Chhote-Chhote Sawal (Novel) : Dushyant Kumar

छोटे-छोटे सवाल (उपन्यास) : दुष्यन्त कुमार

इंटरव्यू से पहले (अध्याय-1)

सत्यव्रत ठीक दस बजे उस कमरे में पहुँचा जहाँ इंटरव्यु के लिए और बहुत-से उम्मीदवार जमा थे। यद्यपि वह आर्यसमाज मन्दिर से साढ़े नौ बजे ही चल दिया था, फिर मी मन में थोड़ा चिन्तित था। वक्त का सही अनुमान न लगा पाने के कारण उसे लगता था कि कहीं पाँच-सात मिनट का विलम्ब न हो गया हो। किन्तु कमरे में पहुंचकर उसे सान्त्वना मिली। लोग एक-एक, दो-दो की टुकड़ी में बँटे हुए बातचीत कर रहे थे और ऐसा नहीं लगता था कि इंटरव्यू शुरू हो गए हैं।

"क्यों साहब, जब तक हम लोगों का इंटरव्यू शुरू हो, तब तक क्यों न हम एक-दूसरे का परिचय ही हासिल कर लें ?" ठाकुर ने बेंच से उठकर दोनों हाथ आगे फैलाते हुए एक्टराना अन्दाज में कहा और फिर खुद अपना परिचय देते हुए बोला, "बन्दे का नाम है राजेश्वर ठाकुर और असिस्टेंट टीचरी का उम्मीदवार हूँ।"

बात करने का अन्दाज और बात का वजन दोनों बराबर उतरे। हिन्दु इंटर कॉलेज, राजपुर के उस कमरे में पन्द्रह-बीस बेतरतीब-सी डेस्कों के पीछे लगी बेंचों पर बैठे उम्मीदवारों में जैसे जिन्दगी की हलचल दौड़ गई। अब तक खामोश-से बैठे प्रतीक्षाग्रस्त उम्मीदवार इस बात के प्रति ज्यादा सतर्क थे कि कहीं डेस्कों की दावात की सूखी स्याही का कोई धब्बा उनके साफ़ धुले कपड़ों पर न लग जाए। पर अब उन्हें लगा कि वक्त बातचीत करके भी गुज़ारा जा सकता है।
सत्यव्रत कोने में पड़ी एक बेंच पर बैठ गया। एक सिरे से खड़े होकर सबने अपना परिचय देना शुरू किया।
"रामस्वरूप पाठक नाम है, के.जी. कॉलेज में हिन्दी में सेकंड डिवीजन में एम.ए. किया है, हल्दौर से आया हूँ।"
मेरा नाम मुरारीमोहन माथुर है, मैंने भी हिन्दी में एम.ए.किया है, मैं झालू का रहनेवाला हूँ। और भी चार उम्मीदवारों ने खड़े हो-होकर अपना परिचय दिया। सबने हिन्दी में एम.ए. किया था और सब सेकंड डिवीजन में पास हुए थे। ये लोग हिन्दी की लेक्चररशिप के उम्मीदवार थे।

सहसा राजेश्वर ने कहा, "क्यों साहब, क्या एम.ए. हिन्दी में थर्ड डिवीजन नहीं होती ?"
असिस्टेंट टीचरी के अधिकांश उम्मीदवार इस बात पर मुस्करा दिए। कोई उत्तर न पाकर असरार ने डेस्क पर आगे झुकते हुए कहा, "एम.ए. की बात तो साहब, ये प्रोफ़ेसर लोग जानें, पर बी.ए. में थर्ड डिवीजन जरूर होती है और मुझे थर्ड डिवीजन में बी.ए. पास करने का फ़ख़्र हासिल है।"
इस पर श्रोत्रिय नाम के एक अन्य उम्मीदवार ने भी दूसरे शब्दों में यही बात दोहराई।

फिर जो परिचय का औपचारिक दायरा टूटा और डिवीजनों की बात चली तो मालूम हुआ कि असिस्टेंट टीचरी के दो पदों के लिए आमन्त्रित छह में से पाँच उम्मीदवार थर्ड डिवीजनर हैं और अनट्रेंड भी। राजेश्वर ठाकुर ने तो बी.ए. तीसरे साल सप्लीमेंटरी में पास किया था। पर सर्वसम्मति से सभी उम्मीदवारों ने उसे भी थर्ड डिवीज़नस में ही गिना । फिर एक-दूसरे को प्रशंसा और प्रेम की दृष्टि से देखकर सबने आत्मसन्तोष का अनुभव किया।

