छोटे-छोटे भूकम्प (मलयालम कहानी) : एम. टी. वासुदेवन नायर

Chhote-Chhote Bhookamp (Malayalam Story in Hindi) : M. T. Vasudevan Nair

देखो, मेरी समझ में नहीं आता-नहीं, मैं तो...अजब तमाशा है। सब लोग डर-डरकर उनकी बातें कर रहे थे। वह सब सुनकर तो एक बार मुझे यकीन आने लगा था-दाढ़ लगाकर वह यक्षी घिरर...घिरर आवाज से चूसती है, बस सारा खून उसके पेट में चला जाता है। फिर हड्डियाँ चबाकर थूक देती है। यह सब बेचारी कुञत्तल के बारे में ही तो कहा जा रहा था।

"ऊपर के अहाते से होकर यक्षी दो बार चलती है", ऐसा कह रहे थे। “दिन में ठीक दोपहर को, फिर आधी रात को।" दोपहर में नौकरों को खाना देकर माँ जब अन्दर के कमरे में लेटने जाती है, और ताई कॉफी बनाने के लिए उठती है, तभी।

उन दिनों गाँव के उस पार से जो नानी आती थीं, वह बाहर के अहाते में घूमती रहती थीं। वहाँ कोई पत्ता, या जड़ी-बूटी तोड़ती रहती थीं। ये सब जड़ीबूटियाँ वही जानती थीं। मरने से पहले नानी अपने प्रिय किसी बच्चे को यह सब बता देंगी, यानी वह मुझे ही बताएँगी। और किसको? नानी जब चल-फिर नहीं पाती थीं, तब मैं ही अकेली घूमती रहती थी। माँ और ताई कहती हैं कि मैं तब कुछ देखकर डर गयी थी और मुझ पर कोई ऊपरी हवा का असर हुआ था। खेत में पानी भरनेवाला रावुण्णी बोलता था, कि जब से वह मनहूस नानी इधर आने लगी है, तभी से यह सारा अमंगल होने लगा है। यक्षी के बारे में यह सब बतानेवाले इन लोगों को लुक-छिपकर चलनेवाली एक और यक्षी के बारे में कुछ भी नहीं पता। वह है ताई की लाडली बेटी सरोजिनी दीदी! हवेली के बाहर तलैये के किनारे बैठकर मछली पकड़ने वाले गन्धर्व को भी ये लोग नहीं देखते। सरोजिनी दीदी सीधे वहीं जाती है। दोपहर को पिछवाड़े के जंगले से, बकरी चराने के बहाने घूमती नाणिकुट्टी से, इशारे से बात करनेवाले मेरे भैया हैं न, दरअसल भूत तो उन्हें चढ़ा है। लेकिन यह सब मैं किससे कहूँ?

अगर यह सोचकर कि थोड़ी देर दीदी से गप्पें मारेंगे तो बाल फैलाकर आराम-कुर्सी पर लेटी दीदी मुझे भगा देती। वह फिल्मी पत्रिकाएँ पढ़ती रहती। आखिर वह अपने को समझती क्या है? वह मेरी सगी दीदी है, ऐसा कहने से क्या फायदा! कहने के लिए वह मुझसे तीन साल बड़ी है, लेकिन मुझसे कोई सहानुभूति नहीं।

एक बार दोपहरी में आम की छाया में यों ही घूमते समय देखा कि कोई खड़ा था। देखने से लगा कि यह तो वही यक्षी थी। मैं न दौड़ पायी और न चिल्ला पायी। सिर्फ आँख मूंदकर राम-राम जपती रही। तभी धीरे से पुकारने की आवाज आयी, "जानकी कुट्टी!"

सब लोग मुझे 'आट्टी' पुकारते हैं। लेकिन इसने तो पूरा नाम लेकर प्यार से पुकारा। वैसे तो 'जाट्टी' पुकारना मुझे पसन्द नहीं है। आँखें खोलकर देखा तो पास में कुञत्तल खड़ी थी। यक्षी यानी-वह तो उस नम्पूतिरी लड़की जैसी थी, जिसकी शादी पहले कुन्नंकुलम् में हुई थी। किनारेदार सफेद धोती के साथ सफेद चोली और एक सफेद ओढ़नी। लाल बिन्दी। कानों में कर्णफूल, गले में सोने का हार।

"जानकी बिटिया, यहाँ अकेले क्यों बैठी है?"

मैं पहले चुप रही।

"जानकी कुट्टी की नानी अब क्यों नहीं आती?" बातें करते समय मैं उनके चेहरे को गौर से देखती रही और जतलाने लगी कि मैं डरती नहीं हूँ। मैंने यों ही पूछा, "तुम्हारी दाढ़ कहाँ है?"

वह हँसी। उसके बहुत सुन्दर दाँत थे। उसने कहा कि दाढ़ें तभी निकल आती हैं जब किसी को मारना होता है। इस डर से कोई उसके साथ खेलने के लिए तैयार नहीं होता। नीचे एक टूटे हुए घर का खंडहर है। पहले वहाँ कोई नौकरानी रहती थी। उसके चारों ओर ताड़ का जंगल है। वहाँ बैठकर यक्षी ने पान खाया। मैं भी पान खाना चाहती थी। यक्षी ने इसे ताड़ लिया।

"बच्चों को पान नहीं खाना चाहिए।"

मैं छोटे गोल-गोल कंकड़ ले आयी। फिर बैठकर खेलने लगी। एक बार हाथ लगाने पर चार या पाँच कंकड़ एक साथ निकाल लेती थी वह । कुञत्तल की जीत हुई। उसे उसके नाम से पुकारना यक्षी को पसन्द नहीं था।

"कल जानकी कुट्टी तुम जीतोगी।"

यक्षी हँसी। हारने पर भी खेलने के लिए एक सहेली तो मिली। यक्षियाँ वचन की पक्की होती हैं। जब मेरी दीदी किसी चीज को अगले दिन देने की बात करती थी, तो उसका मतलब होता था, वह कभी न देगी। लेकिन यह तो ऐसी नहीं थी। अगले दिन सचमुच मेरी ही जीत हुई।

शाम के वक्त नानी सन्ध्यावन्दन कराती हैं। वह अभी शुरू हुआ है। एक बार माँ जोर से कह रही थी कि इस बुढ़िया से कम-से-कम यह फायदा तो हो। इसके बाद यह क्रम चलने लगा। असली नानी तो माँ और ताई की माँ थी। मैंने उनको देखा नहीं। यह तो नानी की छोटी बहन हैं।

"इस बुढ़िया की बदनीयती की वजह से उसके बच्चे देखभाल नहीं करते। मनहूस कहीं की!"

