छछिया भर छाछ (कहानी) : महेश कटारे

Chhachhiya Bhar Chhaachh (Hindi Story) : Mahesh Katare

हर नुक्कड़ पर ठट्ठे थे। गो कि अलाव उसी अनुपात में कम हो चुके थे जिस अनुपात में बैलों से खेती। खेतों में बैलों की घंटियों से टुनटुन की जगह ट्रैक्टर की भटर भटर है। हफ्तों क्या पखवारों का काम दिन रात में निपटता है। कभी शौकीन किसान जुए से ट्रांजिस्टर बांध जुताई करते थे, अब कंपनियों ने ट्रैक्टर में ही गाने टेप फिट कर बेचना शुरू कर दिया है। मतलब पहले की चीज़ों के निशान ही बाक़ी रह गए हैं। मनोरंजन के नए-नए साधन खेत खलिहान तक पहुंच आदमी को भले ही अपने में बांध रहे हों, पर चरित चर्चा और निंदा रस के मजे पाने के लिए अब भी समूह की आवश्यकता है, सो एक-दूसरे को सूंघते-सांघते इकट्ठे होकर यही चर्चा कि रमैनी ब्याह करने गया है। इसी लगन में...

'बरात कहां गई? कौन-कौन गया? भाई तो घर में बैठे हैं। न झूठ-मूठ का प्रचार है।'

'झूठ निकले तो मेरे मुंह में थूक देना।'

'तुम्हें कैसे पता चला?'

'मुझे जगदीश ने पूछा था।'

'जगदीश को किसने कहा?'

'उसे उसकी घरवाली ने बताया। मेरी ने भी मुझे बताया। खेरे गई सब औरतों को पता है। उन्हें खुद रमैनी की भौजाई ने दुखड़ा रोया। अब जानते ही हो कि खेरा औरतों की चौपाल है, फरागत होने के साथ वहां सुख-दु:ख और जानकारियां भी बंटती रहती हैं।

सो खेरे नामक केन्द्र से प्रसारित हुई वार्ता गांव की गली-गली में गूंजने लगी। अब गांव ही नहीं असफेर की चौहद्दी तक जानती है कि रमैनी छूंछा है। एक दो दस नहीं, उसके सैकड़ों हमउम्र गवाह हैं कि...सबसे बड़ा सबूत तो खुद रमैनी है जो उम्र के तीसवें पड़ाव तक इस तरह के तानों फिकरों को हँसी में उड़ाते हुए या चुप्पी साधकर मान्यता देता रहा। मर्दों की तो बात क्या, कुछ जनानियां तक हलफ़ उठा कर कह सकती हैं कि...उन्होंने जैसे भी परीक्षण किया हो पर निष्कर्ष यही कि रमैनी पंडित में मर्दों वाली चीज नहीं है।

रमैनी यानी रामायणनी प्रसाद शर्मा। छरहरापन लिए गठी हुई देह। भैंसे सी ताकत। किसी की बांह पकड़ ले तो सड़सी सा कस देता है। नामी पहलवान तक हाथ नहीं छुड़ा पाते। पीठ पर घूंसा धर दे तो अच्छे-अच्छों के कपड़े खराब हो जाएं। सैकड़ों बार परख हो चुकी है, भैंस को तेल अथवा दवा पिलाना कसाले का काम है और यह 11रिमैनी के हमउम्र सैकड़ों जवान थे जो टोल में, गांव में, रिश्तेदारी में उसके बचपन के साथी रहे।

रमैनी अपने भाइयों में मंझला है, यानी न ऊपर न नीचे अर्थात् बीच का। कहावत प्रचलित थी कि, 'बड़े का बाप छोटे की माई, मंझले का रामसहाई।' तो पांच भाई-बहनों में अकेला रमैनी कुंआरा बचा। मां-बाप बत्तीस बीघा सिंचित जमीन और जजमानी छोड़ मरे थे जिसमें रमैनी तिहाई का हकदार हुआ किंतु भविष्य के हिसाब-किताब में रमैनी का हिस्सा भी शेष दो भाइयों की संतान के भाग्य में जोड़ा जाता था।

