एक ठहरा हुआ चाकू (कहानी) : मोहन राकेश

Ek Thehra Hua Chaku (Hindi Story) : Mohan Rakesh

अजीब बात थी, ख़ुद कमरे में होते हुए भी बाशी को कमरा ख़ाली लग रहा था।
उसे काफी देर हो गई थी कमरे में आए–या शायद उतनी देर नहीं हुई थी जितनी कि उसे लग रही थी। वक़्त उसके लिए दो तरह से बीत रहा था–जल्दी भी और आहिस्ता भी…उसे दरअसल, वक़्त का ठीक अहसास नहीं हो रहा था।

कमरे में कुछ एक कुर्सियां थीं–लकड़ी की। वैसी ही जैसी सब पुलिस स्टेशनो पर होती हैं। कुर्सियों के बीचोंबीच एक मेज़नुमा तिपाई थी जो कि कुहनी ऊपर रखते ही झूलने लगती थी। आठ फुट और आठ फुट का वह कमरा इनसे पूरा घिरा था। टूटे पलस्तर की दीवारें कुर्सियों से लगभग सटी जान पड़ती थीं। शुक्र था कि कमरे में दरवाज़े के अलावा एक खिड़की भी थी।

बाहर अहाते में बार-बार चरमराते जूतों की आवाज़ सुनाई देती थी–यही वह सब-इन्स्पेक्टर था जो उसे कमरे के अन्दर छोड़ गया था। उस आदमी का चेहरा आंखों से दूर होते ही भूल जाता था, पर सामने आने पर फिर एकाएक याद हो आता था। कल से आज तक वह कम-से-कम बीस बार उसे भूल चुका था।

उसने सुलगाने के लिए एक सिगरेट जेब से निकाली, पर यह देखकर कि उसके पैरों के पास पहले ही काफी टुकड़े जमा हो चुके हैं, उसे वापस जेब में रख लिया। कमरे में एक ऐश-ट्रे का न होना उसे शुरू से ही अखर रहा था। इस वजह से वह एक भी सिगरेट आराम से नहीं पी सका था। पहला सिगरेट पीते हुए उसने सोचा था कि पीकर टुकड़ा खिड़की से बाहर फेंक देगा। पर उधर जाकर देखा कि खिड़की के ठीक नीचे एक चारपाई बिछी है, जिस पर लेटे या बैठे हुए दो-एक कान्स्टेबल अपना आराम का वक़्त बिता रहे हैं। उसके बाद फिर दूसरी बार खिड़की के पास नहीं गया।

अकेले कमरे में वक़्त काटने के लिए सिगरेट पीने के अलावा भी जो कुछ किया जा सकता था, वह कर चुका था। जितनी कुर्सियां थीं, उनमें से हर एक पर एक-एक बार बैठ चुका था। उनके गिर्द चहलकदमी कर चुका था। दीवारों के पलस्तर दो-एक जगह से उखाड़ चुका था। मेज़ पर एक बार पेंसिल से और न जाने कितनी बार उंगली से अपना नाम लिख चुका था। एक ही काम था जो उसने नहीं किया था–वह था, दीवार पर लगी क्वीन विक्टोरिया की तस्वीर को थोड़ा तिरछा कर देना। बाहर अहाते से लगातार जूते की चरमर सुनाई न दे रही होती, तो अब तक उसने यह भी कर दिया होता।

उसने अपनी नब्ज़ पर हाथ रखकर देखा कि बहुत तेज़ तो नहीं चल रही। फिर हाथ हटा लिया, कि कोई उसे ऐसा करते देख न ले।

उसे लग रहा था कि वह थक गया है और उसे नींद आ रही है। रात को ठीक से नींद नहीं आई थी। ठीक से क्या, शायद बिलकुल नहीं आई थी। या शायद नींद में भी उसे लगता रहा था कि वह जाग रहा है। उसने बहुत कोशिश की थी कि जागने की बात भूलकर किसी तरह सो सके–पर इस कोशिश में ही पूरी रात निकल गई थी।

उसने जेब से पेंसिल निकाल ली और बाएं हाथ पर अपना नाम लिखने लगा–बाशी, बाशी, बाशी। सुभाष, सुभाष, सुभाष!

आज सुबह यह नाम प्रायः सभी अख़बारों में छपा था। रोज़ के अख़बार के अलावा उसने तीन-चार अख़बार और ख़रीदे थे। किसी में दो इंच में ख़बर दी गई थी, किसी में दो कालम में। जिसने दो कालम में ख़बर दी थी वह रिपोर्टर उसका परिचित था। वह गर उसका परिचित न होता, तो शायद…
वह अब अपनी हथेली पर दूसरा नाम लिखने लगा–वह नाम जो उसके नाम के साथ-साथ अख़बारों में छपा था–नत्थासिंह, नत्थासिंह, नत्थासिंह!
यह नाम लिखते हुए उसकी हथेली पर पसीना आ गया। उसने पेंसिल रखकर हथेली को मेज़ से पोंछ लिया।

