देर रात को (रूसी कहानी) : इवान बूनिन

Der Raat Ko (Russian Story) : Ivan Bunin

यह सपना था या फिर रात के रहस्यमय जीवन का वह समय, जो काफ़ी कुछ सपने जैसा ही होता है? मुझे लग रहा था कि शरद ऋतु का उदास चाँद बहुत देर से धरती के ऊपर बड़ी सहजता से तिर रहा था, मानो अब दिनभर के सारे झूठ व भगदड़ से मुक्ति पाकर आराम करने का समय आ गया हो। लग रहा था कि सारा पेरिस शहर अपनी सारी झुग्गी-झोपड़ियों समेत सो गया हो। मैं काफ़ी देर तक सोता रहा, लेकिन अन्त में धीरे से नींद मुझसे दूर चली गयी-बहुत ही शान्त व सावधान डॉक्टर की तरह, जिसने अपना सारा काम होने के बाद ही मरीज़ को छोड़ा हो, जब मरीज़ ने आँख खोल कर पूरी तरह से चैन की साँस ली हो और यह सोच कर शर्माते हुए खुशी से मुस्कुराया हो कि उसकी ज़िन्दगी लौट आयी है। जैसे ही आँख खुली तो मैंने अपने आपको रात के साम्राज्य में पाया, शान्त व हल्की-सी रोशनी भरे।

मैं अपने पाँचवीं मंज़िल के कमरे के कालीन पर बिना आवाज़ किये चक्कर काट रहा था। बाद में मैं खिड़की के पास आया। कभी मैं बड़े-से हल्की-सी रोशनी भरे कमरे की ओर देखता, तो कभी खिड़की के ऊपर के शीशे से चाँद की ओर। उस वक़्त चाँद मुझ पर रोशनी बरसा रहा था और अपनी आँखें ऊपर किये मैं बहुत देर तक चाँद की आँखों में आँखें डाल देखता रहा। चाँद की रोशनी खिड़की के परदे की लेस से गुज़र कर कमरे की गहराई में बसे अँधेरे को कुछ कम कर रही थी। कमरे के इस हिस्से से चाँद नहीं दिख रहा था, लेकिन चारों खिड़कियाँ चाँद की रोशनी से आलोकित थीं और हर वह चीज़, जो खिड़की के क़रीब थी। चाँद की रोशनी खिड़की से होकर हल्के नीले और हल्के चाँदी के रंग की कमानों की शक्ल में पड़ रही थी और हर इस कमान में थी एक धुंधले-से क्रॉस की छाया, जो आलोकित कुर्सियों एवं सोफे पर पड़ते समय टूट रही थी। आख़िरी खिड़की के पास सोफे पर बैठी थी वह, जिससे मुझे प्यार था। उसके सारे कपड़े सफ़ेद थे और वह छोटी बच्ची जैसी लग रही थी। उसका चेहरा निस्तेज था, लेकिन वह सुन्दर थी। जीवन में हमने जो कष्ट उठाये, उनसे वह थक गयी थी और यही कष्ट हमें कई बार कठोर और निर्दयी शत्रु बना देते थे।

आज की रात उसे भी नींद क्यों नहीं आ रही थी?

उसकी ओर देखने से बचते हुए मैं उसके साथ खिड़की पर बैठ गया। वाकई देर हो चुकी थी। सामने के घर की पूरी पाँच मंजिला दीवार अँधेरे में थी और खिड़कियाँ ऐसे लग रही थीं, जैसे अन्धी आँखें। मैंने नीचे की ओर देखा, सड़क तंग और गहरे गलियारे जैसी लग रही थी, बिल्कुल अँधेरी और खाली और सारा शहर भी ऐसे ही था। सिर्फ़ मन्द रोशनीवाला चाँद थोड़ा-सा झुका हुआ बड़े उत्साह से शहर के ऊपर लुढ़क रहा था, लेकिन धुएँदार दौड़ते बादलों के बीच वह स्थिर रहा था। वह सीधे मेरी आँखों में देख रहा था-आलोकित लेकिन, तनिक क्षीण होता। इसी कारण वह थोड़ा-सा उदास था। बादल धुएँ की भाँति तिर रहे थे, उसकी बग़ल से, लेकिन जब वे चाँद के क़रीब होते तो प्रकाशमान हो उठते और आगे निकलते ही गहरे हो जाते, छतों की कतार के पीछे तो बिल्कुल उदास व भारी पहाड़ी जैसे लगते...

