दार्शनिक की दुर्दशा (कहानी) : वाल्टेयर

Darshnik Ki Durdasha (Story) : Voltaire

मेमनन ने उस दिन तत्त्वज्ञानी होने की ठान ली। ऐसे बहुत कम लोग होंगे, जो कभी-न-कभी ऐसा ही अद्भुत विचार कर लेते हों। मेमनन मन-ही-मन सोचने लगा। पूर्ण रूप से सुखी होने के लिए, मुझे केवल काम, क्रोध, लोभ और अन्य दुर्गुणों से दूर रहना है। सभी को मालूम है, इससे अधिक सहज और क्या हो सकता है? प्रथम तो मैं किसी स्त्री से प्रेम नहीं करूँगा; मैं जब किसी सुन्दर स्त्री को देखेंगा, तो मन-ही-मन सोचूंगा, इस चेहरे पर एक दिन झुर्रियाँ पड़ जाएँगी, इन आँखों के चारों तरफ धब्बे पड़ेंगे, सिर के सारे बाल सफ़ेद हो जाएँगे। मुझे सिर्फ यह सोचना होगा कि वह पीछे कैसी हो जाएगी। बस, तब फिर कोई सुन्दर मुखड़ा मुझे मोह नहीं सकेगा।

दूसरी बात यह है कि मैं सदा संयमी रहूँगा। किसी तरह भी कोई मुझे अधिक शराब नहीं पिला सकेगा। मैं सदा याद रखूँगा कि अधिक शराब पीने से क्या हानियाँ होती हैं, जैसे सिर-दर्द, बदहजमी, मानसिक तथा शारीरिक पतन और समय की बर्बादी। फिर स्वास्थ्य अटूट रखने के लिए भोजन की जितनी आवश्यकता है, उतना ही खाऊँगा। तब मेरा स्वास्थ्य सदा एक-सा रहेगा, मेरा जीवन सदा पवित्र और उज्ज्वल रहेगा।
यह सब करना इतना सहज है कि इसकी सफलता के लिए अधिक परिश्रम का प्रयोजन नहीं।

मेमनन ने मन-ही-मन कहा, अपनी सम्पत्ति को कायम रखने के बारे में मुझे कुछ सोचना चाहिए, फिर मेरी चाह भी थोड़ी है, और मेरा सारा धन शहर के विश्वास-योग्य महाजन के पास अच्छे सूद पर जमा है। परमात्मा की बड़ी कृपा है कि चैन से मेरी गुजर हो जाएगी। मैं कभी भी अदालत या राजदरबार में नहीं जाऊँगा, किसी से भी मैं ईर्ष्या नहीं करूँगा, और न कोई मुझसे ईर्ष्या करेगा। यह सब करना इतना सरल है, तो अपने सुख के लिए क्यों न करूँ? वह सोचता गया-मेरे इतने मित्र हैं, सबसे मैं मित्रता बनाए रखूँगा, क्योंकि हम लोग किसी भी बात पर न लड़ेंगे। वे कुछ भी करें या बोलें, मैं नाराज नहीं होऊँगा; और वे भी मुझसे उसी तरह व्यवहार करेंगे। यह सब करने में कौन-सी कठिनाई है?