इस महंगाई के युग में जब से डॉक्टरों, इंजीनियरों और अफ़सरों ने अपनी अनाप-शनाप कमाई को ज़मीनें ख़रीदकर कृषि आय के रूप में वैधता देनी शुरू की है तबसे खेतों की कीमतें राकेट होती जा रही हैं। इस तरह कायदे से रमैनी सात-आठ लाख का ठहरता है। गांव वाले हितैषियों ने गाहेबगाहे यह बात रमैनी के कानों में भरने से कोई चूक नहीं की। इधर भाई-भावज मान बैठे कि उसका और कहां ठिकाना है सो गोंड़ा में पशुओं के बीच उसकी खटिया का भी खूंटा गाड़ दिया किंतु रमैनी के मन को भारी ठेस उस दिन लगी जब बगल में भोजन पाते भाइयों को घी से तर रोटियाँ परोसी गईं और उसे सूखी। वह झेल नहीं पाया और थोड़े कोप के साथ पूछ बैठा, 'घी खत्म हो गया का भौजी?

भावज ने उत्तर में कहा, 'हां खत्म ही समझो, बस दो एक दिन घिसने भर है।'

'तो मेरी रोटियाँ क्यों न घिसीं?'

बड़ी का घर में मालिकाना था। पति तक उनसे हिसाब न पूछते। सवाल उन्हें मालिकी में हस्तक्षेप प्रतीत हुआ, सो अनायास ही कह गईं, 'तुम्हें कौन सा रन चढ़ना है लल्लू?'

बस। उसी समय रमैनी ने अपनी थरिया सरका दी, 'अब मैं रन चढ़ के ही दिखाऊंगा भौजी।' भविष्य की आशंका से बड़े पंडित की थरिया भी छूट गई। गोंड़ा में उसे मनाने दोनों भाई पैताने खड़े रहे। बड़े पंडित जो कभी अपनी पत्नी से ऊंची आवाज़ में नहीं बोले थे उन्होंने रमैनी की सांत्वना के लिए उन्हें हरामजादी, कुतिया तक से अलंकृत किया किंतु रमैनी की चोट न सिराई। इसके बाद गांव के चुगलखोरों की बन आई। रमैनी का गोंड़ा हफ़्ते भर तक घर बिगाड़ने वालों की रात्रिकालीन अड्डा बना रहा।

फिर भी किसी की न सलाह थी न अनुमान कि रमैनी ब्याह कर सकता है। अत: जिस किसी को भी, जैसे भी सूचना मिली वह भौंचक था। भौंचक रमैनी का भावी श्वसुर भी रह गया था जब मध्यस्थ के माध्यम से रमैनी और उसका आमना-सामना हुआ। मध्यस्थ ने रमैनी का कोई संदर्भ न छुपाया था। एक चोखा ब्राह्मण अपने से कई सीढ़ी नीचे वाली जाति से रिश्तेदारी को प्रस्तुत हो, यह उसे पच नहीं रहा था। शिखंडी ब्याह क्यों करेगा? फिर जब उसने रमैनी की कद काठी देखी तो रमैनी विषयक लोकोपवाद पर भी उसे संदेह हुआ। तीसरी और अंतिम बात यह थी कि उसकी पुत्री कम से कम इतनी प्रसिद्ध हो चुकी थी कि जात-बिरादरी का कोई भाँवर डालने को तैयार न हो रहा था। वह कैसे भी अपनी पुत्री रामरती के पैर घर से फेरना चाहता था, चाहे वे श्मशान में जाकर ही ठहरें।

रामरती पिता की व्यथा समझती थी। वह स्वयं भी अपने आपको कोसती, विधाता को गालियां देती कि उसकी देह में इतनी अगिन क्यों भर दी कि बड़े-बड़े मूँछें उमेठने वाले खेत रहे। वह दो बार घर से भाग और प्रेम की क़समें खाने वालों को लात मारकर लौट चुकी थी। अपने अनुभवों से उसने जो जाना व सीखा तो पिता की स्थाई उदासी पोंछने के लिए वह नरक में ठिकाना बनाने को तैयार थी।

