ये कौन चित्रकारी करता रहता है!

जंगल है या कोई सजी हुई दुल्हन! आज कोई आँखवाला आया था, यहाँ वर्षों बाद। वहीं पर घास-फूस और लकड़ियों से बना, ताप का मचान-नुमा छोटा-सा घर। उसके प्रवेश-द्वार पर मच्छर से बचने के लिए जलाए गए सूखे पौधों से उठता धुआँ; मानो उसके सीने में जलता हुआ कोई दर्द हो। कोई साथी नहीं। बिना बोले कैसे जीता होगा? लगता था, अपने शरीर से ही अलग होकर, वह कहीं अपनों के इन्तज़ार में जाने कब से तड़प रहा है। तानी की आँखों से अमृत बरसने लगा। उसने अपनी दोनों आँखें मूँद ली और अपने हृदय को खोल दिया। उनसे शब्दों के रूप में बरस जाने वाला ऊद गीत गाने लगा। उसके गाने में पुकार थी, किसी उस अपने के लिए ...सीने से लगाने की चाह थी उसमें–

कब से ये बूँद ढूँढ़ती है तुझको प्यारे
मिलने को रूह से तेरे, तरसता है कौन
स्वरों में, शब्दों में, गीत घोलता है कौन
बिखर गया है तू, बिखरा हूँ मैं भी देख
कौन आँखों से तेरी, मेरी बरसता है देख ...

जैसे वहाँ खड़े सारे पेड़-पौधों ने सुन लिया। ज़मीन पर पड़े सूखे पत्ते उड़ने लगे। ऊपर उन शाखाओं पर लहराते पत्तों की पाजेब बजने लगी। पंछियों ने अपने सुन्दर पंखों को फड़फड़ाकर उसके सुर से सुर मिलाया। दूर कहीं हिरन के बच्चे की रोने की आवाज–माँ को पुकारता थी वह। हवा ने झोंपड़ी के भीतर लेटे हुए, ताप के कानों में हौले से कुछ कहा। जैसे भूला हुआ कोई अपना ...कहीं गहरे में सो गई वह यादें... फिर से जग गईं। प्रेम ने उसको छोटा और मासूम-सा बच्चा बना दिया। उसने कहा, ‘तानी’, और फिर दौड़ गया उस ओर। उसने जाने कितनी ही बार तानी के बारे में सुन रखा था। और अब दोनों इस तरह मिले जैसे सदियों से एक-दूसरे को पहचानते हों। देर तक दोनों के बीच बातचीत हुई। तानी ने उसे बहुत अच्छी तरह अपनी बातें समझाईं और अन्त में कहा, ‘अच्छा अब मैं चलता हूँ। कल ठीक उस समय आना, जब सूरज सिर पर हो। कोई गड़बड़ी मत करना।’

दूसरे दिन–सूरज सिर पर आ गया था। ठीक समय पर लम्बे-लम्बे डग भरता हुआ ताप इस ओर आ रहा था। लोग साँस रोके अपने-अपने घरों के छेदों से उन्हें देखने लगे। कैसा भीमकाय हाथी-सा शरीर है उसका। आज वह अन्य दिनों के मुकाबले कुछ अधिक मोटा लग रहा था। उसने अपने ऊपर जानवर की मज़बूत खाल पहन रखी थी। पेट तो कुछ ज्यादा ही निकल आया था आज।

अजीब-सी खामोशी थी गाँव में—मानो सब-के-सब गाँव छोड़कर कहीं चले गए हों। गाँव उदास और वीरान हो गया हो। अचानक उधर से कोई लड़खड़ाता, चिल्लाता सामने के घर से बाहर निकला, “शैतान ! तूने क्या समझ रखा है खुद को? मेरा भाई तानी अब तेरे हजार टुकड़े करता है”, यह कहकर पिंज लड़खड़ाता हुआ सामने के नाले में गिर गया। कुछ देर को ताप और तानी, दोनों सकपकाए। इसे क्या हुआ है? यह तो उनकी इस योजना में शामिल नहीं था। लोगों ने सोचा, शायद यह भी तानी की ही कोई चाल हो–ताप को फँसाने के लिए। दरअसल, पिंज नशे में था। तानी कोई ऐसी चीज खाता या पीता नहीं था, जिसे उसने कभी जाना नहीं होता। लोगों के आग्रह करने पर भी उसने ‘ओप्पो’ पीया नहीं था। उसने पहली बार किसी को नशे में देखा। बड़ा मजेदार लगा उसको यह। आदमी को अपने शरीर पर ही काबू नहीं होता। हद है।

तानी ने ताप के पेट में कई तीर दनादन दाग दिए। पूरी तैयारी के साथ आया था ताप। उसके पेट में छिपाए गए जंगली फलों से लाल रक्त बह निकला। ताप गाँव के बीचो-बीच धराशायी हो गया। उसके गिरने से जोर की आवाज आई धरती से। नज़दीक जाकर तानी ने ताप से धीरे-से कहा,“कीपुंग के गले में हथियार है। वह तुम्हारे साथ जाएगा। दोनों बगी-बोलो नदी के किनारे, उन चौराहों पर मेरी प्रतीक्षा करना। अपना ख्याल रखना।” यह कहकर उसने ताप के दोनों कानों के नीचे अपनी उँगलियाँ कुछ इस तरह से घुमाई कि ताप बेहोश हो गया।

लोग पहले तो साँसें रोके तानी की सारी प्रक्रिया देख रहे थे–फिर सारे लोग–हो...हो ...हो ...की विजय ध्वनि के साथ, अपने-अपने ठिकानों से बाहर निकल आए। प्रसन्नता से चीखने-चिल्लाने लगे वे। “कितना दु:खदायी है! लोग प्रसन्न हैं किसी अपने की ही मौत पर। मैं कौन हूँ? ताप मेरा क्या लगता था? मेरे हृदय में उसके लिए पीड़ा क्यों उठी? कौन-सी डोर से बँधे हैं हम?” तानी अपने-आपसे बातें करने लगा। उसका शरीर काँप-सा गया। ‘‘तानी, शर्त के अनुसार तुम कुछ भी माँग सकते हो। अब से मेरे लोग कभी तुम पर आक्रमण नहीं करेंगे। मेरी बेटी आसीन मैंरांग तुम्हारी हुई। आज से तुम दामाद हुए मेरे। हम रिश्तेदार भी हो गए। माजी-तालो, आभूषण सब तुम्हारे। माँगो, और क्या-क्या चाहिए तुम्हें?’’ सरदार ने प्रसन्नता से तानी को गले लगाते हुए कहा। तानी आश्चर्यचकित था। दामाद हो गया? हाँ, वह दामाद हो गया!

तानी मना नहीं कर सका। एक स्त्री को अस्वीकारने की हिम्मत नहीं हुई उसकी। आसीन की चाहत से भी वह वाकिफ था। हालाँकि यह उसका उद्देश्य नहीं था, फिर भी हाँ कह दिया। युद्ध कभी उनके बीच न हो–यही शर्त थी। लेकिन अब तो विवाह भी करना होगा। दिल किसी का कैसे तोड़े वह। लेकिन क्या महज इसलिए विवाह करना चाहिए कि वह किसी का दिल तोड़ नहीं सकता? ऐसा करके ही दिल को शायद उसने तोड़ दिया। उसको इसकी खबर ही नहीं हुई। वह तो ठहरे अच्छे आदमी। अच्छापन प्रेम निभाने की जरूरी शर्त नहीं होती है। होगी भी कैसे ? देर से ही सही, औरत प्रेम की खुशबू सूँघ ही लेगी। अभी तो वह स्वयं तानी के प्रेम में बेहोश है।

“अपाप...अपाप...अपाप चाहिए हमें”, उधर से पिंज जोर से चिल्लाया। लोग हँसने लगे। अपाप? यह क्या होता है? तानी ने पहली बार इस शब्द को सुना था। लड़खड़ाता हुआ पिंज तानी के नज़दीक आया और उसके कान में कहा, “यह ऐसी चीज है जिससे ओप्पो बनाया जाता है। उसको पीकर न, आदमी झूमने लगता है। बादलों में भी सैर करने लगता है। लोग इसे पीकर दिन-भर की थकान उतारते हैं। मैंने तो इसे पीकर एक सुन्दर औरत के साथ रात बिताई थी। अहा, क्या आनन्द था। एक युग के बाद स्त्री-शरीर का सुख मिला।” यह कहकर वह बेहयाई से अपनी जंघाओं को खुजलाता हुआ हँसने लगा। “वह सब तो ठीक है, लेकिन क्या यह चीज वाकई में लोगों की थकान उतार देती है? दिन-भर खेतों में काम करते वक्त इसकी जरूरत होगी मेरे अपने लोगों को। मुझे अपाप चाहिए। उसको तैयार करने के सारे तरीके भी चाहिए।” तानी ने जल्दी से सरदार से कहा।

ताप मैकार को योजना के अनुसार दूर जंगल में फेंक दिया गया। तानी के इशारे पर कीपुंग ताप के पीछे-पीछे चला गया। तानी का मित्र ही नहीं, उसकी आत्मा था वह। वह अच्छी तरह जानता था उसे क्या करना है। ऐसी कितनी ही घटनाएँ वह और तानी पहले भी देख चुके थे।

आसीन की शादी तानी से हो गई। तानी ने पहली बार उस रात एक स्त्री के शरीर को छुआ था। तानी बहुत कुछ कहना चाहता था। अपने सपनों को साझा करना चाहता था। वह कुछ कहने ही वाला था ...लेकिन ...उसने श्श्श करते हुए तानी के होंठों पर अपने हाथ रख दिए। उसकी गर्म दहकती साँसें तानी के चेहरे को छूने लगीं। धीरे-धीरे आसीन ने अपने सारे वस्त्र शरीर से उतार दिए। और फिर तानी के दोनों हाथों को खींचकर उसने उन्हें अपने उरोजों से लगाया। आग्रह भरे नेत्रों से उसे देखने लगी। मानो बरसों से इसी पल का उसे इन्तज़ार था। पहली बार था। कुछ घबराया हुआ-सा तानी। लेकिन ये कैसा खिंचाव है। आह! खुद को रोक पाना कितना मुश्किल है। कैसा उन्माद है यह। दिल कहता है दूर हटो ...जल्दबाजी मत करो...लेकिन यह शरीर ...यह शरीर किसी की नहीं सुनता। उस रहस्य को देखना चाहता था वह भी अब। आसीन की तरफ झुकता चला गया वह। लेकिन ये क्या? तानी जल्दी ही निढाल हो गया! “लगता है पहली बार है। कोई बात नहीं, सीख जाओगे। कम-से-कम तुमको पा तो गई मैं।” यह कहकर वह मुस्कुराते हुए सो गई। तानी को कुछ शर्मिन्दगी-सी हुई। उसने देखा–कितना सुकून था उस स्त्री के चेहरे पर। खिड़की से चाँद की रोशनी उसके सुन्दर मुखड़े पर बिखरे काले-घने केशों पर अठखेलियाँ करने लगी। कुछ भी तो नहीं था उसके पास; लेकिन इस सौन्दर्य के प्रेम का पात्र बन गया वह।वह तो यह भी समझ नहीं पा रहा था कि एक स्त्री के साथ जब प्रेम हो जाता है तो कैसा अनुभव होता है। ऐसा क्यों है कि वह इस वक्त इससे बहुत दूर भाग जाना चाहता है? तानी झेंप गया। वह हैरान भी था। कैसा सौन्दर्य है प्रकृति का स्त्री के रूप में। इसकी कोमलताएँ कितनी आक्रामक हैं और कितनी ममतामयी भी ! फिर भी वह भाग जाना चाहता है। क्यों?

कुछ देर बाद वह दबे पाँव बाहर निकला। वहाँ अँधेरे में कोई बैठी हुई थीं। उन्होंने तानी को इशारे से अपनी तरफ बुलाया। उस बूढ़ी औरत की दृष्टि गहरी थी, बहुत गहरी। उन्होंने तानी की तरफ देखते हुए कहा, “ताप मैकार अब ताप तानी हुआ। हालाँकि वह तुमसे बड़ा है उम्र में। तुम अभी बच्चे हो; लेकिन क्योंकि उसकी जिन्दगी तुमने बचाई। वह तुम्हारा पुत्र हुआ। वह तुम्हारा अंगरक्षक बने। तुमने मेरे प्रेम की रक्षा की है। मैं जानती हूँ, वह तुम्हारे साथ ही बहुत आनन्दित रहेगा। बदले में तुम्हें राज़ की एक चाबी देती हूँ। बिना दीवारों वाला उस दरवाजे की चाबी। हाँ, तुम्हारे मस्तक पर लिखा है उस रहस्य की चाबी। उसका खुल जाना बहुत जरूरी है। तानी मोमेन से दक्षिण-पूर्व दिशा की ओर एक स्थान है। पहाड़ों से उतरते जाओ, उतरते जाओ। रुक मत जाना। असीम, अनन्त मैदानी ज़मीन फैली हुई होगी। लहलहाते धान के खेत होंगे। उनसे धान के बीज लाना और अपने लोगों की भूख को मिटाना। मेरे यहाँ के लोग भी नहीं जानते धान है क्या चीज!” तानी ध्यान से सुन रहा था। “तुम्हारे लोगों का जीवन बदल जाएगा उस यात्रा से। लेकिन तुमको उसकी बहुत बड़ी कीमत चुकानी होगी। तुम मर जाओगे तानी।” तानी चौंक गया। “मर जाऊँगा?” उसकी शंकित आँखें फ़ैल गईं। “शश्श...यह वैसा मरना नहीं है जो तुम समझे हो। अमृत को अपनी इन खुली आँखों से, होशपूर्वक देखने का वक्त आ गया है। तुम्हारी आँखों में उसकी पुकार है। तुम्हें वहाँ जाना ही होगा। किसी को सदियों से तुम्हारी ही प्रतीक्षा है। अब जाओ अन्दर और सो जाओ उस सुन्दर स्त्री के साथ,” यह कहकर वह रहस्यमय ढंग से हँसने लगीं।

रात तारों भरी थी। बगल में सुन्दर दुल्हन थी। भीनी-भीनी खुशबू कहीं से आती थी। चाँद फिर भी अकेला था.....।

4 : जंगली फूल (उपन्यास)

एक साल हो गया। आसीन को बहुत मान-सम्मान के साथ रखा गया। अभी-अभी ही खिली कली थी वह। रानी थी। सरदारनी थी। अपने साथ कई तरह के बीज और सम्पति ले कर आई थी। अपाप से ओप्पो बनाना लोगों ने बखूबी उससे सीख लिया था। उसने लोगों को कपास से कपड़े बुनना सिखाया। उसकी हर इच्छा पूरी होती। तानी सदा उसकी सेवा को तत्पर रहता। अपनी गैर-मौजूदगी में भी किसी-न-किसी को उसकी सेवा में लगाए रखता। लेकिन किसी ने उसे कभी भी खुलकर हँसते-खिलखिलाते नहीं देखा। उसकी आँखों में एक अधूरेपन का-सा भाव तैरता रहता। जो शोखियाँ मैकार-मैंरांग में थीं, वह अब यहाँ नहीं थीं उसमें। तानी ने सोचा–अपनों से दूर है, इसलिए उदास है।

तानी हमेशा छोटी-छोटी यात्राओं में लगा रहता। कभी इधर तो कभी उधर। दो जुड़वा बच्चे पैदा हुए। उसकी चिन्ता और अधिक बढ़ने लगी। इतनी कम उम्र में उसकी हजारों जिम्मेदारियाँ थीं। दिन-रात लोग मेहनत करते, लेकिन हालत वही की वही। जो भी अनाज पैदा होता, जल्द ही खत्म हो जाता। लोग भूखों कई-कई दिनों तक जंगलों का ख़ाक छानते रहते। ताप अब इस गाँव का बहुत बड़ा रक्षक था। तानी के लिए जान भी हाजिर थी। लोगों ने उसे बहुत ही प्रेम दिया। वह यहाँ बहुत ही खुश था। उस बूढ़ी औरत की उन दोनों आँखों ने तानी का पीछा कभी नहीं छोड़ा। उसकी बातें याद आती रहतीं–सपने में भी जब-तब वह दिख जाती और कहती, “तानी, कब जाओगे तुम?” कभी-कभी क्रोधित होकर चिल्ला भी पड़ती थी। कितनी बार वह सोते से चौंककर उठ जाता था।

“पर उसने यह भी तो कहा था कि तुम्हारी मृत्यु हो जाएगी वहाँ। फिर भी तुम जाना चाहते हो?” दोलियाँग की बातों में तानी को रोकने का भाव था। वह नहीं चाहती थीं, उसके जिगर का टुकड़ा उस अनजान स्थान की यात्रा पर जाए–जहाँ के लोग देखने में भी बहुत ही भिन्न हैं। सुना है कई तरह के रंगों वाले लोग रहते हैं वहाँ; काले, गोरे, पीलापन लिए लाल-लाल लोग। और भी न जाने क्या-क्या सुन रखा था।

“हाँ, जाना चाहता हूँ मैं। यहाँ कौन-सा हम नहीं मर रहे हैं?”

“लेकिन उसी दिशा में क्यों? क्यों नहीं दक्षिण-पश्चिम की ओर की लम्बी यात्रा पर निकलते?”

“मैं जाना चाहता हूँ। क्या यह वजह काफी नहीं दीदी?”

“तुम्हारी जिद्द के आगे माँ भी हार जाती थी, मैं क्या चीज हूँ। लेकिन अगर तुम कहो तो मैं भी साथ आऊँ? कुछ हो गया तो तुम्हारे कुछ काम आ सकूँ।” दोलियाँग ने हुक्के को अपने मुँह से हटाते हुए चिन्तित होकर कहा।

“नहीं, उसकी जरूरत नहीं। भय में जीना नहीं चाहता हूँ मैं। सिर्फ इतना ही जानना चाहता हूँ कि सब की भूख किस तरह मिटाई जाए। जो भी होगा, वही होगा जिसको जो होना होगा।” तानी ने बहन की आँखों में गहरे झाँकते हुए कहा। तानी से तर्क में कौन जीत सकता था। बुद्धि का देवता उसके मस्तक पर स्वयं विराजमान था।

“लेकिन इतने महीनों तुम्हारे बिना इन सब का ख्याल कैसे रखूँगी मैं?” दोलियाँग की आँखों से आँसू बह निकले।

“ताप तानी, रोबो तानी और तापिन तानी है न। और आपकी बुद्धि और आसीन की समझदारी पर मुझे भरोसा है।” हल्के से मुस्कराकर तानी ने कहा।

“भैया दोदर को तो छोड़ जाते। वह रहते तो कुछ तसल्ली होती।”

“उनका इस बार मेरे साथ चलना आवश्यक है। वह शक्तिशाली, धैर्यवान, बुद्धिमान और समझदार है। सूर्य का वीर्य उसमें है। तानी वंश संसार में रेत-कणों की तरह फैले। क्या आप यह नहीं चाहतीं?”

