चाकरी (बांग्ला कहानी) : बिमल मित्र

Chakri (Bangla Story in Hindi) : Bimal Mitra

यद्यपि आज के जमाने में अतिप्रिय पेशा है नौकरी, फिर भी पूरी दुनिया में कोई भी, कभी भी ऐसी नौकरी की तो कल्पना भी नहीं कर सकेगा! यों नौकरी के प्रकारों की कोई सीमा नहीं है। इस विस्तृत वसुंधरा पर स्थित नाना-देशों, नाना-कालों में अनेक प्रकार की नौकरियाँ रही हैं और अभी भी हैं। कोई लिखियागीरी, मुंशीगीरी या क्लर्की करता है तो कोई अभियंतागीरी या इंजीनियर की नौकरी और कोईकोई वैद्यगीरी या डॉक्टरी की नौकरी करता है, जबकि कोई किसी सुविधा-संपन्न व्यक्ति के घर में ही टहलुआ का काम या घरेलू काम-धाम करने की चाकरी करता है। इस धरती के विस्तृत फैलाव में नौकरी के भाँति-भाँति के रूपों का क्या कहीं कोई अंत है? औरों की रहने भी दूँ, तो भी साफ बात है कि मैं खुद भी तो एक समय नौकरी कर चुका हूँ। सो भी ऐसी-वैसी नहीं, बल्कि खास सरकार-बहादुर की सरकारी नौकरी।

परंतु कहानी गढ़-गढ़कर, कहानी कहकर सुनाने की नौकरी! उसके सिवा और कोई काम करने की कोई आवश्यकता ही नहीं। केवल कहानी सुनाना भर ही काम होगा। इसप्रकार की नौकरी की बात क्या सुनी है कभी किसी ने?

कम-से-कम मैंने तो वैसी बात कहीं कभी सुनी नहीं। बहुत संभव है कि आप लोगों ने भी नहीं सुनी हो; परंतु इस बार एक ऐसा ही अकल्पनीय संयोग आ पड़ा कि मुझे ऐसी ही बात सुननी पड़ी। इसे यदि ठीक से समझाकर कहना हो, तो अच्छा हो कि मैं इसे बिल्कुल इसके आरंभ से ही कह सुनाऊँ।

एक बार मैं जबलपुर (मध्य प्रदेश, भारत) गया हुआ था। पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार वहाँ पहुँचने का बस वही एक दिन बिताकर दूसरे ही दिन फिर कोलकाता (प. बंगाल, भारत) लौट आना था। सो सोचा कि समय का सदुपयोग करते हुए एक बार पूरे शहर का चक्कर लगाकर जरा इसे देख लूँ! अभी तक जब-जब जबलपुर आया हूँ तो प्रायः ही ठहराववाले होटल में पड़े-पड़े ही किताबें पढ़पढ़कर समय बिता दिया है, अथवा बहुत हुआ तो होटल के बरामदे में खड़े होकर दूर दिखाई देनेवाली संगमरमरी शिलाओं की पहाड़ी का दृश्य देख लिया है, यहाँ का सूर्योदय देखा है अथवा देखा है यहाँ का सूर्यास्त। इसके अलावा और कुछ किया है तो नियमपूर्वक भोजन-छाजन और आराम। वस्तुतः यहाँ जबलपुर आने का मेरा मूल उद्देश्य ही यही सब करना रहा है।

परंतु अबकी बार सोचा कि इतने दिनों में जाने कितनी-कितनी बार जबलपुर नगर में आया, ठहरा भी, परंतु यहाँ के इस नगर को तो एक बार भी ठीक से देखना हुआ ही नहीं! इसी से सवेरे के पहर का जलपान खा-पीकर, होटल से बाहर निकलकर चक्कर लगाने चल पड़ा। यह रास्ता, वह रास्ता, इस चौड़ी सड़क, उस पतली पगडंडी पर चलते हुए अच्छी तरह समझते-बूझते, टहलते हुए देखने में एक प्रकार की सुखदायक विचित्रता है। राहों के दोनों ओर बने हुए विभिन्न प्रकार के भवन मोटे तौर पर खूब सजाए-सँवारे हुए हैं। कई-कई भवनों के सामने तो राह की लंबाई के समानांतर छोटी-छोटी गृहवाटिकाएँ भी लगाई हुई हैं, जिनमें कहीं फूल खिले हुए हैं तो कहीं फल लटक रहे हैं। इन ढेर सारे भवनों में से अनेक के सामने तो भवन के मालिकों के नाना प्रकार के नाम भी उनकी दीवारों पर इस सावधानी से लिखे या खुदे हैं कि गुजरनेवाला उन्हें अच्छी तरह पढ़ सके। मकान मालिकों के व्यक्तिगत नामों के साथ-साथ उनकी जाति-बिरादरी की सूचना देनेवाली पदवियाँ भी अंकित हैं। किसी के नाम की पदवी जायसवाल है, तो किसी की गोयल, किसी की माहेश्वरी है, तो किसी की पंत अथवा किसी दूसरे की शर्मा। इस प्रकार की बहुत सारी पदवियों को देखता हुआ, मैं आराम से टहलता हुआ आगे बढ़ता गया। ऐसी कोई भी पदवी मेरी आँखों को अस्वाभाविक नहीं लगी।

परंतु एक भवन के सामने पहुँचते ही यकायक रुक जाना पड़ा। उसके भवन के कर्ता-धर्ता के नाम के सामने पदवी अंकित थी, 'चक्रवर्ती।' इसका साफ मतलब यह है कि वे सज्जन बंगाली हैं। इतनी दूर यहाँ आकर कोई एक बंगाली भद्रपुरुष भवन-निर्माण करके यहीं निवास कर रहे हैं, यह जान-समझकर मन में थोड़ा विस्मय पैदा हुआ। कहीं यह विस्मय अनावश्यक ही तो नहीं जग उठा है ? इस जिज्ञासा को शांत कर लेने के लिए उस नामपट्टिका को फिर से पढ़ा, 'ए.के. चक्रवर्ती।'

उस भवन को भलीभाँति देख लेने के उद्देश्य से वहीं खड़ा हो गया। देखा कि बहुत ही सीधे-सादे प्रकार की बस एक ही मंजिल की ऊँचाईवाला एक बहुत पुराना भवन है। आसपास के दूसरे भवनों की भाँति इसके सामने कोई बाग-बगीचा या फुलवारी भी नहीं है। एक लंबे समय तक मरम्मत न किए जाने से भवन की जिस किस्म की दशा हो जाती है, ठीक वैसी ही दुर्दशा है इसकी। तब मैं साफ-साफ समझ गया कि इस भवन के कर्ता-धर्ता, मालिक-मुख्तार महाशय की आर्थिक अवस्था निश्चय ही संतोषजनक नहीं है, इसी वजह से इस भवन की ऐसी अवस्था हो गई है।

ऐसी उधेड़बुन में वहाँ मैं कितनी देर से खड़ा रह गया हूँ, मन में इसका भी कुछ खयाल नहीं था कि अचानक एक सज्जन ने जंगले के भीतर से बाहर की ओर मुँह आगे कर पूछ ही तो लिया-"कौन हैं आप, महाशय?"

चूँकि मैं उन भद्रपुरुषजी को तब तक ठीक से देख भी नहीं सका था, अतः उनके प्रश्न का उत्तर फिर क्या देता! तब तक उस भद्रपुरुष ने शरीर के ऊपरी अंग में कोई पोशाक पहने बगैर ही बाहर बरामदे में आकर आगे फिर पूछा, “कहिए, किसे ढूँढ़ रहे हैं?"

मैंने संकोचपूर्वक कहा, "मैं एक बंगाली हूँ। आपके भवन पर लगी हुई नाम पट्टिका पढ़ने के बाद मेरी समझ में आया कि आप भी एक बंगाली ही हैं। इसी से थोड़ा ठहरकर देख रहा था।"

फिर तो उन सज्जन ने हमारी अपनी भाषा बँगला में ही कहा, "तो फिर आइए न। बाहर क्यों खड़े हैं? अंदर आ जाइए न!"

मैं उनके निवास-भवन में भीतर चला गया। अभी तक वे शरीर के ऊपरी भाग में कुछ पहने नहीं थे, अब अंदर जाकर एक मैली-कुचैल बनियान पहन ली उन्होंने। फिर एक कुरसी की ओर संकेत करते हुए बोले, "इस कुरसी पर आराम से बैठें।"

उनके निर्देशानुसार वहाँ पड़ी एक काफी पुरानी कुरसी पर मैं बैठ गया। फिर इधर-उधर नजरें दौड़ाकर जो देखा-भाला, तो जाना कि उस घर में तो बस वही एक कुरसी ही है, सो भी बहुत ही पुरानी-धुरानी। उस घर में जो एक तख्तपोश (चौकी) पड़ा था, उस पर वे स्वयं जा बैठे। तब मुझसे पूछा, “वस्तुतः आप कहाँ के निवासी हैं ?"

मैंने बतलाया-"कोलकाता से मैं आया हूँ यहाँ। फिलहाल एक होटल में ठहरा हूँ। कल ही यहाँ से वापस चला जाऊँगा। इस शहर में आता रहा हूँ काफी अरसे से, परंतु अब तक हर बार सारा-का-सारा समय होटल में ही बिता देता रहा हूँ। आज पहली बार बाहर निकला हूँ, इस नगर को ठीक से देख लेने के लिए। इसी उद्देश्य से टहलता जा रहा था कि अचानक ही आपके इस निवास-भवन की नामपट्टिका जो देखी, तो मुझे लगा कि निश्चय ही यह किसी बंगाली भद्रपुरुष का भवन है। 'ए.के. चक्रवर्ती' नाम से ही स्पष्ट है कि बंगाली के सिवा और कुछ तो हो नहीं सकते। इसी से थोड़ा ठहर गया था।"

वे महाशय बीच में ही बोल पड़े-“वह मेरे चचेरे भाई का नाम है। पूरे रूप में है-अरुण कुमार चक्रवर्ती। मेरे पिताजी के छोटे भाई, यानी कि मेरे काका के बेटे। यहाँ जबलपुर में जो भारत सरकार का हथियारों का विशाल कारखाना है-ऑर्डिनेंस फैक्टरी-वह उसी में नौकरी करता था। इस भवन का निर्माण उसी ने करवाया था। उसकी आकस्मिक मृत्यु हो जाने के बाद से मैं ही इसका उपयोग करता आ रहा हूँ। कारण यह है कि उसका निजी संबंधी और कोई तो है नहीं, क्योंकि उसने तो विवाह ही नहीं किया था। मेरा भी शादी-ब्याह कुछ नहीं हुआ। अतएव मैं ही फिलहाल इस मकान का मालिक-मुख्तार हूँ ।"

"ऐसी हालत में घर-गृहस्थी की साज-सँभाल कौन करता है ?"

उन सज्जन ने कहना आरंभ किया-"उसका भी अपना कोई था नहीं और मेरा भी अपना कोई नहीं है। एक किसी बाहरी व्यक्ति को बुलाकर कुछ खर्चा-पानी देने के बदले में रख लिया है। वही भोजनछाजन बना देता है। जूठ-काँठ होनेवाला बरतन-वरतन भी वही माँज-धो देता है। बस, इसी सब समय भर के लिए यहाँ रहता है, फिर चला जाता है। उसके बाद तो पूरा-का-पूरा दिन अकेले-अकेले बिताता हूँ। और दिनों तो बस इसी तख्तपोश पर लेटे-लेटे बाहर सड़क की ओर एकटक निहारता रहता हूँ। आज अपने इस साधारण निवासस्थान के सामने आपको जो यों खड़े देखा, तो मेरे मन ने कहा, निश्चय ही संभवतः आप बंगाली ही हैं। इसी से आपको पुकारा।"

"परंतु आपका और सब अपना परिवार?"

वे सज्जन हड़बड़ाकर बोले, "जब मैंने विवाह ही नहीं किया तो फिर बाल-बच्चे, घर-परिवार होंगे कहाँ से? मेरे माता-पिता तो जब मेरी कच्ची उम्र थी, तभी स्वर्ग सिधार गए थे। उस समय मैं पराई सेवकाई यानी कि नौकरी-चाकरी करता था। वह चाकरी मैंने अपनी आयु के प्रायः पैंसठवें वर्ष तक की थी।"

"कौन सी नौकरी करते थे आप? क्या किसी पाठशाला में अध्यापन का काम करने की नौकरी?"

वे महाशय यकायक बिहँस पड़े और बोले, "नहीं भाई, नहीं। दरअसल यह चाकरी एक बड़ी ही आश्चर्यजनक किस्म की चाकरी थी। उस चाकरी के क्रिया-कलाप की तो आप कल्पना भी नहीं कर सकेंगे।"

"इसका मतलब?"

वे भद्रपुरुष बोले, “उसके संबंध में बहुत थोड़े समय में बतला पाना संभव नहीं है। इस पूरी वसुंधरा पर फैली सारी दुनिया में वैसी नौकरी किसी ने कभी भी नहीं की। अगर की है तो बस, केवल हम चार आदमियों ने ही।"

उनकी इस बार कही गई बात का भी गूढार्थ मैं समझ नहीं सका। अतः पूछ बैठा, "कौन सी ऐसी विचित्र नौकरी थी वह ?"

गंभीर होकर वे महाशय कहने लगे-"उसी विचित्र चाकारी को करके ही तो मैंने अपना सारा जीवन नष्ट कर दिया, जनाब! नहीं तो क्या फिर मेरी ऐसी अवस्था हो सकती थी? मेरे जैसे महा अभागे-व्यक्ति की ऐसी जो महादुर्गति हुई, उसकी तो आप कभी कल्पना भी नहीं कर सकेंगे।"

"फिर भी बतलाइए न जरा। क्या वह कोई सरकारी चाकरी थी?"

उत्तर में उन सज्जन ने मुझसे ही प्रश्न पूछा, "क्या आप कोलकाता शहर में ही पैदा हुए हैं?"

