Hindi Urdu Ki Ekta : Munshi Premchand

हिंदी उर्दू की एकता : मुंशी प्रेमचंद

(आर्य समाज सम्मलेन के वार्षिक अवसर पर 23-24 अप्रैल 1936 को लाहौर में दिया गया मुंशी प्रेम चंद का भाषण )

सज्जनो,

आर्य समाज ने इस सम्मलेन का नाम आर्य भाषा सम्मलेन शायद इसलिए रखा है की यह समाज के अंतर्गत उन भाषाओँ का सम्मलेन है, जिनमें आर्य समाज में धर्म का प्रचार किया है और उनमें उर्दू और हिंदी दोनों का दर्जा बराबर है । मैं तो आर्य समाज को जितनी धार्मिक संस्था समझता हूँ उतनी तहज़ीबी (सांस्कृतिक) संस्था भी समझता हूँ । बल्कि आप क्षमा करें तो मैं कहूँगा कि उसके तहज़ीबी कारनामे उसके धार्मिक कारनामों से ज़्यादा प्रसिद्ध और रोशन हैं । आर्य समाज ने हमारी भाषा के साथ जो उपकार किया है उसका सबसे उज्जवल प्रमाण यह है कि स्वामी दयानंद ने इसी भाषा में ‘सत्यार्थ प्रकाश’ लिखा और उस वक़्त लिखा जब उसकी इतनी चर्चा न थी । उनकी बारीक़ नज़र ने देख लिया कि अगर जनता में प्रकाश ले जाना है तो उसके लिए हिंदी भाषा ही अकेला साधन है, और गुरुकुलों ने हिंदी भाषा को शिक्षा का माध्यम बनाकर अपने भाषा-प्रेम को और भी सिद्ध कर दिया है ।

सज्जनो, मैं यहाँ हिंदी भाषा की उत्पत्ति और विकास की कथा नहीं कहना चाहता, वह सारी कथा भाषा विज्ञान की पोथियों में लिखी हुई है । हमारे लिए इतना ही जानना काफ़ी है कि आज हिंदुस्तान के 15 – 16 करोड़ लोगों के सभ्य व्यवहार और साहित्य की यही भाषा है । हाँ, यह लिखी जाती है दो लिपियों में और उसी एतबार से हम उसे हिंदी या उर्दू कहते हैं, पर है वह एक ही । बोलचाल में तो उसमें बहुत कम फ़र्क़ है, हाँ लिखने में वह फ़र्क़ बढ़ जाता है । मगर उस तरह का फ़र्क़ सिर्फ़ हिंदी में ही नहीं, गुजराती, बंगला और मराठी वगैरह भाषाओँ में भी कमोबेश वैसा ही फ़र्क़ पाया जाता है ।

भाषा के विकास में हमारी संस्कृति की छाप होती है, और जहाँ संस्कृति में भेद होगा वहां भाषा में भेद होना स्वाभाविक है । जिस भाषा का हम और आप व्यवहार कर रहे हैं, वह देहली प्रान्त की भाषा है । उसी तरह जैसे ब्रजभाषा, अवधी, मैथली, भोजपुरी और मारवाड़ी आदि भाषाएँ अलग-अलग क्षेत्रों में बोली जाती हैं और ये सभी साहित्यिक भाषा रह चुकी हैं । बोली का परिमार्जित रूप ही भाषा है । सबसे ज़्यादा प्रसार तो ब्रजभाषा का है क्योंकि यह आगरा प्रान्त के बड़े हिस्से में ही नहीं, सारे बुंदेलखंड की बोलचाल की भाषा है । अवधी अवध प्रान्त की भाषा है । भोजपुरी प्रान्त के पूर्वी ज़िलों में बोली जाती है और मैथिली बिहार प्रान्त के कई ज़िलों में ।

