चालीस भाइयों की पहाड़ी : कश्मीरी लोक-कथा

Chalis Bhaiyon Ki Pahadi : Lok-Katha (Kashmir)

कई साल पहले कश्मीर की ऊँची पहाड़ियों में एक धनी किसान रहता था, जिसका नाम द्रूस था। हालाँकि उसके पास बहुत सारी भेड़ें और मवेशी थे, लेकिन वह और उसकी पत्नी दोनों दु:खी थे, क्योंकि उनके विवाह के बाद से बच्चे नहीं हुए थे। उनकी प्रार्थनाएँ, संतों, पीरों और साधुओं की प्रार्थनाएँ भी बेकार चली गई थीं, उनका कोई परिणाम नहीं निकला था। एक दिन सफर से थका हुआ एक पीर गाँव में से होकर गुजरा। वह श्रीनगर में बागों और मेवे के उद्यानों के बीच आराम करने के रास्ते में था।

जब वह द्रूस के टेंट के पास से गुजर रहा था, पीर ने आवाज लगाई, 'अल्लाह के नाम पर अपनी खैरात मुझे दे दो। मेरे पास न तो गोश्त है और न ही रोटी का टुकड़ा है।'

लेकिन द्रूस ने जवाब दिया, “मैं अपनी जिंदगी के हर दिन दयालु रहा हूँ; लेकिन अभी तक मुझे एक बेटे का वरदान नहीं मिला है, इसलिए मैं तुम्हें कुछ भी नहीं दूँगा।'
“जिसे जन्नत ने मना कर दिया, उसे कौन मंजूर कर सकता है!' पीर ने निढाल होते हुए कहा और दूसरे टेंट की तरफ चल दिया।

लेकिन पीर का युवा शिष्य, जो पीछे आ रहा था, ने आश्वस्त होकर अनुभव किया कि उसके पास दुःखी दंपती को संतुष्ट करने की शक्ति थी। उसने चालीस कंकर इकट्ठे करके बिना बच्चेवाली स्त्री की गोद में रख दिए और उसे आशीर्वाद दिया।
निर्धारित समय पर उस स्त्री ने पूरे चालीस बेटों को जन्म दिया--सबको एक ही समय में।
द्रूस बहुत परेशान और चिंतित हो गया। उसे विश्वास हो गया कि वह इतने सारे बच्चों को नहीं पाल सकेगा।

'हम चालीस बच्चों के लिए रोटी नहीं जुटा सकते।' वह अपनी पत्नी से बोला, 'इसलिए केवल एक चीज है, जो हम कर सकते हैं। अपनी पसंद के एक लड़के को रख लें और शेष उनतालीस लड़कों को जंगल में ले जाएँ और उनको वहीं छोड़ दें। हमारी कठिन परिस्थिति से निकलने का और कोई रास्ता नहीं है।'

इसलिए एक को छोड़कर सभी बच्चे पहाड़ों पर ले जाए गए और भेड़ियों की दया पर वहीं छोड़ दिए गए। उन्हें मरने के लिए छोड़ दिया गया था। लेकिन एक दिन पहाड़ियों में अपनी भेड़ों के झुंड को चराते हुए एक गड़रिए को एक हिरण का खास व्यवहार उन चट्टानों और बोल्डरों की तरफ ले गया, जिन्होंने एक कंदरा का मुख बंद कर रखा था। वहाँ उसने पाया कि बहुत बड़ी संख्या में बच्चे जंगली ट्यूलिपों के बीच में खेलते हुए इधर से उधर दौड़ रहे थे।

गड़रिया लड़का डर गया। 'ये बच्चे कौन हो सकते हैं?' उसने आश्चर्य से सोचा, 'ये इस निर्जन इलाके में कैसे आए? '

शाम को उसने अपने अनुभव के बारे में अपने पिता को बताया और वह खबर ऐसे फैली, जैसे उसे हवा ने फैलाया हो। अंततः यह बात द्रूस तक भी पहुँची। वह फौरन समझ गया कि उस निर्जन क्षेत्र में खेलनेवाले बच्चे उसके अपने थे। कई महीनों से वह पछता रहा था और दुःखी था, लेकिन अब वह खुशी से झूम उठा। वह उस पहाड़ी की तरफ दौड़ा, जहाँ उन्हें देखा गया था। उसने वहाँ देखा कि वे नन्हे-नन्हे बच्चे जंगली जैतून और पिस्ता के पेड़ों के बीच छुपा-छुपी खेल रहे थे। सभी बच्चे एक-दूसरे से मिलते थे और बहुत सुंदर थे; लेकिन अजनबियों से शरमाते थे। जब द्रूस उनसे बोला तो वे दौड़ गए और खुद को गुफाओं में छुपा लिया। उसने एक दिन और एक रात उनका इंतजार किया, लेकिन वे अपने छुपने के स्थान से बाहर नहीं आए और वह भारी मन से अपने घर लौट आया।

उसकी पत्नी, जिसका दिल अपने खोए हुए बच्चों की चाह में दुःखी हो रहा था, ने एक अन्य पीर से सलाह ली, जिसने कहा, 'उनके भाई को ले जाओ, जिसे तुमने अपने पास रख लिया था। उसे लेकर उस पहाड़ी पर जाओ, जहाँ वे खेलते हैं। जब वहाँ पहुँचो तो उसे नीचे उतार देना और खुद छुप जाना।'

ममता से अभिभूत माँ ने ठीक वैसा ही किया, जैसा उससे कहा गया था और सच में वही हुआ, बच्चे उसके प्यारे बेटे के साथ खेलने के लिए बाहर निकल आए। नन्हे अजनबी और उसकी मधुर आवाज से आकर्षित होकर वे उसके पीछे-पीछे अपनी माँ के पास आ गए, जिसने उन्हें गले से लगाया और उन्हें मिठाइयाँ दीं और जल्दी ही बिना किसी कठिनाई के वह उन्हें उनके घर लाने में सफल हो गई।

द्रूस बच्चों को वापस पाकर इतना खुश था कि उसने गरीबों को उपहार और भोजन बाँटा और गाँव में संगीत तथा भोज का आयोजन हुआ। उसने सभी चालीस बच्चों को नमाज अदा करना और पवित्र किताबें पढ़ना सिखाया। लेकिन अल्लाह का फरमान यह था कि देवदूत अजराइल एक ही समय में चालीसों की साँसें ले ले।
सारे चालीस बच्चे, अचानक, एक ही दिन मर गए।

पूरे गाँव में मातम छा गया और लगातार तीन दिन और तीन रात तक दुआएँ की गई। अंतिम संस्कार में भाग लेने आए अनेक मित्रों के लिए भोजन तैयार किया गया। उसके बाद चालीस भाइयों को उस पहाड़ी पर ले जाया गया, जहाँ वे पाए गए थे और सुनसान क्षेत्र में, उसी पहाड़ी पर उन्हें दफना दिया गया, जहाँ वे जंगली ट्यूलिपों के बीच खेलते थे।

और आज के दिन तक बच्चे अभी भी रहस्यमय पर्वत पर घूमते हैं, जिसे 'कुह चेहल तान', 'चालीस भाइयों की पहाड़ी' के नाम से जाना जाता है।

(रस्किन बांड की रचना 'कश्मीरी किस्सागो' से)

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