"जी हाँ।"

फिर तो कुछ आश्वस्त होकर वे महाशय कह उठे-“तब तो आप मेरी पीड़ा को समझ सकेंगे। अच्छा तो कोलकाता के किस विशेष इलाके में आपने जन्म लिया-उत्तरी कोलकाता के अंचल में अथवा फिर दक्षिणी कोलकाता में?"

मैंने कहा, “कोलकाता के उत्तरी अंचल मैं ही। किंतु हाँ, मैंने अपनी उच्च शिक्षा विद्यासागर महाविद्यालय में पूरी की थी। मेरे जन्मस्थान की सटीक जगह का नाम है-हाथीबागान।"

अब की बार उन सज्जन के मुँह पर हँसी खेल गई। बोले, "मैं भी कोलकाता का ही जनमा, पलाबढ़ा व्यक्ति हूँ। शोभाबाजार मुहल्ले की एक गली में मेरे परिवारवालों ने जो भाड़े पर एक क्वार्टर ले रखा था, उसी में जनमा था मैं। पढ़ाई-लिखाई स्कॉटिश-चर्च विद्यालय में की थी। परंतु ऊँची कक्षाओं की पढ़ाई नहीं पढ़ पाया था, क्योंकि अभी मेरी आयु जब काफी कम ही थी, तभी अचानक मेरे पिताजी की मृत्यु हो गई थी। चूँकि अपने पिता की मैं ही एकमात्र अकेली संतान था, अत: पिताजी के स्वर्गवासी होने के बाद अपने घर-परिवार का सारा भार मेरे ही कंधों पर आ पड़ा था।" इतना कह चुकने के बाद वे थोड़ी देर तक चुप्पी साधे रहे। फिर आगे कहने लगे, “परंतु उन सब पुरानी बातों को मैं आपसे क्योंकर बतलाने लगा हूँ? जरा आप ही इसका कारण बतलाइए तो! आपको वह सारा कुछ कह सुनाने से मेरा ही कौन सा लाभ है, अथवा फिर आपका ही कौन सा बड़ा फायदा हुआ जा रहा है ?"

मैंने कहा, "आपका ऐसा कहना तो ठीक है, परंतु इसमें आपका कोई हला-भला हो रहा हो अथवा नहीं हो रहा हो, उस संबंध में मैं तो कुछ कह नहीं सकता; परंतु जहाँ तक मेरी बात है, मुझे निश्चय है कि इसमें मेरा तो अवश्य लाभ है।"

"सो क्यों?" उन भद्रपुरुष ने मेरी ओर सवालिया निगाहों से देखा, फिर बोले, “वाह जी, वाह ! क्या खूब कही! अरे भाई! मेरी आपबीती सुनकर आपका कैसे लाभ हो सकता है भला?"

मैंने निवेदन किया-"जैसे भी हो, परंतु इससे मेरा लाभ होना निश्चित है। इसी से मैंने आपको बतला दिया। वह लाभ क्या है ? इस संबंध में मैं आपको बाद में बतलाऊँगा।"

फिर तो वे बंगाली महाशय कह उठे-"मेरा अपना जीवन सचमुच ही असहनीय पीड़ाओं से भरा हुआ एक महाकष्टकर जीवन रहा है। एक तो मेरी कच्ची उम्र में ही मेरे पिताजी मर गए, दूसरी आफत यह कि परिवार के लिए जीविका का साधन जुटाने के लिए बचा था एकमात्र मैं ही। मेरे अलावा तब मेरी माँ जरूर थी, किंतु एक विधवा हिंदू स्त्री उस जमाने में भला क्या कर सकती थी? खाने-पीने के ढेर सारे खर्चों के ऊपर से प्रतिमाह किराए के बीस रुपए चुकाने की भी बेबसी थी। ये सारा खर्चा कौन जुटाएगा, पारिवारिक जिम्मेदारियाँ कोई कैसे जुटाएगा? यही सब सोचते-सोचते मेरा मन-मस्तिष्क इतना परेशान रहता कि रातों में नींद नहीं आती थी। पेट जब खाली हो, भूख से नस-नस कुलबुलाती हो, तो भला नींद कभी आती है ? कहाँ से मकान की कोठरी का भाड़ा जुगाड़ करूँगा और खाने-पीने-पहनने के अति आवश्यक चावल-दाल, कपड़े-लत्ते का जुगाड़ कहाँ से करूँगा? चिंता करते-करते जब कोई कूलकिनारा नहीं पा सका तो अंतिम कोशिश के रूप में मैंने अपने काकाजी को पत्र लिखा। मेरे काकाजी तब यहीं, इसी जबलपुर में रहते थे। काकाजी का बेटा तब यहीं पर एक नौकरी पा गया था, अत: उसी नौकरी के कामकाज में जुट गया था। फिर तो काकाजी इतना पसीजे कि महीने-के-महीने वे हम लोगों के लिए रुपए भेजने लगे। उनके द्वारा भेजे जा रहे उन रुपयों के सहारे ही हम लोगों का पारिवारिक खर्चा जैसे-तैसे चलने लगा।

"फिर भी पैसों की इतनी कमी थी कि फीस न भर पाने के कारण मेरी पढ़ाई-लिखाई तो बंद ही हो गई थी। सारी कोशिशों के बावजूद हमारे अपने परिवार की एक पैसे की कोई आय कहीं से नहीं हो पा रही थी। किसी तरह खींच-खाँचकर परिवार की गाड़ी घसीटे लिये जा रहा था मैं। जबकि स्थिति यह थी कि परिवार के नाम पर भी कुल मात्र दो ही तो सदस्य थे-मेरी विधवा माँ और मैं। जबकि तब बेहद सस्ताई का जमाना था। उतने सस्ते समय में भी मात्र दो सदस्यों वाले मेरे परिवार के खर्चे नहीं जुट पाते थे। जितना काकाजी भेजते, उसमें काम नहीं चल पाता था। तब मैंने सोचा-क्या कुछ करूँ? कहाँ से रुपए-पैसे जुगाड़ने का उपाय करूँ? काकाजी कोई ज्यादा रुपए तो भेजते नहीं। अधिक-से-अधिक किसी महीने में तीस रुपया, तो किसी में चालीस रुपया मात्र।

"तभी एक समय मेरी हारी-थकी माँ ने साफ-साफ कह सुनाया-'बेटा! कोई चाकरी-वाकरी करने का मन हो तो दौड़-धूप करके जल्दी से करना शुरू कर, क्योंकि अगर तूने ऐसा कुछ नहीं किया, तब तो मैं इस घर का बोझा नहीं ढो पाऊँगी। बाजार में हर एक अति आवश्यक जीवनोपयोगी चीज का दाम हू-हू करके जिस रूप में बढ़ता जा रहा है।'

"यह लाचारी तब थी, जबकि वास्तव में बहुत ही सस्ताई का जमाना था। उस समय सस्ताई ऐसी थी कि आज आप सब तो उसकी कल्पना भी नहीं कर सकेंगे। अब इसी से अनुमान लगाएँ कि हमारी पाठशाला स्कॉटिश, चर्च पाठशाला के सामने जो एक चाय की दुकान थी, उसके ऊपर लाल रेशमी कपड़े के बैनर पर विज्ञापन लिखा रहता था कि 'यहाँ केवल तीन पैसे में मुरगी के एक जोड़े अंडों से बना हुआ सुस्वादु आमलेट मिलता है।' एक प्याला चाय का भाव तो पूरे बाजार में बस एक पैसा ही था। प्रतिदिन जो समाचार-पत्र बिकते थे, उनका मूल्य था-दो पैसा। फिर भी हालत यह थी कि ये सब इतनी सस्ती चीजें भी खरीद पाने की ताकत हममें नहीं थी। उन दिनों में हमने कितनी विपत्तियों में, कितनी मुश्किलों भरा जीवन बिताया था; उसे मेरे अलावा और कोई नहीं जानता।"

इतनी बात कहते ही वे भद्रपुरुष यकायक रुक गए। फिर कुछ अफसोस-सा जाहिर करते हुए बोले, "अरे वाह ! जरा आप इस बात पर ही ध्यान दें कि जब से आप आए हैं, तभी से लगातार मैं बस अपनी ही आपबीती सुनाए जा रहा हूँ। मुझमें इतना शिष्टाचार भी नहीं रहा कि कम-से-कम आप से यह तो पूछू कि आप कौन हैं? आपका शुभ नाम क्या है ? इतनी दूर से आप यहाँ क्या और किस विशेष काम को करने के लिए पधारे हैं?"

विनम्रतापूर्वक मैंने उन्हें अपना नाम बतलाया। उसके अतिरिक्त मैंने आने का अपना उद्देश्य समझाते हुए उन्हें बतलाया कि किसी विशेष कार्य को अंजाम देने के लिए मैं यहाँ नहीं आया, बल्कि केवल घूमने-फिरने के उद्देश्य से आया हूँ। बस यों समझ लें कि परिपूर्ण विश्राम करने, अपनी अब तक की सारी थकावट दूर कर लेने के अभिप्राय से ही यहाँ आया हूँ। विश्राम लेने का वह उद्देश्य भी पूरा हुआ समझें, क्योंकि कल ही मैं वापस अपने स्थान को चला जाऊँगा। इस बार के इस आगमन के अब तक जो सारे दिन गुजरे हैं, उन्हें मैंने होटल में ही बैठे-बैठे, लेटे-लेटे अथवा सोए-सोए बिताया है। जिसे लोग कहते हैं कि अपने काम-धंधे में जो भारी मेहनत-मशक्कत करनी पड़ती है, उससे छुटकारा लेकर थोड़ा विश्राम कर लेने के मतलब से। यही अवकाश बिताने का चूँकि आज का दिन ही अंतिम दिन है, अत: इस शहर का फेरा लगा लेने के लिए बाहर निकल पड़ा हूँ।"

"अच्छा, तो कई दिन से आए हुए हैं ? तो कुल कितने दिनों से यहाँ रह रहे हैं श्रीमान् ?"

मैंने बतलाया-“सो तो कुल मिलाकर सात दिन हो गए।"

"अच्छा! तो यह पूरे सात दिनों का समय आपने यहाँ किस तरह बिताया?"

मैंने निवेदन किया, “वस्तुतः मैं ग्रंथों का अध्ययन करने में गहरी रुचि रखता हूँ। उच्च स्तर के अनेक ग्रंथ मैं अपने साथ ले आया था। उन्हीं सब ग्रंथों को यहाँ गंभीरतापूर्वक पढ़ा है।"

"जान पड़ता है कि किताबें पढ़ना बहुत पसंद करते हैं।"

तब मैंने उन्हें समझाया-"हाँ, यह तो मुझे बहुत ही अच्छा लगता है, परंतु ग्रंथों से तात्पर्य आजकल की लिखी हुई, छपी हुई किताबें नहीं। ऐसी किताबों में मेरी कोई दिलचस्पी नहीं है। मैं बहुत पुराने, अतीत काल में रचे हुए और प्राचीन-पद्धति के अनुरूप भोजपत्रों, भूर्ज-त्वचों अथवा अन्यान्य पुराने फलकों पर लिखे हुए उत्कृष्ट ग्रंथों को पढ़ने में ही आनंद का अनुभव करता हूँ। ऐसे सब ग्रंथ, जो पुराने भले ही हो गए हैं, किंतु मिट नहीं गए, फीके नहीं पड़ सके हैं। अतएव जो अभी भी अतिशय प्रासंगिक हैं। अब इस प्रकार के सद्ग्रंथों का अध्ययन-मनन तो कोलकाता नगर के कोलाहल भरे वातावरण और मेरे अपने ऊपर नाना प्रकार के कार्यों का जो भारी दायित्व चपा रहता है, उस सबके परिवेश में तो पूरा कर पाना संभव ही नहीं हो पाता है। इसी से मैं अपने उत्तरदायित्वों के भार से अवकाश लेकर कोलकाता शहर से बाहर के किसी दूर के शहर में प्रत्येक वर्ष सात-आठ दिनों के लिए चला जाता हूँ। लेकिन अब आप मेरी चिंता छोड़ें। आप अपनी बातें बतलाएँ। लोगों के मुँह से कही गई बातें, यानी कि 'बतकही' सुनना मुझे इतना अधिक पसंद है कि जिसकी कोई हद नहीं।"

उल्लासित हो वे बंगाली सज्जन मुखर हो पड़े-"मुझे फिर इसमें क्या संकोच हो सकता है ? मेरी तो चाकरी ही थी, बातें कह-कहकर सुनाने की।"

"यह आप कह क्या रहे हैं? बातें कह-सुनाने की नौकरी! इसका क्या मतलब?"

वे महाशय समझाने लगे-"क्यों, झटका सा लगा न? दरअसल इसप्रकार की नौकरी, यानी कि बातें कह-कह सुनाने-चाहे वह 'सुविमल बतकही' हो अथवा 'ऊटपटाँग-बतकुच्चन' ही क्यों न हो, केवल बातें कहने के कामवाली नौकरी की बात तो आप लोगों में से किसी ने कभी सुनी भी नहीं होगी और न कोई ऐसी नौकरी के विषय में जानता ही है।"

"इसका क्या यह अर्थ समझू कि बिना कोई और काम किए, केवल बात करने भर से किसी ने आपको वेतन देनेवाली नौकरी दे दी होगी? ऐसा भी क्या किसी तरह संभव है?"

"यह सारा कुछ प्रभु की कृपा का परिणाम था, महाशय।" वे सज्जन हुलसकर बोलने लगे, "सभी कुछ भगवान् की दया ही के प्रसाद से हुआ। समझ गए न ! बात साफ थी कि मेरे जैसे मूर्ख आदमी का तो कोई भविष्य ही नहीं बन सकता था। यह बात स्वयं मेरे पिताजी कहा करते थे। माँ भी यही कहा करती थी कि 'तुम्हारा कोई भविष्य नहीं। तुम किसी काम के लायक ही नहीं।' माँ की झिड़कियाँ, जो दरअसल मेरी नालायकी पर उसका अपना रुदन ही होता था, सुनकर भी मैं भला क्या कर सकता था? आप ही बतलाइए, मैंने कोई पढ़ाई-लिखाई तो की नहीं थी, न कोई काम-धंधा ही सीखा था। किसी बहुत बड़े जागीरदार-जमींदार या सेठ-साहूकार का अथवा किसी प्रकार के किसी बड़े आदमी का कोई उत्तराधिकारी अथवा बेटा भी नहीं था। ऐसी दशा में फिर मेरे भविष्य की बात ही क्या? परंतु महाशय! एक दिन अचानक ही मेरे जैसे महानिखटू आदमी का भाग्य भी खुल गया।"

"वह किस तरह जनाब?"