ब्रजभाषा में जो साहित्य रचा गया है, वह हिंदी के पद्य साहित्य का गौरव है । अवधी का प्रमुख ग्रंथ तुलसीकृत ‘रामायण’ और मलिक महमूद जायसी का रचा हुआ ‘पद्मावत’ है । मैथली में विद्यापति की रचनायें ही मशहूर हैं । मगर साहित्य में आम तौर पर मैथली का व्यवहार कम हुआ । साहित्य में तो अवधी और ब्रजभाषा का व्यवहार होता था । हिंदी के विकास के पहले ब्रजभाषा ही हमारी साहित्यिक भाषा थी और प्रायः उन सभी प्रदेशों में जहाँ आज हिंदी का प्रचार है, पहले ब्रजभाषा का प्रचार था । अवध में और कशी में भी कवि लोग अपने कवित्त ब्रजभाषा में ही कहते थे । यहाँ तक कि गया में भी ब्रजभाषा का ही प्रचार होता था । तो यकायक ब्रज भाषा, अवधी, भोजपुरी आदि को पीछे हटाकर हिंदी कैसे सबके उपरी ग़ालिब (विजेता) आई, यहाँ तक की अब अवधी और भोजपुरी का तो साहित्य में कहीं व्यवहार नहीं है। हाँ, ब्रजभाषा को अभी तक थोड़े से लोग सीने से चिपकाये हुए हैं ।

"हिंदी को यह गौरव प्रदान करने का श्रेय मुसलमानों को है । मुसलमानों ने ही दिल्ली प्रान्त की इस बोली को, जिसको उस वक़्त तक भाषा का पद न मिला था, व्यवहार में ला कर उसे दरबार की भाषा बना दिया और दिल्ली के उमरा (अमीर) और सामंत जिन प्रान्तों में गए, हिंदी भाषा को साथ लेते गए । उन्हीं के साथ वह दक्खिन में पहुंची और उसका बचपन दक्खिन ही में गुज़रा । दिल्ली में बहुत दिनों तक अराजकता का ज़ोर रहा, और भाषा को विकास का अवसर न मिला और दक्खिन में वह पलती रही । गोलकुंडा, बीजापुर, गुलबर्गा आदि के दरबारों में इसी भाषा में शेरो-शायरी होती रही । मुसलमान बादशाह प्रायः साहित्य प्रेमी होते थे ।"

बाबर, हुमायूं, जहाँगीर, शाहजहाँ, औरंगज़ेब, दाराशिकोह सभी साहित्य के मर्मग्य थे । सभी ने अपने-अपने रोजनामचे (दैनिकी) लिखे हैं । अकबर ख़ुद शिक्षित न हों, मगर साहित्य का रसिक था । दक्खिन के बादशाहों ने अक्सर दक्खिनी में कविताएँ कीं और कवियों को आश्रय दिया । पहले तो उनकी भाषा कुछ अजीब खिचड़ी सी थी, जिसमें हिंदी, फ़ारसी सब कुछ मिला होता था । आपको शायद मालूम होगा कि हिंदी की सबसे पहली रचना ख़ुसरो ने की है, जो मुग़लों से भी पहले खिल्जी राजकाल में हुए । ख़ुसरो की कविता का नमूना देखिये –

जब यार देखा नयन भर दिल की गई चिंता उतर
ऐसा नहीं कोई अजब राखे उसे समझाए कर

जब आँख से ओझल भया, तड़पन लगा मेरा जिया,
हक्का इलाही क्या किया, आँसू चले भर लाय कर

तू तो हमारा यार है, तुझ पर हमारा प्यार है,
तुझ दोस्ती विसियार है यक शब मिलो तुम आय कर

जाना तलब तेरी करूं दीगर तलब किसकी करूं,
तेरी ही चिंता दिल धरूं इक दिन मिलो तुम आय कर

मेरा जो मन तुमने लिया, तुमने उठा ग़म को दिया
ग़म ने मुझे ऐसा किया जैसे पतंगा आग पर

ख़ुसरो की एक दूसरी ग़ज़ल देखिये –
बह गए बालम, वह गए नदियों किनार
आप पार उतर गए हम तो रहे अरदार
भाई रे मल्लाहो हम को उतारो पार
हाथ का देऊंगी मुंदरी गल का देऊँ हार

