छूटा लक्ष्य (कन्नड़ कहानी) : यशवंत चित्ताल

Chhoota Lakshya (Kannada Story) : Yashwant Chittal

"पहचाना नहीं?"
"हाँ? अरे, तुम? आ...आ...आ रुको चटाई बिछाऊँगी । हाँ? आओ, बैठो, मकान जरा छोटा सा है, कुरसी वगैरह...
"नहीं, नहीं! रहने दीजिए, मेरे साथ चलना है।"
"यह क्या, एकदम आ गए। किसी को कोई सूचना नहीं? तुम्हारी दादी ने भी मुझसे कुछ नहीं कहा।"
"नहीं, उसे भी मालूम नहीं था।"

"बेटा, तुमने पूछा न कि 'पहचाना नहीं?' तुम लोगों की पहचान कभी भूलेगी? हमारी अनसूया के बच्चों के चेहरे की छाया को कहीं भी पहचान सकते हैं। अब क्या, तुम लोग बहुत बरसों से इस तरफ आए नहीं। उस पर यह कल्पना भी नहीं थी कि तुम आज आनेवाले हो। इसी से एकदम समझ नहीं पाई। करीब सात-आठ साल बीत गए होंगे तुम्हें धारवाड़ गए।"
"जी, आठ साल से ज्यादा हुए।"
"मुक्ता, अरी मुक्ता...पता नहीं, कहाँ चली गई, अभी यहीं तो थी, मुक्ता..."
"क्या है माँ? क्यों बुलाया?"
"अरी, यह क्या? अटारी पर क्या कर रही हो? तुमने देखा कि यहाँ कौन आया है?"
"रुको, मैं आई...अय्य! कब आए माँ?"
"यहाँ आ...उतना क्यों शरमाकर भागती है? वह कोई हमारे लिए दूर का नहीं। यहाँ बाहर आ। बहुत शरमाती है बेटा।"
"यह...?"
"हमारी बेटी है, बड़ीवाली। इस बार मैट्रिक की परीक्षा दी है। अभी पास-न पास का पता नहीं चला।"
"यानी इस बार हमारे घर पर ही।"

"हाँ, परीक्षा देने गई थी तो तुम्हारे घर ही रही। यहाँ अभी तक वह परीक्षा देने के लिए सेंटर-ऐंटर आदि कुछ कहते हैं न, वह अभी नहीं हुआ शायद। इस वजह धारवाड़ ही भेजना पड़ा। ये खुद उसे ले जानेवाले थे। वे भी दुकान में अकेले हो गए हैं। पाँच-छह दिन बंद कर जाने से...इसलिए मैंने ही कहा कि जाते समय वैसे भी दूसरे साथी हैं। वहाँ जाने के बाद आप लोग सहायता करेंगे ही। इसलिए तुम्हारे पिताजी को पत्र लिखकर पूछने को कहा। तुरंत जवाब आ गया। जरूर भेजिए। वह हमारे यहाँ रुकेगी तो हमें बहुत खुशी होगी। बड़े बेटे दोनों मुंबई में नौकरी में हैं, मगर इसके लिए आवश्यक व्यवस्था हम लोग करेंगे। तब तक तुम्हारे मुंबई में रहने की हमें खबर नहीं थी। तुम्हारे पिताजी बहुत बड़े व्यक्ति हैं। तुम्हारी माँ ने भी अच्छी देखभाल की। पुराने रिश्ते की बातें अभी नहीं भूली हैं...मुक्ता, जरा चाय का पानी चढ़ाकर बाहर आ।"

"जी नहीं। अब चाय वगैरह नहीं चाहिए। अभी-अभी दादी के यहाँ पीया।"
"ऐसा कैसे होगा बेटा, कितने साल बाद आए हो। एक दिन खाने पर भी बुलाना चाहती हूँ।" "जी नहीं, मुझे कल ही लौटना है। मेरी ज्यादा छुट्टी नहीं। मैं यहाँ आनेवाला ही नहीं था, मगर अम्मा ने ही जोर दिया। कहा, 'एक बार सभी को अपना चेहरा तो दिखा आ।'उस पर मुझे आज ही होन्नावर जाना पड़ा है।

