इतिहास का अन्त (कहानी) : श्रीलाल शुक्ल

Itihas Ka Ant (Hindi Story) : Shrilal Shukla

नीत्शे के ज़माने में ‘ईश्वर के अन्त’ की तरह बीसवीं शताब्दी में कुछ विचारकों ने ‘इतिहास के अन्त’ की धमाकेदार अवधारणा पेश की पर दुर्भाग्यवश वह इतनी दिलचस्प साबित हुई कि देखते-देखते ‘इतिहास का अन्त’ एक घिसी-पिटी उक्ति—एक ‘क्लिशे’ भर रह गया।

पर ऐसा मैंने सिर्फ़ पिछले महीने तक सोचा। तभी कुछ ऐसा हुआ जिससे मुझे लगा है कि ‘इतिहास का अन्त’ एक क्लिशे भर नहीं है। वह यथार्थ है, ऐसा यथार्थ है जो अपने अन्त के बावजूद आक्रामक है। इस यथार्थ का सृजन तमाम वैज्ञानिकों या दूसरे गम्भीर चिन्तकों ने ही नहीं, कुछ सरकारी बुद्धिजीवियों, कुत्सित नेताओं कुछ मूर्ख नारेबाज़ों ने, और इन सबका इस्तेमाल करनेवाली उस बेपरवाह सत्ता ने किया है जो हमारे हाथों रची जाने के बावजूद हमारे ही सिर पर चढ़ी हुई है, जो हमारे ही खिलाफ़ एक पराशक्ति बन गई है। वास्तव में, इस बीच एक घटना घटी है जिसके बारे में सुनकर और जिसका अन्तिम दृश्य खुद देखकर मैं ‘इतिहास का अन्त’ की अवधारणा को बड़ी संजीदगी और उससे भी ज़्यादा खौफ के साथ देखने लगा हूँ। यहाँ उसी घटना को मैं एक संक्षिप्त कहानी के रूप में पेश कर रहा हूँ।

दिलदार नगर अवध की एक रियासत है—वह नहीं जिसे देसी रियासत कहते आए हैं। यह एक बड़ी ज़मींदारी थी जिसे ताल्लुक़ेदारी कहा जाता है। उत्तर प्रदेश में, अवध का इलाका जिसका कि एक हिस्सा है, १९५२ में एक क़ानून द्वारा ज़मींदारी की व्यवस्था समाप्त कर दी गई। उसमें दिलदार नगर की ताल्लुक़ेदारी भी गई। पर दूसरा ताल्लुक़ेदारों और बड़े ज़मींदारों की तरह दिलदार नगर का मालिक राजा स्वयंवर सिंह तब भी राजा साहब ही कहलाते रहे। ज़मींदारी-उन्मूलन से उनकी वह हैसियत तो खत्म हो गई जिससे वे बिचौलिये की तरह किसानों से ज़मीन का लगान वसूलते और उसका कुछ हिस्सा सरकार को मालगुज़ारी के रूप में देते, पर इस बिचौलियेपन के ध्वंस के बावजूद उनकी निजी ज़मीन, जायदाद, कोठियाँ, शहर के बँगले और चीनी मिल आदि पर कोई आँच नहीं आई। उल्टे उनकी बढ़ोतरी हुई क्योंकि अब वे जमींदारी के झमेले से फुर्सत पाकर अपनी निजी सम्पत्ति को बढ़ाने के लिए चौबीसों घंटे खाली रहने लगे।

फुर्सत इतनी ज़्यादा थी कि, दूसरे राजा-महाराजाओं की तरह वे भी राजनीति में खिसक आए और बिना किसी जद्दो-जहद के एम.एल.ए. बन गए, दूसरी बार एम.एल.ए. होते ही मिनिस्टर बन गए। मिनिस्टर वे सिंचाई विभाग के बने जो बहुत विराट होते हुए भी भ्रष्टाचार के ठप्पे के कारण बहुत ज़लील (सात ही बहुत दिलकश) माना जाता था। इसे सन्तुलित करने को उन्हें एक दूसरा विभाग भी दिया गया जो बहुत गौरवशाली और पवित्र होते हुए भी दयनीय रूप से क्षुद्र था। इस विभाग का नाम था स्वतन्त्रता-संग्राम-सेनानी-कल्याण विभाग। विभाग का काम देश के स्वतन्त्रता आन्दोलन में जिन लोगों ने त्याग-बलिदान किया, उनके या उनकी सन्तानों के कल्याण के लिए पेंशन के लिए उनके प्रकार की दूसरी कल्याणकारी योजनाएँ चलाना था।