हिंदी के तीन रूपों मसलन नागरी लिपि (ठेठ हिंदी), फ़ारसी लिपि (उर्दू) और ब्रज भाषा से निकलते हुए हिंदी भाषा को मौजूदा सूरत में आते-आते सदियाँ गुज़र गयीं । यहाँ तक की 1803 ई. से पहले का कोई ग्रन्थ नहीं मिलता । सदल मिश्र की चन्द्रावली का रचना काल 1803 माना जाता है और सदल मिस्र ही हिंदी के आदि लेखक ठहरते हैं । इस लिहाज़ से हिंदी गद्य का जीवन सवा सौ साल से ज़्यादा का नहीं हैं, और क्या ये आश्चर्य की बात नहीं है कि सवा सौ साल पहले जिस ज़बान में कोई गद्य रचना तक नहीं थी वह आज सारे हिंदुस्तान की क़ौमी ज़बान बनी हुई है ? मुसलमानों के सहयोग के बग़ैर हमको आज यह दर्जा हासिल नहीं होता ।

जिस तरह हिन्दुओं की हिंदी का रूप विकसित हो रहा था, उसी तरह मुसलमानों की हिंदी का रूप भी बदलता जा रहा था । लिपि तो शुरू से ही अलग थी, ज़बान का रूप भी बदलने लगा । मुसलमानों की संस्कृति ईरान और अरब की है, जिसका ज़बान पर असर पड़ने लगा । अरबी और फ़ारसी के शब्द आ-आकर मिलने लगे, यहाँ तक की आज हिंदी और उर्दू दो अलग-अलग सी ज़बानें हो गयीं हैं । एक तरफ़ हमारे मौलवी साहेबान अरबी और फ़ारसी के शब्द भरते जाते हैं, दूसरी ओर पंडितगण, संस्कृत और प्राकृत के शब्द ठूंस रहे है और दोनों भाषाएँ आवाम से दूर होती जा रही हैं ।

हिंदी हिन्दुओं की और उर्दू मुसलमानों की ज़बान होती जा रही है, क्या उन्हें अपने-अपने ढंग पर, संस्कृति के अनुसार बढ़ने दिया जाए, या दोनों को इतना करीब लाया जाये कि उसमें लिपि के सिवा कोई भेद न रहे । ऐसे लोग बहुत ही कम हैं जो सोचते हैं के दोनों ज़बानों में एकता लायी जा सकती है और इस बढ़ते हुए फ़र्क को रोका जा सकता है, लेकिन उनकी आवाज़ नक्कारख़ाने में तूती की आवाज़ है । ये लोग हिंदी और उर्दू नामों का व्यवहार नहीं करते, क्योंकि दो नामों का व्यवहार उनके भेद को और मज़बूत करता है, ये लोग दोनों को एक नाम से ही पुकारते हैं और वह है ‘हिंदुस्तानी’ । उनका आदर्श है कि जहां तक मुमकिन हो लिखी जाने वाली ज़बान और बोलचाल की ज़बान की सूरत एक हो और वह थोड़े से पढ़े लिखे आदमियों की ज़बान न रह कर सारी क़ौम की ज़बान हो, जो कुछ लिखा जाए उस का फ़ायेदा जनता भी उठा सके और हमारे यहां पढ़े लिखों की जो एक जमात अलग बनती जा रही है, और जनता से उनका संबंध जो दूर होता जा रहा है वह दूरी मिट जाए और पढ़े-बेपढ़े सब अपने को एक जान एक दिल समझे और क़ौम में ताक़त आये ।

