गोपुर (कहानी) : बलिवाड़ा कांताराव

Gopur (Telugu Story in Hindi) : Balivada Kanta Rao

पहली बार जब मैंने अमरीका की धरती पर पैर रखा तब वहाँ की परंपरा के अनुसार कुछ लोगों ने मुझे गुलाब दिए और कुछ लोग फूल और मिठाइयाँ लाए। और कुछ निमंत्रण पत्र पाए। कुछ कंठों ने टेलीफोन द्वारा स्वागत किया जिन्हें मैंने पहले कभी नहीं सुना था। उनमें से एक ऐसा कंठ था जिसे मैं भूल नहीं सकता। स्वच्छ 'तेलुगु' भाषा में बड़े संक्षेप में कहे गए स्वागत वचन थे। वह कंठस्वर एक युवती का था और उसने छह सौ मील दूर से विशेष रूप से टेलीफोन पर बात की थी।

'जटलाक' से मुक्त होने के बाद मैं उसके बारे में सोचने लगा। वह कौन है। उसका भेष कैसा है? क्या मैं उसके असली स्वरूप को जान सकूँगा या नहीं? मेरा लड़का उसका पीछा तो नहीं कर रहा है? जब मेरी शंका ने मुझे अशांत कर दिया तो मैंने उसके बारे में अपने आपसे पूछा। “वसुंधरा अपने रिश्तेदारों को देखने के लिए न्यू जर्सी गई थी। वहीं से फोन किया होगा। हफ्ते में लौट आएगी। यहाँ डिनर के लिए उसका ही पहला निमंत्रण है।" मेरे लड़के ने कहा।

"उसकी क्या उम्र होगी? वह क्या करती है? असल में उसका कौन-सा गाँव है?"

“आप उसके यहाँ डिनर के लिए चलेंगे न? क्या आप उसके बारे में बिलकुल नहीं जानते? मैं बहुत कम जानता हूँ। अगर आप भी जान लेंगे तो बहुत अच्छा होगा। तनखा तुम्हारी कितनी है? तुम क्या करती हो? ऐसे पूछेगे तो इसे यहाँ के लोग गलत समझते हैं। अगर आप अपनी राय उस पर मढ़ने का प्रयत्न नहीं करेंगे तो वह दिल खोलकर शायद आपको उत्तर दे सकेगी।"

वसुंधरा से मिलने का दिन आ ही गया। अप्रैल महीने का वह अंतिम दिन था। लड़के के युनीवर्सिटी से लौटने के बाद हम रवाना हुए। रात के आठ बजने के बाद भी अभी रोशनी है। कारपार्क में गाड़ी पार्क करने के बाद हम उतर गए। उस चौराहे पर कई दो मंजिलोंवाले घर हैं। उनमें एक घर के दूसरी मंजिल पर वह रहती है। वह लकड़ी का बना हुआ है। सीढ़ियों भी लकड़ी की बनी हुई हैं। हमारे ऊपर जाने पर उसने नमस्कार करते हुए हमारा स्वागत किया।

उस घर के अत्याधुनिक रीति से अलंकृत होने के बावजूद उसमें भारतीय कलाकारिता के प्रतीक कुछ मूर्तियाँ सजी हुई हैं। मैं बालकनी में खड़े होकर घर के पिछवाड़े की ओर देख रहा था। हरे-भरे घास के परदों में रंग-बिरंगे फूलों के पौधे कतारों में दिखाई दे रहे थे। बीच के पेड़ नारंगी रंग के फूलों से आच्छादित हैं। वह जरीदार बार्डरवाली हरी साड़ी पहने हुई थी। आँखों पर चश्मे को छोड़कर उसके शरीर पर और कोई आभूषण नहीं था। उँगली में अंगूठी तक नहीं थी। उसके हाथों की पेशियाँ ढीली होकर हिल रही थीं। अकेली है न! क्या उसकी शादी नहीं हुई या उसने तलाक ले लिया? क्या उसका पति किसी और जगह काम कर रहा है? फिर बच्चे। मेरे मन में उठे हुए इन प्रश्नों का प्रयोग मैंने उस पर नहीं किया। मुझे वह ऐसी लग रही थी मानो किसी और की राह देखनेवाली मासूम बच्ची हो। बैंगन, साग, रस्सेदार, आम का अचार और पापड़ के साथ-साथ शहद सनी फलों का सलाद-इनके साथ मैंने बढ़िया खाना खाया। घर लौटने पर भी उसकी आकृति को छोड़कर मैं उसके बारे में और कुछ जान नहीं पाया। लौटते समय मैंने अपने बेटे से पूछा, “उसने हमें इतने प्यार से बुलाया और खिलाया है। क्या तुमने उसकी कोई सहायता की?"

