जड़ाऊ मुखड़ा : फणीश्वरनाथ रेणु

Jadaau Mukhda : Phanishwar Nath Renu

बटुक बाबू ने मन-ही-मन तय कर लिया - ऑपरेशन करवाना ही होगा।

और, इसी जाड़े में।

बटुक बाबू पिछले एक सप्ताह से मानसिक अशान्ति भोग रहे थे, चुपचाप!

जब-जब उनकी इकलौती बेटी बुला सामने आती, बटुक बाबू का चेहरा उतर जाता।

बुला की ओर आँखें उठाकर देख नहीं सकते।

उनकी ऐसी गम्भीर और उदास मुद्रा को देखकर बुला डर से कुछ नहीं बोलती बाप के जी के बारे में माँ से भी कुछ पूछने की हिम्मत नहीं होती ।

पत्नी ने कई बार पूछा तो कोई खुलासा जवाब नहीं दे सके बटुक बाबू।

कल रात बुला अपनी माँ के साथ मच्छरदानी के अन्दर सो रही थी। बटुक बाबू धीरे-से उठे हाथ में छोटा टॉर्च लिया।

फिर कुछ सोचकर रख दिया टेबिल-लैम्प का स्विच दबाया।

दबे-पाँव पलँँग के पास गए और सोई हुई बुला के चेहरे को गौर से देखने लगे; कुछ देखकर सिहर पड़े। पत्नी शायद सबकुछ देख रही थी। धीमी आवाज में बोली, “यह क्‍या ?”

बटुक बाबू हड़बड़ाकर उठे। इशारे से कुछ कहा और टेबिल - लैम्प ऑफ करके बैठक में गए। इशारा समझकर पत्नी उनके पीछे-पीछे गई।

बटुक बाबू ने हाथ के इशारे से ही पत्नी को अपने पास बैठने को कहा। पत्नी धीरे-से सोने के कमरे का दरवाजा बन्द कर आई। बटुक बाबू ने फुसफुसाकर कहा, “बुला के चेहरे पर...'मस्से” पर एक रोयाँ उग आया है। तुमने देखा है ?”

पत्नी ने लम्बी साँस ली। जी हलका हुआ। बोली, “हाँ! देखा है।...तो क्‍या हुआ ?”

“तो क्‍या हुआ ?” बटुक बाबू को अचरज हुआ। माँ होकर भी इन बातों की ओर ध्यान नहीं देती। बोले, “मैं आज ही नकुल को चिट्ठी लिख देता हूँ। इसी छुट्टी में पटना चलकर ऑपरेशन”

“ऑपरेशन' का नाम सुनकर पत्नी सिहर पड़ी-“हूँहूँ... !”

“क्या, हूँ हँ ?

“ऑपरेशन-उपरेशन करके कहीं और भी चेहरा खराब... ।”

“प्लास्टिक सर्जरी के जमाने में भी तुम ऐसी बातें करती हो ?”

पिछले सोलह साल से जब-जब बटुक बाबू ने ऑपरेशन करवाने का प्रस्ताव किया, पत्नी ने समर्थन नहीं किया। और राई-भर का 'मस्सा' बढ़ते-बढ़ते अंब गोलमिर्च के बराबर हो गया है; उसमें एक केश भी उग आया है।

अब भी कहती है कि ऑपरेशन नहीं!

बटुक बाबू ने नाक सिकोड़कर कहा, “कितना भदूदा लगता है यह रोयाँ!...तितली ही कस की तरह ।...परम सुन्दर चेहरे पर यह गोलमिर्च-जैसा मस्सा और उसमें...

पत्नी को ऑपरेशन के बदले अपने बड़े भैया की बात याद आई-' 'तुम लोग इतमीनान से बैठे हो, क्यों? लड़की बड़ी हो रही है। “भोलेनाथ” (अर्थात्‌ बटुक बाबू, से कहो, 'सुपात्र” पर नजर रखें।”

पत्नी ने पूछा, “भगवानपुर से फिर कोई चिट्ठी नहीं आई ?”

बटुक बाबू नाराज हो गए-“भग़्वानपुर से क्या चिट्ठी आएगी ?...दुनिया में सुन्दर लड़कियों की कमी है जो तुम्हारी...ऐसी लड़की को वे पसन्द करेंगे, जिसके गाल पर गोलमिर्च-जैसा...?”