ऐसा नहीं कि गांव भर के तानों, उपहास से रमैनी विचलित न हुआ हो। अपने होने की सार्थकता की तलाश में वह भी घर से भागा। कुछ दिन नौटंकी कंपनी में रह नचनियां बनने का प्रयास किया किंतु वहां भी उसकी देह चुगली कर देती। छह महीने बाद वह भी लौटा। उसके न होने पर एक फसल चौपट हो गई थी, उसी कारण नचनियां का काला टीका लगा होने पर भी उसका घर लौटना स्वागत भाव से ही देखा गया। घर वाले जब उसका बधियापन स्वीकार कर चुके थे तो उसका नचना होना भी झेल गए। रूप स्वरूप बनाने बिगाड़ने वाला ईश्वर है। फूल बनाए या कांटा, स्वीकार करना ही होता है।

जायदाद के साथ कमोवेश तीस चालीस हजार सालाना का आदमी तो यूं ही है रमैनी। खुद पर होने वाले खर्च से दुगुना अपनी देह लगाकर कमा देता है। बरद की तरह जहां जोत दो। बरद को तो जान-बूझकर बधिया किया जाता है ताकि वह ड्योढ़ी दुगुनी शक्ति से जुते और मरखा भी न हो। इस प्रकार रमैनी घर से गांव, रिश्तेदारी तक वह अस्तित्व पा चुका था कि उसका वैसा न होना कहीं कुछ कमी होने या खटकने की बात होती। घर से इतर तो वह यूं था जैसे मूँछें होने से न जबड़े की शक्ति बढ़ती है न दांतों की। शरीर के बल, बुद्धि पर भी कोई अंतर नहीं आता। निहायत फालतू होने पर भी वे पहचान का हिस्सा हो जाती हैं। मूँछ वाले को मुछमुँड़ा पा कोई भी अचानक गड़बड़ा जाएगा। इसलिए जिन्हें कोई हानि लाभ न था वे भौंचक थे।

भाइयों की चिंता जायज थी। तय था कि उनके घर आने वाली बहू कोई सीधी सच्ची गाय न होकर छंटी हुई होगी। तभी तो उस आदमी के बिछुआ पहनेगी जो पुरुष धर्म निभाने के जोग ही नहीं है। निश्चय ही जायदाद के लोभ से आएगी, मक्खी गुड़ के पास ही भिनभिनाती है। खैर बंटवारा भी सहा जा सकता है। भाइयों में होता ही है किंतु डर आगे का है। खाती-पीती देह कुछ और भी मांगती है इसलिए या तो वह जायदाद की रक़म बनाकर उड़ेगी या घर को रंडीखाना बनाएगी। घर भीतर का उत्तेजित निर्णय रहा कि कुचलन पै गला रेत देंगे। किसका गला?...कौन रेतेगा, यह खुलासा न होकर सही समय पर उचित निर्णय के लिए छोड़ दिया गया।

रमैनी का घर अंदर ही अंदर हंड़ियां की तरह खदबदा रहा था कि रमैनी घरवाली लेकर आ पहुंचा। ऐसा ब्याह चौकोसी में न देखा गया था। भरौता अर्थात् ख़रीदकर लाई गई औरतें भी परिवार ही नहीं, जाति बिरादरी की सहमति से ठोक बजाकर लाई जाती है, गोत नाते निबेरे जाते हैं, खांप तक का विचार बांध संबंधित का खारा मीठा पानी सोधा जाता है। वहां ये ऊंची जाति का खसिया जाने कहां से किसको पकड़ लाया? ब्राह्मणी तो हो ही नहीं सकती। लाया भी तो घर छोड़ किसी दूरदराज दिल्ली, बंबई, पूना से लाता। झूठ ही कहा जा सकता कि अलां फलां देस के ब्राह्मण परिवार की बेटी है। आज किसको इतना टैम है कि पता लेकर खुर खोंटता फिरे। किंतु यह तो ख़ानदान की जान का दुश्मन होकर बारह कोस की दूरी पर ही ससुराल बना बैठा। चार दिन में सबको पता चल जाएगा कि पालागन लेते-लेते जिस घर के हाथ दु:ख जाते हैं उसी घर में आने वाली के हाथ का पानी तक नहीं पिया जा सकता। अगैड़ी बगैड़ी जाति में चल भी जाए पर मान्य धान्य पंडित पुरोहित ही ऐसा करने लगे तो समझो सचमुच घोर कलजुग छा गया। गांव रमैनी पर ही नहीं, आड़ ओट से पूरे कुल पर थूक रहा था। थूकने में ब्राह्मण का मुहल्ला सबसे आगे था।

