चन्द अख़बारी घटनाएँ (कहानी) : श्रीलाल शुक्ल

Chand Akhbari Ghatnayen (Hindi Story) : Shrilal Shukla

मुख्यमन्त्री का हेलीकॉप्टर शहर की इमारतों को बौना बनाता हुआ जब काफ़ी ऊँचाई पर पहुंच गया तब उन्होंने लम्बी साँस ली और जिस्म को ढीला छोड़ दिया; आँखें मूँद लीं। फिर आँखें खोलीं और सिर घुमाकर बाएँ से दाएँ और दाएँ से बाएँ केबिन का मुआयना किया।

उनके सहयात्रियों की चार जोड़ी आँखें उन्हें विनम्र व्यग्रता से देख रही थीं। पड़ोस की सीट से गर्दन बढ़ाकर राजस्व मन्त्री ने धीरे से पूछा, ‘‘कैसा महसूस कर रहे हैं?’’

‘‘हमेशा की तरह! बहुत अच्छा!’’

वे शहर छोड़कर हरे-भरे उपान्तों के ऊपर से गुज़र रहे थे और वहाँ की खुशगवार हवाओं का, उनका केबिन में प्रवेश न होने के बावजूद, भीतर ही भीतर अनुभव कर रहे थे। उन्होंने ‘बहुत अच्छा’ कहा था पर उन्हें उससे भी ज्यादा अच्छा लग रहा था।

हेलीकॉप्टर ने घुमाव के साथ अपनी दिशा बदली। अन्तरिक्ष में नीला आकाश और शरत्काल के आरम्भ की धुली-पुछी धूप थी। नीचे घनी हरियाली की कई छवियाँ—कहीं पीलापन लिये, कहीं हल्की, कहीं गहरी हरी, या काली। यह आम के बागों का अटूट विस्तार था जिससे इस समृद्ध इलाके की पहचान बनती थी। इसके ऊपर से गुज़रना मुख्यमन्त्री के लिए हमेशा एक स्फूर्तिदायक अनुभव होता था जिसमें मालिक न होते हुए भी एक मालिकाना हैसियत का अहसास शामिल था! उन्होंने चैन की गहरी साँस ली, सीट बैल्ट टटोली और अपना सर खिड़की के और नज़दीक़ ले आए।

तीन घंटे पहले की घटना की चुभन अब ख़त्म हो रही थी।

केबिन में उनके अलावा चार लोग थे—कृषि मन्त्री, राजस्व मन्त्री, राहत कमिश्नर और सुरक्षा शाखा के पुलिस महानिरीक्षक, जो उनके चहेते अफ़सरों में थे। वे सभी ख़ामोश थे। ख़ामोश मुख्यमन्त्री भी थे पर उनकी आँखें मुखर थीं। वे जब कृषि मन्त्री के चेहरे पर आकर टिकी तो उनके लिए कुछ कहना ज़रूरी हो गया। उन्होंने कहा, ‘‘मेरा मन इसे सिर्फ़ संयोग या दुर्घटना भर मानने के लिए तैयार नहीं है। इसकी जाँच होनी चाहिए।’’

‘‘जाँच कौन करेगा?’’

‘‘सी.बी.आई.।’’

‘‘और अभी-अभी प्रेसवालों से मैं जो कहकर आ रहा हूँ उसका क्या होगा?’’

मुख्यमन्त्री ने प्रेस कान्फ्रेंस में कहा था, ‘‘यह न कहिए कि आज की महासभा में हम पर पंडाल टूटकर गिरा। आनेवाले चुनाव में भगवान जनता के सारे वोट हमें छप्पर फाड़कर देने जा रहा है। यह उसी का इशारा है।’’

कृषि मन्त्री सोचते रहे, सोचकर बोले, ‘‘तब फिर अपनी ही सी. आई. डी.। उससे खूफ़िया जाँच कराइए। जाँच तो होनी ही चाहिए।’’

‘‘वे अपनी महारैली में हमें बुलाते हैं। हमारे पक्ष में नारे लगाते हैं। मेरा सार्वजनिक अभिनन्दन करते हैं। हमारे हाथ मज़बूत करने की घोषणा करते हैं। और तभी यह घटना घटती है। पंडाल का एक हिस्सा अचानक गिर जाता है। अफ़रा-तफ़री मचेगी ही। पर कोई घायल जैसा घायल नहीं होता। अगर इतनी-सी बात पर हम जाँच बैठा दें तो उन्हें ऐसा न लगेगा कि हम उन्हें विश्वासघाती या षड्यन्त्रकारी समझ रहे हैं?’’