“उनका तुम्हारे साथ जाने से इसका क्या ताल्लुक है?”

“मैं भी नहीं जानता...लेकिन उन्हें इस बार मेरे साथ चलना ही चाहिए।”

“अच्छी बात है...अपना ख्याल रखना।”

लम्बा-सा अजगर की मानिन्द लेटा हुआ लकड़ियों और घास-फूस का बना था यह घर। सभी भाइयों का अपना-अपना चूल्हा। चाचा-भतीजा–सब एक ही उस लम्बे से घर में रहते थे। यहाँ दोलियाँग के चूल्हे में दोनों भाई-बहन बातें कर रहे थे। अलाव में आग धीरे-धीरे टिमटिमाती हुई जल रही थी। सारे लोग सो चुके थे। बाहर गहन अन्धकार था। कितनी नीरवता छा गई थी। हर चीज मानो सो गई; लेकिन यहाँ, दोनों के भीतर एक तूफ़ान-सा कुछ चलने लगा था।

दो दिन बाद तानी, दोदर और कीपुंग चलने लगे। अपने पीछे रोते-बिलखते बीवी-बच्चों, माँएँ, भाई-बहन और सारे कबीलेवालों को छोड़कर। शुभ के लिए यात्रा थी। लोगों ने हज़ार दुआएँ दीं उनको। माता सूर्य को साक्षी मानकर दोरिंग चीजिंग ने अपनी चार पुजारिन सखियों के साथ मन्त्रोच्चारण किया। सारी दिशाओं और सारे चर-अचर से उनके लिए आशीर्वाद माँगे गए। रोबो ने तीन बार “तालो” को बजाकर इस शुभ क्षण की घोषणा की। सारे लोगों ने–हो...हो...हो...हो...हो...की ध्वनि से दिशाओं को गुंजायमान कर दिया, और इस तरह अपनी स्वीकृति जाहिर कर दी। “मेरे बच्चे, इस बार शायद मैं तुम्हारा इन्तज़ार न कर पाऊँ ...पूर्वजों के पास जाकर तुम्हारी कुशलता के लिए आशीर्वाद बरसाती रहूँगी।” रोबो की माँ ने जिन्हें सब बड़ी माँ कहकर पुकारते थे–भावविह्व‍ल होकर कहा। सबकी आँखें नम हो गईं। तानी का तो जैसे हृदय निकला जा रहा हो। उसने उन्हें गले से लगा लिया और कहा, “जाना जरूरी है माँ।”

इस बार लम्बा इन्तज़ार करना था उन्हें उनका। शायद महीनों, सालों या फिर लौटकर आएँगे भी या नहीं। ताप फूट-फूटकर रोया। सब जानते थे, तानी ने जब ठान ली है, तो उसे कोई नहीं रोक सकता। भले ही मर जाए, लेकिन अपनी जिद्द पर अड़े रहना उसकी पहचान थी।

आसीन ने अपने बच्चों को सीने से लगा लिया। उसने अपने आँसू कभी किसी को दिखाए नहीं थे। इस बार भी नहीं दिखाए उसने। किसी को भी नहीं। तानी को भी नहीं। न जाने कितनी रातें अब वह फिर से जागने वाली थी। तारों को गिनते रहना, उसकी जैसे आदत बन गई थी। क्या कभी ऐसा नहीं हो सकता कि बरसात के मौसम में–घर पर–आग जलाए गुनगुनाती हुई वह मकई पकाती रहती, और बगल में तानी बच्चों के साथ खेलते रहता। बीच-बीच में सब उस पके मकई के दानों पर हँसते-खिलखिलाते टूट पड़ते। आह, तानी। तुम क्या जानो विरह क्या होता है। कितने पास...और कितनी दूर।

उस पहली रात को जब वह तानी के साथ पहली बार एकान्त में मिली थी–तानी कुछ कहना चाहता था उससे, लेकिन वह सिर्फ उसे छूकर महसूस करना चाहती थी। इसमें गलत क्या था? क्या वही दूरी की वजह बनी? यह भी क्या बात हुई? आज वक्त बदल गया। वह कुछ कहना चाहती है, लेकिन तानी के पास उसे सुनने का वक्त नहीं है। अपनी अगली यात्रा की योजना भी तानी ने सबसे पहले अपनी बहन को ही बताई। आसीन को पति से नहीं, ननद से यह सब पता चलता है। क्या उसने कभी तानी को यात्राओं से रोका था?

ऐसी यात्रा पर निकलना जिसके बारे में हमें कुछ भी पता नहीं होता–वह यात्रा आदमी के प्रत्येक क्षण को सतर्कता से भर देती है। सतर्कता छूटी कि सब खत्म। एक ऐसे अन्धकार में छलाँग लगाने के समान होता है जिसमें यह पता नहीं होता कि पैरों को टिकाने की जमीन कब मिलेगी। भय, आश्चर्य, आनन्द, दर्द और अकेले होने को कई भाव गहनता से दिखने लगते हैं। दुविधाओं का सागर भी पार करना होता है। ऐसे में आदमी स्वयं को चाहे तो पा सकता है, या फिर पूरी तरह खोकर जीवन को निरर्थक बना सकता है। खैर, जो भी हो, तानी की यात्रा आवश्यकताओं से उत्पन्न हुई थी।

तानी, दोदर और कीपुंग टेड़े-मेढ़े, चढ़ते-उतरते, सपाट दौड़ते, चौड़े-सँकरे रास्तों पर हवा के वेग से चलने लगे। कीपुंग के गले में एक काला मोटा-सा धागा बँधा रहता था। दोनों भाइयों ने कन्धे पर मज़बूत रस्सियों से बने झोले लटका रखे थे। उसके अन्दर नमक, सूखी मिर्ची, आग जलाने के पत्थर, खैनी के सूखे पत्ते और रस्सी थी। मुँह में छोटा-सा हुक्का। उसमें आग सदा मौजूद रहती। दोदर ने तीर धनुष, दाव और आवश्यकता की सारी सामग्री अपने शरीर पर धारण कर रखी थी। तानी की छाती पर लटकता एक छोटा-सा चाक़ू। आमतौर पर तानी हथियारों को अपने शरीर पर सजाता नहीं था। वह अकेला ही उनके बिना काफी था, लेकिन चाक़ू की जरूरत कभी भी हो जाती थी।

जिन्हें जीना आता है, वे कहीं से भी, कहीं भी खाने-पीने और सोने का इन्तजाम कर ही लेते हैं! प्रकृति कभी खाली नहीं होती। किसी को भी खाली पेट आसानी से मरने नहीं देती। रास्ते में आने वाले गाँव के किसी भी घर में वे घुस जाते और रातभर की पनाह पा लेते। पेड़ों के ऊपर, कभी उनके नीचे, खुले आसमान के तले–रात-भर आग जलाकर बैठे रहते। कभी किसी गुफा के अन्दर सो जाते। पहाड़ और जंगल दूर से ही देखने में अच्छे लगते हैं। पैदल चलकर देखो तो पता चले। सँकरे, घुमावदार रास्ते लेटे हुए सर्प की तरह दिखते हैं, जो कहीं-कहीं बिल में घुसते हुए-से भी लगते हैं। भूले-भटके कोई एक आदमी कहीं-कहीं टकरा जाता था। न जाने कैसे खुद को बच-बचाकर चलते होंगे अकेले!

तीन दिन लगातार चलने के बाद, तीनों जोग गाँव में पहुँचे। यह दूर के अपने ही चाचा मंगजंग का गाँव था, जिसने बहुत सालों पहले, तानी के पिताजी के जीवित रहते समय ही, अपने ही कबीलों से अलग होकर अपना एक अलग कबीला तैयार कर लिया था। वह अपने उपनाम “तानी” को छोड़कर मंगजंग जोग बन गया था। इस तरह यह जोग लोगों का गाँव बन गया था। बहुत मनाने की कोशिश हुई थी कि शक्ति साथ रहने में ही है; लेकिन यह माने नहीं थे। अहंकार से उत्पन्न ईर्ष्या ही आदमी को आदमी से अलग करती है— वह बात अलग है कि आदमी अलग होने के अनेक अन्य कारणों को स्वयं ही गढ़ता है और उसको किसी और के माथे मढ़ देता है— यह कोई नयी बात नहीं है।

आसमान साफ़ था। आम मार्ग के किनारे कई हल्ला-गुल्ला करते हुए लोगों को उन्होंने देखा। चारों ओर कई लोग घेरावदार पंक्ति में खड़े थे। वहाँ बीच में एक औरत खूँटी से बँधी हुई है। अधनंगी। लम्बे बिखरे बाल। छोटी-छोटी आँखें। मोटे-मोटे पाँव। बड़ा चेहरा। गोरी है लेकिन किसी पुरुष के पसन्द की तो बिल्कुल नहीं है। कुल मिलाकर कह सकते हैं— वह बहुत मोटी और बदसूरत है। गाँव की औरतें उसके चेहरे पर रह-रहकर थूक रही हैं। वह धीरे-धीरे कराहती हुई, लहूलुहान, पसीने से लथपथ, बेहद थकी हुई और विवश दिख रही है। सिर कभी छाती पर झूल जाता, कभी कन्धों पर। लगता था बहुत ही पीटी गई है। पथराव भी किए गए हैं।

“यह क्या कर रहे हो? देखते नहीं मर जाएगी यह?” तानी बीच में घुसकर उन लोगों को दूर हटाने की कोशिश करता हुआ बोला।

“अरे दोन्यी तानी, तुमको नहीं मालूम, यह ‘जिअर’ है जिअर! गाँव के कितने बच्चों को खा गई यह शैतान औरत!” एक आदमी ने ‘थूह’ थूकते हुए घृणा और गुस्से से कहा।

“रात को इसका जंगली साथी ‘पजिक’ आता है, यह मिलकर आदमियों का शिकार करते हैं!” मंगजंग की पत्नी–तानी की अपनी ही चाची ने उसकी तरफ देख कर क्रोधित मुखमुद्रा के साथ जोर से चिल्लाकर कहा। चाचा मंगजंग हुक्का मुँह में डाले सामने के चबूतरे पर बैठे हुए थे। साक्षात अहंकार आदमी का रूप लिए वहाँ मानो विराजमान था। आसमान उसका मुकुट, ज़मीन उसी की पाँव तले किसी दासी की तरह सिर झुकाए स्वामी की आज्ञा की प्रतीक्षा में मानो बैठी हुई थी। उसने तानी और दोदर पर एक नज़र बारी-बारी से डाली। उसकी नज़रों से नफरत जैसे फूट-फूटकर बाहर आना चाहती थी।

“मार डालना है, मार डालना है इसे”, की आवाज से गाँव भर गया। कोई उसे भूखों मर जाने देना चाहते थे, तो किसी ने कहा, नहीं, नहीं...यह रात को अदृश्य होकर ही उधम मचाती है! दिन में शैतान इसके शरीर पर रहता है। इसका शरीर ही बचना नहीं चाहिए। इसे आग में ही जला देते हैं, वगैरह-वगैरह। हर आदमी अपने-अपने तरीकों से उसे मार डालने की सलाह दे रहा था।

“अगर आप लोगों ने इसे मार डाला तो इसका भूत यहीं आप ही के लोगों के बीच भटकता रहेगा। आदमी से लड़ सकते हो, भूत से कैसे लड़ोगे? वैसे भी इसका अदृश्य शरीर ही तो समस्या है। फिर मारकर भी किस प्रकार उसका समाधान होगा? सुना है, आत्माएँ नहीं मरतीं। खत्म करना हो तो उसी को खत्म करना होगा। इसको बिना मार डाले ही इसके अन्दर मौजूद शैतानी ताकत को समझा-बुझाकर इसके शरीर से अलग करना होगा।” तानी ने कहा। एक अजीब-सा दिखने वाला आदमी बहुत देर से चुपचाप सब कुछ सुन रहा था।

“अजीब भूत है! शरीर को खाता नहीं। उसे तो वह ऐसे ही छोड़ देता है? और आत्मा है कि मरती नहीं। किस चीज को खाया होगा उसने?” बहुत दुविधाग्रस्त हो उसने बुदबुदाकर कहा।

“बेवकूफ ! वे शरीर को बीमार कर देते हैं और बदले में हमारे पालतू पशुओं की बलि माँगते हैं,” दूसरे ने कहा।

“तो क्या पशुओं की आत्माएँ मर जाती हैं?” उसने आश्चर्य से आँखों को फैला कर कहा। पहला वाला आदमी क्रोधित हो गया। दोनों हाथापाई पर उतर आए। कुछ शूरवीर युवा वहाँ खड़े थे। वे उन्हें खाई की तरफ खींचकर ले गए।

अपने चारों ओर झूठों का एक पहाड़ तैयार कर लेता है आदमी। जीवन-भर उसे ही सत्य मानकर चलता रहता है। उसी झूठ को बचाने के लिए उन्हें क्रोध के रूप में एक सुरक्षा कवच हमेशा पहनकर चलना पड़ता है। वे बहुत ही आक्रामक होते हैं। जिस सत्य को बचाने के लिए इतनी कवायद करनी पड़ती हो, किसी की भी जान ले ली जाती हो, वह ही अपने-आप में शैतानी ताकत का रूप है।

“मुझे एक मौका दीजिए! मैं इस शैतान से लड़कर देखता हूँ।” तानी ने विनीत स्वर में कहा।

“वह तो ठीक है, लेकिन हमारे अच्छे-से-अच्छे पुजारी लोग भी हार चुके हैं। कोई भी उपाय नहीं है। गाँव की मुर्गे-मुर्गियाँ भी समय-समय पर एक साथ बहुत सारी मर जाती हैं। यही अलग करती रहती है शरीर से उन सबकी आत्माओं को,” सामने खड़ी पतली-सी एक औरत ने कहा।

“मेरे पास इसका नायाब तरीका है। आप लोग चाहें तो ...,” कहते-कहते तानी बीच में ही रुक गया और उत्तर की प्रतीक्षा में उन सबके चेहरों को पढ़ने लगा।

“ठीक है, निया तानी के पुत्र को एक मौका देते हैं अपनी बुद्धि प्रदर्शित करने का। तुम भी क्या याद रखोगे, इस महान कबीले की मदद करने का गौरव तुम्हें संसार में प्राप्त हुआ है! इसी से अपने पूर्वजों के प्रश्नों का उत्तर देने की हिम्मत तुम्हें मरने के बाद मिलेगी। सुना है, अब तुम सिर्फ और सिर्फ तानी कहकर पुकारे जाते हो; अर्थात तानी वंश का रक्षक। स्वयं ही अपने-आप में पूरा एक कबीला। अगर तुमने चमत्कार कर दिखाया, तो हम भी प्रतिज्ञा करते हैं, कि तुम्हारे कबीले वालों पर हम कभी हमला नहीं करेंगे। तुम्हारी बुद्धि के आगे हम भी सिर झुकाएँगे।” अपने मज़बूत दायें हाथ को आसमान की तरफ लहराकर उसके चाचा मंगजंग जोग ने कहा। उसकी गर्दन तनी हुई थी। कितना शक्तिशाली लग रहा था वह! सबकी निगाहें सरदार पर पहले गईं, फिर वे तानी की तरफ देखने लगे। उनके चेहरों पर अपने सरदार के प्रति सम्मान और गर्व का भाव था। तानी ने दोदर की आँखों-से-आँखें मिलाईं और हल्के-से मुस्कुराया। बड़े भाई को उसका सन्देश मिल गया था।

“कुछ दिन हमें इस औरत के घर पर अकेले रहने दिया जाए। पहले इसका इलाज करना होगा और फिर उसके बाद ही बाकी काम करना होगा। जड़ी-बूटियाँ आप लोग लाएँ,” दोदर ने अपनी बुलन्द लेकिन विनीत आवाज में कहा। सबने सिर हिलाकर हामी भरी। सरदार ने जब कह दी है तो कह दी।

उस औरत के बन्धनों को खोल दिया गया। उम्र उसकी शायद चालीस के आस-पास होगी। उसका नाम रुंगिया है। इस वक्त लगभग मरणासन्न थी वह। तानी और दोदर ने बहुत ही नर्म हाथों के साथ सँभालकर उसे उसके घर तक ले ही आए। और सारे लोगों को वहाँ से चले जाने को कहा गया। हो सके तो कोई महिला उनके साथ बीमार की मलहम-पट्टी में मदद के लिए रह सकती है। न, न, पागल हैं क्या, जो अपनी जान जोखिम में डालेंगे? ओह माता सूर्य ! यह लोग तो आदमी नहीं हैं।ये इस भूत के साथ रहेंगे? छ, छ, छ कहते हुए सभी लोग चले गए। उनमें जल्दी-जल्दी–लगभग भागते हुए जाने वालों में आगे-आगे औरतें ही थीं।

माना गया–ऐसी औरत, जिससे परिवार और वंश आगे नहीं बढ़ सकता, जो सारे पुरुषों द्वारा अस्वीकृत हो। समाज में कभी उसे खुलकर हँसते खिलखिलाते नहीं देखा गया हो। जिसकी गर्दन शर्म से हमेशा झुकी हुई रहती हो। रात को जब सारे लोग सो चुके होंगे, वह खुद भी सो रही होगी, तब ‘पजिक’ आता है जंगल से। वे अदृश्य होते हैं, लेकिन लोगों के शरीरों में सूई चुभो देते हैं , और पता करते हैं कि कौन आदमी आज खाने योग्य है। वे स्वयं आदमी को नहीं मार सकते, बस सुई चुभो सकते हैं। मारने के लिए तो किसी जिन्दा शरीर की मदद चाहिए होती है। तब इस प्रकार की औरत को वे चुनते हैं। उस औरत के शरीर से आग का एक गोला निकलता है। धीरे-धीरे वह बढ़ता जाता है और फिर गाँव में रात-भर तांडव करते रहते हैं ये लोग मिलकर। सुबह आदमी का मृत शरीर मिलता है। उसकी आत्मा को वे खा चके होते हैं। नहीं, नहीं ले जा चके होते हैं! नहीं, खा चुके होते हैं! ओहो, छोड़ो भी! फिलहाल इसलिए गाँववाले इससे परेशान थे। डरे-सहमे रहते थे। वह किसी के भी साथ नहीं रहती थी। कौन रखेगा वैसे भी? वह गाँव में रहती है, यही क्या कम है।