इसी नानी के बारे में ही तो माँ और ताई कहती हैं वह 'मनहूस' है। जब वह बीमार हुई तो माँ ने अफसोस से कहा, "अब इस कुलच्छनी की दवा-दारू मुझे ही करनी पड़ेगी। कैसी-कैसी बलाएँ आ टपकती हैं!"

यक्षी से मिलना और कंकड़ लेकर खेलना दोनों बातें मैंने नानी माँ को बतायीं।

"अरे चुप, यह सब और किसी से कहना नहीं...उन सबको मैं जानती हूँ। मेरी बिटिया का वे कुछ नहीं करेंगे।"

कंकड़ के खेल से ऊब गये तो यक्षी और मैं इधर-उधर घूमने लगीं। इस तरह घूमते-घूमते काली-नीली से मिलना हो गया। हमारे यहाँ आँगन साफ करने और गोबर निकालने के लिए जो काली आती है न, वह कुछ और जवान होती तो ठीक काली-नीली जैसी लगती। चोली नहीं पहनती, गले में दानों की माला, और शायद तम्बाकू खाने से उसके सारे दाँत काले पड़ गये हैं। थोड़ी दूरी पर कारस्कर की छाया में आकर खड़ी हुई तो मैं समझ नहीं पायी। यक्षी नाराज हो गयी।

"हूँ, काली-नीली।"

वह फुसफुसायी।

यक्षी और काली-नीली एक-दूसरे को घूरती चुप खड़ी रहीं। माँ और ताई आपस में इस तरह घूरने की होड़ लगाती थीं। यह दृश्य भयानक था, मैं डरने लगी कि कहीं इन दोनों में लड़ाई न छिड़ जाए। लेकिन कुछ भी नहीं हुआ।

"मालकिन मुझे खेल में क्यों शामिल नहीं करतीं?" नीली ने पूछा।

"हूँ, तुम भी आ जाना।"

नीली ने लकीरें खींचीं। कुछ चिप्पड़ ले आयी। हम तीनों खेलने लगीं।

वह भी मैंने शाम के वक्त नानी को बताया। नानी ने हँसकर मेरे सिर पर हाथ फेरा।

"मेरी बिटिया का कुछ नहीं बिगड़ेगा।"

एक दिन खेल के बीच कुञत्तल ने ब्रह्मराक्षस को दिखाया, जहाँ हम पहले कंकड़ खेल रही थीं, वह उसी जगह पर खड़ा था। मरे कुंचु नम्पूतिरी तिगुने लम्बे होने पर जैसे नजर आते ठीक वैसा ही।

"उसके रास्ते में मत पड़ना। उससे दोस्ती भी मत करना। फिर हमारा कुछ नहीं बिगाड़ पाएगा।"

ब्रह्मराक्षस ने हमारी तरफ देखा भी नहीं।

ऐसे भी कुछ लोग हैं जो छिपकर हमारा खेल देखते हैं। वे सब नीली के संगी-साथी हैं। चुडैल, डाकिनी, मस्त भैरू सब करैल की झाड़ी में दुबककर खड़े रहते हैं। जैसे ही वे यक्षी के पास आने को होते, वह उन्हें घूरने लगती। वे झाड़ी में छिप जाते।

एक बार मेरे पैर में काँटा चुभा। बबूल का काँटा। नीली ने उसके लिए मस्त भैरू को डाँटा।

"बिटिया के पैर में काँटे लगने से अगर सूजन आ गयी तो मैं तुझे..."

अगले दिन तक दर्द ठीक हो गया।

वचन के पक्के होते हैं ये लोग।

पहले मैं रात को गाँव से आयी नानी के साथ लेटती थी। अब माँ की चारपाई के नीचे दीदी के साथ लेटती हूँ। माँ को यह पसन्द नहीं है। रात को दीदी जल्दी सो जाती है। कभी-कभी सरोजिनी दीदी भी आकर, जब तक माँ नहीं आ जाती, पंचायत करती रहती है।

रात को मुझे नींद नहीं आती... ये लोग कहते हैं कि यह एक बीमारी है। लेकिन यह कोई बीमारी-वीमारी नहीं है। इसके पीछे एक राज है। ईर्ष्या! नीली और कुञत्तल पूरी रात खेलती फिरती हैं, यह सोचकर मुझे ईर्ष्या होती है। एक बार मैंने देखा कि दोनों केले के बगीचे से होकर कुछ खाते हुए जा रहे थे। खिड़की के पास आकर मैंने उन्हें धीमे से पुकारा।

"कुञत्तल!"

"अरी, नीली!"

दोनों ने सुना ही नहीं। कैसे लोग हैं!