तभी अचानक राजेश्वर ने कोनेवाली एक बेंच पर अकेले बैठे हुए सत्यव्रत से उसकी डिवीजन पूछी तो फिर कई चेहरों से सन्तोष का भाव मिट गया और बेसब्री से सब उसकी ओर देखने लगे।

सांवला सा रंग, उभरे से नाक-नक्श, दुबला-पतला और झेंपू- सा वह युवक मुश्किल से चौबीस साल का होगा। घर की कती मोटी खादी के कपड़े और सिर पर एक-एक अंगुल के बाल, जिनके बीचोंबीच खड़ी छोटी-सी चोटी में गाँठ लगा दी गई थी। संक्षेप में सत्यव्रत सबको शास्त्री किस्म का नवयुवक लगा। और जब उसने बी.ए. में अपनी सेकंड डिवीजन बतलाई तब तो सभी ने उसकी और ऐसे घूरा जैसे उसने कोई भारी अपराध किया हो, अथवा वह झूठ बोल रहा हो।

"कॉलेज तो फटीचर ही लगता है। न बिजली है, न पंखे । डेस्क भी बाबा आदम के जमाने के हैं।" लेक्चररशिप के उम्मीदवार पाठक ने कहा। दरअसल सत्यव्रत की डिवीजन का पाठक वग़ैरा पर कोई असर न पड़ा था।

मगर असिस्टैंट टीचरी के उम्मीदवारों ने पाठक की बात को अहमियत नहीं दी । असरार की बराबर बैठे केशवप्रसाद को सत्यव्रत के प्रति अत्यधिक सहानुभूति उमड़ आई थी। उसके पास जाकर वह बोला, "आपने सेकंड डिवीजन में बी.ए. किया, फिर आप यहाँ सड़ने के लिए क्यों आ गए ?"
सत्यव्रत इस प्रश्न का कोई उत्तर न दे सका। उनके सांवले कपोलों और निश्छल आँखों में शर्म और असमर्थता का-सा भाव दौड़ गया।
श्रोत्रिय ने फिर पूछा, "क्या परसेंटेज था बी.ए. में आपके मार्क्स का ?"
"उनसठ प्रतिशत। सत्यव्रत ने संक्षिप्त-सा उत्तर दिया। फिर उसने बताया, "अंग्रेजी के अतिरिक्त अन्य विषय लेकर मैंने बी.ए. किया है, इसी वर्ष । संस्कृत में विशेष योग्यता मिली है। "
श्रोत्रिय और केशवप्रसाद की जिज्ञाना समाप्त हुई। सत्यव्रत के पास बी.ए. में अंग्रेजी न होने की बात सुनकर शायद और लोगों को भी कुछ राहत मिली क्योंकि उनके चेहरे पर फिर वही भाव लौट आया था।

मगर राजेश्वर ठाकुर ने विचारपूर्वक निर्णय दिया, "आजकल संस्कृत में 'डिस्टिन्कशन' का कोई मतलब नहीं होता, सत्यव्रतजी। इट इज ए डेड लैंग्वेज।" फिर कुछ सोचते हुए बोला, "क्या आपको इंग्लिश बिलकुल नहीं आती ?"
सत्यव्रत ने कहा, "जी, इस वर्ष केवल अंग्रेजी में बी.ए. करने की सोच रहा हूँ । वैसे ..."

