ईद (डोगरी कहानी) : पद्मा सचदेव

Eid (Dogri Story) : Padma Sachdev

उस दिन ईद थी। 'ईद मुबारक! ईद मुबारक!' की आवाजें हवा की आहटों से भी आ रही थीं। नए, उजले, साफ-सुथरे कपड़ों की जेबों में ईद स्वर सुनाई दे रहे थे। सेवैयों की महक से आँगन मस्तियाया हुआ था। मरदों का ईदगाह जाने का उत्साह कमरे-कमरे की मसरूफियत से झाँक रहा था। अचकनें पहने, दुपल्ली टोपियों की नोकें सँवारते, मरदों ने कानों में इत्र के फाहे उड़ेसे और इलायचियाँ भरी चाँदी की डिब्बियाँ जेबों में डाल लीं। पेशावरी जूतों की चों-चीं को नकारते मर्द ईदगाह चले गए तो औरतों ने मलमली गठरियों में लपेटे कामदार जोड़ों को बाहर निकालकर झाड़ा। सीधा करके उनकी सलवटों पर धीरे-धीरे इस्तरी की और ईद की आमद के लिए तैयार हो गई।

काजल बनानेवाली ने साटन की पोटलियों में काजल भरकर चाँदी की सलाइयों को मखमल के बटुए में बंद किया। पान का बीड़ा तहाकर मुँह की बाईं तरफ रखा, गरारे का पाहुँचा जरा सा ऊपर उठाकर काली नई सैंडल का मुआयना किया और काजल बेचने चल निकली। वैसे तो ईद पर बँधे हुए ग्राहक रहते हैं, पर इसी दिन ही तो इनमें इजाफा भी होता है।
बच्चे अपने नए-नए कपड़े एक-दूसरे को दिखाकर खुश हो रहे थे। सलीम मियाँ अपनी कामदार जैकेट में अकड़कर घूम रहे थे। कहीं अनारकली कबूतर उड़ाने का ख्वाब ले रही थी। किसी घर में सिवैयाँ पक रही थीं, कोई बाँट भी चुका था और कोई तश्तरियों में सजाकर उड़ते हुए वर्क की अदा में आनेवालों के खयाल में गुम था। आज सिवैयों वाली ईद थी।

ईद के त्योहार से भरी-भरी मैं कई जगह दोस्तों को ईद मुबारक के फोन कर चुकी थी और एकाग्रचित्त होकर सोच रही थी, कोई रह तो नहीं गया। पायल की छन-छन ने इस खुशनुमा सुबह को और मुखर बनाते हुए मेरा ध्यान तोड़ा। धीरे-धीरे आती यह झनकार द्रुत की लय की तरह ही बढ़ रही थी। मैंने दरवाजा खोला। एक चीहना हुआ चेहरा अनचीहना सा लगा। उसने मुसकराकर कहा, ''मेम साहब, ईद मुबारक।'” अब कोई शक न था, यह सलमा ही थी। वह फिर बोली, “नहीं पहचाना, में सलमा हूँ।”
“ओह, वही तो, वहीं तो मैं भी सोच रही थी। हाँ, सलमा ही तो है।” मैंने कहा।

