जीवनी- निबन्धकार एवं कवि पूर्णसिंह : प्रभात शास्त्री

Jivani- Nibandhkar Evm Kavi Puran Singh : Prabhat Shastri

जन्म और शिक्षा

प्राकृतिक दृश्यों, पहाड़ियों और झरनों से सुहावनी सीमाप्रांत की भूमि में, एबटाबाद से पाँच मील दूर सलहड गाँव में, मिट्टी के बने मकान में एक सिख परिवार रहता था जिसका मुख्य पुरुष सरकारी नौकरी करके और माँ-बहनें चरखा कातकर गृहस्थी के साधन जुटाते थे। परिवार विभवहीन था, पर उसके प्राणी आत्मसम्मान, ईश्वरप्रेम, उदारता तथा अन्य मानवीय गुणों से भरे हुए थे, एक तरह से कर्मठता उनका व्यवसाय था और प्रेम ही उनका धन था। ऐसे ही परिवार में मेधावी लेखक पूर्णसिंह का जन्म संवत् १९३८ वि० में हुया । आगे चलकर ये अपने परिवार और इस वातावरण के अनुरूप ही मजदूरों और किसानों पर प्राण निछावर करनेवाले रहस्यवादी कवि और वेदान्ती व्यक्तित्व के रूप में सामने आये। तथा अंग्रेजी, पंजाबी एवं हिन्दी-तीन भाषाओं में अमर साहित्य का प्रणयन किया ।

पूर्णसिंह के पिता एक छोटे सरकारी अफसर थे और नौकरी ऐसी थी कि वर्ष का अधिकांश सीमा प्रान्तीय पहाड़ी प्रदेशों के दौरा करने में ही व्यतीत हो जाता था। इस कारण वे पुत्र की शिक्षा-दीक्षा की ओर अधिक ध्यान नहीं दे पाते थे । गाँवों में पठानों की आबादी बहुत होने पर भी शिक्षा की व्यवस्था नहीं के बराबर थी । यह बात इनकी माँ को अधिक खटकती रही। अतः वे इनकी शिक्षा के लिए इन्हें लेकर पंजाब प्रान्त के रावलपिंडी जिले में चली गयीं, यहाँ इनके रिश्तेदार भी रहते थे। यहीं के एक स्कूल में इनका नाम लिखा दिया गया । इनकी देख-रेख के लिए इनकी माता भी वहीं साथ रहा करती थीं। पूर्णसिंह के पिता जैसे आध्यात्मिक प्रकृति के थे, इनकी माता भी वैसी ही धार्मिक और उदार स्वभाव की थीं। माता-पिता की इस प्रकृति का प्रभाव पुत्र पर पड़ा। माता की संरक्षता में रहकर इन्होंने रावलपिंडी के स्कूल में हाईस्कूल तक शिक्षा पाई। फिर ये विशेष अध्ययन के उद्देश्य से पंजाब की तत्कालीन राजधानी लाहौर आ गये और यहां के एक कालेज में नाम लिखा कर १८ वर्ष की अवस्था में एफ्० ए० की परीक्षा उत्तीर्ण कर ली।

पूर्णसिंह बचपन से ही बड़े उत्माही और भावुक आत्मा थे। ये विद्यार्थी-जीवन में शिक्षा के अतिरिक्त अन्य कार्यक्रमों में भी बड़ी लगन से भाग लिया करते थे। एक बार आहलुवालिया खालसा बिरादरी की सभा हो रही थी; पूर्णसिंह की अवस्था तब केवल १३ वर्ष की थी, ये सभा के भाषणों को सुनकर किसी कारणवश भावना के जोश में आ गये और सभापति से भाषण देने की आज्ञा लेकर इन्होंने एक जोशीला भाषण दिया । एक बालक का ऐसा ओजस्वी भाषण सुनकर श्रोताजन अवाक् रह गये । उसी से प्रभावित होकर सरदार बहादुर बूटासिंह ने एक फंड खोला, जिसकी सहायता से पूर्णसिंह-जैसे मेधावी छात्र विदेशों में जाकर उच्च शिक्षा प्राप्त कर सकें । अतः जब पूर्णसिंह ने एफ० ए० पास कर लिया तब इन्हें उस धन से विदेश जाकर अध्ययन करने की सुविधा प्राप्त हो गयी। इन्होने संवत् १९५७ में जापान की यात्रा की, वहाँ टोकियो नगर में स्थित इम्पीरियल युनिवर्सिटी के छात्र हो गये । बड़ी लगन के साथ तीन वर्ष तक इस युनिवर्सिटी के छात्र रहकर इन्होंने व्यावहारिक रसायनशास्त्र का विधिवत् अध्ययन किया।

जापान-प्रवास और सन्यास-दीक्षा

जापान पहुँचकर इनका प्रेमपूर्ण जीवन और भी अधिक गतिमान हो उठा, टोकियो में उस समय इन्डो-जापानी क्लब नाम की एक संस्था थी जिसमें भारतीय और जापानी विधार्थी काफी संख्या में रहा करते थे, इस संस्था के पूर्णसिंह मंत्री थे। इनके ऊपर जापानियों की सरसता और उनके कुसुम कोमल प्रेम-भाव क बड़ा प्रभाव पड़ा, जापान के शान्ति-आनन्द के उपासक अनेक व्यक्तियों, कवियों और कलाकारों से इनका परिचय हुआ, साथ ही वहाँ के बुद्ध धर्म का इनके ऊपर अत्याधिक प्रभाव पड़ा । जापान में हाथ के कला-कौशल को देखकर ये मुग्ध हो गये। कुल मिलाकर इन्होंने कर्म और भावना, जीवन और अध्यात्म दोनों दृष्टियों से एक नवीन आनन्द का अनुभव किया।

