जड़ें (कश्मीरी कहानी) : अवतार कृष्ण 'रहबर'

Jadein (Kashmiri Story) : Avtar Krishan Rehbar

उसके मन-प्राण विकल, विचलित थे।

जिस अनुपात से कलकत्ते में गर्मी की प्रचंडता तेज़ से तेज़तर होती जा रही थी, उसी अनुपात से उसकी विकलता भी बढ़ती जा रही थी और अहसास गहरा होता जा रहा था कि वह समय दूर नहीं जब उसका दम घुट जाएगा, आखिरी साँस भी उखड़ जाएगी और उसे अपनी इस अभागी काया को छोड़ना पड़ेगा।

इस महानगर में लोगों की भीड़-भाड़, एक अव्यवस्थित, अनुशासनहीन जनधारा उसे काट खाने को आती थी। एक अजीब भाग-दौड़, भागती-दौड़ती छायाएँ। हर आदमी दूसरे आदमी से आगे जाने को बेताब। किसी को किसी का इन्तजार नहीं। यह सारा कोलाहल उसके कानों के पर्दों को फाड़ता था। सारे वातावरण में उसे अजीब तरह का परायापन अनुभव होता था। महानगर की विचित्रता, विविधता, रंगारंगी या सांस्कृतिक गतिविधियाँ उसे तनिक भी अपनी ओर नहीं खींचती थीं। मन करता था कि उमड़कर अपने घर, अपने कश्मीर वापस चला जाए। मगर यह बात भी सम्भव नहीं थी। उसका सारा अस्तित्व जैसे कहीं खो गया था। पिछले पचास वर्षों तक कश्मीर में सतत गतिशील उसकी जिंदगी कैसे यहाँ आकर जड़ हो गई थी! इतने सारे वर्ष कश्मीर में भी एक ही रंग में या एक ही ढंग पर नहीं बीते थे। पहले डोगराशाही थी। फिर आज़ादशाही आई थी। वितस्ता के किनारों के बीच तब से अब तक बहुत सारा पानी बहा था। समय-समय पर कुछ बातें उसे अप्रिय भी लगी थीं। परसों की ही बात है जब वह अपना वोट डालने बूथ पर पहुंचा था तो एक आदमी ने उससे कहा था-'पंडित जी, आपने तकलीफ़ क्यों की? आपका काम हमने खुद निपटा दिया। क्या करें, बुजुर्गी का खयाल तो रखना ही पड़ता है!

श्रीकण्ठ को बहुत बुरा लगा था। मगर कोई प्रतिवाद करना उसने उचित नहीं समझा। अनायास ही उसका हाथ अपनी पगड़ी की ओर गया। पगड़ी को सिर पर ठीक तरह से संभालकर वह धुएँ से डरे चूहे की तरह बेशर्मी से घर लौट आया था।

फिर भी श्रीकण्ठ को विश्वास और संतोष था कि उसकी अपनी एक जिन्दगी है, अपना एक अलग व्यक्तित्व है, अपना स्वतन्त्र अस्तित्व है, अपनी एक अलग पहचान है। आलिकदल के पुराने मुहल्ले के सिविल लाइन्स तक जाते उसे लगता था कि श्रीकण्ठ चल रहा है। वह वही है, कोई और नहीं। हर गली में, हर नुक्कड़ पर उससे दुआ-सलाम होता था। मगर कलकत्ते में उसे अपने में और एक मक्खी में कोई अन्तर ही नहीं दिखाई देता था। अगर वह मर भी जाएगा तो एक मक्खी की मौत ही मरेगा। कौन जानेगा कि कौन मर गया? यदि कश्मीर में मरेगा तो कई दिन तक सारे नगर में चर्चा होगी कि श्रीकण्ठ का स्वर्गवास हो गया। श्मशान-घाट तक कितने ही लोग, उसके संबंधी, उसके पड़ोसी-हिन्दू और मुसलमान दोनों, उसकी शव-यात्रा में शामिल होंगे। उसे एक पेंटिंग याद आ रही थी जिसमें शाखाएँ और डालियाँ फैलाए एक विराट वृक्ष को चित्रित किया गया था, मगर नीचे से उस वृक्ष की सारी जड़ें कट गई थीं। जाने क्यों वह पेंटिंग बार-बार उसकी आँखों के सामने आ जाती थी।