“तुम्हें भी ईद की बहुत मुबारक सलमा, आओ-आओ।" मैंने उसे बैठने के लिए मोढ़ा दिया, फिर दूसरा मोढ़ा लेकर उसके पास बैठ गई। सुबह पाँच बजे गलियों, बाजारों, कूड़ाखानों, दुकानों के आगे-पीछे से कागज बटोरती मेरी सलमा तो आज सलमा सुलतान लग रही थी। मैंने उसे गले से लगाया और कहा, ''क्यूँ सिवैयाँ नहीं लाई?"
“हाँ, लाई हूँ। मेरी भाभी ने तड़के ही बना दी थीं। अपनी तो मैं अभी जाकर बनाऊँगी। यह लो, खा लो बीजी।''
मैंने सिवैयों को मुँह में भरकर कहा, “अरे, ये तो बड़ी स्वादिष्ट हैं!”
"आ हाँ, बीजी, मैं बनाऊँगी तो देखना। मेरा घरवाला तो अभी भी दूध की लाइन में लगा होगा। मैं तो जहाँ लड़की ब्याही है न, वहाँ उसे ईदी देने गई थी। हमारे घर में वे लोग आ जाते तो कहाँ बिठाती? हमारे झोंपड़े में तो नाली का पानी भर रहा है। समधियों को, दामाद को कहीं बिठाती? इसलिए तो इतनी जल्दी पहुँच गई। वैसे मेरी बेटी की सास मेरी दूर की ममेरी बहन भी हैं। सारे बच्चों को पाँच-पाँच रुपए दिए। अपनी को इक्कीस। दामाद को भी देने पड़े। पहली ईद है न! अल्ला खैर करे! अगली ईद तक तो तीसरा भी आ जाएगा।” यह कहकर सलमा हँसी।
“सलमा, अभी तो तेरी बरकती खुद ही बच्चा है।''
“हाँ बीजी, उसकी सास अस्पताल में काम करती है। वहीं बच्चा हो जाएगा। लटैर (रिटायर) हो गई तो फिर मुश्किल होगी। इनके घर में सारे बच्चे अस्पताल में ही हो जाते हैं, पैसे भी नहीं लगते। जब से शादी हुई है, एक रात भी दामाद बरकती को मेरे पास नहीं रहने देता। उनके तो दो पक्के कमरे हैं-एक कच्चा कमरा आँगन में है, एक अभी और भी बना सकते हैं।"
मैंने कहा, ''पर इतनी जल्दी बच्चा!"
“बीजी, इस उम्र में तो मेरे दो हो गए थे। अभी तो मेरी बेटी का ससुर भी पाल लेगा। बुढिया लटैर होगी तो नौकरी मेरी बेटी को ही मिलेगी। लो बीजी, चलूँ।''
“ठहरो सलमा, ईदी लेती जाओ। बच्चों को मेरी तरफ से मिठाई ले देना।"

“बने रहो बीजी। जब भी मेरी जरूरत हो, बुला लेना। चलूँ, मेरा मर्द आ गया होगा। आज दो पेटियाँ मिल गई थीं, तोड़कर बाँध के रख आई हूँ। इससे सिवैयाँ भी बन जाएँगी और पराँठे भी उतार लूँगी। जिस दिन पराँठे बनाऊँ, मेरा मर्द आठ तो खा ही लेता है। इतने ही बच्चों के हो जाते हैं, जो बच जाएँ, वे अपने। अच्छा बीजी, चलूँ।''

“जाओ सलमा, फिर आना।” मैंने कहा तो वह हँसती-हँसती चली गई। आज ईद थी और सलमा आज कूड़े के ढेर से निकल हीरे की तरह चमक रही थी। अलस्सुबह सैर करने जाने का शौक मुझे बचपन से है। आज धुँधलके में सैर करना बचपन को जगा देता है। सुबह के तारे को देखना दिन भर का शगुन हो जाता है। यह भुरुकवा हँसते हुए बच्चे के चेहरे पर अटके आँसू की बूँद की तरह लगता है। इसी भुरुकवा के चलते कभी-कभी सलमा भी मिल जाती है। कागजों, झाड़-झंखाड़ और लकड़ी से भरी बोरी को घसीटती और चारों तरफ अपनी पैनी नजर को घुमाती-तलाशती सलमा तेज-तेज कदमों से चलती। भुरुकवा की तरह उसके साथ आया कोई मटमैला बच्चा भी पीछे रह जाता, बोरी की तरह घिसटता रहता। भुरुकवा के पीछे भी एक छोटा तारा रहता, उससे बेखबर सलमा अपनी बोरी भरती रहती। वह अपने बच्चों को सिर्फ बोरियों की रखवाली के लिए रखती है। कभी-कभी हल्का बोरा उनको देती है। इस कर्मठ औरत के चेहरे पर मैंने कभी शिकन नहीं देखी। मेरी और उसकी दोस्ती का मुख्य रूप यही है। कई बार वह मुझे खुश होकर कहती है, ''बीजी, मेरा और आपका नाम कितना मिलता है न!"