तभी माँ उठी। एकाएक हड़कम्प मचा। दीया जलाया। माँ एकाएक चीख पड़ी। लोग भागे-भागे आये और गाँव से नानी भी आ पहुँचीं। उसे देखकर माँ चीख पड़ी, "बुढ़िया, तुम अब कोई अमंगल मत करना, तुम कहीं और जाकर पड़ी रहो तो सब ठीक हो जाएगा।"

ज्योतिषी बड़ा उस्ताद निकला। उसने कौड़ी लगाकर मेरी कुञत्तल और नीली के साथ खेलनेवाली बात ठीक-ठीक बता दी। लेकिन वे बुद्ध लोग पता नहीं क्या-क्या करने लगे। जब ज्योतिषी ने कहा कि दक्षिण की मंगली भी इनके साथ मिली हुई है, उन्होंने उसे भी सच माना और रावुण्णी नायर को भेजकर देवी के मन्दिर में एक सौ एक रुपया चढ़वा दिया। अच्छा है वह पैसा भगवती को मिल जाए। असल में जहाँ हम खेलती थीं, वहाँ कभी कोई दक्षिण या उत्तर की मंगली नहीं आती थी। ज्योतिषी ने गलत बताया था। अगर आती भी तो हम उससे नहीं खेलतीं। क्या पता वह कैसी हो? ।

माँ बीच में दुःखी हो जाती थी तो कभी नाराज भी होती थी।

"कोई बीमार पड़े, या कोई मर जाए, तो भी इनके बाप पर कोई असर नहीं पड़ता!"

पिताजी पहाड़ों पर चाय के बागान में काम करते हैं न, काम छोड़कर वह बीच में कैसे आएँ। भैया जाकर उनसे मिले थे। वहाँ चाय के पीले पत्ते मजदूर तोड़कर लाते थे तो पिताजी उसे नहीं लेते थे। पत्तियों को सुखाकर पीसते वक्त भी पिताजी उनकी निगरानी करते। पिताजी की नजर बचाकर जो चाय पत्ती तैयार की जाती थी, उसी के बारे में लोग दुकानों में शिकायत करते कि उसमें मिट्टी की गन्ध आती है, या चाय फीकी बनती है, वगैरह, वगैरह।

माँ कहती है कि वहाँ जब से वह उर्वशी काम पर रखी गयी, तबसे पिताजी सिरफिरे हो गये थे। अगर बात हद से बाहर हो जाए तो मैं कुञत्तल से कहूँगी। लेकिन इसलिए नहीं कहती कि अगर नाराज होकर दाढ़ उठाकर कुछ करे तो उर्वशी का ही नहीं, पिताजी का भी बुरा होगा। इसी डर से चुप रहती हूँ।

जब मैं यों ही बैठती हूँ, मेरी दीदी और सरोजिनी दीदी तब भी मुझे घूरती रहती हैं। यह सब मुझे अच्छा नहीं लगता। अगर मैं भी उन्हें उसी तरह घूरने लगती तो वे दोनों डरकर भाग जातीं। मुझे लगता कि ये लोग मुझसे भी डरती हैं।

नहाने के लिए मैं अब भी नानी के पास जाती हूँ। नानी ही सिर पर रास्नादि चूर्ण लगाती हैं। बीमारी की हालत में भी वह जोर से रगड़ती हैं। थोड़ा दर्द तो होता है। फिर चूर्ण की खुशबू लगी उँगली नाक पर रख देतीं। उसे सूंघना पड़ता। कहती हैं कि इससे जुकाम नहीं होता।

दो कोस चलकर पढ़ने की जरूरत नहीं, ऐसा शायद पिताजी के कहने पर ही तय किया गया। मुझे साथ ले जाना अपने दबदबे के लिए ठीक नहीं, ऐसा सोचकर दीदी ने भी सहमति दी होगी। वह दो कोस दूर तो नहीं है। दक्षिणी छोर के नम्पूतिरी घराने के अहाते के बाड़े से बढ़ई के अहाते के छोर पर खड़े सप्तपर्णी के पेड़ के पास है। वैसे मैं, कुञ्जत्तल और नीली-हम तीनों कई बार भटक चुकी हैं। यों ही कोई झूठी बीमारी की अफवाह लोग क्यों फैलाते हैं? अब घर वाले किसी ट्यूशन मास्टर को तलाश रहे हैं।

इन लोगों ने नयी पाबन्दी लगायी कि दोहपर ही नहीं, किसी भी समय बाहर के अहाते की ओर नहीं जाऊँ। सर्पदेवता के पुराने झुरमुट के पास जब कुञत्तल आयी, तब मैंने यह सब उससे कह दिया।

तब से कुञत्तल और नीली दोपहर को, जब घर के सारे लोग सोते थे, तब घर के अन्दर आने लगीं। हम सभी कमरों में जातीं। सोनेवालों की हरकतें देखकर हँसतीं। इशारे से बात करनेवाले भैया हमें मारने दौड़े। उनकी दाढ़ें थोड़ी लम्बी हो गयी थीं। मैंने कहा कि कुछ मत करना, इसलिए ही कुञत्तल चुपचाप चली गयी। नाराज होने पर नीली थूकने लगती है। फिर शरीर पर चेचक के दाने निकल आते हैं। लेकिन ऐसा करने से मैंने उसे रोका।

हम कुछ देर तक नानी के कमरे में बैठकर शतरंज खेलतीं। नानी भी हमें मना नहीं करती थीं। एक बार माँ या बड़ी दीदी ने हमें अन्दर घुसते हुए देखा। फिर तो जैसे भूकम्प ही आ गया।

फिर ज्योतिषी बुलाया गया। एक नहीं दो। इसके साथ ही सबकी जन्मपत्रियों की गणना का भी इरादा था। दरअसल माँ उर्वशी द्वारा पिताजी पर किये जादू के विषय में जानना चाहती थीं। उनके द्वारा लाइनें खींचना, कौड़ी फैलाना और श्लोकों का प्रमाण देना सिर्फ मेरे लिए ही नहीं था। शादी के बारे में ज्योतिषी क्या कहते हैं, यह जानने के लिए सरोजिनी दीदी दक्षिणी कमरे में छिपकर खड़ी थी। असली भूतनी ठहरी वह। कल्लडीकोट से किसी बड़े तान्त्रिक को बुलाने का निर्णय हुआ। रावुण्णी ने जाकर तारीख तय की और उसका सारा नुस्खा ले आया। वे सब बैठकर तान्त्रिक की तारीफ कर रहे थे। मैंने भी थोड़ा-बहुत सुना। फिर कुञत्तल को बुलाया।