‘‘सर, मैंने कहा, खूफ़िया जाँच।’’

‘‘आजकल कुछ भी खुफिया नहीं है,’’ राजस्व मन्त्री ने कहा।

राहत कमिश्नर खिड़की के बाहर देखने लगा। यह सब उसके सुनने कि लिए नहीं था।

कृषि मन्त्री अडिग थे, बोले, ‘‘किसी ने किसी की साज़िश ज़रूर है। पंडाल का आधा हिस्सा अचानक नीचे बैठ गया, वह भी मंच की ओर से। ऐसा अपने आप कैसे हो सकता है? ऐसा कभी हुआ है?’’

‘‘कभी नहीं।’’ सिर्फ इन दो शब्दों से पुलिस महानिरीक्षक ने कृषिमन्त्री के सुझाव की ताईद की।

मुख्यमन्त्री ने दृढ़ता से कहा, ‘‘हमारी ओर से किसी जाँच की ज़रूरत नहीं। जिनकी सभा थी, जिनका पंडाल टूटकर गिरा, वे खुद जाँच की बात करें तो और बात है।’’

कृषि मन्त्री ने कहा, ‘‘वह भी हो जाएगा। उनके प्रतिनिधि कल ही आपसे मिलेंगे।’’

कुछ पल ख़ामोशी। धूप की चमक फीकी पड़ गई थी। मुख्यमन्त्री ने कहा, ‘‘बादल आ रहे हैं।’’

वे दोपहर की महारैली के बारे में सोच रहे थे।

विधानसभा के चुनाव नज़दीक आ रहे थे। इस कारण राजधानी में आजकल विभिन्न जातियों, उपजातियों आदि की रैलियाँ हर तीसरे-चौथे दिन होती ही रहती थीं। ऐसी ही यह भी एक रैली थी—प्रजापति-समाज की।

इन रैलियों को बढ़ावा देकर सत्तरूढ़ पार्टी अलग-अलग जातियों में अपने वोट पक्के कर रही थी। सभी रैलियों का तरीक़ा और ‘एजेंडा’ लगभग एक-सा था। हर रैली में जाति-विशेष शताब्दियों से चले आ रहे अपने शोषण के ख़िलाफ़ आवाज उठाती, ‘‘हम अब जाग गए हैं’’ की घोषणा करती, इतिहास और मिथक की अँधेरी खोहों से खींचकर अपने महानायकों, शहीदों, सन्तों को बाहर ले आती, उनके स्मारक बनवाने, प्रतिमाएँ लगाने के प्रस्ताव रखती और उनके जन्मदिन पर सार्वजनिक अवकाश की माँग करती। ये सभी आकाँक्षाएँ वाजिब थीं, गलत यही था कि उनका ग़ैरवाजिब इस्तेमाल होने जा रहा था।

हर रैली का एक अनिवार्य कार्यक्रम था—मुख्यमन्त्री को बुलाकर मंच पर उनका सार्वजनिक सम्मान।

यह सम्मान प्रायः इस प्रकार होता—शंख, घंटा, घड़ियाल, तुरही, डफ आदि लोकवाद्यों के साथ और ‘ज़िन्दाबाद, ज़िन्दाबाद’ के नारों के बीच मुख्यमन्त्री का स्वागत; उनके सर पर सोने या चाँदी का मुकुट रखा जाना या उनके अभाव में सर पर एक बड़ा सा पग्गड़ बाँध देना, उनके हाथ में तलवार या गदा पकड़ा देना, उनकी स्तुति में भाषण देना फिर उनका भाषण सुनना।

