गोपुर का द्वीप (कहानी) : टी. जानकीरामन

Gopur Ka Dweep (Tamil Story in Hindi) : Thi. Janakiraman

पूरब की ओर वाली गली में काफी रोशनी थी। वहाँ से होकर जैसे ही गोपुरवाली गली में पाँव रखा, तो लगा जैसे किसी ने अचानक मेरी आँखें बंद कर दी हों। वहाँ घना अँधेरा छाया हुआ था। धीरे-धीरे बड़ी सावधानी से पाँव रखकर चलने लगा। चाँद की तरह प्रकाश देनेवाला गोपुर का मर्कुरी दीप जल रहा था। झिलमिलाते तारों के मध्यम प्रकाश में मंदिर का गोपुर काला और ऊँचा दिखाई दे रहा था। मंदिर के अंदर गर्भगृह में भी दीप नहीं थे। मैंने अनुमान कर लिया कि मंदिर का द्वार नहीं खुला है। रास्ते में पड़े हुए कुत्तों से कहीं टकरा न जाऊँ-इस डर से मैं बहुत सँभल-सँभलकर चलता हुआ घर पहुँचा। तभी सामने के घर से आवाज आई, "अगर आज पूजा नहीं करानी है तो भले ही मंदिर का द्वार न खोलें। पर गोपुर का दीप क्यों बुझा हुआ है।" बगल के घर से वैद्यजी ने आह भरकर कहा, “गाँव की पंचायत ठहरी निरे निकम्मों की जमात। गली भर के लिए एक ही लैंप है। वह भी एक हफ्ता हुआ चूर-चूर हो गया। कोई पूछनेवाला नहीं।"

वे आगे बोले, "गोपुर का दीप रोज जलता है। उसके सामने पंचायत का नाममात्र का यह ऐसे टिमटिमाता रहता है, जैसे दिन में चाँद। आज वह सूरज ही बुझ गया। मंदिर के अधिकारी इस प्रकार स्वेच्छा से दीप न बुझाते तो अच्छा था। शायद वे प्रतीक्षा कर रहे हों कि कोई जरूरतमंद आकर प्रार्थना करे।"

उस 'कोई जरूरतमंद' का मतलब है-उन वैद्यजी के अलावा कोई और व्यक्ति। ऐसी छोटी-मोटी बातों के लिए मंदिर के अधिकारियों के पास जाकर चिरौरी करना वे अपनी शान के खिलाफ समझते थे। वैद्यक उनका पेशा नहीं था, मात्र समय गुजारने का एक साधन था। आखिर मैं जो था; शुन:शेप की तरह अधिकारी के पास जाकर मिन्नत करने के अतिरिक्त मेरे पास और क्या काम था।

दूसरी वेला की पूजा होने का समय भी आ गया। प्रतिदिन इस समय नौबत, शंख और तुरही की ध्वनियाँ गूंज उठती थीं। पर आज निपट स्तब्धता छाई हुई है। जैसे किसी का महाप्रयाण हो गया हो। मैंने घर का द्वार खटखटाया। मेरी पत्नी गौरी ने आकर दरवाजा खोला। मैंने उससे पूछा, "आज मंदिर का द्वार बंद क्यों है?"

"इसका विशेष कारण है।" कहते हुए उसने कुंडी लगा ली।
"क्या कारण है?"
"दक्षिण की ओर जो गली है, उसमें कोई स्त्री मर गई है।"
"कौन है वह? और कौन होती?"
"वह आपकी कहानी की चरित्र–नायिका है।"
"क्या मतलब! बेकार की बकवास।"
"मरने के बाद ही तो ऐसी स्त्रियाँ आपकी चरित्र–नायिका बन जाती हैं।"
"कैसी स्त्रियाँ?"
"धरमु सरीखी।"
"कौन धरमु?"
"आपने उस दिन कहा था न, देवी दुर्गा के सामने एक लड़की वर माँग रही थी... वही जोगनिया।"
"क्या वह...।"
"अजी क्या मूर्छा आ गई।"

सचमुच मूर्च्छित करनेवाली बात थी। परसों ही मैंने उस तरुणी को मंदिर में देखा था। मुझे देखकर वह लाज और डर के मारे तेजी से बाहर चली आई थी। वह दृश्य अब भी मेरी आँखों के सामने है। मैंने कहा, "मैंने परसों ही उसे मंदिर में देखा था, गौरी।"

"तो इससे क्या?" एक आदमी चार बजे तक चलता-फिरता, हँसता-खेलता है। और सवा चार बजे खत्म हो जाता है। दिल की धड़कन बंद हुई नहीं कि बस सब शांत हो जाता है।"
"क्या बीमारी थी उसे?"

