दुनिया (कहानी) : सुभद्रा कुमारी चौहान

Duniya (Hindi Story) : Subhadra Kumari Chauhan

मिसेज चोपड़ा की बड़ी-बड़ी आँखें सजल हो गईं। उन्होंने रुंधे हुए गले से कहा, "रामेश्वरबाबू, दुनिया इतनी अकृतज्ञ है, मुझे न मालूम था।" इसके आगे वह कुछ बोल न सकीं। मैंने सांत्वना के स्वर में कहा, "खैर, आप इन बातों पर अब कुछ ध्यान न दें। एक सच्चे हितैषी के नाते मैंने आपको केवल सचेत कर दिया है। मैं आपके ही सामने अधिक क्या कहूँ, परंतु कभी-कभी क्रोध आ जाता है और रोके नहीं रुकता। अभी निमंत्रण की लिस्ट में उन लोगों का भी नाम देखकर मैं अपने क्रोध का सँवरण न कर सका और इतनी बातें आपके सामने कह दी, किंतु फिर भी मैं आपसे अंतिम निवेदन यही करूँगा कि जिसे आप अपना हितैषी समझती हैं, वह आपकी भूल है। वे ही लोग, जो आपके सामने बहुत घुल-मिलकर सज्जनता का स्वरूप रखकर आपसे बातें करते हैं, बाहर न जाने कितनी बुरी बातें वे बकते हैं।"

“अब तो निमंत्रण जा चुके हैं, फिर भी आप जो कुछ कहें, मैं उलटफेर करने को तैयार हूँ।" मिसेज चोपड़ा ने कहा। उनकी आवाज भारी, चेहरा विवर्ण और आँखें लाल थीं। मैंने कहा, "अब तो उलटफेर करना ठीक न होगा, मिसेज चोपड़ा। परंतु आगे का आप खयाल रखें, इन नररूपी पशुओं से आप जितनी दूर-दूर रहें, उतना ही अच्छा है।" कहकर मैंने अपने घर की राह ली। जाड़े के दिन थे, रात के दस बजे रहे थे। अब भी नारायण क्लब में रोशनी थी। मैंने सोचा, चलकर देखू तो सही यहाँ इतनी रात तक क्लब में कौन-कौन महाशय विराजमान हैं ! साइकिल दरवाजे पर टिकाकर मैंने अंदर कदम रखा ही था कि मिस्टर शुक्ला दौड़कर मुझसे लिपट गए, “आइए, आइए रामेश्वरजी, कहिए, सब कुशल है न? आप तो बहुत दिन के बाद दिखे।"

मिस्टर रामलाल ने आँख मारते हुए कहा, “अरे भाई, आजकल तो ये बड़े घर के मेहमान हैं, हम लोगों के पास तक आने का समय इनके पास कहाँ? जब उधर से छुट्टी मिले, तब न!"

प्रेमनारायण ने चुटकी ली, "भाई, किस्मत इसी को कहते हैं। हम लोग चक्कर ही लगाते रह गए और हजरत ने वहाँ ऐसा रंग बाँधा कि अब वहाँ किसी दूसरे की पहुँच ही नहीं हो सकती।" कहते-कहते उसने मेरी पीठ ठोंकी। किसके विषय में कटूक्तियाँ थीं, मैंने सब समझ लीं, फिर भी कुछ अनजान बनते हुए बोला, "तुम लोगों की बातें मेरी समझ में नहीं आईं, पहेली की तरह मत बुझाओ, साफ-साफ कहो न, किस बड़े घर की मेहमानदारी मुझे मिली है ?"

"सुना है, कल मिसेज चोपड़ा के लड़के का जन्मदिन है और बड़ा भारी आयोजन किया जा रहा है। सौ-पचास आदमियों को चाय-पार्टी के लिए निमंत्रण भी बाँटे गए हैं। सच है न, रामेश्वरजी!" मिस्टर शुक्ला ने पूछा।

मैंने कहा, "सच भी हो सकता है, झूठ भी। मैं ठीक नहीं कह सकता। पर मिसेज चोपड़ा के लड़के की वर्षगाँठ और आप लोगों की इन उड़ी-उड़ी बातों का क्या संबंध? मैं तो आपकी पहेली का अर्थ पूछ रहा था, जो कि अभी आपने मुझे बुझाई है।"

"बनो न दोस्त, अभी वहीं से आ रहे हो और कहते हो मुझे मालूम नहीं है! हम लोग हिस्सा तो लगाने आते नहीं, फिर सच-सच कहने में क्यों संकोच करते हो?" एक कुटिल हँसी के साथ प्रेमनारायण ने मुझसे कहा। मेरे बदन में आग सी लग गई, फिर भी मैंने अपने क्रोध को दबाया। मैंने सोचा, 'भला देखू तो सही यह लोग किस हद तक जाते हैं!'