मुख्यमन्त्री अपने भाषण में उस जाति की ऐतिहासिक गौरव-गाथा सुनाते, उसके किसी महानायक के नाप पर किसी खंडहर, टीले या तालाब को स्मारक में बदलने का वादा करते हुए, कुछ चौराहों और पार्कों को उनकी प्रतिमा की स्थापना के लिए नामज़द करते, इस सबके लिए कई लाख (और आजकल कई करोड़) रुपए की सहायता का ऐलान करते, फिर चुनाव जीतने के बाद उस जाति की रही-सही समस्याओं को सुलझाने का वादा करते हुए मुकुट, पग्गड़, गदा, तलवार, तीर-कमान-जो भी मिला हो—उसे बटोरकर चलते बनते।

आज की सभा में उनके सिर पर सिर्फ़ पग्गड़ बाँधा गया, एक गदा पकड़ाई गई और प्रजापति समाज के पुराने पेशे के अनुरूप उन्हें एक कलापूर्ण सुराही भेंट की गई। अपने भाषण में उन्होंने प्रजापति-समाज की लगभग सारी समस्याएँ तुर्त-फुर्त निबटा दीं। अच्छे बर्तन बनाने के लिए अच्छी मिट्टी की ज़रूरत है और उसे पूरी करने के लिए, उन्होंने दाएँ हाथ को हथौड़े की तरह ऊपर-नीचे करते हुए बताया कि, आज और किसी वक्त से प्रत्येक प्रजापति को उम्दा मिट्टी की सप्लाई करने का काम ज़िला मजिस्ट्रेट का होगा और इस बारे में बहुत सख़्त आदेश आज तीन बजे तक जारी कर दिए जाएँगे।

तभी उनके ऊपर का पंडाल एक ओर से गिरना शुरू हुआ। एक हिस्सा उनके कन्धे पर भी गिरा। पर गनीमत थी, उन्हें तुरन्त बाहर खींल लिया गया। जो पंडाल की चपेट में आ गए थे, वे भी कुल मिलाकर बचे ही जैसे थे।

सच तो यह है कि आज का दिन सवेरे से ही मनहूस था। ग्यारह बजे तक उन्होंने जनता दरबार किया था; यानी अपने बँगले की लॉन पर फ़रियादियों के बीच, बिना घंटा के शहँशाह जहाँगीर की भूमिका निभाई थी। फ़रियादियों में एक पुराना स्वतन्त्रता-सेनानी निकल आया था। उसने अधपगले अन्दाज़ में उन्हें दर्जनों असंसदीय गालियाँ सुनाई थीं और बार-बार उन्हें ‘ढपोरशंख) कहा था। “इन्हें उधर ले जाकर नाश्ता-पानी कराइए; ये हमारे बुजुर्ग हैं, हमें इनका सम्मान करना चाहिए," उन्होंने कहा ज़रूर था पर उन्हें अपनी जवानी में तेज़-तर्रार नेता की हैसियत से जूतम-पैज़ार की वे कई घटनाएँ याद आ गई थीं जिनमें उनकी ज़्यादातर नायक की भूमिका रहती थी। उनका मन खट्टा हो गया था।

उसके बाद दूसरी मनहूस घटना वही थी जिसे उन्होंने पत्रकारों के सामने 'छप्पर फाड़ के' मुहावरे से निपटा दिया था।

अब वे शहर से दो सौ किलोमीटर दर आ गए थे और अपने को मुक्त महसूस कर रहे थे। हेलीकॉप्टर के भीतर धरती को पाँवों के नीचे और आकाश को अपने सिर से बालिश्त भर ऊपर समझने का अहसास उन्हें सन्तोष दे रहा था। धूप फिर से चमकने लगी थी और यह जानते हुए भी कि वे यह यात्रा एक भयानक बाढ़ की तबाही का दृश्य देखने के लिए कर रहे हैं उनके मन में व्यग्रता न थी। वह दृश्य कुछ मिनटों में ही उनके सामने खुलनेवाला था।

राहत कमिश्नर ने कहा : “सर...इधर...बाईं ओर...पानी का वह फैलाव...नदी का दायाँ किनारा...पर...कुछ पता नहीं...किनारे मिट गए हैं...अब हम नदी के ऊपर हैं...उधर...बदतर हालत...चौबीस-पच्चीस गाँव सभी कुछ तबाह है...चालीस मौतें..."