चूंकि उर्दू ज़बान अरसे से अदालती और सभ्य समाज की भाषा रही है इसलिए उसने हज़ारों फ़ारसी और अरबी के शब्द इस तरह घुल मिल गए हैं कि ब्रज देहाती भी उनका मतलब समझ जाता है ऐसे शब्दों को अलग करके हिंदी में विशुद्धता लाने का जो प्रयत्न किया जा रहा है, हम उसे ज़बान और क़ौम दोनों ही के साथ अन्याय समझते हैं। इसी तरह हिंदी या संस्कृत या अंग्रेजी के जो बिगड़े हुए शब्द उर्दू में मिल गए, उनको चुन चुनकर निकालने और उनकी जगह ख़ालिस फ़ारसी और अरबी के शब्दों के इस्तेमाल को भी उतना ही एतराज़ के लायक समझते हैं। दोनों तरह के इस अलगोझे का सबब शायद यही है कि हमारा पढ़ा-लिखा समाज जनता से अलग थलग होता जा रहा है और उसे इसकी ख़बर ही नहीं की जनता किस तरह अपने भावों और विचारों को अदा करती है। ऐसी ज़बान जिसमें लिखने और समझने वाले थोड़े से पढ़े लिखे लोग ही हों, मसनुई, बेजान और बोझल हो जाती है। जनता का मर्म स्पर्श करने की, उन तक अपना पैग़ाम पहुंचाने की उसमें कोई शक्ति नहीं रहती। वह उस तालाब की तरह है जिसके घाट संगमरमर के बने हो जिस में कमल खिले हों, लेकिन उसका पानी बंद हो, क्या उस पानी में वह मज़ा, वह सेहत देने वाली ताक़त, वह सफ़ाई है, जो खुली हुई धारा में होती है?

"क़ौम की ज़बान वह है जिसे क़ौम समझे, जिसमें क़ौम की आत्मा हो जिसने क़ौम के जज़्बात हों। अगर पढ़े लिखे समाज की ज़बान ही क़ौम की ज़बान है, तो क्यों न हम अंग्रेजी क़ौम की ज़बान समझें, क्योंकि मेरा तजुर्बा है कि आज पढ़ा लिखा समाज जिस बेतक़ल्लुफ़ी से अंग्रेजी बोल सकता है और जिस रवानी के साथ अंग्रेजी लिख सकता है, उर्दू या हिंदी बोल या लिख नहीं सकता। बड़े-बड़े दफ़्तरों में और ऊंचे दायरे में आज भी किसी को उर्दू हिंदी बोलने की महीनों बरसों ज़रुरत नहीं होती। जो लोग इस तरह की ज़िन्दगी बसर करने के शौकीन हैं उनके लिए तो उर्दू-हिंदी, हिंदुस्तानी का कोई झगड़ा ही नहीं। वह इतनी बुलंदी पर पहुंच गए हैं कि नीचे की धूल और गर्मी उन पर कोई असर नहीं करती वह मुअल्लक हवा में लटके रह सकते हैं, लेकिन हम सब तो हज़ार कोशिश करने पर भी वहां तक नहीं पहुंच सकते, हमें तो इसी धूल और गर्मी में जीना और मरना है।"

यह जनता का काम है कि वह साहित्य पढ़ने और गहन विषयों को समझने की ताकत अपने में लाये। लेखक का काम तो अच्छी से अच्छी भाषा में ऊंचे से ऊँचे विचारों को प्रकट करना है। अगर जनता का शब्दकोश 100-200 निहायत मामूली रोज़मर्रा के काम के शब्दों के सिवा और कुछ नहीं है, तो लेखक कितनी ही सरल भाषा लिखे, जनता के लिए वह कठिन ही होगी। जनता को इस मानसिक दशा में छोड़ने की ज़िम्मेदारी भी हमारे ही ऊपर है। जिसके पास इल्म है, फ़ुर्सत है, उनका फ़र्ज़ है कि वह अपनी तक़रीरों से जनता मैं जागृति पैदा करे, जनता में ज्ञान के प्रचार के लिए पुस्तकें लिखे। संयुक्त प्रांत के साबिक से पहले के गवर्नर सर विलियम मैरीन ने इलाहाबाद की हिंदुस्तानी एकेडेमी खोलते वक़्त हिंदी उर्दू के लेखकों को जो सलाह दी थी, उसे ध्यान में रखने की आज भी उतनी ही ज़रुरत है, जितनी उस वक़्त थी, शायद और ज़्यादा। आप ने फ़रमाया कि हिंदी के लेखकों को लिखते वक्त यह समझते रहना चाहिए की उनके पाठक मुसलमान है इसी तरह उर्दू के लेखकों को यह ख्याल रखना चाहिए उनके कारी हिंदू हैं।

