इश्क़-ए-हक़ीक़ी (कहानी) : सआदत हसन मंटो

Ishq-e-Haqiqi (Hindi Story) : Saadat Hasan Manto

इशक़-ओ-मोहब्बत के बारे में अख़लाक़ का नज़रिया वही था जो अक्सर आशिकों और मोहब्बत करने वालों का होता है। वो रांझे पीर का चेला था। इशक़ में मर जाना उसके नज़दीक एक अज़ीमुश्शान मौत मरना था।
अख़लाक़ तीस बरस का होगया। मगर बावजूद कोशिशों के उस को किसी से इश्क़ न हुआ लेकिन एक दिन अनगरड बर्ग मैन की पिक्चर “फ़ौर होम दी बिल टोनज़” कामीटीनी शो देखने के दौरान में इस ने महसूस किया कि उस का दिल उस बुरक़ापोश लड़की से वाबस्ता होगया है। जो उस के साथ वाली सीट पर बैठी थी और सारा वक़्त अपनी टांग हिलाती रही थी।
पर्दे पर जब साय कम और रोशनी ज़्यादा होती तो अख़लाक़ ने उस लड़की को एक नज़र देखा। इस के माथे पर पसीने के नन्हे नन्हे क़तरे थे। नाक की फ़िनिंग पर चंद बूंदें थीं जब अख़लाक़ ने उसकी तरफ़ देखा तो उसकी टांग हिलना बंद होगई। एक अदा के साथ इस ने अपने स्याह बुर्के की जाली से अपना चेहरा ढाँप लिया। ये हरकत कुछ ऐसी थी कि अख़लाक़ को बेइख़्तयार हंसी आगई।
उस लड़की ने अपनी सहेली के कान में कुछ कहा। दोनों हौलेहौले हंसीं। इस के बाद उस लड़की ने निक़ाब अपने चेहरे से हटा लिया। अख़लाक़ की तरफ़ तीखी तीखी नज़रों से देखा और टांग हिला कर फ़िल्म देखने में मशग़ूल होगई।
अख़लाक़ सिगरट पी रहा था। अनगरडबरग मैन उसकी महबूब ऐक्ट्रस थीं। “फ़ौर होम दी बिल टूल्ज़” में उस के बाल कटे हुए थे। फ़िल्म के आग़ाज़ में जब अख़लाक़ ने उसे देखा तो वो बहुत ही प्यारी मालूम हुई। लेकिन साथ वाली सीट पर बैठी हुई लड़की देखने के बाद वो अनगरड बर्ग मैन को भूल गया। यूं तो क़रीब क़रीब सारा फ़िल्म उस की निगाहों के सामने चला मगर इस ने बहुत ही कम देखा।
सारा वक़्त वो लड़की इस के दिल-ओ-दिमाग़ पर छाई रही।
अख़लाक़ सिगरेट पर सिगरेट पीता रहा। एक मर्तबा उस ने राख झाड़ी। तो उसका सिगरेट उंगलीयों से निकल कर उस लड़की की गोद में जा पड़ा। लड़की फ़िल्म देखने में मशग़ूल थी इस लिए उस को सिगरेट गिरने का कुछ पता ना था। अख़लाक़ बहुत घबराया। इसी घबराहटमें इस ने हाथ बढ़ा कर सिगरेट इस के बुर्के पर से उठाया और फ़र्श पर फेंक दिया। लड़की हड़बड़ा कर उठ खड़ी हुई। अख़लाक़ ने फ़ौरन कहा “माफ़ी चाहता हूँ आप पर सिगरेट गिर गया था।”
लड़की ने तीखी तीखी नज़रों से अख़लाक़ की तरफ़ देखा और बैठ गई। बैठ कर उस ने अपनी सहेली से सरगोशी में कुछ कहा। “दोनों हौलेहौले हंसीं और फ़िल्म देखने में मशग़ूल होगईं।”
