हमीद ख़ान (कहानी) : एस. के. पोट्टेक्काट

Hameed Khan (Malayalam Story in Hindi) : S. K. Pottekkatt

"तक्षशिला भभककर जल रही है !" अखबार में यह सुर्सी देखते ही मुझे हमीद खान की याद आयी और मैंने भगवान से प्रार्थना की, "हे भगवान ! मेरे भाई हमीद ख़ान और उसकी दूकान को इस आग से बचा ले !"

अभी दो साल भी नहीं बीते थे। मैं तक्षशिला के पौराणिक खण्डहरों को देखने गया था। एक दिन दोपहर की चिलचिलाती धूप में मैं बेहद थक गया था। भूख-प्यास बर्दाश्त के बाहर हो गयी थी, तो मैं भोजन करने के लिए किसी होटल की तलाश में रेलवे स्टेशन से पौन मील दूर बाजार की ओर चल पड़ा था।

बाजार में हस्तरेखाओं की तरह तंग गलियां थीं। जहाँ देखो, धूल, मक्खियाँ और गन्दगी। चारों ओर चमड़े की बदबू । वहाँ चमड़े की कमाई होती थी। मोटे-मोटे, लंबे-लंबे कद के पठान अनमने भाव से हौले-हौले, वे कभी भी हड़बड़ी से नहीं चलते, इधर-उधर घूम रहे थे।

मैंने पूरे बाजार का चक्कर लगाया था, लेकिन कोई भी होटल नजर नहीं आया था। उस बाजार में होटल की अप्रासंगिकता पर मेरा ध्यान ही नहीं गया था। मैं निराश होकर लौट रहा था कि सहसा एक दूकान से मेरी नाक में चपाती सेंकने की गंध आयी थी, तो मैं मुस्कराता हुआ उस दूकान में दाखिल हुआ था। एक यायावर के पास सुविधा और सुरक्षा की पूंजी उसकी मुस्कान ही होती है । मैं यह अच्छी तरह जानता था।

दूकान के अन्दर एक अधेड़ पठान अंगीठी के सामने बैठा चपाती सेंक रहा था । उसने मेरी ओर घूरकर देखा था, तो मैं पुनः मुस्काया था।

उसके चेहरे के भाव में कोई फर्क नहीं आया था । वह सदेह और रूखेपन के साथ मेरे चेहरे की तरफ देखता रहा था।

"क्या मुझे यहां खाना मिल सकता है ?" मैंने शांत भाव से पूछा था ।

"वहाँ बैठो,” उसने एक बेंच की ओर इशारा करते हुए कहा था, "चपाती और सब्जी है।"

मैं बेंच पर बैठकर रूमाल से चेहरे का पसीना पोंछने लगा था।

मैंने दूकान के भीतर निगाहें घुमायी थीं। फर्श पर कहीं-कहीं रेत दिखाई दे रही थी। एक कोने में नारियल की रस्सी से बने पलंग पर एक दाढ़ी वाला बुजुर्ग एक गंदे तकिये पर एक हाथ टिकाये हुक्का पी रहा था । वह आस-पास से बेख़बर तंबाकू के धुएँ में खोया हुआ था।

"आप किस मुल्क के हैं ?' एक चपाती अंगारों पर रखते हुए उस अधेड़ ने मुझसे पूछा था।

"मलाबार से," मैंने जवाब दिया था।

उसने मलाबार का शायद नाम भी कभी नहीं सुना था। उसने लोई बनाते हुए पूछा था, “क्या वह हिन्दुस्तान में ही है ?"

"हाँ ! हिन्दुस्तान के दक्षिणी कोने में-मद्रास में।"

"क्या आप हिन्दू नहीं हैं ?"

"हाँ ! मेरी पैदाइश एक हिन्दू-परिवार में हुई थी।"

इस पर उसने एक विकृत मुस्कान के साथ पूछा था, "क्या आप एक मुसलमान के हाथ का खाना खा सकते हैं ?"