पत्नी हँस पड़ी। बटुक बाबू चिढ गए-“तुम हँसती हों ?”

“तो अभी इतनी रात में रोकर क्या होगा ?”

“मुझे नींद नहीं आएगी।”

पत्नी समझ गई, बात हँसी में टलनेवाली नहीं। अतः वह भी गम्भीर हो गई । दोनों बहुत देर तक विचार-विमर्श करते रहे। बात तय हो गई-इसी छुट्टी में यानी . पन्द्रह दिन के अन्दर ही चलकर ऑपरेशन करवा दिया जाए!

दूसरे दिन से बटुक बाबू से ज़्यादा परेशान उनकी पत्नी दीखने लगी। वह जब-जब बुला के चेहरे को गौर से देखती, बुला अवाक्‌ हो जाती। उसके गाल पर जड़े : हुए काले मस्से का रोयाँ धर-थर कॉँपने लगता'।

बुला की माँ को लगता, तितली का सूँड बढ़ता आ रहा है...आ रहा है! वह सिहर उठती।

पटना से बटुक बाबू के छोटे भाई प्रोफेसर नकुल बाबू की चिट्ठी आई और पति-पत्नी ने पटना चलने का प्रोग्राम बना लिया। पास-पड़ोस के लोग जान गए। लेकिन ऑपरेशन करवाने की बात उन्होंने किसी से नहीं बताई ।...क्या जरूरत ?

सत्रह साल पहले बुला का जन्म हुआ। उसके बाद फिर कोई सन्‍्तान नहीं हुई । बटुक बाबू के छोटे भाई प्रोफेसर ने कई बार अपने भाई और भाभी को समझाकर कहा-“मामूली ऑपरेशन डी. एन. सी. करवा लेने से ही फिर... ।”

किन्तु वे कभी तैयार नहीं हुए। हँसकर उड़ा देते-“क्या जरूरत है?...बुला ही हमारी बेटी, बुला ही ब्रेटा!”

बुला पिछले साल स्थानीय कॉलेज में दाखिल हुई है। विज्ञान पढ़ती है। बटुक बाबू को जीवन में अब तक कभी सिर-दर्द नहीं हुआ। मौसमी सर्दी-बुखार के

अलावा पत्नी भी बीमार नहीं पड़ी। इसलिए बुला का स्वास्थ्य भी सुन्दर है। मुफस्सिल के कस्बे में जन्मी और पली बुला अपने कॉलेज की 'कबड़डी-टीम' की कैप्टन है।

बटुक बाबू इतिहास के शिक्षक हैं। किन्तु स्वभाव से पूरे दर्शनशास्त्र-विभाग के व्यक्ति हैं। इसलिए कभी-कभी गृहिणी से मनमुटाव भी हो जाता है।...पाँच साल पहले, इसी तरह बुला को लेकर उन्होंने एक 'समस्या' खड़ी कर ली थी-अपने दिमाग में। की अपनी स्त्री से बार-बार कहते-''माँ होकर भी तुम इन बातों की ओर ध्यान नहीं देतीं '..-वह डर के मारे सूखकर काँटा हो गई है। समझती है, कोई रोग हो गया है।... उसको सिखाना होगा...सेनिटरी-टॉवेल और स्पंज का इस्तेमाल कैसे... तुम माँ होकर भी इन बातों पर... ।”

बटुक बाबू को साहित्य और संगीत में तनिक भी रुचि नहीं। उपन्यास और कहानियों से उतना ही चिढ़ते हैं जितना सिनेमा और थिएटर से। इसलिए चाहते थे कि उनकी पत्नी और पुत्री न कभी उपन्यास-कहानी पढ़ें और न सिनेमा-थिएटर देखें । किन्तु पत्नी महीने में दो-तीन बार सिनेमा देख आती है। बुला उपन्यास-कहानी पढ़े बिना रह नहीं सकती। बाप से तर्क करने लगी-“बाबा! तुम सभी को एक ही लाठी से हॉकते हो... ।” अन्त में मालूम हुआ कि बटुक बाबू उपन्यास-कहानी के विरुद्ध नहीं, 'प्रेम-विवाह” यानी “लव मैरिज” के खिलाफ हैं... ?