"ऐसी बदचलनों को और क्या बीमारी हो सकती है? सपेरे का हत्यारा साँप ही होता है। जो बाघ को नचाता है, उसकी मौत बाघ के ही हाथ होती है।" पत्थर सा निस्पंद मैं बैठ गया, धरमु की मदमाती सूरत मेरी आँखों से ओझल नहीं हुई।

परसों रात दूसरी वेला की पूजा होने के बाद जब मैं मंदिर गया, तब धरमु वहीं थी। मंदिर सुनसान था। नदी के पास अर्ध-जाम-पूजा की प्रतीक्षा में दो स्त्रियाँ बैठी ऊँघ रही थीं। मुँड़े हुए सिर
, भूरापन लिये हुए सफेद रंग की साड़ी, माथे पर विभूति की रेखाएँ, बाहर निकले दाँतवाले और ताड़ फल सरीखे चेहरे, सिकुड़नों से भरी शिथिल देह-मालूम होता था कि दोनों व्रत-उपवासों द्वारा 'काया-क्लेश' कर रही हैं। नहीं तो पचास वर्ष की आयु में इतनी कमजोरी और शिथिलता क्यों आती? मानवीय देह पाकर भी लेशमात्र सुख पाना उनके भाग्य में नहीं बदा था। अबोध अवस्था में ही दोनों को सुहाग मिल गया। समान शीलव्यसनेषु सख्यम्' जैसी दशा थी दोनों की। इस कारण दोनों में स्नेह की गाँठ पड़ गई थी। दोनों साथ आतीं और साथ जातीं। वे रागद्वेष से शून्य और काठ के समान निस्संज्ञ हो गई थीं। उमंगों का उत्स ही मिट चुका था। वे बूढ़ी विधवाएँ एक ही बात की प्रतीक्षा कर रही थीं, जीवन की अंतिम घड़ी की।

उनके पास से होकर मैं अंदर चला गया। वहाँ शिवजी की सन्निधि में धरमु खड़ी थी। उसे देखकर मैंने मन -ही-मन कहा, 'तुमसे वे दोनों विधवाएँ भाग्यवती हैं। अपने मुँड़े सिर पर आँचल डालकर, बिना किसी झिझक के उनको चलने-फिरने का अधिकार मिला है। लेकिन तुम सुहागिन होकर भी अभागिन हो।'

मुझे देखते ही वह लज्जा और वेदना से कुंठित होकर शीघ्र ही वहाँ से चली गई। उसके घने घुघराले बाल उसकी पीठ पर झूल रहे थे। वह साँवली थी। उसकी देह लंबी-पतली थी। उसके हाथों में रबड़ की चारपाँच चूड़ियाँ थीं और गले में थी सोने का मुलम्मा की हुई एक फीकी सी चैन। वह फूलदार वायल की साड़ी पहने हुई थी। एक अजीब सी चमक उसके देह पर मैंने देखी। मुझे देखते ही शरमाकर भाग जाने का कारण था। दो महीने पहले जब मैं मंदिर में परिक्रमा कर रहा था, तब वह देवी दुर्गा की सन्निधि में खड़ी होकर प्रार्थना कर रही थी। उसका गद्गद स्वर ऊँचा हो उठा था। वेदना ने उसको इतना बेसुध कर दिया था कि मेरे आने की खबर भी उसको नहीं हुई। वह करुण स्वर में कह रही थी, "ईश्वरी दो दिन से हमारे पेट में कुछ भी नहीं गया। आज हम पर कृपा करो माँ, आज किसी उदार हृदय को भेज दो।..."

तभी सहसा धरमु ने मुझे देख लिया। वह काँप उठी। मैं क्या करता। मैंने छिपकर बात नहीं सुनी थी। तुरंत उसने सँभलकर ऊँचे स्वर में प्रार्थना की, "ईश्वरी, मेरी बहन का उद्धार करो। किसी उदार हृदय के साथ उसका विवाह करा दो, माँ! यही सच्ची प्रार्थना है।"
लेकिन उसके स्वर में यह कृत्रिमता और कँपकँपी क्यों है?