यह एक सुनहरी सलाह है और अगर हम इसे गांठ बांध लें तो ज़बान का मसला बहुत कुछ तय हो जाए। मुसलमान दोस्त मुझे मुआफ़ फ़रमायें, अगर मैं कहूं कि इस मामले में वह हिंदू लेखकों से ज़्यादा ख़तावार हैं। संयुक्त प्रांत की कॉमन लेंगुएज रीडरों को देखिए। आप सहल किस्म की उर्दू पाएंगे। हिंदी की अदबी किताबों में भी अरबी और फ़ारसी के सैंकड़ों शब्द धड़ल्ले से लाए जाते हैं, मगर उर्दू साहित्य में फ़ारसीयत की तरफ़ ही ज़्यादा झुकाव है। इसका सबब यही है कि मुसलमानों ने हिंदी से कोई ताल्लुक़ नहीं रखा है और न रखना चाहते हैं। शायद हिंदी में थोड़ी सी वाक़फ़ियत हासिल कर लेना भी वह बरसरेशान समझते हैं। हालांकि हिंदी वह ज़बान है जो एक हफ़्ते में आ जाती है। जब तक दोनों भाषाओं का मेल न होगा, हिंदुस्तानी ज़बान की गाड़ी जहां जा कर रुक गई है, उससे आगे नहीं बढ़ सकेगी और यह सारी करामात फोर्ट विलियम की है जिसने एक ही ज़बान के दो रूप मान लिये। इसमें भी उस वक़्त कोई राजनीति काम कर रही थी, या उस वक़्त भी दोनों ज़बानों में काफ़ी फ़र्क आ गया था, यह हम नहीं कह सकते, लेकिन जिन हाथों ने यहां की ज़बान के उस वक़्त दो टुकड़े कर दिए, उसने हमारी क़ौमी ज़िन्दगी के दो टुकड़े कर दिए। अपने हिंदू दोस्तों से भी मेरा यही निवेदन है कि जिन शब्दों ने जन साधारण में अपनी जगह बना ली है और उन्हें लोग आपके मुंह या कलम से निकलते ही समझ जाते हैं, उनके लिए संस्कृत कोष की मदद लेने की जरूरत नहीं है। अगर हम इसे मान लें कि हिंदुस्तान के लिए एक क़ौमी ज़बान की जरूरत है, जिसे सारा मुल्क समझ सके, तो हमें उसके लिए तपस्या करने पड़ेगी। हमें ऐसी सभाएं खोलनी पड़ेंगी जहां लेखक कभी-कभी मिलकर साहित्य के विषयों पर या उसकी प्रवृतियों पर आपस में ख्यालात का तबादला कर सके। दिलों की दूरी भाषा की दूरी का मुख्य कारण है। आपस में मेल-जोल से इस दूरी को दूर करना होगा।

राजनीति के पंडितों ने क़ौम को जिस दुर्दशा में डाल दिया है। आप और हम सभी जानते हैं, अभी तक साहित्य के सेवकों ने भी किसी ना किसी रुप में राजनीति के पंडितों को अगुआ माना है और उनके पीछे-पीछे चले हैं। मगर अब साहित्यकारों को अपने विचार से काम लेना पड़ेगा। सत्यम, शिवम्, सुंदरम के उसूल को वहां भी बरतना पड़ेगा। राजनीती ने संप्रदायों को 2 कैंपों में खड़ा कर दिया है। राजनीति की हस्ती ही इस पर कायम है कि दोनों आपस में लड़ते रहे। उनमें मेल होना उसकी मृत्यु है, इसलिए वह तरह-तरह के रूप बदल कर और जनता के हित का स्वांग भरकर अब तक अपना व्यवसाय चला रही है।