पर रमैनी रात झमकते घरवाली लेकर आ ही गया। झिलपुटे में सिर पर बकसिया धरे छन्-छन् पाजेब बजाती महरिया के आगे-आगे वह गांव में धंसा और ठेठ बम्हनियात पार कर अपनी पौर के आगे जा खड़ा हुआ। बड़े, छोटे दोनों भाइयों चौंतरा पर खटिया डाले ऐसे मुरझाए बैठे थे जैसे घर में ग़मी हो गई हो।

'कौ है?' जानते बूझते भी पूछकर बड़े पंडित ने जैसे स्वयं को अगली कार्यवाही के लिए तैयार किया।

'दद्दा मैं!...रमैनी।'

'को रमैनी?'

'काये भैया! दो दिना में ही भूल गए अपने रमैनी को?'

'हमारो रमैनी तो मर गयो।' कह खड़े होते द्ददा ने खटिया के नीचे सरकी पनहीं उठाई और रमैनी की चांद पर ताबड़तोड़ बरसाने लगे। रमैनी इस कार्यवाही के लिए पहले से तैयार था। बड़े भाई का हक़ है यह। बड़े पंडित हक़ वसूलते हांफने लगे किंतु रमैनी ने अपने सविनय अवज्ञा आंदोलन को किंचित भी शिथिल न होने दिया। इस बीच छोटी बड़ी दोनों गृहलक्ष्मियों ने मिलकर पौर के किवाड़ उढ़का सांकल चढ़ा दी तथा अगली आंखन देखी के लिए छज्जे पर पहुंच गईं।

नई लक्ष्मी रामरती अभी तक घूंघट काढ़े रास्ते पर खड़ी थी जहां से दो क़दम आगे उसके भरतार को सटासट जूते लगाए जा रहे थे। बड़े भाई ने फूलती सांस पर काबू पाने के लिए हाथ बंद कर पैर से काम ले बकसिया को ठोकर जमाई। खड़खड़ाती बकसिया गैल पर आ गिरी। सावधानी के बावजूद लगी चोट से द्ददा का पैर झनझना गया। चोट सहलाने की उन्हें तीव्र आवश्यकता महसूस हुई किंतु इससे क्रोध का घनत्व कम प्रकट होता अत: दबाकर मिसमिसाने लगे।

ठीक इसी समय आसपास व नुक्कड़ों से झांकते नर-नारियों, बाल-गोपालों ने नई दुल्हन की लहरदार आवाज़ सुनी, 'ख़बरदार जेठ जी। अब मेरे मरद को पोर भी लगाया तो बुरा हो जाएगा...कहे देती हूं।' गांव में किसी निहायत नवेली की यह अपने दद्दा मुंह बा गए तो छोटा मोर्चे पर आया, 'भाइयों के बीच बोलने वाली तू कौन होती है?'

'और तू कौन है रे मूसरचंद! अभी तक नहीं समझा कि मैं रामायनी पंडित की घरवाली हूं। और हां, भगाकर या ख़रीदकर नहीं, वे मुझे कायदे से सात भाँवर डालकर वचन हारे हैं। हमारे पंडित ने दुख-सुख में साथ देने का बचन हरवाया है देवताओं के आगे। घर की बात में तू काये टिल्ल-टिल्ल करता है?'

'अरे साली! कुतिया! मुझसे जबान

लड़ाती है...उधेड़ के रख दूंगा। भागते गैल न मिलेगी।' छोटा क्रोध में फनफनाता झपटा।

अब रमैनी की बारी थी, 'ए लला! कुफर मत बोल। तोसे बड़ी है ये। भौजी है तेरी...मरजाद में रह! नहीं तो मेरा भी हाथ उठ जाएगा।'

यह भी नई आवाज़ थी। सब जानते हैं कि रमैनी तीन-चार को एक संग रगेद सकता है। कुदरती बधिया सांड़ है। न बोले तो सिर न हिलाए, बिगड़ पड़े तो काबू न आए।

छोटा सिटपिटाकर फन दबे सांप की तरह ऐंठता बोला, 'तेंने नाक तो कटा दी पर ये इस घर में क़दम न रख पाएगी, चाहे मेरी