ये लोग जो करने जा रहे हैं उसकी जानकारी उन्हें भी तो होनी चाहिए! फावड़ा आग में डालकर तपाएँगे। कारस्कर की लकड़ी पर कील ठोकेंगे। भूत-प्रेतों को इस इलाके से भागना होगा। लेकिन यह सब सुनकर नीली और कुञत्तल हँस पड़ीं। जब नानी से कहा तो वे भी हँस रही थीं।

मुझे बिठाकर ही कल्लडीकोट के बूढ़े तान्त्रिक ने पूजा की क्रिया शुरू की। कई दीये जलाये गये। जमीन पर गोल-सा एक खण्ड खींचा गया। मुझे कुछ डर लगा। जब कुञत्तल और नीली आकर मेरे पीछे खड़ी हो गयीं तो जरा हिम्मत हुई। दमे से पीड़ित नानी आयीं, फिर तो मेरा सारा डर ही भाग गया।

जब कारस्कर की लकड़ी पर कील ठोंक रहे थे, तो मैंने मुड़कर कुञत्तल को देखा। कुञत्तल नाराज हो रही थी। नीली ने भी आँखों से उसकी ओर कुछ इशारा किया और हँसी।

कटहल की लकड़ी जलने पर काफी गरमी हो रही थी और धुआँ भी निकल रहा था। जब सिर चकराने से मैं गिरने लगी तो कुञत्तल ने सँभाला जैसे नींद आ रही हो।

"इसके बदन से सारे भूत-प्रेत उतर गये। अब कुछ गड़बड़ी नहीं होगी।"

जब कल्लडीकोट वाले ने कहा तो मैं कुअत्तल की गोदी में लेटे-लेटे हँस रही थी। कुञत्तल कानों में फुसफुसायी, "जानकी बिटिया, सो जाओ, सो जाओ!"

कुञत्तल के बदन पर लिपटी नयी धोती से चन्दन की महक आ रही थी।

उसके अगले दिन ताऊजी आये। सरोजिनी दीदी के पिताजी। पता नहीं मेरे पिताजी कब आएँगे।

नानी ने कहा-दो महीने की छुट्टी है। छुट्टी खतम होने से पहले सरोजिनी बिटिया की शादी होनी है। लड़का देख लिया है। ताऊजी की कम्पनी में काम करनेवाला शंकर नारायणन कुञत्तल!

कुञत्तल और नीली सन्ध्या के समय सहमती हुई आयीं। लोगों का खयाल था कि तान्त्रिक के आने से ये दोनों भाग गयी थीं।

"जानकी बिटिया की शादी भी मैं देख पाऊँगी क्या?" नानी के पूछने पर कुञत्तल चुप रही।

मैं और दीदी तलैये में नहाने जा रही थीं कि एक और घटना घट गयी। काँटे से मछली पकड़नेवाला भास्करन सरोजिनी दीदी को भद्दी-भद्दी गालियाँ दे रहा था। सरोजिनी दीदी की आँखों में आँसू थे। जैसे ही हमें देखा, दोनों सिर नीचा कर अलग-अलग दिशाओं में चले गये।

विवाह का शुभारम्भ भगवती के मन्दिर से होगा। प्रीतिभोज घर में। मैं सोच रही थी कि कुञत्तल, नीली और मुझे एक जैसे लहँगे और चोलियाँ मिल जाती तो कितना अच्छा रहता।

जब से ताऊजी आये, घर में व्यस्तता बढ़ गयी। लोग आते-जाते रहते थे। सगाई के दिन खाने पर तीस-चालीस लोग थे। नानी जहाँ लेटी थीं, वहीं पर कंजी और थोड़ी खीर मैंने ले जाकर उन्हें दी थी।

नानी ने कहा कि उन्हें किनारेदार धोती और दुपट्टा चाहिए। बीमार होने पर भी वह मन्दिर जाना चाहती थीं। उन्हें भी शादी देखनी थी।

माँ ने कहा, "तुम बेकार की बातों में मत पड़ो। तुम्हें उठाकर ले जाने के लिए दो आदमी चाहिए। जब दुल्हन विदा होगी तो तुम्हें प्रणाम करेगी, तब चावल और फूल डालकर उसे आशीर्वाद दे देना।"

उसी दिन नानी जब बाहर दीवार पकड़कर गुसलखाने की ओर जा रही थीं तो गिर पड़ी।

"लो, ये तो पहाड़ी मन्दिर की सीढ़ियाँ चढ़कर जाना चाहती थीं।"

जब उन्हें लेकर कमरे में लिटाया तब ताई कह रही थीं, "इसे भी आज ही गिरना था।"

"इस उम्र में कोई गिर पड़े तो फिर उठने की कोई उम्मीद नहीं रहती।" अनुभवी रावुण्णी बोली।

नानी को रात में तेज बुखार हो गया और उल्टी हो आयी। पश्चिमी बाजार से डॉक्टर को ले आया गया। डॉक्टर ने चन्दन का तिलक लगा रखा था। जब नानी कराह रही थीं, मैंने चुपके से जाकर देखा।

"अरे, कुछ खास नहीं," नानी ने कहा। नानी को देखने के लिए मेरी सहेलियाँ भी बीच में आयीं, लेकिन घरवालों को उनका पता नहीं चला।

"सबकुछ बेचकर बाल-बच्चों की जिन्दगी भी बरबाद कर दी। मनहूस जब बीमार पड़ी तो यहीं आ टपकी..." ताऊजी ने आँगन में टहलते हुए मिलने के लिए आने वालों से कहा।

"तपेदिक है..." रावुण्णी नायर ने कहा।

"डॉक्टर ने सुझाया कि अस्पताल ले जाना बेहतर होगा।"

"डॉक्टर जुकाम होने पर भी अस्पताल भेज देता है। उसका कमीशन रहता है।" ताई बोल उठीं।

"बुढ़िया अगर शादी के बीच चल बसे तो क्या होगा भगवान!"