"देखा! तुम लोग हमेशा घोड़े पर सवार रहते हो। कितने साल बाद आए हो। चार दिन रुककर नहीं जा सकते? फिर कहते हो, एक चाय के लिए भी नहीं रुकोगे। कल को तुम्हारी माँ क्या सोचेगी? मेरी-तुम्हारी माँ की दोस्ती के बारे में तुम अभी नहीं जानते। वह जब यहाँ थी, तो हम एक दिन भी एक-दूसरे को छोड़कर नहीं रहते थे। मुझे इस घर में ले आए थे तो यहाँ मेरा किसी से परिचय नहीं था। ऐसा लगता था मानो किसी जंगल में छोड़ दिया है। तब तुम्हारी माँ की शादी नहीं हुई थी। तभी शादी की कोशिश जारी थी। उसकी शादी होकर जाने के तीन-चार महीने तक सबकुछ खाली लग रहा था। देखो, मुझे बहुत याद करती थी शायद! जम्हाई से सारा मुँह थक जाता था। तुम्हारी माँ मिलती है। खूब सुख दो उसे। इस बुढ़ापे में माँ-बाप दोनों आराम से हैं न?"

"जी!"
"तुम्हारी माँ को इस ओर आने का मन नहीं करता होगा क्या? अब तुम्हारी नानी बूढ़ी हो गई है। हमेशा कहती रहती है कि मरने से पहले बेटी का चेहरा देखकर मरती। तुम्हारे दिल को इतना कठोर नहीं बनना था। तुम्हारे भैया ने शायद कुछ कठोर बातें की थीं...।"
"..."

"रहने दो, अब वह खबर क्यों? कहीं पर सुख से रहते हैं, बस इतना काफी है। मोती सदृश तुम बच्चों को जन्म देकर उसके सुख में कहाँ कमी होगी? वह भी भाग्य से ही हो पाता है, अब हमको ही देखो। इतना सारा पैसा है, सबकुछ है। फिर भी घर में एक बेटे की कमी तो खलती ही है? इस वजह से हमने अपनी लड़कियों को कुछ कमी होने नहीं दी है। अब इसी को देखो...मुक्ता...री मुक्ता!"
"क्या है माँ?"

"यहाँ बाहर आकर बैठेगी कि नहीं? हाँ, ज्यादा करना शोभा नहीं देता...आ, यहाँ बैठो, देखेंगे। वह कोई हमारे पराए नहीं?...देख बेटे, अभी हमने इसे मैट्रिक तक सिखाया है (पढ़ाया है।) आजकल के लड़के अनपढ़ लड़कियों की तरफ मुड़कर नहीं देखते। यहाँ तक पढाया है। सफल होने पर कॉलेज भी जाना चाहती है। उसके लिए पैसे चाहिए, यहाँ तक किसी तरह पढ़ चुकी है। उसी को सौभाग्य मानना चाहिए। ज्यादा सीखकर कल अपने पति को पालने की जरूरत नहीं, तुम जैसे कोई गुणवान पति मिलने से वह थोड़े ही अपनी पत्नी को नौकरी करने भेजेगा?"
"तुम्हारी परीक्षा का नंबर क्या है?"
"..."
"कहो, कहो, कितना शरमाती है। हर बात की एक सीमा होती है। उस पर तुमने अंग्रेजी सीखी है। वह इतने प्रेम से पूछ रहा है।"
"25073"

"फिर सीखने में भी उतनी मंदबुद्धि नहीं। अब तक किसी भी परीक्षा में नापास न हुई। यहाँ पर तो लड़कियाँ बस्ती से ऊपर हैं। तीन-चार बार नापास होकर पढ़ाई बंद कर देती हैं। परसों ही इसकी शाला की हेड मास्टरनी आई थी। उसने इसकी खूब प्रशंसा की। मैं उससे कहती कि तुम्हें अपनी हस्तकारी दिखाए, मगर शरमाती है तो! फिर तुम्हारे घर गई थी तो कमरे में तुम्हारी तस्वीर देखी होगी।"
"माँ!"
"चुप रह। मुझे बात करने दे। कैसा वर्णन...गुस्सा कर इस तरह क्यों भागती है? मैं झूठ तो नहीं बोली?"
"माँ, यहाँ जरा अंदर आओ। यह चाय ठंडी होने लगी है। देख..."
"अरे! मैं बात करने में भूल ही गई। देखा, मैं फिर अंदर क्यों आऊँ? उसे पता है कि तुमने ही यह चाय बनाई है। यहीं ले आ। फिर देख, उस डिब्बे में लड्डू है। सात-आठ लड्डू ले आ।" "सात-आठ बस है?"
"क्यों बेटा, इतने प्रेम से आए हो। तब तुम हमारे आँगन से होकर अपनी नानी के घर जाते थे, तभी देखा था, बुलाने का मन हुआ। फिर कौन जानता है? अब बड़े हो गए हो। तुरंत अनजान की तरह चले गए तो..."
"नहीं, नहीं, ऐसा कैसे होगा? कितनी बार आपको हम याद करते थे!"