श्रीकण्ठ का एक बेटा जयपुर में था, दूसरा बंगलूर में, और यह तीसरा और सबसे छोटा यहाँ कलकत्ते में था। बेटियाँ तीन थीं। बडी की शादी कश्मीर में हो गई थी। मंझली शिमला में थी और छोटी अमरीका में। बेटे ऊँचे महत्त्वपूर्ण पदों पर नहीं थे। हाँ, जैसे-तैसे गुजारा कर ही लेते थे। उनकी दशा लक्ष्यहीन, दिशाहीन बटोहियों जैसी थी। आज यदि यहाँ थे तो मालूम नहीं था कि कल कहाँ होंगे! उनके बाद भी उनकी संतान कहाँ-कहाँ ठोकरें खाएगी! उसकी कमाई का आधा भाग मकान का किराया देने में ही चला जाता था। और वहाँ कश्मीर में अपना सात कमरों का खुला-चौड़ा मकान सौ साल पुराना होकर भी बिना मुसाफिरों की सराय-सा खाली पड़ा था। ठीक है, अब उसकी छत टूट गई थी, तीसरी मंजिल की दीवारें वर्षा के आघातों को सहते-सहते कमजोर पड़ गई थीं, लेकिन समय की सारी चपेटों को सहता वह अब भी वैसे ही खड़ा था। राम कौल का हवेली-जैसा मकान सारे मुहल्ले में अपनी मिसाल आप था। महाराजाई दौर की पुरानी ईटों की चुनाई श्रीकण्ठ के पिता राम कौल की प्रतिष्ठा और शानो-शौकत की गवाही दे रही थी। तहसीलदार होने के कारण एक बहुत बड़े इलाके का असली महाराज तो वही था। उसके मकान के साथ मुहल्ले के प्रत्येक निवासी का निकट का संबंध था। जिस किसी के यहाँ शादी-ब्याह हो, राम कौल का हवेलीनुमा घर उसके काम आता था। पंडितों और मुसलमानों की कितनी ही बरातें उस बड़े घर में दावतें उड़ा चुकी थीं। राम कौल की हवेली मुहल्ले-टोले की जवान लड़कियों के लिए कोमल कामनाओं की वह मनचाही चारदीवारी थी जिसको लांघने की रस्म पूरी करके ही वे दूसरे मुहल्ले में, दूसरे इलाकों में, दूसरे शहरों में अपने-अपने घर बसा सकती थीं। मुहल्ले की प्रत्येक जवान लड़की उस शुभ घड़ी का बेताबी से इन्तजार करती थी जब राम कौल के मकान में उसके नाम पर हरमल जलती, मंगल गीत गाए जाते, लंगर लगते और बरातियों की पाँतें नाना प्रकार के व्यंजनों से तृप्त होकर वाह-वाह करतीं और वह खुद डोली या मोटर में सवार होकर अपने जीवन साथी के साथ पितृकुल को छोड़कर किसी नये कुल में शामिल हो जाती। ये सारी बातें याद आते ही श्रीकण्ठ के मस्तिष्क में वह पेंटिंग, वह विराट वृक्ष फिर-फिर उभरता जिसकी शाखाएँ और डालियाँ दूर-दूर तक फैली थी, पर नीचे से जड़ें सूख गई थीं।

पिछले साल रिटायर होने पर उसने सोचा था कि वह अपने जीवन के शेष दिन कश्मीर में ही गुजारेगा, मगर परिस्थितियों ने उसका साथ नहीं दिया। उसे अपनी इच्छा के विरुद्ध कुछ फैसले करने पड़े थे। आज से बीस दिन पहले जब वह कलकत्ता जाने के लिए ट्रेन में बैठा था, उसे लगा था जैसे यमदूत उसे पकड़कर ले जा रहे हैं। एक उसका दाहिना हाथ और दूसरा बायाँ हाथ पकड़कर उसे दहकते अंगारों पर चला रहे हैं। यहाँ आकर झुलसती गर्मी और शोर-शराबे ने उसकी इस वेदना को तीव्र किया था। वह सोचता कि कुएँ का मेंढक श्रीकण्ठ ही भला था। उसे यकीन-सा हो गया था कि अब अगर कश्मीर लौटना उसके नसीब में नहीं है, तो वहाँ उसका अन्न-जल समाप्त हो गया है।