फिर तो वे सज्जन बतलाने लगे-"वह एक ऐसा समय था, जब मेरे पास करने-धरने को कुछ था ही नहीं। परंतु घर में भी कितनी देर बैठा रहता! सो प्रायः ही अपने जैसे निखटुओं के साथ अड्डेबाजी करने के लिए घर से बाहर चला जाया करता था। अड्डेबाजी-पर-अड्डेबाजी करता रहता, जहाँ केवल व्यर्थ की बातें भर होतीं। वह मेरे जीवन की ऐसी वेला थी, जब मेरे बचपन के साथी बड़े होकर अपने उज्ज्वल भविष्य के निर्माण के लिए ऊँची कक्षाओं की पढ़ाई कर रहे थे अथवा तरह-तरह के प्रशिक्षण ले रहे थे। अपने इष्ट मित्रों में मैं ही एक था, जो बिल्कुल बेकार था। परंतु मेरे आसपास के टोलों-मुहल्लों में मेरी उम्र के या मुझसे छोटी या बड़ी उम्र के भी ऐसे ढेर सारे लड़के थे, जो मेरी ही तरह निठल्ले थे। ऐसे ही निठल्ले-निखटुओं, बेकार पड़े युवकों के साथ मैं अड्डेबाजी करता था, जिसके चलते जीवन का बहुमूल्य समय वाहियात गँवाते रहने के अलावा और कुछ नहीं हो सकता था।"

इतना कहकर वे महाशय फिर चुप हो गए।

परंतु मेरी तो उत्सुकता बढ़ गई थी। पूछा, "उसके बाद।"

"उसके बाद ही तो एक अप्रत्याशित अद्भुत घटना घटी, महाशय! हुआ यह कि एक दिन घर से कार्नवालिश स्क्वायर (चौक) मुहल्ले के अड्डे पर अड्डेबाजी करने जा ही रहा था कि अचानक पीछे की ओर से कोई व्यक्ति मेरा नाम पुकार उठा, 'अनिमेष! अरे ओ अनिमेष!'-उसकी पुकार सुन मैंने चौंककर पीछे जो देखा, तो पाया कि अरे! यह तो हम लोगों के बसंत भाई साहब हैं।

"बसंत भाई साहब भी हम लोगों की तरह ही बेकार थे। वैसे वे हमारी तरह कम पढ़े-लिखे अथवा बेबस-असहाय नहीं थे, बल्कि उन्होंने बी.ए. कक्षा उत्तीर्ण कर डिग्री पाई थी। जगह-जगह निकलनेवाली रिक्तियों में आवदेन भर-भर के नाना प्रयास कर रहे थे, फिर भी कहीं भी कोई नौकरी नहीं पा सके थे। वह भी बीच-बीच में हमारे अड्डे पर आ शामिल होते और मौका पाते ही नौकरी-चाकरी न मिल पाने का अपना रोना रोते रहते। कहते, 'जानते हो, मेरा जीवन तो पूरी तरह से नष्ट ही हो गया। जहाँ कहीं भी पता लगता है, सभी जगह नौकरी के लिए आवदेन-पत्र भेजता हूँ, परंतु कहीं से दिलासा का कोई उत्तर नहीं आता। जहाँ कहीं से उत्तर आते भी हैं, तो सभी बस एक ही जैसे अभिप्रायवाला उत्तर पठाते हैं-'हमें अत्यंत खेद है कि हम आपके आवेदन पर कुछ नहीं कर पा रहे, क्योंकि हमारे यहाँ सभी जगहें भर चुकी हैं। अब कोई भी पद रिक्त नहीं है।'

"वह समय ही इसप्रकार का चल रहा था। हमारी जान-पहचान का कोई व्यक्ति कहीं कोई नौकरीचाकरी नहीं जुटा पा रहा था। कहीं कोई नया उद्योग-धंधा लग नहीं रहा था, कोई प्राइवेट-कंपनी भी कहीं शुरू नहीं हो रही थी। फलतः काम-धंधा पा लेने का कोई अवसर ही नहीं था, परिणामस्वरूप चारों ओर बस हाहाकार ही मचा हुआ था। जितने सारे बैंक थे, सभी बैंक करप्ट हुए जा रहे थे। सभी दिवालिए हो रहे थे। केवल हमारे देश की ही नहीं, इंग्लैंड-अमेरिका जैसे विकसित-प्रतापी देशों में भी यही हाल था। सभी जगह एक ही अवस्था थी। यद्यपि बाजार-भाव बहुत ही सस्ताई का था। एक जोड़ी जूते का मूल्य महज तीन रुपया अथवा अधिक-से-अधिक चार रुपए। एक कमीज की कीमत पाँच चवन्नी अर्थात् सवा रुपया, बस। चावल का बाजार भाव था केवल तीन रुपए मन, यानी चालीस सेर। सारे सामान उतने सस्ते, फिर भी चारों ओर अभाव-ही-अभाव। गल्ला-अनाज, खाने-पीने की चीजें इतनी सस्ती, फिर भी मेदिनीपुर में अकाल पड़ा हुआ था। भूख के मारे लोग बिलबिलाते-किलबिलाते मरे जा रहे थे। कोलकाता के छोर पर स्थित श्याम-बाजार से दूसरे छोर पर स्थित कालीघाट तक पूरे महीने आने-जाने का बस का मासिक किराया था-छह रुपया केवल। प्राइमरी पाठशालाओं के अध्यापक महोदयों का मासिक वेतन था-केवल पच्चीस रुपया। आज के इस जमाने में उन सब विषयों पर विचार करते हुए दाँतों तले उँगली दबानी पड़ जाती है। देश के इतने बड़े नेता देशबंधु चित्तरंजन दास जी 1925 ईसवी में जब स्वर्ग सिधारे, तो देखा गया कि उनके बैंक खाते में केवल आठ हजार रुपए ही जमा थे। इतनी कम धनराशि सँजो पाने पर भी उन्होंने देश की स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ने के लिए अपनी अच्छी-भली प्रैक्टिस छोड़ दी थी। स्वयं तो देश की सेवा में लगे ही थे, अपने इकलौते बेटे और उसकी पत्नी को भी अंग्रेज-सरकार द्वारा लागू कानून का विरोध करने के लिए भेज दिया था। उस जमाने के ब्रिटिश शासकों के अंग्रेजी समाचार-पत्रों में समाचार प्रकाशित हुए कि वे कट्टर कम्युनिस्ट (साम्यवादी) हैं। उनका मुख्यालय संभवतः खास मॉस्को में है। खैर, छोड़िए भी वे सब बातें। इसतरह की बातें सुनना आपको भी संभवतः रुचिकर नहीं लग रहा है। ठीक भी तो है, बूढ़े लोगों की बातें सुनने में भला किस व्यक्ति को आनंद आता है ? आप ही बतलाइए न !"

मैंने तुरंत ही विशेष अभिरुचि दिखलाते हुए कहा, "नहीं-नहीं, ऐसी बात नहीं। सभी की रुचि एक जैसी थोड़े ही होती है। पुराने जमाने की बातें सुनने में मुझे तो अतिशय आनंद प्राप्त होता है।"

फिर तो वे सज्जन दिल खोलकर बोलने लगे-“देखिए, ये जो बातें मैं कह रहा हूँ, बातें करने में स्वयं रस ले रहा हूँ, तो यह सब केवल इसलिए नहीं कि बातें करना मेरा सहज स्वभाव है। दरअसल बात करने की मेरी यह जो प्रवृत्ति हो गई है, उसका कारण है कि यही तो मेरी नौकरी थी; आजीविका थी; जिंदगी की गाड़ी को आगे बढ़ा पाने की एकमात्र अवलंब थी। बात करने, अपनी बात कहकर दूसरे को सुनाने की; यही नौकरी तो मैं अपनी तमाम जिंदगी करता आया हूँ। इसी से यह मेरे स्वभाव में रच-बस गई है। संभवत: इसी से यह अब तक मेरे स्वभाव से गई नहीं। अब यही देखिए न, कि आपको जैसे ही अपने सामने बैठ पाया कि तभी से इकतरफा ही लगातार एक सुर, एक साँस में बकता ही जा रहा हूँ।"

"हाँ, तो अब आगे बतलाएँ न कि आपके बसंत भाईसाहब ने आपको जब पुकारा था, तब आप उनकी बात सुनने को पहुँचे, तो उन्होंने फिर आगे क्या कहा?"

वे बंगाली भद्रपुरुष अब फिर से सचेत हो बतलाने लगे-"बसंत भाईसाहब ने मुझसे पूछा था-'क्यों रे! आजकल तू क्या कुछ कर-धर रहा है ?' अब उनकी ऐसी पूछताछ में भला मैं कहता भी तो क्या कहता? मैंने कहा, 'एऍडी (रेड) राँध रहा हूँ। नितांत निष्प्रयोजन कामों में सारा समय नष्ट किए जा रहा हूँ, और क्या? किसी काम कोथरा का हूँ ही कहाँ? वह तो मेरे एक काकाजी हैं जबलपुर में, जो वहाँ से महीने के महीने रुपए भेजते रहते हैं, इसी से अभी तक भूखों तड़पकर मरा नहीं, अन्यथा कभी का मरखप गया होता। अब तुम मेरे द्वारा किए जा रहे काम के बारे में पूछ रहे हो, तो लाओ दो न, तुम्हीं मुझे करने को कोई काम दे दो, मेरे लिए कहीं कोई नौकरी-चाकरी दिलवा दो न!'

"बसंत भाई साहब ने गंभीर स्वर में कहा, 'उसी के लिए तो तुझे बुलाया है।'

"मैंने कहा, 'अच्छा, तो आप मुझे नौकरी दिलवा देने के लिए बुलाए हैं? अरे भाई साहब! आप तो जानते ही हो कि मैंने कोई लिखाई-पढ़ाई तो की नहीं खास। कोई काम-धंधा करने का हुनर भी नहीं सीख पाया हूँ। ऐसी दशा में भला कौन सी ऐसी नौकरी है, जो मैं कर भी पाऊँगा? हाँ, अगर कुछ लिखना-पढ़ना जानता होता तो कम-से-कम नन्हे-मुन्हे बच्चों को ही पढ़ा सकता था। वैसी हालत में महीने के अंत में कम-से-कम छह रुपए की आमदनी का जुगाड़ तो कर पाता।'

"बसंत भाई साहब बोल पड़े-'नहीं रे! इसकी वजह से तू मत परेशान हो। मैं जिस नौकरी की बात कर रहा हूँ, उस नौकरी में पढ़ाई-लिखाई और किसी भी प्रकार के शिक्षण-प्रशिक्षण या हुनर की कोई जरूरत ही नहीं है।'

"बसंत भाई साहब द्वारा कहीं गई बात मैं ठीक-ठीक समझ ही नहीं पाया। समझता भी कैसे? इस दुनिया-जहान में कोई ऐसी नौकरी भला कहीं है भी, जिसमें पढ़ाई-लिखाई की कोई आवश्यकता ही नहीं हो?

"परंतु बसंत भाई साहब ने उतने ही आश्वस्त स्वर में कहा, 'हाँ-रे-हाँ! ऐसी भी नौकरी-चाकरी है। सो भी दूर कहीं नहीं, यहीं अपने पास में ही है। वही बात बतलाने के लिए ही तो तुझे पुकारा था। अच्छा तो तू अब यह बता कि (कोलकाता के) ठनठन मुहल्ले में जो कालीबाड़ी, माने माँ काली का जो मंदिर है, उसे तू जानता-पहचानता है?'

"हाँ, बड़े मजे में पहचानता हूँ। हमारी जो स्कॉटिश-चर्च पाठशाला है न, उसके बिल्कुल पास में ही तो था वह मंदिर।'

"हाँ, बिल्कुल वहीं। तो वहीं पर जो कार्नवालिस-स्ट्रीट के तेरह नंबर का मकान है, उसके कर्ताधर्ता बाबू माधव मल्लिक जी का नाम कभी सुना है? अरे भाई, वे लोग तो काफी विख्यात लोग हैं। बहुत बड़े आदमी!'

"मैंने कहा, 'हाँ, हाँ, जरूर सुना है। उन्हें जानता भी अच्छी तरह हूँ। हाँ, इतना जरूर है कि अपनी आँखों से सामने-सामने उन्हें कभी देखा नहीं है। परंतु आप उनके बारे में मुझसे क्यों पूछ रहे हैं? अच्छा हाँ, क्या उन्हें अपने घर-गृहस्थी में कामकाज करने के लिए किसी घरेलू नौकर की जरूरत है ? अगर उन्हें ऐसे किसी नौकर की जरूरत है, तो कृपया बतला दें कि कौन सा वह विशेष काम है, जिसे करना होगा?'

"कामकाज तो कुछ भी नहीं करना है। करना बस इतना भर है कि, दोनों पहर यानी प्रात:काल की पूर्वाह्न वेला में और फिर दोपहर बाद की अपराल वेला में यानी कि सायंकालीन वेला में, दोनों ही समय नियमित रूप में उनके पास जाकर उनके साथ बैठकर उनसे बातचीत करनी होगी। बस वैसी ही, जैसी कि तुम अपने स्वाभाविक ढंग से करते हो।'

"उनकी बात सुनकर तो मैं अवाक् रह गया। भला ऐसा भी कहीं होता है क्या? इसी ऊहापोह में पड़ जाने के कारण उन्हीं से फिर ठीक-ठीक जानकारी ले लेने के लिए पूछ बैठा, 'क्यों भाई साहब! उनसे बातचीत भर ही क्यों कर करनी होगी?'