तब तक इस बीच एक नवीन घटना घटी। इसी समय जापान में पार्ल्यामेंट ऑव रिलिजन होनेवाली थी, उसमें भाग लेने के लिए स्वामी रामतीर्थ जी जापान आये हुए थे। स्वामी जी उस इन्डोजापानी क्लब में भारतीय विद्यार्थियों से मिलने आये और वहीं पर इनसे स्वामी जी की प्रथम भेंट हुई । इस प्रथम भेंट में इन्होंने अपने दार्शनिक वार्तालाप से स्वामी जी को अत्यधिक प्रभावित कर लिया। उसी दिन इनका बुद्धिस्ट ( Buddhist) युनिवर्सिटी में भाषण होने वाला था, इन्होंने स्वामी जी से आग्रह किया कि आप भी मेरे साथ वहाँ चलें । इनकी प्रार्थना पर स्वामी जी तैयार हो गये और पूर्णसिंह के साथ स्वामी जी का भी भाषण हुआ। स्वामी जी के प्रथम भाषण का इनके ऊपर इतना अधिक प्रभाव पड़ा कि ये उनके सच्चे शिष्य बनने के साथ ही अपनी रसायन शास्त्र की पुस्तकें फेंककर जापान में ही संन्यासी हो गये। स्वामी रामतीर्थ के प्रभाव का वर्णन इन्होंने अपने आत्मचरित में बड़ी निष्ठा के साथ किया है-

"इसी समय जापान में एक भारतीय सन्त से जो भारत से आते थे मेरी भेंट हो गयी। उन्होंने एक ईश्वरीय ज्योति से मुझे स्पर्श किया और मैं संन्यासी हो गया। लेकिन मैं देखता हूँ कि उन्होंने मेरे हृदय में और भी अनेकों भाव, जिनके लिए भारत के आधुनिक सन्त बहुत व्यग्र हैं, भर दिये–जैसे भारत की महानता को जाग्रत करना, राष्ट्र का निर्माण और कर्मठ बना। यद्यपि मैं जीवन के पचड़े में आकर्षित नहीं होता था तथापि जिसने मुझे आत्मज्ञान की इतनी बातें बतायीं, उसकी आज्ञा शिरोधार्य करके और अपनी रसायन शास्त्र की पुस्तकें फेंक फाँक कर मैं भारत की और चल पड़ा। उस समय सब बातों को देखते हुए मुझे महान् धर्म की प्राप्ति तथा उच्च जीवन की उच्च प्रगति के लिए अपने देश की अपेक्षा जापान अधिक उपयुक्त जान पड़ा, लेकिन मैं क्या करता? उस हिन्दू संन्यासी ने जिस प्रचण्ड वाग्मिता के साथ मुझ में बिजली भरी थी, उससे प्रेरित होकर मैं मधूर स्वप्नों और आशायों से भरा हुआ भारत वर्ष आ पहुंचा ।"

बाद में भारत आकर ये स्वामी जी के साथ संन्यासी वेश में इधर-उधर घूमते लगे। ये कलकत्ता में संन्यासी वेश में घूम रहे थे, संसार मात्र ही इनका अपना घर था, अपने देश लौटने पर इन्हें अपने पिता-माता के वात्सल्य की तनिक भी याद न आयी, न घर जाने के लिए इनके हृदय में विचार पैदा हुया; उसी समय बूढ़े मातापिता को इनके विदेश से लौटने और कलकत्ता रहने का समाचार मिला और वे कलकत्ता आ पहुँचे । पूर्णसिंह को इनकी माता और बहनें बहुत प्यार करती थीं लेकिन उस समय माता के अटूट प्रेम से भी संन्यासी पूर्ण सिंह का हृदय प्रभावित न हुआ। इससे माता को दु:ख हुआ किन्तु उन्होंने इसका साथ न छोड़ा और दो-तीन दिन के बाद पुत्र को घर चलने के लिए राजी कर लिया। पूर्ण सिंह जी जब घर लौटे, चाँदनी रात थी। चाँदनी में भगवा वस्त्र पहने जब ये घर के आँगन में उपस्थित हुए तब माता के संकेत करने पर भी इनकी टकटकी लगाए देख कर बहनों को आश्चर्य हुआ और जब उन्होंने भाई को पहचान लिया, प्रेम की आँसुओं की धारा उनकी आँखों से बह चली किन्तु उस समय पूर्ण सिंह की आँखों से आँसू न निकले।

विवाह और नौकरी

पूर्णसिंह के घर आने के बाद ही इनकी छोटी बहन गंगा बहुत बीमार पड़ीं। अभी इन्हें आये पन्द्रह दिन ही बीते थे और उसके अन्तिम दिन निकट दीखने लगे । बहन ने प्रेम में भर कर भाई से अपनी अन्तिम इच्छा तथा अनुरोध प्रकट किया कि वह उस लड़की से विवाह कर ले, जिसके साथ उनका पूर्व निश्चय हो चुका है। पूर्णसिंह ने बहन का अनुरोध मान लिया और संवत् १९६२ में इनका विवाह भगत जवाहर मल की पुत्री मायादेवी के साथ सम्पन्न हो गया । सौभाग्य से इनकी स्त्री भी इन्हीं की तरह बड़े साधु गुणोंवाली थी। यह पूर्णसिंह के जीवन में दूसरा परिवर्तन था, लेकिन उनका भावुकपन और सांसारिक वैराग्य कम न हुआ। इनके विवाह के कुछ दिनों बाद स्वामी रामतीर्थ की मृत्यु हो गयी, उनकी मृत्यु ने इनके जीवन को बहुत उदासीन बना दिया, प्रायः ये उस उदासी में रात की रात जागकर बिता देते थे ।