"तब तो आपने नाहक तकलीफ़ की।" राजेश्वर ने अफ़सोस जाहिर किया। उसके होंठ विचक गए और कन्धे ऊपर को उचककर अपनी जगह पर आ गए। फिर मन-ही-मन अपने सफ़ेद पेंट और बुश्शर्ट की सफेदी की तुलना जैसे सत्यव्रत के अपेक्षाकृत कम सफ़ेद कपड़ों से करता हुआ बोला, "फिर भी क्या हर्ज़ है लक ट्राइ करने में ! वैसे आपकी 'क्वालिफिकेशन्स' कुछ सूट नहीं करती हैं।" सत्यव्रत ने कोई प्रतिवाद नहीं किया।
मगर राजेश्वर की बात पूरी भी नहीं हुई थी कि हिन्दी की लेक्चररशिप का उम्मीदवार पाठक बोल उठा, "माफ़ कीजिए ठाकुर साहब, आप अपनी 'डिग्री' वग़ैरा लेकर आए हैं न?"
"जी, हाँ।"
"और मार्क-शीट ?"
"वह भी है। दिखाऊँ आपको ?" राजेश्वर ने इस आकस्मिक प्रश्न को पूरी तवजह देते हुए पूछा।
"जी नहीं। बेहतर हो, आप खुद ही उन्हें एक बार देख लें।" पाठक ने व्यंग्य किया।

“जी!" राजेश्वर ने अचकचाकर कहा, और इधर-उधर लोगों की प्रतिक्रिया देखने लगा कि कितने लोग इस व्यंग्य को समझ सके हैं। सत्यव्रत के मुख पर निश्छल शान्ति थी। पर हिन्दी की लेक्चररशिप के सारे उम्मीदवार होंठों की कोरों में मुस्करा रहे थे।
असिस्टैंट टीचर-पद के उम्मीदवारों की प्रतिक्रिया पढ़ने का उसमें साहस नहीं हुआ। धड़कते दिल पर कृत्रिम आश्चर्य-मिश्रित झुंझलाहट का आवरण चढ़ाकर वह फिर बोला, "आपका मतलब मैं समझा नहीं।"

इस बार बात पाठक के बराबर बैठे हुए हिन्दी की लेक्चररशिप के ही दूसरे उम्मीदवार मुरारीमोहन माथुर ने पकड़ ली, बोला, "दरअसल आप नहीं समझे होंगे, क्योंकि पाठकजी ने जरा बारीक बात कह दी। दरअसल उनका मंशा यह था कि सत्यव्रतजी की 'क्वालिफिकेशन्स' की बजाय अगर आप अपनी 'क्वालिफिकेशन्स' पर गौर फरमाएँ तो शायद आपको अपनी 'लक ट्राई' करने की भी जरूरत महसूस न हो।

माथुर का इशारा राजेश्वर की सप्लीमेंटरी की तरफ़ था। मगर ये 'लक ट्राई' का खटका ऐसा हुआ कि सारे उम्मीदवार एकबारगी हँस दिए। सिर्फ सत्यव्रत नहीं हँसा। उसके शान्त, पवित्र-बौद्ध-मुख पर एक करुणा-सी उभर आई। उसे शायद लगा कि ठाकुर पर अत्याचार हो गया। और वह उसके पक्ष में कुछ कहने की सोचे कि तभी राजेश्वर खुद ही बोल पड़ा, "आप आखिर कहना क्या चाहते हैं?"
माथुर ने फिर उसी का वाक्य दोहरा दिया, "दरअसल आपने नाहक तकलीफ़ की। आपकी 'क्वालिफिकेशन्स' कुछ सूट नहीं करती हैं।"
हँसी का एक फ़व्वारा तेजी से कमरे में फैल गया।

राजेश्वर ने कुछ कहा, पर शोर में उसकी बात अनसुनी रह गई और वह हँसी के शान्त होने की प्रतीक्षा करने लगा। लोग हँस-हँसकर दुहरे-तिहरे हुए जा रहे थे। सत्यव्रत के मुख पर करुणा और उभर आई थी। वह हँसी बन्द होने की प्रतीक्षा में क्षमायाचना जैसा भाव लिए राजेश्वर की ओर निहारे जा रहा था। राजेश्वर मन का गुबार मुँह में लिए बैठा था। एक भाव तेजी से उसके मन में दौड़ रहा था कि ये सब दयनीय हैं। इन हँसनेवालों में से अधिकांश इंटरव्यू खत्म होते ही पिटे हुए सिपाही की तरह कमरे से बाहर निकलेंगे और तब वह उनकी ओर जिस अकड़ से देखेगा यह विजेता की अकड़ होगी। मगर अब...अब तो उसकी हेठी हुई। बड़ी हेठी हुई।...और इस विचार का अनुसरण एक तीखे से वाक्य ने किया जिसके उच्चरित होने से पूर्व ही अचानक मास्टर उत्तमचन्द्र बराबर वाले प्रिंसिपल के कमरे से यहाँ आ गए।