एक दिन सुबह बहुत सर्दी थी। जगह-जगह कमेरों ने रात की छाती के ठीक नीचे अलाव जलाए थे। पीली सोनाली रोशनी में कमेरों के काले-काले हाथ सिकते हुए नाच रहे थे। सलमा भी वहीं बैठी थी। उसे देखकर मैं भी वहीं बैठकर हाथ सेंकने लगी। सलमा ने ठंड में काँपते हुए कहा, '“बीजी, आग न हो तो सुबह ही न हो। हम तो सभी लोग ठंड से झुलस ही जाएँ।"
मैंने कहा, “हाँ, यह तो ठीक है।"
कमेरों में से एक बोला, ““बीजी, आप भी इसकी हाँ-में-हाँ मिलाती हैं। ठंड से कहीं हाथ झुलसता है।” यह कहकर वे उठ गए और कूड़े से भरी एक गाड़ी को ठेलने लगे।
उनके जाते ही सलमा हँसकर बोली, ''अपने देस का है न। मसखरी करता है।"
मैंने पूछा, ''सलमा, तुम्हारा देश कहाँ है?"

हाथों को पापड़ की तरह आग पर सेंकते हुए सलमा कहने लगी, “पैदा तो मुर्शिदाबाद में हुई। मेरे बाप की खेती थी। जमीन पर धान, खेसारी, मसूर की काली दाल, चना सब उगता था। हम तो पाँच भाई-बहन थे। भाई लोग काम करते थे। खूब सब्जी होती थी। बैंगन, आलू, अरबी, सेम। मैं भाई लोगों के लिए रोटी लेकर जाती थी। वहाँ खूब मिट्टी होती। मैं उसके खिलौने बनाकर खेलती थी। जिस खिलौने का मन होता, वही बना लेती और खेलती रहती। कभी गुडियाँ, कभी कुत्ता, कभी बिल्ली, कभी आदमी। मेरा आदमी तब चरवाहा था। पहले गाय-गोरू चराता था, फिर हलवाहा हो गया। मेरे ही देस का था। उसने मुझे रास्ते में देखा था। बस, भा गई।” यह कहकर सलमा शरमाई। सास बन जाने के बाद भी प्यार की पहली पुलक शीशम की टहनी सी लजा रही थी।
मैंने कहा, ''तुम्हें भी तो वह अच्छा लगा होगा, नहीं तो शादी कैसे होती?"

वह लजाकर बोली, “वह तो अच्छा है ही, तभी तो अच्छा लगा, पर मेरे माँ-बाप राजी नहीं हुए। मैं 18-19 की थी और वह पच्चीस का। हम लोग ने शादी कर ली और यहाँ दिल्‍ली में आ गए। यहाँ वह रिक्शा चलाता है, मैं कागज बीनती हूँ। बस, गुजारा हो जाता है। सारा पैसा लाकर मेरे ही हाथ पर रखता है। बीड़ी नहीं पीता, पान नहीं खाता। कभी-कभी बोतल पीता है। उसे उसका बड़ा शौक है। अरे बीजी, बोतल नसावाली नहीं थम्सअप की। अब तो बच्चा भी बंद कर दिया है। हमारा मर्द बोला, मैं ऑपरेशन नहीं करवाऊँगा तो मैंने ही करवा लिया। कुछ तखलीप नहीं है। मर्द भी खुस हम भी खुस।''

आग की लौ मद्धिम होकर नीचे पड़े कोयलों को राख कर रही थी। आसमान में उषा ने अपने आने से पहले अपनी चुनरी सूखने डाली थी। भुरुकवा कहीं भाग गया था। मैंने कहा, “सलमा, अब सुबह होनेवाली है। तुम कभी आना, मैं अब जाऊँगी।''
“आऊँगी बीजी।"