फ़िल्म के इख़्तिताम पर जब क़ाइद-ए-आज़म की तस्वीर नमूदार हुई तो अख़लाक़ उठा। ख़ुदा मालूम क्या हुआ कि इस का पांव लड़की के पांव के साथ टकराया। अख़लाक़ एक बार फिर सर-ता-पा माज़रत बन गया। “माफ़ी चाहता हूँ......जाने आज क्या होगया है।”
दोनों सहेलियां हौले हौले हंसीं। जब भीड़ के साथ बाहर निकलीं तो अख़लाक़ उन के पीछे पीछे होलिया। वो लड़की जिस से उस को पहली नज़र का इश्क़ हुआ था मुड़ मुड़ कर देखती रही। अख़लाक़ ने इसकी परवाह न की। और उन के पीछे पीछे चलता रहा। उस ने तहय्या कर लिया था कि वो उस लड़की का मकान देख के रहेगा।
माल रोड के फुटपाथ पर वाई एमसी ए के सामने उस लड़की ने मुड़ कर अख़लाक़ की तरफ़ देखा और अपनी सहेली का हाथ पकड़ कर रुक गई। अख़लाक़ ने आगे निकलना चाहा तो वो लड़की इस से मुख़ातब हुई “आप हमारे पीछे पीछे क्यों आरहे हैं?”
अख़लाक़ ने एक लहज़ा सोच कर जवाब दिया। “आप मेरे आगे आगे क्यों जा रही हैं।”
लड़की खिखला कर हंस पड़ी। इस के बाद उस ने अपनी सहेली से कुछ कहा। फिर दोनों चल पड़ीं। बस स्टैंड के पास उस लड़की ने जब मुड़ कर देखा तो अख़लाक़ ने कहा। “आप पीछे आ जाईए। में आगे बढ़ जाता हूँ।”
लड़की ने मुँह मोड़ लिया।
अनार कली का मोड़ आया तो दोनों सहेलियां ठहर गईं। अख़लाक़ पास से गुज़रने लगा तो उस लड़की ने उस से कहा। “आप हमारे पीछे न आईए। ये बहुत बरी है।”
लहजे में बहुत संजीदगी थी। अख़लाक़ ने “बहुत बेहतर” कहा और वापस चल दिया। उस ने मुड़ कर भी उन को न देखा। लेकिन दिल में उसको अफ़सोस था कि वो क्यों इस के पीछे न गया। इतनी देर के बाद उस को इतनी शिद्दत से महसूस हुआ था कि उस को किसी से मोहब्बत हुई है। लेकिन उस ने मौक़ा हाथ से जाने दिया। अब ख़ुदा मालूम फिर उस लड़की से मुलाक़ात हो या न हो।
जब वाई एमसी के पास पहुंचा तो रूक कर उस ने अनार कली के मोड़ की तरफ़ देखा। मगर अब वहां किया था। वो तो उसी वक़्त अनारकली की तरफ़ चली गई थीं।
लड़की के नक़्श बड़े पतले पतले थे। बारीक नाक, छोटी सी ठोढ़ी, फूल की पत्तियों जैसे होंट जब पर्दे पर साय कम और रोशनी ज़्यादा होती थी तो उस ने उसके बालाई होंट पर एक तिल देखा था जो बेहद प्यारा लगता था। अख़लाक़ ने सोचा था कि अगर ये तिल न होता तो शायद वो लड़की नामुकम्मल रहती। इस का वहां पर होना अशद ज़रूरी था।
छोटे छोटे क़दम थे जिन में कंवार पन था। चूँकि उस को मालूम था कि एक मर्द मेरे पीछे पीछे आरहा है। इस लिए उन के इन छोटे छोटे क़दमों में एक बड़ी प्यारी लड़खड़ाहट सी पैदा होगई थी। उस का मुड़ मुड़ कर तो देखना ग़ज़ब था। गर्दन को एक ख़फ़ीफ़ सा झटका देकर वो पीछे अख़लाक़ की तरफ़ देखती और तेज़ी से मुँह मोड़ लेती।