"क्या आप लोग मिसेज चोपड़ा के विषय में कुछ कहना चाहते हैं।" मैंने पूछा।

मिस्टर शुक्ला कुछ गंभीर होकर बोले, “हाँ, भाई रामेश्वर, हम नहीं चाहते कि तुम भी उस भूलभुलैया में भूले-भूले फिरो। मिसेज चोपड़ा को कौन नहीं जानता? सारे शहर में तो उसी की चर्चा है, भाई। एक नजर में तो वह लोगों को पागल बना देती है। औरत नहीं, जादूगरनी है, पर धिक्कार है मिस्टर चोपड़ा को ! क्या उन्हें यह बातें न मालूम होंगी?"

प्रेमनारायण बोला, "अरे, मालूम क्यों नहीं हैं? औरत की कमाई पर ही तो इतना बड़ा मकान खड़ा कर लिया है, नहीं तो साढ़े चार सौ में आजकल होता क्या है ? मिसेज चोपड़ा को नहीं देखते, रेशम छोड़कर दूसरी बात ही नहीं करती। देखा नहीं, किस ठाठ से निकलती है! कपड़े सदा कीमती पहनती है, घर में चार-छह नौकर-चाकर हैं। यह उन्हीं की कमाई है, नहीं तो मिस्टर चोपड़ा के साढ़े चार सौ में पूरा न पड़ता, भाई साहब!"

रामलाल ने घृणा भरे स्वर में कहा, "भाई, मुझे तो उसकी शक्ल से नफरत है। उसे तो यदि गृहस्थ न कहकर वेश्या कहा जाए तो ठीक होगा। परपुरुष से ऐसी बेशरमी से बात करती है, उनके साथ ऐसे खुलेआम फिरा करती है कि कोई वेश्या क्या करेगी? पढ़ी-लिखी औरतें क्या हमने देखी नहीं?"

पास की ही मेज पर बैठे हुए दो सज्जन चाय पी रहे थे। अब तक इधर की बातें चुपचाप सुन रहे थे। शायद बात सहनशक्ति की सीमा से शहर चली गई थी; इसलिए एक सज्जन ने कहा, "बहुत बढ़-बढ़कर बातें तो न करिए। यदि आप लोग जरा ही पुचकारे जाएँ तो कल से मिसेज चोपड़ा की जूतियाँ चाटने को तैयार हो जाएँ। आप इतना बकते हैं तो कहिए, आपके पास प्रमाण है कि मिसेज चोपड़ा का चाल-चलन खराब है।"

मिस्टर रामलाल के मुँह पर जैसे किसी ने थप्पड़-सा मार दिया। मिस्टर भगवती प्रसाद को देखकर वे जरा सा सकुचाए। बोले, “आप क्या जानें, मुझे तो सब मालूम है, यह इतने आदमी जो कहते हैं, क्या सब झूठ ही हैं?"

भगवती प्रसाद ने तेज स्वर में कहा, “मैं उन्हें आज बीस साल से जानता हूँ। आपका तो परिचय भी उनसे नहीं है, पर मैं तो उनके साथ वर्षों रहा हूँ, एक साथ, एक मकान में। हाँ, वह जिस प्रकार के वातावरण में पली है, वैसा ही उसका स्वभाव भी है। परदा उसने न बचपन से किया है, न अब कर सकती है। उसकी नजरों में स्त्री-पुरुष समान हैं, इसलिए वह सबसे खुलकर प्रेमपूर्वक मिलती है, यही उसके आचरण का दोष है। किसी भी सुधार के काम में पुरुषों से भी सदा दो कदम आगे रहती है, यही उसकी कमजोरी है।" कहते-कहते भगवती प्रसाद का चेहरा आरक्त हो गया। सब लोग चकित दृष्टि से उनकी ओर देख रहे थे। हम लोगों को अनुमान भी न था, भगवती प्रसाद भी मिसेज चोपड़ा से परिचित होंगे, क्योंकि हम लोग उन्हें परदेशी समझते थे। वे लाहौर से अभी दो महीना पहले ही यहाँ आए थे। कुछ ठहरकर वे फिर बोले, "लेकिन कहनेवालों की जबान को लगाम कौन लगाए, चमड़े की जबान ठहरी, जिधर चाहा, हिला दिया!"