अपनी कोठरी में बैठे-बैठे इसी तरह तत्त्व-विचार करके मेमनन ने खिड़की से बाहर सिर बढ़ाया। उसने देखा, दो औरतें उसके मकान के पास टहल रही हैं। एक अधेड़ थी, और सुखी मालूम पड़ती थी; दूसरी एक सुन्दर युवती थी, जो दुख से विह्वल दीख रही थी। वह लम्बी साँसें ले रही थी और रो रही थी; पर इससे वह और भी सुन्दर मालूम पड़ती थी। हमारे तत्त्वज्ञानी का हृदय घबरा उठा। यह निश्चय है कि उस युवती का सौन्दर्य देखकर नहीं, क्योंकि उसने दृढ़-संकल्प कर लिया था कि इसके लिए वह बेचैनी अनुभव नहीं करेगा, बल्कि उसका दुख देखकर, वह अपनी कोठरी से बाहर निकलकर तत्त्वज्ञान द्वारा युवती को ढाढ़स देने लगा। तब वह सुन्दरी सरलता के साथ, और बहुत ही प्रभावपूर्ण ढंग से उससे कहने लगी कि कैसे एक काल्पनिक चाचा ने उसको नुकसान पहुँचाया है, किस चालाकी से वह उसकी काल्पनिक सम्पत्ति हड़प रहा है, और बताने लगी कि उसके डर की आशंका से उसे जरा भी चैन नहीं मिलता। "आप जैसे बुद्धिमान आदमी," वह बोली, "अगर कृपा करके मेरे घर चलकर मेरी परिस्थिति पर जरा ध्यान दें, तो शायद इस घबराहट से मैं रिहाई पा जाऊँ।" उसके साथ चलकर तत्त्वज्ञान की दृष्टि से उसकी हालत की जाँच करने और उसे परामर्श देने को मेमनन तैयार हो गया।

उस व्यथित युवती ने उसे एक सुगन्धित कमरे में ले जाकर एक बड़े सोफे पर अपने पास बैठाया। वे आमने-सामने थे। युवती उत्सुकता के साथ अपनी कहानी कहती जा रही थी, और वह बहुत आग्रह से सुनता जा रहा था। आँखें नीची किए युवती बोल रही थी। उन आँखों से कभी-कभी दो-एक बूँद आँसू टपक पड़ते थे, और जब वे आँखें ऊपर उठतीं, तो मेमनन की आँखों से मिल जातीं। उसकी बातचीत कोमलता से पूर्ण थी, और जितनी अधिक उनकी आँखें मिलने लगीं, बातें और भी कोमल होती गई। मेमनन का हृदय करुणा से भर गया; ऐसी दुखिया युवती का उपकार करने के लिए वह प्रतिक्षण उत्सुक होता जा रहा था। धीरे-धीरे बातचीत के जोश में वे आमने-सामने नहीं बैठे रह सके, वे एक-दूसरे के पास बैठ गए। मेमनन उससे इतना लगाव से बातें करने लगा और उसके परामर्श के शब्द इतने मीठे होते गए कि अन्त में वे दोनों काम के बारे में बातें करना भूल गए, और उन्हें पता ही नहीं रहा कि किस विषय पर जा रहे हैं।

ऐसे ही समय पर, जैसा कि तय था, चाचा साहब एकाएक कमरे में आ गए और आते ही बोले, "छिपे-छिपे प्रेम हो रहा है। आज दोनों ही को मार डालँगा। मेरे घर की बदनामी!" युवती तो खिसक गई। वह जानती थी कि एक मोटी रकम बिना दिए वह क्षमा नहीं पाएगा। फिर जेब में जो कुछ धन था, चाचा को देकर मेमनन ने किसी तरह अपनी जान बचाई।

शरम और घबराहट से मेमनन अपने घर लौट आया। उसे उसी दोपहर को कुछ घनिष्ठ मित्रों के साथ भोजन करने के लिए निमन्त्रण-पत्र मिला था। सोचा-अगर घर पर रहूँ, तो यह लज्जाजनक घटना मेरे हृदय पर छाई रहेगी, और मैं कुछ भी खा-पी नहीं सकूँगा, इससे मेरी तबीयत खराब हो जाएगी। बेहतर है कि अपने मित्रों के पास जाकर दिल-बहलाव कर आऊँ। मित्रों के हँसी-मजाक में अपनी इस सुबह की बेवकूफ़ी को भुला सकूँगा। इसी तरह निश्चय कर वह मित्रों की गोष्ठी में गया। उसे उदास देखकर मित्र लोग शराब परोसकर उसे खुश करने के लिए जोर देने लगे। तब तत्वज्ञानी मेमनन मन-ही-मन तर्क कर इस नतीजे पर पहुँचा कि कम शराब यानी संयत भाव से अगर शराब पी जाए, तो स्वास्थ्य और चित्त दोनों ही के लिए बहुत गुणकारी है। यह सोचकर शराब पीकर वह मतवाला हो गया। भोजन के बाद जुआ शुरू हो गया। उसने जुआ खेला, और जो कुछ उसकी जेब में था, वह सब हार तो गया ही, ऊपर से एक मोटी रकम कर्ज भी रह गई। खेल की किसी बात पर झगड़ा चला। वाद-विवाद करने वाले गरम हो गए। एक घनिष्ठ मित्र ने पाँसे का बॉक्स उठा कर उसके सिर पर दे मारा, और उसकी एक आँख नोच ली। नशे और बिना पैसे की हालत में, एक आँख खोकर तत्त्वज्ञानी मेमनन किसी तरह अपने घर लौट आया।