"मर जाए तो मरने दो..."

"यह तो सगी नानी नहीं है न!"

"फिर भी खानदान की सबसे बुजुर्ग औरत तो है ही। मर जाने पर अशुद्धि तो होगी। नानी और उसकी बहन में फर्क ही क्या है?" रावुण्णी नायर ने बम्बई में काम करनेवाले ताऊजी को समझाया।

ताऊ और ताई ने जाकर गहने खरीद लिये। तृश्शूरवाले ही गहनों के नयेनये फैशन के बारे में जानते थे। मैंने भी सबकुछ देखा। मेरी दीदी को उनमें से कुछ को गले में पहनने और छाती पर रखकर इठलाने का मौका मिला।

जब सभी गहनों को देख रहे थे तो मैंने मन ही मन सोचा कि कुञत्तल और नीली भी यहाँ पर होतीं। वे दोनों रात को आयीं। गहनों की सुन्दरता के बारे में कहने पर कुञत्तल को कोई विशेष आश्चर्य नहीं हुआ। यक्षी हैं न! जितने भी गहने चाहे पल भर में मँगा सकती हैं। शायद इसलिए।

कुञत्तल का गला ही ओढ़नी से दिखाई नहीं पड़ता। नीली तो सोने के गहने नहीं चाहती, उसके लिए तो दानेदार मालाएँ काफी थीं। चलने पर खनखनाहट होनी चाहिए।

"वही हमारे लिए बड़ी चीज है।" नीली ने कहा।

"ऐसा किसने कहा?"

"यही कायदा है।"

तिलकधारी डॉक्टर के नुस्खे के मुताबिक लायी दवाएँ नानी नहीं लेती थीं। भैया को इसकी भनक लग चुकी थी। तब वैद्य छोटेलाल को बुलाया गया। घर में आनेवाले कुछ लोग नानी के कमरे के दरवाजे तक आकर झाँक जाते थे।

पट्टाम्बि से आयी माँ-बेटी ने नानी से कहा, "अब तो यही दुआ माँगो कि ज्यादा तकलीफ के बिना ही मुक्ति मिल जाए। ये लोग पूरी सेवा करते हैं न?"

मैं दरवाजे के सामने खड़ी थी। बुढ़िया बाहर आयी तो मेरी ओर घूरती रही। बोली, "यह तो कुंचिकुट्टी की दूसरी लड़की है न?"

उसके संग में जो लाल साड़ीवाली थी, उसने कहा, "हाँ!"

"यहाँ अब कैसी है?"

"कह रहे हैं कि अब तो कुछ ठीक है।"

मैं नानी के पलंग के पास सूप लिये बैठ गयी। घर में व्यस्तता बढ़ने पर छोटेछोटे काम मुझे सौंप दिये जाते थे। छत पर रखा दीया साफ करना, मूंग से कंकड़ निकालना आदि-आदि। कुञत्तल और नीली के आने पर उनसे ज्यादा बातचीत करने का समय भी नहीं मिलता था।

शादी के बाद बम्बई जाएगी, इसलिए सरोजिनी दीदी को मेरी दीदी टूटीफूटी हिन्दी सिखाने लगी थी। उसका प्रयोग मुझ पर करती है।

"जानकी, बाहर जा!"

"जानकी, इधर आ!"

अजब झमेला था। मैंने शाम को पण्डाल के पास खड़ी होकर कुञत्तल से भी हिन्दी में ही बात की।

"कुञत्तल, इधर आ!"

"नीली, इधर आ!"

"अरी!" मैंने मुड़कर देखा तो भैया खड़े थे।

"अब तू अपनी हरकतें जारी रखेगी तो कान उखाड़ लूँगा।"

"क्या है रे?" माँ भागी-भागी आयी।

"अब पैसा कुछ बाकी बचा हो तो वह खतम होना है न! उसे खर्च करवाने के लिए कुछ न कुछ यह शैतान ढूँढ निकालती है, चल। बेवक्त ऐसे बाहर मत घूमो, अन्दर चली जाओ।"

माँ का आदेश था।

मैंने इशारे से कुञत्तल को बताया कि कोई बात नहीं। फिर घर की ओर चली गयी। सुना था कि उस रात को पिताजी आनेवाले हैं। लेकिन आये नहीं। इस बात से सब असन्तुष्ट थे। छुट्टी नहीं मिलने से शादी के दिन पहुँचकर उसी दिन वापस लौट जाने वाले थे। जैसे ही यह खत आया, फिर हलचल मची। उर्वशी को शाप देने लगे।

मेहमानों का स्वागत करना, अपनी शेखी बघारना, गहने सबको दिखाना, नयी साड़ियों के पल्लू दिखाना, इसी में सब मशगूल थे। मुझे या नानी को ठीक वक्त पर खाना-वाना मिलता है कि नहीं, इसका खयाल किसी को भी नहीं था। व्यस्तता थी न? मुझे बड़ा गुस्सा आ रहा था। रात की सैर के लिए निकली कुञत्तल ने जब दक्षिणी छोर की खिड़की से मेरी ओर झाँका, मैंने आहिस्ते से पूछा, "दाढ़ें कहाँ हैं? सभी को इनका खून पीकर छोड़ना चाहिए।"

