Dharma Aur Vigyan (Hindi Nibandh) : Ramdhari Singh Dinkar

धर्म और विज्ञान : रामधारी सिंह 'दिनकर'

आधिभौतिक विचारधारा विज्ञान की देन नहीं है । वह विज्ञान से बहुत पहले की चीज है । किन्तु जब विज्ञान की वृद्धि होने लगी , तब वैज्ञानिक संस्कारों का प्रभाव आधिभौतिकता का सहायक सिद्ध हुआ ।

विज्ञान के आविर्भाव से पूर्व समाज पर धर्म और दर्शन का प्रभुत्व था और धर्म के साथ अनेक प्रकार के अन्धविश्वास भी मनुष्यों के मन में छाए हुए थे । इसलिए आरम्भ के वैज्ञानिकों में हम शुद्ध विज्ञान के दर्शन नहीं करते । कोपरनिकस ( 1473-1543 ई . ) , गैलीलियो ( 1564-1612 ई . ) और केपलर ( 1571-1630 ई . ) - ये विज्ञान के प्रर्वतकों में से हैं , किन्तु उसकी खांटी वैज्ञानिक दृष्टि नहीं थी । शुद्ध वैज्ञानिक पद्धति सबसे प्रथम सर आइजक न्यूटन ( 1642-1727 ई . ) के साथ उदित हुई । न्यूटन भी परम आस्तिक पुरुष थे एवं उनका धर्म और दर्शन , दोनों में विश्वास था । किन्तु उन्होंने अपने विज्ञान - विषयक चिन्तन को धर्म से प्रभावित होने नहीं दिया । सृष्टि का आदि कारण वे परमात्मा को अवश्य मानते थे , किन्तु गुरुत्वाकर्षण एवं गति के जिन तीन मूलभूत नियमों का उन्होंने आविष्कार किया , उनमें उनका अटल विश्वास था और वे मानते थे कि प्रकृति कहीं भी , किसी भी अवस्था में इन नियमों की अवहेलना नहीं करती है ।

न्यूटन आधुनिक विज्ञान के पिता समझे जाते हैं । वैज्ञानिक नियम वह है , जो प्रकृति में चलनेवाली अनेक घटनाओं पर समान रूप से लागू होता हो और वैज्ञानिक सिद्धान्त उसे कहना चाहिए , जिससे इस प्रकार के अनेक नियम निकाले जा सकते हों । न्यूटन ने जिन सिद्धान्तों का आविष्कार किया , वे अत्यन्त सरल और संक्षिप्त दीखते हैं ; किन्तु इन्हीं संक्षिप्त सिद्धान्तों के आधार पर न्यूटन के बाद सारे विज्ञान का विस्तार हुआ । प्रत्येक द्रव्य प्रत्येक दूसरे द्रव्य को अपनी ओर खींचता है , सिद्धान्त बहुत सरल दीखता है ; किन्तु इसी नियम से विभिन्न द्रव्य और पिंड इस महाशून्य में अवस्थित पाए गए हैं । न्यूटन के सिद्धान्तों के आधार पर ही समस्त सौर - मंडल में श्रृंखला और सामंजस्य का सन्धान हुआ और बाद में चलकर उन्हीं सिद्धान्तों के आधार पर सारी सृष्टि , पूर्ण रूप से , व्यवस्थित सिद्ध की गई ।

न्यूटन के बाद विकसित होनेवाले विज्ञान की कहानी बहुत लम्बी और व्याप्तियाँ अगाध हैं । उनके ब्यौरे में न जाकर यहाँ हम केवल यह जानने की कोशिश करेंगे यह कि इस विज्ञान का धर्म और दर्शन पर क्या प्रभाव पड़ा।

न्यूटनीय सिद्धान्तों के आधार पर विकसित होनेवाले विज्ञान की पहली मान्यता यह थी कि द्रव्य , देश और काल - ये तीनों परस्पर एक - दूसरे से स्वतन्त्र , मूलभूत सत्ताएँ हैं और प्रत्येक द्रव्य कहीं - न - कहीं देश में और किसी - न - किसी काल में अवस्थित या संक्रमित होता है । उसकी दूसरी मान्यता यह थी कि सृष्टि यन्त्रों के समान है एवं गणित के जिन नियमों से हम मनुष्य - कृत यन्त्रों को समझते हैं , उन्हीं नियमों से सृष्टि की सारी प्रक्रियाएँ समझी जा सकती हैं । ये वैज्ञानिक यह भी मानते थे कि सृष्टि में कहीं भी कोई घटना कारण - कार्य के नियम का उल्लंघन नहीं करती , सारी सृष्टि गणित के नियमों से परिचालित हो रही है और इसका यदि कोई परमेश्वर है , तो वह सृष्टि का सबसे बड़ा गणितज्ञ है । कारण - कार्य के नियम की अटलता पर इन वैज्ञानिकों का ऐसा सुदृढ़ विश्वास था कि वे असंदिग्ध रूप से इस सिद्धान्त पर आ गए कि प्रत्येक वस्तु के अतीत और वर्तमान का अध्ययन करके उसके भविष्य का कथन किया जा सकता है ।

और ये बातें केवल जड़ विश्व के विषय में ही नहीं , चेतन मनुष्य के विषय में , भी कही जाती थीं , क्योंकि इन वैज्ञानिकों का विश्वास था कि जैसे जड़ पदार्थ यान्त्रिक विधि से काम करते हैं , वैसे ही मनुष्य भी यान्त्रिक नियमों के अधीन हैं और जैसे हम जड़ पदार्थ का अध्ययन करके यह बता सकते हैं कि अगले क्षण वह किधर को जानेवाला है , वैसे ही मनुष्य के अतीत को देखकर यह मजे में बताया जा सकता है कि भविष्य में उसके निर्णय क्या होंगे अथवा आगे चलकर वह क्या करनेवाला है । विज्ञान में इस मान्यता को नियतिवाद अथवा डिटरमिनिज्म कहते हैं , जिसका आशय यह है कि मनुष्य का भविष्य उसके अतीत से निश्चित होता है । पुनर्जन्म में विश्वास करनेवाले लोग यह मानते हैं कि हमारी पूर्वार्जित प्रवृत्तियाँ हमारे इस जन्म के कर्मों को प्रेरित करती हैं ; किन्तु वे यह भी मानते हैं कि हम चाहें तो उन प्रवृत्तियों के बन्धन से छूट भी सकते हैं । किन्तु भौतिकवादी लोग , जिनका एक नाम ' मुक्त चिन्तक ' भी है , मनुष्य को इतनी स्वतन्त्रता भी नहीं देते । उनका अटल विश्वास है कि जैसे पेड़ , पौधे और पहाड़ कारण - कार्य - नियम की अवहेलना नहीं कर सकते , वैसे ही मनुष्य भी इस नियम का अपवाद नहीं है ।

आश्चर्य की बात है कि आधुनिक विचारों के बड़े - से - बड़े आचार्य नियतिवाद के समर्थक हुए हैं । डेकाटें , स्पिनोजा , लेबनिज , लॉक , ह्यूम , कांट , हीगेल और मिल तथा अलेक्जेंडर - ये सब - के - सब नियतिवाद में विश्वास करते थे । इन सभी चिन्तकों का मत था कि मनुष्य ने अतीत में जैसा स्वभाव बनाया अथवा जैसे चरित्र का निर्माण किया है , उसके भविष्य के निर्णय और कर्म उसी का अनुगमन करेंगे । मनुष्य जो यह समझता है कि अपने निर्णय और कर्म में वह स्वतन्त्र है , यह उसका मोह मात्र है । हवा में फेंके गए ढेले को भी यही भ्रम हो सकता है , यदि वह उस हाथ को भूल जाए, जिसने उसे फेंक दिया है। मिल ने तो यहाँ तक कहा है कि मनुष्य के निर्णय और कर्म इतने अधिक पूर्व - निश्चित हैं कि परिश्रम करने पर समाज - शास्त्र सुनिश्चित विज्ञान में परिणत किया जा सकता है ।