सत्येंद्र बीच में ही बात काटते हुए बोले, "पर आप क्यों नाहक इन लोगों के मुँह लगते हैं, बकते हैं, बकने दीजिए। सूरज पर धूल फेंककर कोई उसके प्रकाश को धीमा नहीं कर सकता।"

धीरे-धीरे रामलाल, प्रेमनारायण और मिस्टर शुक्ला खिसक गए। अब वहाँ पर मैं, सत्येंद्र और भगवती प्रसादजी रह गए। हम लोग भी घर की ओर चले। रास्ते में मुझे संबोधित करके भगवती प्रसाद ने कहा, ""रामेश्वरजी, तुममें इतना साहस नहीं कि इनके मुँह पर थप्पड़ लगा देते? वह तो तुम्हें भी लांछन लगा रहे थे। मुझे तो ऐसी बातें कहते तो मैं तो बिना मारे न रहता।"

मेरे मुँह से कोई बात न निकली। सच बात तो यह थी कि मिसेज चोपड़ा मेरे लिए भी एक पहेली सी थीं। आज साल भर से मैं उनके घर रोज जाता रहा हूँ। वह सदा प्रसन्न मुद्रा से मेरा स्वागत करती थीं। उनकी वाणी में वह मिठास थी, चितवन में वह मोहकता थी कि कभी-कभी मैं यह शक करने लगता कि शायद उनका मेरे साथ अनुचित तरह का प्यार है, किंतु दूसरे ही क्षण मैं होश में आ जाता, जब मैं देखता, ठीक वैसा ही व्यवहार वह दूसरों से भी करती हैं। वह इतनी मिलनसार थीं, स्वभाव में इतनी मधुरता थी कि हर एक मिलनेवाला यही सोचता हुआ जाता कि उसके साथ ही ऐसा व्यवहार किया गया है। और साथ ही दुष्ट प्रकृतिवाले यह भी सोचते कि वह उन पर आसक्त हैं, इसीलिए ऐसा मधुर व्यवहार करती हैं।

मिस्टर चोपड़ा लाहौर के रहनेवाले बहुत ही उन्नत विचार के सज्जन पुरुष थे। वे कुछ साल पहले यहाँ इंजीनियर बनकर आए थे। बड़े ही नेक, मिलनसार और उदार चरित्र पुरुष थे। स्त्री भी उनकी उन्हीं के अनुरूप थीं। उन्होंने किसी विद्यालय से कोई डिग्री तो न हासिल की थी, फिर भी उनकी शिक्षा बहुत ऊँची, विचार बहुत परिपक्व और आदर्श महान् थे। पति-पत्नी दोनों में बहुत प्रेम और विचारों में बड़ी समानता थी। यह एक आदर्श जोड़ी थी। मिसेज वीणा चोपड़ा अपने माता-पिता की अकेली संतान थीं। उनके पिता सुधारक-सभा के प्रेसीडेंट थे। वह पुरानी लकीरों के फकीर न थे। वीणा अपने पिता के साथ-साथ छुटपन से ही सभा-सोसाइटियों में जाती थी और अकसर व्याख्यान भी दिया करती थी। स्त्रीपुरुष उसके लिए समान थे। वह पुरुषों से भी उसी प्रकार निस्संकोच भाव से मिल सकती थी, जैसे स्त्रियों से। लेकिन पिछड़े हुए समाज में वीणा का इस प्रकार निस्संकोच भाव से पर-पुरुषों से मिलना, अकेली सभा-सोसाइटियों में चले जाना, किसी दूसरे व्यक्ति के साथ अकेली वापस आना, पाप हो गया। पहले तो लोग कुछ अधिक न कह सकते थे, किंतु इधर जब से 'अछूतोद्धारिणी सभा' का निर्वाचन हुआ और शहर में इतने महानुभावों के रहते हुए भी 'अछूतोद्धारिणी सभा' की अध्यक्षा वीणादेवी चुनी गईं और इस सिलसिले में उन्हें बहुत से व्यक्तियों से मिलना-जुलना पड़ा, बहुत जगह आना-जाना पड़ा, कई ऐसे व्यत्तियों से भी संसर्ग रखना पड़ा, जिनसे शायद वीणा कभी मिलना भी न चाहती, तो उन लोगों को खुलेआम बकने का मौका मिला। जिन्हें वीणा की चाल-ढाल न पसंद थी, उन्हें वीणा को दिया हुआ सम्मान फूटी आँख न सुहाता था। एक, दो, तीन, चार नहीं, वीणा के साथ जिसने भी सहानुभूति प्रदर्शित की, जिस किसी ने उसके साथ घंटे-आध घंटे बात की, वह वीणा का प्रेमी हो गया।