"बसंत भाई साहब ने तब बात को खोलकर समझाया-'इसलिए कि ऐसा ही करने के लिए एक बहुत बड़े वैद्य-चिकित्सक, यानी कि अंग्रेजी ढंग की चिकित्सा करनेवाले एक बहुत बड़े डॉक्टर ने सलाह दी है। इस माधव मल्लिक ने तो अपनी सारी जिंदगी जम के शराब पी है, नानाप्रकार की हसीन औरतों के साथ केलि-क्रीड़ा करता रहा है जीवन भर। उधर स्थिति यह है कि उसकी धन-संपत्ति इतनी अपार है कि उसकी कोई गिनती नहीं कर सकता। अपनी इन्हीं सब आदतों और धन के गुमान में किए गए नाना प्रकार के ऐसे कामों से जो मनुष्य शरीर पर बुरा असर डालते हैं-माधव मल्लिक अत्यंत असाध्य बीमारी की गिरफ्त में आ गया है। वैसे उसकी आयु अभी साठ वर्ष ही पूरी हो पाई है। उसके रोगों में अधिक पीड़ा देनेवाले रोग हैं-(1) रात में नींद आती ही नहीं, (2) जो कुछ भी खाता है, वह ठीक ढंग से हजम नहीं होता। भाँति-भाँति की चिकित्सा करवा चुकने पर भी जब लाभ नहीं हुआ, तो चिकित्सकों ने जलवायु बदलने के लिए बाहर जाने की सलाह दी, जिसे मानकर वह कई-कई बार, कई-कई जगह बाहर भी हो आया है, परंतु उस सबसे भी कोई फायदा नहीं हो सका। अच्छी-से-अच्छी दवाइयाँ खाने पर भी उसके रोगों की पीड़ा में कोई कमी नहीं आई। कोलकाता शहर का तो कोई डॉक्टर बचा ही नहीं है, जिसे कि उसने अपने रोग से छुटकारा दिलाने के लिए न दिखाया हो। हर तरफ से निराश हो जाने पर अंत में वियना (ऑस्ट्रिया, यूरोप) गया था चिकित्सा करवाने के लिए। वहाँ के एक बहुत ही सम्मानित डॉक्टर ने इसके रोग से संबंधित एक-एक लक्षण, एक-एक परेशानी और तमाम सारी विलक्षणताओं की जाँच-परख करने, सुनने, समझने के बाद व्यवस्था दी है कि 'इस असाध्य रोग की तो कोई चिकित्सा है ही नहीं। किसी भी चिकित्सा पद्धति में कोई भी दवा इसमें असरदार नहीं हो सकती। इस रोग के उपचार का एकमात्र निदान यह है कि प्रत्येक रोज प्रातः-सायं, पूर्वाह्न-अपराह्न नियमित रूप से उठती जवानीवाले खुशमिजाज छोकरों के साथ बैठकर वाहियात किस्म की, बिना सिरपैर की, ऊल-जुलूल बातें करें। ऊटपटाँग किस्म की, बिना विशेष चिंतन-मनन की सार्थक-निरर्थक, चाहे जिस भी प्रकार की बातें कई-एक नवयुवक, जो नित्यप्रति इनसे करें-उन्हीं की बातें सुनना और स्वयं भी दिलचस्पी लेकर उनसे वैसी ही बातें करते रहना होगा। इस रोग का एकमात्र यही एक इलाज है और यह इलाज निश्चय ही इतना असरदार है कि ऐसा करने से इनकी सारी आधि-व्याधि दूर हो जाएगी। शरीर चंगा हो जाएगा। अभी तब तक जो दूध वाली जैसी बच्चों की भी सुपाच्य चीजें खाने पर भी, इन्हें जो नहीं पच पाती थीं, वे सब उपलक्षण समाप्त हो जाएँगे। नवकिशोरों से बतकुच्चन करते रहने, अनाप-शनाप का गप-गपाष्टक करते रहने से यह पूरा-का-पूरा रोग ही सदा-सर्वदा के लिए ठीक हो जाएगा।'

"विश्वविख्यात चिकित्सक महोदय द्वारा दी गई इस सलाह को ही मुझे माधव मल्लिक के घरगृहस्थी के संचालन का सारा कार्यभार चलानेवाले सरकार महाशयजी ने ज्यों-का-त्यों बतलाया, क्योंकि इस काम के लिए उन्हें ऐसे ही नवयुवकों की जरूरत है। वैसे वे किसी नवयुवक की जरूरतों पर रहम खाकर ही उसे नहीं ढूँढ़ रहे, बल्कि ऐसा करने के पीछे उनका भी तो व्यक्तिगत भारी स्वार्थ सिद्ध हो रहा है। उनकी जो ऐसी अच्छी-भली कमाऊ नौकरी चल रही है, माधव मल्लिक के मरकर यमलोक सिधार जाने पर तो उनकी वह नौकरी भी चली जाएगी।'

"उनकी बात के बीच में ही मैं पूछ पड़ा-'तो क्या मैं बस अकेले-अकेले ही बतकही करता रहूँगा?'

"बसंत भाई साहब ने समझाया-'नहीं जी। अकेले क्यों होंगे? मैं भी तो तुम्हारे साथ हूँ। जब तुम्हें भी स्वीकार है तो अब हम दो व्यक्ति तो हो ही गए। मगर इसके बाद भी अभी दो की जुगाड़ और करनी होगी, परंतु उनकी कोई चिंता नहीं। इस समय में बेरोजगारी का जैसा भीषण समय चल रहा है, इस युग में बेकार नवयुवकों का देश में क्या कोई अभाव है रे!'

"तो भाई साहब! मल्लिक साहब ऐसे बेमतलब के काम के लिए कितने रुपए मासिक का वेतन देंगे?'

"बसंत भाई साहब ने जानकारी दी–'इस काम में कुल चार नवयुवकों को लगाकर उनमें से प्रत्येक को महीने के महीने तीस रुपए दिए जाएंगे। इस वेतन के भी ऊपर से जलपान भी पर्याप्त दिया जाएगा। बात यह है कि माधव मल्लिक के पास रुपयों की कोई कमी है नहीं, फिर कंजूसी क्यों बरतेंगे? उस जलपान में भी इतना कुछ मिलेगा कि उसे खाने के बाद तो फिर अपने घर पर कोई भोजन-छाजन करने की जरूरत ही नहीं होगी।'

"उनकी बात सुन तो ली, परंतु शुरू-शुरू में तो उसकी सार्थकता पर मुझे विश्वास ही नहीं हो पाया। आजकल के बाजार की जैसी दशा है, उसमें केवल बातचीत करने भर पर ही महीने के महीने तीस रुपयों की कमाई करते रहना तो 'बौने के हाथों में चाँद' प्राप्त हो जाने जैसी बात है। और फिर ऊपर से जलपान!

"मन को जब सचमुच ही तसल्ली हो गई, तो भाव-विह्वल स्वर में कह उठा, 'बसंत भाई साहब! आपके इतने बड़े उपकार के लिए मैं आपको किन शब्दों में धन्यवाद दूं, कुछ सोच-समझ नहीं पा रहा? ठीक है भाई, साहब! इस तरह का सुयोग मेरे लिए कर ही दो। जैसी भी हो, फिलहाल नौकरी करना मेरे लिए अत्यंत आवश्यक है। अतः चाहे जिस तरह से भी संभव हो सके, मेरे लिए यह चाकरी तुम्हें लगवा देनी ही पड़ेगी। आजकल रुपयों की मुझे बेहद जरूरत है, ऐसी कि उसके संबंध में जानकारी देनी मुश्किल है।'

"तो महाशय! अंत में एक दिन सचमुच ही मुझे नौकरी मिल गई। केवल मेरी ही नहीं, बल्कि मेरी, बसंत भाई साहब की, वीरेश की और सुधन्य की, यानी हम चारों लोगों की चाकरी लग गई। सभी-केसभी उस समय महाबेकार तो थे ही। इनमें से एक बसंत भाई साहब तो हमारे अपने हाथी बागान मुहल्ले में ही रहते थे, बाकी वीरेश और सुधन्य दूसरे मुहल्ले पाथुरेघाट के निवासी थे। इस चाकरी के पहले दिन से ही हम लोगों के आदर-सत्कार का बड़ा ही उत्कृष्ट और प्राचुर्य से भरा हुआ बंदोबस्त था। उस विशाल भवन के जिस विस्तृत सभागार में हम सब एकत्र होते, उसमें एक बेशकीमती तख्तपोश पर बिछे अति बेशकीमती बिस्तरे पर मसनद की टेक लगाए माधव मल्लिकजी विराजे रहते थे। उससमय उनकी अवस्था साठ वर्ष की थी। उनका निजी परिचारक (सेवक), जिसका नाम था-विपिन। उनके लिए शाही ठाटबाटवाले फर्शी (हुक्के) की चिलम में तंबाकू जगाकर लाकर उनके सामने सजा देता, फिर उस फर्शी हुक्के की लंबी नलकी के मुखवाले सिरे को ले जाकर वह अपने मालिक के हाथों में थमा देता। विपिन उनके लिए तंबाकू इस कलात्मक ढंग से सजाता था कि मालिक जब अभी पहला ही कश खींचें, तब खूब भारी मात्रा में धुएँ का गुबार निकल पड़े। अगर ऐसा नहीं होता तो मालिक मुख्तार महाशय क्रोध के मारे आगबबूला हो उठते। झिड़ककर बोल पड़ते-'यही तंबाकू सजाया है ? इसे क्या तूने केवल राख भरकर बना दिया है ?'

"उनकी ऐसी खिसियाई झल्लाहट देखते ही बसंत भाई साहब विनम्र निवेदन करते–'परवरदिगार! कृपया इतना अधिक क्रोध मत कीजिएगा, नहीं तो आपकी देह का रक्तचाप बढ़ जाएगा।'

"तब हम सबके स्वामी कह उठते–'बढ़ता है तो बढ़ जाए रक्तचाप (ब्लड-प्रेशर)। अरे, आनंदविभोर कर देनेवाला हुक्के का कश खींचना प्रथम वरीयता की चीज है-पहली पसंद की चीज वह है कि रक्तचाप बढ़ने की चिंता? अरे बेटे! आनंदविभोर कर देनेवाला कश खींचने में ही तो मजा है। परंतु विपिन जब वही मजा नहीं पहुंचा पा रहा है तो, अब विपिन को इस काम से हटाना ही पड़ेगा।'

"ठीक ऐसे मौके पर मैं कह उठता-'अब इसमें विपिन का क्या दोष है, हुजूर! दरअसल शहर के दुष्ट दुकानदार इतने ढीठ हो गए हैं कि आजकल तंबाकू में ही वे बड़े ही निकृष्ट व घटिया स्तर के माल की मिलावट कर दे रहे हैं। अतः यदि अपेक्षित मजा नहीं आ पा रहा है तो इसके लिए विपिन का कोई दोष नहीं है। सच्चाई तो यही है कि पूरा का पूरा दोष माल में मिलावट करनेवाले उस दुकानदार का है।' "हम सबके स्वामी ने तब व्यवस्था दी–'बात अगर ऐसी ही है तो विपिन दुकान ही बदल दे। उसी दुकान से माल मँगाने की बाध्यता ही क्या है ? अब तुम लोग ही बतलाओ कि बाजार में कौन बनिया रद्दी-वाहियात पदार्थों की मिलावट कर लोगों को ठग रहा है और कौन साहूकार शुद्ध व सच्चा माल बेच रहा है? इस बात की खोजबीन करने इतनी बूढ़ी उम्र का आदमी मैं बाजार में चक्कर लगाने जाऊँगा? अगर विपिन स्वयं इस सबकी जानकारी कर विशुद्ध माल नहीं ला सकता, तो फिर उसे सेवकाई में, नौकरी में रखा ही क्यों जाए?-अरे ओ छोकरे! जरा हमारे प्रबंधक सरकार-महोदय को तो बुलाकर यहाँ लिवा ला।"

परिणामस्वरूप सरकार-महाशय को तुरंत बुला लिया गया। मल्लिक-परिवार के घरेलू सारे कार्यों के प्रबंध करने के महत्त्वपूर्ण काम में सरकार महाशय बहुत लंबे समय से नियुक्त थे। इतनी लंबी नौकरी करते आ रहे सरकार बाबू पर हुजूर की जैसे ही निगाह पड़ी, वे हड़काकर पूछ बैठे-“अरे, ओ सरकार रे! हमारे इस विशाल भवन और परिवार में तू क्या करने के लिए है रे? तेरे यहाँ होने की जरूरत दरअसल है क्योंकर? जरा तू स्वयं अपने मुँह से बोलकर बता न, कि तुझे यहाँ किसलिए रखा गया है? जरा मैं भी तो सुनूँ! बाजार से खरीदकर जो ढेर सारा माल हमारी घर-गृहस्थी में आता है, उस माल को बाजार में कौन बनिया उसके विशुद्ध रूप में बेचता है और कौन कपटी-बनिया लोगों की आँख में धूल झोंककर उसमें सड़ी-गली, रद्दी चीजों की मिलावट कर उन्हें औरों के सर मढ़े दे रहा है ? अगर इस बात की खोज-परख तुम नहीं कर सकते, अच्छी तरह जाँच-परख करके विशुद्ध माल नहीं मँगा सकते तो तुम यहाँ पर हो ही क्यों? तुम्हारी जरूरत ही क्यों है ? जाओ, आज इसी क्षण से तुम्हारी नौकरी खत्म हो गई। अब अपने घर का रास्ता नापो। आज से तुम्हारा यहाँ का काम समाप्त हुआ।'

"उनकी इस बात के पूरा होते-होते ही बसंत भाई साहब उनके फैसले का समर्थन करते हुए बोल पड़े, 'ठीक ही तो है, सचमुच ही आप बिल्कुल ठीक कह रहे हैं, हुजूर! यह तो खुली हुई बात है कि आज जो इस तरह की लापरवाही हुई, उसमें विपिन बेचारे का तो कोई दोष ही नहीं है। सारा दोष तो असलियत में इन सरकार महाशय का ही था।'

"सुधन्य, वीरेश और मैंने भी ठीक वही बात कही। कहते भी क्यों नहीं? हमारे माननीय मालिक मल्लिक महोदय की इच्छा के विरुद्ध कुछ भी कहने से हमें पहले से मना कर रखा गया था। इन्हीं हुजूर महोदय की दी हुई सेवकाई–नौकरी जब हम लोग करते हैं तो उनकी इच्छा के विरुद्ध यदि हम लोग कुछ कहेंगे, तब हमारी भी नौकरी खत्म हो सकती है।

"उस दिन सचमुच ही उन सरकार महाशयजी की नौकरी चली ही गई। परंतु उसके लिए हम बेबस-लाचार लोग कर ही क्या सकते थे? जबकि साफ बात थी, अपराध तो किया था विपिन ने ही, परंतु उसके लिए सरकार महाशय को दंडित किया गया।

"परंतु नहीं, नहीं। अंतिम रूप से ऐसा कुछ नहीं हो पाया था; दो दिनों बाद ही हमने देखा कि सरकार महाशय अपनी जिस जगह पर पहले बैठकर सारा कामकाज करते-धरते थे, उसी कमरे में, उसी जगह पर बैठकर पहले की ही तरह खाता-बही पर हिसाब-किताब लिख रहे हैं। यह दृश्य देखकर हम चारों के चारों ही आश्चर्यचकित हो गए थे। हम सभी उन्हीं से पूछ रहे थे, 'कहिए, सरकार महाशयजी! आपकी नौकरी क्या खत्म नहीं हुई?'