"क्या ऐसा करें?" "मारने की जरूरत नहीं, सिर्फ डराना काफी है।"

इस भाव से कि 'मैं सोचूँगी', कुञत्तल बाल झटककर यक्षी बन गयी और अन्दर लेटे लोगों की तरफ एक बार देखकर हँसी। लेटे हुए सारे लोग मेरे लिए अजनबी थे। शादी के तीन दिन पहले ही सब रिश्तेदार आ गये थे। जब से ताऊजी आये, सरोजिनी दीदी मेरी माँ के कमरे में लेटती थी। मेरी दरी इस तरफ बिछा दी गयी। चलो, इनको हिन्दी बोलने दो। अगर मैं चाहूँ तो... नहीं, रहने दो। रात को कोई आवाज सुनकर जाग उठेगी। चारों ओर भगदड़ मची थी।

"जल्दी से हाजमे की गोलियाँ लाओ।" किसी ने आदेश के स्वर में कहा।

ताई मिन्नतें कर रही थीं कि शादी तक कोई आफत न आये। नानी की हालत शायद फिर बिगड़ गयी थी। इस होहल्ले के बीच भी कुछ लोग बेफिक्र होकर सो रहे थे। एकदम से उठकर मैं नानी के कमरे में चली गयी। दरवाजे पर मुझे देखते ही माँ ने भगा दिया..., "जाकर सो जा। तुझे किसी ने यहाँ नहीं बुलाया है।"

अगले दिन शादी का पण्डाल तैयार हो गया। रसोई के पास आँगन में बावर्चियों के लिए और एक पण्डाल बनाया गया। बड़े महल से कड़ाही और हण्डा ले आये। ताई ने मेरे लिए जो लहँगा और चोली सिलाने के लिए दिये थे, वह बनकर आ गये। रंग मुझे उतना पसन्द नहीं आया। फिर भी कपड़ा अच्छा था। रेशमी है न!

"यह सब इसलिए खरीदकर दे रहे हैं कि अच्छी लड़की होकर रहो, जिससे लोग कुछ भला-बुरा न कह सकें।" ताई ने मेरा सिर सहलाया।

मैं तो अब यूँ भी न करूँगी। पता नहीं कुञत्तल और नीली क्या नये खेल खेलती होंगी। इस तरफ दिखाई ही नहीं पड़ती। यह भीड़-भाड़ देखने पर कोई इस तरफ आएगा भी नहीं।

नानी के कमरे से पेशाब की बू आ रही थी। साँस लेने व छोड़ने की अजीबसी आवाज भी। नानी ने सिर हिलाकर पास आने का इशारा किया। मैं पास जाकर खड़ी हो गयी।

ताऊ और रावुण्णी ने दरवाजे से झाँककर देखा। पण्डाल की साज-सज्जा पूरी होने पर लाउडस्पीकर लगाकर गाना-बजाना शुरू हो गया था। एक लाउडस्पीकर तो टीले की ओर भी लगा दिया गया था। बाहर के अहाते में बैठकर मेरी सहेलियाँ भी सुनें।" दो बस और तीन कारों में बाराती आनेवाले थे। सड़क पर जहाँ वे उतरेंगे, वहाँ भैया उनकी अगवानी करेंगे। वे वहाँ से सीधे मन्दिर की तरफ आएँगे। बरगद के चबूतरे पर शहनाईवाले तैयार मिलेंगे।" रसोइयों से रावुण्णी यह सब कह रहा था, "साढ़े नौ बजे सारे लोग पहुंचेंगे। दस बजे पहली पारी के लिए पत्तल परोसा जाएगा। पण्डितजी, सब कुछ तैयार है न!"

"जी!"

रातभर बाहर बावर्चियों की हलचल थी। अन्दर तो लेटने के लिए जगह ही नहीं थी। नानी की हालत देखकर नहीं लग रहा था कि सुबह वह मन्दिर जा सकेंगी।

"निकलने के पहले पैर छू लो। नानी की हैसियत तो है ही। एक धोती भी भेंट में पैरों पर रखना। उससे कोई खास बननेवाला तो नहीं है। फिर भी..." माँ जब सरोजिनी दीदी को यह सलाह दे रही थीं तो रावुण्णी को हँसी आ गयी।

"नयी धोती की जरूरत बाद में पड़ेगी, इसलिए अभी पुरानी चल जाएगी।"

मैं सोच रही थी कि सुबह जल्दी ही नहा-धोकर नया लहँगा दिखाने के लिए कुञत्तल के पास तक जाऊँ। सोकर उठते ही रावुण्णी पर नजर पड़ी।

"सब चौपट हो गया माँजी!"

सब लोग नानी के कमरे की ओर दौड़े। ताऊजी भी भागकर आये।

"अरे, क्या हुआ?"

"बस, चल बसीं।"

"चुप रहो। बाहर किसी से मत कहो। दावत के बाद बाराती वापस चले जाएँ, तभी कहेंगे। समझे न?"

फिर मेरी ओर देखा। ताऊजी नाराज दिखे। ताईजी ने पुकारा, "जानकी, इधर आ..."

मैं उनके पास चली गयी।

"नानी की तबीयत बिलकुल खराब है। अब उस कमरे की ओर मत जाना। नहाकर कपड़े पहन लो। तेरे पिताजी अभी आएँगे।"

"बेचारी क्या जाने!"

"रावुण्णी, तुम यहीं रहना...बाहर किसी को पता चले तो लोग कहेंगे कि सबकुछ रोक दो। उसका शास्त्र भी ढूँढ़ लाएँगे। तुम समझते हो न?"