आदमी की मजबूरी ही यही है कि भले ही वह आदमियों के द्वारा तिरस्कृत और अस्वीकृत हो, लेकिन आदमी के ही साथ रहना होता है उसे। ऐसे में समाज उसे अपने साथ रखकर उस पर अहसान लाद देता है। इसलिए उसे झुककर चलना तो पड़ेगा ही। दुर्भाग्य को भी वह लाती थी। किन्हीं शुभ अवसरों में वह शरीक नहीं हो सकती थी। शादी-विवाहों में तो बिल्कुल भी नहीं। लोगों के पास उससे छुटकारे का कोई भी उपाय नहीं था। आज उसकी पिटाई भी लोग डरडरकर ही तो कर रहे थे। कई लोगों ने कहा-पजिक ने उनके भी शरीरों के फलाँ-फलाँ जगह पर सूई चुभोई थी। भला हो पुजारी जी का, जिसने समय रहते मन्त्रोचरण से घर के देवता को जगाकर रख दिया था। फिर भी इसकी शक्ति अमावस्या की रातों में दुगुनी हो ही जाती है ...इत्यादि-इत्यादि।

कई लोगों ने तो वैसे ही विश्वास कर लिया था। कैसे न करते? चाचा-चाची, ताऊ-ताई, नाना-नानी, दादा-दादी झूठ थोड़े बोल सकते हैं! सभी किसी-नकिसी तरह सच्चे ही होते हैं। सभी कहते थे-उन्होंने कभी जीवन में झठ ही नहीं बोला। कई लोगों ने तो साक्षात अपनी आँखों से भूतों को किसी आदमी की आत्मा को छप, छप, छप कर खाते हुए देखा था।

दोनों ने जल्दी-जल्दी आग जलाई। अलाव में आग ने चिन्गारियाँ बरसाते हुए जलना प्रारम्भ कर दिया। भैया दोदर भोजन बनाने में बहुत ही कुशल था। अच्छी स्वादिष्ट चटनी बनाने में तो महारत हासिल था उन्हें। कीपुंग दौड़-दौड़कर उनकी मदद करने लगा। इस जिअर औरत के पास भोजन-सामग्री की कमी नहीं थी। बहुत कुछ था खाने को। और इन्हें ही कई दिन यूँ ही उन दुष्टों ने भूखा रखा हुआ था। इधर इस कोने में तानी, दर्द से कराहते इस बेबस शरीर के पास बैठकर उन्हें हिम्मत बँधाने का प्रयास करने लगा।

कुछ देर बाद पतला-दुबला-सा, लगभग पन्द्रह-सोलह साल का एक लड़का कई जड़ी-बूटियाँ लेकर आया। बड़ा जानकार लगता था। तानी उसे ध्यान से देखने लगा। यह तो वही लड़का है जिसे तानी ने एक बार न्येम-न्येपा में उसके पिता मंगजंग के साथ देखा था। उसने तानी को भैया कहकर पुकारा था। उसकी आवाज में अपनापन और प्रेम था। तब से इसका चेहरा वह कभी भूला नहीं था।

“भैया, मैं न्यीकंग। मंगजंग जोग का मँझला पत्र । याद है आपको? दो साल पहले हम न्येम-न्येपा के बाज़ार में मिले थे? दोलियाँग दीदी से ही मैंने छुप-छुप कर जड़ी-बूटियाँ बनाना सीखा है। उन्होंने आपको नहीं बताया कभी? हम जंगल में कई बार मिले!” उसने कुछ संकोच भाव के साथ जड़ी-बूटियों को बगल में रख कर तानी के सामने मुस्कुराकर बैठते हुए कहा। __ “हाँ, मैं पहचान गया। कैसे भूल सकता हूँ! दोलियाँग दीदी कई बातें अपने भीतर ही रहने देती हैं। यह जरूरी भी तो है। लेकिन यह तो बताओ, तुम्हें डर नहीं लगता इस शैतान औरत से?” तानी ने कहा।

“क्या आपको नहीं पता? मैं अपने पिता के खिलाफ भी जा सकता हूँ। भूत तो फिर भी उनसे अच्छे हैं। इतने ज़हरीले तो नहीं होते।” उसने अपना सिर कुछ झुकाते हुए कहा।

“दीदी ने सब कुछ बताया तो था, लेकिन तुम्हारा नाम नहीं बताया था। फिर भी मैं तुरन्त समझ गया था तुम्हें यहाँ देखकर, कि वह तुम ही थे, जिसने हमें बहुत बड़ा अनर्थ होने से बचाया था। तुम्हारी आँखें मानो कोई छोटी-सी, महीनसी रेखा चेहरे पर किसी ने खींच दी हो। कितनी छोटी और प्यारी है! इसीलिए तुम्हारा नाम न्यिकंग रख दिया गया होगा। है न?" तानी ने स्नेहपूर्ण नेत्रों से उसकी तरफ देख कर मुस्कुराते हुए कहा। न्यिकुंग ने जवाब नहीं दिया। मुस्कुराते हुए शरमाकर दवाई तानी की तरफ बढ़ा दी। दोनों ने मिलकर उसकी मलहमपट्टी की। भैया दोदर ने न्यिकुंग की लाई जड़ी-बूटियों का सूप बनाकर स्नेहपूर्वक रंगिया को पिलाया। नींद गहरी आ गई उसे और उसका कराहना शान्त हो गया।

एक बार चाचा मंगजंग ने तानी कबीले की लड़कियों को छोड़कर छोटे-छोटे लड़कों को चालाकी से फुसलाकर जहर से मार डालने का षड्यन्त्र रचा था। न्यिकुंग को भी इस काम में लगाया। लेकिन वह नहीं माना। ऐसा करने से पहले उसने मर जाना बेहतर समझा। उसने बड़ी मुश्किल से बच-बचाकर जगंल में दोलियाँग दीदी को सब कुछ बता दिया था और तब दीदी ने जंगल के अच्छे-सेअच्छे असरदार पौधों से जहर निरोधक जड़ी-बूटियाँ बना ली थीं। लोगों को सावधान किया। बेहद सावधानी बरतने के बावजूद मंगजंग के ज्येष्ठ पुत्र चिन्न ने एक मासूम नन्हें बालक को किसी तरह ज़हर खिला ही दिया था। तब दोलियाँग ने उसको बचाया था। उस दिन तानी ने उस “तागो” नामक पौधे के सामने अपना सिर श्रद्धा से झुका दिया था। उसी से बने रस से ज़हर को खत्म कर सका था । इस पौधे को 'न्योली' भी कहा जाता है ।

एक ही बिल में रहते हुए भी कुछ सर्प जहरीले नहीं होते। बल्कि वे आदमी को बचाते हैं। वे किसी और को खाने के बजाय जहरीले सर्पों को ही खा जाते हैं । वैसे ही न्यिकुंग उन्हीं में से एक था। इसलिए तानी ने कहा, “तुम्हारे प्रति पिता का-सा भाव मेरे भीतर इस वक्त उठ रहा है। एक आनन्दमय पीड़ा का अनुभव हो रहा है। जैसे भीतर कोई सूर्य उदय हो रहा है। जैसे मैं तुम्हें अपने शुद्धतम भावों के गर्भ से जन्म देना चाहता हूँ । तुम्हें मैं न्यिकुंग तानी कहता हूँ। आज से हमारा वंश उस प्यारे सर्प को जब भी देखेगा, तुम्हें याद करेगा। तुम्हारे ही नाम पर हम उसे “न्यिकुंग बरिंग” कहकर पुकारेंगे।” “मैं धन्य हुआ! मैं न्यिकुंग आपको अपना पिता स्वीकार करता हूँ । न्यिकुंग जोग से मैं न्यिकुंग तानी हुआ । तानी ही मेरा भी वंश था, लेकिन मैं अपनी जड़ों से निर्ममतापूर्वक काट दिया गया था। अब फिर से लौट जाना चाहता हूँ। मुझे भी अपने महान पूर्वजों पर गर्व है। उनकी वीरता की गाथाएँ गाना चाहता हूँ मैं । क्यों अपने स्रोत से अलग हट जाऊँ मैं। आबो तानी ! मेरे पिता । ” तानी ने उस पर अपना सारा स्नेह लुटा दिया। बीस साल का जवान आदमी पन्द्रह-सोलह साल के लड़के का पिता बन गया ।

दूसरे ही दिन रुंगिया उठने लगी। खुद चलकर बाहर तक भी गई। तीनों ने उसकी अच्छी तरह देखभाल की। रात भर सोया नहीं कोई भी । “ जंगली मुर्गी को पकाकर उसका रस पीने का बड़ा मन कर रहा है।” रुंगिया ने अनुरोध के स्वर में तानी से कहा । " आप निश्चिन्त रहिए, हम अभी ही जंगल जाते हैं शिकार के लिए। तानी आपके पास रहेगा,” यह कहकर न्यिकुंग, दोदर और कीपुंग जंगल को निकल गए। तानी ने रुंगिया के शरीर पर बार-बार मलहम लगाया। उसका बहुत ख्याल रखा। तीनों शिकारी अब भी लौटकर नहीं आए। बहुत रात हो चुकी थी। सारा गाँव सो गया था ।

इतने स्नेह और अपनेपन से किसी ने भी उसके इस बदसूरत तन को छूआ नहीं था कभी। किसी पुरुष ने तो कभी भी नहीं । तानी ने उनके शरीर को जल से अच्छी तरह पोंछ-पोंछकर साफ़ किया और धीरे-धीरे उन घावों पर मलहम लगाने लगा। कुछ अनजाना - सा आनन्द आने लगा रंगिया को । किसी का स्पर्श, उसकी नंगी त्वचा पर फिसल रहा था । उसका रोम-रोम मानो खिल जाना चाहता हो। कैसा संकोच का भाव उठने लगा । यह आदमी, जो उसके इतना करीब था, उसकी साँसों के स्वरों को भी वह साफ़ सुन सकती थी । विवश ... कितना विवश महसूस करने लगी थी वह । उसका मन उसी के साथ संघर्ष करने लगा - कह दो रंगिया, कह दो ! जो भी मन में है कह दो। क्या ऐसे ही मर जाओगी? कौन है यह जो उसके भीतर से उसे विवश करने लगा था ? “तानी, मैं तुम्हारे सामने पूरी तरह नग्न होना चाहती हूँ ! यह शरीर एक बोझ है मेरे लिए। क्या मैं सच में एक स्त्री हूँ? यह जानना चाहती हूँ। क्या मैं इन्सान हूँ? मैंने कभी किसी की आत्मा को नहीं खाया? शायद लोग सही कहते हैं— मेरा भूत खाता होगा। लेकिन मैं नहीं जानती कुछ भी। कुछ भी नहीं जानती। मेरे शरीर से मेरी आत्मा कैसे निकल जाती है? वह कैसी होती है? मैं नहीं जानती । सब कहते हैं उन्होंने देखा- लेकिन मैंने कभी नहीं देखा। आज सब कुछ जानना चाहती हूँ तानी । अपने इस शरीर को जानना चाहती हूँ। क्या और कोई उपाय है इसे जानने का ? क्या तुम सारे फासले को भूलकर एक बार मेरी मदद कर सकते हो ?” उसने उसके दोनों हाथों को पकड़कर अपनी तरफ खींचते हुए कहा । तानी ने अपने हाथों को उससे छुड़ाने की कोशिश की। वह कुछ दूर खिसक गया। “जानती हूँ, बहुत बदसूरत हूँ । प्रेम के काबिल नहीं हूँ। जाओ, जाओ, दूर जाओ तुम भी ! तुम सिर्फ दयालु और सुन्दर पुरुष हो। दया को एक मुखौटे की तरह पहनकर उसके आड़ में अपने अहं को मज़बूत करते हो । अपनी बुद्धि और दयालुपन साबित करनी थी तुम्हें। वह कर चुके । लोग तुम्हारा यश गाया करेंगे। मैं कल से खूब हँसा करूँगी।” उसकी आवाज में लाचारगी भरा कम्पन था । " सुन्दर - असुन्दर की बात नहीं है। मैं कौन होता हूँ यह तय करने वाला - कौन सुन्दर और कौन असुन्दर है! यह तो वह बनाने वाला ही जाने । कोई मुझे अपना सर्वस्व सौंपना चाहती है। यह महान घटना है। मुझे ही अपनी लघुता पर दया आ रही है । मेरी औकात नहीं आप पर दया कर सकूँ । सृष्टि मुझ पर इतनी क्यों कृपापूर्ण है? मैं तो अदना-सा महसूस कर रहा हूँ। क्या कहूँ, क्या न कहूँ ... समझ नहीं पा रहा हूँ कुछ भी। आपकी बातों से मेरी बुद्धि सुन्न हो गई है। मैं दुविधा में हूँ।” तानी ने बहुत ही संकोच के साथ नजरें झुकाकर कहा । उसका सारा शरीर काँप रहा था।

तानी के पास उनके प्रश्नों का कोई भी उत्तर नहीं था । उसे इतना ही पता है कि वह स्वयं भी जीवन के रहस्य के बारे में कुछ नहीं जानता। किसने इसके बारे में सोचा था। सामने लेटी इस स्त्री ने कभी सोचा था कि ऐसा कुछ घटेगा ? तानी ने कभी इस प्रकार की कल्पना की थी ? नहीं, कभी नहीं ।

आदमी की नजरें हमेशा वहीं तक जाती हैं, जहाँ तक चीजें दिखती हैं। आँखों को अच्छा लगे-वही सुन्दर है, वही सच है। एक महीन रेखा के अन्दर ही आदमी चलता रहता है, उम्र के, रिश्तों के, इसके, उसके... और न जाने क्या- क्या। उसके पार के दृश्य देखने की इच्छा विरले लोगों में ही होती है। दुनिया इसीलिए प्यासी है ! प्रेम के बिना, प्रेम के अहसास के बिना आदमी मृत के बराबर है । वह जिन्दा सिर्फ दिखता है।

सिर झुकाए वह फिर से मलहम लगाने लगा । सन्नाटा छा गया दोनों के बीच । सामने अलाव पर आग लहरा लहराकर नाचती हुई जल रही थी । बीच-बीच में उसकी चिन्गारियाँ यहाँ-वहाँ छिटक जाती थीं । झींगुर के चिल्लाने की आवाजें बाहर से आ रही थीं। दूर कहीं बीच-बीच में कुत्तों के भौंकने की आवाज सुनाई दे रही थी। धरती - आसमान के पास भी कोई उत्तर नहीं था । “मैं जिन्दा रहने के काबिल नहीं हूँ ! जिन्दा रहना मौत से भयानक है तानी । अच्छा किया तुमने, मुझको ठुकरा दिया, ” यह कहकर अचानक वह फफक-फफककर रोने लगी । दर्द और वेदना ने उसे किस कदर गहरा बना दिया था । जीवन के प्रति अनुभव इतने कि आकाश में जितने तारे हैं । तानी की समझ में नहीं आया कि वह क्या करे। यह तो पूरी तरह टूट चुकी है। अब तो अपने शरीर को ही खत्म करना बाकी है।

तानी नहीं जानता था वह इस वक्त उस स्त्री के प्रेम में है या नहीं। उसने देखा स्वयं को-वह उस औरत के प्रति अनुराग से भर गया है। वह उसे रोता हुआ नहीं देख पा रहा है। कोई शब्द, कोई विचार, कोई भाषा नहीं है उसके भीतर । क्या गलत, क्या सही - सब शून्य में खो गया। कोई शक्ति उसे उसकी तरफ मानो पूरी ताकत के साथ धकेल रही है। वह उसके बहुत करीब सरक जाना चाहता है। वह खुद को रोक नहीं पाया उस शक्ति के आगे और उसके बहुत करीब सरक ही गया। उसके शरीर से वह ऐसे लिपट गया, मानो यही संसार का सुन्दरतम शरीर हो और फिर उसने प्रेमपूर्वक उसके शरीर के सारे कपड़े हटा दिए। वह सहमति के साथ आँखें मूँदे लेटी रही। उसके शरीर के हर अंग को गहन प्रेम के साथ अपने होंठों से तानी ने छूआ । उसके पैरों को अपने दोनों हाथों से इस तरह छूआ-जैसे बच्चा अपनी माँ को छूता है... और फिर अपने होंठों से उनमें चुम्बन अंकित कर दिया। उसके नर्म होंठों की छूवन में अमृत था । वह स्पर्श सम्पूर्ण था । सम्मान और श्रद्धा भरा स्पर्श । शरीर मात्र नहीं है रुंगिया और तानी । कुछ और भी है; जिसे इसी तरह भी शायद जाना जा सकता है। रंगिया का रोम-रोम सिहर उठा। ऐसे पुरुष के समक्ष स्वयं को सौंप देना स्त्री के लिए चरम आनन्द है । सूर्य की अनन्त-अनन्त किरणों-सा, आत्मा में कुछ प्रकाशित होने लगा है । वह भी स्त्री है। सुन्दरतम स्त्रियों में से एक। कैसा सौन्दर्य है इस क्षण में ! दो शरीरों के धड़कनों को एक साथ एक ही लय में धड़कते हुए पहली बार उसने महसूस किया। हज़ार पुरुषों को, हज़ार जीवन को कुर्बान कर सकती है अब तो वह!