जान चली जाए...कहे देता हूं। कुरमनाठ हो जाएगी।' घूंघट के भीतर से नई बहू फिर कूकी, 'जेठ जी! समझाय दो इन्हें। गाली न दें। पहली बेर का माफ कर देती हूं। आगे कुबोल निकाला तो सीधे थाने पहुंच जाऊंगी। वैसे आप जी बड़े हैं। आपकी जूतियां झेल लेंगे पर लहुरे से ऊंच नीच न सुन पाएंगे।'

आसपास बिखरों में से कुछ नजदीक झिमट आए। एक ने कान से लगकर सलाह दी, 'मुंह न लगो पंडिज्जी। खेली-खाई औरत है, हरिजन एक्ट की धोंस दे रही है। इस एक्ट में झूठ सच का निबेर नहीं, आदमी सीधा अंदर होता है।' हिमायतियों ने पंडित जी की फूंक सरका दी। लाज बचाने की दीनता में वह अड़ गए, 'ज़हर खाके प्राण दे दूंगा पर इस कुजात को देहरी न लांघने दूंगा।'

बड़े भाई की दीनता पर रमैनी द्रवित हो उठा। इतना वह भी जानता है कि अपमान से आपा खोकर अनहोनी तो वह कर बैठा। अपने छलछलाते आंसू पोंछता, भर्राए गले से कहने लगा, 'ठीक है द्ददा, इतने से तुम्हारी बात बनती है तो हम न घुसेंगे घर में। मेरा बास वैसे भी गोंडा रहा, ये भी रह लेगी। हां अपने बैल भैंसों की व्यवस्था कल से कर लेना।'

'नईं तो हम, नाथ मुहरी काटकर गोंडा से बाहर हांक देंगे।' टीप जड़कर गली में लुढ़की बकसिया सहेजती रामरती ने पति को संबंधित किया, 'चलो जी! भगवान का नाम लो। मेहनत करेंगे तो गोंड़ा भी हवेली में बदल जाएगा।'

बकसिया लटकाकर फिर रमैनी आगे हुआ और घूंघट वाली रामरती पीछे। रामरती की ठसकीली चाल में रमैनी का पौरुष झांकता दिखाई पड़ने लगा था। गोंड़ा बसाहट से इतना ही अलग था कि गांव की रिंगरोड यानी कच्ची गैल बीच में पड़ती थी। दो दिन वहां रखवाली के लिए पंडिज्जी को सोना पड़ा था। पंडिताइन ने बू मारती रमैनी की दरी और झिलंगी खटिया से परहेज बरतते हुए घर से गद्दा चद्दरा, तकिया भेजा था जो घरी किया हुआ वहीं धरा था। उनकी तीव्र इच्छा हुई कि उठा लाएं किंतु स्थिति की नाजुकता समझ मन मसोसकर रह गईं। विवशता में उन्होंने यह सोचकर धीरज धरा कि कपड़ों लत्तों में रमैनी का भी हिस्सा तो है ही। बहती चोली ननद को दान।

रमैनी दंपति के जाते ही उढ़के किवाड़ों की सांकल खुल गई। चर्चा सुनने छोटी बड़ी गृहलक्ष्मियां किवाड़ों से आ चिपकीं। आन मुहल्लों से भी लोग आ पहुंचे थे। प्रकटत: सभी के वचन कुल की सहानुभूति व रमैनी भर्त्सना में पगे थे।

बस्ती में यह प्रसंग रोज़मर्रा कामों के साथ महीनों चलना है। सुबह दुहाऊ, चारे पानी, गोबर टहलपात के चुके हैं, एक तिकड़मी जाता है, दूसरा आता है। उसमें दिलचस्पी इतने तक होती है कि किस जाति ने मैदान मारा, कौन-कौन खेत रहीं। बाक़ी पटवारी, कलेक्टर, थानेदार, चोर डकैतों की सरकारें तो वही की वही होती हैं। फ़िलहाल अलाव से लेकर चूल्हे तक रमैनी छाया हुआ था।

गोंड़े में उजाले के लिए न चिमनी थी न दियाबाती। चढ़ते पखवारे की चौथ की चंद्रमा ज़रूर चीज़ों की पहचान उभारने लगा था। झिलंगी दीवार के सहारे खड़ी कर दी गई थी, उसी पर रमैनी की दरी झूल रही थी। हतरेटिया वाला मिट्टी का घड़ा मुंह पर स्टील की घंटी साधे जस का तस था। बजारू पाए व चौकोर पाटी वाली नए बान की खाट और बड़े के बिस्तर गोंड़े के बीचोंबीच रखे मिले।