मनुष्य को भी यन्त्रवत् परिचालित एवं निर्णय और कर्म में पेड़ - पौधे और पशु के समान पराधीन सिद्ध करने में प्राणिशास्त्र एवं विकासवाद के सिद्धान्तों ने बड़ी सहायता पहुँचाई । अतएव भौतिकी और प्राणिशास्त्र के सहयोग से शरीर - शास्त्र ( फिजियोलॉजी ) का जन्म हुआ एवं मनुष्य सनसनाहटों का एक पुंज समझा जाने लगा , जिसकी सारी शारीरिक और मानसिक प्रक्रियाओं के स्रोत उसकी शिराओं , टिस्सुओं ( ऊतकों ) फ्लुइड ( तरल ) और चेतना में अवस्थित है । सारा मनुष्य टिस्सू , फ्लूइड और चेतना का ही समवाय नहीं है , यह बात उपेक्षित छोड़ दी गई । जीवन - संघर्ष में व्यस्त रहने के कारण पश्चिम के पूर्वजों ने बाहर की ओर अधिक ध्यान देने की परम्परा चलाई थी । परिणाम यह हुआ कि हमारा सारा विज्ञान बहिर्मुखी हो गया ।

न्यूटन आस्तिक थे और उनके समकालीन वैज्ञानिक भी ईश्वर की आवश्यकता का अनुभव करते थे । किन्तु फ्रांस के दार्शनिकों ने जब यह देखा कि प्रकृति की क्रियाएँ विज्ञान से भली - भाँति समझी जा सकती है , तब उन्होंने ईश्वर की आवश्यकता पर से अपनी दृष्टि हटा ली । मनुष्य के मुक्त निर्णय और मुक्त कर्म में से उनका विश्वास उठ गया । मानव - जीवन को वे सृष्टि की अत्यन्त तुच्छ घटना मानने लगे और उन्होंने इस प्रश्न पर भी विचार करना छोड़ दिया कि सृष्टि की रचना में कोई महदुद्देश्य भी है अथवा वह यों ही उछलकर सामने आ गई है । और ये सारी स्थितियाँ आधिभौतिक विचारधारा के अत्यन्त अनुकूल सिद्ध हुईं । ज्यों - ज्यों विज्ञान आगे बढ़ा , यह बात अधिकाधिक स्पष्ट होती गई कि विचारधारा तो वही ठहरेगी , जिसका समर्थन विज्ञान करेगा । और यही बात सत्य भी निकली । धर्म ने जब यह कहा कि विश्वास से पहाड़ भी हिल सकते हैं , तब इस बात पर किसी ने ध्यान भी न दिया । किन्तु विज्ञान जब यह कहता है कि परमाणु से उखाड़े जा सकते हैं , तब सभी लोग उसका विश्वास करते हैं ।

न्यूटनीय सिद्धान्तों पर उठनेवाला विज्ञान प्रायः 19 वीं सदी के अन्त तक अत्यन्त निश्चिन्त रहा । कारण यह था कि वैज्ञानिकों ने देश , काल और द्रव्य , कारण - कार्य एवं नियतिवाद और यान्त्रिकता के जो नियम निकाले थे , वे बराबर अपना काम करते गए और इन दो सौ वर्षों में कभी कोई ऐसी घटना या ईजाद नहीं हुई , जिसका इन नियमों से विरोध हो अथवा जो घटना इन नियमों के प्रकाश में ठीक - ठीक समझी न जा सके । इन दो सौ वर्षों तक विज्ञान ने पूरे आत्मविश्वास के साथ प्रकृति का अध्ययन किया और आकाश , पाताल या मर्त्य लोक के बारे में उसने जो भविष्यवाणी की , वे सब - की - सब सच निकली । इससे विज्ञान की प्रतिष्ठा में अपरिमित वृद्धि हुई और ज्यों-ज्यों विज्ञान का मान बढ़ता गया, त्यों-त्यों मनुष्य भी आधिभौतिक विचारधारा की ओर अधिकाधिक मुड़ता और सृष्टि के उन रूपों पर से दृष्टि फेरता गया , जो विज्ञान के विषय नहीं हो सकते थे और जिन पर विचार केवल रहस्यवादियों ने किया था ।

न्यूटन के सिद्धान्तों का आदर आज भी है और आज भी , व्यवहारतः विज्ञान के प्रायः सारे कार्य उन्हीं नियमों के प्रकाश में किए जाते हैं , जो नियम न्यूटन के . सिद्धान्तों से निकले और प्रायः 19 वीं सदी के अन्त तक अक्षुण्ण चले आए थे । किन्तु लगभग 1890 ई . के बाद से विज्ञान में जो नए अनुसन्धान हुए हैं , उनके चलते बीसवीं सदी का विज्ञान उतना उद्धत नहीं रहा , जितना वह उसके पूर्व दिखाई देता था । पहले के वैज्ञानिक इस भाव से भरे दीखते थे कि सृष्टि को समझने की राह उन्हें मिल गई है । अब वे जहाँ पहुँचे हैं , वहाँ ऐसी बात आत्मविश्वास के साथ बोली नहीं जा सकती । अभी यह स्थिति तो नहीं आई है कि स्वयं विज्ञान भौतिकवाद को मृत घोषित कर दे अथवा यह ऐलान कर दे कि नियतिवाद ( डिटरमिनिज्म ) का सिद्धान्त खंडित हो गया , किन्तु भौतिकी में इधर जो नए अनुसन्धान हुए हैं , उन्हें देखते हुए यह अवश्य कहा जा सकता है कि नियतिवाद , द्रव्य और भौतिकवाद की परिभाषा अब नए सिरे से की जानी चाहिए । विज्ञान के कारण भौतिकवाद में जो आक्रामकता आ गई थी , अब वह पिघलती दिखाई देती है । नियतिवाद की जो परिभाषा आज से पचास वर्ष पूर्व की जाती थी , उसमें कुछ - न - कुछ शैथिल्य आ गया है और विज्ञान का कर्मक्षेत्र प्रायः उस भूमि को छूने लगा है , जो धर्म और रहस्यवाद की क्रीड़ास्थली के पास है ।

यह सब कैसे हुआ , यह बताना किसी ऐसे लेखक के बस की बात नहीं है , जिसका विज्ञान और विशेषतः गणित पर कोई अधिकार न हो । जब तक द्रव्य का लघुतम रूप परमाणु था , हम अपनी चित्रात्मक कल्पना से उसे देख सकते थे , यद्यपि आँखों के लिए वह भी अदृश्य था । किन्तु परमाणु के इलेक्ट्रोनों में विभक्त हो जाने के बाद अब उसे कल्पना भी नहीं देख सकती । पहले जहाँ अणु - परमाणु को समझने के । के लिए काल्पनिक मॉडल से काम लिया जाता था , वहाँ अब इलेक्ट्रोन को समझने के लिए गणित के प्रतीक निकाले गए हैं और दुर्भाग्यवश , सभी वैज्ञानिक भी गणितज्ञ नहीं होते । भौतिकी आज जहाँ पहुँच गई है , वहाँ वह उन लोगों के लिए अतिशय दुर्बोध है जो चित्रों की कल्पना के बिना किसी भी वस्तु को नहीं समझ सकते । । विशेषतः वर्तमान स्थिति उन लेखकों के लिए और भी कठिन है , जो विज्ञान का रहस्य सामान्य जनता को समझाना चाहते हैं । फिर भी कुछ महत्त्वपूर्ण अनुसन्धानों के स्थूल एवं अधूरे विवरण से भी यह बात स्पष्ट हो जाती है कि भौतिकवाद की धारा में विक्षेप कहाँ उपस्थित हुआ है अथवा नई भौतिकी किस दिशा की ओर जा रही है ।

विज्ञान में नई क्रान्ति उपस्थित करने का श्रेय आइंस्टीन को दिया जाता है । किन्तु लगता है, इस क्रान्ति की भूमि कुछ पहले से ही तैयार हो रही थी। अमेरिका के वैज्ञानिक माइक्लेसन ने यह पता लगाया था कि पृथ्वी चाहे प्रकाश को ओर की जाती हो अथवा उससे समकोण राह पर , दोनों ही अवस्थाओं में पृथ्वी पर आनेवाले प्रकाश की गति एक समान रहती है । जब लॉर्ड केलविन को इसकी जानकारी हुई , उन्होंने यह शंका उठाई कि प्रकाश की गति न्यूटन के बताए हुए गति - सिद्धान्त के विपरीत पड़ती है । यह शंका बहुत उचित दिखाई देती है , क्योंकि पृथ्वी यदि पूरब से पश्चिम की ओर घूम रही हो और प्रकाश पश्चिम से पूरब की ओर आता हो , तो प्रकाश की गति स्पष्ट ही अधिक तीव्र दिखाई देनी चाहिए । इस शंका का समाधान तब हुआ , जब सन् 1905 ई . में आइंस्टीन ने सापेक्ष्यवाद का अपना निबन्ध प्रकाशित किया और यह स्थापना रखी कि विश्व में कोई भी वस्तु स्थिर नहीं है । अतएव चलायमान वस्तुएँ यदि अन्य गतिशील वस्तुओं की गति को मापना चाहेंगी , तो प्रत्येक का मापफल अलग - अलग होगा और यह भी नहीं कहा जा सकता कि उनमें से एक या दो सही और बाकी सब गलत होंगे । विश्व में जितनी भी गतियाँ हैं , सब सापेक्ष्य हैं ।