उसी समय इनकी नियुक्ति लाहौर के विक्टोरिया डायमंड जुबली हिन्दू टेक्निकल इंस्टीट्यूट के प्रिंसिपल पद पर हो गयी । वहाँ भी इन्होंने अपने अनोखे ढंग के ओजस्वी भाषणों तथा अपनी विद्वत्ता से लोगों को बहुत प्रभावित किया । पूर्णसिंह बहुत ही ऊँची प्रतिभा के व्यक्ति थे। धीरे-धीरे इनकी योग्यता की ख्याति फैलने लगी । शीघ्र ही संवत् १९६३ में देहरादून के इम्पीरियल फारेस्ट रिसर्च इन्स्टीट्यूट में ५००) मासिक पर ये बुला लिये गये। पर अपने फक्कड़ स्वभाव और स्वामी रामतीर्थ के आध्यात्मिक विचार- धारा से अत्यधिक प्रभावित होने के कारण इनके वेतन का आधा हिस्सा साधु-सन्तों के सत्कार और उपहार में ही व्यय हो जाता था । यहाँ रासायनिक के पद पर रहते हुए इन्होंने कई जंगली तेलों की नयी खोज और आविष्कार किया, जो उस समय काफी चर्चा के विषय बने रहे। इनकी रासायनिक रिपोर्ट भी बड़ी मौलिक होती थीं।

पुनः सिख-धर्म में

जब ये देहरादून में अध्यापक थे उसी समय संवत् १९६६ में स्यालकोट में सिखविधायक कान्फ्रेंस हुई। उसमें पूर्णसिंह भी गये हुए थे और वहाँ पर इनकी भेंट पंजाबी के प्रसिद्ध कवि भाई वीरसिंह से हुई । उनसे मिलकर ये बहुत प्रभावित हुए और उनके ऊपर श्रद्धालु होकर उन्हीं के प्रभाव से पुनः सिख- मंडल में आ गये । तब से अन्त तक सिखधर्म में बने रहे । सिखधर्म में दीक्षित होने के साथ ही इनका पहले का वह वेदान्त-पूर्ण लोकोत्तर व्यक्तित्व बदल गया; ये ईश्वर के भक्त, सन्त, दयार्द्र और वात्सल्यपूर्ण हृदय तथा नानक, ईसा और बुद्ध के उपासक के रूप में दृष्टिगोचर होने लगे। भाई वीरसिंह की कविताओं पर ये इतने मुग्ध हुए कि इन्होंने उनका बड़ा सुन्दर अनुवाद अंग्रेजी में किया ।

एक मानसिक धक्का

जिस समय ये इन्स्टीट्यूट में अध्यापक थे उसी समय उत्तर भारत में क्रान्तिकारी आन्दोलन का काफी जोर था। परिणाम- स्वरूप स्वामी रामतीर्थ के परमभक्त और इनके गुरुभाई मास्टर अमीरचन्द 'देहली षड्यंत्र' के मुकदमे में सरकार द्वारा पकड़ लिये गये। बाद में पुलिस को पता चला कि अमीरचन्द के घर में पूर्णसिंह भी आया जाया करते थे, इस कारण पुलिसवालों ने इस मुकदमे में इनकी भी पेशी कर दी । यह बात कटु सत्य थी कि इनका और मास्टर साहब का घनिष्ठतम सम्बन्ध था। देहली-यात्रा में ये प्रायः इन्हीं के घर ठहरा भी करते थे । इस दशा में पूर्णसिंह के सामने धर्म-संकट उपस्थित हो गया । ये किंकर्तव्य- विमूढ़ हो गये और अपना कोई विचार स्थिर न कर सके । मुकदमा बहुत गम्भीर था । इधर इनके शुभचिन्तकों को यह शंका हुई कि यदि सरदार साहब ने भावना और भावुकता के आवेश में आकर अदालत के सामने अमीरचन्द से अपना सम्बन्ध अणुमात्र भी स्वीकार किया तो ये भी इस जाल में लपेट उठेंगे। इसलिए उन लोगों ने इन्हें मास्टर अमीरचन्द से किसी दशा में भी किसी प्रकार का सम्बन्ध स्वीकार न करने के लिए सावधान किया। अपने साथियों और सम्बन्धियों के समझाने-बुझाने का सरदार पूर्णसिंह के ऊपर प्रभाव पड़ गया और इन्होंने न्यायालय के सामने मास्टर अमीरचन्द से अपना किसी प्रकार का सम्बन्ध नहीं स्वीकार किया, यद्यपि यह सब इनकी आत्मा के नितान्त विपरीत था । अस्तु, किसी तरह इस मुकदमे से इन्हें छुटकारा तो मिल गया किन्तु मास्टर अमीरचन्द को फाँसी की सजा हो गयी। अतः इस घटना से न्यायप्रिय पूर्णसिंह को बहुत भयङ्कर मानसिक धक्का लगा और ये प्रायः उदास रहने लगे । यह घटना संवत् १९७१ (अक्टूबर सन् १९१४) की है।

नौकरी से विराम

इसके तीन वर्ष बाद इनके जीवन में दूसरी घटना घटी । पूर्णसिंह स्वभाव से ही स्वाभिमानी और स्वतन्त्रचेता व्यक्ति थे । इन्हें अपने कार्यों में कभी किसी का हस्तक्षेप जरा भी पसन्द नहीं था । इसी कारण इम्पीरियल फॉरेस्ट इन्स्टीट्यूट के अधिकारियों से इनका मतभेद रहने लगा। धीरे-धीरे इनके और वहाँ के अधिकारियों के बीच का मतभेद उग्ररूप में परिणत हो गया। अन्त में संवत् १९७४ (सन् १९१७ ) में इन्होंने इन्स्टीट्यूट की नौकर- शाही से त्यागपत्र दे दिया । फिर कुछ समय बाद ये ग्वालियर राज्य के प्रधान रासायनिक नियुक्त हुए, जहाँ ये चार वर्ष तक रहे । वहाँ रहकर सिखों के दस गुरुओं के जीवन-सम्बन्धी 'दि बुक ऑव टेन मास्टर्स' (सिख युनिवर्सिटी प्रेस निस्बत रोड, लाहौर) तथा स्वामी रामतीर्थ की जीवनी "दि स्टोरी ऑव स्वामी राम' (रामतीर्थ पब्लिकेशन लीग, लखनऊ) यह दो पुस्तकें लिखीं। फिर इनका मन वहाँ नहीं लगा। बात यह थी कि ग्वालियर के महाराज ने इनको बुलाया था और चार लाख रुपया लगाकर एक नया कारखाना चलाने की योजना बनायी थी जिसमें वनस्पति-सम्बन्धी तथा अन्य बहुत-सी वस्तुएँ तैयार की जाती । चार वर्ष के भीतर पूर्णसिंह को इस योजना की सफलता प्रकट करनी थी किन्तु महाराज के दरबारियों ने पहले से ही कान भरने शुरू कर दिये कि यह चार लाख रुपया पानी में डूब रहा है। महाराज उनकी बातों में आ गये और उन्होंने सरदार पूर्णसिंह से रुपये का हिसाब माँगा । सरदार साहब को इससे बड़ी खीझ हुई और इन्होंने महाराज के सामने लाभ स्वरूप में चार लाख रुपये ले आकर पटक दिये । फिर तो इन्होंने ग्वालियर छोड़ दिया और बाद में महाराज के बहुत बुलाने पर भी न गये । पुनः इन्होंने स्वतन्त्र उद्योग करने की बात सोची । संवत् १९८३ में पंजाब के जड़ाँवाला स्थान में इन्होंने कई एकड़ जमीन ठेके पर ली और उसमें एक विशेष प्रकार की घास बोने की खेती शुरू की, जिससे तेल निकाला जाता । इस योजना में सरदार साहब ने बहुत पैसा खर्च किया किन्तु संवत् १९८५ में एक भारी बाढ़ आयी और सारी फसल पानी में डूब गयी तथा बह कर नष्ट हो गयी। अपनी योजना की यह विनाश-लीला देखकर पूर्णसिंह एक विशेष भाव में मस्त हो गये और छत पर चढ़कर आत्मानन्द में मग्न होकर नाच-नाच कर गाने लगे-