फिर चुनाव का दौर शुरू हुआ। यह मुरदा और वह जिंदा होने लगा। गालियों के पोस्टर रोज ही बदल जाते। पार्टियों के झंडे सड़कों को आवारा साँड़ों की तरह घेरकर फुँकारते रहते। शरीफ लोग हर काइयाँ नजरों से बचते-बचाते घर पहुँचते। क्या लड़कियाँ, क्‍या लड़के, दीवानावार वोटों को अपनी पार्टी की तरफ खींचने की कोशिश करते जैसे कोई मैयत उठनेवाली हो, जैसे कोई बरात चढ़नेवाली हो। शोर में कुछ पता न चलता। बस, दिन गिनते चुनाव हो गए। एक दिन मैंने सलमा को देखा, लँगड़ाकर चल रही थी। उसके घुटने पर एक मैली-कुचैली पट्टी का टुकड़ा झूल रहा था। मैंने पूछा, ''क्या हुआ सलमा?''

“बीजी, उस हरामी ने सोटी मार दी। कहता है, कागज क्यूँ चुनती हो और वह दूसरी है न, उसके साथ खीं-खीं करता है। उसे कुछ नहीं बोलता। सब बदमास है। उस राँड़ ने तो इज्जत बेच खाई है। उसके इसारे पर चलती है, मैं तो नहीं जाती। हम तो एक बखत खाएँगे, पर इज्जत से रहेंगे।''
मैंने कहा, “किसकी बात कर रही हो?"
वह बोली, “वही पुलिसवाला हरामी और कौन।” उसने एक तगड़ी गाली और जोड़ी तो मैं शर्म से पानी-पानी हो गई।
मैंने बात बदलते हुए कहा, ''सलमा, वोट किसको दिया?"

“भोट तो हम राजेश खन्ना को दिया। पहले हमारा झुग्गी उठ रहा था। अब कांग्रेसवाला ने हिम्मत दिया। बोला, भोट हमें दो, झुग्गी न उठेगा। हमने भोट तो हाथ पर ही मारा, पर कमल फूलवाला जीत गया। तो भी राजेश खन्ना ने कहा, झुग्गी नहीं उठेगी। हम तो अब उधर ही है, नहीं तो रोज हरामी का पिल्ला झुग्गी उठाने की धमकी देता था। हमारा सौ आदमी राजेश खन्ना के पास गया था। उसने कहा, आराम से रोटी खाओ, हम निपट लेगा। देखो बीजी, अब सब ठीक है। भोट के लिए भी कितना लोग था कांग्रेसवाला, कमलवाला, चक्‍कावाला, छुरीवाला। भोट खत्म हुआ, अब आराम है।"
मैंने उससे पूछा, '“सलमा, पुलिसवाला अब तंग तो नहीं करता न?"

वह तमककर बोली, “हाँ, कैसे नहीं करेगा? एक दिन मेरी बोरी को आग लगा दी। डंडा मारता है, छेड़ता भी है हरामी, गंदा गाली बकता है। फिर बोलता है एतना सुबह क्या करने आती है साली। जो औरत लोग उसकी बात मानता है, उसे कुछ नहीं कहता। हमें कहता है, चल थाने, वहाँ रोटी मिलेगी। क्या करें बीजी, हम मजबूरी में काम करते हैं। मेरा आदमी को पता चले तो इस हरामी के पिल्‍ले की नाक काट के रख दे।'' यह कहकर सलमा लँगड़ाती हुई चली गई।
फिर कहीं महीने बीत गए। ईद फिर आनेवाली थी। मैंने सोचा, अबकी सलमा को जरूर साड़ी दूँगी। अगले दिन सुबह ही सलमा मिल गई। उसे देखकर मुझे बेहद खुशी हुई। उसके हाथ में आज बोरी की जगह खाली बोतल थी। मैंने पूछा, ''सलमा, क्या बात है?''
“क्या हाल बताऊँ बीजी, पुलिसवाला हमारी बोरी ले गया था। पाँच रुपया दिया तो छोड़ी है। मेरे लड़के को कल किसी ने गली में पत्थर मार दिया, सिर फट गया है। मेरा मर्द उसे पट्टी करवाकर लाया तो बोला, दूध ले आना, हल्दी डालकर पिला देंगे तो जल्दी ठीक होगा, पर ये साँड बोरी ही ले गया। अब आई हूँ तो दूध का डिपू बंद है।"
“आओ सलमा, घर चलो। तुम्हारे लड़के के लिए तो दूध मैं ही दे दूँगी।” मैंने उसे कहा तो वह मेरे पीछे-पीछे चली आई। मैंने बोतल दूध से भर दी तो वह कृतज्ञता से भरी मुड़-मुड़कर देखती हुई चली गई।