आइंस्टीन के सापेक्ष्यवाद का आज के विज्ञान में बड़ा भारी महत्त्व है । इस सिद्धान्त का अनुसन्धान उसी प्रकार की घटना मानी जाती है , जैसी कोपरनिकस की यह घोषणा कि सूर्य पृथ्वी के चारों ओर नहीं घूमता , पृथ्वी ही सूर्य के चारों ओर घूमती है । माइक्लेसन या लॉर्ड केलविन ने प्रकाश की गति को लेकर जो शंका उठाई थी , उसका समाधान तो सापेक्ष्यवाद का आनुषंगिक परिणाम था । वस्तुतः सापेक्ष्यवाद की व्याप्तियाँ इससे बहुत दूर तक जाती है । कहा तो यह जाता है कि आइंस्टीन के अनुसन्धानों का पूरा महत्त्व तब खुलेगा , जब संसार की कल्पना अधिक विकसित होकर उन्हें समझने के योग्य हो पाएगी । सन् 1905 ई . में जब सापेक्ष्यवाद का प्रथम निबन्ध निकला , सारे संसार के वैज्ञानिक उससे चकित रह गए । उनका आश्चर्य शमित कुछ तब हुआ , जब सन् 1908 ई . में मिंकोवास्की ने आइंस्टीन के सिद्धान्त से प्रेरित होकर देश और काल के विषय पर अपना निबन्ध पढ़ा और उसमें यह व्याख्या प्रस्तुत की कि देश और काल दो स्वतन्त्र सत्ताएँ नहीं हैं । देश का परिवर्तन काल में और काल का परिवर्तन देश में होता है । देश के डायमेंसन अथवा आयाम ( आचार्य रघुवीर इसे वरिमा कहते हैं ) तीन हैं ; अर्थात् लम्बाई , चौड़ाई और मोटाई या घनत्व । इनके साथ यदि काल का आयाम भी संपृक्त कर दिया जाए , तो वास्तविकता का असल रूप चार आयामों वाले देशकाल का सातत्य ‘ फोर डायमेंशनल स्पेस - टाइम कंटीनुअम ' हो जाता है और वास्तविकता का यही शुद्ध रूप है । आगे चलकर आइंस्टीन ने इसे भी अपने सिद्धान्त में अंगीभूत कर लिया । कहते हैं , आइंस्टीन जब अनुसन्धान में लगे हुए थे , तब युगों से प्रचलित यूकलिड की ज्यामिति उन्हें अपर्याप्त दिखाई पड़ी थी । यूकलिड की ज्यामिति समतल की ज्यामिति है, जिस पर खींचे गए त्रिभुज के तीनों कोणों का जोड़ दो समकोण के बराबर होता है । किन्तु यदि त्रिभुज समतल पर खींचा न जाकर किसी ग्लोब ( स्फियर ) पर खींचा जाए , तो उसके तीनों कोणों को जोड़ दो समकोण के बराबर न भी हो सकता है । आज से कोई सौ साल पूर्व लोबाचवास्की और बोले नामक दो वैज्ञानिकों ने यह पता लगाया था कि यूकलिड की ज्यामिति से भिन्न ज्यामिति तैयार की जा सकती है । इसी सिद्धान्त पर काम करके रिमैन नामक वैज्ञानिक ने स्फियर ( स्पेस का आकार गुंबद - जैसा है ) की ज्यामिति तैयार की , जो यूकलिड की ज्यामिति से बिलकुल भिन्न है । आइंस्टीन ने यूकलिड को छोड़कर रिमैन की ज्यामिति से काम लिया ।

यूकलिड की ज्यामिति से भिन्न ज्यामिति का आविष्कार मनुष्य के बौद्धिक इतिहास की अत्यन्त महान घटना है । यूकलिड के सिद्धान्त कोई दो हजार वर्ष से पूजित चले आ रहे थे और माना यह जाता था कि ये सिद्धान्त मनुष्य तो क्या , देवताओं और परमेश्वर के लिए भी सत्य होंगे । किन्तु आइंस्टीन को दिखलाई यह पड़ा कि यूकलिड की ज्यामिति तीन डायमेंसन वाले विश्व की ज्यामिति है । इसीलिए , वह प्रकृति के अनेक रहस्यों और आचरणों की व्याख्या करने में असमर्थ है । किन्तु प्रकृति के ये आचरण हमारी समझ में आ सकते हैं , यदि हम यह मानकर चलें कि ये घटनाएँ तीन नहीं , चार आयामों वाले जगत में घटित हो रही हैं । देश के आयाम तीन होते हैं । किन्तु आइंस्टीन विश्व की जिस कल्पना को लेकर काम कर रहे थे , उसमें देश और काल एकाकार थे । अतएव उसके चार आयाम थे , तीन तो देश के ( लम्बाई , चौड़ाई और घनत्व ) तथा एक काल का । इसीलिए यूकलिड की ज्यामिति उन्हें अधूरी दिखाई पड़ी । देश और काल के एक माने जाने से विश्व का जो आकार गणित में उतरता है , उस पर यूकलिडेतर ज्यामिति के ही नियम लागू होते हैं ।

कहते हैं , आइंस्टीन के अनुसन्धान का प्रभाव न्यूटन के गुरुत्वाकर्षणवाले नियम पर भी पड़ा है । गुरुत्वाकर्षण को लेकर भी वैज्ञानिकों में कुछ शंकाएँ चला करती थीं । पहली शंका यह थी कि गुरुत्वाकर्षण यदि शक्ति है , तो उसके संक्रमण करने में कुछ भी समय क्यों नहीं लगता , जैसे प्रकाश में लगता है । दूसरी यह है कि कोई भी आवरण गुरुत्वाकर्षण के मार्ग में अवरोध क्यों नहीं डालता है ? आइंस्टीन ने बताया कि गुरुत्वाकर्षण शक्ति नहीं है । पिंड एक - दूसरे की ओर इसलिए खिंचे दीखते हैं कि हम जिस विश्व में अवस्थित हैं , वह यूकलिड के नियमों से परे का विश्व है । विश्व को चार आयामों से संयुक्त मानने पर प्रत्येक द्रव्य के पास कुछ वक्रता होगी । इसी को हम गुरुत्वाकर्षण समझते आए हैं । इस प्रकार गुरुत्वाकर्षण को आइंस्टीन ने देश और काल का गुण स्वीकार किया ।

न्यूटन के सिद्धान्तानुसार देश और काल एक - दूसरे से स्वतन्त्र थे और वे द्रव्य या भूत की क्रियाओं में कोई भी भाग नहीं लेते थे । किन्तु रिमैन की ज्यामिति और आइंस्टीन के सापेक्ष्यवाद ने जिस विश्व की कल्पना को जन्म दिया है, उसमें देश और काल परस्पर संपृक्त हैं और वे सृष्टि की क्रियाओं से तटस्थ भी नहीं है। अवश्य ही गणित के इस इन्द्रजाल को, पूर्ण रूप से, हृदयंगम करने में मानवता को काफी समय लगेगा।

इसी प्रकार आणविक अनुसन्धानों से जो ज्ञान सामने आया है, वह भी प्राचीन विज्ञान के सामने चुनौती बन गया है। आरम्भ में वैज्ञानिक यह मानते थे कि सारा द्रव्य अणुओं के संघटन से बना है। तब जोन डालटन ने यह पता लगाया कि द्रव्य का सबसे छोटा भाग अणु (मोलेक्यूल) नहीं, परमाणु (एटम) है। फिर 1895 ई. के आसपास प्रयोग और गणित से यह बात मालूम हुई कि परमाणु भी अपने-आप में पूर्ण नहीं है। उसके भीतर भी विद्युतित कण हैं, जो आकर में परमाणु से दो हजार गुणा छोटे होते हैं। ये ही कण इलेक्ट्रोन थे।