भला होया मेरा चर्खा टुटा
जिंद अजाबों छुट्टी ।
[अर्थात् अच्छा हुआ जो चर्खा टूट गया और जीवन संकट से मुक्त हुआ।]

जीवन के अन्तिम दिन

अब सरदार पूर्णसिंह अर्थ-संकट से बहुत परेशान थे और इनके ऊपर काफी ऋण हो गया था। इसी परेशानी की हालत में संवत् १९८७ ( सन् १९३०) में नौकरी ढूँढने के लिए लखनऊ आये पर दुर्भाग्यवश इन्हें नौकरी नहीं मिली । इनके जीवन का विकास जैसे फकीरी विचारों के साथ हुआ था वैसे ही फकीरी हालत में जीवन के अन्तिम दिन बीते । लखनऊ में नौकरी न मिलने के कारण इस महान् मेधावी कलाकार की मनोदशा कैसी थी, इसका चित्रण इनके मित्र तथा स्वामी रामतीर्थ के शिष्य स्वामी नारायणानन्द ने 'दि स्टोरी ऑव स्वामी राम' की भूमिका में बड़े सुन्दर ढंग से किया है-"जब १९३० में उनकी भेंट मुझसे लखनऊ में हुई तो वे नौकरी की तलाश में घूम रहे थे । वास्तव में वे इस गार्हस्थ्य जीवन से ऊब गये थे और फिर उसमें जाने की इच्छा नहीं थी । सच बात तो यह है कि वे सांसारिक और गार्हस्थ्य जीवन के बन्धन से बिल्कुल थक गये थे ।"

वैसे तो कई वर्ष से पूर्णसिंह गठिया से पीड़ित थे और वह रोग दिनों दिन बढ़ता जा रहा था किन्तु संवत् १९८७ में संयोग-वश एक मित्र के साहचर्य से इन्हें राजयक्ष्मा का रोग हो गया । उसका कारण था, पूर्णसिंह जी किसी से कोई अलगाव नहीं रखते थे और सबको भाई साहब कहकर गले लगाकर मिलते थे। ऐसे ही राजयक्ष्मा के रोगी एक मित्र के सहवास से इन्हें भी वह रोग हो गया । जिन दिनों ये नौकरी खोज रहे थे, इनकी हालत उस रोग से दिनों दिन गिरती जा रही थी, आर्थिक संकट में रोग का उपचार भी ठीक ढंग से नहीं हो सकता था। इनकी माता तो संवत् १९७५ में ही मर चुकी थी, किन्तु पिता उस समय जीवित थे, उनकी अवस्था नब्बे वर्ष की थी। पुत्र की इस दर्दनाक बीमारी का समाचार उन्हें नहीं सुनाया गया लेकिन किसी तरह उन्हें इसकी खबर मिल गयी, तब वे इस असहनीय वेदना को न सह सके और इसी दुःख में दूसरे दिन उनकी मृत्यु हो गयी, ऐसी ही संकटपूर्ण परिस्थिति में चैत्र शुक्ल १२ संवत् १९८८ (३१ मार्च सन् १९३१) को अपने निवास स्थान देहरादून में वीणा-पाणि का यह भावुक और प्रतिभाशाली उपासक चल बसा | इस समय इनकी अवस्था ५० वर्ष की थी।

पूर्णसिंह के तीन पुत्र और एक पुत्री, ये चार संतानें थीं। बड़े लड़के सरदार मदनमोहन सिंह सब-जज थे । ठीक पता नहीं कि इस समय वे कहाँ रह रहे हैं ? छोटे लड़के का नाम सरदार निरलेप सिंह है।

