हाइवे (कश्मीरी कहानी) : गौरीशंकर रैणा

Highway (Kashmiri Story) : Gauri Shankar Raina

कॉलोनी के पार्क में स्वच्छंद खेल रहे बालक-बालिकाओं का कोलाहल तब मंद पड़ा जब एक नई चमचमाती सफेद कार ठीक सामने सड़क पर आके रुकी। गाड़ी रुकते ही शोफर ने फुर्ती से दरवाजा खोला और आदरभाव से अपने साहब के उतरने की प्रतीक्षा करने लगा। कुछ ही क्षणों में एक तीस-बत्तीस वर्षीय तरुण उसकी कार से उतरा। खिला-खिला चेहरा, उत्साह से भरा आकर्षक व्यक्तित्व और उसके अनुरूप उपयुक्त ढंग की पोशाक। ब्लू डबल-ब्रेस्ट के साथ फ्लॉवर-पेटर्न की टाई। क्या अंदाज! आस-पड़ोस के बच्चों ने एक नजर-भर देखा और फिर से अपने खेल में तल्लीन हो गए।

ड्राइवर ने कार का दरवाजा बन्द किया और वहीं रुका रहा जबकि उसका अधिपुरुष सामने के क्वार्टर की ओर जाने लगा। लॉन के बीचों-बीच चलते हुए जब वह सामने के सरकारी मकान में कदम रखने ही वाला था, तभी महरी, भारी-सी चिलमची लिये हुए बाहर आई-"कौन? किस से मिलना है साब?"
"बालकृष्ण जी घर में हैं क्या?" तरुण ने पूछा।

पास में टंगी अलगनी पर कपड़े फैलाते हुए महरी अंदर आवाज देने लगी, “ओ बेबी जी! कोई साहब आए हैं। भीतर से किसी अनुक्रिया के अभाव में महरी ने गीला लबादा एक तरफ को अटकते हुए कहा, “अन्दर में सभी लोग हैं ना। आप जाव ना साहब जी!"

चलने को तैयार था कि तभी किसी ने उत्साह से बाहुपाश में जकड़ लिया। देखा तो बालकृष्ण ही था, उसका प्यारा 'भाईजाना' । पर यह क्या! वह जीवंत चेहरा आज एकदम जर्जर..
"भाईजाना, यह क्या? इतने कमजोर? सब ठीक तो है ना?"
“अरे भाई, ऐसे क्यों बदहवास हुए जा रहे हो? बुढ़ापे का पदार्पण है। चलो भीतर चलो।"
"हाँ-हाँ चलिए।"

अधेड़ अवस्था के बालकृष्ण, उसके मौसेरे भाई ने लॉबी में पहुँचते ही उत्साह के साथ परिवार के सदस्यों को बुलाना शुरू किया-“अरे देखो तो कौन आया है!"
आनन-फानन अट्ठारह वर्षीय बेटी 'बेबी'। बीस वर्षीय बेटा 'पप्पू' और पत्नी 'शीला' सामने हाज़िर हो गए।
"नमस्कार, रमेश भैया! घर पर सब कैसे हैं?
“अरे शीला, तुम भी कमाल हो! भला इसे घर की सुध कहाँ? आए दिन तो टूर पर रहता है। कभी सिंगापुर तो कभी तोकियो। क्यों रमेश?"

“हाँ भाईजान, आप ठीक कहते हैं। मगर भाभी, घर के साथ पूरा सम्पर्क बनाए रखता हूँ। हर दूसरे दिन फोन करता हूँ।"
“अब आप यहीं इनसे बातें करते रहेंगे क्या? चलिए भैया जी, अंदर चलिए।"