"ठीक है बेटा। आगे भी यही प्रेम बना रहे। तुम सब को अपनी माँ के गुण आए हैं बेटे। फिर भी तुम्हारे और भाइयों से भी तुम्हें देख, पहले से भी तुम्हारा यह स्वभाव बना है कि अपने लोगों के पास आते-जाते रहना चाहिए। मैं इस बारे में कुछ नहीं कहती। इस तरह के गुण सीखकर नहीं आते। जन्म से ये गुण आते हैं। तुम जब छोटे थे, तब से ही हमारे यहाँ खूब आते थे, खेलते थे। अपनी नानी के यहाँ आने पर दिन भर यहीं रह जाते थे। तुम्हारी नानी को हमसे बड़ी शिकायत होती थी। कहती—क्या बात है? हमारे लड़के को कौन सी घुट्टी पिला दी है। एक मिनट के लिए भी हमारे चबूतरे पर नहीं रहता। जहाँ बच्चे होते हैं, वहाँ बच्चे रहते हैं। हमारी मुक्ता को तो तुम्हारे प्रति बहुत ममता थी। तुम्हें याद होगा या नहीं?"
"मुझे इतना साफ याद नहीं। हमारे धारवाड़ जाते समय देखा था, तब बहुत छोटी थी। आठ या नौ साल की थी न? परसों माँ ही कह रही थी कि अभी बड़ी हो गई है।"
"सही बेटा। अभी बड़ी हो गई है। संभव हुआ तो इसी साल शादी कर देना चाहते हैं...भगवान की क्या इच्छा होगी, कौन जाने?...अरे, बात करते-करते खाना ही भूल गए? कुछ भी नहीं बचाना।"
"...तुम्हारे माथे पर वह दाग..."
"यह छुटपन में शायद मैं कहीं गिर गया था।"
"मैं जानती हूँ। खूब बड़ा दिखता है। कहीं नहीं, वह हमारे आँगन में ही हुआ था। तब तुम बहुत नटखट थे। छिह! छोटा रहते तुमने अपनी माँ को खूब तंग किया था।"
"आप मुझे खूब याद रखती हैं।"
"तुम सबकी कितनी याद आती थी, पता है? आज तुम आए तो बहुत आनंद हुआ। आज यहीं रुक जाते तो इनसे भी मिल पाते, बातचीत करते।"

"जी नहीं, जाते वक्त दुकान की तरफ से ही जाऊँगा। अच्छी बात है, चलता हूँ। मुझे भी बहुत अच्छा लगा। इतनी अच्छी तरह आपने बातें कीं। अच्छा, मुक्ता कहाँ...?"
"कहीं अंदर बैठकर सुन रही होगी। तुम्हें देखकर वह बहुत शरमाती है। देखो तो, इतना सारा पढ़ा-लिखा है, मगर कोई डीलडौल वगैरह नहीं करती। अपने बच्चों के गुणों की हम स्वयं प्रशंसा नहीं करते। तब भी मैंने यह बात कही। नहीं तो बस्ती में बहुत सारी लड़कियाँ हैं, मरदानी हैं। अब तक उनकी हवा नहीं लगी है। देखेंगे...तुम्हारी तरह खूब पढ़ा-लिखा लड़का...मुक्ता...कहीं छिपकर बैठी होगी...तुम तब आँगन से होकर नानी के घर गए थे, तब वे दरवाजे पर ही थीं। तुम्हारा चेहरा ठीक से नहीं दिखा होगा, इसी तरह देखती रह गई लड़की। मैंने ही उससे हँसते-हँसते पूछा, 'री मुक्ता? तुम उसे पहचान नहीं सकी? वह हमारा मोहन है न?' वह कितना शरमाकर भाग गई थी।"
"ओह!"
"क्या बेटे?" "नहीं, कुछ नहीं, अच्छा चलता हूँ।"
"वाह! अब ठीक हुआ। मैंने तुमसे कितनी बार कहा है। माँ, तुम तरीके से बात करना नहीं जानती। घर आए लोगों से मन चाहे बात मत करो।"