एक अजीब-सी पीड़ा उसकी नस-नस में व्याप्त हो गई थी। वह पिछले कई दिनों से अपने भाई के पत्र की प्रतीक्षा कर रहा था, मगर आज तक न उसका पत्र आया और न ही उसके बारे में कोई संदेश। फिर भी उसे विश्वास था कि उसका भाई आठ-दस दिन तक उसे 'हाँ' या 'ना' जरूर लिखेगा। तब वह अपने दामाद को तार देगा और वही बाकी सारी कार्रवाई पूरी करेगा जिससे वह आखिरी समस्या भी हल हो जाएगी और वह शांति से प्राण त्याग सकेगा। मगर भाई का पत्र था कि आता ही नहीं था।

'जाने स्वस्थ सकुशल भी है या नहीं?' श्रीकण्ठ का मन विचलित हो उठा-'अगर आज भी पत्र नहीं आया तो तार देना पड़ेगा। भीतर ही भीतर सुलगने के बाद अब बुझ चुका हूँ। किसके आगे अब अपना दुखड़ा रोऊँ?'
उसने एक गहरी आह भरी।

श्रीकण्ठ के तीन भाई थे। एक बचपन में मर गया था। दूसरा दिल्ली में एक बहुत बड़ा अफसर बन गया था। वहीं उसने एक आलीशान कोठी भी बनवाई थी। उसी की कृपा से श्रीकण्ठ के तीनों लड़के भी जयपुर, बंगलूर और कलकत्ते में दो वक्त की रोटी कमाने के काबिल हो गए थे। श्रीकण्ठ का तीसरा भाई नाथजी एक स्कूल मास्टर था, जो कश्मीर में ही रहता था। उसके पेंशन पाने में अभी पाँच-छह वर्ष बाकी थे और ट्यूशन आदि करके अपने परिवार की गाड़ी को जैसे-तैसे हाँक रहा था।

दो साल पहले श्रीकण्ठ की पत्नी का देहांत हो चुका था। तब से वह नाथजी के यहाँ ही खाता-पीता था और किसी न किसी बहाने छोटे भाई को अपने ऊपर खर्च होने वाली रकम पहुँचाता था। एक दिन जब दोनों भाई तीसरे पहर की चाय पी रहे थे, श्रीकण्ठ ने नाथजी से कहा- “सुनते हो? मैं आज टिकट ले आया। परसों जम्मू रवाना हो जाऊँगा और वहीं से दूसरे दिन कलकत्ता।"
"क्यों? वहाँ सब ठीक तो है?" नाथजी ने तनिक घबराकर पूछा। "हाँ, सब ठीक है! मगर सच पूछो तो कुछ भी ठीक नहीं है।"
“मतलब? आप साफ़-साफ़ क्यों नहीं कहते कि बात क्या है?" नाथजी ने व्यग्र होकर पूछा।
“आज कलकत्ते से छोटे साहबजादे का चौथा खत आ गया कि मैं जल्द से जल्द वहाँ पहुँच जाऊँ ।"
"तो ठीक है। जाड़ों में सहर्ष चले जाइये। अभी तो वहाँ प्रचंड गर्मी होगी।" नाथजी ने अपना मत प्रकट किया।
"मेरा भी कुछ ऐसा ही खयाल था। मगर उसने जो कुछ लिखा है उसे पढ़कर लगता है कि मुझे जाना ही पड़ेगा।"
“आखिर ऐसी भी क्या एमर्जेंसी है?"