जूते की चरमर दरवाज़े के पास आ गई। सब-इन्स्पेक्टर ने एक बार अन्दर झांककर पूछ लिया, ‘‘आपको किसी चीज़ की ज़रूरत तो नही?’’
‘‘नहीं।’’ उसने सिर हिला दिया। उसे तब ऐश-ट्रे का ध्यान नहीं आया।
‘‘पानी-वानी की ज़रूरत हो, तो मांग लीजिएगा।’’
उसने फिर सिर हिला दिया कि ज़रूरत होगी तो मांग लेगा। साथ पूछ लिया ‘‘अभी और कितनी देर लगेगी?’’
‘‘अब ज़्यादा देर नहीं लगेगी।’’ सब-इन्स्पेक्टर ने दरवाज़े के पास से हटते हुए कहा, ‘‘पन्द्रह-बीस मिनट में ही उसे ले आएंगे।’’
इतना ही वक़्त उसे तब बताया गया था जब उसे उस कमरे में छोड़ा गया था। तब से अब तक क्या कुछ भी वक्त नहीं बीता था।
जूते के अन्दर, दाएं पैर के तलवे में खुजली हो रही थी। जूता खोलकर एक बार अच्छी तरह खुजला लेने की बात वह कितनी बार सोच चुका था। पर हाथ दो-एक बार नीचे झुकाकर भी उससे तस्मा खोलते नहीं बना था। उस पैर को दूसरे पैर से दबाए, वह जूते को रगड़कर रह गया।
हाथ की पेंसिल फिर चल रही थी। उसने अपनी हथेली को देखा। दोनों नामों के ऊपर उसने बड़े-बड़े अक्षरों में लिख दिया था–अगर…
अगर…
अगर कल सुबह वह स्कूटर की बजाए बस से आया होता…
अगर बर्फ़ ख़रीदने के लिए उसने स्कूटर को दायरे के पास न रोका होता…
अगर…
उसने जूते को फिर ज़मीन पर रगड़ लिया। मन में मिन्नी का चेहरा उभर आया। अगर वह कल मिन्नी से न मिला होता…।

वह, जो कभी सुबह नौ बजे से पहले नहीं उठता था, सिर्फ़ मिन्नी की वजह से उन दिनों सुबह छह बजे तैयार होकर घर से निकल जाता था। मिन्नी ने मिलने की जगह भी क्या बताई थी–अजमेरी गेट के अन्दर हलवाई की एक दुकान! जिस प्राइवेट कॉलेज में वह पढ़ने आती थी, उसके नज़दीक बैठने लायक और कोई जगह थी ही नहीं। एक दिन वह उसे जामा मस्जिद ले गया था–कि कुछ देर वहां के किसी होटल में बैठेंगे। पर उतनी सुबह किसी होटल का दरवाज़ा नहीं खुला था। आख़िर मेहतरों की उड़ाई धूल से सिर-मुंह बचाते वे उसी दुकान पर लौट आए थे। दुकान के अन्दर पन्द्रह-बीस मेज़ें लगी रहती थीं। सुबह-सुबह लस्सी-पूरी का नाश्ता करने वाले लोग वहां जमा हो जाते थे। उनमें से बहुत से तो उन्हें पहचानने भी लगे थे–क्योंकि वे रोज़ कोने की मेज़ के पास घण्टा-घण्टा भर बैठे रहते हैं। मिन्नी अपने लिए सिर्फ़ कोकाकोला की बोतल मंगवाकर सामने रख लेती थी, पीती उसे भी नहीं थी। लस्सी-पूरी का ऑर्डर उसे अपने लिए देना पड़ता था। जल्दी-जल्दी खाने की आदत होने से सामने का पत्ता दो मिनट में ही साफ़ हो जाता था। मिन्नी कई बार दो-दो पीरियड मिस कर देती थी, इसलिए वहां बैठने के लिए उसे और-और पूरी मंगवाकर खाते रहना पड़ता था। उससे सुबह-सुबह उतना नाश्ता नहीं खाया जाता था पर चुपचाप कौर निगलते जाने के सिवा और कोई चारा नहीं होता था। मिन्नी देखती कि खा-खाकर उसकी हालत ख़स्ता हो रही है, तो कहती कि चलो, कुछ देर पास की गलियों में टहल लिया जाए। सड़क पर वे नहीं टहल सकते थे क्योंकि वहां कालेज की और लड़कियां आती-जाती मिल जाती थीं। हलवाई की दुकान के साथ से गली अन्दर को मुड़ती थी–उससे आगे गलियों की लम्बी भूल-भुलैया थी, जिनमें से किसी भी तरफ को निकल जाते थे। जब चलते-चलते सामने सड़क का मुहाना नज़र आ जाता तो वे वहीं से लौट पड़ते थे।

‘‘इस इतवार को कोई देखने आने वाला है।’’ उस दिन मिन्नी ने कहा था।
‘‘कौन आने वाला है?’’
‘‘कोई है–काठमाण्डू से आया है। दस दिन में शादी करके लौट जाना चाहता है।’’
‘‘फिर?’’
‘‘फिर कुछ नहीं। आएगा तो मैं उससे साफ़-साफ़ सब कह दूंगी।’’
‘‘क्या कह दोगी?’’
‘‘यह क्यों पूछते हो? तुम्हें पूछने की ज़रूरत नहीं है।’’
‘‘अगर उस वक्त तुम्हारी ज़बान न खुल सकी, तो?’’
‘‘तो समझ लेना कि ऐसे ही बेकार की लड़की थी…इस लायक़ थी ही नहीं कि तुम उससे किसी तरह की रहो-रास्त रखते।’’
‘‘पर तुमने पहले ही घर में क्यों नहीं कह दिया?’’