कई दिनों से नहीं देखी थी मैंने चाँदनी रात! और लो, मेरी यादें मुझे फिर से ले गयीं उन भूली-बिसरी पतझड़ में बितायी रातों की ओर। ये रातें मैंने कभी बचपन में गुज़ारी थीं मध्य रूस की रूखी व ऊँची-नीची स्टेप्पी1 में। वह चाँद हमारे घर में झाँकता था। वहीं पर मैंने उसे जाना व मुझे प्यार हो गया था उसके छोटे-से निस्तेज मुखड़े से। मैंने अपने ख्यालों में पेरिस छोड़ा और पल भर के लिए सारा रूस गुज़र गया मेरी आँखों के सामने से। मुझे ऐसा लगा, जैसे मैंने बहुत ऊँची जगह से बहुत नीची भूमि को देखा हो। यह रहा बाल्टिक सागर का चमकता हुआ सुनहरा विस्तार। ये रहे धुंधलके में पूरब की ओर बढ़ते हुए चीड़ व देवदार वृक्षों के उदास प्रदेश। और ये रहे विरल जंगल, दलदल और छुटपुट झाड़ियाँ, जिनके बाद शुरू होते हैं कभी ख़त्म न होने वाले घास के मैदान व समतल प्रदेश। चाँद की रोशनी में चमकती रेल की पटरियाँ इन जंगलों से गुजरती हुई सैकड़ों मील जा रही हैं। उनींदे रंगबिरंगे दिये झिलमिला रहे हैं, सड़कों के किनारों से और एक-दूसरे के पीछे मेरी मातृभूमि की ओर चले जा रहे हैं। मेरे सामने है छोटे-मोटे टीलों वाला इलाका और उसके बीच-बीच ज़मींदार का भूरा, ज़र्जर घर, चन्द्रमा के प्रकाश में विनम्र लग रहा था वह..., क्या यह वही चाँद है, जो कभी मेरे बचपन में कमरे में झाँका करता था, जिसने बाद में मुझे किशोरावस्था में देखा था और जो अब उदास है मेरे असफल यौवन के लिए? इस रोशनीभरी रात के साम्राज्य में उसी ने मुझे दिलासा दिया...

(1. स्टेप्पी-(स्वेप्यू रूसी) : मध्य व दक्षिण रूस के वृक्षरहित अति विशाल घास के मैदान।)

"तुम सो क्यों नहीं रहे हो?"-एक डरी-सी आवाज़ सुनायी दी मुझे।

बहुत लम्बी व ज़िद्दी चुप्पी के बाद वह मुझसे पहले बोली, इस बात से मेरे दिल में मीठा-सा दर्द उठा और मैं धीमी आवाज़ में बोला :

“पता नहीं...लेकिन तुम?"

और फिर हम देर तक चुप रहे। चाँद छतों पर उतर आया व हमारे कमरे के अन्दर झाँकने लगा।

"माफ़ करना!"- मैंने उसके पास होते हुए कहा-

उसने कुछ भी नहीं कहा व अपना चेहरा हाथों से ढक लिया।

मैंने उसके हाथ अपने हाथों में लेकर आँखों से दूर किये। उसके गालों पर आँसू ढुलक रहे थे, उसकी भौंहें ऊपर उठी हुई थीं और छोटे बच्चे की भाँति काँप रही थीं। मैं घुटनों के बल उसके पाँवों की ओर झुका और अपना चेहरा उसकी गोद में छुपा लिया। फिर न मेरे आँसू रुके, न उसके।

"लेकिन क्या तुम सचमुच गलत हो?"-झेंपते हुए उसने मेरे कान में कहा, "क्या मेरी गलती नहीं है यह सब?"

और उसके आँसू भरे चेहरे पर एक हर्ष और विषाद भरी मुस्कान उभर आयी...

लेकिन मैं उससे कह रहा था कि गलती हम दोनों की ही है। हम दोनों ने ही सुख के नियमों का पालन नहीं किया। हमें खुशी पाने के लिए ही जीना चाहिए इस धरती पर। हम फिर एक-दूसरे से प्यार करने लगे। सिर्फ वे ऐसा प्यार कर सकते हैं, जिन्होंने एक साथ पीड़ा सही हो, जो एक साथ भटके हों, लेकिन बदले में उन्हें सत्य के दुर्लभ क्षणों की अनुभूति भी एक साथ हुई हो। केवल उदास व निस्तेज चाँद ने देखी हमारी खुशी...

अनुवाद : विनय तोटावार