गुड़िया रानी (कहानी) : गुरुदत्त

Gudiya Rani (Hindi Story) : Gurudutt

उच्च शिक्षा ग्रहण कर लेने पर भी हरीशचंद्र सादा और सदाचारी व्यक्ति था । खद्दर की धोती, कुरता तथा साधारण चप्पल में वह बिलकुल ही सामान्य तथा सरल स्वभाव प्रतीत होता था । वह अनेक समाचार - पत्रों का संवाददाता था तथा लेखन- कार्य से अपनी आजीविका चला रहा था ।

एक दिन , जब वह किसी प्रसिद्ध व्यक्ति के पत्रकार सम्मेलन से वापस घर आया, तो उसके पिता ने उसे एक खुला पत्र दिया , जिसका हरीश से संबंधित अंश इस प्रकार था —

आपने मुझे अपने पुत्र हरीश के विषय में लिखा है । उसके विषय में जो जाँच मैंने की है, वह काफी संतोषजनक है , किंतु लड़की की स्वीकृति के बिना मैं कुछ निर्णय नहीं कर सकता । वह , आप जानते ही हैं कि ग्रेजुएट है और बुद्धिमती भी है । मैं चाहता भी हूँ कि अपने विषय में वह स्वयं ही निर्णय ले । अतः यदि एक - आध दिन के लिए हरीश यहाँ आ जाए, तो कोई निर्णय किया जा सकता है ।

" तो पिताजी, " हरीश ने कहा , " आप यह चाहते हैं कि मैं वहाँ जाकर उसके सम्मुख अपना प्रदर्शन करूँ ? "
" इसमें प्रदर्शन की क्या बात है ? तुम्हें भी तो लड़की को प्रत्यक्ष देखने का अवसर मिलेगा और तुम भी निर्णय कर सकोगे । "
" परंतु मुझमें इतनी बुद्धि कहाँ है कि एक - दो दिन उसे देखकर उसके विषय में कोई अनुमान लगा सकूँ । "
" अपनी बुद्धि के विषय में इतना हीन विचार मत करो । मुझे तुम पर और तुम्हारी बुद्धि पर भरोसा है । "

इस प्रकार अपनी होनेवाली दुलहिन शकुंतला के पिता मोहनलाल के नाम अपने पिता का पत्र लेकर हरीशचंद्र लाहौर जा पहुँचा । मार्ग में गाड़ी में बैठा रात भर वह किसी लड़की से बिना पूर्व- परिचय के मिलने की कहानी घड़ता रहा ।

कभी- कभी अनपेक्षित घटनाएँ भी घटित हो जाती हैं । लाहौर पहुँचकर वह एक होटल में ठहर गया । नहा- धो तथा नाश्ता ले वह अनारकली बाजार में कुछ खरीदारी करने के लिए निकल गया । उसे एक रेशमी रूमाल चाहिए था , इसके लिए वह खद्दर भंडार जा पहुँचा । उसे रेशम विभाग में भेज दिया गया ।

उस समय वहाँ दो लड़कियाँ रेशमी साड़ी देख रही थीं । सेल्समैन उनको दिखा रहा था । हरीश वहाँ पहुँच चुपचाप अपनी बारी की प्रतीक्षा में खड़ा हो गया । सेल्समैन उन लड़कियों में व्यस्त था । इस कारण हरीश को उन लड़कियों के विषय में सोच-विचार का अवसर मिल गया । उनमें से एक लड़की बहुत बनी - ठनी थी और बड़ी आत्मीयता के साथ उस सेल्समैन की दिखाई वस्तु का निरीक्षण कर रही थी । साडियों का एक बड़ा ढेर वहाँ लग गया था । हरीश को कुछ जल्दी तो थी नहीं, इस कारण वह धैर्यपूर्वक खड़ा रहा । सेल्समैन ने जब देखा कि लड़कियाँ कुछ ले तो रही नहीं , तो वह हरीश से पूछने के लिए मुड़ा, परंतु उसी समय उस बनी -ठनी गुडिया ने साधिकार उसको उस ओर ध्यान न देने दिया । हरीश ने प्रतीक्षा करना स्वीकार कर लिया और इस प्रकार उसे किसी आधुनिक लड़की को भली-भाँति जाँचने का अवसर मिल गया ।

आधे घंटे से अधिक वह लड़की वहाँ रही और बिना कुछ खरीदे चली गई । हरीश को इतने समय प्रतीक्षा करनी पड़ी । इतनी देर तक उसकी ओर ध्यान न दे सकने की असमर्थता व्यक्त करता हुआ सेल्समैन बोला, " हमारी स्थिति बड़ी विचित्र है । इन्हें हम मना भी नहीं कर सकते थे। यदि मैं बीच में आपकी ओर मुड़ जाता , तो निश्चय ही मेरी शिकायत लेकर मैनेजर के पास पहुँच जातीं । अच्छा, बताइए , आपकी क्या सेवा करूँ ? "