बुला हँसते-हँसते लोट-पोट हो गई थी।

बुला कभी पटना नहीं गई। लेकिन काकी और चचेरे भाई-बहनों के मुँह से बहुत बार पटना के मुहल्ले और सड़कों के बारे में सुन चुकी है ।...बाँकीपुर स्टेशन पर पहुँचकर उसे लगा-यहाँ वह पहले भी आ चुकी है।

पटना आकर बुला को मालूम हुआ कि सैर-सपाटे के लिए नहीं, उसके “मस्से' के ऑपरेशन के लिए पटना आना हुआ है। चचेरी बहन मीरा ने बताया।

बुला काकी के ड्रेसिंग-टेबल के आइने में अपने गाल के बड़े मस्से को देखती रहती है।...सभी उसके चेहरे की ओर देखते हैं। चेहरे को नहीं, मस्से को। मस्से में उगे हुए 'लोम” को। उसकी अपनी ही आँखें हमेशा अपने गाल पर केन्द्रित रहने लगीं ।

प्रोफेसर नकुल ने प्लास्टिक-सर्जन डॉक्टर चोपड़ा से बातें कर ली थीं। इसलिए दूसरे ही दिन से सिलसिला शुरू हुआ | डॉक्टर चोपड़ा आए। मस्से को देखा। उँगली से छूकर देखा। अपने सहायक युवक डॉक्टर को कुछ नोट करवाया और चले गए। बटुक बाबू और उनकी पत्नी ने डॉक्टर चोपड़ा के सहायक युवक से एक ही साथ पूछा-“आप कम्पाउंडर हैं?...स्टूडेंट ?”

जवाब दिया हँसकर नकुल बाबू की बड़ी बेटी मीरा ने, “कम्पाउंडर-स्टूडेंट नहीं ।

हि आह हैं। 'स्टेट्स' से आए हैं।”

“किस 'स्टेट' से?” बुक बाबू ने पूछा समझकर बोले, “ओ!

खोज: जमरका सैर बू ने पूछा। फिर तुरन्त समझक , “ओ!

डॉक्टर उमेश बोले, " खून की जाँच... ।”

“खून की जाँच?” बटुक बाबू अचरज में पड़े, “छोटे-से मस्से के ऑपरेशन के लिए भी खून की जाँच ?”

पत्नी बोली, “मस्सा कोई रोग तो नहीं ।”

डॉक्टर ने बताया, “एक ही किस्म की परीक्षा नहीं। आज डब्ल्यू. आर. के लिए खून देना होगा। कल आकर एस. आर. और टोटल डेफरेंसियल।”

बटुक बाबू ने पूछा, “यह डब्ल्यू. आर. क्‍या है ?”

“वाशरमैंस रिएक्शन ।”

पत्नी बोली, “इसमें धोबी की क्या बात...?”

के डॉक्टर ने समझाया, “खून में गरमी-सिफलिस वगैरह के बीजाणु हैं या नहीं... ?”

डॉक्टर उमेश अपनी बात पूरी नहीं कर सके। बटुक बाबू ने घोर प्रतिवाद के स्वर में कहा, “आप कैसी बात करते हैं! सिफलिस-गरमी ?”

डॉक्टर उमेश ने बताया कि बेकार बहस करने को उनके पास समय नहीं । बिना इस “जाँच' के कोई ऑपरेशन नहीं हो सकता।

किन्तु बात सुलझने के बदले उलझती गई। बटुक बाबू को लगा, डॉक्टर उमेश ने उनके पूर्व-पुरखों को ही नहीं, उनकी पत्नी के दादे-परदादे तक को भदृदी गालियाँ दे दी हैं।...जरा भी 'शील-स्वभाव” नहीं। मुँह में जो आया, बोलता गया।

डॉक्टर उमेश ने बताया कि देर करने से पैथोलॉजी डिपार्टमेंट बन्द हो जाएगा। फिर आज खून नहीं लिया जा सकेगा। बटुक बाबू अपनी स्त्री और पुत्री के साथ डॉक्टर उमेश की गाड़ी में जा बैठे। रास्ते-भर वह मन-ही-मन कटते रहे। और जब मेडिकल-कॉलेज के पैथोलॉजी डिपार्टमेंट में पहुँचे तो उनको लगा, उनकी देह में दुनिया-भर के बुरे-छुतैले रोगों के कीटाणु कुलबुला रहे हैं।