ईद फिर आई। दिन सजने को तैयार खड़ा था। मुबारकों के ढेर फूलों की तरह बिखर जाने को तैयार थे। दरवाजे पर ठक-ठक हुई तो देखा सलमा खड़ी थी। कूड़ा बटोरनेवाले वही कपड़े। न चेहरे पर रौनक, न ईद की बहार। मुझे डर लगा, पता नहीं क्‍या हुआ है। मैंने सहमी हुई आवाज में कहा, ''सलमा, आज तो ईद है।"

उसने गरदन झुका ली। फिर रुआँसी आवाज में सिर झुकाए-झुकाए ही बोली, “हमें बांग्लादेस जाने को बोलता है। मैंने अपने घरवाले को किसी की छत पर छुपाकर रखा था। बच्चे जाकर उसे रोटी-पानी दे आते थे। बच्चे गलियों में भटकते। रात को हम उसी छत पर चोरी से सो जाते। झुग्गी के पास कोई फटकता न था। मैं रोज बाजार से सब्जी लाती, कहीं फुल्के सेंककर रख लेती। पानी की एक बालटी भी मर्द के पास रखी थी। वहाँ टंकी से पानी लेते थे। पुलिस ढूँढ़ती रही, हम मिले ही नहीं। बीजी, हम क्‍यों बांग्लादेस जाएँ, हमारा देश तो यही है। मुर्शिदाबाद क्या बांग्लादेस है? आप ही बताओ, पर पुलिस नहीं सुनती। भेड़-बकरियों की तरह खदेड़ रही है। यहाँ ढाका का भी बहुत लोग है। बिहार का भी, बाँग्लादेस का भी, पर हम तो बांग्लादेसी नहीं हैं न। फिर हमें क्यूँ भेजता है? अपना मुल्क छोड़कर कौन जाएगा? दिल्‍ली का सरदार भोटवाला राजा है। हम तो उसे ही भोट देंगे, पर ये मुसीबत टल जाए।"

सलमा ने गरदन उठाई, फिर कहने लगी, “बीजी, अब तो हमारी झुग्गियों में सब औरतों ने अपने नाम, सीता, लक्ष्मी, सरस्वती रख लिया है। यह नाम का औरत तो पक्का यही देस का है। इनको तो कोई नहीं बांग्लादेस भेजेगा न? बीजी, पुलिस लेने आता है, थाना का पुलिस। हम तो कपाल पै बिंदी दे दी है। नाम भी बदल दिया। मेरे मर्द ने कहा, कोई बात नहीं, नाम बदलने से कुछ नहीं होता, देस में रहना तो मिलेगा न। उसने अपना भी बदला है।” सलमा कह रही थी। जैसे किसी बुत के आगे कैफियत दे रही हो। मेरे मर्द ने कहा, मिला-जुला नाम रख ले। जब भोट की तरह बांग्लादेस का शोर भी कम हो जाएगा, तब फिर बदल लेंगे। बांग्लादेस में वैसा ही नाम एक नदी का भी है।''
मैंने हिम्मत करके पूछा, “सलमा, क्या नाम रखा?"

उसकी गरदन और झुक गई। फिर वह धीरे-धीरे बोली, “आपसे ही मिलता है। बस, शोर कम होगा तो फिर बदल लूँगी। कुछ दिनों की ही बात है।'' यह कहकर वह कृतज्ञता से देखती हुई चली गई, जैसे मैंने ही उसे अपना नाम रखने की सलाह दी हो। तब से मैं उस जगह जमीन के एक टुकड़े पर पेड़ सी उग आई हूँ, जो अपनी बाँहें तो हिला सकता है, पर कदम नहीं उठा सकता।

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