फायदे का सौदा (कहानी) : मोक्कपाटि नरसिंह शास्त्री

Fayde Ka Sauda (Telugu Story in Hindi) : Mokkapati Narasimha Sastry

हम चारों आदमी रोज की भाँति होटल में बिल चुकाकर पान चबाते और सिगरेट सुलगाते हुए क्लब में पहुँचे। वहाँ की दक्षिण दिशा के दालान में चार बढ़ियाँ कुरसियाँ मँगवाकर हमने आपस में चर्चा करनी शुरू की। यह हमारा प्रति दिन का कार्यक्रम है। हम सब बेकार और देशोद्धारक हैं। इसलिए सबसे पहले हम लोग प्रति दिन क्लब में हाजिरी देते थे। सबसे पहले वहाँ पहँच जाते थे। सबसे पहले पहँच जाने का लाभ यह होता था कि बढ़ियाँ कुरसियाँ मँगवाकर हवादार स्थान में बैठकर वार्तालाप करने की सुविधा मिल जाती थी। बाद में आनेवाले भद्रपुरुष वकील, मुंसिफ इत्यादि लोगों को हमारी यह सुविधा बहुत खटकती थी। लेकिन वे हमारा क्या कर सकते थे? हम भी तो क्लब के मेंबर थे। चंदा तो समय पर वे भी नहीं देते और हम भी नहीं देते। ऐसी हालत में वे किस बात में हमसे बड़े हैं। इन कुरसियों के लिए बेचारे समय से पहले अदालत छोड़कर आ नहीं सकते थे। इसलिए उन लोगों ने देरी से क्लब खुलवाने का प्रयत्न किया। लेकिन कुछ बुद्धिमान लोगों ने उनके प्रयत्न को विफल बना दिया। क्योंकि ताश खेलने तथा बिलियर्ड्स खेलने के हेतु कुछ उत्साही युवकों ने क्लब में ही रहना शुरू कर दिया। उनके वास्ते देर तक क्लब खोले न रखें तो आमदनी कम हो जाएगी। जो भी हो, पैसे का मामला जो ठहरा।

हमारे क्लब में संन्यासी राजू एक मेंबर हैं। वह एक बहुत बड़े पॉलिटीसियन यानी देवांतक हैं। वह किसलिए देवांतक हैं, किस में देवांतक हैं, इसका निर्णय नहीं हुआ, पर देवांतक नामक ख्याति उन्हें प्राप्त हो गई है। वे सदा साफ-सुथरी पोशाक पहनकर क्लब में उपस्थित होते थे। इनसे संबंधित कहने व सुनने योग्य अनेक कथाएँ हैं। उन सब कथाओं को नहीं, बल्कि यहाँ तो एक ही विशेषता कहूँगा। उनकी मूंछे एक विशेष प्रकार की हैं। मूंछवाले तो कभी मिलेंगे। लेकिन उनकी मूंछे कुछ विचित्र प्रकार की हैं। इनकी शैली ही अलग है और घनी भी अधिक हैं। उसे एक किस्म की कलात्मक कारीगरी कहूँ तो विश्वास कीजिए, मैं समझता हूँ कि उन मूंछों के कारण ही उन्हें देवांतक नामक यश या अपयश प्राप्त हुआ है। जो भी हो, राजमहेंद्री के आचारीजी की जुल्फें और संन्यासी राजू की मूंछों से अपरिचित लोग आसपास के तीन-चार जिलों में नहीं हैं।

संन्यासी राजू की मूंछे देखने में कुछ गंभीरता—द्योतक और आदर-सूचक होने पर भी स्वभाव से वे कुछ खुलासा प्रकृति के ही हैं। वार्तालाप के समय हम में मिल जाते थे। हम सब के मन में उनके और उनकी मूंछों के विषय में आदर-भाव है। लेकिन कभी-कभी कुछ संदर्भो में उनकी मूंछों को देख हम जलते थे। उसका कारण हम स्वयं नहीं जानते। हम सबने कभी यह नहीं सोचा कि किसी बहाने उन मूंछों को निकलवा लेंगे तो कितना अच्छा होगा, पर कभी-कभी ऐसा लगता कि उन्हें निकलवाने पर उस व्यक्ति की हालत क्या होगी? न जाने क्यों कभी-कभी हमारे मन में ऐसी अकारण की कामनाएँ क्यों पैदा होती रहती थीं। आप लोगों की बात मैं नहीं कह सकता, किंतु हम लोगों की आपस की बात समझें। मुझमें कभी-कभी ऐसी कल्पनाएँ उठती रहती हैं कि टैगोरजी की दाढी और जल्फें न होतीं तो कैसा होता? उस्मान साहब के तोंद न होती तो क्या इतना बड़ा आदमी हुआ होता? इस प्रकार के कई विचार मेरे मस्तिक में पैदा होते रहते हैं। खैर!