‘‘यह तुम जानते हो कि मैंने नहीं कहा?’’ कहते हुए मिन्नी ने उसकी उंगलियां अपनी उंगलियों में ले ली थीं। ‘‘अभी तो तुम दूसरे के घर में रहते हो। जब तुम अपना घर ले लोगे, तो मैं…तब तक मैं ग्रेजुएट भी हो जाऊंगी।’’

एक बहते नल का पानी गली में यहां से वहां तक फैला था। बचने की कोशिश करने पर भी दोनों के जूते कीचड़ में लथपथ हो गए थे। एक जगह उसका पांव फिसलने लगा तो मिन्नी ने बाँह से पकड़कर उसे संभाल लिया। कहा, ‘‘ठीक से देखकर नहीं चलते न! पता नहीं, अकेले रहकर कैसे अपनी देखभाल करते हो!’’
अगर…
अगर मिन्नी ने यह न कहा होता, तो वह उतना खुश-खुश न लौटता। उस हालत में ज़रूर स्कूटर के पैसे बचाकर बस में आया होता।
अगर घर के पास के दायरे में पहुंचने तक प्यास न लग आई होती…

उसने स्कूटर को वहां रोक लिया था–कि दस पैसे की बर्फ, ख़रीद ले। महीना जुलाई का था; फिर भी उसे दिन-भर प्यास लगती थी। दिन में कई-कई बार वह बर्फ़ खरीदने वहां आता था। दुकानदार उसे दूर से देखकर ही पेटी खोल लेता था और बर्फ़ तोड़ने लगता था।
पर तब तक अभी बर्फ़ की दुकान खुली नहीं थी।

बर्फ़ ख़रीदने के लिए उसने जो पैसे जेब से निकाले थे, उन्हें हाथ में लिये वह लौटकर स्कूटर के पास आया, तो एक और आदमी उसमें बैठ चुका था, वह पास पहुंचा, तो स्कूटर वाले ने उसकी तरफ़ हाथ बढ़ा दिया–जैसे कि वहां उतरकर वह स्कूटर ख़ाली कर चुका हो।
‘‘स्कूटर अभी ख़ाली नहीं है।’’ उसने स्कूटर वाले से न कहकर अन्दर बैठे आदमी से कहा।

‘‘ख़ाली नहीं से मतलब?’’ उस आदमी का चेहरा सहसा तमतमा उठा। वह एक लम्बा-तगड़ा सरदार था–लुंगी के साथ एक मख़मल का कुरता पहने। लम्बा शायद उतना नहीं था, पर तगड़ा होने से लम्बा भी लग रहा था।
‘‘मतलब कि मैंने अभी इसे ख़ाली नहीं किया है।’’

‘‘ख़ाली नहीं किया है तो मैं अभी कराऊं तुमसे ख़ाली?’’ कहते हुए सरदार ने दांत भींच लिये। ‘‘जल्दी से उसके पैसे दे, और अपना रास्ता देख वरना…!’’
‘‘वरना क्या होगा?’’

‘‘बताऊं तुझे क्या होगा?’’ कहते हुए सरदार ने उसे कालर से पकड़ कर अपनी तरफ़ खींच लिया और उसके मुंह पर एक झापड़ दे मारा–‘‘यह होगा! अब आया समझ में? दे जल्दी से उसके पैसे और दफ़ा हो यहां से।’’

उसका ख़ून खौल गया कि एक आदमी, जिसे कि वह जानता तक नहीं, भरे बाज़ार में उसके मुंह पर थप्पड़ मारकर उससे दफ़ा होने को कह रहा है। उसका चश्मा नीचे गिर गया था। उसे ढूंढ़ते हुए उसने कहा, ‘‘सरदार, ज़बान संभालकर बात कर!’’

‘‘क्या कहा? ज़बान संभालकर बात करूं? हरामज़ादे, तुझे पता है, मैं कौन हूं?’’ जब तक उसने आंखों पर चश्मा लगाया, सरदार स्कूटर से नीचे उतर आया था। उसका हाथ कुरते की जेब में था।

‘‘तू जो भी है, इस तरह की बदतमीज़ी करने का तुझे कोई हक नहीं।’’ कहते न कहते उसने देखा कि सरदार की जेब से निकलकर एक चाकू उसके सामने खुल गया है। ‘‘तू अगर समझता है कि…’’ यह वाक्य वह पूरा नहीं कर पाया। खुले चाकू की चमक से उसकी ज़बान और छाती सहसा जकड़ गईं। उसके हाथ से पैसें वहीं गिर गए और वह वहाँ से भाग खड़ा हुआ।
‘‘ठहर, मादर…अब जा कहां रहा है?’’ उसने पीछे से सुना।
‘‘पैसे, साहब?’’ यह आवाज़ स्कूटर वाले की थी।

उसने जेब में हाथ डाला और जितने सिक्के हाथ में आए निकालकर सड़क पर फेंक दिए। पीछे मुड़कर नहीं देखा। घर की गली बिल्कुल सामने थी, पर उस तरफ़ न जाकर वह जाने किस तरफ़ को मुड़ गया। कहां तक और कितनी देर तक भागता रहा, इसका होश नहीं रहा। जब होश हुआ, तो वह एक अपरिचित मकान के ज़ीने में खड़ा हांफ रहा था।…

उसने पेंसिल हाथ में रख दी और हथेली पर बने शब्दों को अंगूठे से मल दिया। तब तक न जाने कितने शब्द और वहां लिखे गए थे जो पढ़े भी नहीं जाते थे। सब मिलकर आड़ी-तिरछी लकीरों का एक गुंझल था जो मल दिए जाने पर भी पूरी तरह मिटा नहीं था। हथेली सामने किए वह कुछ देर तक उस अधबुझे गुंझल को देखता। हर लकीर का नोक-नुक्ता कहीं से बाकी था। उसने सोचा कि वहां कहीं एक वाश-बेसिन होता तो बस दोनों हाथों को अच्छी तरह मलकर धो लेता।
‘‘हलो!…’’