गंजा सिर, चौड़ा माथा, लम्बा-सा मुँह, उभरी हुई बड़ी-बड़ी आँखें, गोरा रंग, लम्बा कद और उस पर खादी का लम्बा-सा कुरता-पाजामा । उत्तमचन्द को देखते ही हॉल में खामोशी छा गई और लोग अनायास अपने-अपने स्थान से उठ खड़े हुए।

शायद हँसी की आवाज़ मैनेजिंग-कमेटी के सदस्यों के कानों तक भी पहुँच गई थी। और उन्हें अनायास ही यह बोध हो गया था कि काफ़ी देर हो चुकी है, अब इंटरव्यू शुरू हो जाना चाहिए। इसीलिए उन्होंने मास्टर उत्तमचन्द को वहाँ भेजा था। मास्टर उत्तमचन्द ने सबसे बैठने का इशारा करते हुए वाणी में बेहद मिठास लेकर कहा, "आपकी बेचैनी बिलकुल नेचुरल है। मगर प्लीज़, आप थोड़ा-सा धैर्य और रखें, पाँच मिनट के अन्दर ही हम इंटरव्यू शुरू कर देंगे। बस सेक्रेटरी साहब की वेट कर रहे हैं। और मास्टर उत्तमचन्द ने मुस्कराते हुए सबकी ओर देखा। लोगों ने सोचा, वे कुछ और कहेंगे पर तभी वे आकस्मिक रूप से बाहर निकल गए।

पाठक ने कहा, "मुझे आशा थी कि भाषण थोड़ा लम्बा चलेगा। मगर बेहद शरीफ़ आदमी निकला।" राजेश्वर ठाकुर जो मास्टर उत्तमचन्द के आ जाने के कारण अपनी बात कहने का अवसर न पा सका था और जिसके भीतर अपनी हेठी की भावना अभी भी कुलबुला रही थी, तेजी से बोला, "आपकी सारी आशाएँ गलत ही निकलती हैं, पाठकजी।"

इतना कहकर राजेश्वर ने हल्का-सा पाज दिया। लोगों की प्रतिक्रिया देखी। कोई नहीं हंसा तो उसे विफलता का अहसास और जोरों से हुआ; बोला, "हाँ तो माथुर साहब, आप मेरे बारे में फरमा रहे थे कि मेरी 'क्वालिफिकेशन्स' सूट नहीं करती। आइए तो फिर दस-बीस रुपए की शर्त हो जाए इसी बात पर!

फिर ठाकुर थोड़ा रुका और लोगों के भावशून्य-से चेहरों पर अपनी बात की प्रतिक्रिया खोजते हुए बोला, "किसमें इतना गुर्दा है जो मेरा सलेक्शन रोक दे! कॉलेज की ईट-से-ईट बज जाएगी। ठकुरात के तीन सौ लड़के हैं कॉलेज में। अगर मुस्लिम स्कूल में चले गए तो यहाँ तनख्वाह भी नहीं पटेगी मास्टरों की।" फिर थोड़ा रुककर बोला, "अपना क्या है, नौकरी मिली न मिली ।" फिर सत्यव्रत की ओर इशारा करके कहा, "मुझे तो इस बेचारे पर तरस आ रहा है। मेरे घर छह हलों की खेती है। एक हाली को एक मास्टर की तनख्वाह देता हूँ। न होगा एक हल ही संभाल लूँगा, पर इनके बस का तो वह भी नहीं।"

माथुर ने कहा, "आपका हृदय बहुत दयावान है। आपकी दया का सहारा पाकर सत्यव्रतजी का उद्धार हो गया। आप धन्य हैं।"