दूसरे ही क्षण हड़बड़ाकर भाग जाने की उसे क्या जरूरत थी। उसके चले जाने के बाद मैं माता दुर्गा को एकटक देखने लगा। उस पाषाण-मूर्ति का क्या तात्पर्य है। "महषासुर मर्दिनी, मैं अब यह काम भी करूँ। क्या उसकी यह प्रार्थना पूरी कर दूँ। उसने बहन का नाम लेकर जो बहाना किया है, वह केवल तुम्हें चकमा देने के लिए ही था। पर तुम धोखे में मत पड़ो।"

मेरा हृदय उबल उठा। पर समझ नहीं सका कि क्रोध किस पर करूँ। मेरा कंठ अवरुद्ध हो गया। धरमु की इस दयनीय प्रार्थना पर विक्षुब्ध होनेवाला बाहर कोई नहीं था। देवी दुर्गा के सामने एक दीप निश्चल जल रहा था। भगवान् दक्षिणामूर्ति मौन समाधि में निर्विकार बैठे हुए थे। मंदिर के अधिकारी महोदय बड़ी लगन के साथ हिसाब लगा रहे थे। उनके सिर के ऊपर लटके हुए पिंजरे में आँखें मूंदे एक तोता तपस्वी की तरह ध्यानमग्न था।

घर आकर मैंने सारी बातें अपनी पत्नी से कहीं। वह बोली, "देवी सुबुद्धि देती है, ज्ञान देती है, विवेक आदि भी देती है, लेकिन आज मालूम हुआ कि वह वर भी दे सकती है।"
"क्यों नहीं दे सकती?"
"मैं भी यही कह रही हूँ कि देवी वह भी क्यों नहीं दे सकती। सब काम के लिए दैवबल की आवश्यकता है। चोर-डाकू का भी अपना देवता होता है। उसी तरह वेश्या का भी एक देवता क्यों न हो। अगर वेश्या अपने देवता से एक उदार हृदय ग्राहक भेज देने की प्रार्थना करती है तो देवता को वह पूरी करनी ही चाहिए।"
"वह बेचारी लड़की रोती हुई गद्गद स्वर में यह वर माँग रही थी। मन-ही-मन मिन्नत करने का धैर्य भी उसमें नहीं था। वेदना की ज्वाला ने उस अभागिन को व्यथित कर दिया था। यह उसका दुर्भाग्य है कि वह बात मेरे और तुम्हारे कानों में पड़कर अब दिल्लगी बन गई है।"
मैं गंभीर हो उठा था। गौरी व्यंग्य करती हुई बोली, "शायद आपको देखकर ही उसने यह वर माँगा होगा।"
"बात वैसी ही होती तो तुम्हारे कान तक यह खबर कैसे आती?"
"वाह! आप इतने चालाक कब से बने। जनाब का दिल उदार तो जरूर है, पर हाथ बहुत तंग है, इसीलिए न यह खबर मेरे कानों में करुणा की वर्षा कर रही है।"
"बस करो भाई। क्या ऊलजलूल बक रही हो।"
गौरी झेंप गई। फिर पूछा, "कौन थी वह लड़की?"
"नाम-धाम मैं नहीं जानता। साँवली है। लंबे कद की। घुघराले बाल हैं और चेहरा उसका सुंदर है।"
"क्या साँवली और लंबी।"
"हाँ!"
"क्या उसके दाँत बाहर को निकले हुए हैं।"
"मैंने उसके दाँत नहीं देखे।"
"कौन औरत है, जो मेरे ध्यान में नहीं आती।"
"वह हमारी गली से होकर जाती है।"

दूसरे दिन वह लड़की अपनी माँ के साथ हमारी गली से जा रही थी। मैंने तुरंत गौरी को बुलाकर दिखाया। वह मुँह बिचकाकर बोली, "यह रानीजी हैं? क्या आप इसी कुलटा पर इतने पसीज गए।"