उसने सिर उठाकर देखा। महेन्द्र, जिसके यहां वह रहता था, और वह रिपोर्टर जिसने दो कालम में ख़बर दी थी, उसके सामने खड़े थे। सब-इन्स्पेक्टर के जूते की चरमर दरवाज़े से दूर जा रही थी।
‘‘तुम इस तरह बुझे-से क्यों बैठे हो?’’ महेन्द्र ने पूछा।
‘‘नहीं तो…’’ उसने कहा और मुस्कराने की कोशिश की।
‘‘ये लोग उसे लॉक-अप से यहां ले आए हैं। अभी थोड़ी देर में उसे शनाख़्त के लिए इधर लाएंगे।’’
उसने सिर हिलाया। वह अब भी वाश-बेसिन की बात सोच रहा था। ‘‘थानेदार बता रहा था कि सुबह-सुबह उसके घर जाकर इन्होंने उसे पकड़ा है। ये लोग कब से इसके पीछे थे, पर पकड़ने का कोई मौका इन्हें नहीं मिल रहा था, कोई भला आदमी उसकी रिपोर्ट ही नहीं करता था।’’
उसने अब फिर मुस्कराने की कोशिश की। पेंसिल उसने मेज़ से उठाकर जेब में डाल ली।
‘‘मैं आज फिर अख़बार में उसकी ख़बर दूंगा।’’ रिपोर्टर बोला, जब तक इस आदमी को सज़ा नहीं हो जाती, हम इसका पीछा नहीं छोड़ेंगे।’’
उसे लगा कि उसके कान गरम हो रहे हैं। उसने हल्के से एक कान को सहला लिया।

‘‘तय हुआ है’’ महेन्द्र ने कहा, ‘‘कि उसे साथ लिये हुए चार सिपाही अहाते में दाई तरफ़ से आएंगे और बाईं तरफ से निकल जाएंगे। उसे यह पता नहीं चलने दिया जाएगा कि तुम यहां हो। तुम यहां बैठे-बैठे उसे देख लेना और बाद में बता देना कि हां, यही आदमी है, जिसने तुम पर चाकू चलाना चाहा था। वह थानेदार के सामने इतना तो मान गया है कि कल उसने स्कूटर को लेकर झगड़ा किया था, पर चाकू निकालने की बात नहीं मानी। कहता है कि चाकू-वाकू तो उसके पास होता ही नहीं–उसके दुश्मनों ने ख़ामख़ाह उसे फंसाने के लिए रिपोर्ट लिखवा दी है। यह भी कह रहा था कि वह तो अब इस इलाके में रहना नहीं चाहता–दो-एक मुकदमों का फ़ैसला हो जाए, तो वह इस इलाके से चला जाएगा।’’

वह कुछ देर क्वीन विक्टोरिया की तस्वीर को देखता रहा। फिर अपनी उंगलियों को मलता हुआ आहिस्ता से बोला, ‘‘मेरा ख़्याल है, हमें रिपोर्ट नहीं लिखवानी चाहिए थी।’’
‘‘तुम फिर वही बुज़दिली की बात कर रहे हो?’’ महेन्द्र थोड़ा तेज़ हुआ, तुम चाहते हो कि ऐसे आदमी को गुण्डागर्दी की छूट मिली रहे?’’
उसकी आंखें तस्वीर से हटकर पलभर महेन्द्र के चेहरे पर टिकी रहीं। उसे लगा कि जो बात वह कहना चाहता है, वह शब्दों में नहीं कही जा सकती।
‘‘आपको डर लग रहा है?’’ रिपोर्टर ने पूछा।
‘‘बात डर की नहीं…’’
‘‘तो और क्या बात है?’’ मेहन्द्र फिर बोल उठा, ‘‘तुम कल भी कम्पलेंन लिखवाने में आनाकानी कर रहे थे।…’’
‘‘मैंने यह बात भी अपनी रिपोर्ट में लिखी है।’’ रिपोर्टर ने कहा और एक सिगरेट सुलगा ली।
‘‘ख़ैर, रिपोर्ट तो अब हो गई है और उस आदमी को गिरफ़्तार भी कर लिया गया है।’’ मेहन्द्र बोला, ‘‘तुम्हें डरना नहीं चाहिए। इतने लोग तुम्हारे साथ हैं।’’

‘‘मैं समझता हूं कि गुन्डागर्दी को रोकने में आदमी की जान भी चली जाए, तो उसे, परवाह नहीं करनी चाहिए।’’ रिपोर्टर ने कश खींचते हुए कहा, ‘‘इन लोगों के हौंसले इतने बढ़ते जा रहे हैं कि ये किसी को कुछ समझते ही नहीं। पिछले दो साल में ही गुन्डागर्दी की घटनाएं पहले से पौने तीन गुना हो गई हैं–यानी पहले से एक सौ पिचहत्तर फीकदी ज़्यादा। अगर अब भी इनकी रोकथाम न की गई तो पांच साल में आदमी के लिए घर से निकलना मुश्किल हो जाएगा।’’

रिपोर्टर के सिगरेट की राख उसके घुटने पर आ गिरी। उसने हल्के से उसे झाड़ दिया और बाहर की तरफ़ देखने लगा।
‘‘ये लोग अब उसके घर चाकू तलाश करने गए हैं।’’ महेन्द्र दोनों जेबों में हाथ डाले चलने के लिए तैयार होकर बोला, ‘‘हो सकता है, तुमसे चाकू की शनाख़्त के लिए कहा जाए।’’
‘‘चाकू की शनाख़्त कैसे होगी?’’ उसने इसी स्वर में पूछ लिया।
‘‘कैसे होगी?’’ महेन्द्र फिर उत्तेजित हो उठा, ‘‘देखकर कह देना कि हां यही चाकू है–और शिनाख्त कैसे होती है?’’
‘‘पर मैंने चाकू ठीक से देखा नहीं था।’’
‘‘नहीं देखा था, तो अब देख लेना। हम थोड़ी देर में फोन करके यहां से पता कर लेंगे। तुम यहां से निकलकर सीधे घर चले जाना और रात को लौटने तक घर पर ही रहना।’’