एक हल्का-सा ठहाका फिर गूंज उठा। ठाकुर का गोल मुंह और विकृत हो गया। उसका जतन से संभाला हुआ सन्तुलन बिखर पड़ा। कनपटियाँ सुर्ख हो गईं। बड़ी-बड़ी आँखों से चिंगारियों-सी उगलते हुए बोला, "तो साफ़-साफ़ ही सुन लीजिए। असिस्टेंट टीचरों और प्रोफेसरों का सेलेक्शन कभी का हो चुका। यह इंटरव्यू तो एक फारमेल्टी है, फारमेल्टी।" फिर उँगली से कोने में बैठे असरार साहब की ओर इशारा करते हुए राजेश्वर बोला, "मेरे साथ दूसरा एपाइंटमेंट इनका होगा। ये कोतवाल साहब के आदमी हैं, क्यों साहब ?" और उसने असरार की ओर देखा।
माथुर ने धीरे से पाठक के कान में कुछ कहा। असरार ने कोई उत्तर न दिया।

राजेश्वर ने उँगलियाँ फैलाकर डेस्क पर चपत मारी और मुट्ठी बाँधते हुए बोला, "मैं लिखकर देता हूँ अगर मेरी बात में जरा-सी भी चेंज हो जाए।" इतना कहकर विजेता के भाव से उसने फिर सारे उम्मीदवारों की ओर देखा।

और जैसे कोई जालिम मास्टर छोटे विद्यार्थियों की कक्षा में चिल्लाकर हुक्म दे, 'चुप रहो' और निःशब्द शान्ति छा जाए-कुछ उसी तरह की निस्तब्धता उस हॉल में छा गई। डरे हुए बच्चे जैसे अपनी कापी-किताब टटोलने लगते हैं वैसे ही सब लोग अपने कागज-पत्र और सर्टिफिकेट देखने लगे। सबको राजेश्वर ठाकुर की डेस्क पर रखी बन्द मुट्ठी में अपना भविष्य दिखाई देने लगा। मगर कोई कुछ नहीं बोला।
सत्यव्रत को लगा कि उसी के कारण वातावरण में इतनी कटुता आ गई है और अब उसे ही इसके निराकरण के लिए कुछ-न-कुछ करना चाहिए।

इस खामोशी का अहसास शायद राजेश्वर ठाकुर को भी हुआ और वह एक हल्की-सी बेमानी हँसी यूँ ही हँस दिया। मगर और उम्मीदवारों को वह हँसी भी चंगेज के उस अटहास-जैसी लगी जो उसने भारत की गलियों-सड़कों में खून की नदियाँ बहाकर किया था। आशंका और आतंकग्रस्त सब अपने-अपने भविष्य के अन्धकार में खो गए। जहाँ से चले थे वहीं जा पहुँचे। लगा जैसे अभी-अभी सब उम्मीदवार आकर उस कमरे में इकठे हुए हों। अपरिचय का मौन सबके बीच हो। अभी थोड़ी ही देर में सब एक-दूसरे से घुल-मिल जाएँगे। मगर ऐसा कुछ नहीं हुआ। सब अपनी-अपनी व्यस्तता को बढ़ाने की कोशिश करने लगे। कोई अपनी 'मार्क-शीट' ढूँढने लगा तो कोई 'डिग्री'।

"ईश्वर जाने मेरे करेक्टर सर्टिफिकेट कहाँ चले गए।' यह वाक्य पाठक ने माथर से इतने धीरे से कहा कि माथुर ने कोई उत्तर नहीं दिया। केशव ने असरार से धीरे से जाने क्या बात की। पर उससे भी खामोशी कम नहीं हुई। एक बोझिल -सा अदृश्य जाल सबके ऊपर पड़ा था और सब जैसे उसके कोनों को कसकर पकड़े थे। सहसा सत्यव्रत ने उसका एक कोना छोड़ दिया; बोला,
"राजेश्वर भाई ने ठीक ही कहा है। मुझे पहले अंग्रेजी लेकर बी.ए. कर लेना चाहिए, तभी बात बनेगी।"
"वही तो।" राजेश्वर ठाकुर ने समझौते का भाव विस्तीर्ण करते हुए कहा, "वरना सत्यव्रतजी के टैलेंट में किसे शक है !"