"तुम जानती हो इसे, कौन है?''
"जानना क्या है। मंदिर, तालाब, चौराहा, बाजार, सब जगह खड़ी रहती हैं। दिन नहीं, रात नहीं, समयकुसमय नहीं, छिह!
"यह सब रहने दो, आखिर यह है कौन?"
"भिंडी के माने भिंडी ही होती है। किस गाँव की, किस दुकान की, किस खेत की और किस बाग की, इन सब बातों की जरूरत क्या है?"
"भिंडी ही सही।"
"भिंडी नहीं रंडी है। इसका पुराना इतिहास मैं नहीं बता सकती। ऐसी बेकार और बेतुकी बातों को लिखलिखकर आपको रुपया बनाने की लत है। शीनू अय्यर के पास जाइए, उस गप्पी सरदार से सब बातें मालूम हो जाएँगी।"
मेरी पत्नी यह सलाह देती हुई मुँह मटकाकर अंदर चली गई। तीन-चार दिन के बाद मैं शीनू अय्यर की दुकान पर बैठा था। तभी धरमू और उसकी माँ दोनों कहीं जा रही थीं। मैंने उनकी ओर संकेत करके अय्यरजी से पूछा, "यह कौन है जी?"
"दक्षिणवाली गली में रहती हैं। कुछ विचित्र प्रकृति की हैं।"
“मतलब?"
"मैंने अपनी आँखों से नहीं देखा, फिर कैसे बताऊँ। हाँ, सुना है।"
"क्या सुना है?"
"लोग राई का पहाड़ बना देते हैं। मैं बिना जाँचे या देखे कुछ-का-कुछ कह देने का आदी नहीं हूँ, साहब।"
"अजी, आपने अब तक कहा ही क्या है, जो इस तरह हिचकते हैं।"
"कहूँ क्या, वही चालचलन की बात है।"
"कृपा कीजिए, मुझे इस तरह पहेली बुझाना नहीं आता।"

मेरी प्रार्थना सफल हुई। शीनू अय्यर ने कहना शुरू किया, "इस गाँव में मंतिरच्चम्मा नाम का एक व्यक्ति रहता था। पुरोहिताई उसका पेशा था। कुछ क्रोधी स्वभाव का था, पर था उपकारी। बात करने में ऐसा चतुर चेट्टियारजी उसकी सलाह को वेदवाक्य समझते थे। उसी की यह लड़की है धरमु और यह विधवा उसकी स्त्री है। मतिरच्चम्मा ज्योतिष विद्या में पारंगत था। त्रिकालज्ञ ऋषि-मुनियों की वाणी में कहीं भूल-चूक हो सकती है, परंतु मतिरच्चम्मा द्वारा की गई भविष्यवाणी अमोघ ही निकलती थी। झाड़-फूंक भी जानता था। परंतु उसका चाल-चलन बहुत अच्छा नहीं था। मनमौजी आदमी था। विरासत में जो कुछ जमीन उसे मिली थी, उसे उसने उड़ा दिया था। चालीस साल की उम्र होने पर उसे वातरोग ने आ घेरा और हमेशा के लिए खाट पर लिटा दिया। ऐसी अवस्था में वह सात वर्ष तक जिया। जो कुछ पैसा था, वह धरमु की शादी में खर्च हो गया था। गृहस्थी चलाना दूभर हो उठा। तब इस स्त्री ने पति के सामने ही यह धंधा शुरू कर दिया था। जब यह खबर धरमु के ससुराल पहुँची तो उसके पति ने उसको घर से निकाल दिया। माँ चरित्रहीन हो गई है तो इसमें बेटी का क्या दोष? उन दिनों यह लड़की अच्छी भली थी। परंतु माँ ने उसे बरबाद कर दिया। वह करती भी क्या? घर पर सात-आठ बच्चे हैं, बूढ़ी माँ है, सबका पेट कैसे भरे। दोनों होटल में पिसाई-सफाई का काम करके कुछ कमा लेती हैं। दिन भर की कड़ी मेहनत के बाद मुश्किल से एक रुपया मिलता है। अब एक रुपए में दस प्राणियों का पेट कैसे भरे। छिप-छिपाकर यह धंधा भी करना पड़ता है। देखिए साहब! मैंने अपनी आँखों से कुछ देखा तो नहीं है। बिना ठीक जाँचे या देखे कुछ-का-कुछ कहने की मेरी आदत नहीं।"

शीनू अय्यर ने इस प्रकार अपनी मोहर लगाकर बयान पूरा किया। व्यथा से मेरा दिल बोझिल हो उठा। मैं कह उठा, "बेचारे कैसी मुसीबत में हैं।"