कुछ मुतफ़र्रिक काम भी थे, जैसे शहरों के चौराहों पर स्वतन्त्रता संग्राम के शहीदों या दूसरे त्यागी नेताओं की प्रतिमाएँ लगवाना। शुरू-शुरू में प्रतिमाओं का कोई ख़ास जोर न था, पर जल्द ही राजनीति की एक बड़ी सशक्त शाखा विकसित हो गई जिसका नाम ‘प्रतिमाओं की राजनीति’ है। इसके पीछे राजनीति में जाति-भेद की प्रतिष्ठा का सिद्धान्त था जिसके अन्तर्गत अब हर जाति के अन्दर अपने-अपने प्रतिनिधि शहीदों और बलिदानियों की लम्बी सूची थी। उन्हें शहरों के चौराहों और नुक्कड़ो पर, प्रतिमा की हैसियत से, जगह देना अनिवार्य था। इसलिए जहाँ एक ओर शहरों के सार्वजनिक स्थलों पर प्रतिमाओं पर प्रतिमाएँ टूट पड़ रही थीं, वहीं दूसरी ओर विभाग के बजट में भारी बढ़ोत्तरी और अभूतपूर्व सक्रियता दिखने लगी थी।

यहाँ तक कि, भले ही क्षुद्र विभाग सिंचाई विभाग की लूट का कीर्तिमान नहीं तोड़ पाया हो, अब कोई यह नहीं कह सकता था कि देखो, इस विभाग में बेचारा भ्रष्टाचार अभी तक उपेक्षित पड़ा है।

बहरहाल, राज्य की राजधानी में एक चौराहा था जो कि सिविल लाइन्स और छावनी क्षेत्र को अलग करता था (या दूसरी तरह देखें तो, जोड़ता था।) चौराहा बहुत बड़ा था और उसके आसपास अब भी—पार्कों के नाम पर—बहुत सी ख़ाली ज़मीन थी। वहाँ हर जाति, धर्म और सम्प्रदाय के शहीदों के मुर्त्तिमान प्रतिनिधि के बावजूद दो-ढाई नई प्रतिमाओ के खड़े होने की अब भी गुंजाइश थी। अतः सरकार ने तय किया कि बची हुई जगह पर संगमरमर की शानदार चौकी तैयार कराके उस पर १८५७ के स्वतन्त्रता-संग्रामी अमर शहीद बख़्तावर सिंह की आदमकद प्रतिमा मय घोड़े और तलवार के—लगाई जाए। यह कुछ प्रभावशील पत्रकारों की माँग का नतीजा था। चार महीने में ही प्रतिमा लग गई पर उसे अपारदर्शी कनवास से ढक दिया गया। होना यह था कि उसका उद्घाटन, लोकार्पण, अनावरण या निरावरण—इसे जो भी कहें—विभाग के मन्त्री राजा स्वयंवर सिंह करेंगे। इत्तफ़ाक यह कि अमर शहीद बख़्तावर सिंह दिलदार नगर के ही निवासी थे। वे राजा स्वयंवर सिंह के परदादा राजा उदयबान सिंह के समकालीन थे। स्थानीय इतिहास में लिखा था कि उदयभान सिंह को ‘राजा’ का ख़िताब अंग्रेज़ों द्वारा बख्तावर सिंह को फाँसी दिए जाने के बाद मिला था। (फाँसी भी, इतिहास का ऐतबार किया जाए तो, बहुत अनौपचारिक थी; उन्हें मारकर सड़क किनारे एक इमली के पेड़ से लटका दिया गया।) बहरहाल, स्थित यह थी कि ख़ाली उदयभान सिंह बख्तावर सिंह के समकालीन थे, पर राजा उदयबान सिंह उनके परवर्ती थी।

प्रतिमा के अनावरण-समारोह के दो दिन पहले स्थानीय कमिश्नर ने किसी से सलाह लिये बिना—एक सुझाव दिया जिसकी हैसियत हुक्म जैसी थी। उसने कहा कि बख़्तावरसिंह के नाती-

पोतों में, या उसके ख़ानदान में अगर कोई ज़िन्दा हो तो क्या वाजिब न होगा कि उसे विशेष अतिथि के रूप में इस आयोजन में निमन्त्रित किया जाए? इससे अवसर की गरिमा बढ़ेगा। हुक्म होते ही बहुत से सहना-सिपाही चारों ओर बख़्तावर सिंह के वंशजों की तलाश में निकल पड़े। आयोजन के कुछ घंटे पहले कमिश्नर साहब को बताया गया कि उस ख़ानदान में बख़्तावरसिंह के एक पड़पोते को छोड़कर कोई नहीं है। पड़पोता बहत्तर साल का है, उसका बाप बहुत पहले गाँव में अपनी खेती-पाती—जो दो-ढाई बीघे रही होगी—बेचकर उसी शहर में आ गया था। पड़पोता दिलीप सिंह यहीं जैसे-तैसे गुजर कर रहा था।