ऐसे ही कुछ शब्द थे जो उनके कानों से टकरा रहे थे, टूटकर गिर रहे थे। वास्तव में उनकी आँखें, कान, मन चेतना के सारे उपादान एक अकेली संवेदना में समाहित होकर उस दृश्य में डूब गए थे जो उनके सामने फैला हुआ था।

पहली नज़र में उनको खिड़की के बाहर पानी का फैलाव भर दीख पड़ा जो अपनी निस्पन्दता में किसी सम्भावित विनाश की खामोशी छिपाए हए था। पर उन्हें समझने में देर नहीं लगी कि पानी निस्पन्द नहीं है, उसमें भयानक गति है जिसका अन्दाज़ा धारा में डूबती-उतराती और तेज़ी से बही जाती हुई सैकड़ों बेमेल चीज़ों को देखकर किया जा सकता था-सूखे लक्कड़, पेड़ों की झिंझोरी हुई छिन्न शाखाएँ, घास-फूस, छप्पर-छानी, उन पर बैठी चिड़िया, कुछ बिलबिलाते हुए कीड़े (जो साँप रहे होंगे), जानवरों की लाशें और न जाने क्या-क्या ! ये सब तेज़ी से चलती रील की तस्वीरों की तरह एक छोर से बहती हुई आती थीं और देखते-देखते दूसरे छोर में विलीन हो जाती थीं। पानी के इस पूरे पाशविक फैलाव में गाँव नहीं दिख रहे थे। पर नदी के जलमग्न किनारों पर बहुत दूर घास-फूस की फुनगियाँ, अधडूबे पेड़ और चिड़ियों के झुंड देखे जा सकते थे। क्षितिज में पेड़ों की स्याह मौजूदगी थी जो यहाँ से एक क़तार में दिख रहे थे, पर वे बहुत दूर थे-इतनी दूर कि लगता था, क्षितिज की ही तरह उन्हें भी कभी छुआ नहीं जा सकेगा।

अचानक नदी के ऊपर से गुज़रते ही कुछ आगे चलकर उन्होंने प्रवाहहीन पानी में खड़ा हुआ पेड़ों का एक झुरमुट देखा। वहीं पास कच्ची दीवारों के कुछ गलते-ढहते अवशेष दीख पड़े। ये झोंपड़ियाँ रही होंगी। वहाँ पानी की सतह पर प्लास्टिक की एक टुटही बाल्टी हवा के साथ दाएं-बाएँ डोल रही थी। उन्होंने पूछना चाहा कि झोंपड़ियों में रहनेवाले कहाँ गए होंगे। पर इसका उत्तर उन्हें पहले ही मिल गया।

पेड़ों के तने से लगता था कि वे चार-पाँच हाथ गहरे पानी में डूबे हैं। उनकी डालों पर उन्हें कुछ हरकत जान पड़ी और ऊपर की टहनियों पर उन्हें कुछ लोग हाथ हिलाते और चीखते दीख पड़े। पायलट से कहकर उन्होंने झुरमुट की तीन-चार बार परिक्रमा की और कहा, “आप लोगों ने देखा ? पेड़ों पर कई परिवार टँगे हुए हैं, औरतें हैं, बच्चे हैं।"

राजस्व मन्त्री ने कहा, “जी हाँ, बाढ़ के यही तो संकट हैं। जान बचाने के लिए पेड़ों पर अटके रहना पड़ता है।"

“पूछना होगा, इन्हें यहाँ से अब तक निकाला क्यों नहीं गया।"

“सेना की कोई-न-कोई नाव इनकी रक्षा के लिए आ ही रही होगी। फिर भी, नीचे उतरते ही देखेंगे।"

"खाने-पीने का क्या हो रहा होगा ?" "हेलीकॉप्टर से खाने के पैकेट दो दिन से गिराए जा रहे हैं।" "इनका पेड़ों पर टँगे रहना बहुत ख़तरनाक है।"