इलेक्ट्रोन इतने छोटे हैं, यह आश्चर्य की बात नहीं थी। अचरच यह सोचकर हुआ कि वे विद्युतित क्यों होते हैं। विद्युतित पिंडों का धर्म है कि बिजली का चार्ज पाते ही उनका आकार बढ़ने लगता है। अतएव वैज्ञानिकों ने औत्सुक्यवश यह जानना चाहा कि इलेक्ट्रोन के पिंड का कितना अंश अपना है और कितना अंश ऐसा, जो चार्ज के कारण बढ़ता है। और वैज्ञानिकों ने जब यह देखा कि इलेक्ट्रोन पिंड हैं ही नहीं, वे केवल विद्युत हैं, केवल शक्ति हैं, तब उन्हें बिलकुल अवाक् रह जाना पड़ा। न्यूटन के समय से लोग मानते आए थे कि द्रव्य को चीरा जाए, तो अन्त में जो अविभाज्य अंश बचेगा, वह भी ठोस द्रव्य ही होगा। अणु तक तो इस विश्वास का कोई धक्का नहीं लगा था। परमाणु की अदृश्य होने पर भी ठोस द्रव्य ही था, जो अविभाज्य और अपरिवर्तनशील था। किन्तु परमाणुओं को चीरने पर द्रव्य पूरा-का-पूरा विलुप्त हो गया और यह अनुमान आप-से-आप निकल आया कि जो ठोस पदार्थ हमें दिखाई देता है, वह ठोस नहीं, प्रत्युत वायवीय है; वह स्पृश्य नहीं, केवल गणित-साध्य और अनुमेय है। विज्ञान के इन अनुसन्धानों पर विचार करते समय शंकर के मायावाद का स्मरण हो आए, तो उसे अप्रासंगिक नहीं मानना चाहिए।

एक समय पदार्थ का अन्तिम अविभाज्य अंश अणु माना जाता था और लोग उसे बिलकुल ठोस समझते थे। फिर जब परमाणु का पता चला, तब विज्ञान उसी को ठोस मानने लगा। किन्तु आज परमाणु ठोस नहीं, पोला माना जाता है, जिसके नाभिक (न्यूक्लियस) के चारों ओर इलेक्ट्रोन और प्रोटोन नाच रहे हैं। परमाणु इतने पोले माने जाते हैं कि वैज्ञानिकों का यह अनुमान है कि यदि एक भरे-पूरे मनुष्य को इस सख्ती से दबा दिया जाए कि उसके अंग का एक भी परमाणु पोला न रहे, तो उसकी देह सिमटकर एक ऐसे बिन्दु में समा जाएगी, जो आँखों से शायद ही दिखाई पड़े।

आणविक अनुसन्धान से यह भी पता चला है कि परमाणु के नाभिक में इलेक्ट्रोन और प्रोटोन की जो घूर्णि चलती है, उसके फलस्वरूप बहुत-से इलेक्ट्रोन, अकारण ही, विघटित होते रहते हैं। विघटीकरण की यह प्रक्रिया रेडियम में सबसे तेज होती है। और हम चाहे जो भी करें, जितना भी दबाव अथवा ताप डालें, किन्तु उससे विघटन की इस प्रक्रिया पर कोई असर नहीं होता। विज्ञान को अभी तक यह भी ज्ञात नहीं है कि ऐसा क्यों होता है। कारण-कार्य-नियम की अबाधता में विज्ञान का अटल विश्वास था; किन्तु वह नियम ऐसे प्रसंगों में आकर असमर्थ हो गया है।

भौतिकी में ऐसी ही क्रान्ति क्वाटम सिद्धान्त से भी घटित हुई है। इस विषय का आरम्भिक चिन्तन सन् 1900 ई. के आसपास मैक्स प्लैंक ने शुरू किया था। उनकी जिज्ञासा का विषय यह था कि उत्तप्त वस्तुओं से ताप किस प्रकार क्षरित होता है। ज्वलंत ताप तरंगमय होता है, यह बात पहले से मालूम थी। किन्तु तप्त वस्तुओं से निःसृत होनेवाला ताप सदा एक ही तरंग-दैर्घ्य (वेव लेंथ) में नहीं निकलता। तरंगें छोटी, बड़ी और मीडियम-सभी प्रकार की होती हैं। मैक्स प्लैंक ने जानना यह चाहा कि इनमें से कौन-सी तरंग सबसे अधिक तापवाली होती है। इस जिज्ञासा का समाधान गणित और परीक्षण, दोनों ही विधियों से किया जा सकता था और प्लैंक ने दोनों विधियों से उसे जाँचा भी। किन्तु यह देखकर उन्हें चकित रह जाना पड़ा कि गणित की विधि से निकला हुआ परिणाम कुछ और तथा परीक्षण से निकला हुआ परिणाम कुछ और होता है।

इस विरोध के समाधान के लिए प्लैंक ने यह अनुमान निकाला कि ऊर्जा (एनर्जी) का क्षरण निरन्तर प्रवाह के रूप में नहीं होता, वह थोड़ा-थोड़ा करके, ठहरठहरकर निकलती है। इस प्रकार एक धक्के या 'जर्क' में निकलनेवाली ऊर्जा का माप उन्होंने एक क्वांटम माना। किन्तु ऊर्जा को प्लैंक परमाणु नहीं मानते थे। उनका अनुमान था कि परमाणु के भीतर कोई यान्त्रिक प्रक्रिया होगी जिसके कारण ऊर्जा क्वांटम में क्षरित होती है। किन्तु आइंस्टीन ने इस विषय में जो संकेत दिया, वह यह है कि ऊर्जा का स्वरूप भी परमाणविक (एटॉमिक) है। इसे अत्यन्त असाधारण अनुसन्धान कहना चाहिए। ऊर्जा को हम लोग हमेशा से ऐसी वस्तु मानते आए हैं, जो सतत प्रवाहशील होती है, जो रुक-रुककर नहीं चलती। निरन्तरता की दृष्टि से गति, दूरी और समय के सम्बन्ध में हमारी जो धारणा है, वही धारणा हम ऊर्जा के बारे में भी रखते हैं। प्रश्न उठता है कि यदि ऊर्जा का स्वरूप परमाणविक है, तो देश और काल भी परमाणुओं से बने हैं या नहीं। अभी कहीं भी इसका कोई उत्तर नहीं दीखता। सम्भव है, आगे चलकर देश और काल के स्वरूप भी परमाणविक सिद्ध हो जाएँ। द्रव्य, विद्युत और ऊर्जा-ये सब-के-सब परमाणविक सिद्ध हो चुके हैं। अब, शायद देश और काल की ही बारी है।

क्वांटम सिद्धान्त पर आगे जो काम हुए, उनसे यह भी पता चला कि इलेक्ट्रोन, जो द्रव्य के लघुतम अविभाज्य अंश हैं, उनका आचरण कभी तो कण के समान होता है और कभी तरंग के समान। किसी प्रयोग से इलेक्ट्रोन तरंग दिखाई देते हैं और किसी प्रयोग से कण। एडिंगटन ने उनके दोनों रूपों को समन्वित करके उनका नया नाम Wavicle रखा है, जिससे यह सूचित हो कि इलेक्ट्रोन तरंग (Wave) भी हैं और कण (Particle) भी।

क्वांटम सिद्धान्त का परमाणु पर प्रयोग पहले-पहल डेनमार्क के एक वैज्ञानिक नियल बोर ने किया। बोर से पहले मान्यता यह थी कि परमाणु के भीतर घूर्णिशील इलेक्ट्रोन से ऊर्जा बराबर क्षरित होती रहती है। बोर ने दिखलाया कि ऐसा नहीं होता। नाभिक के चारों ओर कई वृत्तों की काल्पनिक रेखाएँ हैं जिन पर इलेक्ट्रोन घूमा करते हैं। किन्तु जब तक वे इन रेखाओं पर रहते हैं, तब तक उनसे ऊर्जा क्षरित नहीं होती। ऊर्जा उनसे तब निकलती है, जब वे कँगारू के समान एक रेखा से कूदकर दूसरी रेखा पर जाते हैं। प्लैंक ने जिसको जर्क (धक्का) कहा था, वह शायद इलेक्ट्रोन की इसी कँगारू-कूद का परिणाम था। किन्तु इलेक्ट्रोन का तरंगकल्प आचरण बोर के सिद्धान्त का समर्थन नहीं करता और सच तो यह है कि अब बोर का सिद्धान्त कुछ पीछे छूटता जा रहा है। और उसकी जगह पर जो नए अनुमान प्रचलित किए गए हैं, उनसे भी द्रव्य का विश्लेषण सूक्ष्म से सूक्ष्मतर होता जा रहा है। ज्यों-ज्यों भौतिकी प्रगति करती है, द्रव्य का रूप अत्यन्त असाधारण और बुद्धि के लिए अगम्य बनता जा रहा है।