ऐसा कहते ही शीला ने बेबी को भी इशारे से रसोई की ओर भेजा। रमेश अपने मौसेरे भाई के साथ उसके सजे-सजाए ड्राइंगरूम में चला आया। वही, बड़ी-सी खिड़कीवाला कमरा, पर कितना बदला-बदला-सा! रमेश इस कमरे में आज कई वर्षों बाद आया था। लालाजी के रहते यहाँ अलग ही रौनक होती थी। खिड़की के पास रखे दीवान पर वह बड़ी शान से बैठे रहते थे। धवल-स्वच्छ कुर्ता-पाजामा पहने, गीता प्रेस की कोई धार्मिक पुस्तक लिये खिड़की से टेक लगाकर बैठे रहना उनकी दिनचर्या का एक हिस्सा था। जीवित होते तो पूरा घर सिर पर उठा लिया होता-रमेश के लिए इलायची और बादामवाला कहवा अब तक क्यों नहीं आया?
"लीजिए अंकल!"
"हूँ"।' रमेश ने देखा कि सामने बेबी पानी का गिलास लिये खड़ी है। ट्रे में से गिलास उठाते हुए जब उसने पूछा कि वह आजकल क्या कर रही है तो बेबी ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया,
'बी-कॉम फाइनल।' तभी पप्पू भी चाय और बिस्कुट आदि लिये भीतर आया।

"तुम चाय पियो, मैं अभी आया।" यह कहकर भाईजान बरामदे की ओर जाने लगा। बच्चे भी ट्रे और खाली गिलास लेकर बाहर चले गये। रमेश को अपने मौसेरे भाई का इस प्रकार उठ खड़े होना और फिर चले जाना अटपटा-सा लगा। पर स्वजन का यह आचरण उपेक्षणीय था। रमेश ड्राइंगरूम की दीवारों में न जाने क्या तलाशने लगा-बेबी की बनाई हुई पेंटिंग, कश्मीर से पहले कभी लाई हुई रंगीन कागज़ और शीशों से सजी कांगड़ी, लालाजी का ऍनलार्ज किया हुआ फोटो, टी.वी., पप्पू के स्कूल-मैडल, पहलगाँव में शीला और भाईजान का भुट्टे खाते हुए खींचा गया फोटो, पप्पू का इंजीनियरिंग कॉलेज में अपने मित्रों के साथ लिया गया फोटो...।

बच्चों के बड़े होने और समय गुजरने के साथ-साथ कितना परिवर्तन आया है इस ड्राइंगरूम में! एक समय था जब इस कमरे में केवल एक-दो कैलेंडर झूल रहे होते थे और एक कोने में होता था लालाजी का हुक्का। उस हुक्के को लेकर बाप-बेटे में आये दिन हाय-तौबा मची रहती थी। जितना ही भाईजन, लालाजी को तंबाकू पीने से रोकते थे, उतना ही वे ज्यादा पीने लगते; शीला भी उस हुक्के को लेकर दूध का दूध और पानी का पानी करना चाहती थी, मगर दोनों की एक न चलती। तंबाकू की गंध सारे क्वार्टर में सुबह-शाम तैरा करती। यह गंध, लालाजी की मौजूदगी और उसके शासन का आभास कराती। इसका श्रेय लालाजी की पत्नी शोभावती को भी जाता है जो निष्ठापूर्वक अपने पति की सेवा करती और उसकी सुख-सुविधा का ध्यान रखती। इसलिए हुक्का स्टूल पर विराजित रहता और लालाजी दीवान पर। लालाजी के इस कमरे में शोभावती हर रोज शिव के कैलेंडर के सामने बैठ अपने इष्टदेव का आह्वान करती पर वह आज घर में नजर क्यों नहीं आ रही? हो सकता है मार्किट गई हो। लेकिन बाजार जाने की तो उसकी कभी आदत ही नहीं रही। घर में भी तो नहीं लगती। घर में होती तो व्यग्र हो इस समय, या तो मेरा माथा चूम रही होती या मुझे बहुत बड़ा आदमी बनने की दुआएँ देती।

“अंकल जी, आपने चाय नहीं पी?" सामने बेबी खड़ी थी।
“जी आप चाय पी लें, पापा अभी आते ही होंगे।"
“पर वह है कहाँ?"
"दूसरे कमरे में, दादाजी के पास।"