"सरकार महाशय बोले, 'नहीं भाई! इस परिवार की मालकिन लक्ष्मी माँजी ने हम सबके अन्नदाता मल्लिकजी को अच्छी तरह से समझाया-बुझाया, इसी से मुझे फिर से बुलवाया गया है।'

"हम सब लोग जब अपने उन स्वामी महोदय के दरबार में पहुँचे तो पाया कि विपिन फिर पहले की भाँति सजा-धजाकर हुक्का तंबाकू ले आया है। स्वामी-हुजूर ने बड़े आराम के साथ जो पहला ही कश खींचा था कि उनके मुँह से गल-गल करता हुआ धुएँ का गुबार-सा बाहर उछल पड़ा। हमने देखा कि हमारे स्वामी, हमारे अन्नदाता महोदय अतिशय प्रसन्न हैं। कहने लगे, 'जानते हो, सरकार महाशय को मैंने फिर से अपनी सेवकाई में रख लिया है!'

"वीरेश तुरंत ही कह उठा-'बहुत ही भला काम किया है आपने हुजूर।' फिर तो हम सभी ने वही बात उसी सुर में उनसे कह सुनाई, क्योंकि इसप्रकार की बातें करने का ही नियम था।

"हमारी राय सुनने के बाद मालिक ने बतलाया-'मेरी गृह-लक्ष्मी, मेरी धर्मपत्नी महोदया ने भी ठीक वही बात कही थी। जानते हो, इतने वर्षों से बेचारा हमारे यहाँ काम करता आ रहा इतना पुराना कर्मचारी है, ऐसे व्यक्ति को नौकरी से निकाल बाहर कर देना उचित नहीं है। अब तुम लोग खुले मन से बतलाओ कि इस पर तुम लोगों का क्या मत है ?'

"सुधन्य ने कहा, 'हम सबकी लक्ष्मी माँ, इस परिवार की पालनकत्री माँ ने बिल्कुल उचित बात कही है। इतने दिनों के पुराने सेवक को उसकी नौकरी से हटाना ठीक नहीं हुआ था।'

"मालिक गद्गद हो पूछ बैठे थे–'तो तुम सब लोग भी वही बात कह रहे हो! तुम लोगों का विचार भी उनकी सलाह को ही उचित मानता है ?'

'जी, जी मालिक! हम सभी लोग वही बात कह रहे हैं। इतने दिनों के पुराने सेवक के सेवा-कार्य को उससे छुड़वा देने का निर्णय ठीक नहीं था।'

"तब हमारे संरक्षक महोदय बतलाने लगे–'वस्तुतः हमारी अर्धांगिनी मालकिन महोदया ने यही निवेदन किया था कि बाजार का दुष्ट बनिया तंबाकू में अगर आलतू-फालतू घटिया चीजें मिलाकर बेचेगा तो उसमें फिर बेचारे सरकार महाशयजी का क्या दोष है ? सच्ची बात तो यही है कि इसमें सरकार महाशय का तो रत्ती भर भी दोष नहीं है। जो कुछ भी दोष है, वह सारा-का-सारा छल-कपट करनेवाले व्यापारी बनिए का ही है। उसके बाद मैंने भी जो गहन सोच-विचारकर देखा तो इस निर्णय पर पहुँचा कि श्रीमतीजी की बात ही सही है-अब तुम लोग निडर होकर कहो कि तुम लोगों का मन क्या कहता है?'

"हम सभी ने एक ही सुर में एक साथ ही निवेदन किया, 'मालकिन लक्ष्मी माँ ने सर्वथा उचित बात ही कही है, हुजूर ! बड़ी ही अमूल्य राय उन्होंने दी है।' "उसके बाद से तो फिर सभी कुछ पहले की तरह से ही ठीक-ठाक ढंग से चलने लगा। सरकार महाशयजी की नौकरी भी सुरक्षित बनी रही और हम लोगों की नौकरी भी ठीक-ठाक बनी रही।

"एक दिन अकस्मात् ही हमारे अन्नदाता मालिक महोदय ने कहा, 'अरे ओ छोकरो! जानते हो, आज मेरी दाढ़ी बहुत ही खुजला रही है। अब जरा बतलाओ तो कि क्यों खुजला रही है मेरी दाढ़ी?'

"बसंत भाई साहब तपाक से बोले पड़े-'आज अमावस्या की तिथि है, हुजूर! अमावस्या के दिन दाढ़ी में खुजली मचना बहुत ही अच्छा होता है, जनाब!'

"अच्छा तो तुम बतला रहे हो कि आज के दिन दाढ़ी में खुजली होना ठीक है?'

"फिर तो हम सभी ने एक मत से कहा, 'जी हाँ, हुजूर, हम सभी लोगों की दाढ़ी आज खुजला रही है। खुजलाएगी ही, आज अमावस्या जो है।' इतना कहकर हम चारों के चारों लोगों ने ही अपनी-अपनी दाढ़ी खुजलाना शुरू कर दिया। यह सब अभी हो ही रहा था कि उसी बीच हुक्का गड़गड़ा चिलम सँभाले विपिन आ पहुँचा। हम सबके आश्रयदाता महोदय ने उससे भी पूछ ही लिया, 'अरे ओ विपिन ! जरा बतला तो तेरी दाढ़ी खुजला रही है?'

"अचानक दागे गए इस प्रश्न को सुनकर विपिन तो सन्न हो गया। फिर सहमते-सहमते बोला, 'नहीं हुजूर ! मेरी दाढ़ी तो नहीं खुजला रही।'

मालिक मारे क्रोध के फट पड़े। डपटकर बोले, 'क्या कहा तुमने? कहा कि तेरी दाढ़ी खुजला नहीं रही? क्या तू यह भी नहीं जानता कि आज अमावस्या है और आज के दिन पुरुषों की दाढ़ी खुजलाती है? तो तू पुरुष है कि स्त्री है?'

मालिक महोदय की ऐसी बात सुनकर वह बेचारा तो हक्का-बक्का हो गया।

"हम सबके स्वामी हुजूर ने आज्ञा दी, 'बुला सरकार महाशय को, अभी इसी क्षण जाकर बुला ले आ।'

आदेश पाते ही सरकार महाशयजी भागे चले आए। मालिक ने तुरंत ही उनसे भी पूछा, 'सरकार महाशय। जरा सच-सच बतलाइए तो कि आपकी दाढ़ी खुजला रही है कि नहीं?'

"सरकार महाशय ने बिना किसी शील-संकोच के झट उत्तर दिया, 'हाँ मालिक। मेरी दाढ़ी खुजला रही है।

अब कर्ता बाबू ने विपिन की ओर घृणा की दृष्टि से देखते हुए कहना शुरू किया-'अरे ओ विपिन ! आ इधर, अब देख न, हम सभी लोगों की दाढ़ियाँ आज खुजला रही हैं और एक तेरी है कि खुजला ही नहीं रही। जानता है, इसका कारण क्या है ? वस्तुत: तू पुरुष मनुष्य है ही नहीं। जानता नहीं है क्या कि आज अमावस्या की तिथि है और आज के दिन असली पुरुष मनुष्यों की दाढ़ी खुजलाती है। अगर तेरी दाढ़ी नहीं खुजला रही तो बात साफ है-दरअसल तू हिजड़ा है, हिजड़ा! अतः अब जा इस जगह से विदा हो जा। भाग जा मेरी इस कोठी से। आज से अपनी इस कोठी में मैं हिजड़ा नहीं पोसूँगा।'

फिर सरकार महाशय की ओर पलटते हुए उन्होंने आदेश दिया-'सरकार महाशय! विपिन का नाम हमारे यहाँ नियुक्त सेवकों के नामों के बही-खाते से काटकर निकाल दीजिए। वस्तुतः वह नपुंसक है, हिजड़ा है। उसे अब और अपने यहाँ की सेवकाई में नहीं रखूँगा।'

"इतना सुनना था कि विपिन बुक्का फाड़कर रोने लगा। हिचक-हिचककर रोते-रोते ही कहने लगा -'जी हुजूर! सचमुच में मेरी दाढ़ी भी खुजला ही रही है। अब तक मैं इसे समझ ही नहीं पाया था, इसी से' इतना कहकर अपने दोनों हाथों से घरर-घरर करके लड़ते हुए अपनी दाढ़ी खुजलाने लगा।

"हमारे स्वामी आश्वस्त हो बोल पड़े, 'चलो, अच्छा ही हुआ। आफत विदा तो हुई। हाँ तो सरकार महाशय! विपिन का नाम सेवकों के नामों में से अब काटना नहीं पड़ेगा। अब तक वह जिस तरह से कामकाज करता आया है, आगे भी करता रहेगा।'

हम सभी ने फुरसत की साँस ली। चलो अच्छा हुआ, विपिन की चाकरी बच गई। उसके बाद वाले दिन से वह ठीक उसी तरह काम करने लगा, जैसे कि पहले किया करता था।

उसके बाद एक दिन मैं जो बतकही किए जा रहा था, उसके आगे के विवरण की ओर बढ़ते हुए हमारे स्वामी ने यकायक मुझसे पूछा, 'हाँ तो अनिमेष, तुम जो बात बतला रहे थे, उसमें आगे क्या कहा था तुमने, जरा फिर से तो बतलाओ।'

मैंने उन्हें बतलाना आरंभ किया—'उसके बाद वह बूढ़ा मर गया और उसकी मृत्यु हो जाने के बाद से उसका बेटा बड़े आराम से दिन बिताने लगा।'

हमारे अन्नदाता स्वामी इतना सुनते ही अचंभे से भरकर दुत्कारने लगे-'सो कैसे संभव है जी? बूढ़े बाप के मर जाने पर बेटा क्या आराम से दिन बिताता है ? नहीं, जी नहीं। इसतरह से करने से चलेगा नहीं। ऐसा है कि इस बतकही के अंतिम अंशों की चीजें तुम बदल ही डालो। माने, बाप के मरने पर बेटे ने खाना-पीना सभी कुछ छोड़ दिया। रात-दिन रोते-रोते एकदम अजलस्त हो गया बेचारा, उठनेबैठने तक की ताकत नहीं बची उसमें, बल्कि ऐसी ही पीड़ा भरी स्थितियों में सिसकाते-सिसकाते उस बेटे को भी तुम मारकर फेंक ही दो।'

मैंने कहा, 'कितना सही सोचते हैं आप परवरदिगार! मैं भी ठीक उसी प्रकार की परिणति करने जा रहा था, परंतु...'

मेरी बात को बीच में ही रोकते हुए हमारे स्वामी बोल पड़े-'वह सब परंतु-फरंतु कुछ नहीं। मैं जो सुझाव दे रहा हूँ, तुम ठीक-ठीक वही सब कर दो। उस बेटे को भी मौत के मुँह में ढकेल ही दो। अगर तुम्हें कहीं कोई कठिनाई महसूस हो रही है तो पहले मेरी इस जिज्ञासा का तो उत्तर दो कि बाप के मर जाने के बाद बेटा किस तरह से जीवित बचा रहता है ?'