क्वांटम-सिद्धान्त-विषयक अनुसन्धानों का एक बड़ा परिणाम यह निकला कि । उतने दिनों से निश्चिन्त आता हुआ नियतिवाद अथवा डिटरमिनिज्म का सिद्धान्त संदिग्ध हो गया। अभी हाल तक वैज्ञानिक यह विश्वास करते थे कि वर्तमान स्थिति के सम्यक् ज्ञान से भविष्य का कथन किया जा सकता है और इसमें कोई सन्देह नहीं है कि आकाश-स्थित ग्रहों के बारे में जो भी भविष्यवाणियाँ की गईं, वे बराबर सच निकलीं। सच वे आज भी निकलती हैं। किन्तु अपने ही दर्शन के स्तर पर विज्ञान ने जो कुछ देखा है, उससे अब वह अपने नियमों पर शंका करने लगा है। इस शंका का जन्म इलेक्ट्रोन की लीला से हुआ। जैसा कि ऊपर कहा गया है, रेडियम के भीतर जो परमाणु होते हैं, उनमें से कुछ परमाणु आप-ही-आप विघटित होते रहते हैं। किन्तु विज्ञान यह नहीं बता सकता कि ऐसा क्यों होता है। परमाणु विघटित होते हैं, यह तथ्य हैं, किन्तु रेडियम के किसी भी परमाणु के विषय में विज्ञान यह बताने में असमर्थ है कि वह अभी विघटित होगा या अब से हजार वर्ष बाद । इसका कारण क्या है? क्या परमाणु के बारे में विज्ञान की जानकारी अभी पूरी नहीं हुई? अथवा कारण-कार्य के जिस नियम को विज्ञान उतना अटल मानता था, वह नियम ही झूठ है? विज्ञान इस स्थिति में नहीं है कि वह इनमें से किसी भी प्रश्न का कोई समीचीन उत्तर दे सके।

नियतिवाद के विरुद्ध अनिश्चितता (इनडिटरमिनेसी) का जो अनुमान विज्ञान को भासित हो रहा है, उसका आधार यह है कि हम प्रकृति के आचरणों का सही ज्ञान तब तक नहीं प्राप्त कर सकते, जब तक उसकी प्रक्रिया को हम रोक न दें। किन्तु प्रकृति की स्वाभाविक प्रक्रिया को रोककर हम उसका जो ज्ञान प्राप्त करेंगे, वह उसके । जीवित, गतिशील रूप का ज्ञान नहीं होगा। मृत शरीर के अध्ययन से जो ज्ञान प्राप्त होता है, वह स्पष्ट ही जीवित व्यक्ति का ज्ञान नहीं है। किन्तु यह अनिश्चितता सबसे अधिक प्रखर इलेक्ट्रोनों के अध्ययन में दिखाई देती है।

इलेक्ट्रोन इतने सूक्ष्म होते हैं कि उनकी सत्ता का ज्ञान हमें तब तक होता ही नहीं, जब तक वे किसी अन्य द्रव्य के साथ ऊर्जा का विनियम न करें। और जब भी ऐसा विनियम होता है, तब कम-से-कम एक क्वांटम ऊर्जा अवश्य क्षरित होती है। किन्तु इलेक्ट्रोन इतने हलके और सूक्ष्म होते हैं कि एक क्वांटम ऊर्जा से भी उनकी स्थिति इधर-से-उधर होने लगती है। अब परीक्षण की कठिनाई यह है कि यदि तीव्र प्रकाश से उन्हें देखा जाए, तो वे विचित्र प्रकार से चंचल हो उठते हैं और क्षीण प्रकाश से उनकी स्थिति का कोई ज्ञान नहीं हो पाता। नतीजा यह है कि किसी भी परीक्षण से उनका सम्यक् अध्ययन नहीं किया जा सकता।

इस स्थिति से स्पष्ट भासित होता है कि कारण-कार्य का नियम प्रकृति में भी सर्वत्र नहीं चलता। एडिगंटन ने एक स्थान पर यह संकेत दिया भी है कि स्वतन्त्र संकल्प (फ्री विल) जैसे किसी सिद्धान्त का आरोप किए बिना आगे की राह कठिन दिखाई देती है और ऐसा उन्होंने इसलिए नहीं कहा है कि इस आरोप का वे कोई अस्थायी लाभ विज्ञान को देना चाहते हैं, प्रत्युत उनका विचार है कि जैसे कारण-कार्य का नियम मौलिक नियम है, वैसे ही स्वतन्त्र संकल्प का नियम भी मूलभूत नियम हो सकता है।

ये दोनों विकल्प सत्य हो सकते हैं। प्रकृति के स्थूल रूपों पर तो कारण-कार्य और नियतिवाद के सिद्धान्त स्पष्ट ही सफल सिद्ध हुए हैं। किन्तु यह भी दिखाई देने लगा है कि स्कूल के प्रचलित नियमों से सूक्ष्म का वास्तविक ज्ञान प्राप्त नहीं किया जा सकता। आवश्यकता शायद इसी बात की है कि सूक्ष्म के ऐसे नियम पहले खोजे जाएँ, जिनसे स्थूल के नियम आप-से-आप निकलते हों। अब सृष्टि की कुँजी परमाणु नहीं, इलेक्ट्रोन है। अतएव इलेक्ट्रोन के नियमों से ही किया गया परमाणु का विश्लेषण सही वैज्ञानिक विश्लेषण होगा।

गणित और भौतिकी के नवीन अनुसन्धानों से विश्व की जो कल्पना निकली है, उसकी व्याख्या करते हुए सर जेम्स जीन्स (1877-1946 ई.) ने लिखा है कि सृष्टि की प्रक्रिया तभी समझ में आ सकती है, जब कोई उसका चित्र खींच दे। नई भौतिकी ने ऐसे दो चित्र बनाए हैं, जिनके नाम कण और तरंग हैं। (अर्थात् इलेक्ट्रोन कण भी हैं और तरंग भी) किन्तु इन दोनों में से कोई भी चित्र हमें पूरे सत्य के दर्शन नहीं करा सकता। कण-चित्र का उपयोग फोटो-विद्युत-इफेक्ट के लिए और तरंग-चित्र का उपयोग प्रकाश-इफेक्ट के लिए किया जाता है। इसलिए दोनों सत्य और दोनों उपयोगी हैं। अब यदि इन चित्रों से यह प्रश्न किया जाए कि प्रकृति कारणकार्य-नियम के अधीन है या नहीं तो कण-चित्र स्पष्ट कहेगा कि प्रकृति कारणकार्य-नियम के अधीन नहीं हैं, क्योंकि कणों की गति कँगारू के उछलने की गति के समान है और इस कूद पर कारण-कार्य नियम का प्रतिबन्ध नहीं होता। किन्तु तरंग-चित्र कहेगा कि प्रकृति कारण-कार्य-नियम के अधीन है, क्योंकि प्रत्येक तरंग अपने पहले वाली तरंग से चालित होती है। इसी प्रकार, इन चित्रों से यदि हम यह पूछे कि वास्तविकता अन्त में जाकर परमाणविक है अथवा और कुछ तो कण-चित्र का उत्तर होगा कि वास्तविकता का अन्तिम रूप परमाणविक ही है, क्योंकि द्रव्य, विद्युत और विकिरण (रडियेशन)-ये सब परमाणु के रूप में ही अवस्थित है। किन्तु तरंग-चित्र यहाँ कठिनाई में पड़ जाएगा। उसका सम्भावित उत्तर यही हो सकता है कि हमें ऐसी वस्तुओं का कोई पता नहीं है।

ऐसा क्यों होता है? केवल इस कारण कि कण-चित्र पुराने क्वांटम-सिद्धान्त पर आधारित हैं और तरंग-चित्र का आधार नया क्वांटम-सिद्धान्त है और वह गणित से भी सिद्ध पाया गया है। इसीलिए तरंग-चित्र का उत्तर हमेशा सही; किन्तु कण-चित्र का उत्तर कभी सही और कभी झूठ होता है।