दो-तीन बार गला साफ़ करने के बहाने खाँसकर राजेश्वर ने खामोशी को तोड़ दिया। फिर जेब से कैंची की डिब्बी निकालते हुए जाने किसे सम्बोधित करके कहा, "यहाँ सिगरेट पीने की मनाही तो नहीं होगी। ये कोई क्लास-रूम थोड़े ही

किसी ने प्रतिवाद नहीं किया। असरार ने वातावरण का रुख बदला, "सब चलता है, यार । हमारे तो एक टीचर क्लास में पढ़ाते हुए सिगरेट पिया करते थे। कहते थे, बिना सिगरेट के मुझे पढ़ाने का 'इन्सपिरेशन' ही नहीं मिलता। प्रिंसिपल ने भी एतराज किया, मगर उन्होंने साफ कह दिया कि साहब चाहे मुझे स्कूल से निकाल दीजिए, मगर मेरी सिगरेट नहीं छूट सकती। आखिर कुछ भी नहीं हुआ।"

श्रोत्रिय ने ठाकुर के पैकेट से सिगरेट निकालते हुए कहा, "अपने-अपने ढब की बात है भई ! हमारे स्कूल में तो 'एक्सपलेनेशन काल' हो गया था इसी बात पर एक टीचर का।" और उसने सिगरेट सुलगा ली। एक सिगरेट असरार ने ली। प्रोफ़ेसरी के उम्मीदवारों में से किसी ने सिगरेट नहीं ली हालांकि वे पीते थे। ठाकुर ने सबके सामने पैकेट घुमाया पर सत्यव्रत के सामने तक बढ़ाकर भी हाथ खींच लिया; बोला, "माफ़ कीजिए, आप तो पीते ही नहीं होंगे?"
"जी हाँ, मैं नहीं पीता।" सत्यव्रत ने कहा और सरलता से मुस्करा दिया।

सबके चेहरों पर पवित्र-सी हँसी फैल गई। वातावरण का बोझ कुछ हल्का-सा हुआ। लेक्चररशिप के उम्मीदवारों ने एक-दूसरे की ओर देखा। धीरे से पाठक माथुर से बोला, "तुम भी पियो न !"
माथुर बोला, "क्या आफ़त है, यार ! भाग्य का निर्णय हो ले, उसके बाद गूंगे की दुकान पर चलकर चाय भी पिएंगे और सिगरेट भी।"
पाठक आश्वस्त हो गया। सिगरेट पीने की प्रबल इच्छा को मारने के लिए उसने दोनों हाथ उठाकर एक जमुहाई ली और साँस छोड़ते हुए बोला, "ओ...म।"

अचानक ही श्रोत्रिय और असरार उछलकर खड़े हो गए और डेस्क से रगड़कर उन्होंने सिगरेटें बुझा दीं। उन्हें मास्टर उत्तमचन्द की झलक मिल गई थी। और लोग भी उठ खड़े हुए। राजेश्वर भी खड़ा हो गया। मगर उसने सिगरेट नहीं बुझाई। मुंह में धुआँ भरे वह मास्टर उत्तमचन्द की नजरें दूसरी ओर घूमने की प्रतीक्षा करने लगा।

उत्तमचन्द ने कहा, "आप शायद 'स्मोकिंग' कर रहे थे?" उनकी वाणी में मिठास पहले से कुछ कम थी। बोले, "मुझे बताएँ, कौन साहब स्मोकिंग कर रहे हैं?"
सब चुप रहे किन्तु राजेश्वर ने मुँह का धुआँ बाहर निकालते हुए कहा, "कहिए ! एक तो मैं था, और दूसरे असरार साहब और सोतीजी !"
असरार और श्रोत्रिय दोनों को बुरा लगा, मगर चुप रहे। उत्तमचन्द बोले, "क्या आपको मालूम नहीं कि 'कॉलेज-प्रीमीसेज़' में सिगरेट नहीं पीनी चाहिए?"
राजेश्वर ने कहा, "यहाँ कोई बोर्ड तो नहीं लगा है।"
इसके बाद राजेश्वर के साथ सभी की प्रश्नवाचक दृष्टियाँ मास्टर उत्तमचन्द के चेहरे पर जा लगीं।