मेरे कुछ मानने से पहले ही बसंत भाई साहब बोल पड़े-'हमारे अन्नदाता स्वामी बिल्कुल सही फरमा रहे हैं। अपने परमपूज्य प्यारे पिता की मृत्यु के शोक में आकुल-व्याकुल हुए बेटे ने अपने गले में फाँसी का फंदा लगाकर ऊँचाई से लटककर आत्महत्या करते हुए पूरी तरह से अपनी जीवन लीला ही समाप्त कर दी।'

उल्लसित होकर हम सबके स्वामी ने फैसला-सा ही सुना दिया, 'वाह बेटे बसंत ! तुमने सोलह आने सच बात बतला दी है। दरअसल अनिमेष तो कुछ जानता ही नहीं।'

मेरे बाकी साथियों-सुधन्य और वीरेश ने भी हम सबके स्वामी मल्लिक महाशय के फैसले का मुक्त कंठ से समर्थन किया, 'जी हाँ अन्नदाता ! अनिमेष सचमुच ही कुछ नहीं जानता है; बल्कि इस बतकही का और भी श्रेष्ठ रूप तो यह होगा, जिसमें बाप किसी भी तरह मरेगा ही नहीं। बाप को तो हमेशा बचे ही रहना होगा।'

तब हमारे मालिक ने सलाह सी देते हुए कहा, 'हाँ, बिल्कुल ठीक बात है। ऐसा करो अनिमेष कि बाप को मरने ही मत दो, उसे फिर से बचाकर भला-चंगा कर रखो। आजकल की अति विख्यात अंग्रेजी एलोपैथी चिकित्सा से अगर न बच पाता हो तो होमोपैथी चिकित्सा के जरिए ही उसे बचा लो। अगर उससे भी न सधे तो जरूरत समझो तो भारतीय आयुर्वेद पद्धति के जानकार किसी अच्छे वैद्य महोदय की आयुर्वेदिक औषधियों को खिलाकर ही उसे चुस्त-दुरुस्त रूप में स्वस्थ करके बचा लो।'

अंतत: मैंने भी वैसा ही किया। बाप को भी बचा लिया, और बेटे को भी बचाए रखा। बतकही को ऐसा मोड़ दे देने से हमारे मालिक बेहद प्रसन्न हुए। इतने आनंद से विह्वल कि तुरंत ही उन्होंने आदेश दिया कि हम चारों ही सेवकों को खाने के लिए तुरंत मिठाई मँगा ली जाए। वह भी क्या साधारण रूप से बाजारों में पाई जानेवाली मिठाइयाँ ? नहीं; घोड़ा जुता इक्का लिये विपिन सीधे ग्रे-स्ट्रीट की सबसे प्रसिद्ध मिठाई की दुकान 'घोष ब्रदर्स' पर तेज रफ्तार से चला गया। सबसे मशहूर मिठाई की इस दुकान से पचास रुपए के तो संदेश (बंगाल की अति लोकप्रिय) मिठाई ही मँगा ली गई। इतनी उत्कृष्ट कोटि की संदेश मिठाई उसके पहले मैंने बस आँखों से देखी भर थी, कभी खाई नहीं थी। बसंत भाई साहब की कृपा से उसे चखने और खाने का भी सौभाग्य मिल गया।

'बस इसी रूप में हम लोगों की सेवकाई का वह काम चल रहा था। महीने-महीने हम सभी लोग रुपए तीस वेतन के भी पाते जा रहे थे। ऊपर से खाना भी पा जाते थे। उससे भी अधिक सुविधा की बात यह थी कि वह काम भी बहुत सीधा-सादा और आसान था। उस सेवकाई या नौकरी में पढ़ने-लिखने की किसी योग्यता की कोई जरूरत ही नहीं थी।

'दिन ऐसे ही बीतते रहे। उसके बाद एक समय, एक दिन मेरी माताजी भी स्वर्ग सिधार गईं। श्मशान घाट पर माँ की चिता जलाकर, उनकी अंत्येष्टि के काम यथाविधि संपन्न करने के बाद मैं फिर पहले की तरह ही मल्लिक महाशय के उस दरबार में तुरंत ही उपस्थिति देने पहुंच गया। इस नौकरी में मैंने एक दिन की भी उपस्थिति कम नहीं होने दी। बड़ी निष्ठा से प्रतिदिन सेवा-कार्य करता रहा; क्योंकि मन में बराबर ही आशंका बनी रहती कि सेवकाई के इस काम में जी चुराने, हीला-हवाली करने से कहीं यह नौकरी ही न चली जाए! इसीप्रकार काम करते-करते किस विधि से यौवन की वेला बिताकर बुढ़ापे की अवस्था में पहुँच गया था, इसका हिसाब-किताब रखने का मौका ही नहीं पा सका।

"हमारी सेवकाई के उस कार्यकाल के दौरान ही हमारे अन्नदाता स्वामी मल्लिक महाशय के बेटे का विवाह संपन्न हुआ। वह विवाह भी देखने लायक ही था। उस विवाह में जितनी परम सुंदरी बहू आई थी, उसी तरह विवाह का वह उत्सव भी इतने भव्य रूप में हुआ था। राज-राजेश्वरों के यहाँ ही वैसा हो पाना संभव था। लगातार तीन दिनों तक लोगों का भोज-भात का भंडारा चलता रहा, जहाँ अनगिनत लोगों ने छककर भोजन किया। मल्लिक महाशय के समधीजी (बेटे के श्वसुर महाशय) की विशाल कोठी पर भी हमें सादर निमंत्रण दिया गया था। वहाँ भी हमें जो आहार दिया गया, वह राजकीय ठाट-बाट का था। हमारे अपने मालिक के यहाँ जो महाभोज आयोजित हुआ था, उसमें भी हजारों लोगों को राजकीय उत्कृष्ट आहार ही खिलाए गए।

हमारे दिन इसी प्रकार परम सुख-चैन से बीत रहे थे कि एक दिन जब हम लोग सवेरे की वेला में बतकही करने पहुंचे कि अचानक ही महा कष्टकारी संवाद सुना कि उस बीती रात को ही हमारे अन्नदाता स्वामी मल्लिक महाशय ने अंतिम साँस छोड़ी। वे इस धरा-धाम से विदा ले स्वर्ग प्रस्थान कर गए हैं। उस समय उनकी आयु पूरे नब्बे वर्ष हो चुकी थी। असाध्य रोग से जर्जर शरीरवाले जिस व्यक्ति को साठ वर्ष की अवस्था में ही बड़े-बड़े चिकित्सकों ने मर जाने की घोषणा कर दी थी, वे बतकही की अड्डेबाजी में रस लेकर भाग लेते हुए पूरे तीस और वर्षों तक जीवित रहे थे।

'तीस वर्षों बाद जो यह दुःखद स्थिति आ गई तो फिर अब क्या होगा?' सेवकाई के उस कार्य से जुड़े हम चारों-के-चारों ही बड़ी ही दुश्चिंता में पड़ गए। क्या सचमुच ही तब हमारी सेवकाई, यानी कि नौकरी चली गई? बसंत भाई साहब, सुधन्य, वीरेश और मैंने साथ-साथ मिल-जुलकर भी बहुत मूड़ मारा, नाना प्रकार से सोचा-विचारा, किंतु कहीं से भी कोई आशा की किरण कौंधती नजर नहीं आई। हमें सहारा दे सकने लायक कोई आधार, कोई अवलंब नहीं मिल सका। हम चारों ने ही इतना लंबा समय बड़ी मौज-मस्ती से, हर प्रकार के आराम से भरपूर स्थितियों में बिताया है। हम तो यही सोचते रहे हैं कि हमारे अन्नदाता प्रभु मल्लिक महाशय अनंत-काल तक स्वस्थ और सानंद बचे रहेंगे और हम लोग भी उनकी सेवा करने के उस काम को वैसी ही निष्ठा से सदा-सर्वदा करते जाएँगे। केवल सेवकाई या नौकरी भर ही नहीं, बल्कि उसके साथ-साथ जो उत्तम-मध्यम प्रकार का सुरुचिकर और परितृप्त करनेवाला भोजन करने का सुअवसर भी तो है। इस प्रकार की नौकरी इस धरा-धाम पर, पूरे विश्व में किसी भी देश में, कहीं भी, किसी भी रूप में है क्या? इस पृथ्वी के किसी भी व्यक्ति ने, किसी भी समय में इस प्रकार की सेवकाई (नौकरी) की है क्या? यहाँ तक कि इस प्रकार की नौकरी की बात भी सुनी है क्या?

'आपस में बहुत सारा विचार-विमर्श करके भी हम लोग कोई कूल-किनारा नहीं पा सके। हम चारों लोगों में भी सबसे भारी विपत्ति मेरे लिए ही आ पड़ी थी। जबलपुर निवासी मेरे काकाजी, मेरी माँ जब तक जीवित थीं, तब तक लगातार रुपए भेजते रहे थे। उसके बाद जब उन्हें सूचना मिल गई कि मैं नौकरी पा गया हूँ, उसके बाद से उन्होंने भी रुपए भेजने बंद कर दिए थे। अब तो उधर वे भी दिवंगत हो गए। अतः अब उधर से भी कुछ मिल सकने की उम्मीद नहीं है। ऐसी दशा में मैं करूँ भी तो क्या करूँ? इस चिंता में परेशान था। परंतु मैं ही परेशान था, ऐसी भी बात नहीं। हम चारों के चारों की कुछ ऐसी ही दुर्दशा थी। जब कभी हम चारों कहीं एक जगह मिल जाते, तब अपने लिए कहीं किसी नौकरी की जुगाड़ करने के संबंध में ही विचार-विमर्श करते। माधव मल्लिक महाशय ने मरने के लिए कोई और समय नहीं पाया? वियना के मशहूर डॉक्टर ने तो उन्हें यही सलाह दी थी न कि नवयुवकों के साथ बातचीत करते हुए समय बिताते रहने पर वे हर तरह से स्वस्थ बने रहेंगे। ऐसी दशा में फिर यह ऐसा कैसे हो गया? अपनी मृत्यु के ठीक पहले के दिन भी तो वे पूरा चुस्त-दुरुस्त और आनंद से भरपूर, पूरी तरह से निश्चिंत और प्रसन्नचित्त थे। हम लोग तो पूरे समय उनके साथ हँसी-ठट्ठा करते रहे थे, परंतु उनकी इस तरह अकस्मात् ही मृत्यु आ सकने का कोई अंदाजा तक नहीं पा सके थे। अभी उस दिन भी तो उन्होंने खूब हँस-हँसकर बातें करते हुए अपने शाही हुक्के से कश-के-कश खींचते हुए बतकही की थी। पूरी तरह स्वस्थ और सानंद थे।

'हर तरफ से निराश हो चुकने पर तब मैं एक ज्योतिषीजी के पास गया। वे ज्योतिषशास्त्र के सहारे सलाह देने का काम तो करते थे, परंतु उसके बदले में किसी से भी कोई रुपया-पैसा नहीं लेते थे। उन्होंने गंभीरतापूर्वक मेरा हाथ देखा। फिर आश्वस्त करते हुए बोले, 'नहीं भाई। घबराने की कोई बात नहीं है; क्योंकि अभी फिलहाल तुम्हारी नौकरी जरूर चली गई है, फिर भी; फिर से नौकरी लग जाएगी। चिंता की कोई बात नहीं।'

"मैंने जानना चाहा–'किस तरह नौकरी मिलेगी मुझे?' उन्होंने बतलाया, 'नौकरी तुम्हें किस तरह मिलेगी? सो तो मैं नहीं बतला सकता हूँ, परंतु इतना अवश्य है कि अभी भी नौकरी करने का कर्मयोग तुम्हारे हाथों की रेखाओं में वर्तमान है।'

'तो जानते हैं महाराज, क्या हुआ? आश्चर्य हुआ जी, आश्चर्य! ज्योतिषी की भविष्यवाणी इस तरह सत्य सिद्ध होगी; ऐसा तो मैंने स्वयं भी नहीं भरोसा किया था।

'अकस्मात् ही एक दिन बसंत भाई साहब मेरे क्वार्टर पर आ उपस्थित हुए। उस समय मैं भात राँध रहा था, क्योंकि कुछ-न-कुछ तो खाना पड़ेगा ही। होटल में जाकर भोजन करने के लिए तो रुपए थे नहीं। अतः जो कुछ भी लेई-पूँजी के पैसे बचे थे, उन्हीं से साग-भाजी, अरवी-बन्हा-केरमी साग, जो कुछ भी बन सकता था, खरीद लाता और उसी के सहारे भोजन करने के लिए कुछ रीध-राँध लेता और उसे ही खाकर गुजर कर रहा था। ऐसी ही दारुण-दशा में यकायक बसंत भाई साहब के कंठ से निकली पुकार सुनी तो झटपट बाहर निकल आया।

'बसंत भाई साहब देखते ही कह उठे, 'बाकी सभी को सूचना दे चुकने के बाद अब तेरे पास आया हूँ। बात दरअसल यह है कि हम सभी लोगों की जो सेवकाई समाप्त हो गई थी, वह अब फिर से उसी रूप में हो जाएगी।'

"इसका ठीक-ठीक मतलब क्या हुआ, जरा समझाएँ!'

'बसंत भाई साहब ने समझाया, 'आज प्रात:काल की वेला में उसी सरकार महाशयजी ने अपना एक कारिंदा भेजकर हम लोगों को सूचित करवाया है कि हम सभी लोगों को फिर से ठीक पहले की भाँति ही पूर्वाह्म-अपराह्म मल्लिक महाशय की कोठी पर जाते रहना होगा।'

'सो क्या करने के लिए जी?' 'बस वही पहले ही की तरह बतकही की सेवकाई करने के लिए।'

'यह संवाद सुनकर तो मैं आश्चर्य के मारे ठक्क रह गया। स्थिति को और अच्छी तरह समझ लेने के उद्देश्य से पूछा, 'वह क्या बात हुई, भाई? अगर वैसा करना ही हुआ तो वह हो कैसे पाएगा? मल्लिक महाशय तो मर चुके हैं, फिर किसके साथ बतकही करेंगे हम सब?'