पूर्णसिंह का व्यक्तित्व

पूर्णसिंह जैसा कहते और लिखते थे, ये उसे जीवन के व्यवहार में उससे भी अधिक कर दिखानेवाले आदमियों में थे; इनकी दृष्टि, वाणी और उपस्थिति मात्र से दया और प्रेम बरसता था, एक बार भी जो इनके सम्पर्क में आता था, इनके प्रेम से ऐसा भींग उठता था कि कभी इन्हें भूल नहीं सकता था । सृष्टिमात्र में इन्हें ईश्वर के प्रेम की झलक मिलती थी और जब कभी एकाग्र होकर ये उस चिन्तन में लग जाते थे तो इनकी आँखों से प्रेमाश्रु की धारा बह चलती थी । हाथ से मजदूरी करनेवाले और धरती में परिश्रम कर कमानेवाले मजदूरों और किसानों के ऊपर इनके प्राण निछावर थे। इसकी अभिव्यक्ति थोड़े हेर-फेर के साथ इन्होंने अपने निबन्धों में कई जगह की है । 'आचरण की सभ्यता' में एक जगह लिखते है-"मैं तो अपनी खेती करता हूँ; अपने हल और बैलों को प्रातःकाल उठकर प्रणाम करता हूँ; मेरा जीवन जंगल के पेड़ों और पक्षियों की सङ्गति में गुजरता है; आकाश के बादलों को देखते मेरा दिन निकल जाता है।' [पृष्ट ७१ ] फिर 'मजदूरी और प्रेम' में भी यही बात दुहराते हैं-"प्रातःकाल उठकर यह अपने हल बैलों को नमस्कार करता है और हल जोतने चल देता है । दोपहर की धूप इसे भाती है। इसके बच्चे मिट्टी ही में खेल-खेल कर बड़े हो जाते हैं। इसके और इसके परिवार को बैल और गाँवों से प्रेम है। उनकी यह सेवा करता है । पानी बरसानेवाले के दर्शनार्थ इसकी आँखें नीले आकाश की ओर उठती हैं।"

पूर्णसिह सम्पूर्ण मानव-समाज के प्राणी थे । ये गुण का आदर करते थे । इसीलिए इन्होंने अपने निबन्धों में बिना किसी भेद-भाव के भगवान शंकराचार्य, महाप्रभु चैतन्य, कपिल, गार्गी, शुकदेव, बुद्ध आदि के साथ मुहम्मद साहब, ईसा, मंसूर, शम्स तबरेज आदि का अपार श्रद्धा के साथ उल्लेख किया है। इनके कमरे में तो ईसा मसीह का चित्र सदैव लगा रहता था । कुल मिलाकर पूर्णसिंह सर्वमानववादी, धर्मद्रष्टा, रहस्यवादी कवि, अपनी बाणी से श्रोतामात्र को मुग्ध कर लेनेवाले अद्भुत वक्ता, प्रेम में डूबे हुए भावुक और सच्चे देश-भक्त के सम्मिलित व्यक्तित्व थे ।

उनके घर में किसी के लिए कोई भेदभाव नहीं था । प्रेम की मस्ती सदा उनके चेहरे पर छाई रहती थी। लोग मुग्ध हुए से इनके चारों ओर एकत्र हुआ करते थे। इनका घर सभी का निवास स्थान था । हिन्दू-मुसलमान का कोई भेद न था । डा० खुदादाद खाँ--एक मुसलमान पूर्णसिंह के बड़े मित्र थे, जो इनके घर में परिवार के एक सदस्य की भाँति रहते थे। देहरादून में वे इनकी अन्तिम साँस तक साथ रहे।

पूर्णसिंह जब भाषण देते थे तब श्रोता इतने मुग्ध होकर सुनने लगते थे कि चारों ओर सन्नाटा छा जाता था और कहीं सुई के गिरने तक की आवाज नहीं आती थी। स्वयं भी बड़े जोश और मस्ती के साथ बोलते थे, जिसमें बड़ी अनोखी-अनोखी बातें इनके कंठ से निकल जाती थीं। यही हाल इनके लिखने का था । जब लिखने लगते थे तब प्रायः एक बैठक में ही बैठकर सब लिख डालते थे । या लगातार लिखते रहते थे। पंजाबी के चरखों के गीत' (त्रिंजणां दीयाँ सहियाँ) का अनुवाद इन्होंने अंग्रेजी में 'सिस्टर्स ऑव द स्पिनिंग ह्वील' नाम से किया है, इस रचना को इन्होंने तीन दिन और तीन रात में लगातार बैठकर लिखा था।

इनके कविता-पाठ में और भी अधिक मनमोहक वातावरण उपस्थित हो जाता था। जब ये ईश्वर को सम्बोधन करके लिखी हुई अपनी कवितायें पढ़ते थे तब प्रेम में इनकी आँखों से आँसू की बूंदें ढुलकने लगती थीं, ये आत्मज्ञान में विभोर हो जाते थे और चेहरा चमक उठता था । इनके अद्भुत व्यक्तित्व का वर्णन करते हुए प्रसिद्ध इतिहासज्ञ डा० काशीप्रसाद जायसवाल ने, जो इनके साथ रहे थे, लिखा है-

"वेदान्ती पूर्णसिंह का विचित्र व्यक्तित्व था। मैंने पहले पहल उनसे उसी रूप में परिचय प्राप्त किया। एक निर्दोष, इकहरा शरीर, साफ छटी हुई मूछ-दाढ़ी, शान्त और असाधारण सौन्दर्यपूर्ण दिव्य मुखमंडल था, जिस पर योग की ज्योति जगमगाया करती थी। नवयुवक पूर्ण की वाणी में बिजली भरी थी । जब वे बात करते थे तो सब को वश में कर लेते थे। xxx वे अपने अन्तर में ही परब्रह्म को पाने का यत्न करते रहते थे । जो कोई भी पूर्णसिंह की बातें सुनता था, यह भूल जाता था कि पूर्णसिंह नवयुवक हैं, उसे ऐसा ज्ञात होता था, मानो कोई गुरु बात कर रहा हो । यदि मैं वेदान्ती पूर्ण के एक व्याख्यान के प्रभाव के वर्णन करने की चेष्टा करूँ, तो लोग मुझे अतिशयोक्ति का दोष देने लगेंगे । अपने सम्बन्ध में तो मैं केवल यही कहूँगा कि मुझे उनके व्याख्यान से यह बात समझ में आ गयी कि किस प्रकार महान् सन्त लोग जनता से कहते हैं-"मेरा अनुसरण करो” और किस प्रकार जनता उनकी आज्ञा को शिरोधार्य करती है। x x x

वे कवि थे । परन्तु उन्होंने अपने विचार प्रकट करने के लिए अंग्रेजी भाषा को अपनाया था। उनकी स्टाइल, उनकी स्वच्छन्दता, उनका बल और उनकी रहस्यमयी गरिमा श्रीरवीन्द्रनाथ ठाकुर से बहुत कुछ मिलती जुलती थी।"