वे लोग चले गए, तो कमरा उसे फिर ख़ाली लगने लगा–बिलकुल ख़ाली–जिसमें वह ख़ुद भी जैसे नहीं था। सिर्फ कुर्सियां थीं, दीवारें थीं, और एक खुला दरवाज़ा था।…बाहर जूते की चरमर अब सुनाई नहीं पड़ रही थी।

‘‘सुनो…’’ उसे लगा जैसे उसने मिन्नी की आवाज़ सुनी हो। उसने आस-पास देखा। कोई भी वहां नहीं था। सिर्फ सिर के ऊपर घूमता पंखा आवाज़ कर रहा था। उसे हैरानी हुई कि अब तक उसे इस आवाज़ का पता क्यों नहीं चला। उसे तो इतना भी अहसास नहीं था कि कमरे में एक पंखा भी है।

सिर कुरसी की पीठ से टिकाए वह पंखे की तरफ़ देखने लगा–उसकी तेज़ रफ्त़ार में अलग-अलग पैरों को पहचानने की कोशिश करने लगा। उसे ख़्याल आया कि उसके सिर के बाल बुरी तरह उलझे हैं और वह सुबह से नहाया नहीं है। आज सुबह से ही नहीं, कल सुबह से।…

कल दिन-भर वे लोग स्कूटरों और टैक्सियों में घूमते रहे थे। वह और महेन्द्र। घर पहुंचकर उसने महेन्द्र को उस घटना के बारे में बतलाया, तो वह तुरन्त ही उस सम्बन्ध में ‘कुछ करने’ को उतावला हो उठा था। पहले उन्होंने दायरे के पास जाकर पूछताछ की। वहां कोई भी कुछ बतलाने को तैयार नहीं था। जो मोची दायरे के पास बैठा था, वह सिर झुकाए चुपचाप हाथ से जूते को सीता रहा। उसने कहा कि वह घटना के समय वहां नहीं था–नल पर पानी पीने गया था। और भी जिस-जिससे पूछा उसने सिर हिलाकर मना कर दिया कि वह उस आदमी के बारे में कुछ नहीं जानता। सिर्फ मेडिकल स्टोर के इंचार्ज ने दबी आवाज़ में कहा, ‘‘नत्थासिंह को यहां कौन नहीं जानता? अभी कुछ ही दिन पहले उसके आदमियों ने पिछली गली में पानवाले का क़त्ल किया है। वे तीन-चार भाई हैं और इस इलाके के माने हुए गुण्डे हैं। ख़ैरियत समझिए कि आपकी जान बच गई, वरना हममें से किसी को इसकी उम्मीद नहीं रही थी। अब बेहतरी इसी में है कि आप इस चीज़ को चुपचाप पी जाएं और बात को ज़्यादा बिखरने न दें। यहां आपको एक भी आदमी ऐसा नहीं मिलेगा जो उसके ख़िलाफ़ गवाही देने को तैयार हो। अगर आप पुलिस में रिपोर्ट करें और पुलिस तहकीकात के लिए आए, तो सब लोग मुकर जाएंगे कि यहां पर ऐसा कुछ हुआ ही नहीं।’’
पर महेन्द्र का कहना था कि रिपोर्ट ज़रूर करेंगे–ऐसे आदमी को सज़ा दिलवाए बग़ैर नहीं छोड़ा जा सकता।

थानेदार से बात करने पर उसने कहा, ‘‘हां-हां, रिपोर्ट आपको ज़रूर लिखवानी चाहिए। इन गुण्डों से मत्था लेने में यूं थोड़ा-बहुत ख़तरा तो रहता ही है–और कुछ न करें, आप पर एसिड-वेसिड ही डाल दें। ऐसा उन्होंने दो-एक बार किया भी है। पर हम आपकी हिफ़ाज़त के लिए हैं, आपको डरना नहीं चाहिए। एक अच्छे शहरी होने के नाते आपका फ़र्ज़ है कि आप रिपोर्ट ज़रूर लिखवाएं। हम लोगों को भी तो उनके ख़िलाफ़ कार्रवाई करने का मौका इसी तरह मिल सकता है।’’

रिपोर्ट लिखवाने के बाद वे लोग अखबारों के दफ्तर में गए–एस.पी. और डी.एस.पी. से मिले। उस दौरान कई बातों का पता चला कि उस आदमी का मुख्य धन्धा लड़कियों की दलाली करना है–कि ऊंचे सरकारी और राजनीतिक हलके के अमुक-अमुक व्यक्तियों को वह लड़कियां सप्लाई करता है–कि उसकी कितनी भी रिपोर्ट की जाए, कभी उसके ख़िलाफ़ कार्रवाई नहीं की जाती–कि नीचे से अमुक-अमुक लोग उससे पैसे खाते हैं–कि नीचे से कार्रवाई कर भी दी जाए तो ऊपर से अमुक-अमुक का फोन आ जाता है जिससे कार्रवाई वापस ले ली जाती है।…

‘‘वह तो बेचारा सिर्फ़ दलाली करता है।’’ डी. एस. पी. ने ज़रूरी फ़ाइलों पर दस्तख़त करते हुए कहा, ‘‘कत्ल-वत्ल करने का उसका हौसला नहीं पड़ सकता। हम उसके ख़िलाफ़ कार्रवाई नहीं करेंगे–आपको डरना बिलकुल नहीं चाहिए।’’