दूसरे रोज़ वो अनगरडबरग मैन का फ़िल्म फिर देखने गया। शो शुरू होचुका था। वॉल़्ट डिज़नी का कार्टून चल रहा था कि वो अंदर हाल में दाख़िल हुआ। हाथ को हाथ सजाई नहीं देता था।
गेट कीपर की बैट्री की अंधी रोशनी के सहारे इस ने टटोल टटोल कर एक ख़ाली सीट तलाश की और उस पर बैठ गया।
डिज़नी का कार्टून बहुत मज़ाहीया था। इधर इधर कई तमाशाई हंस रहे थे। दफ़अतन बहुत ही क़रीब से अख़लाक़ को ऐसी हंसी सुनाई दी जिस को वो पहचानता था। मुड़ कर उस ने पीछे देखा तो वही लड़की बैठी थी।
अख़लाक़ का दिल धक धक करने लगा। लड़की के साथ एक नौजवान लड़का बैठा था। शक्ल-ओ-सूरत के एतबार से वो इस का भाई लगता था। उसकी मौजूदगी में वो किस तरह बार-बार मुड़कर देख सकता था।
इंटरवल हो गया। अख़लाक़ कोशिश के बावजूद फ़िल्म अच्छी तरह न देख सका। रोशनी हुई तो वो उठा। लड़की के चेहरे पर निक़ाब था। मगर उस मुहीन पर्दे के पीछे उसकी आँखें अख़लाक़ को नज़र आएं जिन में मुस्कुराहट की चमक थी।
लड़की के भाई ने सिगरेट निकाल कर सुलगाया। अख़लाक़ ने अपनी जेब में हाथ डाला और उस से मुख़ातब हुआ “ज़रा माचिस इनायत फ़रमाईए।”
लड़की के भाई ने उस को माचिस देदी। अख़लाक़ ने अपना सिगरेट सुलगाया और माचिस उस को वापिस देदी “शुक्रिया!”
लड़की की टांग हिल रही थी। अख़लाक़ अपनी सीट पर बैठ गया। फ़िल्म का बक़ाया हिस्सा शुरू हुआ। एक दो मर्तबा उस ने मुड़ कर लड़की की तरफ़ देखा। इस से ज़्यादा वो कुछ न कर सका।
फ़िल्म ख़त्म हुई। लोग बाहर निकलने शुरू हुए। लड़की और उस का भाई साथ थे। अख़लाक़ उन से हट कर पीछे पीछे चलने लगा।
स्टैंर्ड के पास भाई ने अपनी बहन से कुछ कहा। एक टांगे वाले को बुलाया लड़की उस में बैठ गई। लड़का स्टैंर्ड में चला गया। लड़की ने नक़ाब में से अख़लाक़ की तरफ़ देखा। उस का दिल धक धक करने लगा। टांगा चल पड़ा। स्टैंर्ड के बाहर इस के तीन चार दोस्त खड़े थे। इन में से एक की साईकल उस ने जल्दी जल्दी पकड़ी और टांगे के तआक़ुब में रवाना होगया।
ये तआक़ुब बड़ा दिलचस्प रहा। ज़ोर की हुआ चल रही थी लड़की के चेहरे पर से निक़ाब उठ उठ जाती। स्याह जारजत का पर्दा फड़फड़ा कर उसके सफ़ैद चेहरे की झलकियां दिखाता था। कानों में सोने के बड़े बड़े झूमर थे। पतले पतले होंटों पर स्याही माइल सुर्ख़ी थी...... और बालाई होंट पर तल...... वो अशद ज़रूरी तल।
बड़े ज़ोर का झोंका आया तो अख़लाक़ के सर पर से हैट उतर गया और सड़क पर दौड़ने लगा। एक ट्रक गुज़र रहा था। इस के-ओ-ज़नी पहीए के नीचे आया और वहीं चित्त गया।
