दुपट्टा : पंजाबी लोक-कथा

Dupatta : Punjabi Lok-Katha

एक राजा था। उसके सात पुत्र और एक पुत्री थी। जब राजा के लड़कों ने युवावस्था में पाँव रखा तो उन सभी के विवाह कर दिए गए। सातों भाई राजमहल में अलग-अलग कमरों में रहने लगे। राजा की पुत्री अपने पिता के पास ही रहती थी।

एक बार तीज का त्यौहार आया, राज्य में सब कहीं चारों ओर खुशी का ही आलम छाया हुआ था। लड़कियाँ खुशियाँ मनाने लगी। वे सुन्दर वस्त्रों में सजी-धजी मानो अपने में फूली ही न समा रही थीं । वे अपने रंग-बिरंगे दुपट्टे लहराती हुईं इधर-से-उधर घूमती नज़र आ रही थीं। उन लड़कियों को देखकर राजा की पुत्री ने भी पहली बार एक दुपट्टा लेने की इच्छा प्रकट की। राजकुमारी ने अपनी माता से जब अपनी यह इच्छा प्रकट की, तो उसकी माता ने उससे कहा, "बस, इतनी-सी बात है। तुमने दुपट्टा ओढ़ने का अपना चाव पूरा करना है, तो एक दुपट्टा अपनी भाभियों से ले लो।" यह सुनकर वह अपनी भाभियों के पास गई, परन्तु वह जिस भाभी के भी पास जाती, वही उसे दुपट्टा देने से मना कर देती। अन्त में उसकी सबसे छोटी भाभी ने उसे दुपट्टा दे दिया। उसे देते हुए भाभी ने कहा, “यदि मेरा दुपट्टा खराब हो गया या उस पर कोई निशान लग गया तो मैं दुपट्टा तुम्हारे रक्त से रंगूंगी। लड़की ने उस भाभी की यह शर्त मान ली और लाल रंग का दुपट्टा लेकर खुशी-खुशी तीजों का मेला देखने के लिए चल पड़ी।

मेला देखते हुए पता नहीं कैसे और कहाँ से उस दुपट्टे पर एक भद्दा-सा निशान लग गया। लड़की ने उस निशान को उतारने का बहुत प्रयत्न किया। जैसे-जैसे उसने उस निशान को उतारना चाहा, वैसे-वैसे वह निशान और अधिक गहरा होता चला गया। लड़की को बहुत दुःख हुआ, परन्तु उसने बिना किसी से कुछ कहे, वह दुपट्टा जाकर अपनी सबसे छोटी भाभी के सन्दूक में रख दिया और भाभी से जाकर केवल यही कहा कि मैंने तुम्हारा दुपट्टा तुम्हारे सन्दूक में रख दिया है।

समय बीतता गया। कुछ समय पश्चात् जब उसकी भाभी ने अपना सन्दूक खोल कर उस दुपट्टे को देखा, तो उस पर एक निशान लगा हुआ था। वह सहसा अत्यन्त क्रोधित हो उठी और पलंग पर एक चादर ओढ़ कर सो गई। जब राजकुमार ने अपनी पत्नी को उस दिन बेवक़्त ही मुँह ढाँप कर लेटे हुए देखा तो वह अत्यन्त निराश हो गया। उसने बड़े प्यार से उससे पूछा, "प्यारी रानी ! आज तुम्हें क्या हुआ है, किसी ने तुम्हें कुछ कह दिया है क्या ?" राजकुमार के प्रश्न का रानी ने कोई भी उत्तर न दिया और पहले की तरह ही उसी मुद्रा में चुपचाप लेटी रही। जब राजकुमार ने दूसरी बार पूछा, तो भी रानी ने उसे कोई उत्तर न दिया। फिर राजा ने तीसरी बार पूछा, तो रानी कहने लगी, “तुम्हारी बहन कुछ दिन पहले तीजों के मेले में जाते समय मुझसे दुपट्टा माँग कर ले गई थी, आज देखा तो उस दुपट्टे पर एक अत्यन्त भद्दा-सा निशान लगा हुआ है। मैंने उसे पहले ही चेतावनी देते हुए कहा था कि यदि इस दुपट्टे पर कोई भी निशान लग गया तो मैं यह दुपट्टा उसके रक्त से रंगूंगी। अब तुम्हारी बहन को अपना वह वायदा पूरा करना होगा, नहीं तो मैं जीवित नहीं रहूँगी। राजकुमार सब कुछ सुनकर कहने लगा, "देखो, यह कोई बड़ी बात नहीं है, हम तुम्हारा वचन पूरा करवाने का कोई उपाय अवश्य करेंगे।"