शीनू अय्यर ने आवेश में आकर कहा, "मुसीबत जरूर है, मगर देखिए, जमीन-जायदादवाले बड़े लोगों के घरों में जो भ्रष्टाचार फैल रहा है, उससे इन बेचारियों का चाल-चलन कुछ बुरा नहीं है। आप भी जानते हैं न उस बड़ी हवेली की बात। सारा संसार जानता है। पर किसी में साहस नहीं है कि खुल्लमखुल्ला उसकी चर्चा करें। उनको पूछनेवाला कोई नहीं। धन सब पापों और बुराइयों का प्रायश्चित्त कर देता है। सबका मुँह बंद कर देता है। ऐसी निर्धन और अनाथ स्त्रियों के आचरण पर उँगली उठानेवाले सूरमा लोग बहुत मिल जाएँगे। कायदे-कानून सब इन जैसे गरीबों के लिए बने हैं।"

थोड़ी देर चुप रहने के बाद शीनू अय्यर फिर बोले, "जब मंतिरच्चम्मा जीवित था, तब उससे राशिफल पूछने के लिए दूर-दूर से लोग आया करते थे। बड़े-बड़े व्यापारियों और जमीदारों के यहाँ से बुलावे आते थे। उसके घर के सामने सदा मोटरें और घोड़ा गाड़ियां खड़ी रहती थीं। उसको धन—मान की कोई कमी नहीं थी। ऐसे व्यक्ति का दुर्भाग्य देखिए। जब से वह रोगशय्या पर पड़ा, तब से ऐसी कोई यातना शेष नहीं रही, जिसे वह भोग न चुका हो। बची-खुची कसर अब ये दोनों निकाल रही हैं। गाँववालों ने मिलकर उन्हें 'एक घरा' कर दिया है, मेल-मिलाप सब बंद है। खंडहर सा एक घर ही इनका अवशेष बचा है। बेचारी दोनों होटल में काम करती हैं।"

गप्पी शीनू अय्यर से मैंने इतनी दया-माया की अपेक्षा नहीं रखी थी। सचमुच इस करुण कथा में, जिसने अय्यर के मन को भी पिघला दिया है, सच्चाई होनी चाहिए। मेरी पत्नी और शीनू अय्यर की बातें सच ही थीं। मैंने भी कई बार उस लड़की को रात के समय सुनसान गली में घूमते हुए देखा है। कभी वह पुलिस के सिपाही के साथ बातें करती, कभी पान की दुकान के सामने खड़ी रहती और रात को मोटर शेड के पास छिपी हुई दिखाई देती।

ये सब बातें मैंने अपनी पत्नी से कहीं। नाक-भौंह सिकोड़कर वह बोली, "मान–प्रतिष्ठा की क्या बात है इसमें। औरत जात है। कितने दिन तक इसकी पूछ रहेगी। पहले कुछ दिन तक नए माल का आकर्षण रहता है। अब ऐसी हालत हो गई है कि इसे खुद आदमियों की तलाश करनी पड़ती है। नहीं तो इस तरह गलीगली फिरने और मंदिर, मोटरशेड, बाजार, चौराहे आदि पर खड़े रहने की क्या आवश्यकता। इसके बाद अब यही होगा, रोग, अस्पताल, भिखमंगी सराय में पनाह, और अंत में कुत्ते की मौत। कौन किसको रोक सकता है। अब तो माता दुर्गा की सन्निधि में आकर आदमी भिजवाने का वर माँगने की नौबत आ गई है। मुँहजली यह वर नहीं माँग सकती कि धन दो और कष्ट मिटा दो। छिह-छिह कलमुँही। देवता के सामने अच्छे उदार दिलवाले को भेजने का वर माँगने चली है।"

"वह काम करके रुपया कमाना चाहती थी। बिना कुछ किए—धरे अचानक धन वर्षा का वर माँगनेवाली निकम्मी मूर्ख जाति की वह नहीं है। उसका विश्वास है कि दुनिया को कुछ देने पर ही हमें भी कुछ-नकुछ मिलेगा, समझी?
"क्या समझी, यह भी कोई काम है?"