'बसंत भाई साहब ने तब सारा रहस्य खोलकर बतलया, 'कल की रात उस परिवार की माँ लक्ष्मीमालकिन (स्वर्गीय मल्लिकजी की धर्मपत्नी) महोदया ने सपना देखा है। बतलाते हैं कि संभवतः सपने में उन्हें मल्लिक महाशय ने दर्शन देकर पूछा था कि तुमने मेरे द्वारा लगाई गई उस सेवकाई की चाकरी को छुड़वाकर उन सबको भगा क्यों दिया? क्या तुम समझ बैठी हो कि मैं पूरी तरह मर गया हूँ? नहीं, तुम ऐसा नहीं कर सकतीं। वे सब पहले जिस तरह आते थे, ठीक उसीतरह फिर आया करेंगे और ठीक पहले की तरह ही बतकही या बतकुच्चन किया करेंगे। तुम्हें भी सावधान किए दे रहा हूँ कि तुम जिस प्रकार से खाने-पीने के लिए जलपान, भोजन-छाजन उन्हें पहले देती थीं, ठीक उसी भाँति अब भी दिया करोगी। वे सब महीने-के-महीने जिस तरह पहले वेतन पाते थे, ठीक उसी प्रकार अब भी पाएँगे। अब इस काम में कोई देरी मत करना। कल ही उन सभी को संदेश भेजकर बुलवा लेना।'

'बसंत भाई साहब की बात सुनकर तो मेरी जबान ही बंद हो गई। आश्चर्य से सकपकाया हुआ मैं सोच ही नहीं पाया कि कहूँ तो क्या कहूँ? परंतु वाणी के यकायक कुंठित हो जाने से भले ही धक्का लगा हो, परंतु भीतर-ही-भीतर आनंद की हिलोर भी कोई कम नहीं उमड़ी। प्रसन्नता के मारे दिल बागबाग हो गया। बंगाली भद्रजनों ने कोई कारोबार करना तो सीखा नहीं; बस केवल नौकरी-चाकरी या सेवकाई करना ही तो सीख सके हैं। इसी से सेवकाई लग जाने की सूचना मिलते ही ठीक उसी समय तुरंत ही हम सभी-के-सभी पहले की भाँति ही मल्लिक महाशयजी की राजप्रासाद जैसी कोठी पर जा पहुँचे।

'इस बार जो उनके उसी दरबार-हॉल में प्रवेश किया तो देखते हैं कि उस विशाल कक्ष की एक ओर की दीवार के सहारे मल्लिक महाशय का एक अति विराट चित्र टिकाकर रखा हुआ है। पहले मल्लिक महाशय जब स्वयं उस कक्ष के तख्त-पोश पर विराजे होते थे, तब हम चारों जहाँ-जहाँ बैठा करते थे, ठीक उसी-उसी जगह जाकर फिर बैठ गए। मल्लिक महाशय के न होने के कारण अब हम लोग आपस में ही बतकही करने लगे। उनका परिचारक विपिन भी काम पर लगा हुआ था, सो उसने भी अपना काम करते हुए, बड़ी अच्छी तरह चिलम सजाकर विशाल आकार-प्रकार वाला हुक्का लाकर यथास्थान रख दिया। उसकी जो बहुत ही लंबी नली थी, मुँह में डालकर कश खींचनेवाले उसके सिरे को उसने मल्लिक महाशय के चित्र में बने मुख के अंश से छुआ दिया। हम सब ठीक पहले की भाँति ही गप्पबाजी या बतकुच्चन में तल्लीन हो गए। फिर ठीक पहले के समय के अनुसार ही निर्धारित वेला में विपिन ने हमारे लिए गरमागरम लूची (विशेष प्रकार की मैदे की बनी बंगाली पूड़ी), आलूदम, रसगुल्ला, राजभोग मिठाइयाँ लाकर सामने सजा दीं। पहले के दिनों की भाँति हमने उन सबका सद्व्यवहार किया। फिर घड़ी ने जैसे बारह बजने की सूचना दी, पहले की भाँति हम सभी उठ खड़े हुए और अपने-अपने निवासस्थान को चले गए। सायं जब चार बजने का समय हुआ ही था कि हम सभी फिर मल्लिक महाशय के चित्र के सामने पहले की भाँति जा बैठे। विपिन फर्सी का शाही हुक्का चिलम जलाकर सजा लाया और फिर पहले की तरह ही उसकी नलकी उसने चित्र में अंकित मुँह के होंठों से लगा दी। उसके बाद प्रात:कालीन पाली की तरह ही विपिन फिर हमारे लिए जलपान का सामान ले आया। गरमागरम लुची, आलूदम, रसगुल्ला, संदेश वगैरह लाकर उसने हम सबके सामने सजा दिए। हम सबने भी पहले की भाँति ही उसका सदुपयोग करते हुए चाट-चूटकर उन्हें साफ कर दिया।

"अच्छा तो अब आप अच्छी तरह विचारकर बतलाएँ, कि इस प्रकार की नौकरी इस पृथ्वी पर किसी ने कभी भी कहीं की है क्या? हमारी इस अद्भुत प्रकार की सेवकाई में और भी बहुत सारी खूबियाँ थीं, परंतु उन सब बातों का विवरण देने में तो बहुत अधिक समय लग जाएगा। बस संक्षेप में यही जान लें कि हमारे श्रद्धेय अन्नदाता स्वर्गीय मल्लिक महाशय के देहावसान के बाद भी, उनकी श्रीमतीजी, माने कि हम सबकी माँ लक्ष्मी मालकिनजी जब तक जीवित रहीं, तब तक हमारा कामकाज ठीक उसी प्रकार चलता रहा। हम लोग भी उस नौकरी को उसी रूप में चलाते चले गए। इसे वर्षों के हिसाब से गिनकर देखें तो लगभग पंद्रह वर्षों तक सबकुछ इसी प्रकार चलता रहा। हम लोग वहाँ समयानुसार पहुँच जाते। जलपान, भोजन-छाजन करते और सेवा कार्य के नाम पर बस बातें करते। इस वेला, उस वेला दोनों ही वेलाओं में लगातार। महीने-दर-महीने प्रबंधक सरकार महाशय हम सभी के हाथों में वेतन भी दे दिया करते थे।

परंतु एक दिन अचानक ही हमारी वे लक्ष्मी माँ भी चल बसीं। उनकी मृत्यु होने के साथ-साथ ही हमारे सर पर वज्रपात हुआ-हमारा सारा सौभाग्य ही नष्ट हो गया। वैसे स्वर्गीय माधव मल्लिक महाशय के सुपुत्र विजय मल्लिकजी और उनकी धर्मपत्नी महोदया अभी बचे हुए थे, फिर भी हमारे दिलों में भारी दुःखदायक प्रश्न उभर आया, 'वे लोग हमें इस सेवकाई में बहाल किए रखेंगे क्या?' वे सुपुत्र महोदय अपने स्वर्गीय पिता की भाँति हमें समयनुसार जलपान, भोजन देते रहकर, महीने-महीने वेतन अदा करके पालते-पोसते रहेंगे क्या? ऐसा वह करेंगे भी क्यों, जबकि हम लोगों को तो वह अच्छी निगाह से देखते ही नहीं थे?

घबराहट के मारे बसंत भाई साहब से पूछ बैठा, 'क्यों भैया ! अब हम लोगों का क्या होगा? आज की परिस्थिति में क्या हम लोगों की सेवकाई चली जाएगी?'

घबरा तो हम सभी गए थे, परंतु लक्ष्मी माँ की मृत्यु हो जाने के बाद के समय में भी प्रबंधक सरकार महाशय हमें प्राप्त हो सकनेवाला वेतन महीने के महीने ठीक समय पर पहले की भाँति ही देते रहे थे। पूर्व की भाँति समुचित समय पर उनकी अंत्येष्टि और श्राद्ध-कर्म का निमंत्रण भी हमें मिला। फिर हम लोग भी मल्लिक महाशय के चित्र के सामने बैठकर पहले की ही तरह बतकही करने लगे। उधर विपिन भी शाही फर्शीवाला विशाल हुक्का चिलम से सजाए लाकर उसकी लंबी नलकी के सिरे को मल्लिक महाशय के चित्रांकित मुख से पहले की तरह ही छुआ देता रहा। हम चारों के चारों जने पहले के नियम के अनुरूप ही बातचीत का दौर परम निश्चिंत हो चलाते रहने में निमग्न हो रहे थे। फिर पूर्व निर्धारित वेला पूरी हो जाने पर अपने-अपने घर लौट आया करते। उसके बाद दुपहरी के बाद वाली पारी में फिर गए और कथक्कयाड़ी या बतकही का क्रम चलाने लगे, ठीक उसी तरह जैसे कि पहले चलाया करते थे। माँ लक्ष्मी के परलोक चले जाने के बावजूद हमने अपने कर्तव्य-कर्म में कभी कोई ढील नहीं दी। अपने कामकाज में कहीं रंचमात्र भी कोई लापरवाही नहीं बरती, कोई विरुद्धाचरण नहीं किया। उस ओर से भी कोई हीला-हवाली नहीं हुई। महीने की पहली तारीख को ही हम अपना वेतन पा लिया करते थे।

इसी भाँति सबकुछ मजे से चल रहा था। मैं तो यही सोचे हुए था कि इसी भाँति चलते-चलते यही सेवकाई करते हुए मस्ती से सारा जीवन कट जाएगा। परंतु अचानक ही एक दिन एक आश्चर्यजनक घटना घट गई।

उस दिन अपने अन्य सहकर्मियों की अपेक्षा मैं कुछ पहले ही अपने घर लौट आने के लिए चल पड़ा था। तभी विपिन मेरे पास आया और एक बंद लिफाफे में रखी हुई चिट्ठी मेरे हाथ में थमाकर चला गया।

'किस चीज की चिट्ठी है ?' स्वाभाविक जिज्ञासा उभरी। सोचा, लिफाफा खोल चिट्ठी पढ़कर देख ही लूँ, परंतु तभी खयाल आया कि खोल देने से कुछ कठिनाई भी तो आ सकती है, विशेषकर तब, जबकि कोई अति गोपनीय बात इसके अंदर हुई तो! अतः वहीं खोलना उचित नहीं समझा। हाँ, जल्दीजल्दी कदम बढ़ाता शीघ्रातिशीघ्र अपने निवासस्थान पर जा पहुँचा। पहुँचते ही लिफाफा खोलकर उसके भीतर रखी चिट्ठी पढ़ डाली। यह एक बड़ी ही अद्भुत चिट्ठी थी। ऐसी विचित्र कि ऐसी चिट्ठी तो अपने जीवन भर कभी मैंने किसी से पाई ही नहीं थी। उस चिट्ठी में लिखा पाठ इस प्रकार था-

'अनिमेष बाबू! यह चिट्ठी पढ़कर आप मुझे पहचान नहीं सकेंगे कि मैं कौन हूँ और क्योंकर मैंने यह चिट्ठी आपको लिखी है? अतएव अच्छा हो कि आनेवाले बुधवार के दिन, रात के ठीक नौ बजे के समय आप 'ज्योति-सिनेमा हॉल' के सामने आकर खड़े रहिएगा। वस्तुतः आपके साथ मेरी अनेक गोपनीय बातें हैं, जिन्हें चिट्ठी में लिखकर बताना संभव नहीं है। प्रत्यक्ष भेंट होने पर वह सभी कुछ जान सकेंगे। इति।'

"चिट्ठी के अंत में कहीं किसी का नाम-पता कुछ भी नहीं लिखा है। अकुलाहट में उस चिट्ठी को मैं बार-बार पढ़ता गया। किसने लिखी है यह चिट्ठी? परंतु उस पत्र-लेखिका को मैं पहचानूँगा भला कैसे? उसकी लिखावट का जो रंग-रूप है, लड़कियों के हस्तलेखों की बनावट जैसी होने के कारण यह तो स्पष्ट हुआ कि यह किसी लड़की की लिखी हुई है। उस चिट्ठी को बार-बार पढ़ चुकने पर भी मैं उसका कोई तात्पर्य नहीं निकाल पाया। यकायक मन में एक प्रश्न कौंधा, तो क्या यह चिट्ठी स्वर्गीय मल्लिक महाशय की पुत्रवधू के हाथों लिखी हुई है ? कौन जाने ? वास्तविकता क्या है, मैं कोई निर्णय नहीं कर पाया।

'बुधवार का दिन स्थिर है। परंतु बस दूसरे दिन ही तो बुधवार है। 'ज्योति-सिनेमा हॉल' निश्चय ही वही है-धर्मतला स्ट्रीट वाला (कलकत्ते का) प्रसिद्ध सिनेमा हॉल। इसका मतलब यह कि चिट्ठी मिलने के ठीक दूसरे दिन ही उसी धर्मतला स्ट्रीट के ज्योति सिनेमा हॉल के सामने जा खड़ा रहना होगा, जहाँ पत्र-लेखिका से भेंट होने की सूचना दी गई है।

उस दिन शाम ढलने के बाद से ही बिस्तरे पर जो पड़ा तो पूरी-की-पूरी रात सोए रहने पर भी एक सेकंड के लिए भी आँखों में नींद नहीं आई। सुबह होते-होते तो देह-मन सभी ऐसा कुम्हला गया कि शरीर एकदम अस्वस्थ हो गया। मन में बार-बार इसी बात की व्याकुल प्रतीक्षा उभरती रही कि रात के नौ बजे का समय कब होगा? किस विशेष क्षण में उस चिट्ठी के अंदर छिपा रहस्य खुल पाएगा? उस समय मुझे कितनी असहनीय मानसिक पीड़ा घेर रही थी, उसे आप समझ नहीं पाएँगे और सही हृदय से बतलाऊँ तो वास्तविकता यह है कि उस पीड़ा की अपार वेदना को आपको समझा सकने की मुझमें भी क्षमता नहीं है।

उस दूसरे दिन भी हम लोगों ने प्रात:कालीन पाली में यथासमय पहुँचकर मल्लिक महाशय की कोठी के दरबार हॉल में बतकही का अपना अड्डा जमाया। ठीक वैसे ही, जैसे कि प्रतिदिन जमाया करते थे। उस दिन भी विपिन ने शाही फर्शी का विशाल हुक्का सजाकर उसकी लंबी नलकी का ऊपरी सिरा मल्लिक महाशय के चित्रांकित मुख के होंठों से सटाया। वसंत भाई साहब ने रोज की तरह ही अपना गपाष्टक बघारना शुरू कर दिया। सुधन्य और वीरेश भी अपनी नित्य-नैमित्तिक भूमिका को ठीक-ठीक पहले की ही तरह निभाते चले गए। परंतु मैं उस दिन पहले की भाँति पूरी तरह मन लगाकर सार्थकनिरर्थक, जो कुछ भी बने, बतकही नहीं कर सका। कारण यह था कि मेरा मन काम में न लगकर केवल उस चिट्ठी की ओर ही लगा हुआ था।

वैसे उस दिन भी हमारे जलपान, भोजन-छाजन के लिए सारी सामग्री पहले की तरह ही यथासमय यथामात्रा में आई। हमें आदरपूर्वक खिलाया-पिलाया गया। अड्डेबाजी का समय पूरा हो जाने पर हम चारों के चारों जन यथासमय अपने-अपने निवासस्थान के लिए विदा हो गए। मुझे जो एक विशेष प्रकार की चिट्ठी मिली है, इस बात की चर्चा भी मैंने किसी से नहीं की। उस दिन साँझ वेला में भी मल्लिक महाशय की कोठी की अड्डेबाजी में भाग लेने के लिए पहले की भाँति ही गया। फिर उसी घटना की फिर से पुनरावृत्ति हुई।

इस सबके सामान्य रूप से चलते रहने पर भी मेरा अपना मन बराबर ही ज्योति-सिनेमा हॉल के सामने पहुँचने के लिए छटपटाता रहा था। मेरे मन में बस यही एक भाव बराबर उभरता रहा कि जिससे ऐसा लगता, जैसे कि उस दिन दुनिया की किसी भी घड़ी से रात नौ बजने के समय के हो जाने की जानकारी मिलेगी ही नहीं! उस दिन रात के नौ बजेंगे ही नहीं! बतकही में मन न लगाकर मैं केवल बार-बार लगातार घड़ी की ओर ही निहारता रहा था और बस यही देख रहा था कि घड़ी की सुइयों की स्थिति के अनुसार कितना बजा है!