“दूसरों की सहायता करना, यहाँ हमारी आदत बन गई है। अगर आप इसे सहायता ही समझें तो मैंने एक काम किया है।"

वह कौन-सा काम है?

"वह नई कार खरीद नहीं सकती। एक अच्छी-सी पुरानी कार का चयन मैंने उसके लिए किया है।"

वह मेरे प्रति इतनी श्रद्धा एवं आदर क्यों दिखाती है?"

“अगर आप कारण जानना चाहते हैं तो आप यहाँ रहते समय ही जानने की चेष्टा कीजिए।" मेरे बेटे ने कहा। फिर बात वहीं पर अटक गई। क्या यह उफनती सरिता है या आकाश की ओर उछलती लहर है?

फिर हमारी पहली यात्रा शुरू हुई। गौंड़ केरियन ऐसा प्रदेश है जिसे अमरीका में जन्म लेनेवाला हर व्यक्ति अपनी ज़िंदगी में कम-से-कम एक बार देखना चाहता है। यह जानकर कि हम वहाँ जा रहे हैं, वसुंधरा भी, हमारे साथ जाने के लिए तैयार हुई। हम हवाई जहाज से लास वेगास पहुंच गए। वहाँ हमने एक नई कार भाड़े पर ले ली और उसे हमारा लड़का ही चलाने लगा। उस रात को हम किंगमान शहर के एक 'मोटल' में रहकर दूसरे दिन सवेरे ही रवाना हुए। रास्ते में 'एरिजोना' का रेगिस्तान आया, जहाँ बालू के पहाड़ों को हटाकर सड़कें बनाई गई हैं। सड़क के दोनों ओर झाड़ों को देखते-देखते जब मैं ऊब गया तो ऊपर को देखने लगा तब मुझे उभरे हुए पाइन पेड़ कहीं-कहीं दिखाई देने लगे। ये पेड़ धीरे-धीरे घने होकर जंगल में बदलकर ग्रांड केनियन तक फैल गए है। • पहाड़ों का ऊपरी भाग वर्फ से ढका हुआ है। ग्रांड केनियन के प्रमुख द्वार को पार कर पहली 'व्यूपाइंट' पर मैंने पैर रखा। झाड़ों के बीच के इस प्रदेश पर मैं खड़ा हो गया। सामने प्रकृति से मढ़े हुए विचित्र वणोंवाली अद्भुत कलाकृति को देखकर अवाक होकर मैं वहीं पर बैठ गया। करोड़ों सालों से बही हुई हवा, बरसी हुई बर्फ और बारिश ने पहाड़ों की चूने की पत्थर को और जमी हुई रेत से बनी चट्टानों को रगड़कर अद्भुतप्रतिमाओं के रूप में खड़ा कर दिया है। मैं अपनी कल्पना में इस प्रदेश में कभी बसे हुए आदिवासियों की गुफाओं में पहुँच गया। उनके द्वारा जानवरों का शिकार करना और पत्तों को पोशाक के रूप में पहनना मैं देख रहा था। बाद में मुझे यह भी भ्रम हुआ कि छोटी बस्तियों को बनानेवाले हुब्लो जातिवालों की मिट्टी के बर्तनों से रसोई बनाते समय धुएँ की आँच मुझे ही लग रही है। मुझे लगा मानो सौ साल पहले घोड़ों पर सवार होकर उस प्रदेश को पार करनेवाले गोरे दिखाई दे रहे हों। अपने लड़के के हाथ से टोककर मुझे जगाने तक मैं अतीत में ही खोया हुआ था। मेरी बगल में वसुंधरा नहीं थी। ऐसे मनोहर दृश्य से उसने कैसे मुँह मोड़ लिया? यहाँ प्रकृति अपना विश्वरूप का प्रदर्शन कर रही है तो उसे देखकर उसकी आत्मा क्यों नहीं जाग उठी? धूप के बावजूद दुपहर के दो बजे तक थोड़ी सी महसूस हुई। सड़क की दूसरी ओर चलकर युवपाय व्यू पाइंट तक हम पहुँच गए। सामने कोई अड़चन नहीं, आँखों के सामने शालीन ग्रांड केनियन दिखाई दे रहा था। वहाँ से मैं बाइनाक्युलर से देखने लगा। दूर की प्रतिमाओं की आकृतियाँ सामने ही दिखाई देने लगी। बादल बिखरकर उड़नेवाले रुई के टैरों की तरह दिखाई दे रहे थे। उनके ऊपर उड़कर बादलों की ओर से देखने पर व्योम से धरा को देखने जैसा लगता है न! मेरी कल्पना को सच बनाते हुए उन बादलों में से वायुयान उड़ने लगा। मैं इधर-उधर देखने लगा। हमारे लोग मेरे इर्द-गिर्द नहीं है। मैं वहाँ से निकलकर म्यूजियम के पास गया तो वसुंधरा दिखाई पड़ी। मेरे पूछने पर उसने बताया हमारे लोग कच्ची सड़क पार करके नीचे उतर गए हैं। उनके लौटने में थोड़ा समय लगेगा। यह सोचकर कि वसुंधरा के बारे में जानने के लिए इससे अच्छा अवसर नहीं मिलेगा, मैं उस चट्टान के दूसरे कोने पर बैठ गया। वह जिधर देख रही थी उधर देखते हुए मैंने पूछा-"आप उधर देखिए, वहाँ ऊपर उठा हुआ पहाड़ क्या आपको दिखाई दे रहा है?"