कुछ ही दिन बीतने पर उसी राजकुमार ने कहा कि मैं अपने ननिहाल जा रहा हूँ। यह कह कर उसने अपनी पत्नी और बहन को भी यात्रा के लिए अपने ही साथ ले लिया। चलते-चलते जब वे तीनों काफी दूर चले गए, तब जंगल में एक स्थान पर जाकर राजकुमार ने अपनी बहन की देह को तलवार से काट डाला। फिर उसके रक्त से पत्नी के दाग-लगा दुपट्टा रंग कर वह पत्नी के साथ अपने महल वापस आ गया। घर आकर उसने अपने माता-पिता से झूठ-मूठ ही कह दिया कि उसकी बहन तो अपने ननिहाल में कुशलपूर्वक है। वहाँ पर उसका मन लग गया है, इसलिए अब कई दिनों तक वह वहीं ननिहाल में ही रहेगी। हाँ, कुछ दिन बीत जाने पर वे जाकर उसे वहाँ से ले आएँगे। धीरे-धीरे समय बीतता गया। लड़की की माँ उसकी प्रतीक्षा करते-करते बुरी तरह से थक-हार गई।

एक दिन रानी माता ने नाई को बुलाया और उससे कहा, "तुम ननिहाल जाकर मेरी पुत्री को ले आओ।" जब नाई लड़की को ननिहाल से लाने के लिए चला, तब मार्ग में उसने एक बेरी देखी। यह वही बेरी थी, जिसके नीचे उसी के भाई ने उसकी देह को काटा था। जब नाई उस बेरी से बेर तोड़ने लगा, तब बेरी के पत्तों और टहनियों में से यह आवाज़ आई-

सुन भाइयों के नाई, खुद मेरे भाई ने काटा।
भाभी ने कटवाया, दुपट्टा खून से रंगवाया।।

यह भयानक बात सुनकर सहसा वह नाई सहम-सा गया। वहाँ से वापस आकर उसने यह रहस्य का समाचार रानी को बताया। सुनकर उस रानी ने एक लुहार को बुलावा भेजा। नाई ने उस लुहार को भी वह भयानक रहस्य बता दिया कि मार्ग में खड़ी बेरी इस तरह कहती है। लुहार भी जंगल में चलता-चलता जब उसी बेरी के पास पहुंचा, तो उसे बहुत भूख सताने लगी। इसी बीच उसे यह तो याद ही न रहा कि वह बेरी कुछ बोलती भी है। वह केवल उसकी ठण्डी छाया देखकर ज्यों-ही उसके नीचे खाना खाने बैठा, त्यों-ही उस बेरी में से आवाज़ आई-

सुन भाइयों के नाई, खुद मेरे भाई ने काटा।
भाभी ने कटवाया, दुपट्टा खून से रँगवाया।।

यह सुनकर लुहार डर गया और दौड़ता हुआ महल में वापस आ गया। उसने बेरी से ज्ञात हुई वह सारी बात रानी को बताई। अब रानी ने एक बढ़ई को वह बेरी ही काटने के लिए वहाँ भेजा। उसका आदेश पाकर वह बढ़ई बेरी काटने के लिए महल से चल पड़ा। जब वह बेरी के पास पहुँचा, तो बेरी में से फिर से आवाज़ आई-