इसके पश्चात् लड़की ने क्या-कुछ कहा, वह सब रमेश ने सुना ही नहीं। बिना विलंब, लॉबी को पार करता हुआ वह सामने के बेडरूम की ओर लपका। बेडरूम में पहुंचते ही उसके पैरों की गति अवरुद्ध हुई। देखा तो उसकी चहेती मौसी निःस्पंद, किसी प्राण-रहित पक्षी जैसी रोगशय्या पर पड़ी थी। ग्लूकोस की बोतल स्टैंड से टंग रही थी। शोभावती के जर्जर-जीर्ण अवस्था में पड़े रहते, साफ मालूम हो रहा था कि उसे अब तक कई ड्रिप लग चुके हैं। क्या यह वही मौसी है जो बारामुला के गाँव में सालभर का धान अकेली कूटती थी और थकने का नाम तक नहीं लेती थी? कड़ाके की ठंड में बर्फीली सड़कों पर मीलों का सफर पैदल तय करती थी। रमेश को लगा कि वह सुन्न होता जा रहा है और पसीने से तर-ब-तर उसकी काया काँपने लगी है।

रमेश की वृत्ति का अनुमान करते हुए भाईजान ने तुरंत कुर्सी दी और उसे बैठने को कहा।

अनमना-सा झेंपते हुए रमेश बैठा, मगर शोभावती के चेहरे को एकटक निहारता रहा। उसकी मौसी के माथे पर, आज न तो चंदन का तिलक ही था और न ही गले में लद्दाखी मोतियों की माला। बेसुध-सी पड़ी, वह वृद्धा, काश कुछ बोलती! इसकी कभी न खत्म होनेवाली बातें विस्मृति में तो नहीं खो सकतीं-'अरे रमेशा, न जाने यूनिवर्टी में क्या करता है, जल्दी से पढ़ाई खत्म कर।'

'मेरी अच्छी बाबी-मौसी! तुम यह क्यों नहीं समझती कि कोर्स अपने समय पर ही पूरा होता है और इम्तहान भी किसी कायदे-कानून के तहत होते हैं।'

'वो तो ठीक है। पर देख, लाला जी अभी सर्विस में हैं। कल को वह रिटायर हो गए तो किससे तुम्हारी नौकरी की बात करूँगी? पेंशन पर जाने के बाद भला किसी मुलाज़िम की पूछ होती है...'

रमेश ने पास में बैठे अपने मौसेरे भाई से उपचार आदि के बारे में एक भी बात नहीं पूछी। वह भी इसकी मनोदशा से अनभिज्ञ नहीं था। वह जानता था कि रमेश की माँ की असमय मृत्यु के बाद उसकी माँ ने ही रमेश को पाला-पोसा था। वह जानता था कि रमेश की किसी सफलता पर उसकी माँ कैसे उत्साह और उन्माद में झूमने लगती थी, मानो उसकी कोई बरसों की साध पूरी हुई हो। जब रमेश एम.ए. पास करने की खबर लेकर आया था, तब भी ऐसा ही हुआ था। मृदुल नेहा अविराम बरसने लगी थी। लालाजी अपनी पत्नी के स्वभाव और ममत्व की भावना को समझते थे। उन्होंने कुछ ही दिनों में रमेश की नियुक्ति एक ऍक्सपोर्ट-हाउस में करवाई थी, जबकि उनका अपना बेटा बालकृष्ण अभी भी रोजगार-दफ्तर के चक्कर काट रहा था। अपनी माँ का रमेश के प्रति अनुराग देख बालकृष्ण उन दिनों अपने मौसेरे भाई से ईर्ष्या करता था, क्योंकि माँ की ममता और स्नेह, जो उसे मिलना चाहिए था वह रमेश को नसीब हो रहा था।