“मैं अब तक उसी की ओर तो देख रही थी। वह श्रीरंगम के मंदिर का गोपुर-सा लग रहा है न।"

वह बिना कुछ बोले उधर ही देख रही थी। मुझमें मधुरानभूति उमड़ रही थी। मैंने कहा था, "इस गोपुर के मनुष्यों ने बनाया है तो उस गोपुर को प्रकृति ने।"

मुझे तो यह द्राक्षाराम के भीमेश्वर मंदिर का गोपुर-सा लग रहा है।" उसने कहा।

"तुम क्यों सोच रही हो कि यह शिव मंदिर का गोपुर है?" उसने मौन होकर अपने हाथ के गाइड में छपे हए चित्र को दिखाते हुए कहा, "हम इसी गोपुर को देख रहे हैं। आप पढ़िए कि यहाँ क्या लिखा हुआ है।"

अंग्रेजी में लिखे हुए 'शिवा टेंपुल' को पढ़कर मैंने कहा, “बढ़िया है। इन लोगों ने भी हमारे मंदिरों के जैसा नामकरण किया है।" कुछ क्षणों तक सन्नाटा छा गया। फिर मैंने पूछा, “क्या मैं एक बात पूछ सकता हूँ?"

"पूछिए।"

"इतने सुंदर स्थान को देखकर आप क्यों फूली नहीं समाई।"

"इसलिए कि मैंने इससे भी बढ़कर सुंदर स्थानों को देखा है।"

“एक स्थान बताइए।"

"बारिश के दिनों में रामचंद्रपुरम से नहर की बगल की सड़क से आप धवलेश्वरम् गए होंगे। उस नहर में पाल उठाकर चलनेवाली नावें, वह हरियाली, फूलों की लड़ियाँ, मल्लाहों के गीत, वह नारियल का मीठा पानी, कडियम् के अमरूद और राजमहेंद्र का सीताफल, ये सभी जहाँ हैं क्या वह धरा पर स्वर्ग नहीं?"

"मैं भी रामचंद्रपुरम् का रहनेवाला हूँ।" “मैं आपके साथ इसीलिए आई हूँ कि आप भी हमारे गाँव के हैं।"

"आपके माँ-बाप वहीं रहते हैं न, किस गली में?"

"वह तो बहुत बड़ी कहानी है।"

उसने लंबी साँस लेकर कहा।

"मुझसे वह कहानी कहने में शायद आपको कोई आपत्ति नहीं होगी। आप कहना चाहती हैं तो कहिए।" बात कहने के लिए उसने थोड़ा समय लिया। बातें भी मेरी ओर देखते हुए नहीं कहीं। वह दूसरी ओर मुँह फिराकर धीरे से बोलने लगी जिससे उसके मुँह की भंगिमाएँ मेरी आँखों से ओझल रहे।

“मेरे पिताजी रामचंद्रपुरम् के हाईस्कूल में अध्यापक के तौर पर काम करते थे। मेरा बचपन वहीं बीता और मुझे हाईस्कूल की शिक्षा भी वहीं पर मिली। मेरे दो भाई और एक बहिन थे। मेरे पिताजी ने अपने पूर्वजों की जमीन को बेचकर और वह भी पर्याप्त न होने के कारण घर को भी गिरवी रखकर लड़कों को हैदराबाद में पढ़ाया। उन्होंने सोचा कि ज़िंदगी में शिक्षा ही सबसे प्रमुख है और विद्यादान से बढ़कर कोई दान नहीं है। मेरे बड़े भाइयों की शादी बड़ी आसानी से हो गई। मेरे पिताजी ने दहेज न लेने का व्रत लिया था। पैसे के अभाव में हम दो लड़कियों का विवाह नहीं कर पाए। मुश्किल से परिवार को ही चला सकते थे। मुझे और बड़ी बहन को नौकरी मिलना उतना आसान नहीं था। अवकाश के बाद पिताजी हैदराबाद में रहनेवाले मेरे भाई के यहाँ आकर बस गए। तब तक मेरे सबसे बड़े भाई पढ़ाई के लिए अमरीका आकर यहीं बस गए। उसके बाद उन्होंने मेरे दूसरे भाई, मेरी बड़ी बहिन को और मुझे अमेरिका बुलाया। तब मेरे माँ बाप वहाँ क्या करते। उन्होंने रामचंद्रपुरम् में हमारा जो घर है उसे भी बेच दिया। अब मेरे लिए वहाँ कौन हैं जिन्हें देखने के लिए मैं अपने देश जाऊँ?" रुक-रुककर वह अपने बारे में जो विवरण दे रही थी उसको सुनने के बाद मैं अपने आप में सोचने लगा। हमारे देश में मध्यवर्ग की जीवन-पद्धति में लड़कियों पर लगाए गए सभी बंधनों की याद मुझे आ गई। जन्म से लेकर मरने तक लड़की को किसी न किसी पुरुष पर निर्भर रहना पड़ता है। अब तो पढ़ा हुआ दूल्हा भी दुल्हन से क्या अपेक्षा करता है?