सुन भाइयों के नाई, खुद मेरे भाई ने काटा।
भाभी ने कटवाया, दुपट्टा खून से रंगवाया।।

जब उसने भी यह आवाज़ सुनी, तो पहले तो वह बहुत डर गया और वहाँ से तुरन्त वापस भागने की सोचने लगा। फिर कुछ देर तक मन-ही-मन सोचकर, धैर्य रख कर वह बढ़ई उस बेरी के पास गया । अब उसने उसे हिम्मत करके अपनी तेज़ कुल्हाड़ी से काट कर परे फेंक दिया। ठीक उसी समय वहाँ से एक साधु-महात्मा गुज़र रहे थे। उन्होंने उस बढ़ई से कहा, "यदि तुम इसमें से थोड़ी-सी लकड़ी मुझे दे दो, तो मैं अपने लिए इसकी एक वीणा बना लूँगा।'

बढ़ई ने कहा, "महाराज ! आपको जितनी लकड़ी की भी आवश्यकता हो, इस कटी हुई बेरी में से खुशी-खुशी ले सकते हैं। साधु ने उसके कहे अनुसार उस बेरी में से केवल थोड़ी-सी ही लकड़ी ली और उस लकड़ी से वहीं पर एक सुन्दर-सी वीणा बना ली। इसके बाद वह बढ़ई महल में वापस आ गया और रानी को उसने यह बताया कि उसने वह बेरी पूरी तरह से काट दी है। हाँ, उस बेरी की थोड़ी-सी लकड़ी लेकर एक साधु-महात्मा ने अपने लिए एक वीणा अवश्य बना ली है।

धीरे-धीरे समय बीतता गया। कुछ दिनों के पश्चात् वही साधु वीणा बजाता हुआ उसी शहर में आ गया। वह वीणा अपने आप बजना आरम्भ कर देती थी। वह साधु लोगों से भिक्षा लेता हुआ आगे-ही आगे चला जा रहा था। जब साधु लड़की के भाइयों के पास पहुँचा तो उस सुन्दर वीणा में से सहसा यह आवाज़ आई-

बज-बज बज बज मेरी वीणा छानगी।
मैं खड़ी भाभी तेरे द्वार | भाभी उठ भिक्षा डाल।।

यह सुनकर लड़की की भाभी ने मोतियों की थाली भरकर उसे भिक्षा डाल दी। ऐसे ही साधु छहों भाइयों के घर गया और सभी ने मोतियों के थाल के साथ-साथ और बहुत कुछ उसको भिक्षा में दिया। जब वही साधु सातवीं भाभी के पास आया तो वीणा कहने लगी :-

बज-बज बज बज मेरी वीणा छानगी।
मैं खड़ी दुष्टा तेरे द्वार। उठ दुष्टा भिक्षा डाल ।।

पंजाब की लोक कथाएँ - यह सुनकर उस भाभी को सभी बात याद आ गई कि यह तो उसी लड़की की आवाज़ है, जिसको मैंने अपने पति से कटवाया था। इसके खून से ही तो मैंने पहले अपना लाल दुपट्टा रँगवाया था। उसने साधु के लिए एक मुट्ठी भर राख उसके भिक्षा-पात्र में डाल दी। साधु आगे चल कर जब रानी अर्थात् उसकी सास की ओर बढ़ा तो उस वीणा में से यह आवाज़ आई :-

बज-बज-बज-बज मेरी वीणा छानगी।
माँ ! खड़ी तेरे द्वार। उठ कर माँए, भिक्षा डाल।।

उसकी माँ ने अपनी बेटी की आवाज़ को पहचान लिया और उसे लगा कि यह तो ठीक वही वीणा है, जो कभी उस बेरी से बनी थी। रानी को उस वीणा में से अपनी बेटी का सुन्दर मुखड़ा भी दिखाई दिया। उसने उस वीणा को उसका मुँहमाँगा मोल देकर उस साधु से खरीद लिया और उसे ले जाकर भीतर एक अलमारी में रख दिया। इसके बाद उस साधु-महात्मा को और बहुत-सा धन देकर खुशी-खुशी अपने महल से विदा किया।