" मुझे दो रेशमी रूमाल चाहिए, किंतु आप इसे तो जानते ही होंगे । वह आपसे बड़ी आत्मीयता के साथ बात कर रही थी । "

" कोई विशेष परिचय नहीं है । सेल्समैन ने रूमालों का डिब्बा खोल रूमाल निकालकर दिखाते हुए कहा, " वह लाहौर के प्रख्यात वकील मोहनलाल की लड़की है । "

" ओह ! " आश्चर्यचकित सा हरीश बोला । वह जैसा सोचता था , घटना वैसी घटित हो गई, पर यह लड़की वह नहीं थी, जिसकी अपने मंगेतर के रूप में वह कल्पना करता आया था । सेल्समैन ने जब ग्राहक को विचार - मग्न देखा, तो उसके मुख पर मुसकान खिल गई । उसने कहा, " शायद आप मोहनलाल वकील को जानते हैं ? "

" जी, " हरीश ने कहा, "किंतु इस लड़की को देखकर मुझे डिस्नी के कार्टून की गुडिया रानी का स्मरण हो आया था । इसने इतना शृंगार कर रखा था कि वह कोई मानुषी कन्या होगी, मैं विचार भी नहीं कर सकता था । "

अब सेल्समैन की मुसकराहट और बढ़ गई । हरीश ने रूमाल छाँटे , उन्हें बँधवाया और मूल्य चुकाकर वह उस लडकी के साथ अपने भविष्य के विषय में बडी गहनता से विचार करता हआ भंडार से बाहर निकल गया ।

अपनी पत्नी का वह चित्र कि वह सुंदर एवं शांतिमय होगी , विलीन होकर एक अनोखा चित्र उस लड़की के हाथ -में -हाथ डालकर सिनेमा तथा रेसकोर्स आदि में जाने का , उसके सम्मुख आ गया । इससे तो वह काँप सा उठा और इस पर विचार करने के लिए वह अपने होटल में आ गया । यहाँ बैठ उसने उस लडकी तथा सेल्समैन के बीच हुआ पूर्ण वार्तालाप स्मरण किया, तो उसने निश्चय किया कि उसका निर्णय इस लड़की के पक्ष में नहीं हो सकता । वह सुंदर हो सकती है, किंतु इसका निश्चय भी तभी हो सकता था , जब वह अपना सारा रूज, पाउडर , काजल इत्यादि शृंगार- प्रसाधनों को त्यागकर उसके सम्मुख आए । इसमें संदेह नहीं कि उसने फैशन के अनुरूप वस्त्र पहन रखे थे, पर यह तो अयोग्यता का प्रमाण था । सेल्समैन से उसकी सारी बातचीत निरर्थक सी थी । उसने अपना , उसका और सेल्समैन का समय ही नष्ट किया था ।

किंतु उसे तो मोहनलाल को अपने पिता का पत्र देना और लड़की के सम्मुख स्वयं का दिखावा करना था । इस पर भी अब उसमें वह घबराहट नहीं रही थी , जो लड़की देखने से पूर्व थी । अपने मस्तिष्क में उसने अपना कार्य करने का निश्चय कर लिया था ।

शाम के समय वह वकील साहब के कार्यालय में जा पहुँचा और उनको अपने पिता का पत्र उसने दे दिया । वकील साहब ने पत्र पढ़ा और फिर सिर से पैर तक हरीश को देखा । गहन निरीक्षण कर वह बोले, " तो आप हैं हरीशचंद्र । बड़ी प्रसन्नता हुई तुमको देखकर, बैठो - बैठो! " एक कुरसी की ओर संकेत करते हुए उन्होंने घंटी का बटन दबाया । घंटी बजी और चपरासी भीतर आ गया । वकील साहब बोले, " देखो, इनको भीतर ले जाओ और माँजी से कहना यह दिल्ली से आए हैं । मैं जल्दी ही आ रहा हूँ । "

इस प्रकार हरीश कार्यालय से कोठी में ले जाया गया । शकुंतला की माँ तो घर नहीं थी, किंतु वह स्वयं पैरों में स्केट्स बाँधकर टेनिस यार्ड में स्केटिंग कर रही थी ।

अब विस्मय करने की बारी शकुंतला की थी । वह यह समझने में असमर्थ थी कि जिस नौजवान को उसने खद्दर भंडार में अपनी ओर घूरते हुए देखा था , उसे उनका चपरासी कोठी के अंदर क्यों ले आया है ? अपने विचार से उसने उसे आधे घंटे से अधिक खद्दर भंडार में प्रतीक्षा करवाकर उसको दंड दिया था । स्केटिंग करती हुई वह टेनिस यार्ड के उस कोने तक आई, जहाँ से चपरासी समीप पड़ता था और चपरासी से उसने उसके वहाँ आने का कारण पूछा ।