तानी ने उसके शरीर को निर्मलतम भाव से प्रेम किया । क्या स्त्री इस भाव को पहचानने में देर कर सकती है? नहीं...कभी नहीं। इसी शुद्धतम भावों की प्रतीक्षा में वह हजारों जन्म अकेली जी सकती है। रंगिया के कौमार्य ने टूटने के लिए इतने वर्षों शायद तानी की ही राह देखी थी। दो क्षण की नींद - मानो युगों- युगों की नींद को एक ही बार में पूरा कर लिया था उसने। बादलों की नर्म रूई में किसी ने उसे प्रेम से थपकियाँ देकर सुलाया था पहली बार । सारी थकान, सारी चिन्ताएँ, सारा क्रोध जाने कहाँ उस रात खो गया था। तानी ने उसे पूर्णता का अहसास दिया ।

कैसी जिन्दगी थी । हर तरफ कोई-न-कोई अनाथ मिल ही जाते थे । प्रेम रुंगिया ने कभी जाना ही नहीं था । अपने माँ-बाप को भी नहीं देखा था। किसी के यहाँ दासी की तरह कई साल दिन-रात काम किया। अन्त में जिअर (चुड़ैल) कहकर दुत्कार दी गई थी वह।

दूसरे दिन तीनों शिकारी अपना शिकार लेकर आ गए। तानी जाने वाला था, फिर भी रंगिया बहुत खुश थी। कोई शर्त ही नहीं रखी थी किसी ने भी । प्रेम में विरह यही है शायद। दो बूँद ही उसके लिए काफी था। अब उसकी नज़रें झुकी हुई नहीं थीं । प्रेम ने उसको किस कदर निर्भय बना दिया था। सारे गाँववालों को बुलवाया गया, “आज से यह प्रसन्न तो आप सभी प्रसन्न । इसके शरीर से भूत निकल चुका है। देखो, देखो इसकी चमकती आँखों को! अब आपके गाँव से शैतानी साया हट चुका है। देखो, हम सभी को भी । इसने भूत बनकर हमें नहीं खाया, हमारे शरीरों में सूई नहीं चुभोया ! हम सब भले- चंगे हैं। अब हमें अपनी यात्रा पर निकलने की आज्ञा दीजिए।” तानी ने चाचा मंगजंग की ओर अन्त में देखकर कहा ।

सभी ने बारी-बारी से रंगिया की आँखों में झाँक-झाँककर देखा। उसको छू- छूकर देखा। उसके चेहरे की लालिमा को देखा । मुस्कुराती उठी हुई नज़रों को देखा। कुछ घाव अब भी इधर-उधर दिख रहे थे । उसके निशान अब भी मौजूद थे; लेकिन उसके शरीर से निकलती उस आभा को लोगों ने देखा । सबको यकीन हो गया कि तानी सही कह रहा है । गाँव की प्रधान पुजारी ने भी, “जिअर का साया हट गया है इसके शरीर से” कहकर इस बात की पुष्टि कर दी । “ऊह, गंग्रियंग तानी, पक्का उय्यू है उय्यू ! बदमाश ने कुछ अवश्य किया होगा । ऐसे कैसे भूत चला गया ? किसने देखा ?” वह बेहयाई से खी, खी, खी करके हँसने लगा। यह वही आदमी था जिसने उस दिन भी भूत को लेकर प्रश्न-उत्तर किया था और एक आदमी को हाथापाई के लिए उकसाया था। आज इसे कोई झगड़ा नहीं चाहिए, इसलिए बाकी लोगों से कुछ दूरी पर अकेला खड़ा होकर अपने- आपसे ही बातें कर रहा था ।

अन्त में मंगजंग ने कहा, “हम भी अपनी प्रतिज्ञा नहीं भूलेंगे। इसके अलावा भी तुम्हें कुछ चाहिए तो माँगो !” “चाचाजी, न्यिकुंग को मेरे साथ जाने दीजिए। उसके शरीर में कोई ताकत ही नहीं है । वह आपके काम का नहीं है । मुझे दे दीजिए!” तानी ने बहुत विनम्रता के साथ कहा । पिता ने पुत्र की तरफ देखा । पुत्र ने सिर हिलाकर तानी की बातों का समर्थन किया।

वैसे भी वह दगाबाज था अपने पिता के प्रति । अपने कबीले के प्रति। उसके जाने से किसी को कोई ख़ास फर्क नहीं पड़ना था। लेकिन... माँ की आँखें नम हुईं। माँ होती ही ऐसी है। उसका सबसे प्यारा पुत्र, दिल के बहुत करीब । उसने माँ को माँ ही जाना-सिर्फ औरत नहीं । ममता के गर्भ से ही जीवन जन्मता है। एक फूल-सा बच्चा जब एक जवान पुरुष में परिवर्तित हो जाता है, तब माँ भी उनको सिर्फ औरत ही नजर आने लगती है। उसका होना मात्र आवश्यकताओं के लिए होता है। ऐसे कई लोग माता को अपने जीते-जी ही इंकार कर देते हैं। लेकिन ममता तो शून्य आकाश में भी अपने प्यारे से मिलने के लिए राह ढूँढ़ ही लेती है। सपनों में, अहसासों में, नींदों में, जागृति में उसको अपना पुत्र ही नज़र आता है। उससे, वह जो रूठ गया है, जो चला गया है । माँ स्वयं से रात दिन बातें करती है— मानो उसका पुत्र सामने बैठा हो और उसको सुन रहा हो। जीवन के अन्तिम क्षणों में भी उसी की याद लिये मरती है माँ । न्यिकुंग की माँ ने जाने कितनी ही बार उसको अपनी ही आँखों के सामने बेदर्दी से पिता से पिटते हुए देखा था। वह अपने पुत्र की हर हरकत से वाकिफ थी। अब वह न्यिकुंग जोग नहीं बल्कि न्यिकुंग तानी था। वह सब जान गई थी...उसका उन सब से दूर चले जाना ही ठीक था। अपने प्यारे को बहुत ही तड़पता देख, कौन माँ न चाहेगी कि वह इन सबसे दूर... बहुत दूर चला ही जाए । “जाओ, मुझे भी तेरी जरूरत नहीं ! तुझे तो जन्म ही नहीं लेना चाहिए था,” माँ ने कहा ।

प्रेम में औरत समन्दर होती है ..... । एक प्रेमिका और एक माँ ने अपने-अपने प्रेम को रोका नहीं। रोके भी कैसे ? उन्हें जाने दिया ताकि वह उनको कभी न भूल सके। उन्हें अपने हृदय में सदा सदा बसा सके। जो चले जाते हैं, उनके भीतर प्रतीक्षा फिर मिलन की हो न हो-जो ठहर गए उसी पल में - वह जन्मों प्रतीक्षा में ही रहने लगता है। ठहर जाना विवशता भी तो है। अब अपने हाथ में कुछ नहीं होता ।

जन्मों की आस लिये, दूरियों में प्रेम को पलना था
दो किनारों की कहानियाँ, बहती लहरों को गाना था
स्मृतियों में वह आस-पास नहीं कोई अब होना था
जिसे होना था, आधा होकर ही पूरा होना था
रूह के रास्ते आना-जाना था, प्रिय को मेरा होना था ....

5 : जंगली फूल (उपन्यास)

दो महीने से अधिक हो गए अब चलते हुए । न दूर तक धान के लहलहाते खेत दिखे और न ही उनके निशान। वे अनजानी दिशा की ओर बढ़ते चले जा रहे थे । कहीं मार्ग खत्म हो जाता था, ऐसे में जंगलों से होकर नया मार्ग तलाशते और जंगलों को चीरते हुए चलते जाते थे। गहरी नदियों को मछलियों की तरह तैरकर पार कर लेते। चिड़िया, हिरण, मधु, जंगली सब्जियाँ और फल, सबने उनकी जान बचाई थी। जिन घासों को हाथी और मिथुन खाते, उन्हें वे भी तोड़कर खा लेते। सब कहीं-न-कहीं से जुड़े ही होते हैं। गहरी गहरी खाइयाँ, ऊँचे-ऊँचे पहाड़, ऊबड़-खाबड़ ढलानों में फिसलते हुए चलते थे वे स्वयं प्रकृति मानो उन्हें देखकर सन्न रह गई हो। धरती पुत्रों की ऐसी जिद्, ऐसा साहस..... । सर्दियाँ जब आ जाएगी, पहाड़ों में बर्फ अपनी चादर बिछानी आरम्भ कर देगी। ऐसे में लगता है जैसे ये बादल, अब धरती पर कुछ देर आराम करना चाहते हों। कितने आवारा फिरते रहे खाली आसमानों में ? पहाड़ों से लिपटकर अब महीनों सुख-निद्रा में लीन होने का इरादा लिये उतरते हैं। उनकी इच्छा के वगैर कोई उन्हें वक्त से पहले उठा नहीं सकता। आदमी कितना ही जिद्दी क्यों न हो; प्रकृति से जीत नहीं सकता। शरीर पर नाम मात्र का वस्त्र लपेटे, नंगे पाँव बर्फ पर इन दिनों कोई भी ज्यादा चल नहीं सकता। कहीं तो ठहरना ही होगा फिर से । इसलिए जितना हो सके जल्दी चलते रहना चाहिए । रात-दिन चल रहे थे वे। वैसे तानी अकेला होता तो कब की मंजिल आ चुकी होती । साथ चलने वालों के साथ ही चलना पड़ता है। यात्राओं में ही साथ चलने वालों की असलियत का पता चलता है। एक-दूसरे पर आँख बन्द करके भरोसा करना होता है। और फिर ये लोग तो वे लोग थे जो अपनी जान भी एक-दूसरे के लिए दे सकते थे। किसी ने भी किसी का साथ नहीं छोड़ा था। खतरनाक रास्तों पर वे एक-दूसरे के और अधिक करीब हो जाते थे। भैया दोदर का स्नेह तानी को दुगुनी शक्ति प्रदान करता था ।

चारों अब एक छोटे पहाड़ के सबसे ऊँचे टीले पर खड़े थे। सूरज ढलने लगा था। उसकी किरणें आँखों में पड़ रही थीं; लेकिन इस समय उनमें कड़कपन नहीं था। कितनी कोमल हो चली थी। मानो उन्हीं का स्वागत कर रही हो । उन पीली- नारंगी किरणों में मासूमियत की खिलखिलाहट थी। तानी ने सुन लिया माता सूर्य की उस मौन पुकार को। क्यों नहीं, उसी के तो वीर्य से हम निकले हैं। चिड़ियों की सुन्दर आवाजों से जंगल किसी उत्सव में मग्न था । सुन्दर जंगली आजाद फूलों से सजता जा रहा है यह जंगल। ओह, रंगों का मौसम आ गया अब !

“वह देखो ! वह रहा एक गाँव। इस गाती हुई वादी को सुनो। इसकी मिट्टी की महक को अपनी रूह में महसूस करो । यहाँ स्वर्ण किरणें अपना अमृत बरसाती हैं। फसलें कैसे नाचती होंगी यहाँ । भैया दोदर, मुझे लगता है आपकी मंजिल आ गई। यहाँ भी हमारी पीढ़ियाँ बसेंगी । प्रकृति के नृत्य में शामिल होंगे।” तानी ने ज़मीन से मिट्टी को अपनी मुठ्ठी में पूरी श्रद्धा से उठाकर पहले तो सूँघा और फिर कहा । उसके आँखों में उस समय एक अजीब सी चमक थी - जैसे अन्धकार में चमकता है कोई सितारा अकेला आसमान में। उसके अंग-प्रत्यंग से आनन्द की लहरें मानो उठ रही थीं। उसके पाँव जैसे ज़मीन पर नहीं टिक रहे थे।

“मैं समझा नहीं तानी !” वह परेशान - सा हो गया ।

"आपको याद नहीं? नर्बा में माँ ने अन्तिम विदाई के वक्त क्या कहा था?"

“क्या कहा था? मुझे नहीं जानना । मुझे याद नहीं करना । मैं क्यों अकेला रह जाऊँ? अपनी जड़ों से क्यों कटकर अलग हो जाऊँ ?”

“आपको सब याद है । फिर भी मैं याद दिलाता हूँ। उन्होंने कहा था- हमारा वंश रेत-कणों की तरह संसार में फैले... अनगिनत । सारी दिशाएँ हमारी हों । हर तरफ फैल जाना। सारी धरती तुम्हारी है, और तुम इस पूरे संसार के । जड़ों से कट जाना नहीं, जड़ों को मजबूत करना है ! इसके लिए तुम्हें सामना करना होगा - विरह का । आँसू का । ”

“हाँ, लेकिन अपनों से दूर, उनसे अलग... तुम सब के बिना मैं कुछ भी नहीं हूँ तानी !”

“भैया, सूर्य माता भी चाहती है कि आप यहीं रह जाओ और अपना वंश यहीं बढ़ाओ। देखो, यहाँ की वादियों में शान्ति की एक लहर है। रक्त शरीर से अलग होकर ज़मीन पर नहीं बहता होगा । रगों में दौड़कर अपना गीत गाता होगा यहाँ । वहाँ भूख, युद्ध, षड्यन्त्र आदि में ही जीवन नष्ट हो जाएगा। जीने के लिए हम पैदा हुए हैं। लेकिन जीवन को जानने से पहले ही हमें इसे त्यागना पड़ता है। हमारा वंश इस प्रकार पूरी तरह नष्ट हो जाएगा। लोगों के पास समझने की ताकत नहीं है। वे भूखे हैं ! जब तक यह समस्या हल नहीं होती, तब तक मैं बहती नदी की लहरों का गान कैसे सुन सकूँगा ? नृत्य को मचल-मचल जाते इन पैरों की प्रतीक्षा कब खत्म होगी ? कहो तो सभी अपने हैं, और कहो तो सभी अपने नहीं भी हैं। कौन अपना ? कौन पराया ? मन ने जिसे जो मान लिया; उसे ही हमने भी सच मान लिया । शत्रु सदा अपनों के ही रूप में रहता है। एक-एक लकड़ी के टुकड़ों के लिए हमारी माँएँ, बहुएँ और बहनें, किस प्रकार निर्ममता से एक-दूसरे से लड़ती-झगड़ती रहती हैं ! आपने देखा नहीं ? किस तरह भाई-भाई अलग हो गए। लोभ और ईर्ष्या के चलते । देखा नहीं आपने ? किस तरह वे एक- दूसरे के जान की दुश्मन हो गए ? कब तक हम अपने शरीरों को शस्त्रों से सजाए रखेंगे? भय में ही जीवन क्यों बीत जाए? इस तन को इस भार से अब तो मुक्त करना ही होगा भैया। शस्त्रविहीन समाज का स्वप्न है मेरा । मेरे लिए यही प्रतिज्ञा पुरुषार्थ है। अब... अब और नहीं। जीवन को अपने विस्तृत रूप में फ़ैल जाने दो। आपको ये करना ही होगा। हम फिर मिलेंगे। जब चाहे मिलेंगे। देखो, क्या आपने यहाँ एक बात महसूस नहीं की, कि हृदय यहाँ पूरी तरह से खुल जाना चाहता है?"

तानी की आँखें अपने बड़े भाई की आँखों से मिलकर आग्रह कर रही थीं। उनमें एक याचना थी। वेदना थी उन आँखों में, लेकिन जीवन से भरपूर । सृजन की चाह थी। जिजीविषा थी । खाई में पड़े रहना तानी को मंजूर नहीं था । उसे पहाड़ की चोटी पर घर बनाना था । धरती का सौन्दर्य वहीं से देखना था । किनारों की बाँह थामे जो रह गए - वे डूब गए। समन्दर की बाँहों में जो समा गए - वे बच गए। जीवन से जिसने इस कदर प्रेम किया- वे डूब कर पार हो गए। भय है क्या चीज !

“मेरे सामने हवा के समुन्दर में लहरों से लहराते हरे-हरे सुन्दर पेड़-पौधे हैं। अपनी बाँह फैलाए सुन्दर वादियाँ। ऐसा सौन्दर्य । आह ! मैं फिर भी दुविधा में हूँ मेरे भाई। एक गहन - सी पीड़ा मुझको कुछ भी देखने से रोकती है। भीतर अँधेरा व्याप्त हो गया है मेरे प्यारे भाई दोन्यी । क्या मैं इसलिए तुम्हारे साथ चला था ? बताया क्यों नहीं था ? क्या मैं इतना कमजोर हूँ कि तुम्हें मुझको एक छोटे- से बच्चे के समान अपने साथ चलने का सुख देकर धोखे से यहाँ तक लाना पड़ा ? एक बार कह देता, मैं ख़ुशी - ख़ुशी सभी से विदाई लेकर चल देता,” फफक- फफककर वह रोने लगा । " तब आपका चलना शायद मुमकिन नहीं होता भैया,” तानी के चेहरे पर दर्द की रेखाएँ उभरने लगीं। उसके आगे वह कुछ कह नहीं पाया। न्यिकुंग उस तरफ मुँह किए शायद रो रहा था । कीपुंग दोदर के पाँव कोकूँ कूँ करते हुए चाटने लगा । मानो वह भी सब कुछ समझ गया हो। कोई भी किसी को भी गले से लगाकर नहीं रोया । क्या बिछड़ने के पहले ही बिछड़ने को तैयार है यह शरीर ।

तानी ख़ामोशी से धीरे-धीरे नीचे ढलानों की तरफ उतरने लगा। अहसास जब उथले - उथले हों, तो ही उनको आसानी से अभिव्यक्त किया जा सकता है । विरह से भयभीत होकर जिसने भी प्रेम किया - प्रेम ने उसे अपने से वंचित कर दिया। फिर से मिलने की आस लिये ये हृदय अपनों से दूर जाने के लिए तैयार होता है। यकीन इस बात का कि जिनसे हम बिछड़ जाते हैं, उनके दिल के बहुत गहरे में हम रहते हैं। यही यकीन जीवन की ऊर्जा का काम करता है । जीवन खिलता रहे, या यूँ कहें-हम सदा से खिल रहे जीवन को जी भर देख सकें। इसके लिए चलना, मिलना और बिछड़ जाना जरूरी है। इन बातों को वे अच्छी तरह से जानते थे ।

मुश्किल से चार-पाँच घरों का यह गाँव । कुछ उदास और वृद्ध-सा है। हर एक घर दूसरे घर से बहुत दूर है । लगता है वे एक-दूसरे को पसन्द नहीं करते। साथ रहना जैसे मजबूरी हो। इसी गाँव के दो आदमी बिना कुछ कहे इन लोगों के सामने से यूँ गुजर गए मानो उन्हें जीवन से या फिर आदमी से कोई मतलब ही न हो। चेहरे भी कैसे उदास हैं । वे किसी से भी मिलना नहीं चाहते शायद । इसके विपरीत, प्रकृति कैसे अपनी धुन में नाच रही है। इसके गीत किसी को क्यों सुनाई नहीं दे रहे। जहाँ भूख नहीं है, वहाँ लोगों के चेहरे बुझे हुए-से क्यों हैं ? वे इतने कठोर क्यों हो जाते हैं ? खुद से भी अजनबी रहता है यहाँ हर कोई । यहाँ किसे उसकी आवश्यकता है जो यहाँ मुरझाए दिलों में गीत भर दे ।