परन्तु मास्टर अमीर चन्द के अभियोग और उनकी फाँसी के बाद अपनी प्राण-रक्षा के लिए सिद्धान्त से गिर जाने के कारण वेदान्ती पूर्णसिंह का व्यक्तित्व, जिस पर स्वामी रामतीर्थ की छाया और उनकी प्रेरणा थी, बहुत कुछ बदल गया । इनकी भावुकता कहीं-कहीं सीमा लाँघ जाती थी, यही कारण था कि ये अपने पचास वर्ष की आयु में जीवन को किसी स्थायी कार्यक्रम में न बाँध सके । इनकी भावुकता के ऐसे-ऐसे उदाहरण हैं, जो तार्किक व्यक्ति को हैरान कर देंगे । जब ये देहरादून में अध्यापक थे, इनके घर पर साधु-संतों की भीड़ लगी रहती थी और प्रायः सभी का अच्छा सत्कार इनके घर पर होता था ! एक बार ये घर पर नहीं थे, इनकी साध्वी स्त्री भी, जो अपने हाथों घर का सारा कामकाज करती थीं, किसी कार्य में व्यग्र थीं, उसी समय एक साधु आये। इनके पिता जी कमरे में बैठे हुए थे, उनकी साधुओं पर अधिक आस्था नहीं थी, शायद उन्होंने कुछ कह दिया और साधु क्रोध में भरकर कुछ कहते हुए उधर से ज्यों ही आगे बढ़े कि आगे से पूर्णसिंह आ रहे थे, पूर्णसिंह ने उन्हें बहुत मनाया, और प्रेम में गले से लिपट गये लेकिन साधु का क्रोध शान्त न हुआ और वह बड़बड़ाते रहे । पूर्णसिंह पश्चाताप में पागल होकर जमीन पर गिर पड़े और आँखों से आँसू बह चले । उसी समय आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी और पं० पद्मसिंह शर्मा इनसे मिलने के लिए वहाँ पहुँचे लेकिन जब शर्मा जी ने इनको उठाकर बैठाया कि आचार्य द्विवेदी जी आये हैं तब ये उनको पहचान सके और इनकी बेहोशी दूर हुई।

पूर्णसिंह का साहित्य

पूर्णसिंह ने जो कुछ लिखा है वह भाव और रस की दृष्टि से सप्राण है और उनकी तह में चलनेवाले विचारों की दृष्टि से महत्वपूर्ण ! वे विचार भी ऐसे हैं जिनमें क्रान्ति की आग भी है और शान्ति का सन्देश भी। सबसे अधिक इन्होंने अंग्रेजी में लिखा है और उससे कम पंजाबी में । हिन्दी के हिस्से में तो केवल छ निबन्ध ही आ सके। लेकिन इनका साहित्यिक सम्मान तीनों भाषाओं में एक समान ऊँचा है।

(पूर्णसिंह जी की अंग्रेजी की तीन पुस्तकों- 'टेन मास्टर्स' तथा 'दि स्टोरी ऑव राम' एवं चरखे के गीतों का अनुवाद 'दि सिस्टर्स ऑव स्पिनिंग ह्वील' का उल्लेख पहले हो चुका है । इसके अतिरिक्त इनकी अंग्रेजी में लिखी और अनूदित पुस्तकों की सूची यह है-(१) स्प्रिट बार्न पिपुल (२) दि अनस्ट्रांग बीड्स (३) एट हिज फीट (४) एन आफटरनून विथ सेल्फ (५) दि स्प्रिट ऑव ओरियन्टल पोयट्री (६) बीना प्लेयर (७) हिमालियन पाइनस (८) दि टेम्पुल ऑव तुलिप्स (९) बर्निग कैन्डिल्स (१०) स्प्रिट ऑव सिख (११) गुरु नानक जी के 'जपुजी' का अनुवाद और (१२) भाई वीरसिंह की कविताओं का अनुवाद ।)

पंजाबी में इनकी तीन पुस्तकें बहुत प्रसिद्ध हैं-१ खुले मैदान २. खुले घुंड (घूंघट ) और ३. खुले लेख । इन्होंने पंजाबी में 'वार्तक कविता' (कथोपकथन शैली) नाम से एक नयी शैली चलायी, पहली दो पुस्तकें उसी शैली में लिखी गयी हैं । बलदे दीवे इनकी दूसरी कविता पुस्तक है तथा मुइयां दी जाग, प्रकाशना और भगीरथ ये तीन उपन्यास हैं। इन्होंने पंजाबी से कई चीजों का अनुवाद अंग्रेजी में किया, जिसमें गुरु नानक जी के 'जपुजी' का अनुवाद बहुत प्रशंसित हुआ है । चरखे के गीत और भाई वीरसिंह की कविताओं का अनुवाद भी बहुत प्रसिद्ध है। हिन्दी के हिस्से में जो छ निबन्ध पड़े, वे हैं-सच्ची वीरता, कन्या दान, पवित्रता, आचरण की सभ्यता, मजदूरी और प्रेम तथा अमेरिका का मस्त जोगी वाल्ट व्हिटमैन । इनकी व्यञ्जना शैली, भावात्मकता और मौलिकता इतनी विलक्षण थी कि केवल इन्हीं लेखों के सहारे ये हिन्दी साहित्य के इतिहास में अजर-अमर हो गये और इनकी हिन्दी के उच्चकोटि के निबन्धकारों में गणना होने लगी । प्रसिद्ध समालोचक आचार्य पद्मसिंह शर्मा ने इनकी मृत्यु पर शोकोद्गार प्रकट करते हुए इनके निबन्धों के मूल्याङ्कन में कहा है- "प्रो० पूर्ण सिंह सिख जाति के ही नहीं, सम्पूर्ण देश के एक पुरुष-रत्न थे। x x x प्रो० पूर्णसिंह केवल पंजाबी और इँगलिश के ही उच्चकोटि के लेखक न थे, वह हिन्दी, उर्दू के भी बहुत ही अद्भुत लेखक थे। उनके एक ही लेख ने हिन्दी संसार को चौंका दिया । सरस्वती में उनका पहला लेख प्रकाशित हुआ था, जिसका शीर्षक 'कन्या-दान' था और जिसका दूसरा नाम 'नयनों की गंगा' है । इस लेख की उस समय धूम मच गयी थी, यह लेख सचमुच ही नयनों की गंगा है । इसे पढ़कर पाषाण-हृदय भी पिघल उठते हैं । इस विषय का ऐसा लेख हिन्दी में आज तक दूसरा नहीं देखा गया । केवल इसी लेख के आधार पर हिन्दी-गद्य के एक इतिहास-लेखक ने प्रो० पूर्णसिंह का हिन्दी-गद्य-लेखकों में एक विशेष स्थान माना है। जो बिलकुल यथार्थ है । वह एक लेख ही प्रो० पूर्णसिंह के नाम को साहित्य-सेवियों में अमर रखने के लिए पर्याप्त है, हिन्दी गद्य के अनेक वृथापुष्ट पोथों से यह लेख कहीं अधिक मूल्यवान् है । 'भारतोदय' में उनका 'पवित्रता' शीर्षक लेख छपा है, वह भी अपने ढंग का निराला है। हिन्दीवालों को चाहिए कि वह उनके लेखों के संग्रह के प्रकाशन का उचित प्रबन्ध करके अपनी कृतज्ञता प्रकट करें।"