सुरक्षा अधिकारी ने कहा, “बहुत ! बाढ़ में बहकर साँप भी आ जाते हैं और पेड़ों की शरण लेते हैं।"

राजस्व मन्त्री ने उसे घूरकर देखा, जैसे उनकी बदइन्तजामी की आलोचना हो रही हो, कहा, "उनसे तो आप ही निपट सकते हैं। यह हुनर मेरे महकमे में नहीं है।"

"फिर भी..." मुख्यमन्त्री बोले।

“पन्द्रह मिनट में हम कलेक्टरेट में होंगे। पहुँचते ही इन लोगों के बारे में देख लिया जाएगा।"

वे बारह मिनट बाद कलेक्टरेट के अहाते में उतरे। पड़ोस के मैदान में एक विशाल जनसभा उन लोगों का इन्तज़ार कर रही थी। हेलीकॉप्टर को देखते ही लोग इधर की ओर झपटे पर पुलिस की मुस्तैदी से वहीं रोक लिए गए। मुख्यमन्त्री को पहले कलेक्टरेट में बैठकर जननायकों और अफ़सरों की बैठक में बाढ़ की दशा और राहत कार्य की पड़ताल करनी थी और उसके बाद जनसभा में भाषण देता था। उन्होंने, स्थानीय तथ्यों की नवीनतम जानकारी की जगह अपनी कल्पना और भाषण-कला पर ज़्यादा भरोसा करते हुए इसे बदल दिया; बोले, “सबसे पहले मुझे जनता से मुखातिब होना है।"

वे तेज़ी से मैदान की ओर बढ़े। कृषिमन्त्री ने कहा, “रास्ते में जो परिवार पेड़ों पर टंगे दिखे थे...।"

राजस्व मन्त्री ने कहा, "कलेक्टर से कह दिया है। सेना की मोटर वोट उन्हें लेने जा रही है।"

कृषि मन्त्री बोले, “ऐसे सैकड़ों परिवार होंगे।"

राजस्व मन्त्री ने कहा, “सैकड़ों नहीं, हज़ारों। जो तबाही हुई है उसे घटाकर नहीं देखना है।"

“ठीक बात !" कृषि मन्त्री ने कहा और दूसरी ओर देखने लगे।

पैंतीस मिनट में ही मुख्यमन्त्री के भाषण ने प्रशासन की विजयपताका हर चीज़ पर फहरा दी-उस क्षेत्र में शताब्दी की सबसे भयंकर बाढ़ पर, हज़ारों एकड़ फसल की बरबादी पर, अनगिनत इंसानों और जानवरों की मौत पर, सैकड़ों बस्तियों की तबाही पर, विपक्षियों की आलोचना और बाढ़-पीड़ितों के प्रदर्शनों पर ! हमेशा की तरह उनके भाषण ने ऐसा चमत्कार किया कि लगा कि जनसभा में सभी के पेट दुर्लभ व्यंजनों से भर गए हैं, सभी के जिस्म पर साफ़-सुथरे नए कपड़े आ गए हैं, सभी के मन में स्फूर्ति और आनन्द की हिलोरें उठ रही हैं, और वे सभी जादू के गलीचों पर बैठे हुए आकाश मार्ग से उन महलों की ओर जा रहे हैं जो ध्वस्त झोंपड़ों की जगह अभी-अभी बनकर तैयार हए हैं। पगलायी भीड़, 'जिन्दाबाद जिन्दाबाद' के नारे लगाती रही और जान नहीं पाई कि मुख्यमन्त्री कब जननायकों और अफ़सरों की दरवाज़ा बन्द बैठक में पहुंच गए।

उनका पहला वाक्य था, “सार्वजनिक सभा में मैंने अभी-अभी जो घोषणाएँ की हैं उन्हें आप सबने सुना है न ?"

राहत कमिश्नर और कलेक्टर ने एक साथ अपनी-अपनी जेब से नोटबुक निकाली। उन्होंने राहत कमिश्नर को पढ़ने का इशारा किया। राहत और विकास के अनेक वादों के बीच पढ़ते-पढ़ते वह एक जगह ठिठका; उन्होंने कहा, “पढ़िए, पढ़िए।"

"बाढ़ राहत के लिए छह करोड़ रुपए की पहली किस्त..." वह झिझका; उसने कलेक्टर की ओर लाचारी से देखा। कलेक्टर ने सबको सुनाकर कहा, "या छब्बीस करोड़ ?"