"जी।"

मैं तैयार हो गयी। एक नीले रिबन से चोटी बनायी। मेरी दीदी ने आधी रात से ही सरोजिनी दीदी को सजाना शुरू कर दिया था। जूड़े पर फूल लगाने के लिए ही दो-चार लोग चाहिए। सच पूछा जाए तो फूलों और गहनों से सजी होने पर वह मुझे उतनी खूबसूरत नहीं लग रही थी जितनी कि सजे बिना लगती थी।

"तुम सब यहाँ क्यों खड़ी हो? निकलो ना जल्दी..." औरतें बाहर निकल रही थी, तो मैंने याद दिलाया, "सरोजिनी दीदी, नानी का पैर छूना है न?"

"चल री, बकवास बन्द कर!"

मेरी माँ कह रही थी। पिताजी नहीं आये, इसकी नाराजगी भी उसमें झलक रही थी।

नानी के दरवाजे पर कोई रुका तक नहीं।

मैं गलियारे में असमंजस में खड़ी रही।

"अरी, तू क्यों उधर चक्कर लगा रही है। चल ।" ताई डाँटने लगीं।

मैं पानी पीने का बहाना कर रसोई की ओर चली गयी। वहाँ से मैं सीधे पण्डाल के पीछे से दौड़ने लगी। जब दौड़ रही थी, रेशमी लहँगे की सरसराहट मुझे अच्छी लग रही थी। मलबे के पास बैठकर कुचत्तल बाल सँवार रही थी। वह अकेली थी। मैंने कहा, "सरोजिनी दीदी ने नानी का पैर तक नहीं छुआ।"

कुञत्तल चुप रही।

मुझे गुस्सा आ रहा था-"कहते हैं कि बड़ी यक्षी है। नानी की बीमारी ठीक तो करो। शादी देखने की उनमें कितनी चाह थी।" कुञत्तल हँसी।

"सप्तपर्णी के ऊपर तक उड़ने की जो बात तुम्हारे बारे में लोग कहते हैं, वह सब झूठ है क्या?" कुञत्तल ने मेरी ओर देखा।

"हाँ, मैं भी आऊँगी शादी में । नानी को बुला ला। हम लोग फाटक पर खड़ी रहेंगी।"

मैं असमंजस में थी। तभी कुञत्तल ने कहा, "मैं कहती हूँ, नानी जरूर आएँगी। जा बुला ला।"

मैं दौड़कर घर के अन्दर गयी तो रावुण्णी पूछने लगा, "अरे, तू मन्दिर नहीं गयी! इधर क्यों चक्कर लगा रही है?"

"नानी..."

नानी के दरवाजे के सामने खड़े होकर रावुण्णी नायर ने कहा, "उधर मत जा।"

"नानी आएँगी!"

"नानी तो मर गयी बिटिया! लेकिन यह बात दावत खत्म होने तक किसी से नहीं कहनी। तुम भी किसी से न कहना, अन्दर जाकर उसे देखकर डर मत जाना..."

मैंने अनसुनी कर दरवाजा खोला तो वह नाराज होकर मुझे घूरने लगा।

"देख लो, मेरा क्या बिगड़ता है!"

मैंने दरवाजा एकदम से खोल दिया था। नानी चुप लेटी थीं। गले तक ढंके हुए थीं। जैसे नाराज होकर मरी हुई जैसी लेटी थीं। कभी-कभी माँ और ताई से रूठकर इसी तरह लेटी रहती थीं। खाना भी नहीं खाती थीं। नानी इस तरह की कई तरकीबें निकालतीं। शादी देखे बिना नानी को नहीं मरना चाहिए।

"नानी नहीं आएंगी क्या?"

दरवाजे से रावुण्णी हँस रहा था। नानी ने आँखें खोली। “अब क्या हुआ?"

शादी का मुहूर्त हो गया। हमको चलना है न!"

नानी उठकर बैठ गयीं।

"कपड़ा बदलना है?"

नानी ने कपड़े ठीक किये। ओढ़नी से सिर ढका और खाट से उतर गयीं। जल्दी ही मेरी उँगली पकड़कर चलने लगीं। बाहर उपहास करता हुआ बैठा था रावुण्णी! नानी ने उसकी तरफ देखा। हम दोनों चल पड़ीं। आँगन में कुञत्तल और नीली खड़ी थीं। हम चारों हाथ पर हाथ धरे दौड़ने लगीं। अचरज की बात थी कि नानी हमसे भी तेज दौड़ रही थीं। असल में नानी ही हमें खींचती हुई दौड़ रही थीं।

पगडण्डी पार कर बरगद के चबूतरे पर पहुँचने पर शहनाई की आवाज सुनाई पड़ी।

जब मन्दिर के अन्दर की भीड़ में हम लोग घुस गयीं, तब किसी ने हमें नहीं देखा। नानी ने हँसकर सबकुछ देखा। वह ठीक समय पर पहुँच गयी थीं। दूल्हादुल्हिन एक-दूसरे को वरमाला पहना रहे थे।

जब मंगलसूत्र बाँधा गया तब आशीष में फूल और चावल उन पर बिखेरने के लिए सब लोग इकट्ठे हुए। नानी ने मुझे देखा। मैंने मुट्ठीभर चावल नानी को थमा दिये।

कुञत्तल ने पूछा, "चाहिए क्या?"

तब कुञत्तल घूर रही थी, मुझे नहीं, सरोजिनी दीदी के गले में माला पहनाते हुए दूल्हे को। कुञ्जत्तल की आँखों से धुआँ जैसा आ रहा था। दाढ़ें बड़ी हो रही थीं। मैंने देखा। गुलदस्ता लिये जो दूल्हा सरोजिनी दीदी से सटकर खड़े फोटो लेने के लिए मुस्करा रहा था, उसकी ओर कुञत्तल को झपटते हुए देखकर मैं डरकर चिल्लायी।

फिर कुछ देर तक मैं कुछ भी याद नहीं कर पायी। आँखें खोलने पर जब मैंने देखा कि सरोजिनी दीदी और उनके पति खड़े हैं, तभी मुझे तसल्ली हुई। इसका मतलब था कि कुञ्जत्तल ने उनका कुछ नहीं बिगाड़ा था। उन्होंने मुझे मेरी बीमारी दूर होने पर अपने घर जाने का न्योता दिया।

"जब बीमार थी तो तू क्यों अकेले दौड़कर आयी!" ताई ने पूछा।

"अकेली नहीं...नानी साथ में थी। और फिर..."