मुझे अपनी पत्नी की बुद्धिमत्ता पर बड़ा आश्चर्य है। घर पर रहकर ही वह दुनिया भर की खबर रखती है। विश्लेषण, अनुशीलन की ऐसी अद्भुत शक्ति उसमें कैसे आई? नारी की यह कैसी सहज सर्वग्राही 'मेधा है। 'इसके बाद यही होगा', गौरी की उस घृणा से भरी उक्ति की गहराई अब मेरी समझ में आई। परंतु मैंने कभी यह नहीं सोचा था कि उस बेचारी धरम का जीवन इतनी तेजी से समाप्त हो जाएगा। भोजन करने के बाद मैंने गौरी से पूछा, "कैसी बीमारी थी उसको।"

"यह भी कोई बात है। उसके पैर भारी थे। तीसरा महीना था।" तुरंत परसों मंदिर में देखी धरमु की सूरत मेरी आँखों में उभर उठी। उस मुरझाई हुई दशा में उसके शरीर की वह अजीब चमक मातृत्व की ही निशानी हो सकती थी। पेट में पलनेवाला जीव ही जननी की देह को ऐसी आभा दे सकता है। वह आभा अब अग्नि की ज्वाला की तरह मुझे जलाने लगी। गौरी बोली, "उसकी माँ डॉक्टर के पास गई तो उस बदमाश ने पचास रुपए माँगे। आखिर घर के द्वार बंद करके माँ ने बेटी का इलाज करना शुरू किया। असह्य पीड़ा से वह जोर -जोर से रोने-बिलखने लगी। माँ जबरदस्ती उसका मुँह बंद करके इलाज करती रही। कुछ ही क्षणों में वह बेचारी छटपटाकर मर गई। हमारी कुंजड़िन बता रही थी कि माँ ने काँच पीसकर और पानी में घोलकर बेटी को पिला दिया। बेचारी घंटों तक चिल्ला-चिल्लाकर रोती रही—'माँ, पेट का दर्द सहा नहीं जाता।' पर उस राक्षसी ने उसके मुँह में कपड़ा लूंस दिया। बस बेचारी की श्वास-गति बंद हो गई। वह छटपटाकर मर गई।"

यह सुनते ही मेरा सिर चकराने लगा। गौरी बच्चों की तरह बिलख-बिलखकर रोने लगी। रोते-रोते वह बोली, "वह लड़की रोज देवी को तेल लगाया करती थी। कम-से-कम उस सेवा पर दया दिखाने से उस देवी की क्या क्षति हो जाती, जो इतने बड़े मंदिर में विराज रही है। जब वेदना की सीमा हो चुकी, तभी जाकर वह बेचारी दुर्गा माता के सामने रोई थी। एक अनाथ लड़की के आँसुओं से भी एक देवी का हृदय नहीं पिघला। वह कैसी भी रही हो, उसकी वेदना कितनी करुण थी।"

गौरी आगे नहीं बोल सकी। सिसकती हुई अंदर चली गई। मंदिर के बगल में ही देवस्थान के अधिकारी का घर था। मैंने वहाँ जाकर उनका दरवाजा खटखटाया। अंदर से आवाज आई, "कौन है?"
"जी, मैं हूँ।"
उन्होंने दरवाजा खोला, मुझे देखकर बोले, "ओह! आप हैं। आइए, आइए, इधर कैसे भूल पड़े?"
"मैंने सुना है कि मंदिर में आज पूजा नहीं हुई।"
"जी हाँ, दक्षिण की ओरवाली गली में एक मौत हो गई है।"
"मुझे अभी मालूम हुआ है। उसी के बारे में आपसे मिलने आया हूँ।"
"क्या बात है?"
"आपने गोपुर का दीप नहीं जलाया। सारी गली अँधेरे में डूबी हुई है। आजकल गाँव में चोरों का बहुत डर है। इसलिए...।"
"आज एक दिन ऐसे ही रहने दीजिए।" इस उत्तर से मुझे आश्चर्य हुआ। मैं चुप बैठा रहा। पाँच मिनट बीत गए, तब वे बोले, "शायद आप सोचते हैं कि मैं ऐसा क्यों कह रहा हूँ। मैं इस मौत के लिए शोक मनाना चाहता हूँ। आप जानते हैं, मौत किसकी हुई है?"
"जानता हूँ। बड़ी दयनीय है।"