रमैनी ने उसी खाट पर रामरती को बिठाकर बकसिया सम्हलाई और पहला काम यह किया कि घड़े को धो-धाकर हैंडपंप से पानी खींच लाया। दोनों प्राणियों ने हाथ पैर धो थकान छुड़ाई तो दुल्हन के स्वागत की जगह मिले अपमान का अवसाद फोड़कर भूख सिर उठाने लगी। भूख तो मौत के बीच भी अपने करतब से नहीं चूकती। रमैनी ने दूसरी फेरी लगाई और थोड़ी ही देर में अंगौछे में आटा और मिर्च के अचार सहित प्याज़ की दो गांठे बांध लाया। यूं प्याज़ उसके चौके की वर्जित वस्तु रही है, पर जब जाति में ही सेंध लग गई तो प्याज़ क्या कर लेगी।

बांट की भुरकनी वाली थरिया को धो पोंछ रामरती ने आटा गूंथा और अंगीठा सुलगाकर हाथ की अंगाकरी सेंक लीं फिर कुचरी हुई प्याज़ की गठिया का जो स्वाद रमैनी ने पाया वह भी पहला था। कहा जा सकता है कि दोनों सुख की नींद सोए।

रमैनी के दिन फिर गए।

ब्याह की धूल दबती जा रही थी कि फिर बवंडर सनसनाया, रमैनी की रमरतिया पेट से है। औरतें टोह में रहने लगीं। छाछ मांगने के बहाने लगातार आकर नाइन की पैनी निगाह ने नाप जोख की, हां रमैनी बाप बनने वाला है।

रमैनी परमानंद में फूला-फूला फिरता। लोग ठट्टा करते, पर उसे परवाह नहीं। कुटिल हँसी और अपमानजनक संबोधन वह होश संभालने के बाद से भोगता रहा है। बातें रामरती तक भी पहुंचती, वह कसमसा उठती फिर सिर झटक गर्भ सेने व गृहकाज में लग जाती। गोंड़ा की मड़ैया अब खपरैल में बदल चुकी थी। कच्ची घिनोंची पर पीतल का घड़ा व तम्हेंड़ी चमचमाती। चूल्हा ओटा चकाचक रहता। रामरती की चाय में पानी नहीं पड़ता, खालिस दूध की बनती है। रामरती कायदे से तिहाई दूध अपने लिए निकालकर शेष दुहना में यह तो तय हो गया कि रमैनी बाप बनेगा पर इसका सुआडोरा नहीं लग पा रहा था कि बीज किसका पड़ा। रात-बिरात न कोई गोंड़ा में घुसते निकलते देखा गया, न रामरती मायके गई। खेत खलिहान तक में रामरती को किसी से हँसते- बोलते न देखा गया था। वह तो जैसे सती- सावित्रियों के कान काटने पर तुली थी। 'फिर कैसे?' गाहेबगाहे यहां यही मरोड़ उठ जाती।

उस दिन हाथ में अल्यूमिनियम की देगजी लटकाए बंधावाली गोड़ा में पहुंची। रामरती ने रमैनी के मुंह सुन रखा था कि बंधावाली भौजी गांव की सबसे चतुर सुजान औरत है। रास्ते में आते-जाते रामरती से उनकी भेंट प्राय: होती किन्तु 'कैसी हो' 'अच्छी हूं' से बात आगे न बढ़ी थी। रामरती चूल्हे पर पोतनी माटी का पोता फेर रही थी। आहट पाकर वह रसोई की खपरैल से बाहर निकली और हाथ धोकर बैठने को पीढ़ा दिया। जिठानी के नाते पांय लागी की और देगजी उठा मठा भरने लगी।

'तू तो हमें जल्दी से जल्दी टरकाने पर तुली है देबरानी!' बंधावाली ने चासनी भरे बोल कहे।

'तुम्हारी चाय की बड़ी तारीफ़ सुनी है, हमें न पिलाओगी?

'घर तुम्हारा है जिज्जी! चाहे जो बनाओ खाओ!' रामरती ने आदर भरी छूट दी।

'तो यहां भी हमें चूल्हा फूंकना पड़ेगा?' लाड़ और गाढ़ा हुआ।

'नहीं, मेरा मतलब था कि हमारे हाथ का...'