‘‘करता क्या है?’’ कमिश्नर के सवाल का जवाब एक मातहत ने दिया, ‘‘यहीं बड़े डाकघर में काम करता है।’’

कमिश्नर ने उस समय इस सूचना का ध्यान नहीं दिया पर दूसरे दिन आयोजन के स्थल पर जब उसे दिलीप सिंह से मिलाया गया तो उसे झटका-सा लगा। बेतरतीब दाढ़ी और मोटे चश्मेवाला यह दुबला-पतला बूढ़ा, जिसके पाँव में धूल-भरी घिसी-पिटी चप्पलें और जिस्म पर एक पुरानी कमीज़ और मटमैला पजामा था। क्या यही उस प्रतापी योद्धा बख़्तावरसिंह का वंशज है जिसने सिर्फ तेईस साथियों की टुकड़ी के साथ अपनी तलवार के बूते उदयभान सिंह की मजबूत हवेली पर कब्जा करके १८५७ के स्वतन्त्रता-संग्राम में अंग्रेजों के खिलाफ भयानक मोर्चेबन्दी की थी, बाद में बाहर निकलकर न जाने कितने गोरे फौजियों को रणभूमि में गाजर-मूली की तरह काटकर फेंक दिया था और…!

कमिश्नर ने कहा, ‘‘मुझे बताया गया था कि आप डाकघर में काम करते हैं। पर आप सत्तर से ऊपर हो चले हैं! रिटायर कब हुए?’’

दिलीप सिंह के हाथ में जूट का एक बड़ा झोला था—मैला और किसी भी क्षण फटने को तैयार। उसे खोलकर उसने कमिश्नर को दिखाया। वहाँ एक खोचा, पोर्टेबल टाइपराइटर था, कुछ डाकघर के फ़ार्म, सादे काग़ज़ और कार्बन पेपर भी! उसने कहा, ‘‘बाहर फाटक पर बैठकर लोगों की प्राइवेट टाइपिंग करता हूँ।’’

‘‘काम भर की आमदनी हो जाती है?’’

‘‘अब नहीं। मशीन ख़राब होती रहती है,’’ कहकर वह उत्तर की ओरवाली सड़क को ताकने लगा जिधर से पुलिस की सीटियों की आवाज़ें, फुटकर किस्म का प्रशासकीय हो-हल्ला और उसके पीछे मिनिस्टर की गाड़ियों का काफिला आ रहा था।

मिनिस्टर ने पहले नगर-प्रमुख से फिर बख़्तावर सिंह के पड़पोते दिलीप सिंह का परिचय पाकर उससे हाथ मिलाया, औरों को हाथ जोड़कर नमस्कार किया और व्याख्यान, व्याख्यान के बाद तालियों की गड़गड़ाहट के बीच प्रतिमा का अनावरण कर दिया, फिर उस पर फूलमालाओं, पुष्पांजलियों आदि की रस्में पूरी हुईं। अन्त में मिनिस्टर का सारगर्भित पर संक्षिप्त भाषाण—१८५७ का जो हमारा पहला स्वतन्त्रता-संग्राम था उसका गुणगान, उसके बलिदानियों के लिए श्रद्धा-निवेदन!

मिनिस्टर के गाड़ी में बैठने के पहले उसे पत्रकारों ने घेर लिया। एक ने पूछा, ‘‘क्या यह सच है कि जिस समय बख़्तावर सिंह अंग्रेजों के खिलाफ़ जूझ रहे थे तभी आपके परदादा श्री उदयभान सिंह अपनी हवेली छोड़कर ननिहाल के गाँव में गए अंग्रेज परिवारों की परवरिश कर रहे थे?’’

मिनिस्टर ने कहा, ‘‘सच है। वे हमारे शरणागत थे। शरणागत की रक्षा करना हमारा सनातन कर्त्तव्य है। अगर वे अंग्रेज महात्मा गांधी की शरण में आते तो क्या वे उन्हें दुश्मनों के हाथ में मरने के लिए सौंप देते?’’

‘‘क्या यह सच नहीं कि बख्तावर सिंह को पकड़वाने में आपके परदादा का हाथ था? डॉ. चटर्जी के इतिहास में…।’’

‘‘जो इतिहास मैंने पढ़ा है उसके अनुसार यह सरासर झूठ है।’’

‘‘क्या यह भी झूठ है कि बख़्तावर सिंह की फाँसी के बाद, अमन कायम होने पर, उसकी सारी ज़मीन-जायदाद को शामिल करते हुए दिलदार नगर का इलाका आपके परदादा को दिया गया और तभी उन्हें ‘राजा’ का ख़िताब भी मिला?’’

‘‘कैसा रहेगा यदि आप इस विषय पर स्वयं शोध करें और खुद अपना निष्कर्ष निकालें? हमारे विभाग से ऐसे शोध कार्यों के लिए फेलोशिप भी मिलती है।’’

‘‘आपका क्या निष्कर्ष है?’’