विज्ञान के अहंकार को सबसे बड़ी ठेस यह लगी है कि कारण-कार्य (कौजेल्टी) का जो सिद्धान्त द्रव्य के सभी रूपों के विश्लेषण में उतना अधिक सफल पाया गया था, वह इलेक्ट्रोन के विश्लेषण में झूठ हो गया है। निःसंग परमाणु और इलेक्ट्रोन-ये दोनों ऐसे आचरण करते हैं, मानो वे स्वेच्छाचारी और स्वाधीन हों। इलेक्ट्रोन के स्वभाव की इस स्वेच्छाचारिता के कारण डिटरमिनिज्म का सिद्धान्त, निश्चित रूप से खंडित हो गया है और उसके स्थान पर अनियतिवाद अपना पाँव जमाने लगा है। इससे भौतिकी के अनेक नेता बहुत ही चिन्तित हो उठे हैं। आइंस्टीन और मैक्स प्लैंक ने यह आशा व्यक्त की है कि अनियतिवाद केवल कुछ दिनों तक ही टिकेगा। देर-सबेर नियतिवाद का सिद्धान्त भौतिकी में फिर से वापस आनेवाला है; किन्तु एडिंगटन आदि आचार्यों का मत है कि डिटरमिनिज्म विज्ञान से सदा के लिए चला गया।

वास्तविकता का असली स्वरूप क्या है, इसे जानने के सारे प्रयास व्यर्थ हुए हैं और जिस ज्ञान को वैज्ञानिक गणित-सिद्ध मानते हैं, उसका भी बहुत-सा भाग ऐसा है, जो सामान्य बुद्धि की पकड़ में नहीं आता। उदाहरणार्थ, अभिनव विज्ञान की यह स्थापना रहस्यवाद से मिलती-जुलती-सी लगती है कि देश (अर्थात् आकाश या स्पेस) निर्बन्ध होता हुआ भी ससीम (अनबाउंडेड बट फाइनाइट) है। विज्ञान की दूसरी मान्यता यह है कि क्षण-क्षण स्पेस का अपरिमित विस्तार होता जा रहा है, मानो बैलून को कोई फूंक रहा हो और वह पल-पल फैलता जाता हो। आकाश में स्थित ग्रह परस्पर दूर होते जा रहे हैं, इस स्थिति को देखकर आकाश के फैलने की बात कुछ-कुछ सच मालूम होती है। किन्तु आकाश फैलता है, तो वह किसमें फैलता है? शून्य के बाहर जो शून्य है, वह क्या कोई और तत्त्व है? कुछ समझ में नहीं आता। किन्तु यहाँ यह बात विचारणीय हो जाती है कि भारत में यूनिवर्स का पर्याय ब्रह्मांड है। यह शब्द ब्रह्म से बना है और ब्रह्म शब्द बुंह धातु से बनता है, जिसका अर्थ बढ़ना होता है। कहीं ऐसा तो नहीं है कि ब्रह्मांड के सतत बढ़ते रहने का ज्ञान भारत के ऋषियों को था और इसीलिए उन्होंने इसका नाम ब्रह्मांड रखा?

ऐसी ही शंका देश और काल के बारे में भी उठती है। न्यूटन की मान्यता थी कि देश और काल परस्पर भिन्न और दो अलग सत्ताएँ हैं। यह बात सामान्य बुद्धि से सही मालूम होती है, क्योंकि यद्यपि ग्रह और नक्षत्र कहीं-न-कहीं देश में ही अवस्थित हैं; किन्तु उनकी स्थिति से देश के स्वभाव में कोई अन्तर नहीं आता। देश तो तब भी रहा होगा, जब ये ग्रह-नक्षत्र नहीं जनमे होंगे और वह तब भी रहेगा जब सारे ग्रह-नक्षत्र विनष्ट हो जाएँगे। यही अवस्था काल की भी है। सूर्य के उगने या डूबने से, घड़ी के लोलक के चलने अथवा राजाओं के जन्म या मृत्यु से काल की जो नाप की जाती है, वह मनुष्य की अपनी मानसिक क्रिया है। अन्यथा काल तो इन सभी चीजों से तटस्थ है। वह तब भी था जब सृष्टि नहीं बनी थी और वह उस समय भी रहेगा, जब सृष्टि विनष्ट हो जाएगी। भारत में काल को बुढ़ापे और मृत्यु का कारण माना गया है। किन्तु यह भी काल को नापने की ही क्रिया की भाषा है। अन्यथा काल तो तटस्थ है। वह किसी के मरण का कारण क्यों बनेगा?

किन्तु अब आइंस्टीन ने देश और काल से उनकी तटस्थता छीन ली है और यह सिद्ध कर दिखाया है कि वे भी घटनाओं में भाग लेते हैं। इससे भी अधिक विचित्र स्थापना यह है कि देश और काल मिलकर एक हैं और वे चार डायमेंसनों में अपना काम करते हैं। यहाँ यह प्रश्न उठता है कि दो डायमेंसनों (लम्बाई और चौड़ाई) में तो हम पाँव से चलते हैं और तीसरा डायमेंसन जो मोटाई, घनत्व या ऊँचाई है, उसमें सीढ़ियों के सहारे चला जा सकता है। किन्तु काल के डायमेंसन अर्थात् अतीत और भविष्य में हम कैसे पहुँचें? क्या स्मृति और कल्पना-ये भी अब भौतिकी के वृत्त में आनेवाले हैं?

ऋग्वेद के नासदीय सूक्त में यह प्रश्न उठाया गया है कि “जब कुछ नहीं था तब क्या रहा होगा?" और इसके उत्तर में यह कहा गया है कि तब दिन भी नहीं था और रात भी नहीं थी, जीवन भी नहीं था और मृत्यु भी नहीं थी। उस समय प्रत्येक तत्त्व की अविद्यमानता विद्यमान थी। सूर्य न हो, चन्द्रमा न हो, राजा-प्रजा और सारे द्रव्य विनष्ट हो जाएँ, काल तब भी रहेगा, यह बात समझ में आती है। किन्तु किसी प्रकार यदि सारा आकाश सिमटकर एक बिन्दु बन जाए अथवा वह लुप्त ही हो जाए, काल तब भी रहेगा या नहीं, इस सवाल का कोई जवाब नहीं सूझता। एक हलकी-सी सम्भावना जरूर दीखती है कि देश के विलय के साथ काल का भी विलय हो सकता है। शायद नासदीय सूक्त की अनुभूति आगे चलकर भौतिकी द्वारा सत्य प्रमाणित होगी।

ये विज्ञान की नई दार्शनिक प्रवृत्तियाँ हैं, जो यह सूचना देती हैं कि हम विचारों के किसी सर्वथा नवीन युग के समीप आ गए हैं। विज्ञान में जड़ता का युग शायद समाप्त हो रहा है। न्यूटन आस्तिक थे, किन्तु नास्तिकता के प्रचार में उन्हीं के सिद्धान्तों ने सबसे अधिक योग दिया। सृष्टि यन्त्र है, देश और काल परस्पर स्वतन्त्र सत्ताएँ हैं और प्रकृति के भीतर सब कुछ गणित की निश्चितता से घटित हो रहा है, इन स्थापनाओं के बाद और रह क्या गया था, जिसके लिए आदमी अदृश्य वास्तविकता समझने की कोशिश करता?

भौतिकवाद को शक्ति इसी न्यूटनीय विज्ञान से प्राप्त हुई। ये भौतिकवादी लोग मानते थे कि द्रव्य, देश और काल-ये सम्पूर्ण वास्तविकता हैं। चेतना को वे भूत की प्रक्रिया से उद्भूत अत्यन्त उपेक्षणीय घटना मानते थे। उनकी मान्यता थी कि चेतना फोटोन, इलेक्ट्रोन और द्रव्य की मिश्रित गति से उत्पन्न कोई चीज होगी। विचार को भी वे मस्तिष्क में घटित होनेवाली यान्त्रिक प्रक्रिया का नतीजा और भाव को शारीरिक प्रक्रिया का परिणाम समझते थे। और सभी विज्ञान उसका समर्थन करते थे, क्योंकि चेतना शरीर से अलग कहीं दिखाई नहीं देती है।