आम मार्ग से कुछ दूरी पर एक छोटा-सा घर था । लकड़ियों, बाँसों और पत्थरों से बना बेहद सुन्दर और मज़बूत । बरामदे में एक पतला - दुबला-सा लड़का कुछ बुदबुदाता हुआ बैठा है। वह अपने में खोया हुआ था। चारों ने एक- दूसरे की तरफ देखा । फिर उसकी तरफ चल दिए । “मेरी नज़रें जहाँ तक जाती हैं, उसके बाद वह धुँधलापन हमेशा छा जाता है। आँखें बस वहाँ तक ही पहुँचती हैं जहाँ से कल्पनाएँ शुरू होती हैं। अच्छी बुरी सब । कल्पना सिर्फ कल्पना होती है । पिता बच्चों के लिए जीवन होता है । और माँ... माँ उनकी साँसें होती हैं । ऊँह ! लेकिन तुम्हें पता है, कभी-कभी कल्पनाओं की भी आँखें होती हैं? वह कल्पना नहीं होती। अच्छा छोड़ो। हाँ, वहीं से ढलानों में उतरते जाओ, उतरते जाओ ... फिर दूर तक फैली मैदानी ज़मीन दिख जाएगी। फसलों के मौसम में धान का समुद्र जब हवा के संग लहरों-सा नाचता है। पीले-पीले सरसों के मौसम में शोखियाँ लोगों की बढ़ जाती हैं। प्रेमी पागल हो जाते हैं। वहीं पर उस पीली सरसों के खाली पड़े खेत में मेरे पिताजी का टूटा हुआ दाव और सूखे हुए कुछ खून के धब्बे अब भी पड़े होंगे। नफरत करता हूँ उन लोगों से। लेकिन ... लेकिन वह सुन्दरी । आह ! वह तो किसी आसमान से कभी उतरी होगी। तभी तो सबसे अलग... सबसे जुदा है। लेकिन ऊँह... बहुत जिद्दी है ।” उसने उँगलियों से उस तरफ इशारे करते हुए उन लोगों की तरफ बिना देखे ही कहा । खालीपन था उसकी आँखों में। त्वचा रूखी-सूखी । महीनों नहीं नहाया होगा। गन्ध भी आ रही थी उसके शरीर से। यहाँ पानी तो क्या, किसी भी चीज की कमी नहीं दिख रही थी। फिर भी वह इतना गन्दा और बदबूदार था । शायद आलसी होगा। महा आलसी ।

“क्यों? उन्होंने तुम्हारे पिताजी की हत्या कर दी ?” दोदर ने सहानुभूतिपूर्वक उसके कन्धों पर हाथ रखकर पूछा ।

“अरे हट, पागल हो क्या ? वह वहाँ के खेतों में काम करता था और दारू पी- पीकर बीमार हो गया था। एक दिन यूँ ही लुढ़क गया बस । उसके नाक से बहुत खून बह गया था। माँ किसी और के साथ भाग गई। उस वक्त जवान थी वह। मैं और मेरी बहन यहाँ दादी के पास वापस आ गए। सब कुछ वहीं पर तो खो गया था। ” उसने दोदर के हाथ को झटककर हटाते हुए कहा ।

“कमाल है ! ऐसे बोल रहा था जैसे इसका बाप युद्ध में योद्धा की तरह मारा गया हो। और इसलिए अब यह उन हत्यारे दुश्मनों से नफरत करता है । मूर्ख कहीं का! डरा ही दिया था। अच्छी- भली ज़मीन है खुद की । क्या वे यहाँ ही कुछ उगा नहीं सकते थे ?” न्यिकुंग ने मुँह और आँखों को कुछ अजीब-सा बनाते हुए कहा ।

“लगता है पागल गाँव है यह । ” दोदार ने हँसते हुए कहा तो न्यिकुंग भी खी, खी, खी कर हँसने लगा ।

“किस सुन्दरी की बात कर रहे हो ?” न्यिकुंग ने अपनी एक आँख दबाते हुए शरारत से भर कर कहा ।

“श्श्श्... वहाँ कोई है जंगल में !” तानी ने उन लोगों को चुप रहने का इशारा किया और गौर से हिलते पत्तों और पौधों को देखने लगा ।

“भैया, आप यहीं ठहरो । मैं बस अभी आता हूँ।” यह कहकर वह दौड़कर जाने लगा उस तरफ। कीपुंग और न्यिकुंग भी तेजी से उसके पीछे हो लिये।

परम जिज्ञासु तानी । वह रुक नहीं सकता था कभी भी । कहीं भी । कभी-कभी वह खुद ही हैरान हो जाता था कि आखिर वह हमेशा ही यात्रा में क्यों रहता है ? अपनी जिज्ञासा के चलते वह यात्रा करता था अथवा कुछ और के लिए । मन को वह दौड़ाता था या मन उसको । या फिर यात्रा उसकी आदत बन गई थी। कौन जाने ।

बरामदे में धागों का ताना-बाना लिये, आधे बुने कपड़े, बुनाई की लकड़ियों में करीने से रखे हुए थे। किसी की चतुर कारीगरी का पता इन रंग-बिरंगे फूलों, पत्तों से लग रहा था। जब बुनकर तैयार हो जाएगा, तब कितना सुन्दर लगेगा। कपड़ों की बुनाई अच्छी-खासी होती होगी यहाँ । दोदर घर के भीतर जाने लगा । “यह तुम्हारे बाप का घर नहीं है समझे ! मेरी दादी सो रही है, जगा न देना।” उस लड़के ने कहा। उसने कोई उत्तर नहीं दिया। धीरे-धीरे दबे पाँव चलने लगा। बाँस का बना घर है— चाहे कैसे भी चलो-चेर्रेक... चेर्रेक... चेर्रेक की आवाज तो करेगा ही। दिन के उजाले में भी अन्दर अन्धकार था। बाँस के छिम से अनगिनत छिद्र बाहर की रोशनी को अन्दर ला रहे थे। बीच में चूल्हा था। राख में दबी हुई थी आग। एक कोने में कोई इस तरह सो रहा था - जैसे सर्दियों में कुत्ता अपने शरीर को मोड़कर सोता है। वह उसके नज़दीक ... बहुत नज़दीक आ गया। वह देखना चाहता था उसके चेहरे को, “ताकिक, ताकिक भूख लगी है,' यह कहते हुए वह अन्धी बूढ़ी औरत तेजी से दोदर के पाँव से साँप की तरह लिपट गई। इतना अचानक सब कुछ हुआ कि दोदर को लगा जैसे किसी मगरमच्छ ने उसके पाँव को अपने मुँह में डाल लिया है, और अब चबाना ही बाकी है। “तानी ... तानी... तानी ... बचाओ !” वह घबराकर चिल्लाया । और उसे तुरन्त होश आया कि उसके भाई से कोई जवाब नहीं आया है। "ओह, मेरा भाई चला गया! उसने भैया, कहकर पुकारा नहीं मुझे। धोखेबाज कहीं का ! हमेशा यही करता है। ओह, मेरे प्यारे ! अपने पूर्वजों की कसम है मुझको। मैं वह कर दिखाऊँगा जो तुमने चाहा । लेकिन एक बार गले से तो लगता । डरपोक कहीं का! मेरा प्रेम भी इतना कमजोर नहीं, जो तुझे रोक लेता।” उसका सारा शरीर ढीला हो गया, जैसे अब उसमें कोई ताकत ही नहीं बची ! वह लड़खड़ाकर वहीं पर बैठ गया और जोर-जोर से रोने लगा ।

आँसू भी आँखों से अलग होकर ही आँसू कहलाते हैं। विरही होना जिन्दा होना है। जो भी है वह, बेजुबान दर्द है । यह असहनीय है। क्या जो चले गए, वे नहीं रोए होंगे? कैसे आगे बढ़ सके होंगे उनके कदम। एक अदम्य साहस चाहिए। फिर मिले न मिले। जीवन अनिश्चित... सदा अनिश्चित... फिर भी वे ऐसे मिले कि जुड़ गए हमेशा के लिए। ताकिक बाहर से दौड़कर अन्दर आ गया । लेकिन तानी...तानी नहीं आया। वह जा चुका था। अब दोदर को अपने दम पर एक और तानी कबीला तैयार करना था । उसकी ताकत, उसकी बुद्धि और धैर्य पर भरोसा न होता तो तानी उसको कभी भी यूँ छोड़ कर चला न जाता । अपने प्यारे भाई तानी का स्वप्न अब पूरा करना होगा उसे । उसके सामने अब पहाड़-सी चुनौती खड़ी थी ।

किसी दूसरे को अपने ही जैसे प्रेम करने के लिए स्वयं के ही भीतर, हृदय के अन्तस्तल पर अपनों की और उनकी मुहब्बत की गहरी यादों का होना जरूरी होता है। अपने जीवन में उनकी कमी का अहसास का होना सुन्दर है । उसी कमी के अहसास के चलते, उन्हीं की यादों में, उसी प्रेम को वह औरों में देखने लगता है । और चाहे तो फिर से वह उसी प्रेम में उनके साथ जी सकता है। प्रेम की यादें ही आदमी को प्रेमी बनाती हैं। माँ की यादें ही एक औरत के भीतर के मातृत्व को जन्म देती हैं। भाई की यादें भी अब किसी और को भाई स्वीकार करने की ताकत देगी। हर रिश्ता एक रास्ता है ..... ।

जाने कैसे पागल लोग थे वे - आँधी की तरह प्रेम करते थे, तूफ़ान की तरह बिछड़ भी जाते थे। जैसे भी थे मगर दिल में उतर जाते थे। जब भी वे जीवन ने हमेशा ही अपनी तीव्रता में जीवन्तता को फिर से पा लिया। प्रेम की ऐसी उन अदृश्य आँखों की यादों में ही दुनिया जिन्दा है । वेदना हो तो प्रेम की ही हो... ऐसे ही दिवाने लोग थे वे ।

6 : जंगली फूल (उपन्यास)

कुछ तो है, जो आम नहीं है । लगता है जैसे हवा का कोई गोला हो । दिखता नहीं लेकिन उसकी उपस्थिति का आभास है। कभी पेड़ों की शाखाएँ हिलने लगतीं, कभी ज़मीन पर पड़े प्यासे सूखे पत्तों की आवाजें आने लगतीं। कभी जैसे कान में ‘ता...नी...' कहकर किसी ने धीरे से पुकारा हो । हम्म... इसका मतलब है वह जो कोई भी है, बड़ा शरारती है। “आबुतानी, आबुतानी वह देखो ! वहाँ कुछ था काला-काला-सा।” न्यिकुंग की छोटी-सी आँखों में कई तरह के भाव आ रहे थे। तानी ने उस तरफ ध्यान से देखा जहाँ उसने इशारा किया था। लेकिन अब वहाँ कुछ नहीं था। अचानक काग्ग... काग्ग... काग्ग करता हुआ, कीपुंग हवा की वेग से उसी ओर दौड़ने लगा जहाँ तानी की नज़रें टिकी हुई थीं। दोनों कीपुंग के पीछे-पीछे भागने लगे ।

भागते गए, भागते गए । होश भी नहीं रहा कब रात हो गई । एक विशालकाय बरगद के पास पहुँचकर उस विचित्र प्राणी का भागना भी थम गया । तानी ने एक ही झलक लम्बे-काले घने आक्रमणकारी बादलों से लहराते बालों को ही देखा था। वह हवा के वेग से इसी वृक्ष के घने पत्तों में गायब हो गया था । इतना देख लेना ही काफी है। अब वह उसके काबू में आज नहीं तो कल आ ही जाएगा। डरकर भागा है, तो खतरनाक तो हो नहीं सकता। वैसे भी खतरों से खेलने का आनन्द ही कुछ और होता है तानी के लिए। उससे जो दूर भागे ...उसी के पीछे भागता है वह ।

अन्धकार बढ़ गया था। इन लोगों को भी अब यहीं रात बितानी होगी । न्यिकुंग ने जल्दी से आग जलाई। लेकिन अब क्या करे ? खाने का इन्तजाम ही नहीं हुआ। भूखे पेट तानी से कभी सोया नहीं जाता। कुछ भी करो, कुछ तो खाना ही होगा। आग धूं-धूं करके जलने लगी। उसकी रोशनी आस-पास फ़ैल गई। सामने एक 'ताक्कुक' पेड़ खड़ा था। उसकी जड़ें बाहर ज़मीन पर यहाँ-वहाँ फैली हुई थीं। उनमें अंगूर की गुच्छों के तरह उसकी मीठी और लाल-लाल गुठलियाँ बिखरी पड़ी थीं। आह, यही तो तानी का मनपसन्द भोजन है । चिड़ियों और हिरणों से कितनी ही बार उसने इसे छीनकर खाया था । उसके करीब जाकर तानी ने श्रद्धा से सिर झुकाया और फिर तीनों भूक्खड़ टूट ही पड़े।

“ओये, सारा मत खा जाना! मेरे लिए भी रखो मूर्खो !” ऊपर से किसी ने बहुत चिन्तित स्वर में चिल्लाते हुए कहा ।

“ भूतों को भी भूख लगती है ? कमाल है। हद है । " न्यिकुंग बहुत ही डर गया। और तानी के करीब घुटनों के बल सरककर खुद को सुरक्षित करना चाहा। कीपुंग चप... चप...चप कर खाए जा रहा था । उसको किसी की फ़िक्र ही नहीं थी अपनी भूख के आगे ।

“मूर्ख किसको कहा ? यह तुम्हारी सम्पत्ति है क्या ?” तानी ने बनावटी क्रोध से कहा।

“उसने तो मेरा ही पेट पाला है। मैं ही ऋणी हूँ उसका। फिर क्यों कहूँ वह मेरा है ?” उसने आश्चर्य मिश्रित अन्दाज से जवाब दिया ।

“चल ठीक है। नीचे उतर ! वरना हम सब खा जाएँगे।” तानी ने कहा। लेकिन वह नहीं माना। उतरने के लिए तैयार ही नहीं था। शायद बहुत डरा हुआ हो ।

“सिमांग आएगी कल यहाँ । उसे भी यह बहुत पसन्द है । तुमने सारा ख़त्म कर दिया तो उसे क्या खिलाऊँगा मैं ?”

“वह कौन है ? यहाँ सिर्फ इसी को खाने आती है ? तेरी प्रेमिका है क्या ? वह भी तेरे ही जैसी है क्या? अजीब जोड़ी होती होगी भूतों की ! कहाँ रहती है ?” न्यिकुंग ने एक साँस में पूछ लिया ।

“ लगता है तू और तेरा मालिक दोनों ही बड़े चंचल और काले मन वाले हैं। " उसने मुँह बिचकाकर कुढ़ते हुए कहा ।

“सुन, मैं इसका पिता हूँ । मालिक नहीं, समझे !” तानी ने बचे-खुचे सारे फलों को इकट्ठा करके अपने “ नारा ” में डालते हुए कहा ।

“हा हा हा हा जन्म से पहले ही पिता बन गए थे क्या?” यह कहते हुए तेजी से वह नीचे उतर आया। तीनों ने उसे देखने की कोशिश ही की थी कि उसने अचानक तानी के हाथ से नारा

छीन लिया और वृक्ष के ऊपर के उसी गुफा के अन्दर तीव्रगति से प्रविष्ट हो गया। वे हक्के-बक्के रह गए। इतनी तीव्रता ! स्वयं हवा है या कुछ और? क्या था वह ?

“अच्छा बच्चू ! मेरे हाथ से तूने मेरा ही सामान छीना है। अब मज़ा चखाऊँगा मैं तुझे। मेरा नाम तानी है तानी !” तानी की आँखों में शरारत भरा अहंकार उतर आया ।

“तानी, तानी, तानी हा हा हा हा... खी खी खी खी । ” वहाँ गुफा के भीतर वह बेशर्मी से हँस रहा था। इधर कीपुंग तानी के प्रति सहानुभूतिपूर्वक कूँ कूँ कूँ कर रहा था। न्यिकुंग सिर झुकाए एक हाथ से मुँह को दबाए अपनी हँसी रोकने की भरसक कोशिश कर रहा था ।

“ देखना अब, मैं क्या कर सकता हूँ। न्यिकुंग जाओ, आग को और तेज करो !” तानी ने दोनों की ओर देखकर कुछ गुस्से में कहा। उसने आस-पास खड़े बड़े-बड़े पेड़ों के छालों को छीलना प्रारम्भ कर दिया । मज़बूत रस्सी और डंडों के साथ उन छालों से गुफा को बाहर से बाँधकर ढक दिया । “तानी दे रहा हूँ ! दे रहा हूँ ! खोलो मैं मर जाऊँगा !” उसने परेशान होकर कहा । "अब तो तभी खुलेगा, जब तेरी प्रेमिका आएगी । उसको रोती हुई देख हमें सुकून मिलेगा।” तानी ने ठहाके लगाते हुए कहा । “वह मेरी सखी है। प्रेमिका नहीं। समझे ! शरीर के सिवाय कभी कुछ तुम्हारी आँखों ने देखा भी? शब्दों के परे, कल्पनाओं के आगे कभी कुछ सुना? ख़ूबसूरती की देवी। प्रेम की आँखें ! कल्पनाओं के परे है वह । इस दुनिया कि नहीं हैं। पतझड़ में फूलों की खुशबू खोज लेती है।” अन्दर से रोते हुए उस प्राणी ने जवाब दिया। उसकी आवाज में भावुकता, क्रोध और कम्पन था । कितना अपनापन था उसके प्रति उसकी आवाज में । वह आहत था । क्यों नहीं होता । स्नेहपूर्ण रिश्तों का...उनमें पलने वाले चमकते सितारों का कोई नाम होता है?