"हम अपने यहां अच्छी चाय पीने और बिरयानी खाने मुसलमानों के होटलों में ही जाते हैं।" मैंने गर्व के साथ बताया था।

उसको मेरी बात पर यकीन नहीं हुआ था। मैंने ही फिर कहा था, "हमारे यहां हिन्दू और मुसलमान, दोनों प्यार के साथ जिन्दगी बिताते हैं । भारत में मुसलमानों ने सबसे पहले अपनी मसजिद हमारे यहाँ ही कोंटुगल्लूर में बनवायी थी । हिन्दुओं के बीच दंगों की अपेक्षा हिन्दू-मुसलमानों के बीच दंगे हमारे यहाँ कम ही हुए हैं।"

उसने मेरी बातें ध्यान से सुनी थीं। उसने मुस्काते हुए कहा था, "मैंने तो आपका इलाका देखा नहीं है ।"

"क्या आपको मेरी बातों पर विश्वास नहीं होता?" मैंने पूछा था ।

"मैं आप पर तो यक़ीन करता हूं। लेकिन मैं आपकी इस बात पर विश्वास नहीं कर सकता कि आप हिन्दू हैं, क्योंकि आपने जो-कुछ फरमाया है, उसे यहाँ के हिन्दू कभी भी एक मुस्लिम के सामने खुल्लम-खुल्ला नहीं फरमाएंगे। उनकी नजरों में तो हम हमेशा जालिमों की औलाद ही रहेंगे, हिन्दुस्तान की पाकीज़गी और तमद्दुन पर कालिख पोतने वाले हमलावर । हमको अपनी हिफाजत और इज्जत के लिए जद्दोजहद करना पड़ता है।"

उसकी बातों में ईमानदारी और लाचारी थी। मैंने पूछा था, "आपका नाम क्या है ?"

"हमीद खान । खाट पर मेरे अब्बा हैं । आपको दस मिनट और इन्तजार करना होगा । बकरी का गोश्त तैयार होने में थोड़ी देर है।"

आंगन में चटाई पर सुखाने के लिए मिचें पड़ी थीं। उनकी रखवाली एक लड़का कर रहा था। हमीद ख़ान ने उसे बुलाया था, तो लड़का दौड़कर आ गया था और हमीद ख़ान ने अपनी जबान से उसे कोई आदेश दिया था। तब वह लड़का दूकान के पिछले भाग की ओर दौड़कर चला गया था।

"भाई, जहाँ विश्वास नहीं है, वहीं शैतान घुस आता है। प्यार-मुहब्बत को हम मोल नहीं ले सकते । वह भीख मांगने से भी नहीं मिलती। उसके लिए इन्तजार भी नहीं किया जा सकता। आप विश्वास और प्यार के साथ हमारे यहाँ आये। क्या इस प्यार और विश्वास का असर मेरे दिल पर नहीं होगा? हर हिन्दू और हर मुसलमान आपस में प्यार और विश्वास रखते, तो..." शांत स्वर में कहते हुए हमीद ख़ान ने अंगीठी पर आख़िरी चपाती सेंकी थी और वह उठ खड़ा हुआ था ।

थोड़ी देर बाद ही वह लड़का एक थाली में भात लेकर आया था, तो हमीद खान ने थाली मेरे सामने रखकर उसमें चार चपातियाँ और एक कटोरे में मांस परोस दिया था।

मैंने पेट भर खाया था।

"कितना पैसा हुआ ?' मैंने जेब में हाथ डालते हुए पूछा था ।

हमीद खान ने मुस्कुराते हुए मेरा हाथ पकड़कर कहा था, "भाई माफ़ करें ! पैसा-वैसा नहीं चाहिए। आप तो मेरे मेहमान हैं।"

"वह तो आप की कृपा है। आप एक व्यापारी हैं। आपने मुझे खाना दिया, मैं आपका शुक्रगुजार हूँ । लेकिन आपको उसका दाम ज़रूर लेना होगा।" कहते हुए मैंने पांच रुपये का एक नोट हमीद खान की ओर बढ़ाया था।

हमीद खान जरा झिझका। फिर मेरे हाथ से नोट लेकर मेरे ही हाथ में थमा दिया और कहा था, "भाई, आप समझ लीजिए, दाम लिया है । अब इसे आप अपने ही पास रखिए । जब आप मलाबार लौटें इसी पैसे से एक मुस्लिम होटल में जाकर बिरयानी खायें, इसीलिए मैं यह नोट आपको दे रहा है। आप तक्षशिला के अपने इस भाई हमीद ख़ान को याद रखिएगा।"

और हमीद खान एक बच्चे की तरह मुझसे लिपटकर जोर से हँस पड़ा था। उसके स्नेहपाश में मैं पुलकित हो उठा था ।

मैं फिर तक्षशिला के खण्डहरों की ओर चला गया था।

हमीद ख़ान को मैं फिर कभी नहीं देख सकूँगा। मगर तक्षशिला के अपने इस भाई हमीद खान को याद रखिएगा, उसकी आखिरी बात और उसकी जोर की हंसी अब भी मेरे मन में गूंजती रहती है ।

तक्षशिला के साम्प्रदायिक दंगों की आग से हमीद खान और उसकी उस छोटी दुकान को भगवान बचा ले, मैं यही प्रार्थना करता हूँ।