"आपने भी अकसर देखा होगा कि वह लड़की रोज मंदिर आया करती थी। मानता हूँ कि वह बदचलन थी। उसका परिवार भ्रष्ट है। पर मर जाने के बाद शव उठाने के लिए गाँव का एक भी व्यक्ति नहीं आया। क्या इस गली में आदमी रहते हैं? कैसा अन्याय है? कहीं एक कौवा मर जाता है तो झुंड-के-झुंड कौवे काँवकाँव करक हलला मचा देते हैं। दोपहर तीन बजे उसकी मौत हुई थी। लेकिन अब तक एक भी आदमी उस ओर नहीं गया। उस घर में सिर्फ औरतें हैं। शेष सब बाल-बच्चे हैं। उनके पास जाकर मदद करने से कौन बड़ी हानि हो जाएगी। अनाथ परिवार है, भूख से पीड़ित है, भ्रष्ट हो गया तो क्या हुआ। यह कैसा अंधेर है। ऐसे जानवर मैंने कहीं नहीं देखे। मैं भी चार-पाँच जगह रहकर इधर आया हूँ।"

उनके होंठ काँप रहे थे। आँखों से अविरल अश्रुधारा बह रही थी। थोड़ी देर तक वे बोल नहीं सके।

एक लंबी साँस छोड़कर उन्होंने मानो अपनी व्यथा हलकी की हो। बोले, "आप ही बताइए, आज देवी यह दोष मानेगी? नहीं, नहीं मानेगी। तब ऐसे गाँव के लिए प्रकाश की क्या आवश्यकता? कितना ही प्रकाश करें, हमारे अंतर का अंधकार दूर होनेवाला नहीं है। बताइए, आज ऐसे ही रहने में क्या हर्ज है?"

उनके अंतर की व्यथा उनके मुख पर स्पष्ट झलक आई थी। उन्होंने फिर कहा, "मंदिर में पूजा कैसे होगी? अभी तक मुर्दा उठाने का कोई प्रबंध नहीं हुआ है। उठाने कौन जाएगा? कहा जाता है कि गाँव का यह नियम है, उसकी इज्जत का सवाल है। बिजली गिरे ऐसे गाँव पर।"

मैं अब भी मौन बैठा रहा। वे ही कुछ शांत होकर बोले, "दस बजे तक देगा। तब भी इन लोगों ने कोई व्यवस्था नहीं की तो मैं स्वयं जाकर अरथी उठाने का प्रबंध कर दूंगा। मंदिर के 'नायनक्कार' (बाजा बजानेवाला) ने दो आदमी लाने का वायदा किया है। फिर हम चार लोग शव को ले जाकर दाह क्रिया कर देंगे। हम और क्या कर सकते हैं। मंदिर का द्वार कब तक बंद रहेगा।"

मैंने कहा, "आप कहेंगे तो मैं भी साथ चलूँगा।"
"आप चलेंगे। नहीं, नहीं, भले आदमी की तरह घर पर ही रहिए। बड़े संकट का काम है। अकेला व्यक्ति इस संकट से नहीं जूझ सकता।"
"नरक में जाए यह गाँव और उसका नियम। पेट पालने के लिए और स्थान हैं, मैं आपके साथ चलूँगा।"
मैंने कह तो दिया, पर मेरा हृदय अंदर-ही-अंदर धड़क रहा था। उन्होंने कहा, "नहीं साहब, आप मेरे कारण यह झंझट मोल न लें। मैं बुरा न मानूँगा। हाँ, यदि सचमुच साहस है तो आइए। नहीं है तो..."
"मैं दूसरों की परवाह क्यों करूँगा?"
"तब ठीक है, आपकी इच्छा। मगर आज गोपुर का दीप नहीं जलेगा। यदि मैं जलाऊँ तो मेरी आँखें फूट जाएँगी। उस देवी दुर्गा और बेचारी लड़की का राशिफल ऐसा ही है। आज यह लोकमाता दीप नहीं चाहेगी। मैं कहे देता हूँ, आज गोपुर का दीप नहीं जलेगा।"
"ठीक है।" मैंने उनका समर्थन किया।

वे देवस्थान के अधिकारी की घरवाली से दरवाजा बंद करने को कहकर बाहर आए। हम दोनों उस अँधेरी गली से धीरे-धीरे चलकर पूरब की रोशनीवाली गली में आ पहुँचे।