इसके बाद जब कभी वह रानी अपने कमरे में से कहीं बाहर जाती, तब उसके वापस आने तक घर का सारा साफ-सफाई का काम किया हुआ होता था। इसी तरह कई दिन बीत गए। रानी बहुत हैरान थी कि उसके जाने के बाद आकर कौन व्यक्ति उसके कमरे आदि का सारा काम-काज पूरा कर जाया करता है। कभी आटा गूंथा हुआ होता है, कभी रोटी बनी होती है और कभी तो रसोई के सभी बर्तन साफ करके सलीके से रख दिए होते हैं।

एक दिन रानी बाहर जाते ही लौट आई और कोने में छिप कर देखती रही। उसने देखा कि एक लड़की उसी वीणा वाली अलमारी में से बाहर निकल कर घर का सारा कामकाज निपटाने में लगी है। तभी रानी ने भीतर प्रवेश किया और उससे मधुर स्वर में यों पुकार कर कहा, “मेरी अच्छी पुत्री !" इतना मधुर और स्नेह-भरा स्वर सुनकर वह लड़की एकदम से अपनी माँ के गले लग कर रोने लगी, तो माँ ने बड़ी कठिनाई से उसे चुप कराया।

एक दिन जब माँ अपनी पुत्री को स्नान करवा रही थी, तब उसने देखा कि बेटी के सिर में एक कील ठुंकी हुई है। जब माँ उसके सिर में से खींच कर उस कील को निकालने लगी तो लड़की ने कहा, “माँ ! यह कील अभी मत निकालना, नहीं तो सारा काम ख़राब हो जाएगा। यह तो साधु-महात्मा की गाड़ी हुई कील है। इतना कहने के बाद उस लड़की ने अपनी सारी व्यथा-कथा अपनी माँ को सुना दी। फिर भी उसकी माँ को वह कील ज़रा भी अच्छी नहीं लग रही थी, इसलिए हठ करके उसने वह कील लड़की के सिर में से बाहर निकाल कर ही चैन ली। जैसे ही कील सिर में से बाहर निकली, वैसे ही वह लड़की अदृश्य हो गई। अब वह उससे कहने लगी, "माँ ! देखो, तुम घबराना नहीं। माँ, आगे जब कभी तुम मुझे याद करोगी, तब मैं तुरन्त तुम्हारी सेवा में आ जाया करूँगी, परन्तु अब तुम्हारे सामने नहीं आ सकती। तुमने तो मेरी साधु की निशानी को ही भूल से गँवा दिया। उसके बाद लड़की की आवाज़ तो बहुत बार सुनाई दी, परन्तु अपनी उस वीणा के साथ उसकी बेटी उसे फिर कभी भी दिखाई न दी।

फिर रानी की आज्ञा पाकर उसकी भाभी और उसके भाई को, जिन्होंने उसे काट कर उसके खून से लाल दुपट्टा रंगा था, कुत्तों से बुरी तरह से चीड़-फाड़ करवा दिया। इसके बाद आगे से शेष सारा परिवार प्रसन्नता और सुख-शान्ति से अपना आगे का जीवन व्यतीत करने लगा। छहों भाई अपनी उस बहन के ही नाम से सत्य और न्याय का राज्य करने लगे। प्रजा उन सबकी लम्बी आयु होने की ईश्वर से नित्यप्रति प्रार्थनाएँ किया करती थी। उस प्रजा और उसके राजा को पूरे संसार के लोग आदर्श मानते थे।

साभार : डॉ. सुखविन्दर कौर बाठ

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