अख़बारों के चीफ क्राइम रिपोर्टर ने तीस हज़ारी कैण्टीन की ठण्डी चाय के लिए छोकरे को डांट-फटकार करते हुए सलाह दी, ‘‘आप पहला काम यही कीजिए कि जाकर अपनी रिपोर्ट वापस ले लीजिए। थानेदार मेरा वाकिफ़ है, आप चाहें तो उससे मेरा नाम ले सकते हैं–कि पंडित माधोप्रसाद ने यह राय दी है। वह अकेला नहीं है, एक बहुत बड़ा गिरोह उसके साथ है। हम लोग उनसे उलझ लेते हैं क्योंकि एक तो हम इन सबको पहचानते हैं और दूसरे हिफ़ाज़त के लिए रिवाल्वर-आल्वर अपने साथ रखते हैं। ये भी जानते हैं कि जितने बड़े गुण्डे ये दूसरों के लिए हैं, उतने ही बड़े गुण्डे हम इनके लिए हैं। इसलिए हमसे डरते भी हैं, पर आप जैसे आदमी को तो ये एक दिन में साफ कर देंगे–आपको इनसे बचकर रहना चाहिए।…’’

अपनी अनेक राजनीतिक व्यवस्तताओं से समय निकालकर उस विभाग के मन्त्री ने भी अपने लान में चहलकदमी करते हुए शाम को एक मिनट उससे बात की। छूटते ही पूछा, ‘‘किस चीज़ की अदावत थी तुम लोगों में?’’
‘‘अदावत का कोई सवाल नहीं था…’’ वह जल्दी कहने लगा, ‘‘मैं सुबह स्कूटर में घर की तरफ आ रहा था।…’’
‘‘तुम अपनी शिकायत एक काग़ज़ पर लिखकर सेक्रटरी को दे दो।’’ उन्होंने बीच में ही कहा, ‘‘उस पर जो कार्रवाई करनी होगी, कर दी जाएगी।’’ और वे लान में खड़े दूसरे ग्रुप की तरफ मुड़ गए।

रात को घर लौटने पर उसे अपने हाथ-पैर ठण्डे लग रहे थे । पर महेन्द्र का उत्साह कम नहीं हुआ था। वह आधी रात तक इधर-उधर फोन करके तरह-तरह के आंकड़े जमा करता रहा। “उसे कम-से-कम तीन साल की सज़ा होनी चाहिए !” उसने सोने से पहले आंकड़ों के आधार पर निष्कर्ष निकाल लिया।

महेन्द्र के सो जाने के बाद वह काफी देर साथ के कमरे में आती सांसों की आवाज सुनता रहा था-उस आवाज में उतनी सुरक्षा का अहसास उसे पहले कभी नहीं हुआ था। वह आवाज़-एक जीवित आवाज़ उसके बहुत पास थी और लगातार चल रही थी। जितनी जीवित वह आवाज़ थी उतना ही जीवित था उसे सुन सकना-चुपचाप लेटे हुए, बिना किसी कोशिश के अपने कानों से सुन सकना। गरमी और उमस के बावजूद रात ठंडी थी-कुछ देर पहले से हल्की-हल्की बूँदें पड़ने लगी थीं। कभी-कभी उसे संदेह होता कि जो आवाज वह सुन रहा है, वह रात की ही तो आवाज नहीं सिर्फ पत्तों के हिलने और बूंदों के गिरने की आवाज-कि सुनना भी कहीं सुनना न होकर अपने से बाहर का कोरा शब्द ही, तो नहीं। तब वह करवट बदलकर अपने हाथ-पैरों का 'होना' महसूस करता और फिर से सांसों का शब्द सुनने लगता।...

खिड़की से कभी-कभी हवा का झोंका आता जिससे रोंगटे सिहर जाते थे। उस सिहरन में हवा के स्पर्श के अतिरिक्त भी कुछ होता-शायद रोंगटों में अपने अस्तित्व की अनुभूति। एक झोंके के बीत जाने पर वह दूसरे की प्रतीक्षा करता, जिससे कि फिर से उस स्पर्श और सिहरन को अपने में महसूस कर सके। इस सिहरन के बाद उसे अपना हाथ ख़ाली-ख़ाली-सा लगता। मन होता कि हाथ में कसने के लिए एक और हाथ उसके पास हो-मिन्नी की पतली और चुभती उंगलियों वाला हाथ ! कि हाथ के अलावा मिन्‍नी का पूरा शरीर भी पास में हो-इकहरा, पर भरा हुआ शरीर-जिसके एक-एक हिस्से से अपने सिर और होठों को रगड़ता हुआ वह अपने नाक-कान-गालों से उसकी सांसों का शब्द और उतार-चढ़ाव महसूस कर सके। पर मिन्‍नी वहां नहीं थी-और उसके हाथ ही नहीं, पूरा अपना-आप ख़ाली था। उसकी आंखें दर्द कर रही थीं और कनपटियों की नसें फड़क रही थीं। अगर वह रात रात न होकर सुबह होती-एक दिन पहले की सुबह-वह अभी मिन्‍नी से बात करके उससे अलग न हुआ होता, और स्टैंड पर आकर अभी स्कूटर में न बैठा होता।...

कोई चीज़ हलक में चुभ रही थी-एक नोक की तरह। बार-बार थूक निगल कर उस चुभन को मिटा लेना चाहता। कभी-कभी उसे लगता कि किसी हाथ ने उसका गला दबोच रखा है और यह चुभन गले पर कसते नाख़ूनों की है। तब वह जैसे अपने को उन हाथों से छुड़ाने के लिए छटपटाने लगता। उसे अपने अन्दर से एक हौलनाक-सी आवाज़ सुनाई देती-अपनी तेज़ चलती सांसों की आवाज । रात तब दिन में और कमरा सड़क में घुल-मिल जाता और वह अपने को फूली सांस और अकड़ी पिण्डलियों से बेतहाशा सड़क पर भागते पाता। सड़क है-सिर्फ सलेटी सड़क-जिसका कोलतार जहां-तहां से पिघल रहा है। उस पर जैसे उससे आगे-आगे, दो पैर हैं-उसके अपने पैर। जूते के फीते खुले हैं। पतलून के पांयचे जूते में अटक-अटक जाते हैं। पर वह सरपट भाग रहा है-जैसे जूते और पांयचों के ऊपर-ऊपर से | आगे एक-दूसरे से गडमड मकान हैं। नालियां हैं, लोग हैं। सब उसके रास्ते में हैं-पर कोई भी, कुछ भी उसके रास्ते में नहीं है। सिर्फ सड़क है, वह, और भागना है।...