बेंचों पर बैठे हुए और बरामदे में आस-पास खड़े लोगों से अपनी देह बचाकर वे एक किनारे नाक पर रूमाल डालकर खड़े रहे। पत्नी को मिचली आने लगी। किन्तु डॉक्टर ने जब बुला का नाम लेकर पुकारा, तो वह निडर होकर आगे बढ़ गई।

बटुक बाबू और उनकी पत्नी को डॉक्टर ने अन्दर नहीं जाने दिया-“ओनली पेशेन्ट... !!”

डॉक्टर उमेश ने पूछा, “डर तो नहीं लगता ?”

बुला बोली, “जी नहीं।”

सुई डॉक्टर उमेश ने नहीं, दूसरे डॉक्टर ने गड़ाई। बहुत देर तक उन्हें नस ही नहीं मिली। थोड़ा रक्‍्तपात हुआ। डॉक्टर उमेश पास खड़े थे और बुला को भरोसा दे रहे थे।

बुला डॉक्टर उमेश के साथ बाहर निकली । उन्होंने देखा, सीढ़ियों के नीचे बटुक , बाबू सिर थामकर बैठे हैं और पत्नी अखबार से उनके सिर पर हवा कर रही है।... बटुक बाबू ने खिड़की से झाँककर देखा था-बुला के “लहूलुहान” बाँह से टप-टप कर चूता हुआ खून। बस, चक्कर आ गया।

डॉक्टर उमेश ने बताया कि एस. आर. के लिए अब यहाँ आने की जरूरत नहीं होगी । घर पर ही खून ले लिया जाएगा। रास्ते में बटुक बाबू के मुँह से एक बार फिर निकला, “एक छोटे-से मस्से को काटने के लिए इतना हंगामा!”

डॉक्टर ने कहा, “फर्ज कीजिए, मस्सा काटने के बाद खून बन्द नहीं हो। तब ?”

“ऐसा भी होता है?” बटुक बाबू की आँखें गोल हो गईं।

“हॉ। इसीलिए इतनी परीक्षा और जाँच ।”

बुला की माँ ने पूछा, “तब तो मामूली नहीं, खतरनाक ऑपरेशन है यह ?”

“है तो मामूली ही। लेकिन खतरा तो है। फर्ज कीजिए, घाव बिगड़ जाए तो थ्राफिटिं” करना होगा... ।”

ग्राफ्टिंग क्या ?

“जिन्दा चमड़ी की चिप्पी ।”

“जिन्दा चमड़ी ?”

“हाँ, हिप यानी चूतड़ यानी पुट्ठे की चमड़ी तराशकर... ।”

“किसकी ? किसके पुट्ठे की ?”

“रोगी के।

इस बार ऐसा लगा कि पति-पत्नी दोनों एक ही साथ बेहोश हो जाएँगे। लेकिन बुला चुपचाप बैठी मुस्कुराती रही।

डेरे पर पहुँचकर बटुक बाबू ने नकुल बाबू से सारा किस्सा बताया। नकुल बाबू हँसे । बोले, “भैया, आप लोग नाहक क्‍यों परेशान होते हैं! कल से जहाँ कहीं भी जाना होगा, बुला के साथ मीरा जाएगी ।”

डॉक्टर उमेश सुबह आकर बुला का खून ले गए और बुला को दस बजे डॉक्टर चोपड़ा के क्लिनिक में बुलाया।

बुला के साथ मीरा गई।

बटुक बाबू ने अपनी स्त्री से कहा, “लगता है, मामूली ऑपरेशन नहीं, लेकिन कोई चारा भी नहीं ।” पत्नी को अब भी मिचली आ रही है। इशारे से बोली, “अब भगवान जो करें!”