“तुम नहीं जानते। दोनों पति-पत्नी मुँह-अँधेरे ही घर से निकलते हैं। वह खुद फैक्टरी चला जाता है और बहू किसी प्राइवेट स्कूल में पढ़ाने जाती है। रहा नन्हा, उसे उन्होंने किसी क्रेच में डाला था जहाँ उन्हें महीने के डेढ़ सौ देने पड़ते थे। शाम को काम से लौटते समय वे नन्हे को भी वहाँ से घर ले आते थे।"
"तो ठीक है। इसमें बुराई क्या है?"
"आजकल तो यह बुराई हर बात में हर काम में घुस गई है। साहबजादे ने लिखा है कि क्रेच वाले बच्चों को जाने कौन-सी दवाई खिला देते हैं जिससे बच्चे दिन-भर के लिए गहरी नींद में डूब जाते हैं और वे उनकी चीं-ची, चौं-चौं से बच जाते हैं। लिखा है इससे नन्हे की बहुत बुरी हालत हो गई थी और उन्होंने उसके बच जाने की आशा ही छोड़ दी थी।"
“आश्चर्य है!" नाथजी ने कहा-"तब उन्हें नन्हे को किसी दूसरे क्रेच में डालना चाहिए था। सभी तो एक-जैसे नहीं हो सकते।"
“नहीं, सभी एक-से हैं। अब यदि माँ नौकरी छोड़ दे तो सात-आठ सौ में कैसे गुजारा चला लेंगे? चार-सौ तो घर का किराया ही होगा। नहीं, मुझे जाना ही पड़ेगा, चाहे इस बुढ़ापे में बच्चे पालने की चाकरी ही करनी पड़े।"

इसके बाद दोनों एक-दूसरे को बस देखते रहे। कुछ देर के लिए कोई कुछ नहीं बोला।

“असल में ग्यारह घरों के कश्मीर का जमाना दुबारा आने लगा है।" श्रीकण्ठ ने फिर जुबान खोली- यदि उसे भी कश्मीर में कोई नौकरी मिली होती तो वह सब नहीं देखना पड़ता। मैंने कितने ही लोगों के पाँव पकड़े मगर सब व्यर्थ! थोड़ी-सी भूमि बची थी, उसे भूमि-सुधार के बहाने छीन लिया। हम भी सुधार के पक्ष में हैं, पर सुधार तो हुआ नहीं, सिर्फ हमारा सर्वनाश हो गया। परसों ही मैं अपनी शीला की ससुराल गया था। चारों भाई सपरिवार नथुने-से सँकरे घर में किस प्रकार रहते हैं, यह देखते ही बनता है। बेचारों के पास बीस-पचीस कनाल जमीन थी। वह सारी की सारी हड़प गए। घर बनाने के लिए बेचारों के पास जमीन नहीं छोड़ी। यह सब किससे कहें? कौन सुनेगा?"

बोलते-बोलते श्रीकण्ठ की विचित्र दशा हो गई। सारा क्रोध और आक्रोश चेहरे पर उमड़ आया- "और वह मझला? बंगलूर में सड़ रहा है। सोचता हूँ, अभागा करता क्या होगा? दो जवान बेटियाँ घर में पड़ी हैं। कैसे उनके हाथ पीले करेगा? सच पूछो तो जीवन की इस अन्तिम घड़ी में बहुत परेशान हूँ। जयपुर वाला तो कोई चिट्ठी-पत्री ही नहीं लिखता। सोचता होगा कि अगर चिट्ठी लिखी तो बुड्ढा आ धमकेगा, हालाँकि मैं किसी के ऊपर बोझ नहीं हूँ। जब तक जिन्दा हूँ, मेरे लिए मेरी पेंशन काफ़ी है।"

श्रीकण्ठ को भावुक होते देखकर नाथजी ने बातचीत का विषय बदलना ही उचित समझा- "आपने चाय पी ली?"
“हाँ भई, पी ली। चाय ही नहीं, जहर भी पी चुका हूँ।"
श्रीकण्ठ की बोली में कड़वाहट बढ़ती ही गई- मैं एक दूसरी बात सोच रहा था। असल में तुमसे वही कहना चाहता था।"
“कौन-सी बात?" नाथजी ने हैरान होकर पूछा।