आंख खुल जाती, तो बाहर बिजली चमकती दिखाई देती है। फिर मुंद जाती, तो कोई चीज़ अन्दर कौंधने लगती। ...एक जीने की सीढ़ियों ने उसे रस्सियों की तरह लपेट रखा है। एक तेज धार का चाकू उन रस्सियों को काटता आता है। उसके पास आने से पहले ही उसकी धार जैसे शरीर में चुभने लगती है। यह उसकी पीठ है...पीठ नहीं, छाती है। चाकू की नोक सीधी उसकी छाती की तरफ...नहीं, गले की तरफ...आ रही है। वह उस नोक से बचने के लिए अपना सिर पीछे हटा रहा है...पर पीछे आसमान नहीं, दीवार है। वह कोशिश कर रहा है। वह कोशिश कर रहा है कि उसका सिर दीवार में गड़ जाए...दीवार में अन्दर छिप जाए। पर दीवार दीवार नहीं, रस्सियों का जाल है, और जाल के उस तरफ वही चाकू की नोक है। जाल टूट रहा है। सीढ़ियां पैरों के नीचे फिसल रही हैं। क्या वह किसी तरह सीढ़ियों में-रस्सियों में-उलझा रहकर अपने को नहीं बचा सकता ?

आंख फिर खुल जाती, तो उसे तेज़ प्यास महसूस होती। पर जब तक वह उठने और पानी पीने की बात सोचता, तब तक आंख फिर झपक जाती।
चाप्‌ चाप्‌ चाप्‌ !...
जूते की आवाज़ फिर दरवाज़े के पास आ गई। वह कुर्सी पर सीधा हो गया।
“आप तैयार हैं ?” सब-इन्स्पेक्टर ने अन्दर आकर पूछा।
उसने सिर हिलाया। उसे लग रहा था कि रात से अब तक उसने पानी पिया ही नहीं।
“तो अपनी कुर्सी जरा तिरछी कर लीजिए और बाहर की तरफ देखते रहिए। हम लोग अभी उसे लेकर आ रहे हैं।” कहकर सब-इन्स्पेक्टर चला गया।
चाप्‌ चाप चाप्‌ !...

उसे लगा कि उसके हाथों की उंगलियां कांप रही हैं-ऐसे जैसे वे हाथों से ठीक से जुड़ी न हों।
साथ के कमरे में एक आदमी रो रहा था-धौल-धप्पे से कोई चीज़ उससे कबुलवाई जा रही थी।
क्वीन विक्टोरिया की तस्वीर जैसे दीवार से थोड़ा आगे को हट आई थी-उसके और जमीन के बीच का फ़ासला भी अब पहले जितना नहीं लग रहा था।

चाप्‌ चाप चाप्‌ !-यह कई पैरों की मिली-जुली आवाज़ थी। साथ के कमरे में पिटाई चल रही थी : “बोल हरामज़ादे, तू किस रास्ते से घुसा था घर के अन्दर ?” और इसके जवाब में आती आवाज़ : “नहीं, मैं नहीं घुसा था। मैं तो उस घर की तरफ गया भी नहीं था।...”
चार सिपाही कमरे के बाहर आ गए थे और उनके बीच था वही सरदार-उसी तरह लुंगी के साथ मखमल का कुरता पहने। हथकड़ी के बावजूद उसके हाथ बंधे हुए नहीं लग रहे थे।

पल-भर के लिए बाशी को लगा जैसे उसे उस आदमी का नाम भूल गया हो। कल दिन में कितनी ही बार, कितने ही लोगों के मुंह से, वह नाम सुना था। जिस किसी से बात हुई थी, वह उस आदमी को पहले से ही जानता था। अभी कुछ ही देर पहले उसने वह नाम अपनी हथेली पर लिखा था। क्या नाम था वह ?
दरवाज़े के पास आकर वे लोग रुक गए थे-जैसे किसी चीज़ का पता करने के लिए। थानेदार और सब-इन्स्पेक्टर में से कोई उनके साथ नहीं था।
“कहां चलना है ? इस तरफ ?” कहता हुआ सरदार उसी दरवाज़े की तरफ बढ़ आया। अब वे दोनों आमने-सामने थे। चारों सिपाही पीछे चुपचाप खड़े थे।

बाशी को अचानक उसका नाम याद हो आया। नत्थासिंह ! सुबह प्रायः सभी अखबारों में यह नाम पढ़ा था। तब उसे उस आदमी की सूरत याद नहीं आ रही थी। सोच रहा था कि उसे देखकर पहचान भी पाएगा या नहीं। पर अब वह सामने था, तो उसकी सूरत बहुत पहचानी हुई लग रही थी। जैसे कि वह उसे एक मुद्दत से जानता हो।

बह आदमी सीधी नज़र से उसकी तरफ देख रहा था-जैसे कि उसका चेहरा आंखों में बिठा लेना चाहता हो। पर बाशी अपनी आंखें हटाकर दूसरी तरफ देखने की कोशिश कर रहा धा-खिड़की की तरफ़ । खिड़की के बाहर पेड़ के पत्ते हिल रहे थे। पेड़ की डाल पर एक कौआ पंख फड़फड़ा रहा था।