'अरे देबरानी बनकर आधी बाम्हनी तो होई गई तुम। अब काये का छूतपात?' बंधावाली ने दूरी कम की।

'बैठो! अबै बनाए देते हैं।' रामरती चूल्हा सुलगाने खपरैल में घुस गई और चाय चढ़ाकर तश्तरी में गुड़ की डली तथा पानी का गिलास लेकर लौटी।

गुड़ की डली कुतरते हुए मुस्कान के साथ बंधावाली ने बताया कि, 'आज वह फुरसत में है। रोटी पानी करनी नहीं...दिन चल रहे हैं।'

रामरती भी मुस्करा दी।

'हां बहना सुना है कि महीना चढ़ गए हैं तुम्हारे?' बंधावाली ने कमंद फेंकी।

'तुम सबका आसीरबाद है जिज्जी!'

'सो तो राम की मौज है, पानी से पैदा करता है। हमें तो भारी खुसी भई कि रमैनी लला ठीक है गए। काये से कि ब्याह के आए हम तभी से सुनते रहे कि वे काम के नहीं। किसी-किसी के हाथ में जस होता है, तुम आईं तो वो भी मरद हो गए।'

रामरती उठकर चाय लेने चली गई। चाय की प्रशंसा करती बंधावाली ने फिर बात उकसाई, 'बहन बुरा न मानो तो कछू कहूं?'

'तुम कौन सी हिस्सा बांट की बात करोगी जिज्जी कि मुझे बुरा लगे।'

'अब कैसे कहें कि गांव में खुसुर पुसुर है कि...' बंधावाली ने डोर

'काये की खुसुर पुसुर?' रामरती ने अपना सतर्क होना ज़ाहिर न होने दिया।

'ले ओ! मैं भी कौन-सी बात ले बैठी? आग लगे इस मुंह को पर का करें। काऊ की निंदा चुगली अपन से सहन नईं होती। अरे बात है तो मुंह पै कहो। पीठ पीछे तो लोग बाईसराव को गाली दे लेते हैं। मैंने तो कहने वाली से कह दी। घर में दूध पूत से ही रौनक होती है। कैसे भी हो माना तो रमैनी लला का ही जावेगा। बीज कहीं का हो, पैदावार का मालिक खेतवाला ही होता है।'

रामरती एड़ी से चोटी तक लपलपा गई किंतु अपने को लगाम लगा उसने बात हँसी में टरकाई, 'ऐसा यहां चलन है का जिज्जी?'

चतुराई से अच्छे-अच्छों को चित्ता करने वाली जिज्जी इस ठेठ और भदेस प्रश्न से एकदम तो लड़खड़ा गई पर सम्हालकर माथा सिकोड़ती बोली, 'भले घरों में ऐसा नहीं होता। रैयत में भी ये घसड़-पसड़ नहीं चल पाता।'

'खेत बीज वाली कहावत कौन कारन बनी फिर?' रामरती का भोलापन शातिर हुआ। 'कहावत तो कहावत है बहू! जाने कहां से निकले और कहां तक पहुंचे।'

जीवन के उतार-चढ़ावों ने रामरती को भी कच्ची-पक्की पाटी पढ़ा दी है। यौवन की बाढ़ में बहुत दूर तक डूबते-उतराते उसने रमैनी का सहारा स्वीकार किया था, पर अब उसे चाहने लगी थी। वह प्यार की चतुर व्याख्या नहीं जानती है पर इतना मान चुकी है कि यह आदमी भरोसेमंद है। इस पर अपना कुछ भी निछावर किया जा सकता है। अपने के लिए दांव पर चढ़ना रमैनी ने प्रमाणित किया था। रामरती पीछे न रहकर ठीक बगल में खड़ी होना चाहती है।

गोंड़ा में बिछी शतरंज पर दो औरतें अपने कस बल तौलने लगीं। दांव बंधावाली मारती और रामरती बचने की कोशिश में कुछ हटती बढ़ती। धीरे-धीरे रामरती ने अनुभव किया कि हमला भी बचाव का तरीका हो सकता है। वह पहले दिन जेठ पर आजमा चुकी है। अंतर यही है कि तब पुरुष मुक़ाबले में था, अब नारी है।