किन्तु नई भौतिकी कुछ और ही संकेत देती है। सबसे पहले तो देश और काल को वह परस्पर परिवर्तनीय मानती है। फिर उसका यह भी अनुमान है कि देश और काल के भीतर केवल द्रव्य और विकिरण ही नहीं, बहुत-सी और भी चीजें हैं, जिनका महत्त्व है। जिस भौतिक जगत को हम आँखों अथवा यन्त्रों से देखते हैं, वह वास्तविकता का न तो असली रूप है, न उसे हम पूरी वास्तविकता कह सकते हैं। असली या पूरी वास्तविकता कुछ और है और जो कुछ हमें दिखाई देता है, वह उसका बिम्ब (एपियरेंस) मात्र है। सर जेम्स जीन्स ने लिखा है कि वास्तविक विश्व की कल्पना हम एक अगाध नदी के रूप में कर सकते हैं। हमारा दृश्य जगत उस नदी की ऊपरी सतह के समान है, जिसके नीचे की चीजें हमें दिखाई नहीं देतीं। इस नदी के अगाध तल में जो घटनाएँ घटती हैं, उनसे उत्पन्न कुछ तरंगें और वीचियाँ हमें सतह पर भी देखने को मिल जाती हैं, ये तरंगें और लहरें ही हमारे दृश्य-जगत की ऊर्जा-तरंग और विकिरण हैं, जिनका प्रभाव हमारी इन्द्रियों पर पड़ता है और जो हमारे मस्तिष्क को क्रियाशील बनाते हैं। किन्तु जल की अगाधता तो इन तरंगों के बहुत नीचे प्रच्छन्न है। उसके विषय में निश्चित रूप से हम कुछ भी नहीं जानते और जो कुछ हम जानते हैं, वह हमारा अनुमान मात्र है।

जीन्स ने आगे और भी कहा है कि हमारे दृश्य जगत की सारी क्रियाएँ मात्र फोटोन और द्रव्य अथवा भूत की क्रियाएँ हैं तथा इन क्रियाओं का एकमात्र मंच देश और काल है। इसी देश और काल ने दीवार बनकर हमें घेर रखा है। वास्तविकता के जो बिम्ब हम इन दीवारों पर देखते हैं, वे ही भूत के कण और उनकी लीलाएँ हैं। असल में, जिस वास्तविकता की छाया इन दीवारों पर पड़ रही है, वह स्वयं देश और काल से परे है।

शंकराचार्य ने इस दृश्य जगत को मिथ्या कहा था। नई भौतिकी उसे मिथ्या नहीं कहती; किन्तु यह अनुमान अब उसे भी होने लगा है जो कुछ दृश्य है, वही सम्पूर्ण यथार्थ नहीं हो सकता। अतएव वह मानती है कि देश और काल की दीवार भी सत्य है, उस पर पड़नेवाले बिम्ब भी सत्य हैं (क्योंकि इन्हीं बिम्बों से हमारी इन्द्रियाँ प्रभावित होती हैं) और जो वस्तु देश और काल से परे रहकर ये बिम्ब फेंक रही है, वह भी सत्य होगी। सम्पूर्ण सत्य कदाचित् इन सभी सत्यों के समवाय में है।

नई भौतिकी की तुलना में पुरानी भौतिकी अर्थात् न्यूटन से लेकर पुराने क्वांटम-सिद्धान्त तक की भौतिकी का दोष यह था कि वह बिम्ब (एपियरेंस) को ही सम्पूर्ण सत्य मानती थी और देश तथा काल से अपने को सीमित किए हुए थी, बल्कि उसे इतना भी अनुमान न था कि देश और काल से परे भी कोई वास्तविकता हो सकती है। नई भौतिकी की विशेषता यह है कि वह दुराग्रह छोड़ रही है और उसके भीतर यह अनुमान उत्पन्न होने लगा है कि बिम्ब वाले विश्व को समझने के लिए भी यह आवश्यक है कि हम दीवार से परे वाली वास्तविकता का ज्ञान प्राप्त करें।

सर आर्थर स्टैनले एडिगंटन (1882-1944 ई.) ने विज्ञान की दार्शनिक प्रवृत्तियों का उल्लेख किया है। यद्यपि ये प्रवृत्तियाँ अभी बहुत स्पष्ट नहीं है; किन्तु एडिगंटन का विचार है कि इस ओर वैज्ञानिकों को ध्यान देना चाहिए। विज्ञान की नई प्रवृत्तियाँ हमें जिस ऊँचाई पर ले गई हैं, वहाँ से दर्शन का समुद्र दिखाई देने लगा है। आइंस्टीन, हेजनबर्ग और बोर के सापेक्ष्यवाद और क्वांटम के सिद्धान्तों ने पिछले बीस वर्षों के भीतर यह स्थिति उत्पन्न कर दी है कि वैज्ञानिक भी धर्म की सम्भावनाओं में विश्वास कर सकें। भौतिकी के दार्शनिक को चाहिए कि भौतिकी से आगे अब वह उस भूमि का सन्धान करें, जो भूत और अध्यात्म की सीमा पर पड़ती है।

वास्तविकता केवल दृश्य जगत तक ही सीमित नहीं है। आदमी केवल सनसनाहटों का पुंज नहीं होता, उसमें ध्येय और दायित्व भी होते हैं। वह त्यागी, तपस्वी और रहस्यवादी सन्त भी होता है। जगत एक नहीं, दो हैं। भौतिक के साथ-साथ एक आध्यात्मिक विश्व भी है। मनुष्य के अनुभव का अर्थ वह अनुभव भी है, जो उसे बाह्य विश्व से प्राप्त होता है और वह अनुभव भी, जो उसे आत्मा से उपलब्ध होता है। और विज्ञान तो वही सम्पूर्ण होगा, जो मनुष्यों के इन दोनों प्रकार के अनुभवों को स्वीकार करे। किन्तु दुर्भाग्यवश भौतिकी इन दोनों विश्वों को अभी अपने आलिंगन में बाँधने में असमर्थ है।

और भौतिकी की अब तक की परेशानी भी कम नहीं है। जब भौतिकी का आरम्भ हुआ, उसके हाथ की चीजें ठोस थीं। पानी हवा की चोट के नीचे बहता था और वह गुरुत्वाकर्षण तथा हाइड्रोडायनिमिक्स के नियमों के अधीन था। किन्तु वस्तुओं का यह ठोसपन माया के समान निस्सार निकला। तरल में से हमने ठोस तत्त्व परमाणु निकाला, फिर उसे इलेक्ट्रोन में विभक्त कर दिया। किन्तु इलेक्ट्रोन बनते ही ठोस चीज हमारे हाथों से गायब हो गई। सन्तोष इतना ही है कि इलेक्ट्रोन और प्रोटोन के रूप में चीजों का सूक्ष्मतम रूप अब भी वर्तमान है। किन्तु क्वांटम का सिद्धान्त इन्हें भी बहुत स्थूल समझता है, अतएव इनसे आगे वह हमें एक ऐसी जगह लिए जा रहा है, जहाँ गणित के प्रतीकों के सिवा और कुछ भी नहीं है। जो ठोस था, वह गलकर शून्य हो गया है और हम आकार का हिसाब निराकार के पट पर लिख रहे हैं। पंडित नेहरू के शब्दों में “ठोस दुनिया पिघलकर गणित का कोई विचार अथवा छलना बन गई है, जो माया-सिद्धान्त के बहुत ही समीप है।"

प्राचीन विश्व में मन भ्रान्तियों और माया का मूल माना जाता था। उससे बचने को मनुष्य विश्व का नए ढंग से विश्लेषण करने लगा; किन्तु अब उसे फिर भासित हो रहा है कि जिस रोग से वह बचना चाहता था, वह अब भी उसके साथ है। भ्रान्ति से भागकर हम वास्तविकता को छूने चले थे, किन्तु ज्ञात हमें यह हो रहा है कि यह वास्तविकता मनुष्य के भीतर भ्रम उत्पन्न करनेवाली शक्ति से सम्बद्ध है। कारण, मनुष्य का जो मन माया का जाल बुनता है, वह वास्तविकता का भी एकमात्र साक्षी है। सत्य से माया का वही सम्बन्ध है, जो धुएँ का आग से है।