बुला और मीरा दो घंटे के बाद लौटीं। पति-पत्नी 'धड़फड़ा'कर उठे। मानों, खोई हुई लड़की मिल गई।

डॉक्टर उमेश साँझ को बुरी खबर ले आए-“डब्ल्यू. आर. के लिए फिर खून देना होगा।...सन्देहजनक है।”

सुबह बुला-मीरा फिर गईं। और चार घंटे के बाद लौंटी। मीरा बोली, “हम लोग अस्पताल के मैदान में लगी प्रदर्शनी देख आए। डॉक्टर उमेश का पाँच रुपया खर्चा करवा दिया...'क्वालिटी” की आइसक्रीम...।”

बटुक बाबू ने पूछा, “अब तो खून नहीं देना होगा?”

बटुक बाबू को रह-रहकर डॉक्टर उमेश की बातें याद आती हैं-“फर्ज कीजिए. खून बन्द नहीं हो। ग्राफ्टिंग, चूतड़ की जिन्दा चमड़ी तराशकर...।

तीन-चार दिन तक यही सिलसिला रहा। बुला और मीरा रिक्शा में बैठकर क्लिनिक जातीं। बटुक बाबूं अपनी पत्नी के साथ लक्ष्मीनारायण मन्दिर, कालीबाड़ी और पटनदेवी के मन्दिर की ओर जाते।

सातवें दिन नकुल बाबू ने संवाद किया, “डॉक्टर उमेश कह रहे थे कि ऑपरेशन नहीं हो सकेगा।”

क्यों ?” पति - पत्नी ने एक ही साथ पूछा।

कल नकुल बाबू मुस्कुराकर बोले, “पता नहीं क्यों ?

क्‍यों मीरा, क्या बात है ? बात क्या है ? बुला कहाँ है ?”

मीरा हँसती हुई और बुला तनिक लजाती हुई आई।

नकुल बाबू ने पूछा, “क्या बात हुई, मीरा ? डॉक्टर उमेश क्या कह रहे थे ?”

“दीदी से पूछ रहे थे कि मस्से को क्‍यों कटवाना चाहती है ?”

बटुक बाबू बोले, “यह डॉक्टर उमेश थोड़ा पागल है... ।”

नकुल ने कहा, “भैया! डॉक्टर उमेश पर पटना मेडिकल कॉलेज को गर्व है गौरव हैं डॉक्टर उमेश!”

मीरा कहती गई, “दीदी बोली कि माँ और बाबूजी चांहते हैं। तब डॉक्टर साहब ने कहा-वे क्‍यों कटवाना चाहते हैं ?

मस्सा तो आपके चेहरे पर है; आप नहीं चाहें तो...। दीदी कुछ नहीं बोली। तब डॉक्टर साहब ने पूछा-आपको बुरा लगता है मस्सा? दीदी कुछ भी नहीं बोली।

तो डॉक्टर साहब बोले-इसको काटने के बाद आपका चेहरा बदसूरत भी हो सकता है, किसी की नजर में फिर बोले कि जैसे यह आपके गले में जो जड़ाऊ हार है, इसका पत्थर निकाल दिया जाए तो कैसा लगेगा ?

बटुक बाबूं का चेहरा लाल हो गया - नकुल, यह डॉक्टर तुम्हारे पटना मेडिकल कॉलेज का गौरव हो या जो कुछ भी हो, मगर यह आदमी अच्छा नहीं। इतनी और ऐसी-ऐसी बातें पूछने की क्या जरूरत ?

नकल बाबू की स्त्री ने बटुक बाबू की पत्नी को हँसकर अन्दर बुलाया - दीदी ?

जरा अन्दर आइए...।”

मीरा बोली, “डॉक्टर उमेश की माँ आई हैं।”

बटुक बाबू की समझ में कोई बात नहीं आई।

अन्दर न जाने क्या हुआ कि मीरा की बंगालिन सहेलियों ने मिलकर शंख बजाना शुरू किया। एक साथ कई शंख बज उठे।

नकुल बाबू का अष्टवर्षीय पुत्र गोपाल दौड़ता हुआ आया-“बुला दीदी को डॉक्टर उमेश की माँ ने गोदी में बैठाकर चुम्मा ले लिया।”

एक साथ कई शंख बज रहे थे। नकुल बाबू हँस-हँसकर अपने बड़े भाई बटुक बाबू को समझा रहे थे। और बटुक एकदम नहीं समझ पा रहे थे कि डॉक्टर उमेश के नहीं चाहने पर ऑपरेशन क्‍यों नहीं होगा ?

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