मिनिस्टर ने कहा, ‘‘हमारी रियासत का इतिहास कुछ जटिल है। हमारे परदादा १८५७ में विद्रोही सिपाहियों के साथ थे। इसके बावजूद जब कुछ अंग्रेज़ परिवार उनकी शरण में आए तो इंसानियत के नाते उन्होंने उनकी रक्षा की, उन्हें मौत के मुँह में नहीं झोंका! आप इसे जो भी कहें, आज कोई भी मानवाधिकार आयोग इसे गद्दारी नहीं कहेगा! वह इसे मानवीयता का सर्वोच्च उदाहरण मानेगा।’’

महात्मा गांधी…मानवाधिकार आयोग…! यह सब मेरे सामने हो रहा था। फिर भी, जब वे गाड़ी में बैठ रहे थे, उनसे अन्तिम प्रश्न किया गया, ‘‘अमर शहीद बख़्तावर का यह वंशज दिलीप सिंह बहुत गरीब है। इसके पुरखों की सारी जायदाद आपकी रियासत में शामिल रही है। उससे दस-पाँच बीघा निकालकर क्या आप उसे देने की अनुकम्पा करेंगे?’’

‘‘क्यों नहीं? वैसे हमारी सारी जमींदारी, दिलदार नगर की पूरी रियासत ख़त्म हो चुकी है, सारी ज़मीन सरकार ने हमसे लेकर किसानों या गाँव पंचायत को दे दी है। फिर भी मैं अपनी जोत से उसे कुछ जमीन दे सकता हूँ।’’

वे रुके; फिर नाक पर अपना चश्मा सन्तुलित करने के बाद बोले, ‘‘पर क्या दिलीप सिंहजी गाँव जाकर इस उम्र में खेती कर सकेंगे? खेती के हाड़-तोड़ काम को आपने क्या समझ रखा है? पिकनिक? नहीं, यह सुझाव व्यावहारिक नहीं है। कुछ और सोचिए।’’

गाड़ी में बैठकर उन्होंने कहा, ‘‘मैं भी सोचूँगा।’’

गाड़ी के चलते-चलते उन्होंने कमिश्नर से कहा, ‘‘दिलीप सिंहजी के लिए मैंने कुछ सोचा है।’’

इशारे से कमिश्नर को और नजदीक बुलाकर, पर आवाज़ को उसी ऊँचाई पर टिकाए हुए उन्होंने कहा, ‘‘दिलीप सिंहजी के लिए एक नया टाइपराइटर ख़रीद दीजिए।’’

गाड़ी चल दी, उन्होंने हवा से कहा, ‘‘मेरी निजी भेंट…!’’

कमिश्नर ने भी हवा से कहा, ‘‘ठीक है श्रीमन्।’’ वह हैरत में था कि मिनिस्टर को दिलीप सिंह के टाइपराइटर का हाल कैसे मालमू हो गया! पर वह वरिष्ठ अफ़सर था, जानता था कि प्रशासन में हैरतंगेज कुछ भी नहीं है।

यह महीना-भर पहले की घटना है। इस बीच, डाकघर के फाटक के पास पान-सिगरेट-चाय-चाट आदि के जो ठेले थे, उन्हें नगर सौन्दर्यीकरण की योजना में हटा दिया गया है। वहीं पटरी पर पेड़ों की छाँह में कुछ लोग टाइपराइटरों पर चिट्ठियाँ और दूसरे काग़ज़ात तैयार करते रहते थे। उन्हें भी मार भगाया गया है। डाकघर बख़्तावर सिंह की प्रतिमा से लगभग दो सौ मीटर पर है। उस क्षेत्र के सौन्दर्यीकरण के बाद दिलीप सिंह अपना टाइपराइटर लेकर इसी प्रतिमा के चरणों के पास संगमरमर की पीठिका पर बैठने लगा है। उसके जिस्म पर वही पुरानी कमीज़ और पाजामा है। देश की स्वतन्त्रता का जलवा देखिए कि आज यहाँ कोई कुछ भी बन जाने को स्वतन्त्र है और जिनके परदादा अंग्रेजों को शरण देकर राजा बने थे वही राजा स्वयंवर सिंह मिनिस्टर की हैसियत से आज स्वतन्त्रता संग्राम के बलिदानियों और उनके वारिसों का कल्याण कर रहे हैं। इसके पीछे प्रायश्चित की भावना नहीं, सिर्फ़ उनका सौभाग्य है। वे खुश हैं। बख़्तावर सिंह का पड़पोता भी खुश है कि उसे अपने पड़दादा के चरणों में स्थान मिला हुआ है जहाँ से उसे भगाने के लिए कोई नहीं आएगा। यह उसकी खुशफहमी है, पर वह खुश है।

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