'जिज्जी! अब यहां कौन बैठा है हमारा? तुम्हारा ही सहारा है। दुनिया का मुंह बंद कर सकती हो तुम चाहो तो। सच कह रही हूं, तुमसे...वो पहले कैसे भी रहे हों, अब नहींन हैं।' रामरती विनय से बंधावाली के सामने झुक गई। बंधावाली जैसी तेज़ औरत भी न भांप पाई कि सामने वाली का नबना झुकना, धनुष से तीर छूटने अथवा बिल्ली के छलांग लगाने से पहले जैसा है।

'तुम्हारा कहना सही भी हो तो मानेगा कौन? तुम्हारे पेट में तो जान है सो लोग तुम्हारी बात पाप छिपाने का बहाना मानेंगे। दुनिया को तो सबूत देना पड़ेगा। देखो बुरा न लगे खरी बात कड़वी भी होती है।'

'बुरा काये लगेगा। एक तुम्हीं तो निकलीं जिन्ने हमारी आस औलाद की चिंता करी।तुम्हें छोड़ कौन की छांह पकड़ें? इतना तो हमें भरोसा है कि तिहारा कहा गांव में पत्थर की लकीर है।'

अपनी प्रशंसा और साख पर बंधावाली का गर्वित होना स्वाभाविक था, बोली, 'सो तो दुनिया जानें कि हम कभू झूठ न बोलें।'

'ताई से भगवान की किरपा हम पै भई। तुमने वे समरथ बता दिए तो कौन की मजाल कि आड़ी लकीर फेरे?' चिरौरी करती रामरती ने बंधावाली के पैर पकड़ लिए। बंधावाली पैर सिकोड़ने लगी, 'पर बहना हम झूठ बोले नहीं। मसल मसहूर है कि कानों सुनी झूठ, आंखन देखी सच्ची।'

रामरती ने पैर और भी कस लिए, 'तुम हो पांच बेटे बेटियों की महतारी। जेठ जी दूजिहा और चढ़ी उमर के भले रहे हों, तुमने देने में कसर न छोड़ी। तभी न सब जगह सास सी इज्जत पाती हो। झूठ बोलूं तो कोढ़िन होऊं पर कहे बिना नहीं रहा जाता कि जेठ जी संग साथ निभाएं तो अभी भी...' रामरती शरमाई, 'अब वो सब कहना तो मुझे सोभा नहीं देता पर हम अठाईस की हैं तो तुम पैंतीस से ऊपर नहीं लगतीं। अब जेठजी से कौन कहे कि अबै से माला न पकरो मुदा तुमसे कही जाए सकती है कि भलेंई लरिका लरिकिनीं ब्याह जोग है गए पर हमसे अबै ऊ सुन्दर हो।' रामरती ने कान तक कमान खींचकर तीर छोड़ दिया।

बंधावाली के मुखमंडल पर कोई बदली सी घिरी, 'तू कहना का चाहती है?'

'का कहूं तुम भौजाई वे देवर। तुम न हेरोगी तो और को हेरेगा। भौजाई मां बरोबर होती है। हमारे यहां तो देवर के संग पुर्नब्याह भी हो जाता है भौजाई का। मैं तुम्हें सबूत दे दूंगी।'

'पर कैसे?' बंधावाली को गोरखधंधा समझ न आया।

'नंगा कर लेना उन्हें। मैं उनसे कह भी दूंगी और द्वार पर बैठ के चौकीदारी भी करूंगी। चुखरा भी भीतर न घुस पाएगा।'

बंधावाली सन्न रह गई। 'का बकती है तें? ऐसी-वैसी समझ रखा है मुझे! अपनी सी समझती है सबको?' रामरती की आंखों से आंसू चूने लगे। गोंड़ों से लिपटी, हिचकियां लेती वह कहे जा रही थी।

'जिज्जी! मेरे ऊपर दया करो। मरते मर जाऊंगी पर सांस न दूंगी काऊ को। बस अपने देबर का कलंक पोंछ दो। तुम्हारा हक़ इस घर पै सदा बना रहेगा। बचन से मुकरूं तो गर्दन रेत देना मेरी।'

बंधावाली को पसीने छूट गए। कांपती सी वह खड़ी हुई। रामरती ने क्षोभ भरी बंधावाली के हाथ में छाछ का बर्तन पकड़ा दिया।

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