लड़की हंसी अख़लाक़ मुस्कुरा दिया। गर्दन मोड़ कर हैट की लाश देखी जो बहुत पीछे रह गई थी और लड़की से मुख़ातब हो कर कहा। “उस को तो शहादत का रतब मिल गया।”
लड़की ने मुँह दूसरी तरफ़ मोड़ लिया।
अख़लाक़ थोड़ी देर के बाद फिर इस से मुख़ातब हुआ। “आप को एतराज़ है तो वापिस चले जाता हूँ।”
लड़की ने उस की तरफ़ देखा मगर कोई जवाब न दिया।
अनार कली की एक गली में टांगा रुका और वो लड़की उतर कर अख़लाक़ की तरफ़ बार बार देखी नक़ाब उठा कर एक मकान में दाख़िल होगई। अख़लाक़ एक पांव साईकल के पैडल पर और दूसरा पांव दुकान के थड़े पर रखे थोड़ी देर खड़ा रहा। साईकल चलाने ही वाला था कि इस मकान की पहली मंज़िल पर एक खिड़की खुली। लड़की ने झांक कर अख़लाक़ को देखा। मगर फ़ौरन ही शर्मा कर पीछे हट गई। अख़लाक़ तक़रीबन आध घंटा वहां खड़ा रहा। मगर वो फिर खिड़की में नमूदार न हुई।
दूसरे रोज़ अख़लाक़ सुबह सवेरे अनारकली की उस गली में पहुंचा। पंद्रह बीस मिनट तक इधर उधर घूमता रहा। खिड़की बंद थी। मायूस हो कर लौटने वाला था कि एक फ़ालसे बेचने वाला सदा लगाता आया। खिड़की खुली, लड़की सर से नंगी नमोदा हुई। इस ने फ़ालसे वाले को आवाज़ दी।
“भाई फ़ालसे वाले ज़रा ठहरना” फिर उसकी निगाहें एक दम अख़लाक़ पर पड़ीं। चौंक कर वो पीछे हट गई। फ़ालसे वाले ने सर पर से छाबड़ी उतारी और बैठ गया। थोड़ी देर के बाद वो लड़की सर पर दुपट्टा लिए नीचे आई। अख़लाक़ को उस ने कनखीयों से देखा। शर्माई और फ़ालसे लिए बग़ैर वापिस चली गई।
अख़लाक़ को ये अदा बहुत पसंद आई। थोड़ा सा तरस भी आया। फ़ालसे वाले ने जब उस को घूर के देखा तो वो वहां से चल दिया। “चलो आज इतना ही काफ़ी है।”
चंद दिन ही में अख़लाक़ और उस लड़की में इशारे शुरू होगए। हर रोज़ सुबह नौ बजे वो अनार कली की इस गली में पहुंचता। खिड़की खुलती वो सलाम करता वो जवाब देती, मुस्कुराती। हाथ के इशारों से कुछ बातें होतीं। इसके बाद वो चली जाती।
एक रोज़ उंगलियां घुमा कर इस ने अख़लाक़ को बताया कि वो शाम के छः बजे के शो सिनेमा देखने जा रही है। अख़लाक़ ने इशारों के ज़रीया से पूछा। “कौन से सिनेमा हाऊस में”
इस ने जवाब में कुछ इशारे किए। मगर अख़लाक़ न समझा। आख़िर में इस ने इशारों में कहा। “काग़ज़ पर लिख कर नीचे फेंक दो।”
लड़की खिड़की से हट गई। चंद लम्हात के बाद उस ने इधर उधर देख कर काग़ज़ की एक मड़ोरी सी नीचे फेंक दी। अख़लाक़ ने उसे खोला। लिखा था।
“प्लाज़ा......प्रवीण।”