इतना निश्चित है कि पूर्णसिंह ने आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी और उनकी 'सरस्वती' से प्रभावित होकर हिन्दी में लिखना प्रारम्भ किया होगा । उस समय ये देहरादून में प्रोफेसर थे, इसीलिए सरस्वती में इनके जो लेख छपे हैं उनमें इनके नाम के साथ 'अध्यापक' शब्द लिखा हुआ है। जैसा कि पं० पद्मसिंह शर्मा ने उल्लेख किया है इनका पहला लेख सरस्वती में प्रकाशित हुआ था किन्तु वह 'कन्या-दान' नहीं, उसके भी पूर्व प्रकाशित 'सच्ची वीरता' था। ये निबन्ध केवल निबन्ध ही नहीं है। इनमें श्रेष्ठ कविता का भी पुट है, एक साथ ही इनमें एक ओर आत्मा को विभोर कर देनेवाला भावों- अनुभावों से भरा हुआ काव्य का रस छलकता है और दूसरी ओर विचारों की चिन्तन-परम्परा बर्फीले पहाड़ों सी खड़ी हो जाती है। हिन्दी में पूर्णसिंह के पीछे इस कोटि के भावात्मक निबन्धों के लिखने में विशेष प्रगति नहीं हुई। केवल डा० रघुवीर सिंह ने ऐतिहासिक तथ्यों को लेकर ऐसे भावात्मक निबन्ध लिखे, अथवा इधर नवोदित लेखकों में पुनः श्री विद्यानिवास मिश्र भावनापूर्ण ऐसे निबन्धों की रचना हिन्दी में कर सके हैं !

प्रस्तुत संग्रह

पूर्णसिंह के सभी निबन्धों का यह स्वतन्त्र पुस्तकाकार रूप पहली बार हिन्दी-जगत् के सामने आ रहा है । ये निबन्ध प्रायः हिन्दी की पाठ्यपुस्तकों में पाये जाते हैं पर उन पुस्तकों में संगृहीत तथा इस पुस्तक में मुद्रित निबन्धों के पाठ में पाठकों को अध्ययन करते समय काफी अन्तर मिलेगा । पाठ्य-पुस्तक के सम्पादकों ने इनके निबन्धों को स्थान देते समय उनके मूल रूप में काफी परिवर्तन और कहीं परिवर्तन भी कर दिया है । मुझे यह नीति पसन्द नहीं है । मैंने इस संग्रह में इनके सभी निबन्ध उसी रूप में संकलित किये हैं जिस रूप में ये आज से ४६ वर्ष पूर्व पत्रों में प्रकाशित हुए थे । इस कारण इन निबन्धों में विद्वानों को पढ़ते समय लिंग और वाक्य-संगठन-सम्बन्धी अशुद्धियाँ मिल सकती हैं, मैंने उनका संशोधन करना लेखक और भाषा के इतिहास के साथ अन्याय समझा । पूर्णसिंह की मातृभाषा पंजाबी थी, इसलिए इन लेखों में व्याकरण-सम्बन्धी त्रुटियाँ मिल जाना स्वाभाविक बात है; हमें तो हिन्दी के लिए यह गौरव समझना चाहिए कि इन्होंने हिन्दी में लिखा । वस्तुतः ये शुद्ध नागरी लिपि नहीं लिख पाते थे और उर्दू लिपि में अपने लेख लिखा करते, बाद में उनका उल्था नागरी लिपि में होता था। किन्तु आश्चर्य इस बात का है कि आचार्य द्विवेदी जी के सम्पादकत्व में भी 'सरस्वती' के लेखों में शब्दों की एकरूपता नहीं पायी जाती थी, जैसा कि हमें अध्यापक पूर्णसिंह के लेखों में देखने को मिलता है । अनुस्वार, स्वर और व्यंजन की बात तो छोड़िए, एक ही लेख में 'यूरप' और 'यूरोप' जैसी विभिन्नतायें [ दे. 'सच्ची वीरता' पृष्ट ३३ ] भी पायी जाती हैं ।

आचार्य पं० पद्मसिंह शर्मा के लेख के अनुसार इनका 'पवित्रता' निबन्ध का उत्तरार्ध अप्रकाशित है और प्राप्त निबन्ध अधूरा ही है ।