तानी ने कोई जवाब नहीं दिया। कुछ हारा हुआ सा महसूस करने लगा था वह । ग्लानि भरी फीकी हँसी लिये उसका शरीर कुछ ढीला सा हो गया । मन हारा कि तन भी हार ही जाता है। उसने बेमन से उन रस्सियों को खोल दिया । लेकिन फिर भी वह प्राणी बाहर नहीं आया । तानी ने भी कुछ कहा नहीं ।

ऊपर उसी पेड़ पर ही उस बड़ी-सी शाखा पर अपने दोनों हाथों का तकिया बना कर तानी लेट गया। अब उसे नींद नहीं आ रही है । क्यों? कुछ नहीं ! बस कोई ख्याल - सा आ रहा है। पत्तों के महीन रास्तों से होकर उसकी आँखें आकाश में टिमटिमाते उस एक तारे पर टिक गई हैं। क्या हम कभी तारों को छू नहीं सकते! उसे देख पाते हैं । यही क्या कम है। हाँ, लेकिन कभी-कभी जी चाहता है, पंख लगा कर उड़ जाएँ और उसे एक बार छू आएँ । कितनी खूबसूरती से टिमटिमाते हैं ये। है न! ओह, ख़ूबसूरत और जिद्दी है ? पतझड़ में भी खुशबू खोज लेती है? रंगों के मौसम में क्या ढूँढ़ लेती होगी ? खुशबू ही खुशबू को ढूँढ सकती है। लेकिन किसी पुरुष की सखी ? यह कैसे सम्भव है? मैं सबका ख्याल रखता हूँ, सबसे प्यार करता हूँ, लेकिन कोई स्त्री मेरी सखी क्यों नहीं? मैं भी तो जिद्दी हूँ । उफ्फ, यह क्या-क्या सोचने लगा है वह । लगता है अब तो कोई साया तानी के भी दिल पर लहराने लगा है। ऐसा साया जिसे उसने कभी देखा नहीं था। जाना नहीं था। बिन बात शरमाकर उसने हँस जो दिया है। हाँ ठीक है । कोई बात नहीं। ख्यालों में तुम आजाद हो । कुछ भी कर सकते हो। लेकिन तानी, क्या तुम जानते हो? जिज्ञासा और रोमांच अपनी जगह है। उसके आगे रास्ता अनजाना और अनिश्चित है ? यहाँ धान के बीज लेने आए हो तुम। याद रखना। ठीक है । कैसे भूल सकता है वह ! अब सो जा ।

तानी ने आँखें खोलीं। कुछ उजाला फैलने लगा था। यह क्या है? वह घबराकर चौंक गया। उसके चेहरे पर किसी का चेहरा झुका हुआ है। कोई अपनी ठुड्डी पर हाथ रखे, आँख बिना झपकाए लगातार उसे घूरे जा रहा है। लाल-लाल, बड़ी- बड़ी आँखें। काला चेहरा, आक्रमणकारी काले घने बादलों से लहराते, खुले, सीधे, रूखे बाल। नीचे लिंग को भी ढकती हुई, झूलती लम्बी दाढ़ी। बीच में से झाँकता पतला-सा होंठ। अजीब-सा सिर । शरीर में कोई घुमाव नहीं। लगता है सब कुछ इसके पेट से निकल रहा है— हाथ, पैर, गला, सिर... सब कुछ। पतले-पतले छोटे-छोटे हाथ-पैर । बड़ा और चपटा - सा पेट । लम्बाई लगभग पाँच-छ: साल के उम्र के बच्चे की-सी । अगर इसके बाल और दाढ़ी हटा दी जाए तो यह बिल्कुल मेढक-सा दिखेगा। वह बिल्कुल नंगा रहता है। एकदम सहज और स्वाभाविक है।

“हर्बदुल !”, तानी ने आश्चर्यचकित भाव के साथ उसको देखते हुए फुसफुसा कर कहा ।

“हर्बदुल ? मेरा नाम पाँगिन है। समझे ! "

“घने जंगलों में, पेड़ों पर बिल्कुल तुम्हारी तरह दिखने वाला एक मेढक तुम्हारी ही तरह, पेड़ों के छालों और गुफाओं के भीतर रहता है। उसका नाम हर्बल है। सृष्टि की सुन्दरतम रचनाओं में से एक है वह। तुम कितना...कितना अनोखा । कितना सुन्दर !”

“सुन्दर ?”

“हाँ।”

“सबके लिए मैं अनोखा नहीं, अजीब हूँ ।"

“मैंने तो ऐसा सौन्दर्य, ऐसी सौम्यता कभी देखी नहीं.... कहीं भी । "

“हर्बदुल...ऊँह! नाम में क्या रखा है ! आँखें बस रूप में अटकी । ”

" नाम में मेरा स्नेह भाव है। "

'भाव के पार ?"

"पता नहीं ।"

“पता नहीं। क्यों ?”

“ पता नहीं, बस ।”

"भाव तो भाव है। क्षण में आता, क्षण में चला जाता है। क्षण-भर का खेल । फिर सब शून्य । इसलिए उसके पीछे हम नहीं जाते।”

" समझा नहीं । ”

" शब्दों पर तुम अटके । ”

"..............."

“तानी का क्या अर्थ है ?"

“वह जो मन के अनुसार चले। ज्ञात-अज्ञात पूर्वजों को भी तानी कहते हैं । " “भाव मन से ही तो पैदा हुए... और तुम अब तक उसी में चल रहे हो? पानी के बुलबुले हैं ये । क्षण-भर रहे... फिर सब खत्म। ज्ञात-अज्ञात पूर्वज ... हुम्म... यह दिलचस्प हैं !”

“भाव के बिना आदमी क्या है?”

“कुछ भी नहीं... । “

“कभी गए इस 'कुछ भी नहीं में ?”

“ मृत्यु में ?”

“हाँ।”

"कोई जल्दी नहीं । ”

“हा हा हा हा... तुम ज़ल्दी में ही रहते हो ! गए भी तो पता नहीं चला होगा । "

“नहीं, मैंने कभी मरकर देखा नहीं। लेकिन मुझे मृत्यु से डर लगता है । फिर भी चलता हूँ उसी की तरफ। मैं भय से रुक नहीं जाता... चलता रहता हूँ । इसलिए तो आबोतानी हूँ । पिता, तानी वंश का पिता ।”

"ओहो, मूर्ख ! महामूर्ख ! समझे नहीं मेरी बात । लेकिन थोड़ा-सा तुम आदमियों से कुछ अलग हो ।”

“नहीं, बस जिद्दी हूँ।”

“हा हा हा हा हा ... वह भी जिद्दी है !”

यह कहकर वह हवा के वेग से नीचे कूद गया। और फिर नज़रों से गायब हो गया। कैसा वेग है! इतनी जल्दी कैसे जा सकता है कोई ! तानी से भी तेज । हर बात में उससे आगे। कुछ सिकुड़ा हुआ-सा महसूस नहीं हो रहा उसको उसके सामने? वायु पुत्र। धरती पुत्र । सूर्य पुत्र । बुद्धि का मालिक । अब क्या हुआ ? लेकिन ...लेकिन ऐसा कैसे हो सकता है ?

उजाला फैलता जा रहा है। सब कुछ दिखने लगा है। कीपुंग और न्यिकुंग सो रहे हैं अभी भी। वे रात-भर आग जलाए बैठे रहे थे । मच्छरों ने सोने ही नहीं दिया । जल्दबाजी में उस घास को भी नहीं ढूँढ़ पाए जिसे जलाकर बेफिक्र होकर चैन से सो जाते।

तानी ने उनको जगाया नहीं । कीपुंग ने सिर उठाकर तानी की तरफ देखा, फिर वापस सो गया । वह दबे पाँव नीचे उतरा। धीरे-धीरे उस ओर चलने लगा जहाँ से हर्बल गया है। कुछ दूरी तक चलने के बाद उसने देखा - आसमान ज़मीन पर लेटा हुआ है या समन्दर का एक टुकड़ा लहरों से परेशान होकर कुछ क्षण यहाँ विश्राम करने आ गया है। अहा ! कितनी सुन्दर झील है यह! कितनी शान्त ! ये मछलियाँ कभी भी शोर क्यों नहीं करतीं? चंचल लेकिन शान्त । कभी भी नहीं ठहरतीं ये। कुछ मेढक बाहर से थोड़ी-थोड़ी देर बाद झील के गहरे पानी में गोता लगाने कूद रहे हैं। कूदने की ये आवाजें कितनी कर्णप्रिय हैं। एक-दूसरे को जगातीं ये चिड़ियाँ। किनारे पर छोटी वह चिड़िया । क्या खोजती होगी। इस मौन झील के सान्निध्य में जो भी आता होगा, वह भी शान्त हो जाता होगा।

फूलों का मौसम आ गया है। जंगल कैसे सज गया है! लाल, नारंगी, पीले, गुलाबी-सब रंग मानो फ़ैल गए हैं। तरलो....तरलो...तरलो की आवाज करती ये चिड़ियाँ... माँ की याद दिलाती हैं। भूली हुई-सी कुछ यादें ... कुछ अहसास सीने में जगने-सा लगा है। गुलाबी रंग आसीन को कितना पसन्द था । उसकी तरह सुन्दर हैं ये फूल । दोनों नन्हें बच्चों-सा मासूम ये नज़ारा । झील के किनारे-किनारे छोटी-छोटी झाड़ियों में बँटे अनगिनत फूल । मधुमक्खियों का कोई छत्ता है जैसे । या फिर हजारों-हजारों रंग-बिरंगी तितलियों का एक साथ कहीं ठहरना हो। क्या हमारे पूर्वजों का स्थान भी ऐसा ही होता होगा ? या फिर वे ही इन्हीं में कहीं खिलते होंगे? पीले फूलों में भँवरों के गीत अब गूंजने लगेंगे। प्रिय आसीन याद करती होगी तानी को । पानी में प्रतिबिम्बित ये आसमान ... किसका रूप झलकता है इसमें? स्वप्न सा यह संसार है। पर... पर कितना सुन्दर स्वप्न ! लेकिन इसी स्वप्न में भूख क्यों है ? गरीबी किसलिए? इसकी चुभन इतनी तेज क्यों है ? क्षण-भर का जीवन ... लेकिन शाश्वत । जीवन सदा-सदा है; अगर नहीं है कुछ, तो वह है ‘मेरा’ का क्षण-भर बाद नहीं होना । तानी विचारों में खोया हुआ था कि सहसा किसी के चिल्लाने की आवाज सुनाई दी । “ईई ई ई ...!” अरे ये किसकी आवाज है? किसी लड़की की है।

तानी उस आवाज की तरफ दौड़ने लगा। उसने देखा । वह देखो, दोनों तरफ दो शेर। उसके बीच में घुटनों के बल कोई आदमी है ? वह दौड़ने को तैयार, सतर्क है। उसकी आँखें उन शेरों पर लगी हुई हैं। लेकिन उसने चेहरा क्यों ढक रखा है? दोनों शेर भूखे लग रहे हैं। वायु पुत्र भी आव देखा न ताव दोनों शेरों के बीचोंबीच आ गया। पहले तो वह आदमी चौंका, लेकिन कहा कुछ भी नहीं । तानी और उसकी पीठ एक साथ मिल गई हैं। दोनों एक-दूसरे के चेहरे के विपरीत दिशा में हैं। दो शेर, दो आदमी । गर्रर गर्रर करता हुआ उस तरफ वाला शेर गुर्राया ही था कि हवा के वेग से वह आदमी उस शेर के पीठ पर बैठ गया और चिल्लाया, “मैं चुनाव नहीं कर पा रही थी कि आज किस पर सवारी करूँ ! तुमने सब खेल बिगाड़ दिया । यह मेरे मित्र हैं मूर्ख ! लेकिन तेरी हिम्मत की दाद पड़ेगी। मान गई। तुम कमाल के हो। दूसरों के लिए अपनी जान जोखिम में डालने की हिम्मत है तुझमें !” अपने चेहरे पर बँधे नकाब को उसने हटाते हुए कहा! यह तो लड़की है। वाह, क्या ख़ूबसूरती है ! उसकी आँखें खुली की खुली रह गईं। पलकें झपकना भूल गईं । तानी वहीं का वहीं खड़ा रह गया ।

पल-भर बाद अब सामने कोई नहीं था ! सब जा चुके । क्या कोई 'यापाम' आया था जो सपनों की तरह सब पलक झपकते ही बीत गया? ये कैसी जगह है ? यहाँ सब तानी से आगे हैं। उसे तो लगा था वह सबसे तेज है। ओह, क्या आश्चर्य है! शक्ति, सौन्दर्य, बुद्धि का संगम ! अदभुत स्त्री । यह ज़मीन धन्य है । तानी की आँखें धन्य हैं, जो इन्हें देख पा रही हैं। "तानी वह जा चुकी है। उड़ा दिया न होश तेरा भी ? चलो खा-पीकर हम भी तैयार होते हैं। अपने यहाँ भोजन की कमी नहीं है,” हर्ब ने उसके कान में खी खी खी कर हँसते हुए कहा । तानी झेंप गया ।

लेकिन उसने कहा क्या था ? तानी ने तो समझा ही नहीं । उसकी भाषा कितनी अलग है। एक भी शब्द समझ के बाहर । पहली बार इस भाषा को सुना था उसने। लेकिन वह समझ गया था उसने क्या कहा होगा। उसके हाव-भाव से सब पता चल गया था। उसके साहस से प्रभावित थी वह । उसकी आँखें मिली थीं तानी की आँखों से। कुछ गुदगुदी सी होने लगी है तानी को क्या हुआ ? धान के बीजों को भूल गया ? नहीं, नहीं ऐसी कोई बात नहीं । तानी की आँखें मंजिल पर ही टिकी हुई रहती हैं। तो फिर उसका चेहरा बार-बार क्यों नज़रों के आगे आ रहा है? खूबसूरती तो सबको ऐसा ही प्रभावित करती है । इसका यह अर्थ थोड़े है कि वह दीवाना हो गया !

"हर्ब भाई, मुझ पर एक कृपा कर दो! मुझे यहाँ की भाषा सिखा दो !” तानी ने गिड़गिड़ाते हुए कहा।

“तान्तुम।” “तान्तुम?”

“मतलब 'हाँ'।”

“ओह, हा हा हा हा ... तान्तुम तान्तुम तान्तुम !”

“ गोबरा !”

“मतलब?”

“चुप कर !”

“हर्ब भाई, मुझे कुछ समय आपके साथ यहीं रहना होगा। जब अपने देश वापस जाऊँगा तो पूरी इज्जत के साथ जाऊँगा । यहाँ के लोग प्रेम से मुझे विदा करेंगे। मैं धान के बीज लेने आया हूँ । चुराकर या भीख माँगकर नहीं ले जाना चाहता कुछ भी । उसको बोने, पालने और काटने के तरीके भी सीखने हैं।”

“साक्तिटा तुम कादू ?”

“मतलब?”

“मतलब माँग लेते तो क्या हो जाता?'

“मैं बिना मेहनत माँगकर नहीं खाता।”

“कादे ताम साम नी । ”

“क्या?”

“मुझे तो उसके अलावा कुछ और भी तुम्हारा इरादा लग रहा है, वरना भाषा सीखने की अचानक जरूरत पड़ गई ?”

“ नहीं को क्या कहते हैं ? "

“हा हा हा हा हा अरे छोड़ो, जाने दो!”

हर्ब ने तानी की आँखों में बहुत कुछ देख लिया था। समय लगेगा, लेकिन तानी बहुत ही तेज है। वह सीख लेगा सब कुछ । जिस दिन वह इन लोगों से विदा लेगा, उस दिन मित्रता की भी एक नयी कहानी स्थापित होगी । इसे पहले इन लोगों का दिल जीतना होगा। कई तरह के आदान-प्रदान होंगे लोगों के बीच। संसार में मित्रता की खुशबू फैलेगी।

तानी ने इस झील का नाम हर्ब सिन्यी रख दिया है— वह सिन्यी अर्थात झील, जहाँ हर्ब रहता है । हर्ब को उसकी उन बेकार की बातों से कोई लेना-देना नहीं था। हर्ब रखो, दुल रखो या कुछ और रखो। क्या फर्क पड़ता है। वह किसी का भी मालिक नहीं है। शासन करता नहीं किसी पर, लेकिन मालिक है वह अपने आप का। वह कभी भी तानी की उन कृपाओं के प्रति अहसान से भरकर आनन्दित होता ही नहीं । उसने कभी उसकी कृपा माँगी ही नहीं थी । तानी को कभी-कभी उस पर खीझ सी होने लगती । क्यों ? कभी तो वह उसको धन्यवाद कहता। क्यों कहे ? झील को तानी ने पैदा थोड़ी न किया है। नाम दे देने से क्या ये किसी की हो जाती है ? शरीर भी अपना नहीं है । उसको तो इस बात का भी कोई गर्व नहीं है कि वह तानी की मदद कर रहा है ! उसको याद ही नहीं कि वह मददगार है । वह तो बस मज़े ले रहा है। अचानक कोई आ गया और साथ में मज़े कर रहे हैं, बस । तानी को उस पर खीझने की बजाय अपने पर खीझना चाहिए। लेकिन मुश्किल है। अपनी तरफ देखना मुश्किल है।

हर्ब कभी तानी के कन्धों पर बैठ जाता, कभी उसकी मज़बूत भुजाओं में झूलने लगता, कभी सो रहे तानी के कानों में जोर से चिल्ला देता । कभी उसका भोजन छीनकर पेड़ों पर लटका देता । कभी तानी पर फूलों की बरसात कर देता । नाक में दम करके ही वह दम लेता । कभी बन्दरों की तरह शाखाओं पर लटककर न्यिकुंग और कीपुंग की ऐसी की तैसी कर देता । खी खी खी खी करके बेहयाई से हँस देता। कई बार न्यिकुंग को सचमुच रोना ही आ जाता। भूख बहुत लगी हो, भोजन मुँह में जाने ही वाला होता है कि ये लम्पट उसे छीनकर हवा उड़ा देता है। ‘आन्ने ... आन्ने ... आन्ने ... कहकर इतना बड़ा लड़का जंगल में ऊआ-ऊआ करके रोए तो कैसा लगता होगा। ऐसे वक्त में भूतों, डाकुओं और महावीरों को भी माँ ही याद आ जाती है । हर्ब हैं कि मना करो तो बहुत देर तक गायब रहता । न्यिकुंग उसके रूप पर कुछ मजाक कर देता तो वह उसके सिर पर कोई-न-कोई साँप लाकर झुला देता। उसकी हद से भी अधिक छोटी आँखों को अपनी आँखों के इशारों के हाव-भाव से नकल उतार उतारकर मजाक उड़ा देता, “न्यिकुंग ....न्यकुंग ... न्यिकुंग ... हा हा हा हा ! इसी तरह की आँखों को ही न्यिकुंग क्यों कहा गया है आखिर ? नाम भी तो एक मज़ाक ही है न बच्चू!” इस आदमी के साथ रहा नहीं जाता। लेकिन इसके बिना रहा भी नहीं जा सकता अब! इसकी सख्त जरूरत है। एक ही सप्ताह में इसने कितने शब्दों को सिखा दिया तानी को । और एक यह मूर्ख तानी, 'मुझे तुमसे प्रेम है।' इसी वाक्य पर कुछ शरमा शरमा जाता और समय बेकार गँवा देता है। 'कल्पनाओं से जन्मा आदमी,' यह कहकर हर्ब बेदर्दी से उसके कानों को ऐंठ देता ।