शाम को प्लाज़ा में उसकी मुलाक़ात प्रवीण से हुई। उस के साथ उसकी सहेली थी। अख़लाक़ उसके साथ वाली सीट पर बैठ गया। फ़िल्म शुरू हुआ तो प्रवीण ने निक़ाब उठा लिया। अख़लाक़ सारा वक़्त उस को देखता रहा। उस का दिल धक धक करता था। इंटरवल से कुछ पहले उस ने आहिस्ता से अपना हाथ बढ़ाया और इस के हाथ पर रख दिया। वो काँप उठी। अख़लाक़ ने फ़ौरन हाथ उठा लिया।
दरअसल वो उस को अँगूठी देना चाहता था, बल्कि ख़ुद पहनाना चाहता था जो उस ने उसी रोज़ ख़रीदी थी। इंटरवल ख़त्म हुआ तो उस ने फिर अपना हाथ बढ़ाया और उस के हाथ पर रख दिया वो काँपी लेकिन अख़लाक़ ने हाथ न हटाया। थोड़ी सी देर के बाद उस ने अँगूठी निकाली और उसकी एक उंगली में चढ़ा दी...... वो बिलकुल ख़ामोश रही। अख़लाक़ ने उसकी तरफ़ देखा। पेशानी और नाक पर पसीने के नन्हे नन्हे क़तरे थरथरा रहे थे।
फ़िल्म ख़त्म हुई तो अख़लाक़ और प्रवीण की ये मुलाक़ात भी ख़त्म होगई। बाहर निकल कर कोई बात न होसकी। दोनों सहेलियां टांगे में बैठीं। अख़लाक़ को दोस्त मिल गए। उन्हों ने उसे रोक लिया लेकिन वो बहुत ख़ुश था। इस लिए कि प्रवीण ने उस का तोहफ़ा क़बूल कर लिया था।
दूसरे रोज़ मुक़र्ररा औक़ात पर जब अख़लाक़ प्रवीण के घर के पास पहुंचा तो खिड़की खुली थी। अख़लाक़ ने सलाम किया। प्रवीण ने जवाब दिया। उस के दाहिने हाथ की उंगली में उसकी पहनाई हुई अँगूठी चमक रही थी।
थोड़ी देर इशारे होते रहे इस के बाद प्रवीण ने इधर उधर देख कर एक लिफ़ाफ़ा नीचे फेंक दिया। अख़लाक़ ने उठाया। खोला तो इस में एक ख़त था। अँगूठी के शुक्रयिए का।
घर पहुंच कर अख़लाक़ ने एक तवील जवाब लिखा। अपना दिल निकाल कर काग़ज़ों में रख दिया। इस ख़त को इस ने फूलदार लिफाफे में बंद किया। उस पर सैंट लगाया और दूसरे रोज़ सुबह नौ बजे प्रवीण को दिखा कर नीचे लीटर बक्स में डाल दिया।
अब इन में बाक़ायदा ख़त-ओ-किताबत शुरू होगई। हर ख़त इशक़-ओ-मोहब्बत का एक दफ़्तर था। एक ख़त अख़लाक़ ने अपने ख़ून से लिखा जिस में उस ने क़सम खाई कि वो हमेशा अपनी मोहब्बत में साबित क़दम रहेगा। इस के जवाब में ख़ूनी तहरीर ही आई। प्रवीण ने भी हलफ़ उठाया कि वो मर जाएगी लेकिन अख़लाक़ के सिवा और किसी को शरीक-ए-हयात नहीं बनाएगी।
महीनों गुज़र गए। इस दौरान में कभी कभी किसी सिनेमा में दोनों की मुलाक़ात हो जाती थीं। मिल कर बैठने का मौक़ा उन्हें नहीं मिलता था। प्रवीण पर घर की तरफ़ से...... बहुत कड़ी पाबंदीयां आइद थीं। वो बाहर निकलती थी या तो अपने भाई के साथ या अपनी सहेली ज़ुहरा के साथ। इन दो के इलावा उस को और किसी के साथ बाहर जाने की इजाज़त नहीं थी। अख़लाक़ ने उसे कई मर्तबा लिखा कि ज़ुहरा के साथ वो कभी उसे बारहदरी में जहांगीर के मक़बरे में मिले। मगर वो न मानी। इसको डर था कि कोई देख लेगा।