मुख्यमन्त्री ने कहा, “यह कैसा घपला है ? मैंने छब्बीस करोड़ की घोषणा की है। आपने क्या दर्ज किया है ? छह करोड़ ?"

उसने कहा, "मैं शोर में ठीक से सुन नहीं पाया था। इसीलिए...।"

राजस्व मन्त्री ने अपने अफ़सर को सहारा दिया, "इनको भ्रम हो गया होगा। पहले छह करोड़ की ही बात उठी थी।"

मुख्यमन्त्री ने स्थानीय विधायक की ओर देखते हए कहा, "जानता हूँ। पर वह फ़ैसला राजधानी के वातानुकूलित कमरे का था, यह फैसला इस इलाके की तबाही को देखकर यहीं पर अब, अभी लिया गया है। छब्बीस करोड़ रुपए अभी, बाक़ी ज़रूरत के मुताबिक़ बाद में !"

मीटिंग कारोबारी ढंग से बन्द कमरे में हो रही थी, फिर भी तीन विधायकों ने तालियाँ बजाईं।

राहत कमिश्नर आगे बढ़े, “मिलसा बाँध की मरम्मत के लिए पचहत्तर लाख रुपए की तत्काल मंजूरी !"

मुख्यमन्त्री ने कलेक्टर से कहा, "हाँ ! मिलसा बाँध ! अभी किसी ने कहा कि उसकी मरम्मत का काम चौबीसों घंटें चल रहा है।"

“जी सर !" "चौबीसों घंटे ? राउंड द क्लॉक ?"

“यस सर !” अब मुख्य अभियन्ता ने जवाब दिया। यह भी कहा कि बाँध जहाँ टूटा है वहाँ अभी बालू की बोरियाँ डाली जा रही हैं; सैकड़ों पहले ही डाली जा चुकी हैं। स्थायी मरम्मत पानी का स्तर घटने पर शुरू होगी।"

मुख्यमन्त्री ने घड़ी पर नज़र डाली, कहा, “चलिए, आपका बाँध भी देख लिया जाए। मीटिंग दस मिनट में खत्म होनी चाहिए।"

सूरज डूबने में एक घंटे से कम रह गया था।

मुख्य अभियन्ता ने कहा, “बाँध की सड़क बहुत खराब हो गई है...।"

“आप कैसे जाते हैं ?"

“जी, मैं जैसे-तैसे जीप से जाया करता हूँ।"

"चलिए, मैं भी जैसे-तैसे जीप से चलूँगा," उन्होंने सबको सुनाकर कहा, “सबके चलने की ज़रूरत नहीं। ज़्यादा से ज़्यादा दो जीपें...।"

उनकी जीप बीच में थी, आगे कुछ अधिकारियों की, पीछे सुरक्षा गार्ड की-जिसे मिलाकर तीन हो गई थीं। साढ़े चार किलोमीटर का रास्ता बहुत धीरे-धीरे कट रहा था।

बाँध की जर्जर सड़क पर गड्ढों और खतरनाक कटानों को बचाते हुए जीप सावधानी से बढ़ रही थी। जवान कलेक्टर ने खुद ड्राइवर का काम सँभाल लिया था। वे कुछ देर उसकी कशलता को खामोशी से देखते रहे; बोले, “आपको अपनी समस्या चीफ़ सेक्रेटरी से कहनी थी, या सीधे मुझसे। प्रधानमन्त्री कार्यालय को बीच में लाने की क्या जरूरत थी ?"