"सोच रहा था कि यह मकान अब बेच ही डालें। वह दिल्ली वाला अभी तक चुप है। मालूम नहीं उसने अपने हिस्से के बारे में क्या सोचा है। आखिर आज या कल मुझे अपना शरीर छोड़ना ही होगा। अपने खून को तो मैं बहुत अच्छी तरह पहचानता हूँ। अभी मेरा तेरहवाँ भी नहीं हुआ होगा कि वह एक-दो-तीन करके मेरे हिस्से को नीलाम कर देंगे। इसीलिए सोचता हूँ कि अगर मेरे जीते-जी यह झमेला खत्म हो जाए तो बेहतर रहेगा। डरता हूँ कि मेरे बाद मामला बढ़ न जाए और ये बिच्छू वहाँ आकर भी मुझे डस न लें।"

श्रीकण्ठ की बातें सुनकर नाथजी अवाक रह गया। अपने भाई का यह फैसला उसे कुछ बेतुका लगा-आकस्मिक और कुछ-कुछ एक अप्रिय और कड़वा यथार्थ भी! उसे लगा कि अचानक किसी साँप ने उसे डंक मारा और अब जहर उसके अंग-अंग में फैल रहा है। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि मिट्टी के कच्चे बर्तनों से भरी भट्टी-जैसे परिवार को लेकर वह कहाँ-कहाँ मारा-मारा फिरेगा!

श्रीकण्ठ सब समझ रहा था। उसने एकाउण्टेंट जनरल के दफ्तर में काम किया था। जिन्दगी-भर घास नहीं खोदी थी।

“मुझे तुम्हारी मजबूरियों का अहसास है।" श्रीकण्ठ ने दूरदर्शिता दिखाते हुए कहा-“मगर जरा सोचो! यदि हम एक साथ ही पूरी मकान को बेचें, तो डेढ़-दो लाख मिल ही जाएंगे। इसके विपरीत यदि हम अपने-अपने हिस्सों को अलग-अलग बेचेंगे तो पचास हजार से एक पाई भी अधिक नहीं मिलेगी। आजकल कौन साझेदारी के मकान में रहना पसन्द करता है। तिस पर, जब कमरों के बीच का गलियारा साँझा हो, दहलीज साँझी हो और कमरों के बीच की दीवारें साँझी हो?"

“वह सब तो ठीक है।" नाथजी ने नम्रता और आदर से कहा-"दो-चार साल और सही। मालूम नहीं मेरे इन बच्चों को रोजी-रोटी किस दिशा, किस देश में लिखी होगी। तब तक मैं भी रिटायर हो जाऊँगा और मुझे भी बोरिया-विस्तर बाँधकर उनके पीछे-पीछे जाना होगा।"

"तुम बिल्कुल सही कहते हो।" श्रीकण्ठ बोलने लगा-“लेकिन मुझे लगता है कि मैं तब तक जीवित नहीं रहूँगा। खैर, मुझे अपनी कोई चिन्ता नहीं है, पर डरता हूँ कि कहीं राम कौल का नाम बदनाम न हो जाए। मान लो मेरा हिस्सा किसी ऐसे-वैसे आदमी ने खरीद लिया, तब तुम क्या करोगे?"

नाथजी जड़ बना बैठा रहा। दस-पन्द्रह मिनट तक उसके मुख से एक शब्द भी नहीं निकला। श्रीकण्ठ ने उठकर फिरन की सलवटें ठीक की और नाथजी से कहा-“सोच लो! फुर्सत से सोच लो। दोनों मियां-बीवी देख लो कि ठीक क्या रहेगा। मैं परसों जा रहा हूँ। वहाँ पहुँचने के सप्ताह-भर बाद तुम्हें पत्र लिखूँगा। मेरी नज़र में दोनों तरह के खरीदार हैं। एक तो पूरे का पूरा मकान खरीदने को तैयार है। दूसरे सिर्फ मेरे हिस्से के पचीस हजार दे रहा है। दोनों मुसलमान हैं। मैं दिल्ली वाले को चिट्ठी लिख रहा हूँ कि उसको अपने हिस्से का क्या करना है।"
इतना कहकर श्रीकण्ठ चलने लगा।

“आप कहाँ चले? खाना तो खाइए!" नाथजी ने बहुत जोर लगाकर अपनी जीभ को फिर से चालू किया-"बैठिए, खाना खाइए। जो भाग्य में लिखा होगा वह होकर रहेगा।"
"हाँ, होनी को कौन टाल सकता है? लेकिन मुझे जरा भी भूख नहीं है। सिर दुख रहा है। मैं सोना चाहता हूँ।"