दूसरे दिन मिसेज चोपड़ा के यहाँ वर्षगाँठ का समारोह था। चार बजे कुछ स्त्री-पुरुषों का सम्मिलित भोज था। हम लोग सब पहुँचे, पर मिसेज चोपड़ा न थीं। मालूम हुआ, वे रात से अस्वस्थ हैं, इसलिए खुद इस भोज में शामिल नहीं हो सकतीं। बीच में कई सज्जनों ने उनसे मिलकर सहानूभूति और धन्यवाद देना चाहा, पर मिस्टर चोपड़ा ने यह कहकर टाल दिया कि वे इस समय मिल न सकेंगी। आप लोगों को आने की कृपा के लिए धन्ययाद देता हूँ।

सब लोगों के जाने पर मैंने, भगवती प्रसाद और सत्येंद्र ने मिसेज चोपड़ा के ड्राइंगरूम में प्रवेश किया। वह बैठीं अपने बच्चे को कपड़े पहना रही थीं। मुझे देखते ही आदर प्रदर्शित करते हुए उन्होंने अभिवादन किया। भगवती प्रसाद और सत्येंद्र को उन्होंने कुछ न कहा, पर वे लोग बहुत समीप जाकर बैठ गए। अब मैं समझा, इनका संबंध कितना घनिष्ठ है।

"क्या सचमुच आपकी तबीयत खराब थी?" भगवती प्रसाद ने पूछा।

"जी नहीं, पर मैं इन लोगों के पास बैठने में अपना अपमान समझती हूँ। अब तो भूल हो ही गई, अब आप देखेंगे कि मेरे यहाँ मेरे कुछ इने-गिने मित्रों को छोड़कर कोई दूसरा न आ सकेगा।" मिसेज चोपड़ा ने गंभीर स्वर में कहा। उनके चेहरे पर कुछ ऐसी शांति, ऐसी निष्ठा और ऐसी गंभीरता थी कि हम लोगों को कुछ कहने का साहस न हुआ। वह किसी काम से अंदर चली गई। इसी अरसे में भगवती प्रसाद ने मुझे एक पत्र दिखलाया। पत्र पर सिरनामे की जगह कुछ न था। मजमून इस प्रकार था-

"आपसे मिलकर बड़ी प्रसन्नता हुई। हजार मुँह से आपकी प्रशंसा करूँ तो भी नहीं कर सकता। मैं आज आपसे आपके प्रणय की भीख माँगता हूँ। आप तो दाता हैं, आपकी दानशीलता प्रसिद्धि पा चुकी है। क्या मुझ भिखारी को भी संतुष्ट करेंगी? यदि आपने कृपा न की, तो मैं बेमौत मर जाऊँगा?

अनुचर"

नाम किसी का न था, नीचे जो उत्तर भेजा गया था, उसकी प्रतिलिपि थी। “मैंने स्वप्न में भी न सोचा था कि आप मनुष्य के रूप में राक्षस हैं। अपने मित्र की स्त्री के प्रति ऐसी कुभावना रखने के बजाय आपको तो चुल्लू भर पानी में डूब मरना चाहिए था। कृपा करके अब आप मेरे यहाँ कभी तशरीफ न लाएँ।" पत्र पढ़कर मैंने विस्फारित नेत्रों से भगवती प्रसाद की ओर देखा। उन्होंने पूछा, “पहचानते हो न, यह किसकी हस्तलिपि है?"

"हाँ-हाँ, अच्छी तरह।" मैंने कहा।

"तो फिर ऐसा चुका खा कर वह उसके खिलाफ न बकेंगे, तो और क्या करेंगे ?" भगवतीप्रसाद ने कहा, "और है भी तो वह बिना दिमाग का पहले नंबर का उल्लू । फिर वह अपने दस पांच साथियों के दिमाग में भी उसके प्रति ऐसी कुभावनाएँ भर दे तो आश्चर्य ही क्या है ? किन्तु आप किसी सहृदय व्यक्ति से पूछिए कि उसकी धरना मिसेज चोपड़ा के विषय में क्या है ? फिर वह आपको बतलायेगा।"

मैंने देखा कि भगवतीप्रसाद की बातें अक्षरशः सत्य थीं । अपनी शक मिटाने के लिए, अपना खिसिआनापन दूर करने के लिए मनुष्य की पाशविक प्रवृत्तियाँ नीच से नीच काम करने में भी नहीं हिचकतीं ।

मिसेज चोपड़ा ने प्रवेश करते हुए कहा, "यह किसकी जन्मपत्री देखी जा रही है ?"

"मिस्टर शुक्ला की," सत्येंद्र ने हँसते हुए कहा ।

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