"माफ़ी चाहता हूँ सर ! पर यह गलती मेरी पत्नी की थी। मेरी जानकारी के बिना ही उसने दिल्ली में...।"

मुख्यमन्त्री जानते थे कि उसकी पत्नी दिल्ली में डेल्ही पब्लिक स्कूल की किसी शाखा में पढ़ाती है, होनहार है और सोसायटी में एक चित्रकार के रूप में मशहूर हो रही है; उसकी कुछ राजनीतिक महत्त्वाकांक्षाएँ भी हैं। अपने पति को दिल्ली में ही केन्द्रीय सरकार के किसी पद पर देखने के लिए वह काफ़ी अरसे से आतुर थी। अब वह उसका दिल्ली तबादला कराने में सफल हो चुकी थी, कलेक्टर के तबादले का हुक्म हो चुका था।

मुख्यमन्त्री ने कहा, “आप इस सप्ताह के अन्त तक यहाँ चार्ज दे सकते हैं।"

कलेक्टर चुपचाप जीप चलाता रहा, बज़ाहिर उसका ध्यान सड़क के बीच में बाँध के धसकने से बने हुए एक गड्ढे पर था। उसे किनारा देकर जब कुछ दूरी तक रास्ता ठीक जान पड़ा उसने कहा, “सर, मैं दिल्ली जाना चाहता हूँ, इसमें शक नहीं। पर अपने इस जिले को जहाँ मैंने ढाई साल सेवा की है-इस हालत में कैसे छोड़ सकता हूँ ? जब तक बाढ़ से लोगों की सुरक्षा और राहत का अभियान पूरा नहीं होता, मैं यहीं रहना चाहूँगा। वैसे, आपका जो भी आदेश हो।"

जीप में पीछे बैठे राहत कमिश्नर और सरक्षा महानिरीक्षक ने एक साथ आँख उठाकर एक-दूसरे को देखा और मुस्कुराए। दोनों की आँखों के सामने छब्बीस के बाद सात शून्यों का एक सुनहरा आँकड़ा एक साथ चमक उठा था। दोनों जानते थे कि जब से जनसभा में मुख्यमन्त्री ने राहत की पहली किस्त की घोषणा की है, तभी से यह आँकड़ा कभी इन्द्रधनुष की बहुरंगी छटाएँ लेकर, कभी ठोस सोने की चरम दीप्ति के साथ कलेक्टर के आँखों के आगे निरन्तर झिलमिला रहा है। जनसेवा का तकाज़ा उसे अब यहाँ कई महीने रोके रखेगा, भले ही दिल्ली का तबादला निरस्त हो जाए।

मुख्यमन्त्री ने कहा, “ठीक है।"

फिर ख़ामोशी। बाढ़ के आतंक को वे अब पहली बार इतनी नज़दीकी से देख रहे थे, हेलीकॉप्टर की ऊँचाई से नहीं, अपने दाएँ-बाएँ फैले हुए जल-विस्तार की पीठ पर चलते हुए।

कुछ दूर चलकर कलेक्टर ने वहाँ की प्राकृतिक स्थिति और भूगोल पर कछ कहना चाहा, पर उसने महसस किया कि मख्यमन्त्री असामान्य रूप से ख़ामोश हैं; वह चुप हो गया। बाईं ओर काफ़ी दूरी पर नदी की धारा में दो मोटरबोट दीख पड़ीं, उनकी हल्की थर्राहट बाँध तक गूंज रही थी, कलेक्टर ने मुख्यमन्त्री का ध्यान उनकी ओर खींचना चाहा, पर मुख्यमन्त्री जिस तन्मयता से अपनी बाईं ओर पानी की ठंडी विभीषिका को देख रहे थे, उसे तोड़ने की वह हिम्मत नहीं जुटा पाया।

लगता था कि कोसों लम्बा कोई प्रागैतिहासिक जन्तु है जो पूरी तौर से पानी में डूबा हुआ है, सिर्फ़ उसकी खुरदरी पूँछ पानी के ऊपर है और वह बाँध की कटी-पिटी सड़क है। यह पूँछ किसी भी क्षण ऊपर उठ सकती है, दाएँ-बाएँ हिल सकती है, अचानक पानी में गम हो सकती है।