उस दिन भी हमेशा की ही तरह हम क्लब में पहुँचे-गपशप चलने लगी। इधर-उधर की बातें चल रही थीं। हमारे चारों तरफ कई लोग इकट्ठे हो गए। हम अपनी बातों में इतने तन्मय थे कि हमें पता ही न चल पाया। कुछ देर राजनीतिक स्थिति पर वाद-विवाद होता रहा। इसके बाद वाणिज्य और व्यापार पर चर्चा चलने लगी।

चर्चा क्रमशः गंभीर होती गई। विदेशी विनिमय मुद्रा के संबंध में, Stock Market पर हमारे विशेषज्ञों (Specialists) ने बहस की। इसके उपरांत सोने और अनाज की दरों पर चर्चा होती रही। उस समय तक संन्यासी राजू भी आ गए थे। एक बार अपने दोनों हाथों से क्रॉफ सँभाला और दूसरे ही क्षण दोनों हथेलियों से मूंछों पर ताव दिया तथा एक कुरसी पर आराम से बैठ गए। इतने में सुब्ब्य्या बोल उठे—“आजकल भाव में उतार-चढ़ाव भले ही हो, पर व्यापार में जो फायदा है, वह किसी में नहीं है।" उनके कहने के ढंग से ऐसा लग रहा था, मानो इस सत्य की उसने ही पहले-पहल खोज की हो। यह व्यक्ति देखने में मूर्ख की तरह लगता है और बीच-बीच में इस प्रकार के महत्त्वपूर्ण विषय सूत्र रूप में प्रकट कर कुछ समय तक मौन मुद्रा धारण कर लेता है।

रामराव ने जोर से चिल्लाकर कहना शुरू किया—“सुनिए, सुनिए!" उसकी समझ में सभा में शोर, यह बहुत बड़ी मजाक थी। वेंकटराव ने गंभीर होकर कहा, “आपका कहना ठीक है, लेकिन यह एक बड़ा कठिन कार्य है। कितनी पूँजी चाहिए। कितनी मेहनत करनी पड़ेगी। व्यापार के माने हँसी-मजाक थोड़े ही है!" इस आदमी का स्वभाव ही कुछ ऐसा है। "दाल में कुछ नमक ज्यादा है", यह कहना हो तो चेंबरलेन जैसी गंभीर धारणा कैसे कहता है। एक सेवानिवृत्त अफसर ने कहा, "जो भी हो, प्रत्येक व्यक्ति को नौकरी की खोज करना छोड़कर अब व्यापार में ही लग जाना चाहिए।"

एक व्यक्ति ने कहा, "सब कोई पालकी पर चढ़े तो ढोनेवाला कौन हो? यदि सभी बेचनेवाले बन जाएँगे तो खरीदनेवाला कौन बचा रहेगा?"

एक उत्साही युवक ने कहा, "सभी थोड़े ही चावल और कपड़े बेचनेवाले बनेंगे; व्यापार तो अनेक प्रकार के होते हैं। हर आदमी एक ही प्रकार का व्यापार थोडे ही करेगा।"

इस पर एक समाजवादी ने कहा, "ये सब कहने की बातें हैं। गरीब व्यक्ति व्यापार कर ही कैसे सकेगा? यह सब धनिकों के लिए ही संभव है।"

कांग्रेसी वक्ता महोदय बोल उठे-"क्या कहा? व्यापार करने की इच्छा रखनेवाला क्या-क्या नहीं बेच सकता है? जिस व्यापार में लाभ दिखाई दे, वही व्यापार किया जा सकता है। फिर चाहे वह भला हो या बुरा। मिट्टी बेचकर लाभ कमाया जा सकता है। यहाँ तक कि बालों को बेचकर भी व्यापारी फायदा उठा सकते हैं।"

संन्यासी राजू ने हँसते और मूंछों पर ताव देते हुए कहा, "बालों का व्यापार बालाजी (वेंकटेश्वरस्वामी) के लिए ही संभव है। वह सबके लिए कहाँ संभव है?" कभी वादोपवादों में भाग न लेनेवाले संन्यासी राजू को बोलते देख सभी गंभीर मुखमुद्रा में चुप हो गए। अकस्मात् हवा ठंडी-सी जान पड़ी।

शास्त्रीजी ने कहा, "बाल बेचने के लिए भगवान् बालाजी की ही जरूरत नहीं है। यह काम तो कोई मूर्ख भी कर सकता है।" शास्त्रीजी की बातों के फलस्वरूप वातावरण एकदम ही बदल गया। संन्यासी राजू ने शास्त्रीजी के कथन का खंडन करते हुए कहा, "आप कैसी विचित्र बात बता रहे हैं? तब तो हर एक नाई यह व्यापार कर सकता है।"

शास्त्रीजी ने कहा, "मेरा विश्वास है कि उसके लिए नाई की भी जरूरत नहीं। यह व्यापार तो हर व्यक्ति कर सकता है।"

मूंछों पर वैसे ही हाथ रखे हुए संन्यासी राजू ने कहा, "बाल तो प्रत्येक व्यक्ति के पास हैं। हर कोई उन्हें बेचना चाहे तो खरीदनेवाला कौन होगा?"

शास्त्रीजी ने शांतचित्त होकर कहा, "हाँ, आपने जो कहा, वह ठीक है! मैं भी जल्दबाजी में अधिक व्यापक कह गया। लेकिन इस बात को आपको अवश्य मानना पड़ेगा कि प्रत्येक वस्तु की समय पर आवश्यकता और उसका अप्रत्याशित मूल्य भी होता है। प्रत्येक वस्तु को अवसर देखकर बेचना होता है; तब लाभ अवश्य होता है और यही व्यापार का लक्षण है।"

तो...

वार्तालाप का रंग बदलते देख हम सब सिगरेट का धुआँ छोड़ते हुए चुपचाप बैठे रहे। "कभी-कभी अनेक अनावश्यक वस्तुओं की आवश्यकता हो सकती है और उनका मूल्य भी बढ़ सकता है। लेकिन मेरा विश्वास है कि बालों का मूल्य कभी नहीं बढ़ता है।"

शास्त्रीजी ने हँसते हुए कहा, "जल्दबाजी में ऐसी बात न कहिए। संदर्भ को देखकर ही मैं कह रहा हूँ।