अध्यापक पूर्णसिंह अंग्रेजी, पंजाबी, उर्दू तथा संस्कृत आदि कई भाषाओं के अच्छे ज्ञाता थे । ऐसी दशा में इनके निबन्धों में इन भाषाओं के उद्धरणों का आना स्वाभाविक ही था । अंग्रेजी के उद्धरण तो इन्होंने कई एक दिये हैं, इसी प्रकार उर्दू शब्दों का प्रयोग भी इन्होंने जमकर किया है । यत्र-तत्र संस्कृत और पंजाबी के उद्धरण भी आ गये हैं। मैंने अंग्रेजी-उद्धरणों का तो फुटनोट में अनुवाद दे दिया है, शेष के स्पष्टीकरण के लिए पुस्तक के अन्त में परिशिष्ट संलग्न है । फुटनोट में जो उद्धरण अङ्क के माध्यम से न दिये जाकर विशेष चिह्नों के माध्यम से दिये गये हैं, वह 'सरस्वती' में मूल निबन्ध के साथ ही प्रकाशित सामग्री है।

आलोचकों की उपेक्षा

इस उद्भट लेखक का बहुत कुछ दुर्भाग्य था कि जहाँ ये हिन्दी में भावात्मक निबन्धों के जन्मदाता तथा लाक्षणिकता प्रधान शैली के प्रतिष्ठापक हैं वहाँ हिन्दी के माने-जाने समालोचक भी इनके विषय में बहुत कम जानकारी रखते हैं । पूज्य-पाद आचार्य शुक्ल जी ने अपने साहित्य के इतिहास में इनके द्वारा केवल तीन चार निबन्ध लिखे जाने का उल्लेख किया है। एक समालोचक ने तो इनके सम्बन्ध में यहाँ तक लिख मारा है कि ये गाँधीवाद से प्रभावित थे, पर वास्तविक बात तो यह है कि जिस समय ये लेख लिखे गये उस समय भारतीय राजनीति में महात्मा गाँधी का कोई अस्तित्व ही नहीं था। यह बात सही है कि आज से ४६ वर्ष पूर्व यूरोप के कुछ हिस्सों में मजदूर-संगठन-विषयक जिस आन्दोलन का जन्म हो रहा था उससे सरदार जी पूर्ण रूप से परिचित थे । उसका प्रत्यक्ष प्रभाव इनके 'मजदूरी और प्रेम' शीर्षक निबन्ध में मिलता है । उस आन्दोलन से प्रभावित निबन्ध के इन अंशों को देखिए-"जब तक धन और ऐश्वर्य की जन्मदात्री हाथ की कारीगरी की उन्नति नहीं होती तब तक भारतवर्ष ही क्या किसी भी देश या जाति की दरिद्रता नहीं दूर हो सकती । यदि भारत की तीस करोड़ नर-नारियों की उंगलियाँ मिलकर कारीगरी के काम करने लगें तो उनकी मजदूरी की बदौलत कुबेर का महल उनके चरणों में आप ही आप आ गिरे । xxx भारतवर्ष जैसे दरिद्र देश में मनुष्य के हाथों की मजदूरी के बदले कलों से काम लेना काल का डङ्का बजाना है ।" [ 'मजदूरी और प्रेम' पृ० ६१, ६४] निबन्धकार का यह मन्तव्य बाद में हमारे यहाँ के बड़े से बड़े नेताओं की दृष्टि में भी आया कि भारतवर्ष की दरिद्रता कुटीर-उद्योगों से ही दूर हो सकती है।

आशा है कि हिन्दी-जगत् में इस पुस्तक का स्वागत होगा । आज हिन्दी देश की राष्ट्र भाषा है । पर बड़े दुःख के साथ लिखना पड़ रहा है कि भारत के कुछ हिस्सों में इस समय भी हिन्दी का काफी विरोध हो रहा है। इसी नीति का अनुसरण पंजाब के सिख भाई भी कर रहे हैं । मुझे पूर्ण विश्वास है कि पंजाब के सिख भाई सरदार पूर्णसिंह की इस पुस्तक को मनोयोग के साथ पढ़ेंगे तो हिन्दी के प्रति जो उनके मन में विद्वेष-भावना है, भ्रममूलक सिद्ध होगी और उन्हें मालूम होगा कि हिन्दी किसी जाति विशेष की भाषा न कभी थी, न आज ही है। सरदार जी ने सिख होकर भी हिन्दी में जिस प्रकार के उच्च कोटि के निबन्ध लिखे हैं ऐसे निबन्ध जिनकी मातृ-भाषा हिन्दी है वे भी आज तक नहीं लिख पाये। यदि सिख भाई भाषा के क्षेत्र में सरदार जी के समान हिन्दी के प्रति अपनी निष्ठा प्रकट करें तो देश और राष्ट्र का महान् कल्याण होगा।

इस पुस्तक को तैयार करने में मुझे हिन्दी के सुकवि भाई जयशङ्कर त्रिपाठी से काफी सहायता मिली । वे अपने हैं अतः उनके सम्बन्ध में क्या कहूँ। हिन्दी के उद्भट विद्वान् डा० हरवंश लाल शर्मा ने इस पुस्तक की पाण्डित्यपूर्ण भूमिका लिखकर पुस्तक की उपयोगिता और भी बढ़ा दी है। मेरी बड़ी इच्छा थी कि इस पुस्तक के साथ अध्यापक पूर्णसिंह की एक प्रामाणिक जीवनी दी जाय, लेकिन यह इच्छा पहले संस्करण में पूरी न हो सकी। मुझे प्रसन्नता है कि अब जाकर प्रयत्न सफल हुआ और इस दूसरे संस्करण में जीवनी को बहुत कुछ पूरा किया जा सका है । भविष्य में यदि और भी कुछ नयी बातें जीवनी के सम्बन्ध में मालूम हुईं तो उनका समावेश अगले संस्करण में कर दिया जायगा । इनकी जीवनी से सम्बन्धित सामग्री पंजाब से प्राप्त करने में मुझे डा० हरदेव बाहरी एवं श्री रामेश्वराचार्य शास्त्री से बड़ा सहयोग प्राप्त हुआ है, एतदर्थ मैं उनका आभारी हूँ।

कवि कुटीर गुरुपूर्णिमा २०१५ वि०
-प्रभात शास्त्री
दारागंज, प्रयाग ।