आगे बाँध अचानक कुछ चौड़ा हो गया था, शायद यहाँ गाड़ियाँ खड़ी करने और उन्हें मोड़ने की जगह निकाली गई थी। वहाँ एक किनारे कछ शोभाकारी वक्ष लगाए गए थे जिनकी मोटी टहनियाँ और तने भर बचे थे; बाकी का सबकुछ बारिश और हवा के थपेड़ों ने छीन लिया था। यहीं से लगभग सौ मीटर की दूरी पर बाँध में पहले दरार आई थी, बाद में उसी से लगभग तीन मीटर चौड़ी धारा फूट निकली थी। वह और भी चौड़ी हो सकती थी, पर ‘राउंड द क्लॉक' मेहनत से उसे वहीं रोक लिया गया था।

बिना कुछ बोले हुए मुख्यमन्त्री वहाँ से टूटे हुए बाँध की ओर धीरे-धीरे चले। चार-पाँच लोग उनके पीछे थे। मुख्य अभियन्ता के 'राउंड द क्लॉक' हो रही मरम्मत के दावे का पर्दाफ़ाश हो गया था। वे और कलेक्टर सबसे पीछे थे। बाँध की यह सड़क उस क्षेत्र के लिए जीवनरेखा जैसी थीं। फिर भी, मुख्यमन्त्री ने देख लिया था, पहले वहाँ जो भी हुआ हो, इस वक़्त मरम्मत का कोई काम नहीं हो रहा था। वास्तव में बाँध के टूटने के पहले और टूटने तक पानी को बालू की बोरियों से रोकने के लिए बड़ी मेहनत से काम किया गया था पर अब, जबकि दोनों ओर पानी का स्तर लगभग बराबर हो गया था और नदी की ओर से दूसरी ओर पानी का बहाव बन्द हो गया था, मरम्मत का काम रुक गया था; जलस्तर घटने का इन्तज़ार हो रहा था।

मुख्यमन्त्री टूटे हुए बाँध के किनारे चुपचाप खड़े हो गए। सामने सीमाहीन जल का विस्तार था जिसे बाँध का अगला हिस्सा कुछ दूर तक विभाजित करता चला गया था। उनके दाएँ-बाएँ एक ओर दूर क्षितिज में वृक्षों की स्याह धुंधली कतार और दूसरी ओर सूर्यास्त के काले-लाल बादल पानी के फैलाव की प्रत्यक्ष निस्सीमता को छेक रहे थे।

मुख्य अभियन्ता और कलेक्टर उनके पास पहुँचकर उनके क्रोध के विस्फोट और सज़ा के ऐलान का इन्तज़ार करते रहे। कुछ हिम्मत करके मुख्य अभियन्ता ने बाँध की मरम्मत को लेकर अपनी सफ़ाई में मुँह खोला, कहा, “सर...।"

मुख्यमन्त्री ने हाथ के इशारे से उसे चुप करा दिया, हाथ के इशारे से ही उसे हट जाने को कहा, उसके दर चले जाने पर कलेक्टर भी वहाँ से पीछे हट गया। उनकी मंशा समझकर और लोग भी पीछे हट आए। बाढ़ का यह वीरान, अवसादभरा दृश्य देखने के लिए वहाँ वे अकेले रह गए।

अब सवेरे का जनता दरबार भी उनसे पीछे छूट गया, पंडाल-ध्वंस पर, 'छप्पर फाड़ के' मुहावरेवाली सूक्ति भी, एक घंटा पहले हुई जनसभा की घोषणाएँ भी, लापरवाह अफ़सरों को दंडित करने की इच्छा भी-इन क्षणों में न जाने कितना कुछ पीछे छूट गया। साथ ही, आधी सदी पहले एक निर्धन, बदहाल गाँव की धूल-भरी गली में जो कुछ अपना पीछे छोड़कर वे बाहरी दुनिया में आए थे, उसकी धुंधली अस्थिर छाया सामने पानी पर मँडराती-सी जान पड़ी।

पता नहीं वे कितनी देर अकेले खड़े रहे। सूरज डूब चुका था पर अँधेरा होने में अभी देर थी। राजस्व मन्त्री ने बेआवाज़ कदमों से धीरे-धीरे उनके पास पहुँचकर कहा, “वापस चलें, सर।"

वे एक पल राजस्व मन्त्री को अजनबी निगाहों से देखते रहे, बोले, "कहाँ ?"

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