फूलों से लदे इस जंगल में इन बन्दर सरीखे लोगों के साथ यहाँ के जंगल के असली बन्दर भी आकर मिल गए। दिन-भर वे मिलकर ऊधम मचाते। छोटे- छोटे सुन्दर हिरणों के बच्चे तानी के आस-पास मँडराते रहते। इनकी आँखें तानी के दोनों बच्चों की तरह लगती थीं । कीपुंग को कभी-कभी पहचानना ही मुश्किल हो जाता जब वह इन हिरणों के बच्चों के साथ खेल रहा होता । हर्ब ने तानी को गोंगा बजाना सिखाया। लकड़ियों और बाँस से बना छोटा वाद्ययन्त्र । मुँह में उसे लगाकर नाचती उँगलियों से उसे बजाया जाता है। उसके सुर के बीच-बीच में तानी का वह गीत भी गूँज - गूँज जाता।

एक दिन उस झील के किनारे खड़े पेड़ की शाखा पर तानी आराम से पीठ के बल लेट गया। पत्तों के हर गुच्छे में एक सूखता हुआ पत्ता दिखता था । उनमें कीड़े भी नहीं बैठते दिखते । चिड़ियों का एक बड़ा-सा समूह उसमें हमेशा शोर मचातें रहता था। उसमें सफ़ेद - सफ़ेद फूल लदे थे । वे फूल किसी आदमी की नजर में सुन्दर नहीं थे, लेकिन उसी में इन चिड़ियों की जान थी। हजारों तितलियाँ भी आ-आकर उसके फूलों के रस का मज़ा लेतीं । हिरणों के बच्चों का मन पसन्द भोजन था इस पेड़ के सारे फूल । किसी भी एक फूल को गिरकर सड़ने का मौका ही नहीं मिलता था। गिरकर ज़मीन पर गया नहीं कि वहाँ भी कोई उसका इन्तज़ार कर रहा होता है। खुशबू उसकी मनभावन । तानी गाने लगा-

ऐ हिंत ऐ बिन्यी ! कैसी ये रंगीनियाँ
रेत पर लिखी मिट गई वे निशानियाँ
किसने लिखी पानी में ये कहानियाँ
मिट कर मिटे नहीं साँसों की रवानियाँ
पुकारती -सी रहती है मुझको यह वादियाँ
रोम-रोम में खिले याद-सी ये तितलियाँ
आवारा बादलों में झील - सी वे दो अँखियाँ
धूप ने छुपाए पर्दों में अपने क्यों ये चाँदनियाँ
मुझमें गाती रहती है पीड़ामय मीठी सी सखियाँ ....

अरे! कौन था वहाँ? कोई तो था । तानी ने ध्यान से उस हिलती-डुलती झाड़ी को देखा । वहाँ कोई है। वह तेजी से उतरा और उस तरफ दौड़कर चला गया। और अब, आँख मिचौली झाड़ी के चारों ओर चलने लगी है। कभी इस तरफ तानी, कभी उस तरफ वह। अचानक वह जिस तरफ भाग रही थी तानी मुड़कर उसकी विपरीत दिशा की तरफ दौड़ने लगा, और, और... और यह रही ! दोनों के चेहरे आमने-सामने अब। लेकिन वह अब भी ढकी हुई है। चार नंगी आँखें...आसमान के चार कोने या फिर झील के चार टुकड़े । “तुम्हारी हँसी की तरह तुम भी कब हो जाओगी मुक्त ? छुपाए चेहरा लिये हवा सी क्यों फिरती रहती हो?” तानी ने कहा । "हैं?” उसकी आँखों में प्रश्न उतर आया । तानी उसी की टूटी-फूटी भाषा में अपने दोनों हाथों को हिला-हिलाकर बताने की कोशिश की। वह समझ गई, “हा हा हा हा हा... क्या तुम मुक्त हो ? मुक्ति ने मुक्ति को अपने गर्भ में धारण कर लिया है। जन्म दूँगी इसे किसी मनचाहे वक्त की गोद में एक दिन। वैसे आवाज अच्छी है तुम्हारी !” उसने एक हाथ अपनी छाती पर रखा और आँखों की पुतलियों को अदा से घुमाते हुए कहा ।

उसकी आँखें शरारतों और शोखियों से भरी हुई थीं। तानी को समझ नहीं आया उसने कहा क्या था । शायद एक प्रकार की माया में बँध गया वह। क्या बुद्धि का साक्षात रूप तानी उन आँखों को पढ़ पाया था ? पुरुष अक्सर स्त्रियों की शोखियों और शरारतों को पढ़ने में गलती कर ही जाते हैं । मन में कुछ गुदगुदी - सी होने लगती है। वे अक्सर जल्दी में रहते हैं और चूक जाते हैं। वैसे मन तो मन है ...कुछ भी सोचते रह सकते।

हर्ब को तानी ने तंग करके रख दिया। वह कुछ तो बताए उसके बारे में। वह इतनी रहस्यमयी-सी क्यों है? हर्ब कहता चला जाता है—– “किसी घने वीरान वन में जैसे चिर कुँवारी, अल्हड़, अलसाई-सी, अधखुले नैनों में अन्तहीन खुमारी लिये कोई गुनगुनाती रहती है। ये खुमारी किसी दिन सदा-सदा के लिए प्रकट हो जाए उसमें। अभी तो सखी मेरी डोलती-फिरती ... मृगमरीचिका - सी इसी की तलाश में है । पागल और जंगली । पर कितनी निर्मल, कोमल, नर्म, मुलायम, शुद्धतम। शान्त तालाब में खिलते किसी कमल की सी मुस्कान लिये। सूरज की किरणों को भी अभी उस तक पहुँचने में सदियाँ लगेंगी! वह तो अपनी ही प्रतीक्षा लिये हुए है । भोली । नटखट । आदर्शों से परे छविविहीन खिला खुशबू भरा फूल। छवियों के परे हर मौसम वह ही ठुकराई गई। और हर तरफ उसके लिए काँटे बिछ गए। आहत कदमों से लाल गुलाबों - सा रक्त रास्तों में बहाती चलती है। वह रुकेगी नहीं । चलकर ही रुकना है उसको, एक दिन खुद तक पहुँचना ही होगा न। तब वह ठहरी - ठहरी - सी होगी, और कदम उड़े - उड़े-से । हल्की बहुत हल्की होगी एक दिन वह । हर रिश्ते भँवरों में फँसे हैं। मकड़ी के जालों वाली उलझन लिये। वह बनती गई कछुआ अपने मन के कुएँ में । यह जंगल उस जैसा ही पागल और जंगली है। यहाँ उस बावली का आना जैसे माँ के गर्भ में फिर से आ जाना होता है। यह नित नवीन और नवीनतर । मौत पग-पग यहाँ। लेकिन शान्ति और मौन का कलरव यहाँ। नीरवता का गान यहाँ । यहाँ लौट लौट कर आती है वह । जब भी वह आती है, सारा जंगल उसके स्वागत में नाचता है। यहाँ उसका हर रंग खिल जाता है । सब स्वीकृत है उसका यहाँ । चेहरा ढके तो क्या वह ढक जाती ? वह तो ऐसे ही । ढकना पड़ता है न । कोई देख ले तो मुसीबत। लेकिन खोलेगी सब एक दिन । जब यहाँ वह नहीं आती तो बहुत समय नहीं आती। मैं प्रतीक्षा हूँ उसकी ... उसकी एक झलक के लिए।” तानी शब्दहीन, जिज्ञासायुक्त, दिशाविहीन सपनीले मौन में ... ।

हर्ब ने तानी को धान के फसलों के बारे में कुछ भी बताने से इनकार कर दिया । क्यों बताये? वह किसान थोड़े है। वैसे भी जंगली कन्दमूल से ही वह जिन्दा है । उससे जो हो सकता था वह उसने कर दिया । अब बाकी काम स्वयं करे । धान के बीज भी खुद ही हासिल करे । जिस बात को कहने में मज़ा न आए उसे वह कहता ही नहीं। क्यों? अब हर क्यों का जवाब देना जरूरी है क्या ? ऐसे ही । सुस्ती-सी आती है बस ।

तानी को यहाँ रहते अब काफी वक्त हो गया है। उसने भाषा भी काम चलाने लायक सीख ली है। एक दिन उसने निर्णय लिया वह जाएगा उस तरफ जहाँ से वह रहस्यमयी लड़की आती थी । वहाँ फैले धान के खेतों को देखना ही होगा अब। अपने लोगों के पास भी तो लौटना होगा। सभी चिन्तित होंगे। असुरक्षित महसूस करते होंगे। हर्ब के लाख मना करने के बावजूद वह वहाँ जाना चाहता है । हर्ब चाहता है तानी कुछ वक्त और इन्तज़ार करे। जब वीर योद्धा महीनों के लिए शिकार को जंगल की तरफ निकल जाएँ, तब तानी को वहाँ जाना चाहिए । नहीं तो अजनबी के लिए खतरा हो सकता है। आदमी को आदमी से ही डरना चाहिए। लेकिन एक बार उसने जिद्द पकड़ ली तो पकड़ ली। जान की परवाह करने से कोई कब तक बच सका है। मजबूर होकर सब तानी के साथ चलने लगे ।

“अहा, वह रहे लहलहाते खेत ! पीलापन फसलों पर उतर आया है। अब कटाई का वक्त आ गया है। देखो कैसे अलमस्त हैं लोग इन फसलों की कटाई करते हुए।" हर्ब ने कहा । तानी ने अपने जीवन में पहली बार इन फसलों को देखा था। दूर तक फैली धान की फसल । वे पककर झुक गए थे। अपने ही भार को सँभाल नहीं पा रहे थे। बदमाश और चोर पक्षियों का इधर-उधर उड़ना हो रहा था। कुछ बच्चे दौड़-दौड़कर उन पक्षियों को भगाने की कोशिश कर रहे थे, लेकिन वे लालची और दुष्ट बार-बार वापस उड़-उड़कर आ जाते थे। कई लोग उन खेतों में फसलों की कटाई कर रहे थे। सूरज की किरणें इन स्वर्णिम फसलों से मिलकर प्रेम क्रीड़ाएँ कर रही थीं । वह तेजी से दौड़ गया और अपने हाथों से उन्हें छू-छू कर देखने लगा, “आह, ये धारदार भी है ! मेरी त्वचा को काट भी लिया इसने । ओहो, नाराज न हो ! हम पहली बार मिले हैं न ! यकीन करो, मैं सूर्यवंशी तानी । तुम्हारा प्रेमी । तेरी ही तलाश में मैं दर-दर भटका । तेरी ही तलाश में मैं यहाँ आया हूँ । मेरे लोगों को भी तुम्हारी प्रतीक्षा है । मुझमें भी तुम मेरी प्राण बनकर, मेरे नसों में दौड़कर तो देखो। एक बार मिल जाओगी तानी से, तो तुम भी उसे छोड़ना नहीं चाहोगी। समझी ! तानी मोमन में भी झूमकर देखो । चलोगी न मेरे साथ ? ओह, कैसे बनाते होंगे भोजन इसका ? अप्रितम सौन्दर्य तुम्हारा... हा हा हा...!"

हर्ब के पीछे-पीछे चलते हुए सब खेतों से निकल आए। चारों लोग अब शहर में घूमने लगे। कीपुंग के अलावा ये लोग बहुत ही अजीब थे यहाँ के लोगों के लिए। तानी और न्यिकुंग ने सिर्फ अपने लिंग को काले कपड़े से ढक रखा था। हर्ब पूरी तरह नंगा था। लोग घूर घूरकर उन्हें देखने लगे। आसीन ने तानी को कितनी बार कहा था कि वह पूरे शरीर को ढकने वाले वस्त्र पहन ही ले। लेकिन जिद्दी तानी ने बचपन की अपनी इस आदत को छोड़ने से इंकार कर दिया । औरतें तानी के बलिष्ठ और सुन्दर काया पर मर-मर जातीं, लेकिन प्रकट में उपेक्षा का बहाना करतीं । मर्द ईर्ष्या भरे नेत्रों से उसको ताड़ते। जो भी हो, अजीब लगते थे ये लोग यहाँ । यहाँ के लोगों के शरीर तरह-तरह के रंगों के वस्त्रों से सुसज्जित थे। सम्पन्न लोगों का स्थान था । कहीं कोई गरीब नहीं दिखा। किसी के भी शरीर से हड्डियाँ नहीं झाँक रही थीं । हट्टे-कट्टे थे लोग। पालतू पशुओं की हर जगह हलचल थी ।

यहीं, इसी शहर में जन्मा था हर्ब । उसका असली नाम पाँगिन था जिसे उसने बाद में सदा के लिए त्याग दिया था। जिस प्रकार बिना नाम के ही पशु-पक्षी, पेड़-पौधे, कीड़े-मकोड़े इत्यादि सब अपने-आप में मस्त और जीवित थे - उसने भी वैसे ही जीना प्रारम्भ कर दिया था। गहरी साँस भीतर लेते हैं और फिर उसे जोर से बाहर फेंक देने के बाद जिस विश्राम का अहसास होता है— वैसा ही हुआ था उसे भी, जब उसने अपने नाम के इस पाँगिन शब्द को भी छोड़ दिया था। अपने परिवार में चार भाइयों में सबसे बदसूरत । माँ उसको जन्म देती हुई मर गई। पिता ने दूसरा विवाह कर लिया । सौतेली माँ और ऊपर से हर्ब की अपनी बदसूरती।जो भी उसको देखते अथवा जानते थे - सबने उसका मजाक बनाया। लोग उसे देख-देख कर हँसते थे । हँसना ही होता तो भी ठीक था - लोग उसे परेशान करते थे। घर में, बाहर में, हर जगह वह हर दिन अपमानित होता रहता। एक दिन उसी की तरह दिखने वाला एक आदमी मिला। उसके साथ वह जंगल चला आया। दोनों कई साल एक साथ रहे। आनन्द का एक राज्य दोनों ने मिलकर इन पेड़-पौधों और पशुओं के साथ स्थापित कर लिया । यहाँ सब अनोखा । भाषा भी भिन्न । लेकिन कोई किसी का मजाक नहीं उड़ाता और न ही बदसूरती अथवा खूबसूरती नाम के किसी शब्द अथवा चीज को वे जानते हैं । यहाँ स्वर्ग का-सा अहसास होता है । वह आदमी रहस्यमय प्रेम का समुद्र था । उसी ने हर्ब को अनन्त आनन्द का राज्य दिखाया । उसको स्वयं का मालिक बनाया। सबके बिना, और सबके साथ रहना सिखाया था।

रात को चारों लोग सिमांग के भवन के पिछवाड़े वाली झाड़ी के तले सो गए। हर्ब को जब भी अपनी सखी सिमांग की याद आती है तो वह यहाँ दबे पाँव आया करता है। रात को इन्हीं झाड़ियों के भीतर घुसकर आराम से सो जाता है। यह स्थान सुरक्षित है। यहाँ आम तौर पर कोई नहीं आता। इस तरफ खाई है जहाँ से कोई भी चढ़ नहीं सकता और न ही उतर सकता है। लेकिन हर्ब के लिए ये कोई बड़ी बात नहीं है। उसके साथ अब तानी भी वैसा ही है। लेकिन कीपुंग और न्यिकुंग को काफी मेहनत से यहाँ तक उनको लाना पड़ा ।

इलाके का सबसे ऊँचा स्थान है यह । यहाँ से पूरे शहर को देखा जा सकता है। सिमांग के ससुरालवाले यहाँ के सबसे धनी और ताकतवर खानदान है। इसी के चलते यहाँ के लोगों ने इनको ही अपना सरदार स्वीकार किया हुआ है। सिमांग का पति अभी वर्तमान सरदार है। पुरखों से यह खानदान यहाँ राज करता आया है। ये लोग स्वयं को चन्द्रवंशी मानते हैं । यहाँ भी विवाह में औरतों को खरीदे जाने का रिवाज है। यह रिवाज खराब नहीं माना गया। धनी परिवारों की दुल्हनों और दूल्हों को उनके माता-पिता भी अपनी हैसियत के अनुसार कीमती बीड्स के आभूषण इत्यादि देते हैं, और गरीब परिवारों की लड़कियों को उनके शरीर का ही कीमत लिया जाता है, क्योंकि माता-पिता के पास उसे देने को कोई आभूषण नहीं होता ।

तानी ने जब आसीन से विवाह किया था, तब उसे कुछ देना नहीं पड़ा था, क्योंकि आसीन के पिताजी तानी से बहुत प्रभावित हुए थे और वे जानते थे कि तानी गरीब है। कई ऐसे पुरुष जीवन-भर कुँआरे रह गए क्योंकि उनके पास लड़की खरीदने के लिए मिथुन, सूअर इत्यादि नहीं होते थे । गरीब लड़कियाँ महज एक मिथुन अथवा दो मिथुन में ही बिक जाया करती थीं । धनी पुरुषों की कई-कई पत्नियाँ होतीं। ये उनके ऐश्वर्य और वीरता की पहचान हुआ करतीं। यही परम्परा है। बिक चुकी लड़कियाँ किसी की सम्पति हो जाती हैं। जिन घरों में जितनी लड़कियाँ पैदा होतीं, उतने ही उनके माता-पिता धनी हो जाते। क्योंकि लड़कियाँ सम्पत्ति लातीं और ले जाती थीं, इसलिए उनके नखरे भी स्वीकार्य थे । जो बिकी या खरीदी नहीं जाती थी, उनकी कीमत ही नहीं होती थी । उनको कई तरह के ताने सुनने पड़ते थे ।

7 : जंगली फूल (उपन्यास)

हवा हौले-हौले बह रही है। आसमान साफ़ नहीं है आज। लगता है बूँदा बाँदी होगी। इस बरामदे से यह पहाड़ बहुत अच्छा लगता है । मज़बूत पत्थरों से बने इस विशाल भवन का वह बड़ा सा आँगन यहाँ से अच्छी तरह दिखता है जहाँ बच्चे खेलते रहते हैं। यहीं पर खड़े होकर उसे देखना और फिर कहीं ख्यालों में खो जाना बेहद अच्छा लगता है। भवन और पहाड़ के बीच एक नदी बहती रहती है। कभी-कभी नदी की आवाज तेज हो जाती है तो कभी शान्त । उसके साथ उसका भी मन उठता-गिरता रहता है। नदी और भवन के बीच दूर तक फैले धान के खेत। फसलों के मौसम में जब हरा-हरा धान समुद्र-सा लहराने लगता है तब ख़ुशी के गीत भी जन्मने लगते हैं। फसलों में पीलापन जब बढ़ने लगता है तब मीठी-सी वेदना वाली पीड़ा मौसम के साथ घुलने लगती है । किसान कितने खुश हो जाते हैं उस वक्त । फसलों का मरना उनका जीना होता है। जीवन के उतरार्द्ध में उसकी उम्र में भी जब पीलापन उतरने लगेगा; तब क्या आनन्द भी उतरता जाएगा? यही प्रश्न ही एक वेदना-सी उत्पन्न क्यों करता है । जो भी है .... धान की ये फसल सिमांग को बहुत-बहुत अच्छी लगती है। आज भी खेतों में लोग पकी फसलों की कटाई में जुटे हुए थे।

उसके काले, चमकीले, रेशमी, खुले घुँघराले लम्बे बालों से हवा अठखेलियाँ करती है। दमकता चेहरा खुले लहराते बालों के बीच छुप-छुप जाता है। तानी से मुलाकात का वह क्षण बार-बार उसके ख्यालों में आता है । कैसे बच्चों की तरह खेले थे उस झाड़ी के चारों ओर । कैसा अद्भुत साहस था उसका। बिना सोचे कूद गया शेरों के बीच अजनबी को बचाने । मुस्कान फ़ैल गई उसके अप्रितम सौन्दर्य से भरपूर गालों पर । विवाह के वक्त वह बहुत ही रोई थी। माँ से लिपट गई, माँ ने उसे अपने से अलग कर दिया। पिता से लिपट गई, पिता ने अपने से अलग कर दिया। घर के बड़े से लकड़ी के खम्बे से लिपट गई। सबने मिलकर उसे उससे भी अलग कर दिया। मार्ग में पेड़ों से, पौधों से, छोटे-छोटे घासों से भी सहारा माँगा ...उनसे भी अलग कर दी गई। बाराती उसे पकड़कर खींच- खींचकर ले गए थे। और वह आदमी... न जान, न पहचान - कूद गया शेरों के बीच उसको बचाने। उसने तो उसका चेहरा तक भी नहीं देखा था । अद्भुत .... कौन था वह ?