मास्टर उत्तमचन्द के माथे पर दो बारीक बल पड़ गए। उन्होंने गौर से राजेश्वर की ओर देखा । पेंसिल निकालकर तीनों नाम नोट किए और तुरन्त शान्त होकर बोले, "अब इंटरव्यू शुरू होनेवाला है। हेड क्लर्क आप साहबान में से एक-एक का नाम पुकारेंगे। पहले हम असिस्टेंट टीचर्स का इंटरव्यू लेंगे, फिर हिन्दी-लेक्चरर्स का। इंटरव्यू के बाद भी कोई साहब यहाँ से जाएँ नहीं।"

और इतना कहकर वह तेजी से कुरता फरफराते दरवाजे से बाहर निकल गए और फिर एक ही क्षण बाद लौटकर पुनः प्रवेश करते हुए बोले, "आप साहबान एजुकेटेड लोग हैं, और यह कॉलेज एजुकेशन का मन्दिर है। आपका फर्ज है कि इसकी 'सैन्कटिटी' की रक्षा करें। आप सोचें कि यह स्थान सिगरेट पीने की जगह नहीं हो सकता।"

और मास्टर उत्तमचन्द फिर बाहर चले गए। उन्होंने क्या कुछ नहीं कहा था। मगर उनकी आवाज में लेश-मात्र भी कड़वाहट नहीं थी। आँखें बन्द करके कोई सुनता तो उनके वाक्य किसी जैन सन्त के प्रवचन प्रतीत होते।
उत्तमचन्द का सबसे ज़्यादा प्रभाव श्रोत्रिय पर पड़ा था। उनके जाते ही वह बोला, "नाम नोट करके ले गया है।" और एक आशंका से उसका दिल धड़क उठा।
राजेश्वर बोला, “अरे सैकड़ों फिरते हैं इस जैसे ! इसकी औकात क्या है ? मेम्बरों के पीछे दुम हिलाता फिरता है कुत्ते की तरह।"
असरार ने कहा, "औकात तो बहुत है इसकी, ठाकुर साहब ! कॉलेज का बिना ताज का बादशाह है। प्रिंसिपल तो नाम मात्र का होता है यहाँ। असली
प्रिंसिपल यही है। स्याह करे या सफ़ेद, पूरा सियासत-दाँ है।"
"तब तो बड़ा बुरा हुआ आप लोगों के हित में।" केशव ने उन सबके अन्धकारमय भविष्य की कल्पना में अपने उज्ज्वल भविष्य को निहारते हुए कृत्रिम सहानुभूति से कहा।

श्रोत्रिय हाँ में 'हाँ' मिलाने ही जा रहा था कि असरार ने फिर कहा, "नहीं जी, एपाइंटमेंट में इसका क्या हाथ ? हाँ, एपाइंटमेंट के बाद अलबत्ता तकलीफ़देह साबित हो सकता है।"
राजेश्वर ने कहा, "बहुत देखे हैं इस जैसे ! एक बार एपाइंटमेंट लेटर मिल जाए, फिर देखना। चूरन बनाकर फाँक जाऊंगा साले को। हमारी सियासत नहीं देखी अभी..."

और तभी बहुप्रतीक्षित क्लर्क, पवन बाबू लगभग लुड़कते हुए-से कमरे में आए। बातचीत का सिलसिला रुक गया। सब उनकी ओर देखने लगे। खासे मजेदार आदमी थे। लम्बाई-चौड़ाई एक-सी थी। गोलमटोल, छोटा कद। हाथ में एक फेहरिस्त लिए थे, जिसमें उम्मीदवारों के नाम लिखे थे। कमीज और नेकर पहन रखी थी। नाक पर आस्तीन का घिस्सा लगाते हुए पवन बाबू ने नेकर की जेब से लाल-नीली पेंसिल निकाली और उम्मीदवारों की हाजिरी लेनी शुरू की।
-मुरारीमोहन माथुर !
-यस प्लीज।
-रामस्वरूप पाठक!
-यस प्लीज।

फिर पांडे, निगम, गिरीश, हरीश, रोहतगी, वर्मा सबका नम्बर आया और सब, जो अब तक चुप थे, 'यस प्लीज़' बोलते गए। फिर असिस्टैंट टीचर्स की बारी आई।
-सुरेशचन्द्र सोत्री!
-यस सर।
-केशवपरसाद।
-यस सर।
-असरार अहमद!
-यस प्लीज।