"इस तरह मानो मुझे निगलना चाहती है? मेरी नानी बनकर मुझे बात सिखाने आई है। शायद बस्ती की सारी लड़कियों ने अपनी शर्म तुमको ही बाँट दी है। उसने तुम्हारे बारे में कितने प्रेम से पूछा था। अच्छी तरह जरा बाहर आकर बैठती, चार बातें करती। ये सब सिखाने की बातें हैं? उसके लिए भी नसीब चाहिए। खाली रूप, विद्या से नहीं होता। उस वेंकप्पा की सुंदरी में ऐसा कौन सा रूप है? तुम्हारी जितनी पढ़ाई भी नहीं। तब भी माणिक सा पति मिला तो।"

"माँ बस करो। तुम्हारे साथ रोज झगड़ा कर थक गई। गाँव की लड़कियों की रीति-नीति मुझे सिखाने की जरूरत नहीं, अब उनके घर कितना अनुशासन, साफ-सुथरापन है। उनकी माँ भी उसी तरह। जरूरत जितनी बातचीत, हँसी, तुममें वह कुछ नहीं। उनके आगे तुम्हारे इस झूठ के आडंबर की जरूरत क्या थी? वह चुपचाप सुनता बैठा था, इसलिए। देखोगी, कल धारवाड़ जाकर कितनी खिल्ली उड़ाएँगे।"

"खिल्ली उड़ाने के लिए मैंने क्या किया? तुम उस तरह पानी बनकर रसोईघर में घुस गई। इसलिए मुझे ज्यादा बोलना पड़ा। फिर वह सब तुम्हारे सुकून के लिए ही उसकी तसवीर देखकर तुमने ही एक बार कहा था...बच्ची, तुमको जग की रीत मालूम नहीं। दूसरों से हमारा काम बनाने के लिए हमें उनकी भी थोड़ी सी प्रशंसा करनी पड़ती है। कुछ बढ़ा-चढ़ाकर कहना पड़ता है। मैंने उसे तुम्हारे बारे में कितना अच्छा कहा!"

"वाह! सुनना पड़ेगा! वह इन आठ सालों में खूब बढ़ गया है, वह सच है, मगर क्या इतना बढ़ गया है कि पहचान ही न पाओ। तुम इतना पहचान नहीं पा रही थीं तो मुझसे पूछ लेतीं। मैं समझ गई कि तुम उसे पहचान न सकीं, इससे तुम कुछ घोटाला करनेवाली हो। इसीलिए मैंने तुम्हें कहा, जरा अंदर आ जाओ, चाय बुझने को है, मगर तुम समझ पाओगी तब न? तुमने कहा, मोहन हो न, वाह! क्या राग अलापा तुमने..."
"तुम कह क्या रही हो? इस तरह मेरी अवहेलना कर बात क्यों कर रही हो? ठीक है, अगर तुम्हें वह नहीं भाता तो मैं नहीं कहूँगी।"
"जो आया था, वह मोहन नहीं था।"
"क्या? तू क्या कह रही है? वह मोहन नहीं था? तू मुझे सिखाने चली है। मेरी अनसूया के बच्चों को मैं नहीं पहचानती?"
"वह मोहन का बड़ा भाई है। उसकी शादी हुई है, एक बच्चा है।"
"तुम्हें कैसे पता चला?"
"मैं सब जानती हूँ। उसकी माँ ने ही मुझे सब बताया था। मैं जब धारवाड़ गई थी, उसका फोटो भी देखा है।"

"सच ही? यह सब कौन जानता है? छोटे थे, तब अपनी नानी के यहाँ आते थे, तब यहाँ बहुत कम आते थे। कभी आकर चेहरा दिखाकर चले जाते थे। एक मिनट बैठते भी नहीं थे। परसों तुमसे सुनकर ही उनके बारे में जान सकी। फिर यह भी पता नहीं चला कि नानी भी इतना धोखा देती है। सुबह वही आकर कहकर गई। उस दिन मोहन के बारे में पूछ रही थी न, वह आज शाम को आनेवाला है। तुम्हीं देखकर बात करो।"

"उस पर गलती मत थोपो, बेचारी बुढ़िया को किसी से कोई वास्ता नहीं। सुबह जब उनके घर वह दूधवाला आया था, मैं वहीं थी। उसने कहा कि 'दादी, तुम्हारा नाती आया है। कल शाम को उस बाघवाले देव के मंदिर के सामने मिला था। मैं उसे पहचान नहीं सका। उसी ने मुझे पहचानकर बातचीत की। अच्छा लड़का है। इस बूढ़े को अभी तक नहीं भूला है। उसने आज शाम को इस तरफ आने की बात कही है, नानी ने पूछा, कौन? देवेंद्र या मोहन? फिर भी गर्व से कहा, हाँ वही, मोहन ही। फिर नानी ने आकर तुमसे कहा।"
"ऐसी बात है?"