इस अस्ना में अख़लाक़ के वालिदैन ने उसकी शादी की बातचीत शुरू करदी। अख़लाक़ टालता रहा जब उन्हों ने तंग आकर एक जगह बात करदी तो अख़लाक़ बिगड़ गया बहुत हंगामा हुआ।
यहां तक कि अख़लाक़ को घर से निकल कर एक रात इस्लामीया कॉलिज की ग्रांऊड में सोना पड़ा। इधर प्रवीण रोती रही। खाने को हाथ तक न लगाया।
अख़लाक़ धुन का बहुत पक्का था। ज़िद्दी भी परले दर्जे का था। घर से बाहर क़दम निकाला तो फिर उधर रुख़ तक न किया। उस के वालिद ने उस को बहुत समझाया मगर वो न माना। एक दफ़्तर में सौ रुपय माहवार पर नौकरी कर ली और एक छोटा सा मकान किराया पर ले कर रहने लगा। जिस में नल था ना बिजली।
इधर प्रवीण अख़लाक़ की तकलीफों के दुख में घुल रही थी घर में जब अचानक उस की शादी की बातचीत शुरू हुई तो उस पर बिजली सी गिरी। उस ने अख़लाक़ को लिखा। वो बहुत परेशान हुआ। लेकिन प्रवीण को उस ने तसल्ली दी कि वो घबराए नहीं। साबित क़दम रहे। इश्क़ उनका इम्तिहान ले रहा है।
बारह दिन गुज़र गए। अख़लाक़ कई बार गया। मगर प्रवीण खिड़की में नज़र न आई। वो सब्र-ओ-क़रार खो बैठा नींद उसकी ग़ायब होगई। उस ने दफ़्तर जाना छोड़ दिया। ज़्यादा नागे हुए तो उस को मुलाज़मत से बरतरफ़ कर दिया गया। उस को कुछ होश नहीं था। बरतरफ़ी का नोटिस मिला तो वो सीधा प्रवीण के मकान की तरफ़ चल पड़ा। पंद्रह दिनों के तवील अर्से के बाद उसे प्रवीण नज़र आई वो भी एक लहज़े के लिए। जल्दी से लिफ़ाफ़ा फेंक कर वो चली गई।
ख़त बहुत तवील था। प्रवीण की ग़ैर हाज़िरी का बाइस ये था कि इस का बाप उसको साथ गुजरांवाला ले गया था जहां उसकी बड़ी बहन रहती थी। पंद्रह दिन वो ख़ून के आँसू रोती रही। उस का जहेज़ तैय्यार किया जा रहा था लेकिन उस को महसूस होता था कि उस के लिए रंग बिरंगे कफ़न बन रहे हैं ख़त के आख़िर में लिखा। तारीख़ मुक़र्रर हो चुकी है...... मेरी मौत की तारीख़ मुक़र्रर हो चुकी है। मैं मर जाऊँगी...... मैं ज़रूर कुछ खा के मर जाऊंगी। इस के सिवा और कोई रास्ता मुझे दिखाई नहीं देता...... नहीं नहीं एक और रास्ता भी है...... लेकिन मैं क्या इतनी हिम्मत कर सकूंगी। तुम भी इतनी हिम्मत कर सकोगे...... मैं तुम्हारे पास चली आऊँगी...... मुझे तुम्हारे पास आना ही पड़ेगा। तुम ने मेरे लिए घर बार छोड़ा। में तुम्हारे लिए ये घर नहीं छोड़ सकती। जहां मेरी मौत के सामान हो रहे हैं...... लेकिन मैं बीवी बन कर तुम्हारे साथ रहना चाहती हूँ। तुम शादी का बंद-ओ-बस्त कर लो। मैं सिर्फ़ तीन कपड़ों में आऊँगी। ज़ेवर वग़ैरा सब उतार कर यहां फेंक दूंगी।
......जवाब जल्दी दो, हमेशा तुम्हारी। प्रवीण।
