एक बित्ता जमीन : डॉ. कृष्ण चंद्र टुडू

Ek Bitta Jameen : Dr. Krishna Chandra Tudu

अगहन माह की अमावस्या की अँधेरी रात। आस-पास शांत वातावरण। दिन भर के मेहनत से थके शरीर को आराम देने के उद्देश्य से गाँव के सभी लोग सो गए हैं। ठंडक बढ़ी हुई है। पतली ठंडी बयार बह रही है। इस अँधेरी रात में अगर कोई जाग रही है तो वह है सरला, गाँव की अठारह वर्षीय बाला। सरला बाँस का दरवाजा खोल बाड़ी की ओर बढ़ती जा रही है। आगे गली के अंत पर पीपल के पेड़ की तरफ, इस पेड़ से थोड़ी दूर पर एक पोखर है, सरला पेड़ के पास पहुँच जाती है और खड़ी हो जाती है। ठंडक के कारण अथवा किसी और कारण से पोखर के जलजीव अपनी उपस्थिति नहीं बता रहे हैं। शांत, बहुत शांत वातावरण है, कोई शोर नहीं, कोई आवाज नहीं।

सरला आज घर छोड़कर जा रही है। भाग रही है वह, पर क्यों भाग रही है, यह उसके सिवा किसी को मालूम नहीं है।

ऊपर पीपल के पेड़ पर घोंसला बनाकर रहनेवाली गिद्धनी भी घोंसला तोड़ उड़ जाती है। उसके घोंसले के तिनके बिखरकर जमीन पर गिर पड़ते हैं। उसको सरला अपशकुन मानती है और कह उठती है, ‘‘यह मेरी कैसी यात्रा है?’’

इधर आसमान में सोरेन तारे (सप्त ऋषि) डूबने के लिए सीधे हो चुके हैं। सबेरा होने को है, तभी दूर से ढेक की आवाज सरला को सुनाई देती है। यह आवाज जिस घर से आ रही है, वहाँ आग जलने से रोशनी भी हो रही है। रोशनी में देखती क्या है कि एक औरत लकड़ी का गट्ठर दोनों हाथों से दबाए घर में प्रवेश करती है और पुरुष आँगन में कुदाल आदि को अपनी बहंगी (भार) पर सजा रहा है। शायद दोनों काम पर जाने की तैयारी कर रहे हैं। सरला के घर सबकुछ है—खाने के लिए अनाज, मवेशियों से भरा गोहाल, धान, चावल से भरी कोठी, पर फिर भी ये सब छोड़कर वह जा रही है, अपनी बस्ती राजदा को छोड़कर।

हाँ, छोड़ना तो होगा ही उसे अपनी बस्ती राजदा को। लड़की जात जो ठहरी वह! इसलिए कि औरत जात में जन्म जो हुआ है उसका! लड़की जात को तो जाना ही होता है दूसरे घर में। कहाँ रहेगी यहाँ, जहाँ उसके छोटे भाई नहीं हैं, जहाँ भाभी-भैया नहीं हैं, मृत्यु ने सभी को छीन लिया है सरला से। माता-पिता का साया तो बहुत पहले ही छूट गया। कोई नहीं है उसका अपना, सभी पराए हैं।

सरला के अब तक घर न बसाने से गोतिया जन चिंतित हैं। वे तो चाहते हैं कि जितनी जल्दी हो, सरला उनसे दूर हो जाए। सरला गोतिया जन की आँख की किरकिरी बनी हुई है। उसे गोतिया जनों से अकसर जल-कटी सुनने को मिलती है, तो वह बेचैन-सी हो उठती है।

पर कहाँ जाकर अपना जीवनसाथी ढूँढ़े वह? कहाँ, किसके साथ घर बसाए वह तुरंत? यह प्रश्न बहुत बड़ा था, जिसका निदान मिलना संभव नहीं था। सरला स्वयं से ही माकूल उत्तर की प्रत्याशा में प्रश्न पूछ बैठती, ‘‘क्या यह गाँव-देश उसका नहीं है, यह घर-द्वार उसका नहीं है? क्या लड़की जात के लिए उसके अपने घर में जगह नहीं है? क्या लड़की जात को कोई कानूनी अधिकार नहीं होता? यदि ऐसा है, तो लड़की-लड़का एक साथ समाज में कैसे रह सकते हैं? फिर ऐसे में संताल समाज की गाड़ी कैसे बढ़ सकती है?’’ यह सब उसने पीपल के पेड़ के तले ही सोच लिया।

सरला माता-पिता के देहांतोपरांत अकेली ही गाँव के लोगों के साथ गत अठारह वर्षों से रह रही है। गोतिया जनों की मदद के बिना ही जीती रही है। फिर गोतिया जन उसकी मदद क्यों करने लगे? वे तो उसके दुश्मन ही थे। सरला अपने गोतिया जनों के लिए सिरदर्द ही थी।

कुछ देर में अचानक आवाज गूँजी—‘‘हाँ, हमने पा लिया भागनेवाली को... यह रही, यह रही। इस पेड़ के नीचे खड़ी है। पकड़ो इसे, पीटो इसे, जान से मार डालो इसे, यह डायन है, यह डायन है।’’

आज लोभ-लालच के कारण उसके गोतिया जन, जिन्हें जमीन-जगह-धन और अनाज चाहिए, सरला को जान से मारने पर तुल गए। लोगों की मार और लात को झेलती सरला गिर पड़ती है, वहीं पीपल के पेड़ तले निढाल जमीन पर। उसे उसी हाल में बाँधकर, घसीटते हुए पोखर के अड्डे तक ले जाया जाता है और धक्का देकर पानी में फेंक दिया जाता है। शैवाल में डूब जाती है सरला। सभी उसे, उसी हाल में छोड़ वापस लौट जाते हैं अपने-अपने घरों को।