इतना कहकर श्रीकण्ठ अपने कमरे में आया। दरवाजा बन्द करने के बाद उसने रोशनी गुल कर दी और बिस्तर में जा घुसा। वही मौन तस्वीर। वही पेंटिंग फिर उसके सामने मुखर हो उठी-एक विराट वृक्ष, परन्तु जड़हीन। अनेक छोटी-बड़ी आरियाँ उन बची-खुची जड़ों को भी काट रही हैं, जिनके सहारे वृक्ष अभी तक टिका है।

श्रीकण्ठ ने बचपन में सुना था कि उसके शहर श्रीनगर की शंकराचार्य पहाड़ी वास्तव में एक सुषुप्त ज्वालामुखी है जो किसी भी क्षण फूटकर सदियों से अपने भीतर छिपे लावे को वहाँ बिखेरकर सर्वनाश का कारण बनेगा। मगर इन साठ वर्षों में यह ज्वालामुखी नहीं फूटा, हालाँकि समय-समय पर इससे लावे की धारा रिसती रही। लेकिन आज पहली बार उसे लग रहा था कि शंकराचार्य पहाड़ी फट गई है और भीतर छिपा सारा लावा बहकर दूर-दूर तक फैल गया है और सारे आकाश को धुएँ और विषैली हवाओं ने घेर लिया है।

आज भी उसके नाम कोई पत्र नहीं आया। मन हुआ कि बेटे से कह दे कि कश्मीर वालों को तार दे दो। मगर वह बेटे और बहू के सामने कश्मीर का नाम तक लेने से डरता था। कश्मीर का जिक्र आते ही पति-पत्नी उसे बावले कुत्तों की तरह काट खाने को दौड़ते-'आग लग जाए उस कश्मीर को जो हमारा नहीं रहा!'
श्रीकण्ठ खुद ही बोझिल कदमों से तारघर तक गया और तार दे दिया-'वरीड। वायर वेलफेयर-श्रीकण्ठ ।

जैसे-तैसे तीन दिन बीते। ये तीनों रातें उसने काँटों पर लोट-लोटकर काटीं। अजीबो-गरीब विचार उसके मन में आते रहे-कहीं ऐसा तो नहीं कि भाई-भावज ने खुद जहर खाकर मुझे जीते-जी नरक में डाल दिया? मुझे यह कठोर निर्णय लेना ही नहीं चाहिए था। मेरे मरने के बाद जो होता सो होता। उसकी दशा कुछ-कुछ पागलों जैसी हो गई। उसने सोचा कि यदि और कुछ दिन तक भाई का जवाब नहीं आएगा तो वह उसे लिखेगा कि उसने अपना फैसला बदल दिया।

तार का जवाब आ ही गया। बहुत ही संक्षिप्त। तार देखते ही वह बहुत खुश हुआ, मानो उसे कोई खजाना मिल गया हो। लिखा था-'सब सकुशल हैं। विस्तृत पत्र पाँच दिन पहले डाला है।
तार की यह इबारत पढ़कर वह निश्चित नहीं कर पाया कि उसे खुश होना चाहिए या उदास । वह फिर सोचने लगा कि नाथजी ने क्या किया होगा? क्या लिखा होगा? उसकी समझ में कुछ भी नहीं आ रहा था। तभी डाकिया नाथजी का खत लेकर आ गया।

श्रीकण्ठ ने उसके हाथ से लिफाफा ले लिया। हाँ, पत्र नाथजी का ही था। उसकी ही लिखावट थी। छोटे भाई की फर्माबरदारी देखकर वह बहुत प्रसन्न हुआ। मन में उसके प्रति स्नेह कुछ ज़्यादा ही उमड़ आया। मगर लिफाफा खोलते समय जैसे सारा शरीर काँपने लगा। दिल की धड़कन तेज हो गई। आँखों के आगे अँधेरा-सा छाने लगा। लिफाफा खोलकर जब उसने पत्र बाहर निकाला तो पल-भर के लिए वह उसे कोरा कागज लगा। मगर नहीं, यह उसका भ्रम था। श्रीकण्ठ ने अपनी ऐनक साफ़ की। पहले उसे कागज पर कुछ धुंधली आकृतियाँ दिखाई दीं, पर जल्दी ही सारे अक्षर स्पष्ट होकर बोलने लगे। श्रीकण्ठ दम साधकर एक-एक अक्षर, एक-एक शब्द ध्यान से पढ़ने लगा