"साहित्य, धर्म को फ़िरकाबंदी की हद तक गिरा हुआ नहीं देख सकता। वह समाज को संप्रदायों के रूप में नहीं, मानवता के रूप में देखता है। किसी धर्म की महानता और फजीलत इसमें है कि वह इंसान को इंसान का कितना हमदर्द बनाता है। उसमें मानवता का कितना ऊंचा आदर्श है। उस आदर्श पर वहां कितना अमल होता है। अगर हमारा धर्म हमें यह सिखाता है कि इंसानियत, हमदर्दी और भाई ज्यादा सब कुछ अपने ही धर्म वालों के लिए है और उस दायरे से बाहर जितने लोग है सभी गैर हैं और उन्हें जिंदा रहने का कोई हक नहीं तो मैं उस धर्म से अलग होकर विधर्मी होना ज्यादा पसंद करूंगा। धर्म नाम है उस रोशनी का जो क़तरे को समुद्र में मिल जाने का रास्ता दिखाती है। जो हमारी बात को इमाओस्त में, हमारी आत्मा को व्यापक सर्वात्म मैं, मिले होने की अनुभूति का यक़ीन कराती है। क्योंकि हमारी तबीयतें एक सी नहीं हैं, हमारे संस्कार एक से नहीं है, हम उसी मंज़िल तक पहुंचने के लिए अलग-अलग रास्ते इख़्तेयार करते हैं।"

हिंदुस्तानी को व्यवहारिक रूप देने के लिए दूसरी तदबीर यह है कि मैट्रिकुलेशन तक उर्दू और हिंदी हर एक छात्र के लिए लाज़मी कर दी जाए। इस तरह हिंदुओं को उर्दू में और मुसलमानों को हिंदी में महारत हासिल हो जाएगी और अज्ञानता के कारण जो बदगुमानी और संदेह है, वह दूर हो जाएगा। इस तस्वीर में हिंदी या उर्दू किसी से भी पक्षपात नहीं किया जायेगा। साहित्यकार के नाते हमारा यह धर्म है कि हम मुल्क में ऐसी फ़िज़ा, ऐसा वातावरण लाने की चेष्टा करें, जिससे हम ज़िन्दगी के हर एक पहलू में दिन-दिन आगे बढ़ें। साहित्यकार पैदाइश से सौंदर्य का उपासक होता है। वह जीवन के हर एक अंग में ज़िन्दगी के हर एक शोबे में हुस्न का जलवा देखना चाहता है। जहां सामंजस्य, हम-आहंगी है, वहीं सौंदर्य है, वहीँ सत्य है, वहीं हक़ीक़त है, जिन तत्वों से जीवन की रक्षा होती है, जीवन का विकास होता है वही हुस्न है। वह वास्तव में हमारी आत्मा की बाहरी सूरत है, हमारी आत्मा अगर स्वस्थ है, तो वह हुस्न की तरफ़ बेइख़्तियार दौड़ती है। हुस्न में उनके लिए न रुकने वाली कशिश है और क्या यह कहने की ज़रूरत है कि नेफ़ाक और हसद, संदेह और संघर्ष, यह मनोविकार हमारे जीवन के पोषक नहीं बल्कि घातक हैं। इसलिए वह सुंदर कैसे हो सकते हैं। साहित्य ने हमेशा इन विचारों के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई है। दुनिया में मानव जाति के कल्याण के लिए जितने आंदोलन हुए हैं उन सभी के लिए साहित्य ने ज़मीन ही तैयार नहीं की, बीज भी बोये और उसकी सिंचाई भी की है।

"साहित्य राजनीति के पीछे चलने वाली चीज नहीं, उसके आगे-आगे चलने वाला एडवांस गार्ड है। वह उस विद्रोह का नाम है जो मनुष्य के हृदय में अन्याय, अनीति और कूरूची से होता है। और लेखक अपनी कोमल भावनाओं के कारण उस विद्रोह की ज़बान बन जाता है। और लोगों के दिलों पर भी चोट लगती है, पर अपनी व्यथा को, अपने दर्द को दिल हिला देने वाले शब्दो में ज़ाहिर नहीं कर सकते।"

हम बचपन से ही 15-16 साल अंग्रेजी सीखने में कुर्बान कर देते हैं, तो क्या महीने दो महीने भी उस लिपि और साहित्य का ज्ञान प्राप्त करने में नहीं लगा सकते, जिस पर हमारी क़ौमी तरक़्क़ी ही नहीं क़ौमी ज़िन्दगी का दारोमदार है?