घर आकर वह सो गया। सोने के बाद जब कुछ स्वस्थ हुआ, तो उसने महाजन से कुछ रुपए लाने के लिए नौकर को भेजा, क्योंकि उसे उसी दिन अपने घनिष्ठ मित्र का कर्ज अदा करना था। नौकर ने लौटकर कहा कि महाजन ने आज सुबह ही अपने आपको दिवालिया घोषित कर दिया है, और सैकड़ों परिवार, जो उस महाजन के पास अपना धन जमा कर चुके थे, तबाह हो गए हैं। यह सुनकर मेमनन के होश-हवास उड़ गए। अपनी आँख पर पट्टी बाँधकर, एक अर्जी लिखकर, वह राजदरबार में उस दिवालिया के विरुद्ध न्याय की प्रार्थना करने के लिए निकल पड़ा। राजदरबार में उसने कई रमणियों को बैठे देखा। वे बहुत खुश नज़र आ रही थीं। उनमें से एक ने, जो उसे कुछ जानती थी, उसे देखकर बुरे ढंग से मज़ाक किया। दूसरी एक रमणी ने, जिससे उसकी घनिष्ठता थी, कहा, “नमस्ते मिस्टर मेमनन! अच्छी तरह तो हो न? पर मिस्टर मेमनन, आपने अपनी एक आँख कैसे खोई ?" यह कहकर वह खिलखिला कर हंस पड़ी और जवाब के लिए न रुककर पीछे घूमकर चली गई। मेमनन ने अपने को एक कोने में छिपा रखा था और राजा के पैरों के पास अपने अर्जी पेश करने के मौके की प्रतीक्षा करता रहा। आखिर वह मौका मिला, और उसने तीन बार जमीन चूमकर वह अर्जी पेश की। राजा ने उस अर्जी को पढ़ा और एक अफ़सर को उस पर कार्यवाही करने का हुक्म दिया। अफ़सर उसे अलग ले जाकर बड़े रूखेपन से बोले, "अरे, ओ काने राजा! सुनो, मेरे पास न आकर सीधे राजा के पास जाकर तुमने बड़ी भारी बेवकूफ़ी की है और तुम्हारी इतनी मजाल कि उस ईमानदार दिवालिया के विरुद्ध नालिश करने आए हो, जो मेरा प्रिय-पात्र है, जो मेरी पत्नी का भांजा है! अगर भलाई चाहते हो, तो इस मामले में चुप हो जाओ, नहीं तो, यह याद रखो, तुम्हारी दूसरी आँख भी नहीं रहेगी!"

अपनी कोठरी में बैठे-बैठे मेमनन ने निश्चय किया था कि वह स्त्रियों से दूर रहेगा, शराब नहीं पिएगा, जुआ नहीं खेलेगा, लड़ाई-झगड़ा नहीं करेगा, राजदरबार में नहीं जाएगा, पर चौबीस घंटे के थोड़े से समय के भीतर वह एक मन-मोहिनी सुन्दरी के द्वारा ठगा गया, शराब पीकर मतवाला हुआ, जुआ खेला, झगड़ाकर बैठा, आँख खोई और राजदरबार में गया, जहाँ वह मूर्ख बना और बुरी तरह बेइज़्जत हुआ!