"भाई साहब,
नमस्कार। आपकी शतायु की कामनाएँ करता हूँ।

मैं आपकी लाचारी और मजबूरी भली-भाँति समझता हूँ। मुझे इस बात का अहसास है कि जिस भाई ने अपने बेटे की तरह मुझे पाल-पोसकर बड़ा किया, सोचना सिखाया, उसकी बात ही सही होगी, वजनदार होगी। परन्तु आप भी ज़रा सोचिये कि मैं अपना कच्चा परिवार लेकर कहाँ जाऊँ?
आप बेशक अपना हिस्सा बेचें। जिसे चाहें, उसे बेचें। आप मेरी चिन्ता क्यों करते हैं? यदि खरीदार मुसलमान है तो मुझे क्या फर्क पड़ेगा? जिस मुहल्ले में मैं रहता हूँ, वहाँ कौन लोग रहते हैं? मेरा सारा दिन किन लोगों के बीच गुजरता है? मेरा दूधवाला कौन है? सब्जी किसके यहाँ से लाता हूँ? मांस-मछली किन लोगों से खरीदता हूँ? मेरा मल-मूत्र और मेरे घर का कचरा-कूड़ा कौन उठाता है? और जो फूल मैं अपने देवता पर चढ़ाता हूँ, उन्हें कौन उपजाता है? जिस दाई ने मुझे माँ के पेट से पैदा किया, वह भी मुसलमान ही थी। और जब मर जाऊँगा तो मेरी चिता रचनेवाला दाहकर्ता भी मुसलमान ही होगा।

आप मेरे लिए विचलित न हों। ईश्वर आपको सकुशल रखे।
आपका अपना
नाथजी

श्रीकण्ठ ने पत्र दो बार, तीन बार पढ़ा। उसकी आँखें लाल हो गई. नथुने फड़कने लगे और मुख से घृणा और अवसाद-भरे ये शब्द अपने-आप निकल पड़े-"ब्लडी फूल! दिमाग खराब हो गया है पाजी का!' उसने खत के पुर्जे-पुर्जे करके उसे खिड़की से बाहर फेंक दिया। उसकी साँस तेज-तेज चलने लगी। दिल जोरों से धड़कने लगा-'हाँ, वही पेड़ दूर-दूर तक अपनी शाखें-टहनियाँ फैलाए किन्तु जड़ों के बिना कब तक धरती पर टिका रहेगा? वह अभी गिर पड़ेगा...अभी बिल्कुल...अभी।'

श्रीकण्ठ का सिर चकराया और वह खुद ही नीचे गिर पड़ा। लगभग दो घंटे बाद उसे होश आया। पर होश में आने के बाद भी उसकी हालत सुधरने की जगह बिगड़ती ही गई।

कई दिन बाद शीला के पति अर्थात् उसके दामाद ने सारे कागजात मुकम्मल करके जब उसे चेक भेजा तो उसके साथ उसने एक चिट्ठी भी नत्थी की थी। चिट्ठी में लिखा था कि ऐसा ही एक चेक उसने श्रीकण्ठ के दिल्ली वाले भाई को भी भेजा है। साथ ही यह सूचना भी दी थी कि सप्ताह-भर बाद ही नाथजी ने भी अपना हिस्सा उसी कादिर के हाथ बेच दिया जिसने श्रीकण्ठ और उसके दिल्ली वाले भाई का हिस्सा खरीदा था। नाथजी अब अपने परिवार सहित कहीं किराये के घर में रह रहा है।

पत्र पढ़कर श्रीकण्ठ की बुझी हुई आँखें दो क्रेटरों में बदल गईं और भीतर का सारा मवाद, दहकता लावा बनकर उनके रास्ते बाहर आने लगा।

(अनुवाद : हरिकृष्ण कौल)