बादलों-सी तैरने लगी है स्मृतियाँ - पति आता है। साथ सोता है। हँसी-मजाक बहुत ही कम होता है। गले लगाया, चुम्बन दिया, सम्भोग किया और फिर चले गए। यही तो होना होता है। इससे ज्यादा की उम्मीद क्यों करे? दो बातें करने की चाहत लिये वह उसके पीछे-पीछे घूमती तो पति कहते -“तुम्हारी जैसी औरत देखी नहीं मैंने! हर वक्त पति चाहिए तुमको ! दिखती भी अच्छी नहीं हो, फिर भी प्रेम किया तुमसे मैंने। कितनी सुन्दर - सुन्दर लड़कियाँ थीं, और हैं, जो मुझे चाहती हैं। मेरी बाकी की दोनों पत्नियों को देखो ! दोनों सब लोगों से मिलती- जुलती हैं। सबके साथ खुश रहती हैं । तुम्हारी तरह अकेली रहकर कभी रोती नहीं रहतीं।” हाँ ठीक है। लेकिन हर वक्त ? अरे छोड़ो भी कितने अच्छे लगते हैं वह। कितना खूबसूरत दिखता है उसका पति । वह उनकी पत्नी है। यह क्या कम है। हर बार प्रेम ने ही उसको समझाया, “सब ठीक हो जाएगा। सब्र रखो । तुम उनसे प्रेम करती हो। वह हर हाल में अच्छे हैं।"

गर्भवती हुई थी पहली बार वह । शायद चौदह-पन्द्रह साल की रही होगी । नादान थी। कितनी बार बेहोश हुई। पति ने कहा, “तुम कोई अनोखा काम नहीं कर रही हो ! दुनिया की सारी औरतें बच्चे जन्मती हैं । तुम कुछ ज्यादा ही दिखावा करती हो !” पहली सन्तान बेटी हुई... स्वागत का वह आनन्दित चेहरा उनका नहीं था जो एक पिता का होता है। तब उसने अपनी बेटी को अपनी ही तरह अकेली पाया ...और फिर सीने से लगा लिया उसने उसको । औरत से जन्मी एक और औरत ! भावी अस्वीकृत अस्तित्व लिये वह भी फिरेगी । यही दर्द एक औरत को दूसरी औरत से गहरे से जोड़ता है। दूसरी संतान हुई-एक पुत्र । पति ने उसके स्वागत में उत्सव का आयोजन किया था । वंश रक्षक, शक्ति का रखवाला और सम्पत्ति की रक्षा वही तो करेगा । पुत्रों ने ही तो आज तक दुनिया को बचाए रखा है।

वह तीसरी पत्नी है। और उन तीनों के अलावा भी कितनी औरतें उसके पति के जीवन में आईं... लेकिन सिमांग का प्रेम कभी नहीं बदला। उसकी चाहत वैसी-की-वैसी ही रही। बल्कि बढ़ती ही चली गई। पति की बुद्धि, पौरुष पर गर्व से सीना फूल-फूल जाता था उसका ।

कुछ महीनों से, जब से उसकी दोस्ती हर्ब से हुई है— कोई प्रश्न-सा उठने लगा है सीने में-क्या वह पत्नी है, इसलिए उसका अपने पति के प्रति प्रेम नहीं बदलता? यदि वह पुरुष होता तो क्या वह भी बदल जाती ? क्या उसके अन्दर भी कोई अन्धकार है जो पथविहीन, चरित्रहीन है ? क्या इस अन्धकार ने कभी किसी को रोशनी की ओर जाने वाली वह राह दिखाई होगी, जिस पर चलकर वह स्वयं रोशनी बन सके होंगे ? कौन है वह ? क्या है वह आखिर ? अब तक यह आदमी जो उसका पति है— उसने उसे क्यों नहीं छोड़ दिया ? छोड़ देने की सिर्फ धमकी ही क्यों देता रहता है ? किस बात का डर है ? अगर कोई औरत छोड़ गई किसी मर्द को - तो इज्जत का सवाल है। डर है भी या फिर इसलिए कि उसने उसको खरीदा था ? चली गई तो सम्पत्ति का नुकसान । सब्जी में नमक कम हो जाए तो और नई सौतन लाने की धमकी । ज्यादा हो जाए तो छोड़ देने की धमकी। और अब यह सोच... यह जानने की चाहत क्यों बढ़ती ही चली जा रही है ? बाकी औरतों की तरह वह भी क्यों नहीं रह सकती ? यह अन्धकार-सा कुछ क्यों बढ़ता चला जा रहा है? वह खुद से कहती है— नहीं जानना ... कुछ भी नहीं जानना मुझे...लेकिन दूसरे ही पल फिर वही प्रश्न, वही जिज्ञासा जगने लगती है। क्या यह विनाश की ओर ले जाने वाला है सिमांग को ?

मासिक धर्म भी नहीं हुआ था जब उसका विवाह हुआ था। अब वह पच्चीस साल की हो गई है, और उसका पति पैंतीस का। बड़ी पत्नियों से आठ बच्चे हैं, और उसके खुद के दो । कुल मिलाकर दस बच्चे हुए । सिमांग की बारह साल की बेटी और दस साल का बेटा है। पति उसके पास बहुत ही कम आते हैं। बड़ी पत्नी के साथ ही वह अधिक समय बिताते हैं । दोनों हमउम्र हैं। मँझली वाली अपने ही धुन में रहती है। शायद उसकी अपनी माँ भी मँझली ही रही होगी और वह जानती है उसको कैसे रहना है। माँ कहती थी, “बिटिया, औरत के लिए उसका परिवार ही उसका सुख है। पन्द्रह मिथुन दिए हैं उन्होंने हमें तुम्हारे बदले। औरत और मिथुन दोनों एक ही आत्मा के दो रूप हैं। दोनों बहनें हैं। दोनों की जिम्मेदारी है; परिवार और समाज की सेवा करना । अपने पति के लिए स्वयं अपनी मर्जी से औरतें खरीदकर ला देना। ऐसी औरतों ने ही पुरुषों की इज्जत सदा पाई है। ऐसी औरतों ने ही परिवार, खानदान और पुरुषों पर सदा राज किया है। उनके मस्तक पर सदा गर्व की चमक रहती है । फिर वह साधारण स्त्री नहीं कहलाती। मैंने भी यही तो किया, तब जाकर ही मेरा यह रुतबा है। देखती नहीं, तेरे पिता मेरे सामने कैसे झुकते हैं! अपनी बाकी पत्नियों की कैसी पिटाई करता है वह ! लेकिन मेरी इज्जत करता है।” सिमांग की पक्की सहेली थी उसकी माँ। लेकिन उनकी ये बातें उसको कुछ अजीब-सी लगतीं । उसे सुनकर उसके भीतर अनमना-सा भाव ही आता था । ऐसी होने की चाह जगती नहीं थी जो माँ कहती थी उससे। ममत्व माँ का, छाया - सी रहती थी उसके साथ । वह भी चली गई दो साल पहले, पूर्वजों के पास हमेशा के लिए।

अगर वह खुद पति को छोड़ देती है, तो उसको वे सारे मिथुन और सारा सामान वापस करना होगा जो उन लोगों ने उसके माँ-बाप को दिए थे। अब तो दोनों रहे नहीं। वह यह सब अकेली नहीं कर सकेगी। भाई- भैया अथवा रिश्तेदार इस प्रकार की मदद कर ही नहीं सकते। जब तक वह पत्नी है, तब तक ही पति का सब कुछ उसका है। इस पर मित्र हर्ब कहता, “सखी मेरी, कोई चाहत घर नहीं पहुँचाती कभी, लेकिन एक घर उस पार है— तुम्हारे इन्तजार में! चलकर देखो! भय से बाहर निकलो और अपनी तलाश करो। खतरा मोल लेकर देखो, और फिर देखो कि तुम्हें कौन बचाता है। तुम स्वयं ही रक्षक हो, और स्वयं ही स्वयं का भक्षक भी । खतरों से खेलकर देखो। अकेली होकर तो देखो। इस तरह मर ही रही हो, क्यों न उस तरह भी मरकर देख लिया जाए ?” अपने को तलाशने के लिए भी तो कुछ करना होगा । चलकर तो देखना होगा न! लेकिन कहाँ चले? कैसे चले ? किसको पाने चले ? अपने को पाना क्या होता है? यह खालीपन क्या कभी खत्म होगा? उसके बाद फिर क्या होगा ? क्या जीवन को सचमुच तबाह किया जा सकता है ? क्या मान लेने से ही किसी का जीवन तबाह हो जाता है? मरने से पहले कुछ जान लेने की चाह जगना क्या गुनाह है ? ओह, जीवन है या मकड़ी का जाला कोई !

बढ़ाए कोई हाथ बादलों से, कि गिर न जाऊँ मैं कहीं
उग आए पंख कोई कन्धों पर, तैर जाऊँ बादलों के पार.....

रात्रि के तीसरे प्रहर। संसार गहरी नींद में डूबा था। पंछियों ने भी अपने पंख नहीं फड़फड़ाए थे अभी । माँ के पंखों के भीतर छोटे-छोटे नन्हें बच्चे किस विश्रामम निंदिया में सो रहे होंगे। स्वप्न भी अब उन्हें आ- आकर तंग नहीं कर रहे होंगे। न भाव, न विचार-सिर्फ नींद और उसमें मौजूद शून्य की लीला थी । मानो कोई जीवित ही न हो। लेकिन कोई तो था, जिसकी साँसों की ध्वनि सुनाई पड़ रही थी हर तरफ। तानी को देखना है कि इस विशाल भवन के भीतर क्या-क्या है । अपने देश में ऐसा भवन पहले कभी नहीं देखा था उसने । दिन में उन लोगों को प्रवेश नहीं करने दिया जाएगा। जिज्ञासा एक बार जग गई तो जग गई । वह उस ऊँची दीवार पर मकड़ी की तरह चढ़ने लगा ।

तानी ने देखा - मशालें अब धीमें - धीमें जल रही थीं। एक वृद्ध खाँसते हुए उन मशालों को जलते रहने के लिए कुछ कर रहा था। थोड़ी देर बाद वह भी गायब हो गया। अचानक देखा उसने कोई इस तरफ चलकर आ रही है । मस्त हाथी की चालोंवाली। वह तुरन्त छिप गया । वह जिस स्थान पर बैठा हुआ था, ठीक उसी के सामने एक तालाब था । कितनी खूबसूरती से इसे सुन्दर कलाकृति के साथ निर्मित किया गया था। अग्नि की रोशनी में बहुत कुछ स्पष्ट नहीं था, लेकिन कुल मिलाकर उसकी भव्यता को देख ही सकता था वह । कितना विशाल भवन था ये। इसके अन्दर सब कुछ मौजूद था। खूबसूरत, नर्म, मुलायम हिलते पर्दे, मानो हवा ने स्वयं रंगों का रूप धारण कर लिया हो। उन्हीं से लुकाछिपी खेलती हुई वह आ रही थी। भवन के इस भाग में शायद पुरुषों का आना मना है । हर चीज स्त्रीयोचित थी ।

वह नज़दीक आती जाती है । तानी की साँसें तेज होती जाती हैं। जब वह बहुत पास आ गई, तानी ने मानो अपनी धड़कनों को भी धड़कने से रोक लिया था। एक बड़े से खम्बे के पीछे अँधेरे वाले स्थान पर वह छिपा हुआ था । सब कुछ पत्थरों से बना था। उसने देखा वह तालाब के पास आई और उसने अपने सारे कपड़े उतार दिए। आह, यह तो आसमान से उतरी है ! लम्बे, खुले, घुँघराले, काले, लहराते बाल । लटें भँवरों की तरह उसके गोरे-गोरे गालों पर अपना चुम्बन अंकित कर रहे थे। बड़ी-बड़ी आँखें । गुलाब की पंखुड़ी से सुन्दर होंठ । सुडौल शरीर। हर एक अंग विधाता ने बहुत मेहनत से बनाया होगा । तानी की आँखें खुली-की-खुली रह गईं। वह पानी में मचलती हुई मछली की तरह तैरने लगी । कुछ देर बाद जहाँ से तैरना प्रारम्भ किया था, उसी स्थान पर वह वापस तैरती हुई आई और किनारे के सहारे अपने दोनों हाथों को रखकर गुनगुनाने लगी-

बादलों में चलें, नींदों में जागे हम
जागे तो जागे कैसे, सोए नहीं हम....

यह तो... यह तो वही है ! वही आँखें । वही हाथ। उसके गीत में कैसा दर्द है- रह-रह कर बहती हुई बाहर आ रही है। कितनी सुरीली आवाज है। वही आवाज, जिसे हर्ब सिन्यी में तानी ने सुना था । पूरी तरह नग्न स्त्री । वह भी सुन्दरतम स्त्री! लेकिन तानी ने उस वक्त अपने भीतर कोई ऐसी ऊर्जा महसूस नहीं की जिसके चलते वह उसे अपने बाँहों में ले ले और पागलों की तरह उसके शरीर से प्रेम करे। वह तो उसके अप्रतिम सौन्दर्य को देखकर अवाक रह गया है। मानो उसने होश ही गँवा दिया हो। उसको अपने होने का भी होश नहीं रहा । शरीर पर क्या चल रहा है अथवा मन क्या चाहता है । सब भूल गया। वह तो बस उसे देख रहा है। उसकी आँखें उसे और नज़दीक से देखना चाहती हैं। वह बाहर आया, जैसे किसी माया के चलते कोई बेहोशी में चल देता है। उसके बहुत पास जाकर, एकटक उसे निहारने लगा। पहले तो वह बहुत डर गई, लेकिन तुरन्त सँभल गई। उसने ज़ल्दी से अपने को कपड़ों से ढक लिया, “तानी, तुम कैसे यहाँ आए ? तुम्हें नहीं पता, यहाँ आना मतलब मौत है ? भाग जाओ अभी, इसी वक्त यहाँ से!” तानी ने कोई जवाब नहीं दिया। वह तो बस आश्चर्यचकित था कि यह स्त्री है या जादू । क्रोधित होने के बजाय उसको ही सावधान कर रही है। उसको ही बचाना चाहती है। “किसी ने देख लिया तो मेरी भी मुसीबत हो जाएगी । चले जाओ यहाँ से अभी के अभी!” वह कह रही थी, लेकिन तानी सोच रहा था- शक्ति, साहस, कला, सौन्दर्य, शोखियाँ - किसी एक में एक साथ कैसे हो सकती हैं?

सिमांग ने देखा। उस तरफ कोई भागकर जा रहा था। अब क्या होगा ? उन लोगों ने दोनों को देख लिया। कुछ देर बाद वे इस तरफ तेजी से आ रहे थे।

“ओह, मूर्ख पुरुष ! आँखों को जो अच्छा लगे, वहीं पर होश गँवा बैठे। अब तेरी खैर नहीं। मैं चली । ” वह भागती हुई जाने लगी कि सामने शस्त्रों से सुसज्जित चार-पाँच आदमी उसका रास्ता रोके खड़े हो गए। तापिक ने चिल्लाकर कहा,

“जो कोई भी है सामने आ जाओ ! भागने की कोशिश मत करना, वरना इस औरत को अभी इसी वक्त और यहीं पर हम दीवार में जिन्दा गाड़ देंगे ! मेरी खरीदी हुई औरत, तेरी इतनी हिम्मत ?” तानी के कदम रुक गए। वह दीवार के

  • मुख्य पृष्ठ : जोराम यालाम नाबाम : हिन्दी कहानियां और उपन्यास
  • अरुणाचल प्रदेश कहानियां और लोक कथाएं
  • मुख्य पृष्ठ : संपूर्ण हिंदी कहानियां, नाटक, उपन्यास और अन्य गद्य कृतियां