सुबह सूर्य की रोशनी में लड़की को पानी में डूबा देखकर चहुँओर यह खबर फैल जाती है कि सरला को बुरी तरह से मारकर पोखर में फेंक दिया गया है। लोग जमा हो जाते हैं पोखर के पास। पुलिस को यह खबर मिलती है तो दारोगाजी आ धमकते हैं। पोखर पानी से सरला को निकाला जाता है। पर यह क्या? सरला तो मरी नहीं है, वह तो जीवित है! बेहोशी की उसी हालत में उसे डॉक्टर के पास ले जाया जाता है।

डॉ. सीमाल बाबू सरला को देखते ही पहचान जाते हैं और पूछ बैठते हैं, ‘‘सरला, यह तुम्हें क्या हुआ? तुम्हारी यह हालत कैसे हो गई?’’ फिर जल्दी-जल्दी उन्होंने उसे दवा दी। सरला धीरे-धीरे उठ बैठी और बोली, ‘‘डॉ.बाबू, आपने मेरी जान क्यों बचाई? मर जाने दिया होता मुझे। मैं गोतिया जनों की दुश्मन हूँ न, उनकी आँखों की किरकिरी हूँ न, मेरे मरने से उनको खुशी होती। उनको मेरे हिस्से की जमीन मिल जाएगी। एक बित्ता जमीन की खातिर ही उन्होंने मेरी यह दुर्दशा की है।’’

इस पर सीमाल बाबू बोले, ‘‘धर्म ही तो निभाया है मैंने, एक मरणासन्न को बचाकर।’’

फिर दारोगाजी को देखकर सरला बोली, ‘‘दारोगाजी मेरे ऊपर जो अत्याचार हुआ है, उसे तो मैं सह ही लूँगी, क्योंकि मैं तो लड़की जात हूँ। मेरे भाग्य में तो यही लिखा है। मैं लड़की हूँ न! मेरा तो कोई जन्मस्थल हो ही नहीं सकता न। मेरी कोई जगह-जमीन भी नहीं हो सकती। इसीलिए मुझे मरना चाहिए न। मुझे मारनेवाले, मेरी यह गत बनानेवाले कोई और नहीं, मेरे अपने गोतिया हैं। इन्हें पकड़ने से क्या होगा? ये हमारे समाज का नियम है, हमारी परंपरा है, जिसके कारण मेरा यह हाल हुआ है। आप भी क्या कर सकते हैं? क्या होगा इन्हें पकड़कर या सजा देकर?’’

‘‘हाँ दारोगाजी, जो बात सरला कह रही है, शत-प्रतिशत सही है।’’ डॉ. सीमाल ने हामी भरी।

‘‘डॉ. बाबू आप! आप सरला को जानते हैं?’’ दारोगा ने पूछा।

‘‘जी, मैं सरला को भली-भाँति जानता हूँ। बालपन से हम दोनों एक साथ, एक-दूसरे के आस-पास रहकर खेले और बढ़े हैं। अब जब यह बड़ी हो गई है, हम दोनों एक-दूसरे से प्रेम करते हैं, सरला के बाएँ हाथ की उँगली में जो अँगूठी चमक रही है, वह मेरे प्रेम की निशानी है।’’ सीमाल बाबू ने स्पष्ट किया।

दारोगाजी इस प्रेमकथा को जानकर बोले, ‘‘सरला और सीमाल बाबू, आप दोनों से पूरी कहानी सुनकर मैं सारी बातों से अवगत हो गया हूँ, इसलिए मेरी सलाह है कि आप दोनों टाटा कोर्ट जाकर विवाह-बॉण्ड भरकर विवाह कर लें। जहाँ तक सरला के गोतिया लोगों को माफ करने और छोड़ने का प्रश्न है, तो मैं उन्हें छोड़ नहीं सकता। वे तो सरला पर अत्याचार करने और मार डालने की साजिश में शामिल हैं। इसलिए वे भारतीय दंड संहिता 325 के तहत दोषी हैं। इस जुर्म में इन्हें मैं टाटा हाजत भेज रहा हूँ, तभी इनके होश ठिकाने लगेंगे।’’

दारोगा की बात सुनकर डॉ. सीमाल ने कहा, ‘‘दारोगाजी आप जैसा कहते हैं वैसा करने को हम तैयार हैं। परंतु मेरे माता-पिता, गोतिया लोग और समाज के पंचगण भी हैं, इसलिए अभी हम अपने गाँव नीमड़ी जाएँगे। मेरे माता-पिता भी संभवतः काम से लौट गए होंगे। उनके मार्गदर्शन से हम आगे का कार्यक्रम तय करेंगे।’’

‘‘तो ठीक है, जो आप लोगों को उचित लगे, कीजिए।’’ दारोगा ने कहा।

‘‘मैं सरला को भी अपने साथ लिये जा रहा हूँ।’’ फिर सरला के कंधे पर हाथ रखते हुए सीमाल बाबू बोले, ‘‘चलो सरला मेरे साथ। मैं तुम्हें अपने गाँव लिये चलता हूँ, जहाँ हम विवाह के बाद साथ-साथ जीवन बिताएँगे।’’

दारोगाजी ने प्रेमी युगल को अलविदा कहा।

अनुवाद : सोने कुमार हेम्ब्रम

साभार : वंदना टेटे