लड़की गोरी होनी चाहिए।
सुंदर होनी चाहिए।
पढ़ीलिखी होनी चाहिए।
नौकरी करती होनी चाहिए।
ज्यादा दहेज लानेवाली होनी चाहिए।

इन सारी इच्छाओं के साथ आए हुए कितनों के सामने यह सर झुकाकर बैठी है? इनमें से किसी एक के कम होने पर समझौता न करनेवाले संस्कार-विहीन तिरस्कार बाणों से किए गए घावों की पीड़ा को, पता नहीं कितनी बार झेल चुकी है। इतनी सुधी और नम्र एक सुंदर युवती के शारीरिक सुख और माता बनने की आकांक्षा की बलि देनेवाली अपनी व्यवस्था पर क्रोधित होकर मैंने कहा, “मैंने यहाँ देखा है कि करोड़पति की बेटी भी यह कहती है, 'मैं स्वयं कमाकर पढूंगी और मैं जिसे चाहती हूँ उसी से शादी कर लूँगी'।"

"कम से कम इस देश में आने के बाद भी आपने किसी को चुनकर उससे शादी क्यों नहीं की?"

"इस उम्र में शादी? अब शादी मझे कौन-सा सुख देगी!"

हिचकते हुए मैंने कहा, “आप सुखी तो बिल्कुल नहीं लगती।"

"सुख के लिए मार्गों की कोई कमी नहीं।"

"एक मार्ग बताइए।"

"असफल आकांक्षाओं की स्मृति में क्या आनंद नहीं है?"

"मैंने जान लिया कि आपकी कोई आकांक्षा है। क्या उसे बता सकती हैं? जानने की यों ही उत्सुकता से पूछ रहा हूँ।" वह मौन रह गई। कहने में वह संकोच कर रही थी। इतने में नीचे उतरे हुए सभी लोग आ गए। सूर्यास्त को देखने के लिए हम चल पड़े। 'डिजर्ट व्यू' नामक स्थान देखने गए। वहाँ एक 'वाच टवर' थी। उसे बड़ी सादगी से पत्थरों को जोड़कर बनाया गया था जिससे वह भी पहाड़ों से हिल-मिल गई है। उसकी दीवारों पर आदिवासी गुफाओं में खींचे गए चित्रों के नमूने अंकित किए गए हैं।

हमारे लौटते समय तक पहाड़ों के ऊपरी भाग, सफेद और नारंगी रंगों से चमक रहे थे। वसुंधरा एक पेड़ के नीचे की चट्टान पर बैठी थी। मैं भी उसी किनारे पर जाकर नीचे नहर जैसी दिखाई देनेवाली कोलराडो नदी की ओर देख रहा था। सामने बाईं ओर पश्चिमी दिशा में सूरज शीघ्र ही डूबने वाला था। ठंडी हवा जोर से बहले लगी थी। धीरे-धीरे पहाड़ी की तलहटी में अंधेरा छाने लगा। चिड़ियाँ कलरव करते हुए पेड़ों की ओर आने लगीं। पहाड़ के किनारे सूरज राहुग्रस्त-सा एक ही बार में गायब हो गया। लौटने के समय के लिए कुछ क्षण बाकी रह गए। मैंने अनुनयपूर्वक पूछा “क्या आप अपनी आकांक्षा नहीं बताएँगी?"

पश्चिम की ओर देखती हुई उसने कहा, “सूरज डूब गया। फिर उगेगा। डूबने के बाद मैं उग नहीं सकती। मेरी आकांक्षा है कि मेरी अस्थियों का निमज्जन गोदावरी में होना चाहिए। इसके लिए आवश्यक रकम और वसीयत, मैंने पहले ही एक स्थान पर रख दी है।"

मैं उसकी ओर मुड़ा। वसुंधरा के बदले मेरी आँखों को मंदिर का गोपूर दिखाई पड़ा।