वह एक लम्बा वक़्फ़ा था-खामोश वक़्फ़ा-जिसमें कि उसके कान ही नहीं, गाल भी दहकने लगे। पैर में तेज़ खुजली उठ रही थी, फिर भी उसने उसे दूसरे पैर से दबाया नहीं। उसकी आंखें खिड़की से हटकर ज़मीन में धंस गईं और तब तक धंसी रहीं जब तक कि वह वक़्फ़ा गुजर नहीं गया। उन लोगों के चले जाने के कई क्षण बाद उसने आंखें दरवाज़े की तरफ मोड़ीं। तब थानेदार अहाते में खड़ा सब-इन्स्पेक्टर को डांट रहा था, “मैंने तुमसे कहा नहीं था कि उसे यहां रोकना नहीं, चुपचाप दरवाज़े के पास से निकालकर ले जाना।”

सब-इन्स्पेक्टर अपनी सफाई दे रहा था कि कसूर उसका नहीं, सिपाहियों का है-उन लोगों ने, लगता है, बात ठीक से समझी नहीं।

थानेदार माफी मांगता हुआ उसके पास आया, और आश्वासन देकर कि उसे फिर भी डरना नहीं चाहिए, वे लोग उसकी हिफ़ाजत करेंगे, बोला, “उसे पहचान लिया है न आपने ? यही आदमी था न जिसने आप पर चाकू चलाना चाहा था ?”

बाशी कुरसी से उठ खड़ा हुआ। उठते हुए उसे लगा कि उसके घुटने में खून जम गया है । उसे जैसे सवाल ठीक से समझ ही नहीं आया--वे जैसे अलग-अलग शब्द थे जिन्हे मिलाकर उसके दिमाग में पूरा वाक्य नही बन पाया था।
“यह वही आदमी था न ?”

उसके पैरों में पसीना आ रहा था। बगलों में भी। साथ के कमरे मे ठुकाई करते हुए पूछा जा रहा था, "तु नहीं था, तो कौन था कुत्ते के बीज ? सीधे से बता दे -- क्यों अपनी पसलियां तुड़वाता है ?” जवाब में मार खानेवाला न जाने क्या कहने की कोशिश कर रहा था।

अब तक वाक्‍य उसके दिमाग में स्पष्ट हो गया था। जो सवाल पृछा गया था, उसका जवाब उसे 'हाँ' में देना था। यह बात पहले से ही तय थी -- तब से ही जब कि उसे उस कमरे में लाया गया था। वह आदमी वही है, यह सब जानते थे- वह भी, थानेदार भी और दूसरे लोग भी । फिर भी उसके 'हाँ' कहने पर ही सब कूछ निर्भर करता था।

उसने कमीज के निचले हिस्से से बगलों का पसीना पोंछ लिया । फिर उसे ख्याल आया कि वह दो दिन से नहाया नहीं है, और कि मिन्‍नी हमेशा उसे सुबह नहाकर न आने के लिए ताना देती है। आज सुबह मिन्‍नी ठीक वक्‍त पर वहां पहुंची होगी। उसके वहां न मिलने से उसने जाने क्‍या सोचा होगा !
उसे यह भी लग रहा था कि वह जाने कोट-टाई पहन कर क्यों आया है --उसे क्‍या थाने में नौकरी के लिए दरख़्वास्त देनी थी ?
"आप क्‍या सोच रहे हैं?" थानेदार ने पूछा, "आपने उस आदमी को पहचाना नहीं ?"

यह एक नया विचार था। अगर सचमुच उसने उस आदमी को न पहचाना होता ?...और पहचानने के बाद भी इस वक्‍त अगर वह कह दे कि उसने नहीं पहचाना ?
पर इस विचार के दिमाग में ठीक से बनने के पहले ही, पहले की तय की बात उसके मुँह से निकल गई, "हाँ, वही आदमी है यह ।"
जवाब सुनते ही थानेदार व्यस्ततापूर्वक वहां से हट गया । सब-इंस्पेक्टर पल- भर उसकी तरफ देखवा रहा, फिर यह कहकर कि 'अब आप घर जा सकते हैं। चाकू, शनाख़्त के लिए, आपके पास वहीं भेज दिया जाएगा,' वह भी वहाँ से चला गया।

वह अपने में उलझा हुआ थाने से बाहर आया। बाहर की तेज-खुली धूप में उसे अपना-आप बहुत असुरक्षित और नंगा सा लगा। लगा, जैसे वह अपना बहुत कुछ उस कमरे में छोड आया हो -- कल तक का सारा संघर्ष, मिन्‍नी का चेहरा और आगे की सब योजनाएं। फुटपाथ, सड़क और खम्भे पहले कभी उसे इतने सपाट और नंगे नहीं लगे थे। सामने जो पहली इमारत नज़र आ रही थी, और जिसकी ओट में जाकर वह अपने को कुछ ढका हुआ महसूस कर सकता था, वह भी सौ गज़ से कम फ़ासले पर नहीं थी। खुले में, चारों तरफ से सबको दिखाई देते हुए, उतना फ़ासला तय करना उसे असम्भव लग रहा था। 'अब मैं उस इलाके में नहीं रह पाऊंगा।' उसने सोचा। 'और वह घर छोड़ देना पड़ा, तो और कहां रहूंगा ? नौकरी तो अब तक मिली नहीं...”

उसने एक असहाय नजर से चारों तरफ देख लिया। एक खाली टैक्सी पीछे आ रही थी। उसने जेब के पैसे गिने और हाथ देकर टैक्सी को रोक लिया। फिर चोर-नज़र से आस-पास देख उसमें बैठ गया।
टैक्सी वाले को घर का पता देकर वह नीचे को झुक गया जिससे खिड़की के बाहर सिवाय सिर के, जिस्म का और कोई हिस्सा दिखाई न दे।
पैर में खुजली बहुत बढ़ गई थी। वह उसी तरह झुके-झुके कांपती उंगलियों से जूते का फ़ीता खोलने लगा।

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