अख़लाक़ ने कुछ न सोचा, फ़ौरन उस को लिखा मेरी बाहें तुम्हें अपने आग़ोश में लेने के लिए तड़प रही हैं। मैं तुम्हारी इज़्ज़त-ओ-इस्मत पर कोई हर्फ़ नहीं आने दूंगा। तुम मेरी रफीक़ा-ए-हयात बन के रहोगी। ज़िंदगी भर मैं तुम्हें ख़ुश रखूंगा।
एक दो ख़त और लिखे गए इस के बाद तय किया कि प्रवीण बुध को सुबह सवेरे घर से से निकलेगी। अख़लाक़ टांगा ले कर गली के नुक्कड़ पर उस का इंतिज़ार करे।
बुध को मुँह अंधेरे अख़लाक़ टांगे में वहां पहुंच कर प्रवीण का इंतिज़ार करने लगा। पंद्रह बीस मिनट गुज़र गए। अख़लाक़ का इज़्तिराब बढ़ गया। लेकिन वो आगई। छोटे छोटे क़दम उठाती वो गली में नमूदार हुई। चाल में लड़खड़ाहट थी। जब वो टांगे में अख़लाक़ के साथ बैठी तो सर-ता-पा काँप रही थी। अख़लाक़ ख़ुद भी काँपने लगा।
घर पहुंचे तो अख़लाक़ ने बड़े प्यार से इस के बुर्के की निक़ाब उठाई और कहा “मेरी दूल्हन कब तक मुझ से पर्दे करेगी।”
प्रवीण ने शर्मा कर आँखें झुका लीं, उस का रंग ज़र्द था जिस्म अभी तक काँप रहा था। अख़लाक़ ने बालाई होंट के तिल की तरफ़ देखा तो उस के होंटों में एक बोसा तड़पने लगा। उस के चेहरे को अपने हाथों में थाम कर उस ने तिल वाली जगह को चूमा। प्रवीण ने न की इस के होंट खुले। दाँतों में गोश्त ख़ौरा था। मसूड़े गहरे नीले रंग के थे। गले हुए। सड़ानद का एक भबका अख़लाक़ की नाक में घुस गया। एक धक्का सा उस को लगा। एक और भबका प्रवीण के मुँह से निकला तो वो एक दम पीछे हट गया।
प्रवीण ने हया आलूद आवाज़ में कहा। “शादी से पहले आप को ऐसी बातों का हक़ नहीं पहुंचता।”
ये कहते हुए उसके गले हुए मसूड़े नुमायां हुए। अख़लाक़ के होश-ओ-हवास ग़ायब थे दिमाग़ सुन गया। देर तक वो दोनों पास बैठे रहे। अख़लाक़ को कोई बात नहीं सूझती थी। प्रवीण की आँखें झुकी हुई थीं। जब उस ने उंगली का नाख़ुन काटने के लिए होंट खोले तो फिर उन गले हुए मसूड़ों की नुमाइश हुई। बू का एक भबका निकला। अख़लाक़ को मतली आने लगी। उठा और “अभी आया” कह कर बाहर निकल गया। एक थड़े पर बैठ कर उस ने बहुत देर सोचा। जब कुछ समझ में न आया तो लायल पुर रवाना होगया। जहां उस का एक दोस्त रहता था। अख़लाक़ ने सारा वाक़िया सुनाया तो इस ने बहुत लॉन तान की और इस से कहा। “फ़ौरन वापस चाओ। कहीं बेचारी ख़ुदकुशी न करले।”
अख़लाक़ रात को वापस लाहौर आया। घर में दाख़िल तो प्रवीण मौजूद नहीं थी...... पलंग पर तकिया पड़ा था। इस पर दो गोल गोल निशान थे। गीले!
इस के बाद अख़लाक़ को प्रवीण कहीं नज़र न आई।
(5 जून 1950-ई.)

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