आदमी जब तक थाह में रहता है, तब तक अकड़ उसकी शेष रहती है; किन्तु अथाह में पहुंचने पर वह ईश्वर को पुकारे या नहीं, अकड़ तो वह छोड़ ही देता है। विज्ञान का भी यही हाल हुआ है। जब तक वह अथाह में न पहुँचा था, न्यूटनीय सिद्धान्तों के भरोसे वह निश्चिन्त था; किन्तु अथाह में पहुँचते ही वह यह मान गया है कि अब पहले की-सी निश्चिन्तता और आत्मविश्वास के साथ कोई भी बात जोर से नहीं कही जा सकती। यह विनम्रता की निशानी है और इसमें कोई सन्देह नहीं कि आज का विज्ञान अब से तीस वर्ष पहले की अपेक्षा कहीं विनम्र है। विज्ञान के जिस मंच से पहले यह आवाज सुनाई पड़ती थी कि वस्तुओं का अतीत यदि हमें ज्ञात है तो हमारे लिए यह बताना तनिक भी असम्भव नहीं कि उनका भविष्य क्या होगा; अब उसी मंच से यह बात सुनाई पड़ रही है कि विज्ञान का तो अभी आरम्भ मात्र है और उसकी सीमाएँ भी अनेक हैं। आज बड़े-बड़े विज्ञानाचार्य एक विचित्र उत्साह से यह घोषणा करने लगे हैं कि विज्ञान से हमें जो ज्ञान प्राप्त होता है, वह वास्तविकता के केवल एक अंश का ज्ञान है और अब हम पर यह बाध्यता नहीं है कि विज्ञान जिन विषयों की उपेक्षा करता है, उन्हें हम भी उपेक्षणीय मानकर छोड़ दें।

विज्ञान की इस नई प्रवृत्ति से उन सभी लोगों के भीतर आशा सुगबुगाने लगी है, जो आधिभौतिक दर्शन में विश्वास करना नहीं चाहते थे किन्तु तब भी जिन्हें आधिभौतिक विश्वासों से बाहर निकलने की राह अलभ्य थी। विज्ञान ने जिस विश्व की कल्पना की थी, उसे अन्तिम सत्य मान लेने का स्वाभाविक परिणाम यह था कि उस विश्व में मनुष्य का स्थान तिनके के समान तुच्छ हो जाता था। विज्ञान का विश्व विवेक-शक्ति और ध्येयों से सर्वथा विहीन एक ऐसा परम विशाल यन्त्र था, जिसका संचालन गणित करता था और आदमी इस यन्त्र से निकला हुआ कोई आनुषंगिक जीव था, जिसके सामने कोई ध्येय नहीं, जिसके जीवन का कोई अर्थ नहीं और जो अपने आपका भी स्वामी नहीं, प्रत्युत कारण-कार्य नियम से उतना ही अधीन था, जितना कोई भी पशु, पेड़ या पौधा हो सकता है।

किन्तु जब से इलेक्ट्रोन की स्वेच्छाचारिता ने नियतिवाद को चुनौती दी, तब से यह मानने का रास्ता खुल गया है कि केवल इलेक्ट्रोन ही नहीं, मनुष्य भी नियतिवाद का अपवाद है। वह अपना प्रत्येक कार्य परिस्थितियों से चालित होकर नहीं करता, बहुत बार निर्णय उसके अपने हाथ में होता है। बल्कि सच तो यह है कि विकास की प्रक्रिया अब पेड़ों, पौधों और पशुओं में नहीं चलती। उसका एकमात्र क्षेत्र अब मनुष्य की मनोभूमि है। मनुष्य पशुओं को स्थिति से ऊपर उठकर मनुष्य हुआ है, यह सत्य है; किन्तु पशुता के बहुत-से अवशेष उसमें अभी भी वर्तमान हैं। मनुष्य का अगला विकास इस बात पर निर्भर करता है कि अपने भीतर संचित पाशविक संस्कारों से वह कहाँ तक मुक्त होता है तथा भौतिक, रासायनिक और प्राणिशास्त्रीय नियमों की वह कहाँ तक अवज्ञा कर सकता है। विकास एक लम्बा-ऊँचा सोपान है जिसकी सबसे ऊपर वाली सीढ़ी पर मनुष्य पहुँचा है। यह कैसे माना जाए कि विकास की सारी सम्भावनाएँ उसी मनुष्य में आकर समाप्त हो गईं, जिसे हम जानते हैं? स्वाभाविक तो यही दीखता है कि मनुष्य का अभी और विकास होगा। यह विकास मनुष्य को अन्ततः क्या रूप देनेवाला है, इसकी विचिकित्सा असाध्य है। सम्भव है वह पश्चिम के विकासवादी चिन्तकों की कल्पना का मनुष्य हो, जिसके दाँत, अन्त्रपुच्छ और लोम नहीं होंगे, सम्भव है, वह श्री अरविन्द की कल्पना का अति-मनुष्य हो, जिसके पाँच की जगह छह या सात ज्ञानेन्द्रियाँ होंगी और जो बिना बोले ही बात तथा इच्छा मात्र से सन्ततियाँ उत्पन्न करेगा, अथवा यह भी सम्भव है कि वह किसी और ही तरह का आदमी हो जाए। किन्तु इन दिशाओं में से किसी भी दिशा में जाने से पहले उसे पशुता से अपना सम्बन्ध निःशेष कर लेना होगा। मनुष्य पशुओं की दुनिया से अधिक-से-अधिक दूर भागे, यह उसके अगले विकास की सबसे पहली शर्त दीखती है।

विकास जड़ से निकलकर चेतन होता हुआ मस्तिष्क के धरातल तक आ पहुँचा है। अब यहाँ से उसका क्रिया-क्षेत्र या तो मस्तिष्क है या मस्तिष्क से ऊपरवाली भूमि, जिसे श्री अरविन्द ने अति-मस्तिष्क कहा है। विवेकशील मनुष्य प्राणिशास्त्र के नियमों के उतना अधीन नहीं होता, जितना विज्ञानवादी लोग समझते हैं। प्राणिशास्त्र के नियमों का पालन पशु करते हैं, जिनका सारा उद्देश्य अपने जीवन की रक्षा करना है। किन्तु मनुष्य तो बहुत बार दूसरों का दुख दूर करने के लिए अपनी जान गँवा बैठता है। विकासवाद के सिद्धान्त से भी जनसाधारण की यही धारणा पुष्ट होती है कि विज्ञान के नियम जड़ पर पूर्ण रूप से, चेतन पर उससे कम और मनुष्य पर आकर सबसे कम चरितार्थ होते हैं।

चेतना केवल इन्द्रिय-ग्राहय बिम्बों का समुच्चय नहीं है। भावना, उद्देश्य, मूल्य और विवेक भी चेतना के ही अंग है। किन्तु विज्ञान चेतना के उन्हीं रूपों की व्याख्या करता है, जो इन्द्रिय-ग्राह्य बिम्बों से सम्बद्ध हैं। एडिंगटन मानते हैं कि यह वास्तविकता की आंशिक व्याख्या मात्र है। पूरी वास्तविकता तो तभी व्याख्येय होगी, जब हम यह मानकर चलें कि मनुष्य केवल भूत ही नहीं, अध्यात्म भी है। इन्द्रिय-ग्राह्य बिम्बों का स्रोत खोजते-खोजते हम, निश्चित रूप से, बाह्य विश्व में पहुँच जाते हैं, जो विज्ञान का क्षेत्र है। किन्तु चेतना की कितनी ही ऐसी वीचियाँ भी हैं, जिनका उद्गम खोजते-खोजते हम कहीं और चले जाते हैं। इस अपरिचित देश का सन्धान पाए बिना सम्पूर्ण वास्तविकता के ज्ञान का दावा बिलकुल बेकार है।

विज्ञानाचार्यों का यह स्वीकार करना कि अब तक का विज्ञान सृष्टि के स्थूल यंत्रों और उसके ढाँचों के ज्ञान का पर्याय है, बड़ी ही आशा की घोषणा है, क्योंकि इससे यह संकेत मिलता है कि स्थूल यन्त्रों और ढाँचों के परे सृष्टि का जो अदृश्य रूप है, उसके सम्बन्ध में विज्ञान ने कोई पूर्वाग्रह पैदा नहीं किया है। इस पूर्वाग्रह के अभाव में हम यह मानने को स्वतन्त्र है कि सौन्दर्य के प्रति हमारी रागात्मक वृत्ति और ईश्वर के साथ एकीभूत होने की हमारी रहस्यात्मक कल्पना बिलकुल निस्सार नहीं है। सम्भव है, इन वृत्तियों का भी कोई स्पष्ट लक्ष्य सृष्टि के भीतर प्रच्छन्न हो। अभिनव विज्ञान ने सृष्टि-विषयक जिस नवीन कल्पना को जन्म लेने की छूट दे दी है, उसमें केवल गणितज्ञ ही नहीं, रहस्यवादी सन्त और कलाकार भी रह सकते हैं।

(29 जून, 1959 ई.)

('विवाह की मुसीबतें' पुस्तक से)

कहानियाँ और अन्य गद्य कृतियाँ : रामधारी सिंह दिनकर

संपूर्ण काव्य रचनाएँ : रामधारी सिंह दिनकर