"बतकही की जमी हुई महफिल समय पूरा हो जाने पर एक समय उठ गई। कुछ व्यग्रतावश बसंत भाई साहब के सामने जाकर मैं बोल पड़ा-'अब मैं चलूँ भाई साहब। आज मुझे जल्दी ही पहुँच जाने की बाध्यता है।'

बसंत भाई साहब ने स्वीकृति जताते हुए कहा, 'हाँ, ठीक है, जाओ।' तब मैंने घड़ी की ओर जो देखा तो पाया कि आठ तो बज गए हैं। अब और देर करने से काम नहीं चलेगा। अत: जो बस सामने आई, उसी में उछलकर चढ़ गया। बस अपनी सामान्य रफ्तार की अपेक्षा काफी तेजी से चल रही थी, परंतु उस वेला में मेरे अपने मन की अवस्था ऐसी थी कि मुझे लग रहा था कि बस बहुत ही धीमे-धीमे घिसट रही है।

उसके बाद तो जैसे ही 'ज्योति-सिनेमा हॉल' के सामने बस पहुँची, मैं एक ही कुदान में कूदकर सड़क पर उतर गया। वहाँ फिर घड़ी की ओर देखा। पाया कि अभी साढ़े आठ ही बजे हैं। फिर तो सड़क किनारे के पैदल पथ पर खड़ा हो प्रतीक्षा करने लगा। समय तो अपने स्वाभाविक रूप में बढ़ रहा था, मेरे लिए ऐसा लग रहा था कि अब वह बीतना ही नहीं चाहता, मानो उस दिन अब नौ का समय होगा ही नहीं।

अपनी दृष्टि जो इधर-उधर दौड़ाई तो यकायक बसंत भाई साहब दिखाई पड़े। उन्हें देख लेने पर मैंने उनके सामने पड़ना उचित न मानकर, दूसरी ओर मुँह फेरकर उन्हें न देख सकने का आभास देते हुए उनसे बच निकलने की इस कोशिश में इधर-उधर निकल ही रहा था कि उसके पहले ही बसंत भाई साहब ने मुझे अच्छी तरह देख लिया। दूर से ही पुकारते हुए बोले, 'क्यों रे अनिमेष! यह तू ही है न! तो तू यहाँ, इस जगह पर इस समय कैसे उपस्थित है रे?'

उनके इस प्रश्न के उत्तर में मुझे क्या कुछ कहना उचित होगा? इसका कोई ठोस आधार न समझ पाने पर मैंने उत्तर देने की जगह उन्हीं से प्रश्न पूछ दिया, 'भाई साहब आप? मगर इस वेला में, इस स्थान पर आप क्यों?'

बसंत भाई साहब ने समझाया, 'यहाँ पर मेरा एक अति आवश्यक काम आ पड़ा था, परंतु तू इस जगह क्यों आया है रे?'

'अब तो मुझमें भी हिम्मत आ गई थी; उसी सुर में कह उठा, 'मेरा भी एक काम था।'

'कौन सा काम?'

मैंने कहा, 'एक व्यक्ति मुझसे भेंट करने की गरज से यहीं पर आएँगे।' मेरी बात अभी पूरी भी नहीं हो पाई थी कि तभी सुधन्य वहाँ आ उपस्थित हुआ। उस वेला में वहाँ सुधन्य को आया देख तो हम दोनों ही अवाक् रह गए। अब हमने आगे बढ़ उसी से प्रश्न किया, 'अरे सुधन्य! तू? तू यहाँ क्या करने आया है रे?'

"हमारे प्रश्न का उत्तर देने की जगह सुधन्य ने उलटे हम दोनों से ही सवाल पूछा, 'तुम लोग यहाँ कौन सा विशेष प्रयोजन सिद्ध करने आ पहुँचे हो?'

उसके इस सवाल का हम लोग कोई जवाब दे पाते कि उसके पहले ही वीरेश वहाँ आ पहुँचा। उसके हाव-भाव से स्पष्ट लगा कि उस वेला में, उस स्थान पर हम लोगों को देखकर उसे अतिशय आश्चर्य हुआ है। इधर हम सबकी भी दशा ऐसी ही थी कि उसे वहाँ देख हम सब भी उतने ही आश्चर्यचकित हो उठे थे।

तो महाशय! जरा आप उस घड़ी की, उस परिस्थिति पर एक बार गंभीरता से विचार कर देखें तो उस समय हम सभी लोगों की अवस्था कैसी व्याकुलता भरी हो उठी थी? सभी के मन अंदर-ही-अंदर उद्वेलित हो रहे थे। चाहकर भी हम में से कोई किसी दूसरे से असली घटना बतला सकने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था। जबकि उस घड़ी तक तो हम चारों-के-चारों ही भली प्रकार जान चुके थे कि हम चारों जनों को ठीक वही एक चिट्ठी दी गई है। सभी को एक ही निर्देश दिया गया है। उस चिट्ठी में सभी के लिए एक ही निर्देश लिखा हुआ है-'ज्योति-सिनेमा हॉल' के सामने उस दिन की रात को नौ बजे पहुँचकर खड़े रहने का।

उस समय तक तो हम सभी-के-सभी उस निर्देश के मर्म को समझ चुके थे कि हम लोगों को हमारी सेवकाई, माने बतकही की उस नौकरी से निकाल बाहर कर भगा देने के लिए ही वह चिट्ठी हरेक को लिखी गई थी। इतनी बुद्धिमत्ता भरा यह काम निश्चय ही हमारे अन्नदाता मल्लिक महाशय के पुत्र की श्रीमती, यानी कि बहूरानी का ही है। ऐसा करने का एकमात्र उद्देश्य हमें सेवकाई से हटा देना ही है। सीधे-सादे ढंग से नौकरी से निकाल बाहर करने की जगह बड़ी बुद्धिमानीपूर्वक इस घुमावदार तिरछे रास्ते का सहारा लिया गया है, जिससे कि-'साँप भी मर जाए, और लाठी भी न टूटे।"

अनिमेष बाबू अबकी बार ठहर ही गए। एकदम चुप। फिर तो मुझे ही बोलना पड़ा। मैंने पूछा, "उसके बाद? क्या हुआ उसके बाद? कहते जाइए न!"

अनिमेष बाबू ने बतलाया-"उसके बाद फिर और क्या होना था! उसके बाद तो मैंने कोलकाता में अपने जीवन की भूमिका पूरी तरह बिता-बितूकर वहाँ का अध्याय हमेशा के लिए बंद कर दिया और यहाँ इस जगह जबलपुर चला आया। मैंने जो इतने सारे वर्षों तक का समय उस सेवकाई (नौकरी) में बिताया था, अन्यान्य नौकरियों की तरह उसकी कोई पेंशन-वेंशन तो है नहीं। कोई प्रोविडेंट-फंड भी नहीं है। वैसी नौकरी से सेवा-निवृत्ति होने पर जब कुछ भी मिल पाने की कोई व्यवस्था ही नहीं तो फिर वहाँ रहता भी कैसे? इसी से अपने काकाजी के बेटे, माने अपने उस चचेरे भाई के यहाँ आकर आश्रय लिया। जिस समय मैं यहाँ पहुँचा था, तब तक मेरे उस चचेरे भाई का विवाह नहीं हो पाया था। विवाह कर लेने का विचार भर अब पक्का होने लगा था। विवाह करने की प्रस्तुति में ही उसने यह छोटा सा मकान बनवा लिया था। यहाँ वह बड़े आराम से रह रहा था। सो मैं भी आकर उसके साथ मजे से रहने लगा, परंतु मेरे यहाँ आने के कुछ समय बाद ही वह मेरा इकलौता चचेरा भाई एक दिन अचानक ही मर गया। उसकी आकस्मिक मृत्यु हो जाने के बाद से उसके द्वारा बनवाए गए इस मकान में मैं ही निवास कर रहा हूँ।

"अपने पहले के सारे जीवन भर तो मैंने बातें करने की ही, गप्पे हाँकने, बतकुच्चन करने की सेवकाई की है। परंतु आज हालत ऐसी हो गई है कि अच्छी-भली आवश्यक बात करने के लिए किसी आदमी को अपने पास नहीं पाता हूँ। कोई आदमी मेरे पास आता भी नहीं है। मैं भी किसी व्यक्ति के पास नहीं जा पाता हूँ। एक-दूसरे की आलोचना-प्रत्यालोचना भी करने के लिए अथवा किसी व्यक्ति से कुछ विचार-विमर्श करने के लिए अथवा कुछ कहा-सुनी करने के ही प्रयोजन से, किसी भी रूप में बातें कहकर मन की भावनाएँ दूसरे को सुनाकर जी हल्का कर लेने भर के लिए भी आज किसी को नहीं पाता हूँ कि उससे बातचीत करूँ! अनेक वर्ष इसी प्रकार बीत जाने के बाद आज आप मेरे यहाँ पधार गए, उसी का सुफल हुआ कि इतनी देर तक बातें कह-सुनाने लायक सहृदय व्यक्ति को पा सका।"

उनकी भावनाओं को समुचित सम्मान देते हुए मैंने कहा, "जिस होटल में मैं ठहरा हुआ हूँ, उससे आज ही पहली बार बाहर निकला हूँ, उसी के परिणामस्वरूप आपके साथ बातचीत कर पाया। होटल से निकला था इस नगर को देखने-समझने के लिए, परंतु आपको जो देखा तो सारी पृथ्वी, समूचे विश्व को ही देखने-समझने का पूरा-का-पूरा दर्शन कर लेने का महान् कार्य संपन्न हो गया।" ।

अनिमेष बाबू गंभीर कंठ से कहने लगे-“आज जीवन की इस घड़ी में पहुँचकर अपने मन में केवल यही अभिलाषा जगती है कि यदि फिर से इस पृथ्वी पर, इस माँ वसुंधरा के किसी भी स्थान पर जनमने का अवसर पाऊँ, तो अपने उस बार के जन्म में ऐसा सुयोग पाऊँ कि विवाह करूँ। इसी जन्म की समुचित वेला में पहले ही अगर विवाह कर लिया होता तो आज अपने जीवन की अपराह्न-बेला की इस पच्चासीवें वर्ष की अवस्था में मुझे इस प्रकार निपट अकेले-अकेले ऐसा संगी-साथी विहीन नीरस एकाकी जीवन नहीं काटना पड़ता। अब तक तो मेरा घर बेटे-बेटियों, नाती-नतिनियों से भरा-पूरा गमगमाता रहता। बुढ़ौती की इस ढलती उम्र में मुझे सहारा देने, मेरी देखभाल करने के लिए कुछेक लोग अवश्य मेरे पास होते। हाय-रे-हाय! उस समय मैंने कितनी भयानक गलती की थी! उसका परिणाम यह है कि आज उसी गलती की वजह से मुझे इतनी यंत्रणा भोगनी पड़ रही है। उस वेला में विवाह करने, घर-गृहस्थी का प्रेम पाने की जगह जैसे-तैसे रुपए कमाने, धन इकट्ठा करने का ही शौक था; सो जीवन के अमूल्य पैंसठ वर्ष बस बतकही करके-बात-बात पर बातें कर-करके मैंने नष्ट कर दिए हैं। जबकि आज स्थिति यह है कि मेरी बात सुननेवाला भी कोई नहीं है। आज एक भी ऐसा आदमी मेरे भाग्य में नहीं जुट रहा, जिससे बातचीत कर सकूँ।

“आज के दिन, आप महाशय, जो अचानक ही मेरे आवास पर आ पधारे, तो उसी सौभाग्य से बहुत लंबे समय के बाद आज का दिन बड़े आनंदपूर्वक बीता। बहुत अधिक समय तक बतकही करने का सुयोग पा गया। जीवन में बस आज, इसी क्षण पहली बार हृदय से अनुभव कर पाया हूँ कि रुपए-पैसे, धन-संपत्ति, वैभव-ऐश्वर्य की अपेक्षा प्रेम-प्रीति अधिक मूल्यवान है।"

उसके ठीक दूसरे दिन ही जबलपुर छोड़कर मैं वापस चला आया। इस बार की जबलपुर यात्रा में आने तथा होटल में ठहरने के किराए वगैरह में लगभग पाँच हजार रुपए खर्च हो गए थे। मेरे जैसे व्यक्ति का इतना रुपया खर्च हो जाना निश्चय ही बहुत चिंता का विषय हो जाता है। परंतु जबलपुर से जब वापसी की यात्रा करने लगा, तो उस वेला में मेरे मन में ऐसी अनुभूति हुई, मानो इस यात्रा में मुझे पाँच लाख रुपए का लाभ प्राप्त हो गया हो! ऐसी अनुभूति का आधारभूत कारण यह है कि हमेशा से ही मेरी यह पक्की धारणा रही है, कि धन-संपत्ति, रुपए-पैसे की अपेक्षा प्रेम-प्रीति अधिक मूल्यवान वस्तु है।" अपनी इस यात्रा की फलश्रुति रूप में अपनी उस धारणा का ही समर्थन अब और एक बार मैंने पा लिया उन अनिमेष बाबू की जीवनगाथा सुनकर के।

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