"हाय भगवान!" माँ ने जाप शुरू किया।

"रावुण्णी से पूछो, उसने भी देखा था।"

"लड़की को वहम हो रहा है।"

मैं जो भी कहती हूँ, ये लोग सोचते हैं कि मैं मनगढन्त कहती हूँ। मैं झूठ नहीं बोल रही थी, यह समझाने के लिए नानी का आना, शादी देखना और फूलचावल बिखेरना सब बता दिया। सब लोग एक-दूसरे को देख रहे थे। कुछ लोग कानाफूसी कर रहे थे।

जब सरोजिनी दीदी की विदाई हुई और बाराती चले गये, नानी के मरने की खबर सबको दी गयी। अब तो मरने दो। शादी तो देख पायी है न!

"शादी तक तो मरी नहीं। खानदान से बुढ़िया की ममता तो देखो।" सफाई के लिए आयी औरतें आपस में कह रही थीं।

रावुण्णी नानी के कमरे से लौटकर आया तो चिल्लाने लगा।

"क्या है, क्या हुआ?"

मैं सारा होहल्ला सुन रही थी।

"मैंने ही तो नहलाकर लिटाया था। बुढ़िया के हाथ में अक्षत और तुलसी कहाँ से आ गये?"

अरे अब क्या हुआ! जब मैंने कहा तो ये लोग यकीन नहीं कर रहे थे।

"लगता है कि लड़की पर उतर गयी। तुमने सुना नहीं वह क्या कह रही थी!"

कोई मुझपर उतरी नहीं थी। हम लोग हाथ पकड़कर साथ-साथ गयी थीं।

"लगता है, मरने पर भी यह बला नहीं छूटेगी।" रावुण्णी नायर कहने लगा कि ओझा को बुलाकर श्मशान में कोई क्रिया-कर्म कराना पड़ेगा।

"नहीं तो फिर भी चक्कर काटती रहेगी!"

मैं आँखें मूंदकर लेटी थी कुछ देर तक। तब कुञत्तल और नीली चली आयीं। आँखें खोले बिना ही मैं उनकी गन्ध से उन्हें पहचान सकती हूँ।

मैं चुपचाप लेटी रही।

"मेरे पास मत आना खेलने के लिए। अब मैं नहीं आऊँगी। मेरे पास मत आना, बस चली जाओ।" मैंने आँखें मूंदे ही देखा कि वे दोनों सिर झुकाकर बाहर जा रही थीं।

नानी को जलाने के लिए आम का छोटा-सा पेड़ काटा गया। कह रहे थे कि नाम के वास्ते ही तो चाहिए। शादी के लिए बनी लकड़ी अब भी बाकी थी। मैंने देखा, नानी को लोग उठाकर ले जा रहे थे।

रावुण्णी ने तो कहा था कि नानी यहीं चक्कर काटती रहेगी। मैं उठी। बाहर के कमरे की खिड़की से देखा कि काजू के पेड़ के पास लकड़ी डाली गयी थी। पाँच-छ: लोग थे। नानी को लिटाकर ऊपर लकड़ी रखकर आग जलाने पर... ओह तेज गरमी होगी। नहीं, नहीं, यह सब क्या था? बस धुआँ ही धुआँ। कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता। धुएँ के अन्दर से पूरा बदन कपड़े से ढंककर बाहर आ रही थीं... हाँ... नानी ही थीं। नानी मरेंगी नहीं और यहाँ से जाएँगी भी नहीं। क्याक्या बाकी है? आग से जलने पर, चोट के लिए, गलसुआ होने पर...पीसकर लगाने के पत्ते और जड़ी-बूटी मुझे उन्होंने बताया नहीं था।

लगा कि नानी की ओढ़नी बड़े-बड़े सफेद पंखों की तरह उड़कर आ रही है। सीधे आँगन की तरफ। फिर नानी मेरी चारपाई पर आ बैठीं। मैं हँसती हुई नानी के गले लग गयी।

"मरने का बहाना बनाकर फिर लोगों को उल्लू बनाया, है न?"

नानी हँस दी। अब नानी कहाँ होंगी, क्या तुम जानती हो दीदी? दीदी यहाँ की नर्स है न! लेकिन नौं का सफेद कपड़ा क्यों नहीं पहनती? आनेवालों को जाने दो। उसमें क्या है ? और एक जो आयी वह अभी नहीं गयी! ठीक पीछे है। उस कोने पर। मेरा रेशमी लहँगा पहनकर सिर मुंडाकर जो बैठी है, जानती हो वह कौन हैं? वह तो नानी ही हैं।

"हम खेलें। दीदी भी आना। नानी, दीदी और... तुम दौड़ती क्यों हो? चिल्लाकर लोगों को क्यों बुला रही हो?"

यहाँ भी हड़कम्प मच गया है क्या?

अरे नानी भी चली गयीं क्या?

नानी खिड़की पर कैसे पहुँच गयीं? अच्छा, हाँ, हाथ पकड़कर नानी उन्हीं को अन्दर उतार रही थीं। वे भी पहुँच गयी थीं।

"अरी बुद्धू तेरी नाराजगी! हम लोग कहीं नहीं गयीं।"

कुञत्तल कान में फुसफुसाकर बोली। अब कंकड़ और सिकड़ खेलने के लिए हम चार जने थे।

मैं और नानी एक तरफ और वे दोनों एक तरफ। अब मजा ही मजा था! फिर और क्या चाहिए!