-राजेश्वर ठाकुर।
-यस। -ठाकुर ने न 'सर' लगाया, न 'प्लीज़' । हथौड़े जैसा 'यस' पवन बाबू के सिर पर दे मारा। पवन बाबू सहसा हाजिरी लेते लेते ठिठके और चश्मे में से दोनों आँखें उसकी ओर धमकाई, फिर और सबको उँगलियों पर गिनते हुए बोले, "सब प्रिजेंट हैं।"
पवन बाबू हाजिरी लेकर चलने को हुए तो श्रोत्रिय ने पुकारकर कहा, "मास्साहब, एक मिनट। अँऽऽ, कुल कितने कैंडीडेट बुलाए गए हैं असिस्टैंट टीचरी के लिए ?"
"जितने यहाँ प्रिजेंट हैं।" पवन बाबू ने ऐनक को ऊपर उठाते हुए कहा।
"क्या इतने ही लोगों ने एप्लाइ किया था?" केशव ने फिर पूछा। दरअसल श्रोत्रिय और केशव यह जानना चाहते थे कि इंटरव्यू के लिए कैंडीडेट्स को किस आधार पर बुलाया गया है।
"एप्लाइ तो पचासियों ने किया था।" पवन बाबू बेरुखी से बोले।
"तो फिर इंटरव्यू के लिए लोगों को किस आधार पर बुलाया गया है ?" श्रोत्रिय ने सीधा-सा सवाल किया।
"ये बातें आप कमेटी के मेम्बरों से पुछिएगा।" पवन बाबू ने उसी बेरुखी से कहा और एक क्षण रुककर बोले, "श्री सते वरत !"

सत्यव्रत इन लोगों की बातचीत में खोया था। अपना नाम सुना तो तुरन्त उठकर खड़ा हो गया। पवन बाबू ने उसे अपने पीछे आने का इशारा किया और बराबरवाले प्रिंसिपल के कमरे की ओर चल दिए, जहाँ कमेटी के सदस्य बैठे हुए थे।
पवन बाबू के जाने के बाद राजेश्वर बोला, "साला अब कैंडे पर आया। हम तो 'यस प्लीज़' और 'यस सर' कहें, और वे हमारे नाम के साथ 'श्री' या 'मिस्टर' तक नहीं लगा सकता।"
असरार, जो राजपुर का ही रहनेवाला था, बोला, "बड़ा जलैहंडा है। उत्तमचन्द का खास गुर्गा है यह। हर साल प्रिंसिपल को निकलवा देता है उससे मिलकर।"
"अच्छा !" श्रोत्रिय ने पूछा, "आजकल प्रिंसिपल कौन है?"
"उत्तमचन्द ही ऑफीशिएट' कर रहा है।" असरार बोला, "प्रिंसिपल की तलाश है।"
"तलाश-वलाश की बात नहीं है," राजेश्वर ने कहा, "उपप्रधानजी का छोटा लड़का इस साल बी.टी. में दाखिला ले रहा है। देख लेना, बी.टी. करते ही प्रिंसिपल न हो जाए तो!"
“मगर रूल्स के हिसाब से तो कमेटी के मेम्बर का कोई रिश्तेदार कॉलेज में नौकरी नहीं कर सकता।" केशव बोला।
राजेश्वर हँस दिया। पाठक ने कहा, "छोड़ो यार, रूल्स-वूल्स में क्या रखा है।"

और एक क्षण के लिए जैसे सब फिर किसी गहरे सोच में डूब गए। असिस्टैंट टीचर्स की पोस्ट के उम्मीदवारों को तो जैसे अपने भविष्य का पता था मगर हिन्दी के लेक्चररशिप के उम्मीदवार गहरे असमंजस में थे। श्रोत्रिय बराबर वही सोचे जा रहा था कि आज अगर वह सिगरेट न पीता तो क्या बिगड़ जाता? बड़ी गलती हुई। कभी-कभी उसे यह भी खयाल आता था कि पता नहीं चाचा वकील साहब के यहाँ गए भी होंगे या नहीं। कहीं यहाँ तक आना ही अकारथ न जाए।

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