रमेश उठ खड़ा हुआ और अपनी मौसी-माँ के सिरहाने जा बैठा। बिस्तर पर पड़ी बेसुध जान के माथे को सहलाने के उद्देश्य से छुआ कि पूरे शरीर में कंपकपी दौड़ गई। मन और प्राण को झकझोरनेवाला यह कैसा उद्वेग था? उसे बोर्ड-रूम, होटल का कमरा, मौसी-माँ का दुलार और फिर यह खामोश बेडरूम क्षणिक दृश्यों की तरह एक स्थिति से निकाल दूसरी अवस्था में ले जाते रहे। निस्तब्धता के उन क्षणों में रिक्तता का आभास बढ़ने लगा। वह बेचैन होने लगा-इस शहर में आए उसे तीन महीने हो गए थे, पर क्या नब्बे से ज्यादा दिनों की अवधि में पन्द्रह मिनट निकाल पाना कठिन था? इन बूढ़ी आँखों ने कितना खोजा होगा? क्या ये आँखें रमेश को फिर से देख पाएँगी? प्रश्नों का सिलसिला और यह खामोशी: निःशब्द रमेश उठा खड़ा हुआ। हालाँकि उसके माथे पर चिंता की रेखाएँ साफ नजर आ रही थीं, पर वह एकदम से क्यों चलने लगा-यह उसका भाईजान समझ न सका। कुछ पूछे या न पूछे, इसी उधेड़बुन में रमेश के साथ चलते-चलते उसका मौसेरा भाई भी क्वार्टर के दरवाजे तक आ गया। रमेश रुका और उसने जेब से अपना विजिटिंग कार्ड निकाला। उस पर कोई फोन नम्बर लिखने लगा। अब तक बेबी, शीला और पप्पू भी वहाँ आ चुके थे। शीला कुछ कहने लगी। शायद यह कि रमेश को रात के खाने के बाद ही जाने देना चाहिये। लेकिन भाईजान के संकेत ने उसे चुप कराया। रमेश ने अपना फोन नम्बर फिर दोहराया। भाईजान ने कार्ड को सम्भालते हुए अपने बटुए में रखा और दोनों गले मिले। दृढ़ता से बड़े भाई ने छोटे का हाथ पकड़ा और कुछ कहे बिना ही सब-कुछ कहते हुए विदा करने लगा। बालकृष्ण के परिवार से रुख्सत होकर रमेश बाहर लॉन की तरफ चल पड़ा।

अँधेरा गहराने लगा था। अब कहीं कोई बच्चा नज़र नहीं आ रहा था। रमेश को देखते ही शोफर के बदन में फिर से फुर्ती आई। उसने कार का दरवाजा खोला और अपने साहब की हाजिरी बजाने लगा। रमेश कार के पास आया, लेकिन उसमें बैठा नहीं।

“सर! आपको लेने कब आऊँ?"
"मैं अपने-आप आऊँगा।"
"लेकिन सर, अभी तो आपको कई जगह जाना होगा?"
“अब कहीं नहीं जाना। जाओ, गाड़ी होटल ले जाओ।"
"अच्छा सर!"

ड्राइवर कार ले गया। रमेश ने क्वार्टर को एक बार फिर देखा और आगे बढ़ने लगा। स्ट्रीट-लाइट्स टिमटिमा रही थीं। मौसम में नमी और दूर-दूर तक चुप्पी। खाली सड़क पर रमेश के कदमों की आहट तीव्र होती गई। उसने अपनी टाई की नॉट ढीली की। कमीज़ के ऊपरी दो बटन भी खोल दिये। फुटपाथ पर बैठे किसी भिखारी ने आवाज़ लगाई। रमेश ने कनखियों से उसे देखा और चलता रहा। कोट का बटन खोला। जेब से रुमाल निकालकर माथे को पोंछने लगा। हवा कुछ तेज बहने लगी? हाथ का रुमाल एक झोंके के साथ किसी झाड़ी में उलझ गया। उस तरफ कोई ध्यान दिये बिना ही रमेश बढ़ता रहा। उसे अपनी प्रतिष्ठा, अपना पद सब बेमानी लग रहा था। बिना किसी लक्ष्य के वह चलता रहा। अब वह बाहर हाइवे पर आ गया था। लम्बा-चौड़ा राजमार्ग। बेमकसद मंजिलें। उसने बाएँ देखा न दाएँ, बस अपनी सीध में चलता रहा न जाने कब तक।