चपरासी ने पहले तो सलाम किया और फिर कहा, " यह बाबू दिल्ली से आए हैं और वकील साहब ने इनको माँजी के पास ले जाने को कहा है । "

सुनते ही शकुंतला के मस्तिष्क में विचार आ गया कि वह कौन हो सकता है और फिर प्रात : काल के अपने व्यवहार को स्मरण कर वह लज्जित सी हो गई । उसने पैरों से स्केट्स निकाले और उसके समीप आकर बोली,
" माँ तो घर पर नहीं है । क्या मैं आपका नाम जान सकती हूँ । " ।
" हरीशचंद्र । " संक्षेप में उसने बताया ।
" ओह ! " मुसकराते हुए शकुंतला ने कहा , “ अंदर आइए , मुझे पता है, आप पत्रकार हैं । क्या मैं आपके लिए चाय मँगवाऊँ ? "

भीतर ड्राइंग - रूम में वे पहुँचे, तो चपरासी चला गया । शकुंतला ने नौकर को बुलाकर चाय लाने का आदेश दिया और हरीश से एक सोफे पर बैठने का आग्रह करने लगी । जब दोनों बैठ गए, तो हरीश ने पूछ लिया, " तो आप मुझे और मेरे यहाँ आने के कारण के विषय में जानती हैं ? "

" जी हाँ, पिताजी ने मुझे सबकुछ बता रखा है, परंतु आपको तो सीधा यहाँ आना था । कहाँ ठहरे हैं आप? "
"मैं स्टैंडर्ड में ठहरा हूँ । क्या मैं जान सकता हूँ कि मेरे विषय में निर्णय करने में आपको कितना समय लगेगा ? "
" मैंने तो निर्णय कर लिया है । मैं समझती हूँ कि मैं आपके साथ बहुत खुश रहूँगी । केवल अपनी पोशाक आदि में आपको कुछ बदलाव लाना होगा । "
" आप शीघ्र निर्णय करनेवाली हैं । मैं समझता हूँ कि शीघ्रता में किए गए निर्णय में भूल हो जाने की संभावना रहती है । "
" परंतु मैंने कोई शीघ्रता नहीं की । मैं सौभाग्यशाली हूँ कि आधे घंटे से अधिक मुझे आपका अध्ययन करने का अवसर मिला है । जब मैं उस मूर्ख दुकानदार से बात कर रही थी, तब क्या आप मुझे पहचानते थे? "
" नहीं , जब तक आप चली नहीं गई, तब तक नहीं । "
" तब उस गधे ने ही आपको मेरे विषय में बताया होगा । "
" हाँ , किसी प्रकार मैंने जान लिया और जिस लड़की से मेरे विवाह की बात चल रही है, उसके विषय में जानकर मुझे भारी निराशा हुई है । "
" उसने क्या बताया है ? "
" उसने तो केवल आपके पिताजी का नाम ही बताया था , अन्य कुछ नहीं । शेष मैंने स्वयं ही उस आधे घंटे में आपका निरीक्षण कर जान लिया है । "
" ओह! क्या देखा था आपने ? " यह कहते- कहते शकुंतला का मुख विवर्ण हो गया ।

कुछ भी विचलित न होते हुए शांति से हरीश ने उत्तर दिया , " मैंने अनुभव किया कि आप घमंडी हैं , अहंकारी हैं , भड़कीली और अज्ञानी लड़की हैं । जैसे आपने अपने मुख की कुरूपता को छिपाने के लिए रूज तथा पाउडर और पीले होंठों को छिपाने के लिए लिपस्टिक का प्रयोग किया हुआ था , ठीक वैसे ही आप अपने मस्तिष्क की विकृति को छिपाने के लिए शिष्टाचार का आश्रय ले रही हैं । "

इस प्रकार इससे पूर्व शकुंतला को उसके मुख पर कहनेवाला कोई नहीं मिला था । अपने माता -पिता की वह लाडली संतान थी और उसकी प्रत्येक इच्छा की पूर्ति कानून पालन करने के समान थी । आज पहली बार उस पर कटाक्ष करनेवाला कोई मिला था ।

वह अभी सोच ही नहीं पाई थी कि किस प्रकार हरीश के व्यंग्यों का उत्तर दे कि हरीश उठा और बोला, " मैं आपको पसंद नहीं कर सकता । " इतना कह वह कोठी से बाहर चला गया । शकुंतला का मुख पीला पड़ गया था ।